सोमवार, 29 अप्रैल 2013

मशक पुराण

इस्लाम धर्म में वर्ण व्यवस्था या जाति प्रथा तो नहीं है, पर जो आदमी जैसा पेशा करता है या जिसका जो खानदानी धन्धा होता है, उसी के अनुसार उसकी जाति बन गयी है. कुछ देश-काल का भी प्रभाव रहा है क्योंकि मुग़ल काल में बहुत से हिन्दुओं का धर्मांतरण हुआ था और उनके बहुत सी रीति रिवाज व आस्थाएं छूट नहीं पाए.

चाचा जलेब खां अब तो अस्सी साल की उमर पार कर गए हैं. वे हमारी म्युनिसिपैलिटी में भिश्ती के पद पर तैनात थे, उनके अलावा और पाँच लोग थे जो चमड़े के मशकों में कुँवे, बावडी, तालाब, या नदी से पानी भर के पीठ-कंधे में लाद कर लाते और घरों में पानी भर जाते थे. वे मेहतर को साथ लेकर गली की नालियों को धुलवाया भी करते थे. कारण यह था कि तब घरों में नल नहीं होते थे, पम्पों का इस्तेमाल भी नहीं हो सकता था क्योंकि बिजली केवल बड़े शहरों में या बरसात में आकाश में दिखाई देती थी. जेनरेटर नाम के यंत्र को भी लोग नहीं जानते थे.

इन ६०-७० वर्षों में दुनिया बहुत बदल गयी है. म्युनिसिपैलिटी में भिश्ती के पद खतम कर दिये गए हैं. भिश्तियों की आज की पीढ़ी, भिश्ती कहने पर नाखुश होती है. वे अपने नाम के आगे अब्बासी लगाते हैं. कहते हैं कि पैगम्बर साहब के चाचा अब्बास साहब को इनके पूर्वज पानी पिलाते थे और इसी आधार पर अब्बासी कहा जाता है.

चलो, भिश्ती शब्द अब म्यूजियम में चला गया है, पर हिन्दी, उर्दू और फारसी की पुरानी परी कथाओं में भिश्ती शब्द हमेशा ज़िंदा रहेगा. इसकी कुछ मीठी यादें भी अभी ताजी हैं.

बकरी की चमड़ी की बनी मशक ही भिश्ती की पहचान होती थी. इतिहास गवाह है कि मशक द्वारा नदी पार करा ने की  मदद के बदले में  बादशाह हुमायूँ ने  निजाम भिश्ती को एक दिन का सुलतान बनाया था.

कहीं कोई चोरी हो जाये तो ‘पुछ्यारा’ (नजूमी) बुलाया जाता था. उसके पास एक ‘हाजरात’ की डिब्बी होती थी, जो काले जूता-पालिश की तरह दिखती थी. ’पुछ्यारा’ मोहल्ले के किसी मासूम/निष्पाप बच्चे को बिठा कर उस काली डिब्बी को खोल कर उसकी आँखों के निकट ले जाकर हिप्नोटाइज सा कर देता था और क्रमवार बोलते हुए निम्न प्रक्रिया अपनाता था:

झाड़ूवाले को बुलाओ.
बच्चे को झाड़ूवाला दिखने लगता था.
भिश्ती को बुलाओ.
बच्चे को मशक से पानी छिड़कने वाला गली का भिश्ती दिखने लगता था.
जाजम बिछानेवाले को बुलाओ.
बच्चे को दरी बिछानेवाला एक आदमी दरी बिछाते हुए नजर आता है.
चोर को बुलाओ.

बच्चे को वह आदमी नजर आने लगता था, जिसके चोर होने की चर्चा उसके घर परिवार या साथियों के बीच सुनी होती थी.

बस चोर का नाम घोषित हो जाता था, यह सब एक टोटका जैसा भी होता था, आसपास किसी कच्चे चोर ने चोरी की हुई होती थी तो वह डर के मारे पहले ही चोरी की हुई चीज को घर में चुपके से कहीं फेंक जाता था. इस टोटके की कोई विश्वसनीयता नहीं होनी चाहिए, लेकिन अनपढ़-श्रद्धानवत लोग तो इसे मानते ही थे. इस प्रकरण में भिश्ती का पात्र भी नाटक में होने से चर्चा में रहता था.

एक आम कहावत भी है कि घर के सारे काम करने में व्यस्त रहने वाले व्यक्ति को लोग ‘पीर-बावर्ची-भिश्ती-खर’ की उपाधि से नवाजा करते हैं. इसमें भिश्ती जो चरित्र है वह मुग़ल काल से ही शहरी मुलाजिमों में होता था. जलेब खां तो भिश्ती शब्द की उत्पत्ति ‘बहिश्त’ यानि स्वर्ग से सम्बंधित बताते हैं.

बहरहाल ‘भिश्ती’ शब्द अब ऐतिहासिक हो चला है उसकी जो मशक थी, वह किसी छोटे चौपाये जानवर की साबुत खाल से बनी होती थी. जानवर की खाल को रेगर-चर्मकार इस तरह से बनाते थे कि वह एक बड़ा थैला होता था उसका एक मुँह होता था जिसे भिश्ती अपनी मुट्ठी से भींचे रहता था. उस चमड़े को पूरी तरह से अनुकूलित यानि कंडीशन्ड किया जाता था. मशक के पानी में चमड़े की गन्ध या रस मिश्रित नहीं रहता  था.
***

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

ठलुआ पंचायत - ४

आज की बैठक देश में बढ़ते हुए यौन अपराधों व उन पर काबू पाने में असहाय प्रशासन पर विचार करने के लिए बुलाई गयी थी. उपस्थिति २१ सदस्यों की रही.

न. १ - जैसा कि आप सभी सज्जनों को मीडिया के जरिये मालूम हो रहा है कि पिछले दिसम्बर माह में ‘दामिनी-काण्ड’ के बाद देश के सभी तबकों में इसके विरोध की ज्वाला जलने लगी थी. संसद में कड़े क़ानून की पैरवी हो रही थी, लेकिन अभी भी लगता है कि स्थिति में कोई सुधार के लक्षण नहीं हैं. न्यूज चैनलों की सुर्ख़ियों में हर रोज नए नए यौन अपराधों की चर्चा व दुराचार की खबरें बुरी तरह परोसी जा रही हैं. इन जघन्य समाचारों की आड़ में राजनीतिज्ञ लोग कुर्सी वालों की कुर्सियां खिसकाने की बात पर अड़े हुए हैं तथा आम धारणा बनाई जा रही है कि इन सब के लिए पुलिस वाले भी दोषी हैं. कहा जा रहा है कि ‘उनकी सोच आज भी ब्रिटिशकालीन है. उनके तौर तरीके ठीक नहीं हैं, पुलिस अपराधियों को संरक्षण देती है.’ आप सभी अनुभवी, वरिष्ठ नागरिक हैं, अपने अनुभवों से इसके निदान और समाधान बतावें.

न. ४ - ये पूरी तरह सत्तानशीं लोगों की नाकामी व अयोग्यता का नतीजा है. दिसम्बर काण्ड से कोई बड़ा सबक नहीं लिया गया. अब तक घर घर, गली गली इसका सन्देश पंहुचाया जाना चाहिए था. अपराधजन्य भय आम लोगों की सोच में आ जाना चाहिए था.

न. ११ – पर क्या ये सच नहीं है कि महिलाओं या छोटी बच्चियों के साथ दुराचार करने वाले अधिकतर मामलों में उनके नजदीकी लोग पाए जाते हैं? ऐसे में ये कहना कि केवल सरकार दोषी है ये बात हजम नहीं होती है. पुलिस की कार्यपद्धति अवश्य विचारणीय मुद्दा है.

न. २५ – (जनार्दन जोशी- रिटायर्ड प्रिंसिपल) देश के सामाजिक ढांचे में आज के सिनेमा का अहम रोल रहा है. सेंसर बोर्ड के लोग अपनी पाश्चात्य दृष्टि से देखते हैं, जिसका कुप्रभाव हमारे छोटे छोटे बच्चों में देखा जा सकता है. यौन अपराधों के दृश्य जब बेड-रूम तक में दिखाए जा रहे हों तो अवश्य ये एक सांस्कृतिक हमला है जिसका नतीजा आप देख रहे हैं.

न. ५ – ये तो सही है कि सिनेमा से बच्चे अपराध, गुंडागिरी आदि सीखते हैं, लेकिन पुलिस भी अपराध और अपराधियों को छिपाने में बड़ा रोल अदा करती है. बड़े बड़े अपराधी अदालतों से छूट जाते हैं, क़ानून का भय रहा ही नहीं. केजरीवाल तो कहते हैं कि “संसद व विधान सभाओं में आधे से ज्यादा अपराधी बैठे हैं.” ऐसे में आप लोग सुधार की बातें कर रहे हैं.

न., ४- हमको स्वीकारना होगा कि वर्तमान पीढ़ी संस्कारविहीन हो चली है. नौजवान बच्चे चरित्र को समझते ही नहीं. जब माता-पिता सभी भोगवादी हो चले हैं तो बच्चों से क्यों उम्मीद की जा रही है? नैतिक शिक्षा घर से शुरू होती है और स्कूलों में भी आदर्श जीवन मूल्यों के बारे में बच्चों को घोट घोट कर पिलाया जाना चाहिए.

न. ८ – कोई भी सरकार आये, जब तक ‘ग्रास रूट’ से इस दिशा में काम नहीं होगा, स्थिति और बिगड़ती जायेगी. जहाँ तक पुलिस वालों की बात है पुलिस वाले भी तो हमारे ही परिवारों से आते हैं. जरूरत है कि इनको ट्रेनिंग में लाठी-गोली चलाने के बजाय सेवा और सहायता करने के पाठ ज्यादा पढ़ाए जाएँ. इनके प्रति समाज का नजरिया अपने आप बदलने लगेगा.

न. ६ - यौन अपराध अनंतकाल से होते रहे हैं. पहले उजागर करने में पीड़ित पक्ष भी डरता था, अब मीडिया बहुत सक्रिय हो गया है चटखारे ले कर एक ही समाचार को कई दिनों तक घसीटता है. अब कठोर क़ानून बनते ही उस पर अमल होना चाहिए. दो चार को मृत्युदंड मिलेगा तब भय पैदा होगा.

न. १८ – (गोविन्द भट्ट, रिटायर्ड फार्मासिस्ट) आजकल नगर पचायतों के चुनाव हो रहे हैं. चुनाव लड़ने वाले युद्ध स्तर पर अपनी बात कह रहे हैं. इसी तरह की मुहिम पूरे देश में चलाई जानी चाहिए.

न. १० – तुलसी दास ने रामायण में लिखा है, ‘भय बिन होय न प्रीत’ जब तक अपराधियों को सरेआम सजा नहीं दी जायेगी, इस पर कंट्रोल होने वाला नहीं है. कई अरब देशों में देखिये वहाँ अपराध करने पर तुरतदान सजा मिलती है और अपराधों का ग्राफ बहुत नीचे रहता है.

न. ४ - लेकिन अपना देश लोकतांत्रिक है. यहाँ ना तो राजशाही और ना ही तानाशाही है. कोई भी सजा पूरी न्यायिक प्रक्रिया के बिना नहीं दी जा सकती है.

न. १- मासूम बच्चों पर यौन अत्याचार करने वाले मामलों में स्पेशल अदालतें अधिक से अधिक एक साल में अपना फैसला दें. जजों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए.

न. २२ (आर.एस.राणा, रिटायर्ड आर्मी कर्नल) हर बात के लिए पुलिस को दोष देना ठीक नहीं है. राजनैतिक दबावों में जिस तरफ पुलिस को काम करना पड़ता है, उससे सही व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. होना ये चाहिए कि चौकियों तथा थानों में स्थाई नागरिक कमेटियां बनाई जाएँ, इन कमेटियों को कानूनी मान्यता दी जाये.

न. १- ये जानकार अच्छा लगा कि आप सभी सदस्य इस ज्वलंत समस्या पर चिंतित हैं, हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम जिस समाज में रहते हैं, अपनी हद तक स्वस्थ व निष्कलंक रखने का पूरा प्रयास करें. आज की मीटिंग की पूरी रिपोर्ट सभी जन प्रतिनिधियों और प्रेस को भेजी जायेगी.

धन्यवाद के साथ बैठक समाप्त की गयी.
***

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

चित्तवृति

पाप-पुण्य से परे
 अप्रभाषित-
  और अपरिमित,
   विकारी भी है
    ये चित्तवृति  है.

अदृश्य अनाहत सी
 अठखेलियां करती है
  किसी को सन्मार्ग –
   किसी को भटकाती है
    ये चित्तवृति है.

ये मन की चितवन है
 बहुत चँचल है
  कोई भूल नहीं-
   चाहे लगे नहीं अनुकूल कभी,
    ये चित्तवृति है.

जीवन को गति मिलती है
 तन-मन में स्पंदन से
  चाहे-अनचाहे भी
   स्पंदन देती है
    ये चित्तवृति है.

ये तो सुरताल-
 बिना बजाये जो बजती है
  ये राग नि:शब्द-
   यदाकदा जो छा जाती है.
    ये चित्तवृति है.
           ***

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

खुली खिड़की

इतिहासकार कहते हैं कि ‘हिंदू’ शब्द ‘सिंधु’ का अपभ्रंश है. हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं है. यह तो सनातन धर्म है जो प्राकृतिक रूप से विकसित हुआ है. इसमें वर्ण व्यवस्था के पक्ष या विपक्ष में अनेक प्रकार के तर्क किये जा सकते हैं, पर निष्पक्ष रूप से देखें तो ऐसा लगता है कि सनातन व्यवस्था में बहुत विकृतिया भी प्रवेश करती रही. चार वर्ण--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, सभी कार्य तथा व्यक्ति के चरित्र पर आधारित होते थे, पर धीरे धीरे ये जातियां बन गई और उनमें भी उपजातियां, उपजातियों के पीछे गोत्र की पूंछ, गोत्र की पहचान में गाँव-प्रदेश का इतिहास, इस प्रकार सब उलझता चला गया. गोत्र से अपने को वैदिककालीन पौराणिक ऋषियों-मुनियों की संतान बताया जाता है. इतिहास यह भी बताता है कि आर्य लोग उत्तर-पश्चिम यानि ईरान-अफगानिस्तान की दिशा से आर्यावर्त में आये थे. उत्तर में मंगोलिया व चीन की तरफ से शक और हूँण भी इस देश में आये. यहाँ के आदिवासी द्रविड जातियों से लड़ते-खपते यहीं के होकर रह गए. बाद में मुस्लिम आक्रमणकारियों/ शासकों के तलवार के जोर पर व दबाव में बड़े स्तर पर धर्म परिवर्तन हुए. अंत में यूरोप से व्यापारियों के साथ ईसाईयत आई जिन्होंने धर्म प्रचार को भी अपने मिशन में रखा था. सेवा-सुश्रुषा और लालच देकर देश के पूर्वी व दक्षिणी इलाकों तथा गरीब आदिवासियों में अपनी जगह बना ली.

सनातन धर्म तो बहुत पहले खतम हो गया होता अगर जगतगुरु आदि शंकराचार्य इसे नवजीवन देने के लिए चारों ओर मर्यादाओं के खूंटे ना बाँधते.

मध्यकाल से बहुत पहले ही सातवीं शताब्दी में बौद्ध व जैन धर्मों का प्रादुर्भाव इसलिए हुआ कि सनातन धर्म में बहुत पाखण्ड घुस आया था. यह दीगर बात है कि मूर्तिपूजा जैसे विश्वासों का विरोध करने वाले ये धर्मावलंबी भी अपने नए देवताओं की मूर्तियां बनाकर पूजा करने लगे. इसी तरह बाद में सिख पंथ को भी गुरुओं ने बहुत पवित्रता में ढालते हुए हिंदुओं के रक्षार्थ खड़ा किया. लेकिन अब वे हिन्दू धर्म से अपना कोई सीधा नाता नहीं मानते है. उनका अलग धर्म हो गया है. आज हमारे सभी धर्मों में कट्टरता आ जाने से आपस में द्वेष भावना और अविश्वास रहता है. कहने को सर्व धर्म समभाव का सिद्धांत है, पर असल में ऐसा है नहीं. रही सही कसर वर्तमान राजनीति ने पूरी कर दी है.

इस्लाम में कोई वर्ण व्यवस्था नहीं है, लेकिन हम देख रहे हैं कि भारत के सारे मुसलमान भी जातियों में बंटे हुए हैं. अपनी पहचान बताने के लिए कोई शेख, पठान, अंसारी, हनीफी, अब्बासी, कुरैशी, फारुखी, या नकवी आदि जातिसूचक सरनेम लगाते हैं.

शिया सुन्नी फिरके हैं, अहमदियों को तो मुसलमान माना ही नहीं जा रहा है, यहाँ तक कि मुसलमान बुद्धिजीवी देवबंदी अथवा बरेलवी के नाम से अलग अलग राग अलापते हैं. कुल मिलाकर ऐसा लगता है जिस प्रकार भारतीय समाज का गठन हुआ है, उसमें मुसलमानों पर हिंदुओं की जाति संरचना का गहरा प्रभाव है. स्वाभाविक भी लगता है क्योंकि अधिकतर मुसलमानों के वंश हिंदुओं से ही परिवर्तित हैं. हमारे एक प्राध्यापक का नाम शफीउल्ला तिवारी था. ऐसे कई उदाहरण और भी हैं. इस प्रकार देश, काल या समाज की छाया जा नहीं सकती है.

यहाँ किसी धर्म को अच्छा या बुरा बताने के लिए समालोचना नहीं हो रही है, पर यह जरूरी है कि सामाजिक सुधार लाने के उद्देश्य से सभी को अपनी खिड़की खुली रखनी चाहिए, अन्यथा जो प्रतिगामी व कट्टरपंथी बने रहेंगे वे हर क्षेत्र में पिछड़ते चले जायेंगे.
***

रविवार, 21 अप्रैल 2013

जब मैं चीफ गेस्ट बना

जिस तरह श्राद्ध पक्ष में श्राद्धकर्मी पंडितों तथा काले कौवों की मांग व क़द्र एकाएक बढ़ जाती है, उसी तरह स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर नेताओं की भी बहुत पूछ होती है क्योंकि गली-गली, गाँव-गाँव में अब स्कूल हो गए हैं. सभी स्कूल वाले राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत होकर अपने स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया करते हैं. समारोह को चार चाँद लगाने के लिए एक मुख्य अतिथि यानि चीफ गेस्ट की तलाश भी की जाती है.

ये सन १९९२ या ९३ की बात है. मैं तब लाखेरी सीमेंट उद्योग के कर्मचारियों की युनियन का अध्यक्ष हुआ करता था. स्थानीय अखबारों में कभी कभी मेरा नाम भी छप जाया करता था, लेकिन मेरा कार्यक्षेत्र अपनी सीमेंट कम्पनी के कर्मचारियों व मैनेजमेंट से सम्बन्धों तक ही सीमित होता था. मैं कोशिश करता था कि राजनैतिक दलों के कार्यकलापों से दूरी बना कर रखी जाये. फिर भी विशिष्ट मौकों के लिए एक जोड़ी खादी का लंबा कुर्ता-पायजामा सिलवा रखा था (जो अभी तक अच्छी अवस्था में सुरक्षित है.)

१५ अगस्त से कुछ दिन पूर्व एक सुहानी सुबह मेरे घर पर एक जीप रुकी, जिसमें से एक संभ्रांत सज्जन राजस्थानी वेशभूषा में उतरे. उनके साथ आये व्यक्ति ने उनका परिचय दिया के वे ‘बड़ा खेड़ा’ के जागीरदार- ‘बड़े बना’ हैं (राजपुत्रों को ‘बना’ कहा जाता है). नाम मुझे अब याद नहीं आ रहा है क्योंकि मेरी स्मरणशक्ति अब जवाब देने लगी है. मैं कम्पनी के कैम्पस में निवास करता था उनका चाय-पानी से स्वागत किया. बातों बातों में उन्होंने अपने गाँव के मिडिल स्कूल के स्वतन्त्रता दिवस समारोह के लिए मुझसे इस ढंग से ‘चीफ गेस्ट’ बनने का अनुरोध किया कि मैं मना नहीं कर सका. वे अपनी सफल वार्ता करके चले गए, पर मैं चिंता में पड़ गया क्योंकि बड़ा खेडा १०-१२ किलोमीटर दूर था और ऊंचा नीचा धूल-भरा रास्ता था. उस बार बहुत दिनों से बारिश भी नहीं हुयी थी. मैं अपनी साइकिल या स्कूटर से वहाँ नहीं पहुँच सकता था (तब मेरे पास चौपहिया वाहन नहीं हुआ करता था) क्योंकि रास्ता बैलगाड़ी वाला था.

मैंने अपनी समस्या फैक्ट्री के तत्कालीन जनरल मैनेजर स्वनामधन्य श्री प्रेम कुमार काकू जी को बताई और कहा, “जिंदगी में पहली बार ‘चीफ गेस्ट’ बनने का मौक़ा मिल रहा है,” तो उन्होंने सहर्ष उस दिन कम्पनी की जीप ले जाने की स्वीकृति दे दी. मेरी बाछें खिल गयी और मैं इस राष्ट्रीय दिवस पर अपने भाषण की तैयारी में लग गया.

जब पूरी जीप ही मिल गई तो मैंने अपनी श्रीमती से कहा, “तुम भी चलो, राजस्थान के गाँव भी देख आओगी और चीफ गेस्ट के सत्कार का भी अनुभव करोगी.” वह उत्सुकता पूर्वक तैयार हो गयी. अवसर के अनुकूल सफ़ेद सूती साड़ी पहन कर मेरे साथ जीप में बैठ गयी. मैं समझता हूँ कि चीफ गेस्ट बनने का जितना रोमांच मुझे था उससे ज्यादा ‘चीफ गेस्ट की पत्नी’ होने का रोमांच मेरी श्रीमती को हो रहा था. रास्ते में इतनी धूल उड़ती चली कि बड़ा खेड़ा पहुँचने तक हम और हमारे कपड़ों का हुलिया बिगड़ गया.

बड़ा खेड़ा, बूंदी रियासत के हाड़ा राजा-राजपूतों के वंशजों/रिश्तेदारों का बहुत पुराना ठिकाना है. पहले समय में इस इलाके में पानी की बड़ी किल्लत थी. बड़ा खेड़ा के पास एक गाँव है, ‘लबान’ जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ लोग पानी नहीं पिलाते थे इसलिए धरती शापित हो गयी थी. किवदंती है कि पौराणिक काल में जब श्रवण कुमार अपने अंधे माता-पिता को तीर्थ करवाने इस रास्ते से गुजर रहा था तो उसने उनसे बोझ उठाने का पारिश्रमिक माँगा था, पर यह सब पुरानी बातें हैं अब तो चम्बल नदी का पानी यहाँ नहरों से आता है. काली मिट्टी में खूब गेहूं, धान, सरसों व अन्य फसलें उगती हैं किसान समृद्ध और खुशहाल हैं.

बड़ा खेड़ा बड़ा गाँव है. यहाँ मेरे परम मित्र भूतपूर्व कांग्रेसी एम.एल.ए. स्वर्गीय नंदलाल बैरवा का ससुराल भी है तथा उनके बाद हुए भाजपा के वर्तमान एम.एल.ए. श्री बाबूलाल वर्मा का ननिहाल भी है. बाबूलाल वर्मा के पिता स्व. मांगीलाल भी फैक्ट्री के कर्मचारी थे और ये दोनों परिवार मेरे नजदीकी रहे हैं. बाबूलाल वर्मा आज भी मुझे ‘चाचा जी’ कह कर संबोधित करते हैं. बड़ा खेड़ा से हमारे कारखाने में बहुत से कामगार भी आते थे इसलिए मैं बहुत खुशी अनुभव कर रहा था.

जब हमारी जीप बड़ा खेड़ा स्कूल पर पहुँची तो देखा, लगभग ३०० बच्चे व दो सौ के करीब ग्रामीण नर-नारियों की भीड़ खुले खेल के मैदान में उपस्थित थे. बच्चे धूल भरे मैदान में लाइन से बैठे थे. हमारे जाते ही उठ खड़े हुए और एक मास्टर जी माइक पर से ‘भारत माता की जय, महात्मा गाँधी की जय और चीफ गेस्ट-जिंदाबाद’ के नारे लगवा रहे थे.

कार्यक्रम के संयोजक ‘छोटे बना’ (नाम उनका भी याद नहीं रहा, वे पंचायत के सरपंच भी थे) तथा अन्य विशिष्ट जन पूरी राजपूती आन-बान और शान से शोभा बढ़ा रहे थे. स्कूल के प्रधानाध्यापक, बड़े बना, छोटे बना और कुछ अन्य बुजुर्गों व बालक बालिकाओं ने मुझे और मेरी श्रीमती को मालाएं पहनाई, दिल गदगद हो गया.

चिलचिलाती धूप में खुले मैदान में कार्यक्रम, ध्वजारोहण व राष्ट्रीय गान से शुरू हुए, और बच्चों द्वारा कविता गीत और नाटक प्रस्तुत किये जाने लगे. उपस्थित जन समूह खूब आनंद लेते हुए तालियाँ बजा रहे थे. पर गर्मी के मारे मैं और मेरी पत्नी बेहाल हुए जा रहे थे. मैंने एक अध्यापक जी को पास बुला कर कहा, “मेरी श्रीमती को कहीं छाया में बिठा कर आइये,” मैदान के एक कोने में एक छोटा सा नीम का घना छायादार पेड़ था. वह अध्यापक एक कुर्सी उठाकर ले गया और उसे वहाँ बिठा आया. मैं भी छाया को तरस रहा था क्योंकि मेरे सर की खिड़की बाल न होने से ऊपर से खुली हुई थी. मैंने रुमाल से ढकने का प्रयास जरूर किया, लेकिन बहुत बेचैनी होती रही, पानी पीते रहा.

सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद शुरू हुआ भाषणों का दौर, पहले छोटे बना, फिर बड़े बना और प्रधानाध्यापक बारी बारी से बोलते रहे. बड़ी मुश्किल से माइक छोड़ पा रहे थे. उन सबके भाषणों में एक बात बार बार दोहराई जा रही थी कि बच्चों के लिए स्कूल में कमरे कम पड़ते हैं. अंत में बड़े बना ने कहा, “अब चीफ गेस्ट पाण्डेय जी स्कूल को अपनी फैक्ट्री की तरफ से आर्थिक अनुदान की घोषणा करेंगे. हमें आशा है कि इतनी राशि जरूर स्वीकृत करके जायेंगे जिससे स्कूल में कम से कम एक कमरा अवश्य बन सके.”

यह सुन कर मैं सकते में आ गया, पर स्थिति को सँभालते हुए मैंने बिना ज्यादा लागलपेट के सभी को स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाएं देते हुए कहा, “बड़े बना जी ने पहले इशारा किया होता तो मैं अपनी चेक बुक साथ लेकर आता. मैं चाहता हूँ कि यहाँ के सभी विद्यार्थियों को एक एक अलग कमरा मिले, इसके लिए जो भी अंशदान की जरूरत होगी स्वीकृत कर दी जायेगी.” बच्चों ने जोर से ताली बजाई , देखा देखी बात का अर्थ न समझते हुए भी उपस्थित जन समूह की हथेलियाँ भी बजने लगी. मैंने सभी को धन्यवाद देते हुए समारोह समापन की घोषणा भी कर दी. कार्यक्रम समाप्ति के बाद हमें ऊंचे टीले पर बनाजी की हवेली पर ले जाकर नमकीन सेवड़े, जलेबी और चाय का अल्पाहार कराया गया.

उनसे विदा लेकर करीब तीन बजे लाखेरी वापस आ सके. सपने संजोकर गए थे कि ठाकुर साहब के यहाँ दावत उड़ायेंगे, पर घर आकर खिचड़ी बनाई गयी, ठन्डे पानी से नहाकर शीतोपचार किया और पस्त होकर पड़ गए.

इसलिए उसके बाद से मैं कहीं भी ‘चीफ गेस्ट’ बनने से सीधे सीधे इनकार करता रहा हूँ..
***

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

जानवर तो जानवर होते हैं

(१)
डी.एम. साहब अपने एक परिचित एडवोकेट के साथ सिविल लाईन्स में घूमने निकले थे. दिनभर काम की आपाधापी से निजात पाते हुए शाम को उजाला रहते हुए वे सुकून महसूस कर रहे थे.

उन्होंने देखा सामने से सड़क पर एक सांड मस्ती में खरामा खरामा उनकी ओर बढ़ रहा था. डी.एम. साहब तुरन्त दूसरी तरफ रुख करके दूर जा खड़े हो गए और सांड के निकलने का इन्तजार करते रहे. एडवोकेट बोला “सर, ये सांड तो बहुत शरीफ है. किसी को सींग नहीं मारता है फिर आप तो डी.एम. हैं, डरने की कहाँ जरूरत थी?”

डी.एम. साहब ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “तुमने दो मुद्दे उठाये हैं - पहला कि सांड बहुत शरीफ है, सो तुमको मालूम होना चाहिए कि सींग, नाखून व बड़े दांत वाले जानवर कभी भी हिंसक हो सकते हैं. ऐसा शास्त्रों में भी लिखा गया है. दूसरी बात, मेरे डी.एम. होने की है, तो आपको इस बाबत जरूर मालूम है, पर इस सांड को नहीं.”

(२)
डिस्कवरी चैनल द्वारा प्रसारित एनीमल प्लैनेट पर जंगली जानवरों के बारे में कई एपीसोड दिखाए जाते हैं. ह्यूस्टन के एक चिड़ियाघर में शेरों को ट्रेनिंग देने वाले एक ट्रेनर बेधड़क उनके पिंजड़ों के पास जाकर उनको खोलता व बन्द करत था. उसके हाथ में केवल चार फुट का एक डंडा रहता था. तीन अवयस्क शावक उसके साथ खेलते भी थे. ट्रेनर ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि शेर के बच्चे उस पर जानलेवा हमला भी कर सकते है. लेकिन उस दिन एक शावक उस पर टूट पड़ा. देखा देखी अन्य दो शावक भी हिंस्र हो गए. उसके शरीर के माँस को जगह जगह से फाड़ने लगे. उसके डंडे का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था. तीनों शावक उसके चीथड़े करने पर तुल गए. उसको अपनी मौत साक्षात नजर आ रही थी. अच्छा हुआ कि शावकों ने उसकी गर्दन पर दांत नहीं  गड़ाए. ट्रेनर सहायता के लिए चिल्लाया भी, थोड़ी दूरी पर एक मजदूर था, जिसने उसकी आवाज सुनी तो आनन फानन में अपना फावड़ा लेकर बाड़े में कूद गया. एक एक फावड़ा शावकों पर मारते ही वे अधमरे ट्रेनर को छोड़कर अपने पिंजड़े में घुस गए.

ट्रेनर को बेहोशी हालत में अस्पताल ले जाया गया. वह बच तो गया, पर अपाहिज हो गया. उसे चलने फिरने लायक होने में पूरे छ: महीने लग गए.

(३) 
स्पेन का राष्ट्रीय खेल बुल फाईटिंग है. वहाँ मरखने सांडों को परेशान करते हुए फाइटर लोग एक लाल कपड़ा दिखा कर चिढ़ाते हैं और वह उसके पीछे पड़ जाता है. खिलाड़ी अपने को बचाता रहता है, पर कई बार वह उसके सीगों की जद में आ ही जाता है और उछाल दिया जाता है या कुचल दिया जाता है तथा बुरी तरह जख्मी हो जाता है. ऐसी दुर्धटनाओं में कई खिलाड़ी अपनी जान भी गंवा बैठते हैं. लेकिन लोग इस हिंसक खेल को छोड़ नहीं पाते हैं. हजारों लोग इस खतरनाक नजारे को मनोरंजन के तौर में देखते हैं.

दर्शक दीर्घा पाँच-छ: फुट ऊँची होती है, ताकि सांड वहाँ नहीं पहुँच सके, पर मैड्रिड में एक बार एक सांड ने ऐसी ऊँची कूद लगाई कि दर्शक दीर्घा में बैठे हुए लोगों को रौंदता हुआ इधर-उधर दौड़ने लगा. अफरा तफरी में अनेक लोगों की जानें गयी तथा अनेक जख्मी हुए, जिनमें छोटे बच्चे व औरतें ज्यादा थी.

(४)
सेना के एक कर्नल साहब की श्रीमती ने अपनी सुरक्षा अथवा शौक के लिए एक जर्मन शेपर्ड नस्ल का कुत्ता पाला. वह बड़ा शरीफ व समझदार लगता था, लेकिन जब भी कर्नल साहब छुट्टी आते तो वह नाखुश सा रहता था और उन पर गुर्राया करता था. कर्नल साहब ने उससे दोस्ती करने की पूरी कोशिश की, पर शायद उसने उनकी दोस्ती कबूल नहीं की.

टाइगर को पूरे घर में खुले घूमने की छूट थी. एक रात वह बेडरूम में कर्नल साहब पर झपट पड़ा और उनकी गर्दन को अपने जबड़े में इतनी जोर से पकड़ डाला कि छटपटाते हुए उनके प्राण पखेरू उड़ गए. वह एक दर्दनाक मौत थी.

***

उपरोक्त चारों दृष्टांत हमें सीख देते हैं कि जानवर तो जानवर होते है, उनसे उचित दूरी बनाए रखनी चाहिए.

***

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

झुन झुन कटोरा

झुन झुन कटोरा (via thinkingparticle.com)
आपने आगरा जाकर मुग़ल बादशाह शाहजहां और उनकी प्यारी बेगम मुमताज महल की प्रेम की निशानी, उनका भव्य मकबरा, जिसे विश्व भर में ‘ताजमहल’ के नाम से जाना जाता है, अवश्य देखा होगा. ये अब विश्व धरोहर है और भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है. ताजमहल के अलावा भी आगरा के आस पास कई अन्य मुगलकालीन स्मारक हैं, जैसे लालकिला, आरामबाग, एतमादुद्दौला का मकबरा, फतेहपुर सीकरी और ‘झुन झुन कटोरा’ आदि. ये सभी इमारतें पुरातत्व विभाग की  निगरानी में है. इनमें से झुन झुन कटोरा एक संरक्षित किन्तु उपेक्षित मकबरा.

यह उस निजाम नाम के भिश्ती का मकबरा है, जिसे मुग़ल बादशाह हुमायूं ने एक दिन के लिए बादशाहत दी थी. किस्सा यों है कि हुमायूं जब शेरशाह सूरी से जंग हार गया और अपनी जान बचाने के लिए घोड़े पर सवार होकर भाग रहा था, रास्ते में एक नदी आई थी, जिसमें उसका घोड़ा डूब कर मर गया. तब निहत्थे हुमायूं को निजाम भिश्ती ने अपने मशक के सहारे नदी पार कराया था. बाद में जब हुमायूं दोबारा शासन में आया तो उसने निजाम की खोज खबर करवाई और वह मिल भी गया. उसकी इच्छा पर उसे एक दिन के लिए बादशाह बनाया गया. निजाम भिश्ती ने अपने मशक के टुकड़े कटवा कर सिक्कों के रूप में जारी किया. मुग़ल कालीन इतिहास में इस मजेदार घटना को अहसानमंदी के रूप में लिखा गया है. अकबरनामा में भी इसका जिक्र है.

निजाम की मृत्यु के बाद उसको इज्जत बख्शने के लिए उसका गोल गुम्बज वाला एक छोटा सा मकबरा बनवाया गया. तब वहां आने जाने वालों के पीने के लिए एक मशक में पानी भर कर रखा रहता था. पानी पीने के लिए एक चांदी का कटोरा रखा रहता था. लोग भेंटस्वरूप यानि कि टिप के रूप में कटोरी में कौडियाँ डाल जाते थे, जो कि कटोरा हिलाने पर झुनझुने की तरह बजते थे. इसीलिये लोगों की जुबान पर झुन झुन कटोरा नाम चढ  गया. कहते हैं कि पिछले कई वर्षों से वहां कोई पर्यटक नहीं फटका. शायद प्रचार की कमी रही होगी.
***

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

दिल की लगी

अब तो मैं ७५ साल की हो चुकी हूँ. मेरा बचपन का नाम सावित्री था, पर घर-गाँव वाले मुझे साबुली कह कर बुलाते थे. उम्र के इस पड़ाव पर अब मेरे अलावा किसी को भी मेरा नाम याद नहीं है. मैं घर में अब ‘छोटी आमा’ के नाम से पुकारी-जानी जाती हूँ क्योंकि बड़ी आमा यानि मेरी अस्सी वर्षीय जेठानी अभी जीवित है.

हमारा भरा-पूरा परिवार है. जेठानी के पाँच बेटे हैं, जो अलग अलग कारोबार करते हैं. मेरा एक ही बेटा है, जो नैनीताल में एक ऑटोमोबाइल कम्पनी का एजेंट है. सभी बेटे शादीशुदा और अच्छी तरह व्यवस्थित हैं. खेती का काम मेरी जेठानी के दो लड़के देखा करते हैं. हम लोग मूलरूप से पहाड़ी हैं. मेरा बचपन पिथौरागढ़ के सानीउडीयार के पास एक गाँव में बीता था. मेरे पिता स्वर्गीय गोवर्धन तिवारी आर्मी से रिटायर्ड आनरेरी कैप्टेन थे. वे सपरिवार सन १९७० में तराई में आकर बस गए थे. उन्ही की प्रेरणा से मेरे ससुराल वाले, जो कत्यूर घाटी के बाशिंदे थे, भी तराई में आकर खेतीबाड़ी करने लगे थे.

ये तो था मेरा परिचय. अब मैं अपने दिल की लगी आपको सुनाती हूँ. गाँव में आम लड़की की तरह मेरा अल्हड़ बचपन बीत रहा था. पिता मेरी १५ साल की उम्र होते ही शादी की फ़िक्र करने लगे थे. मेरी छोटी बुआ की रिश्तेदारी में बिचला कत्यूर पट्टी में एक शादी योग्य लड़का था, सो, कोई ज्यादा खोज खबर किये बिना ही मेरा विवाह लक्ष्मीदत्त जोशी के साथ तय हो गया. जैसा कि उस उम्र में होता है, मैं बहुत खुश थी, और भविष्य के अपने सुनहरे सपने बुनने लगी थी.

सर्दियों के दिन थे. बारात ढोल-नगाड़ों व बीन-बाजे के साथ सांझ होने से पहले ही मेरे घर के निकट पहुँच गयी थी. मैं चुपके से शॉल ओढ़कर दुमंजिले की छज्जे पर बैठ कर बारात देख रही थी. जब बारात हमारे आगंन में पहुँची तब तक मैं अपने दूल्हे के बारे में अनेक कल्पनाएँ कर रही थी. हमारे पुरोहित पण्डित गंगादत्त पन्त बारात में से किसी जिम्मेदार बाराती से दूल्हे को ‘धूलि-अर्घ’ में लाने के लिए बार बार आग्रह कर रहे थे. उनके अनुसार धूलि-अर्घ का कर्म गो-धूलि  बेला में उजाले के रहते हो जाना चाहिए था. मैंने देखा कि मेरा छोटा भाई एक रंगीन छाता लेकर दूल्हे के स्वागत के लिए गया. आँगन के पहले ही छातों की अदला-बदली की गयी. मेरे होने वाले पति ने अपने मुकुट से झालर एक तरफ किया और ठीक मेरी नजर के सामने आगंन के पटान में लाल मिट्टी से लिपी-पुती जगह पर लकड़ी के पट्टे के ऊपर खड़े हो गए. मेरे पिता ने उनके पैर धोए, पूजन किया . दोनों तरफ के पुरोहित संस्कृत के श्लोकों द्वारा विधिवत गोत्रादि का परिचय कराने लगे, पर मुझे सिर्फ इस बात की उत्कंठा थी कि मेरा दूल्हा देखने में कैसा है? और सच कहूँ उनका चेहरा देखकर बहुत मायूसी सी हुयी. क्योंकि मेरे होने वाले पति का रंग गोरा नहीं था और न चेहरे के नाकनक्श सुन्दर थे. लेकिन अब क्या हो सकता था, भाग्य में जो लिखा था वही हो रहा था.

दूल्हे की छतरी जिस लड़के ने थामी हुई थी, वह बहुत सुन्दर, गोरा, लंबा, छरहरा, घुँघराले बालों वाला था. वह बढ़िया चमकदार अंग्रेजी पोशाक में था. उसका नीला सर्ज का कोट बहुत प्यारा लग रहा था. मैं एक बार ये भी सोचने लगी थी कि ‘काश, ये मेरा दूल्हा होता.’ उसने खड़े खड़े कई बार ऊपर छज्जे की तरफ देखा और मुझसे आँखें मिलाई. मैं सोचने लगी कि अब तो मैं उससे ससुराल में जाकर ही मिल पाऊँगी. विधिवत कन्यादान-विवाह हो गया. मैं अपने ससुराल आ गयी. द्वाराचार, नौलापूजन आदि सभी कर्म हुए. मैं नवेली दुल्हन सबकी आँखों में थी, पर मेरी आँखें उस छतरी वाले लड़के को खोज रही थी. उसकी सलोनी सूरत मेरे मन मस्तिष्क पर छाई हुयी थी, लेकिन वह कहीं भी नजर नहीं आया.

कुछ दिनों के बाद मैंने अपने चोर मन की बात अपने पति से पूछ ही ली कि “वह सूट-बूट वाला लड़का कौन था, जिसने आपका छाता थाम रखा था?” उन्होंने मुझे बताया कि उस लड़के का नाम विमल है, वह बिरादरी के रिश्ते में तुम्हारा देवर लगता है.” मेरे पति ने यह भी बताया कि “वह कॉलेज में पढ़ता है शायद इस गाँव में तुम उससे कभी नहीं मिल पाओगी क्योंकि उसका परिवार कहीं दूर हल्द्वानी में जा बस गया है.” इस प्रकार मेरा वह सपना टूट गया और मैं अपनी गृहस्थी की लम्बी दौड़ में उलझ गयी.

कुछ वर्षों के बाद हमारे गाँव के बहुत से परिवार पहाड़ से पलायन करके पंतनगर के निकट आकर बस गए और खेती करने लगे. बच्चे बड़े होकर पढ़े लिखे और खेती भी करते रहे. घर में समृद्धि आ गयी. पर मेरे मन के एक कोने में तब भी विमल की वह मूरत बैठी हुयी थी. मैं उसे भुला नहीं पाई. कभी कभी एकांत में जब उसका ख़याल आता था तो यों लगता था कि वह मुझसे बतियाना चाहता है, पर वह सब एक कल्पना मात्र थी  क्योंकि वह कहां है? कैसा है? इस बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं है. शादी की घटना को अठावन वर्ष बीत चुके है.
***

मैं विमल जोशी, उम्र ७६ वर्ष, श्रम विभाग में काम करते हुए अब से अठारह वर्ष पूर्व लेबर कमिश्नर के रूप में सेवानिवृत्त हो गया था. मैं हल्द्वानी के जज फ़ार्म में रहता हूँ. मेरी पत्नी भी सरकारी इण्टर कॉलेज में प्रिंसिपल थी, उसे भी रिटायर हुए लगभग १५ वर्ष हो चुके हैं. हमारे दोनों बेटे पन्त नगर युनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन करके पिछले आठ-दस सालों से अमेरिका में नौकरी करते हैं. दोनों विवाहित हैं.

मेरी छोटी बहन रजनी पिछले महीने मिलने आई थी. वह अपने परिवार के साथ लखनऊ में स्थाई रूप से रहती है. रजनी की उम्र भी अब सत्तर के करीब हो गयी है. इस बार वह दो सप्ताह हमारे साथ रही. इस उम्र में उसके साथ इतने दिन रहना बहुत अच्छा लगा. हम दोनों भाई-बहन कम उम्र में माता-पिता के साथ बागेश्वर की कत्यूर घाटी से स्थान्तरण करके यहाँ आ बसे थे. फिर पढ़ाई व नौकरी की आपाधापी में साथ रहने का अवसर बहुत कम मिला. इस बार वह आई तो सुकून के साथ बैठ कर खूब गपशप की. बचपन की बहुत सी यादों को ताजा करते रहे. मेरी पत्नी भी हमारी बातों का खूब आनंद लेती रही. रजनी ने बातों बातों में मुझे बताया कि लच्छीदा (लक्ष्मीदत्त) की घरवाली उसे किसी विवाह समारोह में मिली थी और वह मेरी कुशल भी पूछ रही थी. उसने रजनी से कहा “मेरा मन एक बार विमल देवर जी से मिलने का हो रहा है. उनको मैंने केवल अपनी शादी के दिन देखा था.”

लच्छीदा हमारा दस दिनी बिरादर था. गाँव में घर पास पास थे, पर हमारा परिवार गाँव छोड़कर हल्द्वानी शहर में आ गया था. बचपन में साथ साथ खेले, बड़े हुए थे.  उसकी जब शादी हुए तो मैं कॉलेज में पढ़ रहा था और हॉस्टल में रहता था. वहीं से बरात में शामिल होकर सानीउडियार गया था. मैंने बरात के दौरान उसका वरछाता पकड़ा था. उसकी बरात की मुझे धुंधली सी याद है. कोई विशिष्ठ घटना नहीं हुई थी. न  मुझे भाभी यानि लच्छीदा की घरवाली को किसी तरह देखने की कोई याद है. जब रजनी ने लच्छीदा की घरवाली की दिल की लगी सी बात बताई तो एक अनबूझी पहेली सी मन में घूमने लगी. मन तो मन है एक बार उससे मिलने की ठान ली.

मैं अपनी गाड़ी स्वयं चला कर पूछते हुए उन बिरादरों के गांव तक पहुँच गया. वहाँ किसी बच्चे के नामकरण का समारोह हो रहा था. एक लड़के से मैंने लक्ष्मीदत्त के घर का पता पूछा तो उसने बताया कि लच्छीदा को गुजरे एक वर्ष से अधिक हो चुका है. वह मुझे उनके मकान तक ले गया.

सावित्री भाभी नामकरण समारोह में शामिल होने के लिए तैयार हो रही थी. मैंने उनको नमस्कार किया, वह ठिठक कर मुझे देखती ही रह गयी. मैंने कहा, “भाभी, मैं विमल हूँ. आपकी बरात के दिन लच्छीदा का छाता पकड़ने वाला.” वह बहुत भावुक होकर मुझ से लिपट गयी और मेरे चेहरे व खल्वाट सर पर लाड़ करते हुए हाथ फिराने लगी. बडी देर में उसके मुँह से बोल निकले, “बहुत बरस लगा दिये मिलने में तुमने देवर जी, मैं तो तुमको देखने को तरसती हूँ.”

जीवन के आख़िरी प्रहर में पहुँची सावित्री भाभी के उस प्रदर्शित स्नेह व प्यार को क्या नाम दूं? लेकिन ये उसकी ‘दिल की लगी’ ही है जो मुझे भी यहाँ तक खींच कर ले आई थी.
***

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

चुहुल - ४८

(१)
हवाई जहाज के जमीन पर उतरते समय अन्दर हवा का दबाव बहुत बढ़ जाता है इसलिए बहुत से यात्रियों के कान में जबरदस्त दर्द होने लगता है. इससे बचने के लिए यात्रियों को कुछ टॉफियां/गोलियां दी जाती हैं, ताकि उनको चबाते हुए दबाव का असर कम महसूस हो.
ऐसे ही जब एक एयर हॉस्टेस ने गोलियाँ बांटी और दर्द की खास शिकायत वाले यात्री से बाद में पूछा, “गोलियों से आराम हुआ?”
यात्री बोला, “कोई खास नहीं, पर अब ये बताइये इन गोलियों को कान से बाहर निकालू कैसे?”

(२)
दो पड़ोसी किशोर लड़के आपस में बातें कर रहे थे. एक बोला, “यार, तेरा नवजात भाई इतना रोता क्यों है?”
दूसरा बोला, “अगर तुम्हारे मुँह में एक भी दाँत ना हो, सर पूरी तरह गंजा हो, पैर इतने कमजोर कि खड़े भी ना हो सको, तो ऐसी हालत में तुम भी जरूर रोने लगोगे.”

(३)
एक आदमी सड़क दुर्घटना में घायल हो गया. शरीर में कई जगह चोटें आई. उसे अस्पताल ले जाया गया.
डॉक्टर ने पता नहीं क्या सोच कर पूछ लिया, “क्या तुम शादीशुदा हो?”
वह बोला, “हाँ शादीशुदा हूँ, लेकिन मेरी ये हालत मेरी बीवी की वजह से नहीं हुई है.”

(४)
दरबारीलाल कालाकोटी क्रिमिनल  मामलों के बड़े उखाडू वकील माने जाते है, ना जाने कितने खतरनाक अपराधियों को अपने दांवपेंच लड़ाकर जमानत दिलवा दी या  दोषमुक्त ही करा दिया; पर पीड़ित पक्ष कालाकोटी के सच को झूठ व झूठ को  सच करा देने की कला से उनको हमेशा बद्दुवा दिया करते हैं. हुआ यों कि :आधी रात को फोन की घंटी बजी. वकील साहब नींद से उठे और रिसीवर उठाया. उधर से आवाज आई, “कहाँ से बोल रहे हो?”
वकील साहब को बड़ा गुस्सा आया, बोले, “जहन्नुम से.”
इस पर फोन करने वाला बोला, “तब तो सही जगह पहुंचे हो,. तुम्हारे जैसा झूठा आदमी जहन्नुम में ही होना चाहिए. मैं यही जानना चाहता था कि तुम गलती से स्वर्ग में तो नहीं पहुँच गए हो ”

(५)
प्रयोग शाला में जीवविज्ञान के प्रोफ़ेसर ने राजू से पूछा, “बताना, ये मेंढक नर है या मादा है?”
राजू ने मेंढक का मुँह टटोलना शुरू कर दिया. इस पर प्रोफ़ेसर ने उससे कहा, “मुँह चेक करने से कैसे मालूम होगा कि नर है या मादा?”
राजू ने शरारतन जवाब दिया, “सर, मैं इसके होंठ देख रहा हूँ कि लिपस्टिक लगी है या नहीं.”
***

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

बैठे ठाले - ३

आजादी के बाद जो प्रांतीय या राष्ट्रीय नेता उभर कर सामने आये उनकी स्वच्छ छवि अभी भी हम पुरानी पीढ़ी के लोगों के जहन में मौजूद है. उनका उज्जवल सार्वजनिक जीवन था. आजादी की लड़ाई में सोने की तरह तप कर निखरे थे. उन पर हम भरोसा करते थे. अपनी बात आसानी से उन तक पहुँचा सकते थे. ये सुरक्षा का तामझाम भी तब नहीं होता था. अब तो छुटभय्ये नेताओं के साथ तक बन्दूक धारी सुरक्षाकर्मी चलते हैं. सचमुच नेता शब्द की परिभाषा ही बदल गयी है.

उत्तर प्रदेश में सर्व श्री गोविन्दबल्लभ पन्त, सुचेता कृपलानी, चंद्रभान गुप्ता, राजस्थान में मोहनलाल सुखाड़िया, मध्य प्रदेश में रविशंकर शुक्ला और उनके पुत्र, बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा, प.बंगाल में बिधानचंद्र राय, तमिलनाडू में कामराज नाडार, महाराष्ट्र में यशवंतराव चह्वाण, वसंतराव नायक, गुजरात में बलवंतराय मेहता व हितेंद्र देसाई इसी तरह पंजाब, मैसूर (कर्नाटक) आंध्रा व केरल तथा अन्य राज्यों में निर्विवाद नेता थे, जिनकी लिस्ट बहुत लम्बी है. ये सभी सर्वमान्य आदरणीय राष्ट्र नायक थे. इनका दबदबा भी था.

तब इतने राजनैतिक दल भी नहीं थे. इन दलों की बाढ़ तो कुकुर्मुत्तों की तरह बहुत बाद में आई. तभी नेतागिरी का अवमूल्यन भी शुरू हुआ.

पुराने नेताओं का चाल चरित्र ऐसा होता था कि अपने आप श्रद्धाभाव पैदा हो जाती थी. प्रशासन में उनके नाम की धाक होती थी. केवल नेता ही नहीं, तब प्रशासनिक अधिकारियों में भी गजेटेड ऑफिसर का मतलब ईमानदारी का ठप्पा होता था.

आज नेतागिरी व्यापार हो गयी है और पूरा तन्त्र भ्रष्ट हो गया है. कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन इस सच्चाई को नहीं नकारा जा सकता है कि पूरे कुँएं में भांग पड़ी है. सभी नेता एक दूसरे को चोर साबित करने में जुटे रहते हैं.

साठ के दशक में रानीखेत के नन्दाबल्लभ मठपाल को अपने भाई गोविन्दबल्लभ मठपाल को ईलाज के लिए लखनऊ ले जाना पड़ा, तब रानीखेत या नैनीताल में सुविधा संपन्न अस्पताल व विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी रही होगी. वे पाँच सौ रूपये साथ में लेकर गए थे, पर वहाँ खर्चा आठ सौ के आस पास आ गया. उन दिनों पैसे भेजने का जरिया मनीआर्डर होता था, अस्तु उन्होंने अपने घर तार देकर तुरन्त तार मनीआर्डर से तीन सौ रूपये और मंगवाए. तीसरे दिन तार मनीआर्डर आ गया. लखनऊ चौक वाले पोस्ट ऑफिस के पोस्टमास्टर के मार्फ़त (केयर आफ) मंगवाए गए थे. पोस्ट मास्टर ने कहा, “जामिन (जमानतदार) ले आओ, रूपये लेकर जाओ.” नन्दाबल्लभ मठपाल ने बताया कि उनको उस शहर में कोई नहीं पहचानता है तो पोस्ट मास्टर ने कहा कोई पहचान वाला तो लाना ही पड़ेगा.” नन्दाबल्लभ ने पोस्टमास्टर को बताया कि “एक आदमी है जिसे मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, पर वह मुझे नहीं जानते हैं.” पोस्टमास्टर ने विस्मित होकर पूछा, “कौन है वह?” नन्दाबल्लभ मठपाल ने कहा, “हमारा एम.एल.ए., चन्द्रभान गुप्ता, जो आजकल मुख्य मन्त्री हैं.”

इतना सुनते ही पोस्टमास्टर ने मुस्कुराते हुए कहा, “इतने बड़े आदमी से सम्बन्ध है और पहचान को तरस रहे हो? आप रूपये ले जाओ, जमानतदार की जगह उनका नाम लिख दो.”

ऐसा होता था. नेताओं के नाम पर लोगों का भरोसा होता था. आज सिर्फ पचास सालों में हम कितने नीचे चले गए हैं. सुधार की गुंजाइश कम ही नजर आ रही है. अन्ना हजारे जी ने एक जन आन्दोलन शुरू किया था. लोगों को बहुत बड़े परिवर्तन की उम्मीद जग रही थी, लेकिन वह एक अधूरा सपना सा साबित होकर टूट गया है, पर इन्कलाब तो चाहिए ही.
***

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

गीताक्षरी

स्वामी परमानंद बचपन में ही वैराग्य को प्राप्त हो गए थे. उनके गुरू ने दीक्षा में एक ही वाक्य दिया, “भगवद गीता से ज्ञान प्राप्त करो.” और उन्होंने लगन के साथ गीताध्ययन शुरू कर दिया. अनेक भाष्य और अनुवाद भी पढ़े. एक स्थिति ऐसी भी आई कि वे निष्काम भक्ति में पूरी तरह रम गए. भगवद गीता के अठारहों अध्याय कंठस्थ तो थे ही, वे उनका धाराप्रवाह गूढ़ार्थ लोगों को समझाने लगे.

छोटी सरयू के तट के निकट एक रमणीय स्थान तल्ल्लीहाट में उन्होंने अपना छोटा सा आश्रम बनाया. सप्ताह में एक दिन भिक्षार्थ निकट के गाँवों में जाते, बाकी समय या तो साधना में लीन रहते अथवा उपस्थित लोगों को गीता का ज्ञान देते रहते. उनकी वाणी में इतनी मिठास थी कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर कृष्णोपदेश सुनने के लिए अधिक से अधिक संख्या में आने लगे.

जब श्रोताओं को संत की भोजन-व्यवस्था के बारे में यह मालूम हुआ कि एक दिन की भिक्षा से सातों दिनों का काम चलाना पड़ता है तो वे भेंटस्वरुप नित्यप्रति कुछ न कुछ अनाज-आटा व खाद्य सामग्री लेकर आने लगे. नतीजा यह हुआ कि बाबा जी की कुटिया में आटा, दाल चावल की पोटलियों का ढेर लग गया. अनाज की उपलब्धि की खुशबू चूहों तक पहुंच गयी. देखते ही देखते दर्जनों चूहे पोटलियों को कुतरने पर आमदा हो गए.

भक्तजनों में इस विपदा की चर्चा हुई तो एक भक्त भण्डार की रक्षार्थ एक बिल्ली ले आया. बिल्ली ने हर्ष पूर्वक एक एक करके चूहों को खाना शुरू कर दिया. इस प्रकार एक महीने में सारे चूहों का अंत हो गया. अब बिल्ली के लिए वैकल्पिक भोजन की व्यवस्था करने के लिए सोचना पड़ा, यानि, अब दूध चाहिए था तो एक आत्मीय भक्त अपनी दुधारू गाय और उसकी बछिया को आश्रम में बाँध गया. गाय तो आ गयी पर चारे का इन्तजाम ज्यादा भारी पड़ने लगा. कुछ दिनों तक तो प्रवचन सुनने वाले गोमाता के लिए भी अपने घरों से चारा लाते रहे, लेकिन इसकी स्थाई व्यवस्था की आवश्यकता महसूस की जाने लगी. आन गाँव की गीतावली नाम की एक विधवा स्त्री को घास की व्यवस्था व गो-सेवा के लिए स्थाई रूप से रखना पड़ा.

मनुष्य का मन है, कई ऋषि-मुनि, देवी-देवता यहाँ तक कि देवताओं के गुरू बृहस्पति भी अपनी वासनाओं पर कमजोर सिद्ध हो गए थे, तो स्वामी परमानंद भी अपनी वैराग्य से फिसल गए. गीतावली  ने अगले ही वर्ष एक पुत्र को जन्म दिया. इस प्रेमासक्ति पर लोगों ने बातें तो बनाई पर लोगों का क्या है, कहते ही रहते हैं. सँसार की इस माया में फंसे लोगों को देख कर कभी खी-खी करते हुए, कभी मुस्कुराते हुए या चटखारे लेते हुए धीरे धीरे शांत हो जाते हैं.

एक दिन परमानंद अपने इस छोटे बच्चे को कंधे पर लेकर टहला रहे थे. उनके कुछ श्रद्धालुजन कहीं दूर से आकर सामने टकरा गए. उन्होंने देखा कि गीताध्यायी वैरागी परमानंद जी के कंधे पर जो बालक था वह उनके ऊपर ही मल-मूत्र विसर्जन कर रहा था, जो कि उनके गेरुए वस्त्रों पर धारा बनकर नीचे को बह रहे थे.

परमानंद समझ गए कि इस हालत पर आगंतुक लोग अवश्य प्रश्न करेंगे. इसलिए पहले ही बोल पड़े, “ये देखिये मेरा गीता ज्ञान का नाला अब इस तरह से बहने लगा है:

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि !
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति !! (अध्याय ३-श्लोक ३३)
अर्थात:
प्राणी सभी प्रकृति के वश में
      ज्ञानी भी उसके वश में.
सभी प्रकृति के वशीभूत हैं
      निग्रह है किसके वश में.

सभी लोग हैरान होकर सुनते रहे. तर्क से कोई लाभ होने वाला नहीं था क्योंकि तर्क का कोई अंत नहीं होता है. यह भी है कि इस माया रूपी सँसार की रीति है कि आप्त वचन तो बहुत हैं, लेकिन लोग अपनी सुविधानुसार उनका अर्थ निकाल लेते हैं.
***

रविवार, 7 अप्रैल 2013

शुचि कामना

चँचल चित्त पिपीलिका गतिमान
 विशाल पीपल वृक्ष पर उर्ध्व
  किसी आराध्य की अन्वेषक सी,
    अनवरत दौड़ी चली जाती है.

कष्टमय साधना क्यों करती वह
 अगर मधु संकलन ही करना था
  बिखरे पड़े हैं सर्वत्र मधुमय फल-
   विकसित-गंधित-सर्वस्व समर्पित.

भावना छुपी है इस प्रयास में उसके
 गहन प्रकृति का अनुबंध सा है ये
  उसको केवल मधु कामना नहीं है
   चाहना विशेष है विशुद्धि की भी.

                   ***

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

घर-जमाई

किसी विद्वान ने लिखा है कि ‘इतिहास खुद को दुहराया करता है और अगली बार उसी पर प्रहसन यानि नाटक भी करवाता है'.
 मैं, टीकाराम फुलारा अपने देश से बहुत दूर स्विट्जरलैण्ड के ज्यूरिख शहर में एक आलीशान घर में अपनी पत्नी के साथ बैठा हूँ. दूसरी ही दुनिया के अति रमणीय, मनमोहक अवर्णनीय नजारों में खोया हुआ हूँ. हमारे बेटे भास्कर ने मुझे और अपनी माँ को बहुत आग्रह करके यहाँ बुलाया है. उसी ने पासपोर्ट, वीजा, सब कागजी कार्यवाही की है, वरना मेरी क्या औकात या विसात थी कि हवाई यात्रा करके यूरोप के इस सुरम्य-सुन्दर देश जिसे धरती का स्वर्ग भी कहा जाता है, में पहुँच सकता.

स्वर्ग और नरक की बहुत सी कथा-कल्पनाएँ मैंने पढ़ी सुनी हैं पर ये ‘लोक’ इस पृथ्वी के बाहर कहीं नहीं हैं. विज्ञान ने इन कपोल कल्पनाओं की असलियत खोल दी है. अंतरिक्ष में दूर दूर तक खोजबीन हो चुकी है इसलिए ये शाश्वत सत्य उजागर हो चुका है कि जहाँ सुख है, वहीं स्वर्ग है, और जहाँ दुःख है, वहीं नरक है. कथाओं के सूत्र तो आम लोगों को सद्मार्ग पर बाँधे रखने के लिए रचे गए हैं.

यद्यपि सुख-सुविधाओं और ऐश्वर्य के मामलों में मेरा देश भारत इस विकसित देश से १०० वर्ष पीछे होगा, पर मेरे संस्कारों में गहरा जड़ा हुआ है ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ इसलिए मैं हजार गरीबी, बीमारियों, अभावों, अनाचार-अत्याचारों व गन्दगी आदि नकारात्मक परिस्थितियों के होते हुए भी ‘मेरा भारत महान’ ही कहना चाहूँगा.क्योंकि वहाँ मेरा अपनापन है.

मेरा बचपन बहुत अभावों में बीता. मेरे पिता स्व. मोतीराम फुलारा मेरे नाना-नानी के घर जमाई बने क्योंकि मेरी माँ के अलावा नाना-नानी की कोई और औलाद नहीं थी. नाना जी का गांव बाड़ीखेत, कौसानी से लगभग २५ किलोकीटर दूर उत्तरमुखी पहाड़ी पर है, जहाँ से उत्तुंग विशाल हिमालय की त्रिशूल व पंचचूली बिलकुल सामने उज्जवल-धवल, मुकुट-मणि की तरह नजर आते हैं. बचपन में तो मुझे उस नैसर्गिक सौंदर्य का कोई अहसास नहीं होता था क्योंकि जब से होश संभाला, ये नजारा नित्य ही देखता था. यहाँ स्विट्जरलैण्ड में आकर मुझे बार बार उस दृश्य को याद करने का मन हो रहा है, और मैं आँखें बन्द करके उसे अप्रत्यक्ष रूप में देख लेता हूँ और आनंदित होता हूँ. बाड़ीखेत गाँव के चारों ओर चीड़ के घने जंगल हैं. बीच में ये गाँव एक नखलिस्तान की तरह जैसे तराशा गया है. इसमें तब मात्र १२ घर थे. सब खेतीहर गरीब लोग थे. आज के तराजू से तौलेंगे तो सभी बीपीएल थे. मेरे पिता भी पैदाइशी गरीब थे तभी तो अपने गाँव डफौट से यहाँ ससुराल में रहने आ गए. चूंकि बाड़ीखेत गाँव में अब तक मेरे पिता ही पहले व आख़िरी घरजमाई बने थे इसलिए गाँव के सभी लोग मेरे परिवार को नाम या जाति से न पुकारते हुए केवल घरजमाई ही कहा करते थे, यानि एक तरह से हमारा उपनाम घरजमाई हो गया, जो असहज भी नहीं लगता है क्योंकि बचपन से ही इस संबोधन को सुनते आये हैं.

बाड़ीखेत से खड़ी पहाड़ी की पगडंडी द्वारा ५ किलोमीटर नीचे उतर कर गरुड़ बाजार है. वहीं स्कूल होता था. मैं रोज नगेपाँव इतनी दूर पढ़ने जाता था. आठवीं कक्षा तक पढ़ पाया. बाकी समय अन्य लड़के-लड़कियों के साथ जंगल में गाय, भैंस व बकरियां चराया करता था या बन्दर भगाया करता था क्योंकि फसलों को बंदरों से बचाना जरूरी होता था.

सयाना होने पर मैं एक रिश्तेदार के साथ बरेली आ गया,  और माचिस फैक्ट्री में मजदूरी करने लगा. कुछ सालों के बाद मेरा विवाह पर्कोटी गाँव की हेमंती देवी से हुआ. विवाह के दो वर्षों के अंतराल में हमको एक पुत्ररत्न की प्राप्ति भी हो गयी. जिसका नाम रखा गया भास्कर. भास्कर के सात साल के होने पर मैं उसे अपने साथ बरेली ले आया. उसे स्कूली शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल में भर्ती करा दिया. ये भगवत कृपा थी भास्कर पढ़ने में होशियार निकला. उसकी बुद्धि चातुर्य देखकर स्कूल के प्रधानाध्यापक ने एक बार कहा था, “बुद्धि किसी की बपौती नहीं होती है. भास्कर एक दिन तुम्हारा नाम अवश्य रौशन करेगा.”

हम दोनों बाप-बेटे जब भी छुट्टियाँ होती, गाँव हो आते थे, पर जब मेरे माता-पिता थोड़े अंतराल में स्वर्ग सिधार गए तो घर की सारी जिम्मेदारी चचेरे मामा लोगों को देकर भास्कर की माँ को भी बरेली ले आये. तब भास्कर दसवीं में पढ़ रहा था.

मेरी फैक्ट्री के मालिक को जब भास्कर के हाईस्कूल की बोर्ड  परीक्षा में प्रथम आने की खबर हुई तो उन्होंने मुझे बुलाकर कहा, “तुम्हारे बेटे को आगे मैं पढ़ाऊंगा.” उनकी यह मेहरबानी भरी वाणी सुन कर मेरी अश्रुधारा बह निकली क्योंकि मैं अपने खर्चे से उसे आगे पढ़ाने में असमर्थ था.

नास्तिक लोग कहते हैं कि "ईश्वर कहीं नहीं है, ये जो होता है प्रकृति स्वयं करती है." लेकिन नहीं, कोई ऐसी अदृश्य शक्ति जरूर है जो इस सारी व्यवस्था को चला रही है अन्यथा ये सारे तारतम्य जिनको संयोग कहते हैं, कैसे मिलते?

भास्कर सरकारी वजीफा पाने लगा था, फिर भी मैं अपने मालिक का शुक्रगुजार रहा हूँ कि उन्होंने भास्कर को सदा प्रोत्साहित करते हुए सारे खर्चे उठाये. दिवस जात नहीं लागत बारा! भास्कर ने पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय से एम.टेक किया. उसकी प्रतिभा को देख कर प्रशासन ने उसे पीएच.डी. करने के लिए सं.रा. अमेरिका में केलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में भेज दिया.

मेरी तो सारी सोच ही बदल गयी क्योंकि ये सब हमारी कल्पनाओं से परे की बात थी. भास्कर कई बार भारत आया और फिर लौट जाता रहा अब उसकी दुनिया अनंत हो गयी थी. इस बीच मैं अपनी नौकरी से रिटायर हो गया हूँ. मुझे यह बताते हुए शरम आती है कि मुझे पेंशन के रूप मे हर महीने मात्र ५०० रूपये मिलते हैं. यह पेंशन, फैमिली पेंशन वाली स्कीम से मिलती हैं, पर मेरा बेटा हमारी बड़ी पेंशन है, जो अपने वजीफे से लेकर स्टाइफंड की रकम के बड़े हिस्से को बचा कर नियमित मुझे देता रहा है.

दो साल पहले उसने स्विटजरलैंड की सरकार के एक बड़े प्रोजेक्ट में जोइन्ट डाइरेक्टर के पद पर नियुक्ति पा ली. भास्कर ने मुझे बताया कि इस नौकरी को दिलाने में उसके गाइड कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय मे फिजिक्स विभाग के डीन प्रो. अलबर्ट सात्र का हाथ था. वे स्विट्जरलैंड के ही रहने वाले हैं. भास्कर ने बिना लाग लपेट के हमको बताया कि उसने प्रो.अलबर्ट सात्र की इकलौती बेटी मेरी सात्र से चर्च में जाकर शादी कर ली है.  वे दोनों खुश हैं.

मैं यही सोच रहा हूँ कि भास्कर ने हमारे खानदान के घरजमाई नाम को पुन: सार्थक कर दिया है.
***

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

इदरीस मर गया.

वह अपने आप को सीमान्त गाँधी यानि खान अब्दुल गफ्फार खान का वंशज बताता था, पर यह सच नहीं था. उनसे उसका दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं था. सच तो यह है कि इदरीस, पिण्डारी था और उसके बुजुर्ग राजस्थान के टोंक जिले से वर्षों पहले भरतपुर आ बसे थे.

पिंडारियों का इतिहास में जिक्र ठग व दुर्दांत लुटेरों के रूप में दर्ज है. अंग्रेज सरकार इन क्रूर लोगों से बहुत परेशान रही क्योंकि ये मासूम यात्रियों को क़त्ल करके लूट ले जाते थे. कहा तो यह भी जाता है कि अपनी रियासत में वारदात न करने के एवज में ग्वालियर के सिंधिया राजा, बुन्देला राजा, तथा कुछ अन्य रियासतों के शासक इनको संरक्षण दे रखा था. कहने को तो यह  भी कहा जाता था कि ये बहुत बहादुर योद्धा/ सैनिक होते थे, लेकिन इनका चारों तरफ आतंक था इसलिए ब्रिटिश  सत्ता ने पहले तो इनका दमन करने का पूरा प्रयास किया, पर मजबूर होकर इनसे संधि करके इनको राजपुताना के अनेक रियासतों में कई टुकड़ों में जागीरें दी गयी ताकि ये अपराध का रास्ता त्याग दें. उस समय जब भारत आजादी की दहलीज पर था तो इंग्लेंड के तत्कालीन प्रधानमन्त्री विंस्टन चर्चिल ने पिंडारियों के चरित्र को ध्यान में रख कर कहा था, “इस देश को लुटेरों को नहीं सौंपा जा सकता है.”

यह समय की विडम्बना ही है कि आज विशिष्ट किस्म के लुटेरे इस देश में अपना धर्म निभा रहे हैं. उसी कड़ी में शामिल था इदरीस ‘गाँधी’ उसको ‘गाँधी’ उपनाम हिंडोन के एक सोना-चांदी व्यापारी नेमीचंद जैन ने दिया था. नाम के अलावा एक मोटर साइकिल, चार जोड़े खादी कुर्ते-पायजामे भी सिला कर भी दिये ताकि वह उसकी आड़ में सोने-चांदी की तस्करी कर सके. हुआ भी ऐसा ही. नेमीचंद जैन अपने धन्धे में मालामाल हो गया, और सहयोगी इदरीस भी समृद्ध हो गया.

पिण्डारी लोगों के चहरे की बहुत कुछ बनावट मैकाका बंदरों की सी पाई जाती थी. चहरे लाल गुलाबी अफगानियों जैसे दीखते थे, लेकिन इदरीस काला था क्योंकि उसका बाप शकूर पठान भी काला ही था. शकूर एक पिण्डारी खानदान की औरत को टोंक से अपने साथ ले आया था. शायद कायदे से उससे उसका निकाह भी नहीं हुआ था. शकूर पठान पुलिस का सिपाही था शक्ल से भी डरावना था इसलिए कोई भी उससे नहीं पूछ सका कि किसकी बीवी भगा कर लाया था.

शकूर पठान ने बेटे इदरीस को बी.ए. तक पढ़ाया और बेटा चतुर निकला. वह स्थानीय बड़े नेताओं की शागिर्दी करके उनका खास कायकर्ता बन गया तथा धीरे धीरे नेताओं की दलाली करने लगा. जिसको गरज होती थी, मनचाहा रुपया देकर अपना काम कराता था. इसमें सिर्फ इदरीस गाँधी का दोष नहीं था, पूरा सिस्टम ही जब भ्रष्ट चल रहा हो तो अकेले इदरीश को भ्रष्ट कहने से कोई फ़ायदा नहीं था. वह अब एक नामी सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सम्माननीय व्यक्तियों की कतार में आ गया था. और सिर्फ ‘गाँधी जी’ के संबोधन से पुकारा जाने लगा.

जब अनाप-शनाप पैसा आता है तो अपने साथ अनेक दूसरी बुराइयां भी लेकर आता है. इदरीस नशा-पत्ता तो बिलकुल नहीं करता था, लेकिन शहर के कई बदनाम घरों में उसकी आवाजाही हो गयी. बस्ती में एक खूबसूरत औरत से जब उसकी सहेली ने एक बार कहा, “तुम्हारे घर गाँधी आता जाता है. लोग बदनाम कर रहे हैं.” इस पर वह महिला गर्व से बोली, “बदनाम होंगे, तभी तो नाम होगा.” सहेली खिसिया कर रह गयी, लेकिन हमारे समाज में आज भी धर्म पर आस्था है. लोग पाप और पुण्य का ध्यान रखते हैं. सभी लोग अनैतिक नहीं है, इसका प्रमाण यह भी था कि शरीफों के घरों में इदरीस गाँधी की दस्तक नहीं होती थी. इदरीस गाँधी की विशेषता यह भी थी कि वह जिन घरों पर मेहरबान होता था, उनको फल-फूल, मिठाईयों से लेकर साडियां, फर्नीचर आदि तोहफों से नवाजा करता था. वे लोग खुश होते थे कि शहर का नामी आदमी अपनी जीप में उनके घर आता है, और वहीं नित्यकर्म, नहाना-धोना कर जाता है. बड़े लोगों को अपना कहने में गुमान होता है.

अफसोस, उभरता हुआ ३८ वर्ष का यह राजनेता, जिसकी जयपुर सिविल लाइन्स के बंगलों के चूल्हों तक पहुँच हो गयी थी, एक रात अचानक हृदयघात से चल बसा. ईलाज का मौक़ा ही नहीं मिला.

इदरीस गाँधी मर गया. उसकी शोक सभा में अनेक गणमान्य लोगों ने भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की. समाज में तथा राजनीति में एक शून्य छोड़ गया जिसकी भरपाई होना मुश्किल है. वह सचमुच आज की राजनीति का चेहरा था.
***

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

फूल सिंह 'मुक्का'

ये नामकरण करने वाले पण्डित भी अजीब किस्म के होते हैं. गेंदा सिंह के फूल से बच्चे का नाम फूल सिंह रख दिया. ये फूल हिन्दी वाला है या अंग्रेजी वाला तब इस बात पर गौर करने की जरूरत नहीं समझी गयी. जब बच्चा बड़ा हो गया और कुछ तुकबंदी-कवितायें गढ़ने लगा तो उसने अपना उपनाम ‘मुक्का’ रख लिया. हिन्दी- उर्दू में हुक्का, हुल्लड़, कुल्हड़ जैसे बेढब उपनामों की देखा देखी, फूल सिंह ने ‘मुक्का’ बनना ठीक समझा. वैसे भी बचपन से उसे बात बात में गुस्सा आने पर मुक्का शब्द के प्रयोग करने की आदत सी हो गयी थी. जैसे कि, “दे मुक्का”, “दूंगा एक मुक्का”, या ज्यादा ही ताव आने पर कहता था, “दूँ साले को एक मुक्का.” यों ये रफत भी था कि अब तो फूल सिंह मुक्का आम लोगों में एक चर्चित नाम हो गया है.

जब मुक्का साहब पढ़ लिख कर अध्यापक बन गए और उनकी शादी हो गयी तो लोगों की जुबान पर एक नया शब्द आ गया ‘मुक्की”. यूं मुक्का-मुक्की मजे से रह रहे थे. मुक्का जी की एक विशेषता यह भी रही कि वे हमेशा नियानब्बे के चक्कर में रहते हैं. चमड़ी जाये पर दमड़ी ना जाये के सिद्धांत पर चलते हैं. ये बात उनके विद्यार्थियों से लेकर चोर-उचक्कों तक सबको मालूम है.

पिछले साल ३१ मार्च को शहर के कुछ शौक़ीन लोगों ने सोनी टी.वी. के कुछ कलाकारों को बुलाकर ‘कॉमेडी नाईट’ का आयोजन करा डाला. पर्चों तथा लाउड-स्पीकरों से जमकर प्रचार किया गया . इसमें न्यूनतम टिकट की कीमत दो सौ रूपये का प्रावधान था. मुक्की का बड़ा मन था कि इस आयोजन का आनन्द लिया जाये, पर चार सौ रुपयों का दंड कौन सहे? घर में धक्का-मुक्की तो नहीं हुई लेकिन मुक्का जी ने ‘ना’ कह कर पत्नी को निराश कर दिया.

होनहार देखिये, डाक से लिफ़ाफ़े में उसी आयोजन के सुपर क्लास के यानि पाँच सौ रुपयों वाली दो टिकट घर पर ही आ गई. किसने भेजी? कौन था मेहरबान? बहुत सोचा, पर कोई कयास नहीं लग सका. मुक्का जी अपनी पत्नी से बोले, “ये सब ऊपर वाले की करामात है, छप्पर फाड़ के टिकट भेजे हैं. तुम तो दो सौ वाले टिकट ही चाहती थी. उसने पाँच सौ वाले भेज दिये.” मुक्की खुश हो गयी. उसको मन की मुराद मिल गयी थी. मुक्का जी को टिकटों के नकली होने का संदेह हुआ और वे इसकी पड़ताल करने आयोजकों के कार्यालय गए. मालूम हुआ कि टिकटों में कोई खोट नहीं था. वे सही थे. फिर क्या था, नियत ३१ तारीख की शाम को दोनों जने घर को ताला जड़ कर चल पड़े. रात भर हँसी के फव्वारों में नहाते रहे. सुबह चार बजे हँसते-हँसाते घर लौटे तो घर के ताले खोलने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि ताले टूटे हुए थे और घर का सारा कीमती सामान गायब था.

सीधे पुलिस स्टेशन का रुख किया और घटना की एफ.आई.आर. लिखवाई. इन्स्पेक्टर ने नाम पूछा तो उन्होंने कहा “फूल सिंह मुक्का” इन्स्पेक्टर मुस्कुराते हुए उनके चहरे की गहराई सी नापने लगा और बोला “आपको आज की तारीख भी याद होगी, आज एक अप्रेल है, क्या कॉमेडी है.”

इस सारे संयोग पर सोचने पर मुक्का जी को ‘फूल’ बनने पर शर्मिंदा होने के साथ साथ, ‘लुट जाने’ का गहरा धक्का भी लगा.
***