शुक्रवार, 29 जून 2012

चुहुल -२६

(१)
एक सज्जन रात्रिभोज के लिए एक बिलकुल घटिया किस्म के रेस्टोरेंट मे गया. उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसका एक बचपन का दोस्त वहाँ पर बैरा बन कर काम कर रहा था. उसने उससे जाकर कहा, यार, तुझे ऐसे घटिया रेस्टोरेंट मे काम करते हुए शर्म नहीं आती?
दोस्त बोला, शर्म तो मुझे यहाँ खाना खाने में आती है.

(२)
आफिस से एल.टी.ए. लेकर विवेकसिंह सपरिवार आगरा घूमने गया. आगरा दो खास बातों के लिए प्रसिद्ध है--एक तो ताजमहल और दूसरा वहाँ का पागलखाना (मनोचिकित्सालय).

जब छुट्टियाँ बिता कर विनोद अपने आफिस पहुँचा तो उसके सहकर्मी दयाचंद ने उसकी चुहुल करने के लिए मजाकिया अंदाज में पूछा, क्यों, आगरा गए थे?
विनोद ने कहा, हाँ.
दयाचंद ने फिर उसी लहजे में कहा, क्या कहते हैं वहाँ के डॉक्टर?
विनोद उसका मतलब समझ गया, और उसी लहजे मे सटीक जवाब दिया, बोल रहे थे कि मरीज को साथ क्यों नहीं लाये? अब बता, तू कब चलेगा?

(३)
एक सज्जन अपने घर के बरामदे में अपने दो स्कूल जाने वाले बेटों को उनके परीक्षा रिजल्ट पर बुरी तरह डांट रहे थे. गुस्से में उनको एक एक चपत भी रसीद कर दी.
पड़ोसी व्यक्ति ने कहा, बच्चों को क्यों डाट रहे हो, रिजल्ट तो कल आने वाला है?
वह बोले अरे भाई, मैं कल शहर से बाहर जाने वाला हूँ इसलिए कल का काम आज ही कर रहा हूँ.
                                              
(४)
एक लड़के ने एक लड़की को शादी के लिए प्रस्ताव रखने के लिए एक महंगी हीरे की अंगूठी खरीदी, और उसके पास गया. लड़की ने सीधे सीधे कह दिया कि मैं किसी और से प्यार करती हूँ, तुम्हारी अंगूठी स्वीकार नहीं कर सकती.
लड़का बोला, क्या तुम मुझे उसका पता दे सकती हो?
लड़की घबराते हुए बोली क्यों, तुम उसे मारना चाहते हो?
लड़के ने मायूसी के साथ कहा, नहीं, मैं उसे ये अंगूठी बेचना चाहूँगा.

(५)
एक थानेदार ने किसी तस्कर से ५००० रुपयों के जाली नोट पकड़े और अपने जिला मुख्यालय को इसकी सूचना भेज दी. मुख्यालय से जवाब आया कि सभी जाली नोट यहाँ भेज दो.
थानेदार ने पत्र द्वारा सूचित किया कि "सभी जाली नोट पोस्टल आर्डर के मार्फ़त आपको भेज दिये गए हैं."
***

बुधवार, 27 जून 2012

दिल से

इस भीड़ भरी दुनिया में मैं अकेला बैठा हूँ, न चाहते हुए भी तुमको याद कर रहा हूँ कि मेरी जिंदगी की वीरानी के लिए तुम, सिर्फ तुम जिम्मेदार हो.

आज हमारी शादी की पहली मनहूस सालगिरह है. कमरे में मैं अन्धेरा करके बैठा हुआ हूँ. तुम्हारे द्वारा किया गये दुर्व्यवहार को स्मृरण करके मैं अपना खून जला रहा हूँ. तुम्हारी गुस्ताखियों को मैं कभी क्षमा नहीं कर सकता हूँ.

तुम्हारे खूबसूरत चेहरे के पीछे जो विद्रूपता छिपी है, उसने मेरे सीधे सपाट जीवन को कलुषित कर दिया. तुम अपने अहँकारयुक्त हिकारत भरी मुस्कान के साथ घर छोड़ कर गयी, जिसकी चोट का दर्द मैं लगातार सहला रहा हूँ.

तुम अगर ये सोच रही होंगी कि पिछली बार की तरह मैं तुम्हें फिर से मनाने आऊँगा तो ये तुम्हारी खामखयाली होगी, अब मैं तुमसे पूरी तरह नफरत करता हूँ.

ये शादी वाला पलंग, गद्दे, चादर-तकिये, जिन पर विवाहोत्सव के चिन्ह अभी पुराने नहीं पड़े, मुझे बेहद टीस देने लगे हैं. मैं जल्दी ही इनको घर के बाहर कर दूंगा. दीवारों पर तुम्हारी पसंद के रंग, परदे, व पेंटिंग्स मुझे फूहड़ लगने लगे हैं.

मेरे कमरे में तुम्हारी ड्रेसिंग टेबल पर रखे हुए देशी-विदेशी महंगे सौंदर्य प्रसाधन मुझे गंदे कचरे के समान दीखते हैं. अभी मैंने इनको फेंका नहीं है ताकि परिवार के लोग अन्यथा न लें. इसलिए एक मोटी चादर डाल कर इसे ढक दिया है.

तुमने अच्छा किया कि अपनी दहेज सामग्री के साथ साथ अपने जेवरों का बक्सा भी लेकर गयी अन्यथा ये सोने के सर्प मुझे डसते रहते.

तुम एक बिगडैल, जिद्दी, बद्तमीज़ औरत हो, जिसे अपने बाप के नाम-धाम व धन दौलत का घमंड है. पर तुम खुद क्या हो? तुम्हारी अपनी निजी पहचान क्या है? ये तुमने कभी भी नहीं सोचा होगा पर एक दिन अवश्य ऐसा आएगा कि तुम पाश्चाताप के घूंट पियोगी.

तुम्हारे मिनिस्टर बाप और रईसजादी माँ ने तुम्हारी जंजीर मुझे क्यों पकड़ाई, ये मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ. ये जंजीर भी कच्चे धागों की निकली जिसे तुम बार बार तोड़ने की कोशिश करती रही. मैंने भी ठान लिया है कि अबके तुमको फिर से तोड़ने का दंभपूर्ण मौक़ा नहीं दूंगा.

मैं एक शिक्षक हूँ, मेरे अपने पवित्र संस्कार व आदर्श है, तुम चाहती थी कि मैं भी तुम्हारे आदर्श हीरो अपने जीजा जी की तरह तुम्हारे बाप के तलवे चाटता रहूँ. मैं उनके माया-प्रपंच के सँसार पर थूकता हूँ.

अब मैं तुम्हारा कुछ भी नहीं लगता हूँ. तुम मेरे लिए एक दु:स्वप्न की परछाई मात्र हो.

मैं तुमको अपने रिश्ते की डोर से आजाद करता हूँ, और चाहता हूँ कि तुम अब भूले भटके भी मेरे मन मन्दिर की घंटी बजाने की कोशिश मत करना.
                                               ***

सोमवार, 25 जून 2012

मृत्युभय

ये कहा जाता है कि जिस समय प्राणी पैदा होता है उसी क्षण उसकी मृत्यु की कुंडली भी साथ में आ जाती है. सँसार नश्वर है, चराचर जो भी पैदा होते हैं अपनी अपनी आयु के अनुसार नष्ट भी हो जाते हैं. शास्त्रों में इस विषय को विस्तार से समझाया गया है, फिर भी प्राणीमात्र का स्वभाव है कि वह मरना नहीं चाहता है.

वैज्ञानिक सोच वाले बहुत से लोग कल्पना करते हैं कि भविष्य में कोई ऐसा टानिक, जीन्स अथवा ऊतक विकसित कर लिया जाएगा, जिससे अमरत्व मिल सकता है. अनेक पौराणिक गल्प हैं, जिनमे अमरत्व प्राप्त किये हुए मनीषियों का जिक्र है, लेकिन इनकी सच्चाई सत्यता के बिलकुल परे है. उम्रदराज लोगों में मृत्युभय एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है क्योंकि मरना कोई नहीं चाहता है. एक सुन्दर दृष्टांत इस सम्बन्ध में याद आ रहा है.

नत्थाराम, एक देहात का रहने वाला लकड़हारा था. रोज जंगल जाकर एक भारा लकड़ी काट लाता  और पास के शहर/कस्बे में बेच आता था. उस पर कोई पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं थी क्योंकि संयोगवश वह जीवनभर कुंवारा ही रह गया. अकेला था. जब तक ताकत थी, खूब कमाता था और खूब खाता भी था. अब जब उम्र सत्तर के पार हो चली थी तो बुढ़ापा अपना असर दिखाने लगा था. नत्थाराम का हुलिया कुछ इस प्रकार था: अधफटा अंगरखा, एक छोटी धोती-लँगोटी, सर पर एक पुरानी चपटी पगड़ी, और पैर में कच्चे चमड़े की बनी घिसी हुई देसी जूती.

नित्य की ही तरह उसने आज भी धोकड़े की मोटी मोटी लकड़ियों का गट्ठर बनाया, गर्मी बहुत थी, वह बेहद थका महसूस कर रहा था, फिर एक छायादार पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठ गया. जेब से बीड़ी का बण्डल और माचिस निकाली, एक बीड़ी सुलगाई और लम्बी सासें लेते हुए कस खींचता रहा. बीच बीच ने अपनी अधपकी दाढ़ी और बेतरतीब बढ़ी हुई मूछों पर भी हाथ फेरता रहा. ना जाने क्या क्या सोच उसके दिमाग में घूमने लगे. पर, थकावट, हताशा और दिशाहीन जीवनयात्रा के मद्देनज़र उसके मुँह से उच्छ्वास के साथ ये शब्द निकल फूटे, हे भगवान, अब तो तू मुझे उठा ले.

उसका वाक्य पूरा होते ही उसकी कनपट्टी पर एक ठन्डे हाथ का स्पर्श हुआ तो उसने मुड़कर देखा, साक्षात यमराज जी खड़े थे. वे बोले हाँ नत्थाराम, कैसे याद किया?

यमराज को देखकर नत्थाराम के बदन में झुरझुरी पैदा हुई और वह कुछ सेकिंड में ही पसीना-पसीना हो गया, उसकी घिग्गी बंध गयी.

यमराज ने कड़क कर फिर बोला, बोल, क्यों बुलाया?

नत्थाराम आनन-फानन में बोलने लगा कि लकड़ी का भारा उठाने में मदद करने वाला कोई नहीं था इसलिए याद किया था.

उसकी बात सुन कर यमराज समझ गए कि माजरा क्या है? वे मुस्कुरा दिये.

नत्थाराम फिर बोला, आइन्दा मैं कभी इसी तरह गलती से भी बुलाऊँ तो आप नाहक परेशान मत होना, आपको आने की जरूरत नहीं है.
                                                  *** 

शनिवार, 23 जून 2012

विधना रूठ रहे

हिडम्ब सिंह को बचपन में ही उसके झगडालू स्वभाव के कारण संगी साथियों ने 'झगडू' नाम दे दिया था. आज तो वह ८२ साल की उम्र में हैं और नरक भोग रहे हैं, पर कहते हैं कि कभी इमारत बहुत बुलंद थी. घर, गाँव, इलाके में उनकी तूती बोलती थी.

अपने कार्यकलाप एवं बात व्यवहार में हिडम्ब सिंह ने कभी न्याय-अन्याय को नहीं परखा, जैसा मन में आया बोल दिया, और तेवर बता दिये. लोग तो भेड़ों की तरह होते हैं, डर जाते हैं. कौन उसकी दवंगाई का विरोध करके जोखिम उठाये? वैसे भी विरोध करने के लिए घर-गाँव में बचा ही कौन था? नौजवान सब बाहर पलायन कर गए थे, बूढ़े अपाहिज बचे थे, जो किसी हालत में मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थे.

हिडम्ब सिंह डील-डौल से पूरे भीमकाय रहे हैं, माता-पिता की इकलौती संतान हैं, उनकी पिछली तीन पीढियाँ भी एक एक बेटा ही जनती आई हैं. इसलिए जमीन का बँटवारा भी नहीं हुआ, और अब वे गाँव में सबसे ज्यादा जमीन के मालिक भी हैं. २१ साल की उम्र में वे फ़ौज में भर्ती हो गए थे, वहाँ का खाना खुराक भी उनको खूब माफिक आया. १५ साल के बाद जब वे सिपाही के सिपाही ही पेन्शन लेकर गाँव लौटे तो उनके रंग-रूप और मिजाज में अलग ही तुर्सी थी. वे किसी को कुछ समझते ही नहीं थे. गाँव के छोटे-बड़े सभी पर उनका स्वाभाविक दबदबा हो गया था.

शादी तो उन्होंने फ़ौज में जाने से पहले कर ली थी, पर उनकी पत्नी कांता को हजार मिन्नतों व पूजा अर्चनाओं के बाद भी कोई संतान सुख नहीं मिला. फ़ौज से रिटायर होने के उपरान्त कान्ता की ही सलाह पर उन्होंने आन गाँव के एक गरीब की बेटी बैजंती से दूसरा विवाह भी किया लेकिन उससे भी कोई संतान पैदा नहीं हुई. यहाँ पहाड़ में जिस घर में वंश बेल न उगे उसे नठाई कहा जाता है. हिडम्ब सिंह और उसकी दोनों पत्नियों ने इसे ईश्वर की इच्छा मान कर अपने भाग्य को कोसा. परिवार नठाई ही रह गया.

संतान न होने से मनोवैज्ञानिक दुष्परिणाम ये हुआ कि हिडम्ब सिंह हर मामले में कृपण होते चले गए. बड़ी बीबी कांता की पित्त की थैली में पथरी रोग होने के कारण वह पीलियाग्रस्त हो गयी. लंबे समय तक बीमार रही, लेकिन खर्चा होने के डर से उसका ऑपरेशन तक नहीं कराया. यद्यपि पूर्व फ़ौजी होने की वजह से उनको बहुत सुविधाएँ मिल सकती थी, पर जब मनुष्य दुष्प्रवृत्तियों में उतर जाता है तो अच्छे रास्ते अपने आप बन्द होते चले जाते हैं. बेचारी कांन्ता ईलाज के अभाव में जल्दी चल बसी.

ऐसा नहीं कि उनके पास रुपयों की कमी थी, फ़ौज की पेन्शन थी, लोगों को वक्त-बेवक्त रूपये उधार देकर दादागिरी से वसूली कर लिया करते थे, पर फितरत को क्या किया जाये? आदमी जोड़ने के चक्कर में सब कुछ भूल जाता है. ये दुनिया की रीति है कि जो लोग धन को पकड़ कर कुंडली मार कर बैठे रहते हैं, एक दिन उसे बिना भोगे ही औरों के लिए छोड़ कर चले जाते हैं. कभी कभी किसी को ये बात देर में समझ में आती है. इसलिए वैजन्ती के आग्रह पर उन्होंने गाँव में भंडारा करने की ठानी. पुरोहित जी से सलाह करने के बाद सात दिनों का 'भागवत कथा सप्ताह' करने के बहाने पुन्य कमाने की बात बन गयी.

कथा-कीर्तन, पूजा-पाठ सब मन को सन्तोष करने के लिए होते हैं, इसलिए हिडम्ब सिंह को भी लगने लगा कि उसके द्वारा किये गए सभी दुष्कर्म इस आयोजन से धुल जायेंगे पर कर्मों की गति तो न्यारी है. एक दिन जब गाँव में होलिकोत्सव हो रहा था तो हिडम्ब सिंह एक बड़े कटे हुए पेड़ की तरह सबके सामने धडाम से जमीन पर बेहोश हो कर गिर पड़े. लोगों ने बड़ी मुश्किल से उनके भारी बदन को उठाया और कठिनाई के साथ डोली में लाद कर अल्मोड़ा जिला अस्पताल तक पहुंचाया. अल्मोड़ा के डाक्टरों ने देखा कि उनको ह्रदय सम्बन्धी बड़ी बीमारी है, साथ ही कमर के जोड़ों की हड्डियां भी खिसकी हुई हैं, तो उन्हें तुरन्त हल्द्वानी रेफर कर दिया. जहाँ ऑपरेशन की बात सामने आते ही हिडम्ब सिंह डर गए और चीर-फाड़ कराने से मना कर दिया. डॉक्टरों की सलाह न मानते हुए वे उसी रुग्ण अवस्था में वापस गाँव में लाये गए. कुछ लोगों ने समझाया भी कि आर्मी अस्पतालों में सब सुविधाएँ हैं, खर्चा भी नहीं होगा, पर उनकी मति पर पत्थर पड़े थे, जिद पर अड़े रहे कि ऑपरेशन नहीं कराना है. उनको चिंता हो रही थी कि अगर ऑपरेशन में मैं मर गया तो मेरी जायदाद का क्या होगा? बैजन्ती का क्या होगा?

'झगडू सिपाही' करीब आठ साल से बेबस बिस्तर पर पड़े हुए हैं, बहुत कमजोर हो गए हैं, मल-मूत्र उठाते हुए बेचारी बैजन्ती परेशान है, पर मजबूरी में अर्धांगिनी होने का अपना फर्ज निभा रही है.

वाणी की कठोरता व कटुता की वजह से पहले से ही भले लोग उनसे किनारा करते थे, अब इस लम्बी असाध्य बीमारी ने मातम-पुर्सी करने आने वालों का भी आना लगभग बन्द हो गया है. हिडम्ब सिंह भगवान से प्रार्थना करने लगे हैं कि भगवान मुझे मौत दे दे, पर भगवान भी इतना निष्ठुर बन गया है कि उनकी बात सुनता ही नहीं.
                                            ***   

गुरुवार, 21 जून 2012

हिलोर

उनका पूरा नाम हेमा शर्मा जनार्दन रेड्डी है. वह जब शिमला में बी.एड. का प्रशिक्षण ले रही थी, तभी उनकी मुलाक़ात एयर फ़ोर्स के पायलेट स्वर्गीय जनार्दन रेड्डी से हुई. मुलाक़ात प्यार में बदली और प्यार शादी में. वह हिमांचली लड़की थी और उनका पूरा परिवार रूढ़िवादी व संकीर्ण विचारों वाला था. फलत: उन्हे विद्रोह करना पड़ा तथा परिवार जनों से संपर्क-सम्बन्ध पूरी तरह टूट गए.

पायलेट जनार्दन रेड्डी आंध्र प्रदेश के रिमोट गाँव के रहने वाले थे. उनके परिवार में सभी जने सिर्फ तेलुगु भाषा बोलने समझने वाले थे अत: हेमा की पटरी वहां नहीं बैठी. वह मुम्बई में ही रही. उनका दुर्भाग्य था कि जनार्दन रेड्डी शादी के पाँच साल बाद एक हवाई दुर्घटना के शिकार हो गए, तब उनका बेटा सुदर्शन मात्र तीन साल का था.

हेमा बहुत हिम्मतवाली थी उसे बी.एम.सी. के स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गयी. उन्होंने अपने आत्मविश्वास को कायम रखते हुए सुदर्शन को बड़ा किया, पढ़ाया और तमाम संस्कार दिये. उसको बाप की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. जनार्दन रेड्डी की जीवन बीमा पालिसीस व अन्य विभागीय श्रोतों से जमा पूंजी से हेमा को कभी भी आर्थिक विपन्नता नहीं हुई. उसने नई मुम्बई में एक बढ़िया फ़्लैट खरीदा, बेटे को महंगे पब्लिक स्कूलों में पढ़ाते हुए पूना से एम.टेक. करवाया. उनका ये एकसूत्री कार्यक्रम उनके बुरे दिनों का सहारा बना. यों जवानी कब कट गयी पता ही नहीं चला.

वह देखने में अतीव सुन्दर थी और आज भी हैं. उनके रूप लावण्य पर बहुत से परिचितों-अपरिचितों की ललचाई दृष्टि भी कई बार रही, लेकिन हेमा ने किसी को घास नहीं डाली. मुम्बई का आम जीवन ही इतना तेज भाग-दौड़ तथा व्यस्तता का रहता है कि पड़ोस तक के बाशिन्दों से कई बार परिचय नहीं हो पाता है. उनके साथ भी ऐसा ही हुआ. हाँ, सुदर्शन के यार-दोस्त, व सहपाठियों का उनसे संपर्क होता रहता था. पर ये सब रसमी मुलाक़ात सी ही होती थी.

हेमा चाहती थी कि सुदर्शन हमेशा उनके पास मुम्बई में ही रहे, चाहे उसको नौकरी में पैसा कम ही मिले, पर आजकल के लड़कों के तो बड़े बड़े पंख-डेने उगे रहते हैं. सुदर्शन को एक अमरीकी कंपनी में सर्वेयर के पद की नौकरी मिल गयी और वह अपने काम के सिलसिले में दुनिया के अनेक देशों के हवाई सर्वेक्षण तथा भू-गर्भ खनिजों की खोज में घूमने लगा. उसके खून में भी लव-जीन्स थे और उसने अपनी सहकर्मी कैटरीना जोब्स से आस्ट्रेलिया में कोर्ट मैरेज करके माँ को बता दिया कि वह भी अपने बाप से कम नहीं है.

वह कैटरीना को लेकर कई बार मुम्बई भी आता था और माँ को अपनी सफलता की दास्ताँ सुनाता रहता था. वह माँ से आस्ट्रेलिया चलने के लिए बहुत जिद करता रहता था, पर माँ ने तो उसी दिन हवाई जहाज में न बैठने की कसम खा ली थी जिस दिन जनार्दन रेड्डी को हवाई यात्रा लील गयी थी.

वह जब तक नौकरी में रही, अपने आपको उसी दिनचर्या में व्यस्त रखती रही. वह स्कूल की प्रिंसिपल हो गयी थी इसलिए भी सर्विस के अन्तिम १०-१५ वर्षों में प्रशासनिक जिम्मेदारियां निभाते हुए उनको अपने निजी जीवन के बारे में ज्यादा सोचने का वक्त ही नहीं मिला था. पर, अब जब बेटा परदेसी हो गया है तथा खुद को नौकरी से रिटायरमेंट मिल चुका है, तो वह एकदम अकेली हो गयी हैं, मानो जैसलमेर के निर्जन रेतीले सम में दिशाहीन खड़ी हो गयी हो.

उनकी एक साथी-सहेली ने सलाह दी कि समय काटने के लिए उनको किसी सोशल नेटवर्किंग साईट से जुड़ जाना चाहिए. उसकी सलाह पर ही हेमा मैडम ने फेसबुक में अपना खाता खोल कर अपनी जान पहचान बढ़ानी शुरू कर दी. अपरिचित लोगों को भी मित्रता के निवेदन क्लिक किये. फेसबुक पर उन्होंने अपनी जवानी की एक खूबसूरत तस्वीर भी लगा दी. वैसे भी वह आज साठ साल की उम्र पार करने के बाद भी बहुत सुन्दर, सुडौल और आकर्षक हैं. अपने मेकअप और स्मार्ट लुक पर उन्होंने हमेशा ध्यान रखा. उनको देखकर ऐसा कतई नहीं लगता है कि वे साठा हो गयी हैं.

फेसबुक पर नए मित्र ढूढने पर या मित्रों से चैटिंग करने पर उनको अजीब सी गुदगुदी होने लगती थी. लिस्ट में जवान छोकरे-छापरों के बजाय उम्रदराज श्वेतकेशी पुरुषों को क्लिक करना उनकी पसंद थी. एक बार एक नौजवान स्टूडेंट राजेन्द्र भट्ट को यों ही गैर इरादतन जब मित्रता रिक्वेस्ट दी तो उसने मित्रता स्वीकार करने के बजाय मैसेज में जवाब लिखा कि हे माँ, अब तुम भगवान का भजन किया करो. फेसबुक में कहाँ फँस रही हो? यह जवाब पढ़ कर वे सन्न रह गयी, फिर मुस्कुराई. उनको ये मालूम था कि वास्तव में फेसबुक का आविष्कारक मार्क जकरबर्ग ने विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के आपसी संवाद करने के लिए इस साईट की संकल्पना की थी. अब तो अच्छे बुरी सभी लोग करोंडों की संख्या में फेसबुक में आ गए हैं. अनचाहे फालतू बातो व चित्रों की भीड़ इस साईट पर आ गयी है. कुछ लोग तो अपना राजनैतिक वमन को भी इसमें उडेलने लगे हैं.

हेमा जनार्दन रेड्डी का उद्देश्य तो केवल समय काटना व मनोरंजन तक सीमित था अब उनको इसका चस्का जरूर लग गया था. उन्होंने लगभग ५० मित्र बना डाले हैं. उनसे चैटिंग करती हैं, और एक नई ऊर्जा का अनुभव करती हैं. ऐसा लगने लगा कि उनके परिवार का दायरा काफी बड़ा हो गया है. जीवन के अनछुए पल फिर से उमंग और उत्साह पैदा करने लगे हैं.

हिमांचल के सोलन शहर के जनार्दन ठाकुर नाम के एक व्यक्ति से जब हेमा का फेसबुक पर संपर्क हुआ तो उन्हें लगा कि ३६ साल पहले का जनार्दन रेड्डी उनसे बतिया रहा है. जनार्दन ठाकुर ६५ वर्षीय रिटायर्ड एक्जेक्यूटिव इंजीनियर हैं. वे विधुर हैं. उनका जनार्दन नाम देखकर ही हेमा ने मित्रता के लिए क्लिक किया था और जब उनसे लम्बी लम्बी चैटिंग होने लगी तो अपनेपन का एहसास भी जागने लगा. ठाकुर के सोलन बुलावे पर मन में एक बड़ा तूफ़ान सा उठा, गुदगुदी हुई, राजेन्द्र भट्ट की टिप्पणी भी उनके दिमाग में कौंधती रही, लेकिन अंत में मन जीत गया, हिलोरें लेने लगा. उन्हें लगा कि शिमला की वादियाँ उन्हें जोर जोर से पुकार रही हैं. उन्होंने रेल रिजर्वेशन कराया और चल पडी. दिल्ली के बाद जब शिमला वाली ट्रेन में सवार हुई तो लगा कि वह अपने कल्पना लोक में लौट रही हैं, जहाँ कोई उनका बेसब्री से इन्तजार कर रहा है.
                                       ***    

मंगलवार, 19 जून 2012

वारुणी-वर्जना

दारू ऐसी है बला-
      ठौर ठौर से खाय,
धन घटे, ऊर्जा घटे,
      पत पंचों में जाय.
घर में बसे क्लेश निरंतर,
      मन बेचैन कराय.
हीरा जनम अनमोल था,
      सुरा में दियो डुबाय.
उत्तम कहे बात पते की,
      जो ना समझे,पछताय.
          ***

रविवार, 17 जून 2012

जीवन चर्या

ख्यालीराम तिवारी और उनकी पत्नी गोविन्दी देवी की जिंदगी साफ़ सुथरी पहाड़ी सड़क की तरह सीधे सीधे गंतव्य की तरफ चलती रही, बीच में ऊबड़-खाबड़ मोड़ और गधेरे भी बहुत थे, पर उन्होंने अपने जीवन के तीसरे पहर में अपनी मंजिल पा ली. मंजिल ये थी कि उनका इकलौता बेटा दीपू उर्फ दीपक को कोई बड़ी नौकरी मिल जाये. उसने पन्त नगर विश्वविद्यालय से एम.सी.ए. करने के बाद एक नामी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छा पद पा लिया. उसकी नियुक्ति आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में हो गयी. इस तरह माँ-बाप का सपना पूरा हो गया.

ख्यालीराम तिवारी खुद एक प्राइवेट कंपनी में बतौर एक क्लर्क काम करके दस साल पहले रिटायर होकर रुद्रपुर, उधमसिंह नगर में आवास-विकास कालोनी में एक एम.आइ.जी. मकान खरीद कर रह रहे हैं. जिंदगी में कोई तनाव या अपेक्षा नहीं है. दोनों पति-पत्नी सीमित आवश्यकताओं के चलते हंसी-खुशी दिन काट रहे हैं.

दीपक एक-आध दिन छोड़ कर माता-पिता की कुशल क्षेम लेता रहता है. वह अपनी सुशील पत्नी व दो बच्चों के साथ हैदराबाद में एक फ़्लैट किराए पर लेकर रहता है. जब से उसने बागवाँ हिंदी फिल्म देखी है, तब से वह माता-पिता का ज्यादा ही ध्यान रखता है. हर महीने पिता के बैंक खाते में बीस हजार रूपये ट्रान्सफर भी कर दिया करता है. वह तो बहुत चाहता है कि माता-पिता हैदराबाद आकर उसके परिवार के ही साथ रहें, पर दोनों तरफ से कठिनाइयां हैं कि हैदराबाद के घर में जगह की इतनी इफरात नहीं है जितनी उनके रुद्रपुर वाले मकान में है. मन तो उनका भी बहुत करता है कि इस उम्र में बच्चों के साथ रहा जाये पर ख्यालीराम तिवारी बहुत दूर की बात सोचते हैं कि अभी से बच्चों के आश्रय में चले जायेंगे तो बुढापा जल्दी आ जायेगा. इसलिए अपनी आजादी से जी रहे हैं. लेकिन अकेलेपन का दंश तो वे झेल ही रहे हैं. पुरानी-नई एल्बम देखना, उन दृश्यों व बातों को याद करना ये अब उन दोनों का खास शुगल है. बाकी दिनचर्या एक रूटीन की तरह है. सुबह जल्दी उठना, पानी का पम्प चलाना, छत की टंकी को भरना, गमलों में पानी डालना, घर के अन्दर-बाहर सफाई करना, नहाना-धोना, पूजा-पाठ करना, फिर दोनों जने मिलकर भोजन बनाना-खाना, ये नित्यक्रम उनका रहता है. उसके बाद दिनभर खाली पड़े रहते हैं, सो जाते हैं.

यहाँ रुद्रपुर में कुछ गिनेचुने पास-पड़ोसियों से उनका परिचय है. ज्यादा जरूरत भी नहीं रहती है, अपने में ही मस्त रहते हैं. अखबार और टी.वी. के चक्कर में ज्यादा न पड़ कर बाकी दीन-दुनिया से नाममात्र को बाखबर रहते हैं.

दीपक साल-दो साल में, कभी बच्चों को साथ लेकर, कभी अकेले आकर अपना पुत्र-धर्म निभाता रहता है. हर बार कोई न कोई घरेलू उपकरणसामान खरीद कर रख भी जाता है. तिवारी दम्पति अपनी सपाट जिंदगी से पूरी तरह संतुष्ट हैं. वे जानते हैं कि आवश्यकताओं को जितना बढ़ाओ  उतनी बढ़ती जाती हैं.

ख्यालीराम जी जब अपनी नौकरी से रिटायर हुए तो डिपार्टमेंट के लोगों ने परम्परागत रूप से उनको एक विदाई पार्टी दी थी और भेंट के बतौर एक दीवार घड़ी भी अर्पित की थी घड़ी सस्ती सी है. आजकल तो बाजार में अनेक तरह की डिजाइन वाली, अलार्म वाली तथा संगीत वाली उपलब्ध रहती हैं, पर उनकी घड़ी में न अलार्म है न संगीत है, यहाँ तक कि उसमे सप्ताह में एक बार चाबी अवश्य भरनी होती है.

ख्यालीराम तिवारी और गोविन्दी देवी की स्थाई व निश्चित जीवनचर्या में घड़ी में चाबी भरना एक प्रमुख काम होता है. हर रविवार को सुबह आठ बजे घड़ी में चाबी दी जाती है. दीवार के सहारे एक मेज को खिसका कर उसके ऊपर छोटे स्टूल को रखा जाता है जिसे गोविन्दी देवी को मजबूती से पकड़ना होता है ताकि वह खिसके नहीं. ख्यालीराम जी स्टूल पर चढ कर घड़ी में चर्र-चर्र आवाज के साथ चाबी भरते हैं. और चाबी पूरी भर जाने के बाद धीरे से नीचे उतर कर बड़ी राहत की सांस लेते हैं. पति-पत्नी एक दूसरे से नजर मिलाते हैं. अब अगले रविवार तक की छुट्टी हो गई.

इस बार दीपक अकेले आया था, उसने देखा कि पिता जी को इस तरह स्टूल पर चढ़ कर परेशानी उठानी पडती है. वह तुरन्त बाजार गया और एक चमचमाती, नई डिजाइन की बैटरी सेल से चलने वाली घड़ी खरीद लाया. उसने पुरानी उतार कर हिफाजत से लोहे के संदूक में रख दी और उसकी जगह नई टांग दी. घड़ी बहुत शोभायमान हो रही थी. बीच बीच में हर घन्टे मधुर स्वर में टन-टन बजा कर समय बताने लगी.

दीपक एक सप्ताह बाद हैदराबाद लौट गया. अब जब रविवार आया तो ख्यालीराम जी व गोविन्दी देवी को पुरानी घड़ी की बहुत याद आ रही थी. उसमें चाबी भरते थे तो ऐसा एहसास होता था जैसे कोई जरूरी कर्तव्य पूरा किया हो. इस नई घड़ी ने तो वह सतुष्टिभाव छीन लिया है. तिवारी जी ने पत्नी से कहा पुरानी घड़ी निकाल लाओ. उन्होंने फिर मेज खिसकाई, उसके ऊपर स्टूल रखा और ऊपर चढ़ गए. नई घड़ी निकाल कर पत्नी को पकड़ाई तथा फिर से उसी पुरानी को उसकी जगह लटका कर चाबी मार कर नीचे उतर गए.

वे बहुत विजयीभाव में थे. पत्नी भी खुश थी, बोली, आपने बहुत अच्छा किया, अन्यथा हम रविवार के दिन बेरोजगार से हो रहे थे.
                                            *** 

शनिवार, 16 जून 2012

अहँकार

आम तौर पर मैं अपनी लेखनी को विवादास्पद राजनैतिक मुद्दों पर चलाता नहीं हूँ, लेकिन सुश्री ममता बैनर्जी के चाल-चरित्र को यानि उनके दर्प/अहंकार को देखकर बरबस लिखने का मन हो पड़ा है.

गत चुनाव में ममता बैनर्जी एक जुझारू राजनेता के रूप में उभरी. उन्होंने पश्चिम बंगाल की तीन दशकों से जमी हुई वामपंथी सरकार को लोकतांत्रिक ढंग से पदच्युत करने के लिए अकेले ही संघर्ष करके कठिन परिस्थितियों में एक संगठन खड़ा किया. आम लोग परिवर्तन के साथ साथ यह भी चाहते थे कि जमीन से जुड़ा कोई संघर्षशील नेता उनको मिले. ममता बहुमत के साथ जीती. कहते हैं कि दौलत कमाने से ज्यादा उसे सँभालने का हुनर आना चाहिए. अगर ममता बैनर्जी के ‘बर्रा प्रकृति’ और छिछोरपन का यही हाल रहा तो उनका सूर्य जिस तेजी से उभरा था, उसी तेजी से अस्त भी हो जाएगा.

इस पड़ाव पर उनमें बहुत संजीदगी आ जानी चाहिए थी. इससे पूर्व वाजपेयी जी की सरकार में भी वे अपने लड़ाकू व्यवहार की वजह से अलग हो गयी थी. जिस गठबन्धन की आप साझीदार हैं, उसके प्रति उत्तरदायित्व की भावना होनी चाहिए, पर नहीं, वे इस परिपेक्ष्य में कभी भी खरी नहीं उतरी. वे किसी की भी सगी नहीं रहीं. अब देश के गौरवशाली पद राष्ट्रपति के चुनाव में उन्होंने जो भूमिका निभाई उसकी कहीं भी तारीफ़ नहीं हो रही है, नतीजन वे अलग थलग पड़ गयी हैं. माननीय कलाम साहब की लोकप्रियता व योग्यता को उन्होंने जिस तरह अपना हथियार बनाकर उछाला, वह सही तरीका नहीं था. यह उनका अहंकार ही है जो उनको आगे जाकर अंधी गुफा में लेकर जाएगा. उनके निरंकुश व्यवहार से उनके अपने संगी साथी भी अलग होते चले जायेंगे. यह भविष्यवाणी नहीं है, अपितु परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित परिणाम की पूर्व घोषणा है.

राजनेताओं को अपनी वाणी पर संयम रखना बहुत जरूरी है. उनके सलाहकार सुलझे हुए दूरदर्शी होने चाहिए. पर ममता जी तो अपनी मालिक खुद ही हैं. लम्बी रेस के घोड़ों को दीवारों से टकराने व खाईयों में कूदने से बचना होता है. ममता जी का आचरण अपरिपक्वता एवं अहंकार से अभिभूत है. इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि अहंकारी व्यक्ति की सफलता क्षणिक होती है.

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गुरुवार, 14 जून 2012

चुहुल -25

(१)
गलत नम्बर डायल हो जाने पर, दूसरी तरफ के आदमी से जब पूछा गया, हेलो, कौन? तो उसने बदतमीजी से जवाब दिया, तेरा बाप.

अच्छा पिता जी, घर का सही सही पता बता देते तो मैं दादा जी यानि आपके पूज्य पिता जी को घर पहुँचा देता, फोन करने वाला बोला.

कौन है मेरे पिता जी? उसने पूछ लिया.

मेरा कुत्ता, उत्तर दिया गया.


(२)
एक चतुर नेता जी चुनाव जीतने के बाद पत्नी के सामने शेखी बघार रहे थे. देखा, लोगों को वायदों की ऐसी डोज पिलाता हूँ कि लोग पूरा भरोसा करने लगते हैं. पर वायदे तो वायदे ही रहते हैं," फिर खिलखिला कर बोले, नेताओं पर भरोसा करना ठीक नहीं है. तुम्हारा क्या ख़याल है?
पत्नी बोली, हाँ, ये बात तो सही है. मैं भी आपके भरोसे रहती तो परिवार में बढ़ोत्तरी नहीं हो पाती.


(३)
एक दार्शनिक किस्म के प्रोफ़ेसर ने दिन में ठीक १२ बजे अपनी पत्नी को फोन किया, कोई चोर कार का स्टेयरिंग ही निकाल कर ले गया. अब तुम अपनी गाड़ी लेकर आओ, मुझे लेकर जाओ.

पत्नी जब निर्धारित जगह पर अपनी गाड़ी लेकर पहुँची तो देखती क्या है कि उनकी कार बिलकुल ठीक-ठाक है और प्रोफ़ेसर साहब कार की पिछली सीट पर बेचैन होकर बैठे हैं.


(४)
एक बेशर्म रिश्तेदार मेहमान बन कर आया और १५ दिन हो गए जाने का नाम ही ना ले. पति-पत्नी ने योजना बनाई कि उसके सामने आपस में झूठ-मूठ का झगड़ा-तकरार करेंगे.

सुबह-सुबह दोनों जोर जोर से लड़ने लगे, मैं तुम्हारी नौकरानी नहीं हूँ." 

मैं भी तेरा गुलाम नहीं हूँ. 

सारा दिन खटती रहती हूँ. आग लगे ऐसी गृहस्थी को 

जा, जा, ज्यादा बकवास मत कर. मैं घर छोड़ कर चला जाऊंगा फिर रोती रहेगी


उनकी लड़ाई इस तरह चलती रही. मेहमान ने अपना झोला उठाया और नमस्कार करते हुए बोला, आप लोग इस उम्र में मत लड़िए. मैं जा रहा हूँ.

पति-पत्नी दो मिनट गंभीर होकर बैठे रहे फिर ठहाका मार कर हँसने लगे कि तीर निशाने पर लगा.

इतने में वही मेहमान दरवाजे से अन्दर आ कर बोला, मुझे मालूम था कि आप लोग नाटक कर रहे हैं. मैं भी आपके नाटक में शामिल हो गया. कहो कैसी रही? और वह मुस्कुरा रहा था. पति-पत्नी के चहरे देखने लायक थे.


(५)
एक लड़के ने नई झिलमिलाती रंग-बिरंगी हाफपैंट पहनी हुई थी. उसे देखकर उसका दोस्त बोला, यार, इस हाफपैंट में तो तुम बड़े भद्दे दिखाई दे रहे हो.

लड़के ने झट उत्तर दिया, इसको उतार दूंगा तो तुमको और भी भद्दा नजर आऊँगा.
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मंगलवार, 12 जून 2012

प्यारी दाई

मैंने तो उसको उसकी ढलती उम्र में देखा था. कस्बे में डॉक्टर, नर्सें, दाईयां और झोलाछाप डॉक्टर बहुत से थे, पर प्यारी दाई की अपनी ही विशिष्टता थी. उसे गर्भवती महिलाओं का सुरक्षित प्रसव कराने में महारत हासिल थी इसलिए ऐसे मौकों पर उसको प्राथमिकता के आधार पर याद किया जाता था और बुला लिया जाता था.

वह अस्पताल से भी सम्बंधित थी इसलिए उसकी उपलब्धता भी रहती थी. जाति से वह एक मुसलमान नाईंन थी, लेकिन हिन्दू बहुल समाज में अपने व्यवहार और कार्यकुशलता की वजह से जाति व धर्म कभी भी उसके आड़े नहीं आये. अधिकाँश लोग उसे बुआ के नाम से पुकारा करते थे. वह सवाईमाधोपुर जिले के एक छोटे से गाँव मलारना से आई थी. इस गाँव के अधिकाँश पुरुष नाई तथा जर्राह का काम किया करते थे. इन्द्रगढ़ (बूंदी) रियासत, के जमाने में कई परिवार रोजगार के लिए वहाँ आ गए थे, इसी सिलसिले में जब लाखेरी में सीमेंट कारखाना बना तो उनकी दस्तक यहाँ भी हो गयी.

प्यारी दाई पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन वर्षों से डॉक्टरों/नर्सों की सोहबत में उसने प्रसव सम्बन्धी सभी प्रक्रियाओं, इंस्ट्रूमेंट्स तथा आवश्यक औषधियों/इंजेक्शनों की बारीक जानकारी हो गयी थी. अगर शुरू से हिसाब रखा जाता तो प्यारी दाई द्वारा प्रसव कार्यों की लिस्ट इतनी बड़ी होती कि कोई रिकार्ड अवश्य बना होता.

रात-बेरात कभी भी उसकी जरूरत पड़ती तो लोग उसे साइकिल पर बिठाकर बुला लाते. साईकिल की सवारी में तो उसे रास्ते में दो बार दुर्घटनाग्रस्त भी होना पड़ा. उसके मुँह के सामने के चार नकली दांतों का रहस्य यही था कि वे साईकिल दुर्धटना में टूट गए थे.

प्यारी बुआ की एक बेटी थी और एक बेटा था. प्यारी की नेकी और सेवाओं को देखते हुए उसके बेटे बशीर मोहम्मद को करीब ४५ वर्ष की उम्र में बतौर वेल्डर सीमेट कारखाने में काम पर रखा लिया गया था, लेकिन कुछ वर्षों के बाद हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो गयी थी. बशीर की चार बेटियाँ व दो बेटे हैं, जिनमें से दो बेटियाँ व एक बेटा गूँगे-बहरे हैं. ये प्रकृति का खेल कभी कभी सोचने को मजबूर करता है कि अच्छे लोगों के साथ ऐसा क्रूर व्यवहार क्यों होता होगा?

कई वर्ष पहले बुआ प्यारी इस दुनिया से रुखसत हो गयी थी, लेकिन उसकी यादें लाखेरी के लोगों के जेहन में आज भी ताजा हैं.
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रविवार, 10 जून 2012

गोद भराई

बरखा रानी का पीहर रामनगर में है. साल भर पहले जब उसकी शादी हल्द्वानी के प्रवीण से हुई तो वह मनचाहा ससुराल पाकर बहुत खुश हो गयी. स्नेहिल सास-ससुर व प्यार करने वाला सुन्दर पति मिले, घर में सब प्रकार से समृद्धि हो तो कौन लड़की अपने भाग्य को नहीं सराहेगी?

सब ठीक ठाक चल रहा था, पर इस बार जब वह मायके गयी तो बड़ी उलझन साथ ले आयी. हुआ यों कि वहाँ बरसों से पल रही उनकी कुतिया ने इस बार पाँच प्यारे से पिल्लों को जन्म दे रखा था, जो बड़े बड़े हो गए थे. बरखा के मन में आया कि एक को अपने साथ ससुराल ले जाऊं’. माँ तो बहुत खुश हो गयी कि इस तरह एक पिल्ला तो कम होगा ही, ससुराल में बरखा का समय भी इसके साथ मजे से कट जाएगा. पिल्ले का लूसी नाम रख कर हल्द्वानी ले आई.

बरखा जिस उत्साह से पिल्ले को साथ ले आयी थी ससुराल पहुँचने पर वह काफूर हो गया क्योंकि घर के किसी भी सदस्य को पिल्ला रास नहीं आया. सास तो ब्लड प्रेशर वाली है. थोड़ी भी खटपट से नींद खराब हो जाये तो बेचैन हो जाती हैं, ससुर जी ने जब पिल्ले को देखा-परखा कि वह फीमेल है, तो उनको बिलकुल अच्छा नहीं लगा क्योंकि कुतिया जब जवान हो जाती है तो उसके पीछे आवारा कुत्तों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है. प्रवीण को लगा कि बरखा का आधे से ज्यादा प्यार उस पिल्ले पर न्यौछावर होने लगा है, उसकी साफ सफाई, लाड़-प्यार व खुशामद में ही बरखा व्यस्त रहने लगी. इस प्रकार प्रवीण को पिल्ले से एक प्रकार से नफरत सी हो गयी. वह अक्सर बरखा से कहने लगा कि तुम्हारे बदन तथा कपड़ों से कुतिया की बदबू आ रही है.

एक हँसते-खेलते वातावरण में मानो लूसी के आ जाने से जहर घुल गया, लेकिन बरखा को घर के लोगों का व्यवहार बहुत बुरा लग रहा था. जैसे जैसे घर वालों की हिकारत बढ़ती गयी, बरखा का लूसी-प्रेम भी परवान चढ़ता गया.

जब आपस में प्यार- मोहब्बत हो तो बुराइयों में भी अच्छाई नजर आती हैं, लेकिन जब मनोमालिन्य हो जाये अच्छाई भी खोट लगने लगती है और जब परिवार वाले एक दूसरे की भावनाओं को महत्व नहीं देते हैं तो अहं की लड़ाई शुरू हो जाती है. प्रवीण बहुत उदास रहने लगा. कुतिया पर उसका गुस्सा तब फूट पड़ा जब उसने उसके रेड चीफ जूते को एक तरफ से चबा डाला. उसने कुतिया को घर के बाहर निकाल कर दो डंडे दे मारे. लूसी का रोना-चिल्लाना सुन कर जब बरखा वहाँ पहुँची तो उसने अपनी प्यारी कुतिया को लंगडाते हुए, कराहते हुए पाया. बरखा ने अपने मुँह से तो कुछ नहीं कहा, पर अपने तेवरों से गुस्से और घृणा का संदेश जरूर दे दिया.

बरखा लूसी को अस्पताल ले गयी वहाँ ऐक्स रे से मालूम हुआ कि उसकी टांग की एक हड्डी टूट गयी है. डाक्टर ने स्पिलिंट बाँध दिया. वह उसे घर ले आई. घर में तनाव था कोई भी बरखा से सीधे मुँह बात नहीं कर रहा था. सभी जने उसके साथ अवांछित की तरह व्यवहार कर रहे थे. प्रवीण से उसकी बोलचाल बन्द सी हो गयी. पति का यह रुख उसके लिए असहनीय हो रहा था अत: चौथे दिन उसने हार मानते हुए कह दिया कि इस लूसी को आप किसी को दे दो, ताकि झगड़े की जड़ ही ना रहे.

प्रवीण यही तो चाहता था उसने गली में झाड़ू लगाने वाले दो छोकरों को बुलाया एक सौ का नोट पकड़ाया, और लूसी को बोरी में डलवाकर दूर बरेली रोड पर हल्दूचौड़ की तरफ छोडने के लिए कह दिया. छोकरे खुश थे, बोरी में लूसी को लेकर साईकिल से आरिचित जगह छोड़ आये. घर में अघोषित शान्ति आ गयी. बरखा मन ही मन तो बहुत दु:खी थी. लूसी घायलावस्था में भूखी प्यासी होगी, यह सोच सोच कर वह चिंतातुर तो थी, पर उसने अपने मन की व्यथा को जाहिर नहीं होने दिया.

दूसरे तीसरे दिन तो बात आई गयी हो गयी, पर अगले सुहावने सवेरे में सासू जी क्या देखती हैं कि लूसी घर के गेट पर बैठी अन्दर को निहारती दीन भाव में कूँ-कूँ की आवाज निकाल रही है. उसकी हालत देख कर उनका दिल पसीज गया. उसे अन्दर लेकर दूध-रोटी खिलाई, बेचारी तीन दिनों से भूखी प्यासी थी. ये माँ का मन था जो स्वाभाविक ही द्रवित हुआ था.

घायलावस्था में इस प्रकार दूर छुड़वाना प्रवीण के पिता को भी अच्छा नहीं लगा था. हाँ, घटना के बाद बरखा ने लूसी से अपनी संबद्धता बिलकुल कम कर दी. घर में तय हुआ कि टांग ठीक होने के बाद लूसी को बुआ के पास पटवा डांगर (नैनीताल के निकट पहाड़ पर) पहुँचा दिया जाये. बुआ से प्रवीण की बात हुई तो वो भी राजी थी. यों एक-डेढ़ महीने में लूसी ठीक से चल फिर सकने लगी तो प्रवीण के पिता उसे अपनी जीप में रस्सी से बाँध कर पहाड़ की तरफ चल पड़े. सब को सन्तोष हुआ कि घर पर लगा हुआ ग्रहण समाप्त हो गया है.

दो घन्टे के बाद पिता जी का नैनीताल से फोन आया कि कुतिया, रानीबाग व दोगाँव के बीच चलती जीप में से कूद कर भाग गयी है. चलो छुटकारा मिला प्रवीण की पहली प्रतिक्रिया थी, साथ ही वह ये भी बोल गया कि लूसी थी बहुत समझदार. माँ बोली, चलो, उसे कहीं अच्छे लोगों का घर मिल गया तो सुख पायेगी. बरखा की अब इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी, वह तो अपने गर्भ में पल रहे बच्चे के सपने बुनने में लग गयी थी.

कुतिया को गए आज लगभग १५ दिन हो गए थे. घर में सतमासा (गोद भराई) का आयोजन किया गया था गली मोहल्ले की महिलायें, रिश्तेदार व मायके से माँ व भाभी सब आ गये थे. घर के पिछवाड़े मैदान पर शामियाना ताना हुआ था, ढोलक की थाप पर लडकियां फ़िल्मी धुनों में बढ़िया गाने सुनाने लगी थी. दो कुमाउनी परम्परागत गीतों की गिदार महिलायें अपनी तर्ज पर मंगलाचरण गा रही थी. सब तरफ रौनक थी. महिलायें गोलाई में बैठ कर सजी-धजी जेवरों से लदी बरखा रानी को देख रही थी. जब कार्यक्रम अपनी चरम पर चल रहा था, ऐसे में लूसी ना जाने कहाँ से घुस कर बरखा की गोद में आकर बैठ गयी.

खूब हंसी ठठ्ठा हुआ, सासू जी बोली, अब हम लूसी को कही नहीं भेजेंगे, ये बहू की गोद भराई का हिस्सा बन गयी है, और इस प्रकार अब लूसी साधिकार घर में रहती है.
                                            ***

शुक्रवार, 8 जून 2012

अगर हम चौपाये होते!


ये काँटों की बाडें,
सीमेंट और पत्थर की दीवारें,
ये मंदिर-मस्जिद व गुरुद्वारे
पैदा ही ना होते
अगर हम चौपाये होते.

ये मिसाईल,
ये अणुबम,
संहार और गम,
झूठा ईमान-धरम,
बाईबिल-गीता औ कुरआन की कसम
सुनने को ना मिलते-
अगर हम चौपाये होते.

ये नामकरण,
खोखले आवरण,
कर्जों का भरण,
जीते जी मरण
किताबों में ना होते
अगर हम चौपाये होते.

ना रुपया,
ना खुफिया,
ना डालर,
ना सोना,
कुछ भी तो ना होते
अगर हम चौपाये होते.

मगर नहीं है गम
लेकर जनम
ना हुए हम
गधी के बलम.
पर आती है शरम
अपने गुणों को हम
बेचारों पर थोपते हैं बेरहम.

अच्छे ही होते
अगर हम चौपाये होते.
     *** 

गुरुवार, 7 जून 2012

बड़ी माई

गलती किस इन्सान से नहीं होती? पर चम्पा से तो ऐसी भारी गलती हुई थी जिसका कोई प्रायश्चित भी नहीं था. उसका पति धन कमाने के लिए एक ठेकेदार के साथ ओमान चला गया था और तीन सालों से लौटा नहीं था. सास-ससुर ने बहुत बुरी तरह प्रताड़ित किया, मारापीटा भी, मायके वालों को बुला लिया उनके सामने भी अपमानित किया क्योंकि चम्पा के नादानी व अंधी जवानी के जोश में गाँव के ही किसी लड़के से शारीरिक सम्बन्ध बना कर गर्भ धारण कर लिया था. बहुत दिनों तक तो जलोदर का रोग बता कर वैद्य जी का ईलाज चलता रहा, लेकिन एक दिन पोल खुलनी ही थी. बच्चा पैदा हुआ, कोहराम मच गया. चम्पा के ससुर ने बच्चे का गला दबाकर तुरन्त मार डाला. बच्चे के बाप के बारे में बहुत धमका धमका कर पूछा गया पर चम्पा ने कतई मुंह नहीं खोला.

मिल्ट गाँव में खुसर-पुसर भी खूब हुई, पर हीरानंद यानि चम्पा का ससुर दबंग किस्म का आदमी था. बात सड़क पर तो नहीं आई, लेकिन घर के अन्दर जो क्रियाकलाप हुए उसके बाद चम्पा जरूर सड़क पर आ गयी. ससुरालियों द्वारा बुरी तरह अपमानित किये जाने पर सगे भाई ने भी उसे अपने साथ ले जाने के लिए मना कर दिया. बेसहारा, बेहद कमजोर, अनपढ़ चम्पा निरुद्देश्य शमशान घाट की तरफ लड़खड़ाते हुए चल दी. ये संयोग ही था कि शमशान घाट वाले मठ-मंदिर के लाल लंगोट वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध सन्यासी बाबा रास्ते में मिल गए. वे भी आगे बढ़ गए थे, पर ना जाने उनकी समझ में क्या आया, वे वापस लौटे और चम्पा से कुशल-बात पूछने लगे. चम्पा के पास सिसकने के अलावा कोई उत्तर नहीं था.

बाबा को दया आई और उसे अपने साथ मठ में लिवा ले गये. जहाँ पहले से ही दो जोगनियां (एक परिवार द्वारा किन्ही कारणों से परित्यक्ता व दूसरी समय समाज की सताई हुई बाल विधवा) मौजूद थी.

मठ-मंदिर के चारों तरफ काफी जमीन बाबा के गुरु तथा उनके भी गुरुओं ने उस जमाने से घेर रखी है, जब लोग जमीन का कोई महत्व नहीं समझते थे. अब शमशान के पास ये स्थान एक नखलिस्तान की तरह विकसित हो गया है. मंदिर में नियमित घन्टे-घंटियाँ बजती हैं, अनेक छायादार फल-फूलों का बगीचा बन गया था. बहरहाल यहाँ चम्पा को एक आश्रय मिल गया.

हीरानंद को जब मालूम हुआ कि उसकी कुल्टा बहू को बाबा ने शरण दे रखी है, तो उसने बाबा से बहुत भला-बुरा कहा, धमकी भी दी, लेकिन बाबा बड़े अक्खड़ स्वभाव के थे. चिमटा लेकर उस पर टूट पड़े. हीरानंद ने भाग कर जान बचाई.

थोड़ा स्वस्थ हो जाने पर चम्पा भी अपनी दोनों जोगिन साथिनों के साथ गेरुवे वस्त्र धारण करके दूर दूर के गाँवों में जाकर भिक्षा मांगने के लिए जाने लगी. ये ही उसका नित्यक्रम हो गया.

नजदीक के गांव मे विशेषकर हीरानंद की बिरादरी व रिश्तेदारी में इस काण्ड की खूब चटाखेदार चर्चाएँ  हुई, पर मामला धीरे धीरे शांत हो गया.

इस बात को गुजरे लगभग पचास वर्ष हो चुके हैं. इस बीच सरयू और गोमती में लाखों टन पानी बह चुका है. आम लोग इस प्रकरण को भूल चुके हैं. गाँव की नौजवान पीढ़ी रोजगार तथा सुविधाओं की तलाश में पहाड़ से मैदानी इलाकों की तरफ पलायन करते चले गए हैं. खुद हीरानंद जो अब इस सँसार में नहीं है, परिवार सहित तराई-भाबर में जा बसा था.

लाल लंगोट वाले बाबा की समाधि मठ के आहाते में ही बनी हुई है. मंदिर को भव्य रूप दे दिया गया है. बाबा के दो चेले मठ का कारोबार सम्हाले हुए हैं, पर उन पर हुकुम चलता है, चम्पा, यानि बड़ी माई का.

मठ में अनेक धार्मिक आयोजन होते रहते हैं. चार साल पहले राज्य के समाज कल्याण मन्त्री को आमन्त्रित करके एक नारी-अनाथालय, मठ की जमीन पर बनवा दिया गया था, जहां निराश्रित स्त्रियों को भोजन-कपड़ा उपलब्ध रहता है तथा कुछ घरेलू कार्यों की शिक्षा की व्यवस्था भी की गयी है.
                                                ***

मंगलवार, 5 जून 2012

बिच्छू का डंक

अनीश्वरवादी लोगों का तर्क रहता है कि इस सँसार में कोई भी अदृश्य शक्ति ईश्वर के नाम की नहीं होती है. ये तो सब प्रकृति का करिश्मा है, जो समय चक्र के साथ घटनाएँ घटती रहती हैं, वे संयोगवश ही आपस में जुड़ी रहती हैं.

मैं इनके तर्क पर बहस नहीं करना चाहता हूँ और ये मानता हूँ कि कोई ऐसी पराशक्ति जरूर है जो सारी प्रकृति पर नियंत्रण रखती है. हमारा दर्शन शास्त्र इस विषय में बहुत स्पष्ट एवँ गंभीर विवेचन करता है, और हर व्यक्ति इसकी तह तक जा भी नहीं सकता है.

इस विश्व में कई अजूबे हैं, कई करिश्माई चीजें हैं, जिनसे यह विश्वास होता है कि कोई तो है जो सारे चक्र को घुमा रहा है. एक रोचक दृष्टान्त मैं अपने पाठकों तक पंहुचाना चाहता हूँ :

राजस्थान के बूंदी जिले में स्थित हमारे ए.सी.सी. सीमेंट कारखाने में प्रेमसिंह नाम के एक हवलदार, सेक्युरिटी डिपार्टमेंट में थे. वे बहुत सरल और सीधे व्यक्ति थे. पहले आर्मी में सर्विस करते थे जहाँ से उन्हें मेडिकल ग्राउंड पर रिटायर कर दिया गया क्योंकि उनके कमर के जोड़ों में दर्द रहता था. जिसका आर्मी में रहते हुए बहुत ईलाज कराया गया और बाद में भी अस्थि रोग विशेषज्ञों को कई जगह दिखाया गया पर दर्द लाईलाज बना रहा. जिस कारण उनको, कमर आगे को झुका कर लाचारी में चलना पड़ता था.

सोल्जर बोर्ड के माध्यम से उनको प्राइवेट सेक्युरिटी में पुन: काम मिल गया, जहां उन्होंने बीस वर्षों तक नौकरी भी की. चूँकि वे मेरे ही गृह जिला, अल्मोड़ा, के रहने वाले थे इसलिए विशेष रूप से उनसे स्नेह-सम्बन्ध व अपनापन बना रहा. सं १९७० में मेरा स्थानातरण शाहाबाद, कर्नाटक, को हो गया, तब उनसे उसी टेढ़ी कमर की स्थिति में विदाई ली थी. चार साल बाद जब मैं पुन: स्थानातरित होकर वापस राजस्थान लौटा तो देखता क्या हूँ कि प्रेमसिंह बिलकुल स्वस्थ थे. सीधी कमर करके परेड कर रहे थे. जब मैंने इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि एक बार नाईट ड्यूटी में वे पत्थर की खदानों की तरफ थे. रात में वहीं खुले में लेट गए. सौभाग्य या दुर्भाग्यवश एक जहरीले बिच्छू ने उनके पैर में डंक मार दिया. वे तड़पते रहे, बेहोश हो गए. अन्य कर्मचारियों ने उनको अस्पताल पहुंचाया. अगले दिन जब उनको होश आया तो ताज्जुब इस बात का रहा कि जिस कमर दर्द को वे सालों से झेल रहे थे, वह पूरी तरह गायब हो गया था.

इस बारे में तत्कालीन सी.एम.ओ. डॉ. जी.एस. चड्डा ने बताया कि बिच्छू के डंक में आर्सनिक नाम का विष होता है, जो असाध्य जोड़ों के दर्द में रामबाण का काम कर गया.

बिच्छू के डंक मारने पर जो असह्य वेदना होती है उससे बचाव के लिए अस्पतालों में लोकल ऐनेस्थीसिया दिया जाता है, उससे काफी राहत मिलती है. काले बड़े जहरीले बिच्छूओं के डंक जानलेवा भी होते है.

बहरहाल प्रेमसिंह वाले बिच्छू कांड पर विचार करने पर ऐसा लगता है कि यह मामला पूरी तरह किसी पराशक्ति द्वारा प्रायोजित था, जिसको हम ईश्वर नाम देते हैं.
                                            ***

रविवार, 3 जून 2012

काफल

काफल (उत्तराखंड देवभूमि  के सौजन्य से)
वसंत ऋतु में पुष्पित होने वाले तमाम पर्वतीय फल बैसाख आते आते पकने शुरू हो जाते हैं. हिमालय की इस शिवालिक रेंज में अनेक फल पट्टियां बनाई हुई हैं, जहाँ आड़ू, खुबानी, आलूबुखारा, लीची व प्लम जैसे रसीले मौसमी फलों की अनोखी बहार इन दिनों आई हुई है. इन मौसमी फलों के अलावा कुछ जंगली फल भी हैं, जैसे, हिसालू, किलमोड़ी और काफल. हिसालू-किलमोड़ी तो छोटी बड़ी झाडियों में होती हैं, लेकिन काफल के पेड़ काफी बड़े होते हैं. ये पेड़ ठण्डी छायादार जगहों में होते हैं.

काफल के पेड़ हिमांचल से लेकर गढ़वाल, कुमाऊं व नेपाल में बहुतायत में होते हैं. इसका छोटा गुठली युक्त बेरी जैसा फल गुच्छों में आता है. जब कच्चा रहता है तो हरा दीखता है, और पकने पर लालिमा आ जाती है. इसका खट्टा-मीठा स्वाद बहुत मनभावन तथा उदर-विकारों में बहुत लाभकारी होता है.

हल्द्वानी की कृषि उपज मंडी में साल भर सब्जी व अनाज के जिंसों के अलावा फलों का बड़ा व्यापार होता है. स्थानीय मौसमी फलों के अतिरिक्त दक्षिण भारत से बेमौसम आम, अनन्नास, केला, संतरा चीकू, अंगूर आदि सभी फल यहाँ उपलब्ध रहते हैं. यहाँ तक कि चीन का तथा दक्षिण अमेरिकी देश चिली के सेव भी हल्द्वानी बाजार में कभी कभी मिल जाते हैं.

काफल का फल कुछ ही घंटों में मुरझाने लगता है. बासी होने पर बेस्वाद हो जाता है. इसलिए यह मंडी में बिकने के लिए कभी नहीं आ पाता है. वैसे भी ये फल बड़े स्तर पर जंगलों से तोड़ कर नहीं लाया जा सकता है. गाँवों के कुछ मेहनती लोग होते हैं जो सुबह-सवेरे जंगल जाकर या अपने खेतों में उगे हुए पेड़ों से पके फल तोड़ कर टोकरियों में पत्तों के साथ सजा कर बेचने के लिए मोटर मार्गों के किनारे बैठे मिलते हैं. शुरू में तो ये एक सौ रूपये प्रति किलो के भाव से भी बिक जाता है. इधर हल्द्वानी के मंगल पड़ाव, नैनीताल, भवाली, गरमपानी, अल्मोड़ा अड्डे के आस पास, कोसी, कौसानी अल्मोड़ा-बिनसर मार्ग पर, ग्वालदम से आगे गढ़वाल की तरफ, पूर्व में बागेश्वर, कमेडी देवी व बेरीनाग की तरफ काफल की बहार होती है, पर ये एक महीने के अन्दर निबट जाता है.

गावों के लोग अपने लिए खुद काफल तोड़ लाते हैं. यह पृकृति का एक नायाब तोहफा है, जिसे बाल-बृंद, बूढ़े-बुढ़िया नमक मिला कर चटखारे लेते हुए चूसते चबाते हैं. गुठली भी निगल ली जाती है, पीछे पानी पी लिया जाये तो दस्तावर भी हो जाता है.

कच्चे काफलों की चटनी भी बहुत स्वादिष्ट बनती है. लोग किसी तरह पहाड़ से जुड़े रहे हैं, उन्हें काफल का नाम आते ही मुँह मे पानी आ जाता है. ये फल है ही इस तरह का.

यहाँ पहाड़ों में एक पक्षी, वसंत ऋतु आते ही काफल पाको जैसे मिलते जुलते श्वरों का ऊंची आवाज में कोयल की तरह गान करता रहता है. पुराने लोगों ने इस पर कई किंबदतियाँ जोड़ रखी है, लेकिन इस पक्षी का हमारे काफल से कोई लेना देना नहीं है. हाँ अनेक प्रजातियों की चिड़ियों का काफल से गहरा सम्बन्ध है. चिडियाँ काफल का पका हुआ मीठा फल, गुठली सहित निगल जाती हैं और  गुठली उसके पूरे पाचनतंत्र से गुजरते हुए लगभग ३६ घंटों तक शरीर की गर्मी प्राप्त करते हुए बीट के साथ बाहर आ जाती है. इस दौरान वह अंकुरित भी हो जाती है, यदि इसे जमीन सही मिल जाती है तो ये अपनी जड़ें डाल देती है और कई वर्षों में फलदार पेड़ हो पाता है.

काफल की गुठली बोकर उगाने के बहुत प्रयास कियी गए लेकिन बोया हुआ बीज उगा नहीं. पिछले वर्षों में देहरादून की वांनकी प्रयोगशाला में इनक्यूबेटर में बीज को ४० डिग्री तापमान में ३६ घन्टे नमी के साथ रखा गया तो वह प्रस्फुटित हो गया. खुशी की बात है कि ये रिसर्च सफल हो गयी है, अब इस तरह उगाए गए पौधे मनचाहे जगहों पर रोपे जा सकते हैं.

काफल के बारे में एक लतीफा यह है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल का एक पर्यटक जब इन्ही दिनों उत्तराखंड आया और उसने टोकरे में काफल बिकते हुए पहली बार देखे तो बेचने वाले से पूछ लिया, भईयन, ई का फल है?

भईयन बोला. काफल है.

उसने दुबारा पूछा तो भईयन फिर बोला काफल है.

इस पर पर्यटक ने सोचा कि फल वाला मेरी बोली का मजाक बना रहा है. वह गुस्से में झगड़े को तैयार हो गया, लेकिन बीच बचाव करने वालों ने जब उसको बताया कि ये फल काफल कहलाता है तो वह मुस्कुराए बिना नहीं रह सका.
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शनिवार, 2 जून 2012

गीत -३

तेरी मन-मोहन अखियों में
      अपने सपने देखा करता हूँ,
सुधियाँ पाकर सुध खो डाली
      सुधियों में खुद खो जाता हूँ.

अवलंबन पाकर भी कोई
     उर की पीर बनी रह जाये,
झंकृत तार कसे हैं ऐसे,
      कहना चाहूँ कही न जाये

सब भूल भुलैया साथ रहे जब
      दूर  की  दूरी  ही समझाए
कैसे बिन प्रियवर जीवन,
      लिखना चाहूँ लिखा न जाये.

बनते रहते गीत मौसमी
      उनमें तुमको समा रहा हूँ
उनसे प्यारी सेज कहाँ है?
      फलत: तुमको बुला रहा हूँ.
             ***

शुक्रवार, 1 जून 2012

चुहुल - २४


(१)
एक रेस्टरां के बाहर बड़े बड़े अक्षरों में बोर्ड लगा था कि कृपया अन्दर आइये, जो मर्जी हो खाइए, बिल चुकाने की चिंता बिलकुल ना करे, बिल आपका पोता चुकायेगा.

ये पढ़ कर एक उधारिये आदमी ने सोचा, इससे अच्छा मौक़ा कहाँ मिलेगा? वह अन्दर गया और तरह तरह की व्यंजन मंगवाकर आनंद लेता रहा. अंत में डकार लेकर जब बाहर जाने को तैयार हुआ तो बेयरा ने पाँच सौ रुपयों का बिल पेश कर दिया.

ग्राहक बोला,भाई, इस बिल का भुगतान तो मेरा पोता करेगा.

बेयरा बोला, साहब, ये आपके खाए का बिल नहीं है, ये तो वो बिल है जो आपके दादा जी खा कर गए थे.

(२)
एक मॉल के बाहर बोर्ड पर लिखा था, यहाँ नकद-उधार दोनों तरह से सामान बिकता है.

उधारचंद जी को लगा कि इस बात का लाभ ले लेना चाहिए. वे अन्दर दाखिल हुए. मॉल के अगले पायदान पर दो दरवाजे थे, एक पर लिखा था, नकद’, और दूसरे पर लिखा था, उधार. उन्होंने उधार वाला दरवाजा धकेला और अन्दर हो लिए. पुन: दो दरवाजों का विकल्प था, एक पर लिखा था ‘शॉर्ट-टाईम उधार दूसरे पर लिखा था ‘लॉन्ग-टाईम उधार.

मॉल के दरवाजों की खासियत यह थी कि एक ही तरफ, यानि केवल अन्दर को ही खुलते थे. उधारचंद जी अपने पक्के इरादे के साथ ‘लॉन्ग-टाईम उधार वाले दरवाजे को धकेल कर आगे निकले तो उन्होंने खुद को बिल्डिंग की पिछवाड़े की गली पर पाया.

(३)
एक बुढ़िया कई दिनों से दांत के दर्द से परेशान थी. दन्त चिकित्सक के पास जाकर बोली, “डॉक्टर साहब, इसको तो आज उखाड़ ही दो. डाक्टर ने कहा, ठीक है, आज निकाल देते हैं.

जब डाक्टर ने मुँह को खुला रखने का जुगाड़ करके, जमूरा लेकर दांत उखाड़ने की जुगत की तो वह बुढ़िया जोरों से चिल्लाने लगी. डाक्टर को बहुत बुरा लगा. बोला, अभी तो आप उखाड़ने के लिए बार बार बोल रही थी. मैंने दांत को छुआ तक नहीं है और आप इस कदर हाय-हाय करने लगी हो. ये कहते हुए, डाक्टर ने उसके मुँह में फिट किया हुआ जुगाड़ भी निकाल दिया तो बुढ़िया बोली, आपने मेरे पैर पर अपना जूता टिका रखा है, इसे हटाइये.

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बच्चे ने पापा से पूछा, पापा, बताओ इस नक्शे में आस्ट्रेलिया कहाँ पर है?

पापा बोले, अरे यार, ये बड़ी मुसीबत है! इस आस्ट्रेलिया को तब से ढूंडा जा रहा है, जब मैं स्कूल में पढ़ता था. अभी तक ये नहीं मिला क्या?

(५)
एक महिला बहुत ज्यादा पटर-पटर बोलती थी. एक दिन वह अपने पति को डॉक्टर के पास ईलाज के लिए ले गई और बोली, “डॉक्टर साहब, ये नींद में बहुत बोलने लग गए हैं.

डॉक्टर ने इत्मीनान से कहा, आप इनको दिन में बोलने का मौक़ा दिया करो, नींद में बड़बड़ाना अपने आप बन्द हो जाएगा.
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