गुरुवार, 3 नवंबर 2016

समय बलवान

श्रीयुत रमेश कुमार सूरी जी ने एक "Just an Awareness Message" फेसबुक पर डाला है. इस विचारोत्तेजक लेख को स. महेंद्रसिंह जी ने शब्दश: "मेरे विचार" शीर्षक से पुन: प्रकाशित करके आज के हमारे बदलते सामाजिक परिवेश को दर्पण दिखाया है. हम क्या थे और क्या हो गए हैं? दीपावली जैसे राष्ट्रीय+धार्मिक त्यौहार पर लोगों का स्नेह मिलन एक औपचारिकता तक सीमित होता जा रहा है.

मैट्रोपोलिटन शहरों में ही नहीं छोटे कस्बों व गावों में भी अब सामाजिक ‘कल्चर’ बिलकुल बदल गया है. लोगों की जिन्दगी ‘फास्ट’ व ‘कॉस्मेटिक’ होती जा रही है. भारतीयता की सनातनी धरातल पर पाश्चात्य का रंग छा गया है. खानपान से लेकर पहनावे तक, साहित्य तथा कला से लेकर सामाजिक/पारिवारिक व्यवहार अपरिमित ढंग से बदल गया है, और बदलता जा रहा है. कुछ समय पहले जब टेलीवीजन हमारे बैठक अथवा बेडरूम घुसा था तो हम इसे ही नई सोच व परिवर्तन के लिए कोसा करते थे, परन्तु अब तमाम संचार माध्यम हमारी ‘नवीनता’ के लिए जिजीविषा को दोष दे रहे हैं, जो निरंतर जारी है. हमको अपनी ‘लाइफ स्टाइल’ समय के साथ बदलनी होगी.

बुढ़ा गयी हमारी पीढ़ी पहले के जैसे संबंधों को याद कर होली, दीवाली, ईद, या मौसमी उत्सवों पर ‘मिलन सुख’ को अब तरसती रहती है. अब बच्चों के पास भी इतना समय नहीं रहता है कि माँ-बाप से सकूंन पूर्वक आशीर्वाद ले सके. सिर्फ दस्तूर निभाये जा रहे हैं. अपवाद छोड़कर चोर-चकार भी हाईटेक हो गए हैं, सीधे साइबर डाका डालने लगे हैं. सारा चरित्र बदल गया है.

मैं आदरणीय सूरी जी का दर्द समझ रहा हूँ. उन्होंने अपने जीवन का ‘प्राइम टाईम’ कारखानों के कैम्पसों में स्नेहिल वातावरण में बिताया है, जिसे भुलाना मुश्किल है. मैं भी रिटायरमेंट के बाद यहाँ हल्द्वानी शहर (नैनीताल) के आउटस्कर्ट में आधुनिक गाँव गौजाजाली में निवास कर रहा हूँ. अधिकतर लोग पूर्व फ़ौजी या मेरी तरह परदेस से नौकरी करके घर लौटे हैं. हमने अपनी गली-मोहल्ले में होली-दिवाली पर सामूहिक रूप से शुभ कामनाऐं देते हुए हर घर-परिवार पर दस्तक देने की परम्परा डाल रखी है. पुरुष व महिला वर्ग उत्साह के साथ इसमें शामिल होते हैं. जाहिर है, मिष्ठान्न व मनोरंजन से ये त्यौहार परिपूर्ण रहते हैं.

जो लोग अपनी जमीन से दूर हो गए हैं, या अब जिनकी सामाजिक जड़ें नई जगहों पर  प्रत्यारोपित हुई हैं, उनका दर्द शब्दों में व्यक्त हो सकता है, पर घड़ी की सुई कभी भी पीछे को नहीं लौटेगी. यही प्रकृति का नियम है और यही नियति है. "समय बड़ा बलवान है" यह मानकर चलना चाहिए.
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