रविवार, 8 जुलाई 2012

नेकी अभी ज़िंदा है

बन्धु कानपुर के देहात में कहीं पैदा हुए थे. बचपन में ही अनाथ हो गए थे. किसी भले आदमी ने उनको शहर के अनाथालय मे भर्ती करा दिया था. वहीं पले-बढे. उन्होंने गरीबी भुगती थी, करीब से देखी भी थी. अनाथाश्रम के संचालक ने ही उनको दीनबंधु नाम दिया था. उन्होंने इस नाम को सार्थक करते हुए अपना आधे से ज्यादा जीवन कानपुर के चमड़ा उद्योगों मे कार्यरत मजदूरों की सेवा शर्तों को सुधारने व उनके हकों की लड़ाई मे बिता दिया. वे आजीवन कुवांरे रहे. वे स्वयं भी एक चमड़े के कारखाने में कभी कर्मचारी रहे थे. लाल झंडे के बैनर तले मजदूरों को संगठित करते रहे. उनका एक जुनून सा बन गया था कि जहाँ भी अन्याय अत्याचार की बू आये वहाँ आगे होकर मदद देने पहुँच जाते थे. उन्होंने प्रांतीय नेताओं व वामपंथी संसद सदस्यों की मदद से एक सार्वजनिक मजदूर कार्यालय की स्थापना की, जहाँ कोई भी मेहनतकश अपनी तकलीफों के लिए सलाह मशविरा तथा हर तरह की मदद के लिए पहुँच सकता था. उनकी इस परदु:ख निवारण भावना को देखते हुए सभी लोग उनको गांधीवादी कामरेड बन्धु कहने लगे थे.

सं १९६२ मे भारत की सीमाओं पर चीनी आक्रमण के बाद सभी वामपंथी बहुत बदनाम किये गए. उनको रूस व चीन के एजेंट के रूप मे देखा जाने लगा. उनका आपस में भी वैचारिक तथा संगठनात्मक ढाँचे में विभाजन हो गया. वह एक तरह से थूकमपच्ची का दौर था. सेठों/कारखानेदारों की लॉबी के लोगों ने वामपंथी विचारों को देश द्रोह तक की संज्ञा दे डाली थी. उनकी जड़ उखाड़ने के सभी प्रयास किये गए. उस दौर मे ट्रेड आन्दोलन भी झगडों की भेंट चढ़ गया था.

जब खराब समय आता है तो अपने भी पराये हो जाते हैं. ईमानदारीपूर्वक रहते हुए भी बन्धु के कुछ भृष्ट साथी उनको संगठन से हटाने का षडयंत्र रचते रहे. परिणाम यह हुआ कि खुद के द्वारा स्थापित सार्वजनिक मजदूर कार्यालय के सभी जिम्मेदार पदों से उनको हटा दिया गया. बन्धु का मन बहुत खिन्न हो गया, उनको इस प्रकार की राजनैतिक उठापटक का कोई अंदेशा नहीं था. ये बात जरूर थी कि उनके अनेक मुरीद थे क्योंकि उन्होंने लोगों की निस्वार्थ सेवा/मदद की थी. बन्धु को इस बीच नया अनुभव यह हुआ कि जिन लोगों की उन्होंने भरपूर मदद की थी, वे भी किनारा करके चलने लगे थे.

बहुत मानसिक उथल-पुथल के बाद वे कानपुर को छोड़ कर किसी को बताए बगैर चले गए. राजस्थान के भिवाड़ी, अलवर में एक पूर्व परिचित के पास पहुँच गए. कहते हैं कि चोर चोरी करना छोड़ सकता है पर हेराफेरी करना नहीं भूलता है. ये कहावत बन्धु पर भी फिट बैठती थी. उन्होंने वहाँ देखा कि औद्योगिक क्षेत्र के कामगारों की वहाँ भी लगभग वही स्थिति यही जो कि उन्होंने कानपुर में देखी थी. मालिक लोग अपने कारखानों मे कर्मचारी युनियन नहीं बनने देते थे, अगर कहीं कोई चूं-चपड़ करे तो जायज-नाजायज तरीके से उसकी छुट्टी कर दी जाती थी. सरकारी निगरानी मशीनरी में बैठे लोग मालिकों ने पाल रखे थे. मालिक खूब मुनाफ़ा कमा रहे थे, पर मजदूरों का हिस्सा उनको नहीं दिया जा रहा था. बन्धु ने जन जागरण के लिए नित्यप्रति मजदूरों को उनके अधिकारों के बारे मे बताना शुरू किया. एक सस्ते से मकान के दुमंजिले में किराए पर रह कर अपना डेरा बनाया. उधर कारखानेदारों की लॉबी को ये खबर मिल चुकी थी कि एक कामरेड कानपुर से आकर लोगों को उनके विरुद्ध भड़का रहा है. उनकी यूनियनें बनवा रहा है कुछ अतिवादी रूढीवादी किस्म के मालिक और उनके नुमाइंदों ने प्लान बनाया कि बन्धु को ठिकाने लगाने का इन्तजाम किया जाये. ताकि वह दृश्य से गायब हो जाये. एक नामी अपराधी को सुपारी दी गयी, जो कि कई बार जेलों की हवा खा चुका था. वह अपराध की दुनिया में अपना दबदबा बनाये हुए था, नाम था दमालू खान.

दमालू खान का इतिहास यह था कि वह भी किसी समय कानपुर के एक चमड़ा उद्योग मे बतौर मैकेनिक काम कर चुका था, उसे चोरी के आरोप में नौकरी से निकाला गया था. तब कुछ समय तक वह मजदूर कार्यालय से मदद की भी अपेक्षा करता रहा था, पर मुकदमा लंबा चला तो उसने बन्दूक उठा ली और नामी बदमाशों की गैंग में शामिल हो गया.

उसको सुपारी के आधे रुपयों के साथ बन्धु का एक बर्तमान फोटो और डेरे की तफसील दे दी गयी. दमालू खान बड़ी होशियारी से बन्धु के ठिकाने पहुँच गया और दुमंजिले की छत पर दुबक कर रात में बन्धु के घर लौटने का इन्तजार करने लगा. उसका इरादा था कि बन्द कमरे में ही गोली मार कर उनको शांत कर देगा.

रात ९ बजे करीब बन्धु के कमरे की बत्ती जली, दमालू खान ने रौशनदान से अन्दर झाँका, निशाना लगाने से पहले उसको ऐसा लगा कि इस व्यक्ति को पहले कहीं देखा है. उसकी स्मृति ताजा हो गई कि ये तो अपने बन्धु हैं, जो कानपुर मे हरदिल अजीज थे खुद दमालू खान को बेरोजगारी के दिनों मे उन्होंने कई बार अपने साथ खाना तक खिलाया था. उसके केस में मदद करने का भी भरोसा उन्होंने दिया था. ये तो दमालू खान की अपनी जल्दबाजी थी कि वह कानपुर से अपनी लड़ाई का मैदान खुद छोड़कर बरास्ता आगरा-दिल्ली अपराध की दुनिया में कूद गया था.

दमालू खान को बड़ा झटका लगा वह संभला और सोचने लगा कि गजब हो जाता, मैं एक गरीबनवाज को मारने जा रहा था. उसने अपने आप को धिक्कारा और सीढियां उतर कर उनका दरवाजा खटखटाया.  सामने बन्धु खड़े थे. वह उनके चरणों में गिर गया. अपनी रिवाल्वर एक तरफ फेंक कर तर-तर आँसूं टपकाने लगा.

बन्धु की समझ मे कुछ नहीं आ रहा था. उन्होंने उसे पुचकारा और परेशानी का कारण पूछा. दमालू खान बोल नहीं पा रहा था. थोड़ा संयत होने पर उसने सारी दास्तान कह सुनाई. अपने पर लानत-मलानत कहते हुये माफी मांगता रहा. बन्धु ने उसे गले लगा लिया, उसे देर तक अपने पास बिठाए रखा. रोटी-सब्जी बनाई, उसे भी प्यार से खिलाया.

दमालू खान दूसरे दिन कारखानेदारों के उन नुमाइंदों के पास गया और बोला, आप लोग बड़े गुनाहगार हैं. उस नेक इंसान को मरवाना चाहते हैं, जो इस बेईमानी भरी दुनिया में अपनी तरह का अकेला आदमी बचा हुआ है. दमालू खान उनके द्वारा दी गयी पेशगी की रकम, दो लाख रुपयों, को उनके सामने फेंक कर बाहर आ गया.
                                       ***

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर !! सीख देती रचना.... बधाई.

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  2. क्या बात है वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-935 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  3. प्रेरक प्रसंग ,इसे कहते हैं नेकी कर दरिया में डाल ,बढिया से भी बढिया प्रस्तुति .
    कृपया यहाँ भी पधारें -

    शुक्रवार, 6 जुलाई 2012
    वो जगहें जहां पैथोजंस (रोग पैदा करने वाले ज़रासिमों ,जीवाणु ,विषाणु ,का डेरा है )

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  4. यानी कि दमालू खान नेकी को ज़िंदा रखे है?
    I disagree, Pandey ji.

    एक ख्वामख्वाह का स्पष्टीकरण और- पात्रों के नाम interchange कर दिए जाएँ, तब भी मेरा कमेन्ट ऐसा ही होता:)

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  5. सुन्दर कहानी..नेकी हमेशा ज़िंदा है हर बुराई के जवाब में..

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  6. Awesome! Its genuinely awesome article, I have got much clear idea on the topic of from this piece of writing.
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