गुरुवार, 8 मार्च 2018

एक बोध कथा


कन्हैया को तो अपनी माँ की कोई धुंधली सी याद भी नहीं है. पिता हनुमान प्रसाद को ही उसने माँ और बाप की दोहरी भूमिका में पाया था, जिन्होंने उसे अपने लाड़-प्यार में सरोबार करके बड़ा किया, पढ़ाया, लिखाया, तथा बहुत प्रयास करके अपनी एवज में ही नौकरी पर भी लगाया. अनेक अभावों के होते हुए भी पिता-पुत्र का ये परिवार सुखद भविष्य की अनेक कल्पनाएँ किया करता था, किन्तु सारा समीकरण तब बदल गया जब कन्हैया के जीवनसाथी के रूप में सुनयना का वरण हुआ तथा नजदीकी लोगों के सहयोग से भव्य विवाहोत्सव भी हो गया.

हनुमान प्रसाद बड़े मनमौजी किस्म के व्यक्ति हैं, पर उन्होंने अपने दिल के दर्द कभी भी उजागर नहीं होने दिए; पत्नी के देहावसान के बाद वे अकेलेपन का दंश तो झेलते रहे, पर उनको अपने बुढ़ापे की ज्यादा चिंता रहती थी. अपने मन को समझाने के लिए वे अकसर रामचरितमानस की ये पंक्तियाँ दुहराते रहते थे, ‘होई है सोई जो राम रचि राखा....” वे सोचते थे की पुत्रवधू के आ जाने पर उनका संसार फिर से गुलजार हो जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं क्योंकि उसके भी नौकरीपेशा होने से उनका एकाकीपन बना ही रहा. सुनयना एक बड़े घर की बेटी है. संस्कारों से ‘मॉडर्न’ है, और पिछले पांच सालों से राज्य सरकार के एक कार्यालय में बतौर कंप्यूटर आपरेटर कार्यरत है.

कन्हैया अपनी तीस वर्ष की उम्र तक माँ, बहन, या किसी स्त्री पात्र के सानिध्य में नहीं रहा इसलिए सुनयना का उसके जीवन में पदार्पण उसकी अप्रतिम आसक्ति का कारक बनना स्वाभाविक था. वह पत्नीप्रेम में इस कदर डूबा रहने लगा कि वृद्ध बीमार पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने में लापरवाह हो गया. एक दिन जब सुनयना ने उसको कहा कि “बाबू जी की सेवा हम लोग नहीं कर पायेंगे, क्यों ना उन्हें किसी अच्छी सुविधा वाले वृद्धाश्रम में भरती करवा दें?” तो कन्हैया को उसकी ये बात अमृतवाणी सी लगी और तदनुसार उसने अपने शहर में ही बरेली रोड पर स्थित अनाथाश्रम + वृद्धाश्रम की तलाश कर डाली, और आवश्यक रकम भरकर सब कागजी खानापूर्ति करने के बाद पिता को इस नई व्यवस्था के बारे में बताया.

हनुमान प्रसाद बेटे के इस प्रस्ताव को सुनकर सन्न रह गए. कई दिन-रातों तक सोचने के बाद उन्होंने बहू-बेटे की इस व्यवस्था पर अपनी स्वीकृति दे दी. एक शुभ दिन वे अपना जरूरी सामान लेकर आश्रम में आ गए; बेटा जरूर कुछ सदमे में लग रहा था, पर बहू बहुत खुश थी.

इस आश्रम के संचालक पद्मश्री गोयल साहब को पिछले चालीस वर्षों से बहुत प्रसिद्धि मिली हुयी है. उनकी धर्मपत्नी इस महान सामाजिक कार्य में कंधे से कंधा मिलाकर उनकी सहयोगी रही हैं. इस आश्रम ने अनेक मजलूम व मजबूर महिलाओं, बच्चों, व वृद्ध लोगों को आश्रय दिया है. राज्य के समाज कल्याण विभाग का दावा है कि यह आश्रम इस राज्य का सर्वोत्तम संस्थान है, जहां मानवीय संबंधों को इस तरह बने रखा जाता है कि संवासी/संवासिनियाँ अपने घर-परिवारों को याद नहीं किया करते हैं.

कन्हैया और सुनयना पिता से विदा होकर विजयी मुद्रा में लौट पड़े, पर थोड़ी दूर जाने के बाद कन्हैया को लगा कि पिता की नियमित दवाओं के बारे में आश्रम के मैनेजर को बताना भूल वह गया था. अत: लौट कर आये. उसने पाया कि उसके पिता गोयल साहब से कुछ अंतरंग वार्तालाप में व्यस्त हैं. कन्हैया ने ये माजरा देखा तो सामने जाकर पूछा, “क्या आप एक दूसरे को पहले से जानते हैं?”

श्री गोयल बोले “हाँ हमारा बहुत पुराना परिचय है, आज से तीस बरस पहले ये यहाँ से एक नवजात अनाथ बच्चे को गोद लेकर गए थे.”

कन्हैया को यह बात अंत:करण तक गोली की तरह लगी क्योंकि उसको अहसास हो गया कि वह अनाथ बच्चा वह स्वयं ही था. उसकी अश्रुधारा बह निकली. पिता के चरण पकड़ कर बैठ गया और वापस घर चलने की गुहार करने लगा.

(इस बोध कथा का सूत्र एक मित्र ने मुझे हवाट्सअप पर भेजा था, मैंने इसे अपने शब्दों में पिरोया है.)

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