बुधवार, 18 सितंबर 2013

बैठे ठाले - ८

मेरे एक मित्र मनीष दयाल ने हाल में फेसबुक पर एक विचारणीय स्टेटस अपडेट डाला था कि "शाहरुख खां की पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ ने पहले ही दिन सात करोड़ का कलेक्शन किया, ऐसी जनता के लिए यदि प्याज का भाव आठ सौ रुपय्र प्रति किलो भी हो जाये तो कम है."

वास्तव में महंगाई की जब चर्चा होती है तो आम लोगों से लेकर मीडिया तक बड़े तल्ख़ शब्दों में सरकार को कोसने में कसर नहीं रखते हैं क्योंकि सभी उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें पिछले वर्षों में बेतहाशा बढ़ी हैं. मुझे याद है सन १०६० में जब मैं नया नया नौकरी पर लगा था तो एक रूपये का ढाई सेर दूध और एक रूपये का चार सेर गेहूं आटा था. ये दीगर बात थी कि वेतन एक सौ बीस रूपये ही होता था. और भी बहुत पीछे जाएँ तो बताते हैं कि दिल्ली का लालकिला बादशाह शाहजहां ने कुल साठ लाख में बनवाया था. आज छतीसगढ़ में मोदी जी के लिए डॉ. रमन ने नकली लालकिले का जो छोटा सा बुर्ज बनवाया उसकी लागत दो करोड़ रुपयों से ज्यादा बताई जा रही है.

सन १९६० में हमारी पूरी बस्ती में केवल एक मोटरसाइकिल जीवन बीमा के विकास अधिकारी के पास थी, जो कि उसने दो हजार रुपये विभागीय लोन लेकर खरीदी थी. आज हर गली में महंगी से महंगी गाडियां खरीदने की होड़ लगी हुई है. पार्किंग की जगह नहीं मिल पा रही है. सभी छोटे बड़े शहरों का हाल ये है कि दिन भर जाम की स्थिति बनी रहती है. देश की आर्थिक स्थिति का बंटाधार करने में इस तरह के लक्जरी + अनुत्पादक खर्चों का भी बड़ा योगदान है. जितनी गाडियां उतना ज्यादा पेट्रो-डीजल भी चाहिए.

तब कुल जनसंख्या ४० करोड़ होती थी. अब शायद इतने लोग तो सवा करोड़ के आंकड़ों के साथ अनरजिस्टर्ड होंगे. इस पर देश में वोटों की राजनीति से सब लफड़े झगड़े शुरू है. जहाँ जहाँ आर्थिक सब्सिडी है, वहाँ से सीधे सीधे राष्ट्रीय घाटे में बढ़ोत्तरी हो रही है. अर्थशास्त्री इसे घटाने का उपक्रम करते हैं तो ततैय्या के छत्ते छेड़ने जैसा हो जाता है. आज जो लैपटॉप, साइकिल या मुफ्त अनाज बाँट कर वोटरों को लुभाने का प्रयास किया जा रहा है, ये आगे जाकर कैंसर की बीमारी बनने वाली है. पहाड़ी इलाकों में गाँवों के बीपीएल मे नामित छोटे किसानों ने खेती करने के पारंपरिक काम को कम कर दिया है या छोड़ ही दिया है क्योंकि सरकारी सस्ते गल्ले की सरकारी व्यवस्था उनको आलसी बना रही है. कश्मीर में केन्द्र सरकार ने वर्षों से खाद्यान्न पर ७५% से ज्यादा सब्सिडी देकर वहाँ के लोगों की मानसिकता बिगाड़ चुकी है.जब तक सत्ता की राजनीति है ये लोग खायेंगे भी और गुर्रायेंगे भी.

अब फिर से बड़े चुनाव आने वाले है इसलिए राजनैतिक दलों ने जातीय तथा साम्प्रदायिक झगड़े/दंगे करवा कर अपनी अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी है. बाद में मृतकों के परिजनों को मुआवजे का ऐलान ऐसे होता है, जैसे ये अपने घर से दे रहे हों. भड़काने वाले भाषणों से आग लगा कर हमे ईराक और सीरिया की राह पर ले जाया जा रहा है. यदि अतिवादियों के हाथों में सत्ता आ गई तो हम आज आगे आने वाले समय की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.

अब आप पूछेंगे कि इसका हल क्या है? मेरा उत्तर है कि इसका कोई फौरी हल नहीं है, और ये ऐसे ही चलेगा क्योंकि अपवादों को छोड़कर हम सब स्वार्थी और बेईमान हो चुके हैं. हमारे एक बड़े गांधीवादी ट्रेड युनियन के नेता स्व. रामानुजम कहा करते थे, “जैसे फूल होंगे वैसी ही माला बनेगी.” हाल में संसद ने देखिये दागियों के बारे में सर्वमत से बेशर्मी वाला निर्णय लेकर सर्वोच्च न्यायालय को लात लगाई है. सांसदों या विधायकों के वेतन+सुविधाओं पर बिना किसी बहस या संशोधन के बिल पास हो जाते हैं और कहते हैं कि ये गरीबों के नुमायंदे हैं.

अंत में मैं ये कहने में भी परहेज नहीं करूँगा कि हम भारतीय लोग लोकतंत्र में जीने के काबिल नहीं हैं. धनबल, बाहुबल और जातिबल सब चलेगा, फिर ऐसी ही नयी व्यवस्था होगी, जिसमें आपको भी महसूस होगा कि सिर्फ सड़े बिस्तर पलट दिये गए है.
***

4 टिप्‍पणियां:

  1. लोग बचे ही कहां है सार्वजनिक इकाई के रुप में। हरेक व्‍यक्ति किसी न किसी राजनीतिक दल या पूंजीपति घराने या बाबा मण्‍डली अथवा आंतकी संगठन से जुड़ा हुआ है। कलिकाल है, इसलिए बेहाल हैं।

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  2. यदि अतिवादियों के हाथों में सत्ता आ गई तो हम आज आगे आने वाले समय की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.

    फिर ऐसी ही नयी व्यवस्था होगी, जिसमें आपको भी महसूस होगा कि सिर्फ सड़े बिस्तर पलट दिये गए है.
    ***आखिर भाई साहब इतने निराशावादी स्वर क्यों ?हम लोग तो दूसरों की ख़ुशी ओढ़ के भी जी लेते हैं आदमी की कमसे कम साख तो ठीक हो।

    इस सेकुलर प्रबंध में तो सब तिहाड़ी लाल हैं

    आओ सारे मिलकर देखें ,किस्मत किसकी सोहनी है ,

    दिल्ली के दंगल में अब तो कुश्ती अंतिम होनी है।



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