रविवार, 27 मई 2012

कालान्तर

दीर्घजीवी अमीचंद और दुलीचंद दो वयोबृद्ध सगे भाई, उम्र क्रमश: ८८ वर्ष व ८५ वर्ष, नवंबर की गुनगुनी धुप में अपने जुडवाँ घरों की संयुक्त बाल्कनी में गंभीर मुद्रा में बैठे हुए हैं. ये दोनों भाई स्वतंत्रता सेनानी भी रहे हैं, पर इन्होंने अन्य नेताओं की तरह उसकी कीमत भुनाने का प्रयास कभी नहीं किया.

इन्होंने वह जमाना देखा था जब देश गुलाम था और आम आदमी में आजादी पाने का जूनून था, दोनों ने अपनी जवानी उसी जूनून में बिताई थी. बहुत उम्मीदों, महत्वाकाक्षाओं के साथ निरंतर देश सेवा को अवलम्बन बना कर महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए ईमानदारी का जज्बा रखते हुए कार्य किये. आज जब जीवन के अन्तिम सोपान में हैं तो देश के कर्णधारों के राजनैतिक खेल एवँ उहापोह को देख-सुन कर बहुत व्यथित हैं.

जागृत मानस चेतना वाले इन दोनों भाईयों ने अपने पुराने साथियों का देश के हितार्थ बलिदान देखे थे, और आज के बेशर्म होते चरित्रह्रास भी देख रहे हैं. कभी कभी तो यह सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि क्या यही सब देखने-प्राप्त करने के लिए हमने जेलों में यातनाएं सही थी.

ये दोनों भाई जमींदार हरिचंद के कुलदीपक थे. पढ़ने में कुशाग्र और स्नेहिल पिता के नज़रों में भविष्य के राष्ष्ट्रीय पटल के अभिनेता थे. हरिचंद की सामंती सोच यह थी कि अंग्रेजी हुकूमत स्थाई रहेगी, कॉग्रेस के आन्दोलन व हुल्लड़बाजी को उन्होंने गुंडागर्दी का नाम दे रखा था. वे भविष्य के बारे में बहुत निराशात्मक विश्लेषण किया करते थे. बेटों को सिविल सर्विस में भेजना चाहते थे. उनको अफ़सोस तब हुआ जब दोनों बेटे उस समय की राष्ट्रीय धारा में शामिल होते चले गए और पिता की मर्जी के विरुद्ध नई चेतना का हिस्सा बन गए.

अंग्रेजी हुकूमत का हरिचंद पर बहुत दबाव था. अत: बड़े बेटे अमीचंद को उन्होंने बहुत तरीकों से समझाया भी था लेकिन अमीचंद को उनकी बातें रास नहीं आई. एक दिन गुस्से के उबाल में आकर हरिचंद ने अमीचंद से सम्बन्ध तोड़ने की घोषणा कर दी ताकि प्रशासन की तरफ से उनका अपमान बन्द हो जाये.

छोटा बेटा दुलीचंद को उन्होंने बैरिस्टर बनाने के मकसद से इंग्लेंड भेजा हुआ था. उनको उम्मीद थी के वह कांग्रेसी आन्दोलन से दूर रहेगा, लेकिन उनकी आशाओं के विपरीत जब वह अधूरी पढाई के बीच ही भारत लौटा तो मालूम पड़ा कि उसके संपर्क लाल सलाम वाले कामरेडों से जुड़े हुए थे. अंगरेजी खुफिया एजेंसियों को इसकी पूरी खबर पहले से ही थी.

जमींदार जी का पूरा सपना मानो ध्वस्त हो गया था, साथ ही उनकी अपेक्षाओं के विरुद्ध सन १९४७ को देश बँटवारे के साथ आजाद हो गया. दोनों बेटे दो-दो बार जेल की हवा खाकर बाहर आ गये थे. हरिचंद की सोच में ये सब अनहोनी हो रही थी. नया संविधान बना, तदनुसार व्यवस्थाएं व राष्ट्रीय चुनाव हुए. ये नई परिकल्पना थी अंग्रेजी हुकूमत के समर्थक हरिचंद जमीदार जैसे लोग हतप्रभ थे और कुढ़ कर आजादी के दीवानों को अभी भी अपने बयानों में लुच्चा-लफंगा करार देते थे. पुराने राजसी दिनों को याद करते थे और इसी गम में नई बयार को झेलते हुए एक दिन हरिचन्द असमय ही विदा हो गये.

इन साठ वर्षों में, दोनों भाईयों ने कई प्रशासनिक जिम्मेदारियां निभाई, अपनी अपनी गृहस्थी से भी जुड़े, समाज ने व सरकारों ने उनको यथोचित सम्मान भी दिये, लेकिन दोनों भाई कभी भी विधानसभा या लोकसभा के लिए चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं रहे. पिछले कुछ वर्षों से दोनों भाई एक दूसरे के पूरक बन कर आपस में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार किया करते हैं. देश में फैले अराजकता, लूट-खसोट व भ्रष्टाचार पर चर्चा करते हैं तो बहुत दु:खी हो जाते हैं. सोचते है कि क्या ये सब प्राप्त करने के लिए उस वक्त लोगों ने अपनी जवानी दाँव पर लगाई थी? हमारा राष्ट्रीय चरित्र और कितना गिरेगा? आदि आदि.

वे देख रहे हैं कि पिछले कुछ समय से रामदेव योगी और समाजसेवी अन्ना हजारे अपने साथियों सहित केन्द्र सरकार को गलिया रहे हैं. इनके आन्दोलनों को भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता का जोशोखरोश के साथ समर्थन हासिल है, लेकिन यह बिल्कुल संदेहपरक है कि इस प्रकार की हुल्लड़बाजी किसी अंजाम तक पहुँचा सकती है.

अमीचंद कहते हैं कि ये लोग सत्तारूढ़ गठवन्धन पार्टी को पदच्युत कर सकते हैं, लेकिन प्रश्न ये है कि इनके बाद जो लोग सत्तानशीन होंगे वे इन्ही के डुप्लीकेट होंगे, तब क्या होगा?

प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए दुलीचंद कहते है, हम को आज भी एक लेलिन, माओत्से तुंग, फिदल कास्त्रो या चे ग्वेरा की दरकार है जो सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए नई राजनैतिक व्यवस्था का जाल फैला सके.

इतने में, कुछ पत्रिकाओं व अखबारों की ताजा प्रतियां लेकर अमीचंद का पौत्र सार्थक, जो एक आई.पी.एस. ऑफिसर है, वहां आता है, हंसते हुए कहता है, दादा जी, अब आप राष्ट्रीय मुद्दों पर बहसबाजी करके अपना दिमाग खराब न करें, ये दुनिया है, ऐसे ही चलती है, चलती रहेगी. प्रकृति अपना सामंजस्य खुद बिठा लेती है
                                              ***.

2 टिप्‍पणियां:

  1. ये दुनिया है, ऐसे ही चलती है, चलती रहेगी. प्रकृति अपना सामंजस्य खुद बिठा लेती है.... सहमत होने का मन करता है

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  2. न तो लोगों की सोच बदलने का कोई प्रयास है न व्यवस्था बदलने का। आधी-अधूरी सोच वाले या/और स्वार्थी लोग हर आन्दोलन का नियंत्रण/नेतृत्व झटक लेते हैं। किसी सुधार की उम्मीद बने भी तो कैसे?

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