शनिवार, 28 जनवरी 2012

अधूरा मकान


बनियाला, सोमेश्वर के पास एक छोटा सा पहाड़ी गाँव, जिसमें मुश्किल से २५ घर ब्राह्मणों के और १० घर शिल्पकारों के थे. ब्राह्मण सभी कर्म-कांड वृत्ति वाले थे इसलिए खेती की जमीन होते हुए भी उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं देते थे. जजमानी-निसरौ से ही काफी उगाही हो जाती थी. पूरे इलाके में उनकी जजमानी फ़ैली हुई थी. अब नई पीढ़ी इस वृत्ति वाले धन्धे से दूर होती जा रही थी. कुछ अध्यापक हो गए थे और कुछ सैनिक सेवाओं में चले गए थे. शिल्पकार लोग पहले से पंडितों की सेवा में रहते थे उन्हीं की जमीन पर रहते आ रहे थे, खेती भी उन्ही की जमीन में करते थे पर अब खेती में ज्यादा दम नहीं रह गया था क्योंकि जंगली सुअरों व बंदरों से फसल बचाना कठिन होता जा रहा था. पता नहीं ये नुकसान करने वाले जानवर इतनी संख्या में कैसे पहाड़ों पर बढ़ गए हैं. एक कारण ये भी है कि सरकार ने इनको संरक्षित घोषित किया हुआ है. इसलिए शिल्पकार लोग भी खेती में हाड़-तोड़ मेहनत के बजाय खुली मजदूरी करने में रूचि रखने लगे थे. ये भी था कि नए जमाने की हवा ने उनको दलित होने का एहसास करा दिया है, अब वे पंडितों की खुट्टाबर्दारी में रहना भी नहीं चाहते हैं. लेकिन गाँव की सामाजिक व्यवस्थाएं अभी भी बहुत कुछ सामंजस्यपूर्ण थी. सुख-दु:ख, शादी-ब्याह व अन्य कामकाज में सब एक दूसरे के संपर्क में रहते थे. हाँ, अब पहले वाली उंच-नीच व छुआ-छूत जैसी बात नहीं रही, रहनी भी नहीं चाहिए.

पंडित बुद्धिबल्लभ लोहानी का इकलौता बेटा रेवाधर बी.एस.एफ. में भर्ती हो गया था. कहीं दूर पंजाब-कश्मीर की तरफ तैनाती पर चला गया था. पाँच साल बाद जबरदस्ती घर बुला कर ग्वाल्दम के पास गढ़वाल के गाँव देवाल से
उसके लिए एक सुन्दर सी, अल्प पढ़ी-लिखी, दया नाम की दुल्हन ले आये. पहाड़ के रीति रिवाज से सब अनुष्ठान
किये गए.

रेवाधर ने पहले दिन ही उसको बता दिया कि वह पंजाब में महेंद्रकौर नाम की लड़की लडकी से प्यार करता है और उसके साथ रहता है. ये शादी उसने माता-पिता के दबाव में आकर महज खानापूरी के लिए की है. एक नव-विवाहिता के लिए इससे बड़ा आधात क्या हो सकता था कि उसका पति उसका नहीं है और इतना बड़ा धोखा उसके साथ किया गया. वह अंतर्मन से घायल हो गयी, रोती रही, आक्रोशित भी हुई, पर वह अपनी वेदना किस से कहती? कैसे कहती? दुविधा में थी. मायके में केवल माँ थी जो अपनी गरीबी व मजबूरियों में जी रही थी.

रेवाधर की बात सुन कर उसने उसको समर्पण नहीं किया, प्रतिशोध की भावना में जलते हुए वह ना जाने क्या क्या अशुभ सोचने लगी थी. कभी पूरे घर को आग लगाने की बात सोचती थी और कभी आत्महत्या करने की इच्छा की ज्वाला में तपती रही, पर कर कुछ नहीं पाई.

रेवाधर जल्दी ही अपनी नौकरी में लौट गया. माँ-बाप बेटे के इस चरित्र से बेखबर बहू के अजीब व्यवहार से परेशान रहने लगे. एक लडकी कितने सारे सपने संजोकर ससुराल आती है और यदि उसे वहाँ बेचारी दया की तरह दु:ख का रेगिस्तान मिले तो उससे नियमित व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? वह घुटती रही क्योंकि कहीं कोई आशा की किरण नजर नहीं आती थी.

इसी बीच पंडित बुद्धिबल्लभ ने पुराने घर के बगल में ही एक नया मकान बनाने की प्रक्रिया शुरू करवा दी. चार मजदूर+मेसन काम पर लग गए. उन्ही में गाँव का ही एक शिल्पकार लड़का दयाराम ओड़ (मेसन) का काम करने लगा. नाम दयाराम सुनकर लोहानी जी की बहू दया को पता नहीं क्या सूझा उसने उससे कहा, तुम्हारा नाम दयाराम है और मेरा नाम दया, अजीब संजोग है.

इस तरह दयाराम व बौराणी दया के बीच संबाद शुरू हुआ. दया उसके लिए चाय नाश्ता का विशेष ध्यान रखने लगी और दयाराम को भी लगने लगा कि बौराणी उसके प्रति आकर्षित है. मनुष्य भावनाओं व कमजोरियों का पुतला है, दोनों में घनिष्ठता बढ़ती गई दैहिक आकर्षण जात-पात धर्म-अधर्म कुछ नहीं देखता है. इस प्रकार दया चोरी छुपे दयाराम से सम्बन्ध बना बैठी. ये उसके आक्रोश की चरम परिणति मानी जा सकती है या शरीर की भूख भी. वे नित्य मिलने लगे. इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपते हैं. बात आपस में अन्य कारीगरों तक गई तो उन्होंने मकान मालिक को बता दिया कि "तुम्हारी बहू शिल्पकार के संग लग गयी है." बखेड़ा होना ही था. सास ससुर ने दया की जम कर पिटाई की तो उसने भी मुंह खोला और उनके बेटे के बारे में सब कुछ कह डाला. पंडित बुद्धिबल्लभ उसकी बातों से संतुष्ट नहीं हुए. वे तो उसे जान से मार देते पर अन्य बिरादर बीच-बचाव में आ गए. दयाराम को बुलाया गया अनेक अपशब्दों व गालियों से उसका स्वागत किया गया. उससे कहा गया कि वह दया को वहां से ले जाये क्योंकि वह भ्रष्ट हो चुकी थी. अब उसके लिए लोहानी जी के घर में कोई जगह नहीं थी.

दयाराम ने भी हिम्मत दिखाई. सबके सामने वह दया का हाथ पकड़ कर ले गया. दया ने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. गाँव के लोगों ने छी-छी थू-थू किया, पर जो होना था सो हो गया. दया के पास कोई विकल्प भी नहीं था.

ये घटना लगभग दस साल पुरानी हो चुकी है. दया व दयाराम अभी भी उसी गाँव में रहते हैं. उनके तीन बच्चे हैं. सुखी हैं या दु:खी? इस पर कोई टिप्पणी करना गैरवाजिब होगा पर ये सत्य है कि दोनों प्यार से रहते हैं.

उधर इस कांड के बाद पंडित बुद्धिबल्लभ लोहानी शर्म के मारे अपनी पत्नी सहित गाँव छोड़ कर काठगोदाम आ गए थे. जो मकान बन रहा था वह वैसा ही अधूरा रह गया जिसमे अब सिसौना (बिच्छू घास) उगा हुआ है.
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शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

रिडल मैम


उनको रिडल मैम इसलिए कहा जाता है कि वह जब भी क्लास में आती हैं तो कोई ना कोई रिडल पूछ कर हम बच्चों को मजेदार ढंग से मानसिक कसरत कराती हैं. वैसे वह हमें इंगलिश पढ़ाती हैं.

एक दिन उन्होंने सहज में ही हम से पूछ लिया, “In which state is the great Himalayas?” अब हिमालय की पर्वत माला तो पाकिस्तान-अफगानिस्तान से हमारे कश्मीर, हिमांचल, व उत्तराखंड को कवर करती हुई नेपाल, भूटान
सिक्किम होते हुए पूर्वोत्तर के राज्यों की तरफ चली जाती है. मैम के इस रिडल का उत्तर देना हमारे लिए कठिन हो गया. सब को लंबा सोचने का मौक़ा देने के बाद मैम ने कहा, “Give me the answer in only one word.” जब कोई सही जवाब हमसे नहीं बन पाया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए बताया, “It is a simple riddle. The answer is, solid state."  हम सब एक दूसरे का मुँह देख कर हँस पड़े.

इसी तरह के ticklish riddles का मैम के पास बड़ा खजाना है. उन्होंने पूछा, एक लाल पत्थर को अगर नीले पानी में डाला जाएगा तो क्या होगा? सही और सरल सा उत्तर उनको ही बताना पड़ा कि "पत्थर गीला हो जायेगा."

तुम्हारी वह कौन सी चीज है, जिसे दूसरे लोग ज्यादा इस्तेमाल करते हैं?
उत्तर है, "नाम."

"Where does Friday comes before Thursday?"
The answer is "in the dictionary."

"It breakes when you even name it?"
The answer is "silence."

"Which word is spelled incorrectly in the dictionary?"
The answer is  "incorrectly."

"If you give it to some body, you have to keep it?"
The answer is "promise."

इस तरह से मैम की क्लास में हमें बहुत आनंद आता है. हमको उनके आने का हमेशा इन्तजार रहता है. इस बार वह तीन दिनों से स्कूल नहीं आ रही थी और वह जब आई तो बेहद उदास थी. उनका चेहरा म्लान था. हम सातवीं क्लास के बच्चे हिम्मत नहीं कर पा रहे थे कि मैम से पूछें कि उदासी का क्या कारण है? वह हमेशा की तरह चहक नहीं रही थीं. क्लास की मॉनीटर की तरफ सबकी निगाहें थी क्योंकि वही उनके ज्यादा मुँह लगी थी, लेकिन पता नहीं वह भी उनका मूड देख कर सहमी हुई थी. काफी देर बाद वे खुद ही बोली, “Children, I am very sad today because I lost my Snow White."  ये सुन कर हम सब सकते में आ गए कि आखिर ये स्नो ह्वाईट क्या चीज थी.
“How costly was it, ma'am?” प्रज्ञा ने पूछ ही लिया.
इस पर उन्होंने कहा, “It was very dear to me. I must say it was priceless. It was like my own baby.”
हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि मैम की ये कौन सी नई रिडल है?
मॉनीटर ने पूछा, “Was it your pet?”
“Oh yes, my child, it was my pet, a little  puppy. My husband had gifted it to me on my birthday two years ago,” ये कहते हुए उनका गला भर आया.
“We are sorry  to learn about Snow White, but we want to know how you lost it?” मैंने पूछ लिया.
“It was crushed to death by a biker while crossing a road. That's why I always say that we should be very careful while on the road,” ये कहते हुए वे फिर उदास हो गयी.
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बुधवार, 25 जनवरी 2012

खुन्नस


कौन नहीं चाहता है कि व्यवस्था से भ्रष्टाचार ख़त्म हो? हम सब चाहते हैं, लेकिन जब हमारा अपना स्वार्थ होता है तो सारा आचार-विचार बदल जाता है क्योंकि नियम-उपदेश सब दूसरों के लिए होते हैं.

देश में इतना हल्ला-हुल्लड, आन्दोलन व थूका-पच्ची भ्रष्टाचार के खिलाफ हो रहा है फिर भी बेईमान लोग रिश्वत लेने से बाज नहीं आ रहे हैं क्योंकि आम आदमी रिश्वत देने को मजबूर है. पानी का कनेक्शन लेना हो, बिजली का कनेक्शन लेना हो, मकान का नक्शा पास कराना हो, ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना हो, लाइसेंस रिन्यू करवाना हो, गाड़ी का ट्रांसफर एन.ओ.सी. बनवाना हो, पासपोर्ट बनवाना हो, भू-खंड की रजिस्ट्री करवानी हो, या इस तरह का कोई आवश्यक व्यक्तिगत कार्य सरकारी कार्यालय में करवाना हो तो बिना सुविधा शुल्क के कराना दु:स्वप्न है. कहने को सिद्धांत बहुत हैं पर जब खुद पर आ पड़ती है तब मालूम पड़ती है कि बिचोलिये-दलाल सब जगह उपलब्ध रहते हैं जो हर गलत-सही काम को सुविधा शुल्क लेकर आसान करवा देते हैं. होने को कानूनी मशीनरी है जो इस भ्रष्टाचार को पकड़ सकती है पर इसकी प्रक्रिया बहुत कठिन है, लम्बी है, लोग उलझ जाने से भी डरते हैं.

देश के बड़े सौदे व ठेकों का जो इतिहास उजागर होता रहा है, वह हमारा शर्मनाक पहलू है, जिससे आज हम बड़े भ्रष्ट देश के रूप में दुनिया भर में बदनाम हैं.

अन्ना जी ने लोगों की सही नब्ज पकड़ी और इस तरह के अनेक छोटे-बड़े आन्दोलन करके नाम कमाते रहे हैं. उनकी खुद्दारी पर अंगुली उठाना सूरज की तरफ थूकने के सामान है, पर उनकी आड़ में जो शिकार खेले जा रहे हैं उनसे वे भी बेखबर नहीं होंगे. परिस्थितियाँ इस तरह बन गयी हैं कि चाहते हुए भी उस मकड़जाल से अन्ना नहीं निकल पा रहे हैं. उनके पीछे जो अपार जन समर्थन है वह भी झूठा नहीं है पर जो राजनैतिक खेल दूसरे लोग खेल रहे हैं, उससे ये अच्छी तरह महसूस हो रहा है कि अन्ना जी को मोहरा बना कर अपनी-अपनी खुन्नस निकाली जा रही है. इसमें सबसे बड़े खिलाड़ी हैं, अरविन्द केजरीवाल, जो सारे चक्रव्यूह के रचनाकार हैं. मैं नहीं कहता कि वे प्रत्यक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी को लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से ये सब कर रहे हैं, लेकिन उनका खुला मिशन कांग्रेस पार्टी को धराशाही करने का रहा है. अब इसका फ़ायदा किसको मिल रहा है, ये उनके लिए गौण बात है. बाकी चौकड़ी में जो लोग हैं, उन्हें क्रांतिकारी होने का तमगा दिया जा सकता है क्योंकि इस रस्साखींच में उनको मजा आ रहा है, और वे सब अन्ना टीम के रूप में स्टार बन गए हैं. आगे देखिये, इनमें से अधिकतर लोग अगले लोकसभा चुनावों में जीतने वाले उम्मीदवार होंगे. बलिदान से ज्यादा स्वार्थ भावना यहाँ भी अवश्य है. इसमें इनकी गलती भी नहीं मानी जा सकती है क्योंकि ये हर इंसान की फितरत है.

अभी हाल में जब टीम अन्ना कांग्रेस के खिलाफ प्रचार के लिए उत्तराखंड के रुद्रपुर शहर में गयी थी तो एक नौजवान ने अपने फेसबुक पर लिखा कि ये उसकी जिंदगी का स्वर्णिम दिन है कि वह टीम अन्ना से रूबरू हुआ है. मेरी ये कामना है कि उसका ये जज्बा अल्पकालिक न रहे क्योंकि टीम अन्ना कहीं उसी हमाम में न पहुँच जाये जहाँ आज के थके हारे बदनाम नेता पड़े हुए हैं. क्योंकि अधकचरे जनतंत्र का यही चरित्र होता है.

जब तक सब लोग शिक्षित नहीं होंगे, जब तक लोगों में सही राजनैतिक संस्कार नहीं होंगे, तब तक दारू, रुपया, पद, या अन्य प्रलोभनों में फंसते रहेंगे. जाति व धर्म के नारों से चुनाव में प्रभावित होते रहेंगे और वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थाओं में कभी भी सही निर्णय नहीं ले पायेंगे.

जहाँ तक स्वामी रामदेव जी का मामला है, वह शुद्ध रूप से एक व्यवसायिक दृष्टिकोण से अपनी मुहिम चलाये हुए हैं उनकी दूकानें विश्व के अनेक देशों में चल रही है. खूब मुनाफ़ा कमा रही हैं, योग की महारत की आड़ में उन्होंने अपना जो साम्राज्य बनाया है, वह उतना शुद्ध नहीं है जितना आम लोग समझ रहे हैं. हर दुकान पर एक वैद्य भी नि:शुल्क उपलब्ध है  लेकिन वह जो दवा का प्रिस्क्रिप्शन लिखता है वह ५००-१००० रुपयों का होता हैं, जिसे मरीज की खरीदने की मजबूरी हो जाती है. लगभग हर पर्चे में स्वर्णभस्म एक बड़ी कमाई का जरिया है. एक बार जो फेर में पड़ जाता है, उसे देर में समझ में आता है कि कही खोट में फंस गया हैं. स्वामी जी की वाक्पटुता व अनेक असाध्य रोगों का इलाज करने का दावा भी भुक्तभोगी को देर में समझ में आता है. इन पंक्तियों का लेखक रामदेव जी की निंदा नहीं करना चाहता है क्योंकि उन्होंने योग और आयुर्वेद को नई पहचान जरूर दी है. पर उनका स्वदेशी का नारा केवल जनभावनाओं का दोहन करने के लिए है. उन्होंने अपने उद्योग में जितनी मशीनें लगाई हैं, सब इम्पोर्टेड हैं.

कुल मिला कर शहरी क्षेत्रों के मध्यवर्गीय लोग इन आन्दोलनों व उत्तेजनाओं के शिकार हैं. इन चुनावों में कांग्रेस पार्टी को निश्चित रूप से बहुत नुकसान उठाना पडेगा क्योंकि उसके अनेक सिपहसालार चारों ओर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घिरे हुए हैं. केंद्र की सत्ता में हैं इसलिए बैकफुट पर है. यद्यपि भ्रष्टाचार में सभी छोटे बड़े पार्टियों के नेता लिप्त हैं, जो जरूरत महसूस होने में दलबदल करके ईमानदार बन जाते हैं. कहावत है कि राजनीति और प्यार में सब कुछ जायज है.

सन २०१४ के लोक सभा चुनावों तक ये जूतम पैजार व गाली गलौज रहेगी पर अंत में सब ध्रुवीकरण होकर अपने पुराने ढर्रे पर आ जाएगा. मूलभूत परिवर्तन के लिये शायद बहुत लंबे समय का इन्तजार करना पडेगा क्योंकि अपवादों को छोड़ कर हम सब स्वार्थी हैं, नारे जरूर भ्रष्टाचार के विरोध में गला फाड़ कर लगा रहे हैं.
                                    ***

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

उल्फत


जमाने ने उनको बक्शा नहीं है,
उल्फत का जिनको शऊर आ गया हो,
उल्फत क्या है? जमाने को बतलायें क्या?
बिन पिए ही गरचे शरूर आ गया हो.

कहने में ये बात बड़ी सहज लगती है पर एक नामी शायर ने उल्फत को आग का दरिया कहा है, जिसे तैर कर जाने का विधान बताया है. तात्पर्य यह है कि ये बड़ी कठिन डगर है और इसमें खतरे भी कम नहीं हैं.

रामनारायण मीणा एक साधारण परिवार में जन्मा, ग्रामीण परिवेश में पला, आदिवासी छात्र और उसकी क्लासमेट ज्योत्स्ना कपूर, डेंटिस्ट्री के छात्र थे. संयोगवश एक दूसरे के निकट आते गए और यौवन की दहलीज पर चाहना की भावना में उलझते चले गए. दोनों में प्यार हो गया. प्यार इतना परवान चढ़ा कि जाति-समाज व आर्थिक असमानता की परिधियों को लांघते हुए दोनों ने आजीवन एक दूसरे के साथ रहने, साथ जीने मरने की कसमें खा ली. इंटर्नशिप पूर्ण होने से पहले ही दोनों ने अपने-अपने परिवारों की अग्राह्यता का भय सोचते हुए आर्य समाज मंदिर में जाकर चुपचाप विवाह रचा लिया.

डॉ. रामनारायण के माता-पिता अनपढ़ किसान थे. बेटे की इस उपलब्धि पर खुश थे कि डाक्टरी पढाई के साथ ही  डॉक्टरनी बहू को भी घर ले आया था. लेकिन अपने संस्कारों के प्रभाव में वे इस बात से दु:खी थे कि शादी में ढोल-बाजे नहीं बजे और बिरादरी में अपने बेटे के डंके का जश्न परंपरागत रूप से नहीं मना सके. उन्होंने निश्चय किया कि शादी की दावत तो अवश्य देंगे. अत: सात गाँव की अपनी बिरादरी को लड्डू-बाटी-चूरमा वाली जीमण का न्योता दे दिया. सर्वत्र खुशी का माहौल था.

जीमण के ठीक एक दिन पहले पुलिस जाफ्ता लेकर आई और डाक्टर दम्पति को अपने साथ ले गयी. पुलिस ने बताया कि इनके खिलाफ डा. ज्योत्स्ना के पिता ने रिपोर्ट लिखाई है कि जबरदस्ती उनकी बेटी का अपहरण किया गया है. पुलिस का अपना तरीका होता है उसने इनकी बात बिलकुल नहीं सुनी और कहा कि क़ानून के अनुसार इनकी जमानत अदालत से ही हो सकेगी. इस प्रकार बने बनाए खेल में भारी विघ्न उपस्थित हो गया.

ज्योत्स्ना के पिता सुरजीत कपूर एक पुराने आई.ए.एस. अधिकारी थे, क़ानून की दाँव-पेंच खूब समझते थे. उन्होंने दो बड़े क्रिमिनल लायर्स को इस मामले में नियुक्त किया. दरअसल ज्योत्स्ना ने उनको अब तक ये भनक नहीं लगाने दी थी कि वह किसी लडके के प्रेमजाल में है. वैसे भी कपूर साहब में बहुत सुपीरियोरिटी काम्लेक्स था. मीणा आदिवासी परिवार से सम्बन्ध उनके लिए बड़ी तौहीन करने वाली बात हो गयी. नए जमाने हवा से बेखबर वे अपनी बेटी से बहुत गुस्से में थे पर इस वक्त उनका मिशन था कि कैसे भी दोनों को अलग करा दिया जाये और बेटी कैसे भी एक बार उनके घर आ जाये.

सारे दाँव-पेंच तिकड़म लड़ाए गए. चूँकि दोनों ही बालिग़ थे और मजिस्ट्रेट के सामने ये कहने को तैयार थे कि उन्होंने अपनी राजी से विवाह किया है, मजिस्ट्रेट साहब को भी परदे के पीछे से पट्टी पढाई गयी. उन्होंने ज्योत्स्ना की मानसिक हालत ठीक न होने की दलील पर उसे सीधी नारी निकेतन भेजने का आदेश कर दिया और लड़के व उसके परिवार के चार पुरुष सदस्यों को अदालत परिसर में हुल्लड़बाजी तथा गुंडागर्दी के आरोप में अन्दर कर दिया जिनकी एक सप्ताह तक जमानत नहीं हो सकी.

इस प्रकार जब मामला बुरी तरह उलझ गया तो स्थानीय अखबारों की सुर्ख़ियों में भी आया. आम लोगों के लिए ये मनोरंजक समाचार से ज्यादा कुछ भी नहीं था पर युवा प्रेमियों के जीवन में एक बड़ा हादसा हो गया.

कपूर साहब अपने रसूख व कानूनी कार्यवाही के सहारे बेटी को अपने घर ले आये और उस पर इस रिश्ते को तोड़ने व भूल जाने के लिए तमाम दबाव व लानत-मलानत देकर समझाते रहे. पर ज्योत्स्ना इस प्रकार अपने व अपने प्यार के साथ किये गए अत्याचार से इतनी घायल और असहाय हो गयी कि उसने खाना-पीना और बोलना सब बंद कर दिया. कपूर साहब ने उस पर पहरे बिठा दिये. इस प्रकरण में ज्योत्स्ना की माँ ने भी उसका बिलकुल साथ नहीं दिया. उधर मीणा परिवार पर प्रशासनिक श्रोतों से भय और आतंक की छाया बनी रही.

तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में सही लिखा है कि समरथ को नहि दोष गुसांई’. सोशल हैरार्की के प्रभाव में सत्य व प्रेम घुट कर, दब कर रह गया.

इस प्रकरण की खबर जब मेडीकल कॉलेज की छात्र युनियन तक पहुँची तो छात्रों ने इसे आन्दोलन का रूप लेकर बवाले की तरह उभार दिया. राज्य के स्वास्थ्य मन्त्री और मुख्य मन्त्री को व्यतिगत रूप से हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

प्रेमी डॉक्टर दम्पति को अदालत से भी राहत मिली और अब वे स्वतंत्र है. मेडिकल कॉलेज के प्रांगण में नए पुराने सभी छात्रों ने एक हंगामेदार स्वागत समारोह किया. डॉ. रामनारायण व डॉ. ज्योत्स्ना को जीत की खुशी में उनको ताज पहनाया गया. इस मौके पर खुद डॉ. रामनारायण ने ये शेर पढ़ कर समारोह का समापन किया:

वफ़ा की उनसे शिकायत नहीं है
हीर औ शीरी की वह हमसफ़र हो गयी हैं
वफ़ा क्या है? जमाने को बतलायें क्या?
परवाने को बचा कर, शमा जल रही है.
                           *** 

रविवार, 22 जनवरी 2012

जुड़वां


आम तौर पर जुड़वां शब्द का प्रयोग दो साथ-साथ पैदा हुए बच्चों के लिए प्रयुक्त होता है. अंग्रेजी में इन्हें ट्विन्स कहा जाता है. कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ तीन बच्चे एक साथ एक गर्भ से पैदा होते हैं. इन्हें अंग्रेजी में ट्रिप्लेटस् कहा जाता है. प्रकृति का ये अनूठा खेल है. कई बार इससे भी अधिक बच्चे एक साथ पैदा होते हैं.

भारत में हैदराबाद-सिकंदराबाद शहरों को भी ट्विन सीटीज कहा जाता है. मलेशिया में दो सर्बोच्च टॉवरों को भी पेट्रोनस ट्विन टॉवर्स पुकारा जाता है. आतंकवादियों द्वारा ध्वस्त के गए अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर टॉवर्स भी ट्विन्स ही कहलाते थे.

जानवरों की कुछ प्रजातियों में तो एक साथ दो या दो से अधिक बच्चे जनने की बात आम होती है, पर यहाँ बात मनुष्यों के जुडवाँ बच्चों की हो रही है. इन बच्चों में अनेक विशेषताएं होती है. अध्ययनों से पता चला है कि जुडवाँ बच्चों की प्रकृति में बहुत सी समानताएं होती हैं. आत्मिक रूप से कुछ तार जुड़े होते हैं जो परामनोविज्ञान का विषय है. जैसे एक के पेट में दर्द हो रहा हो तो दूसरा भी इसी तरह की हरारत महसूस करने लगता है. अगर दूर-दूर हों तो टेलीपैथी जैसी सोच में एकरूपता पाई जाती है. कुछ विकृतिया भी होती हैं जिनमें जुडवाँ बच्चों के अंग जुड़े होते हैं जो उनके लिए बड़ी समस्याकारक होता है. सौभाग्यशाली बच्चों को सर्जिकल इलाज से अलग कर दिया जाता है लेकिन ये सारी कसरत बहुत कष्टकारी व दुरूह होती है.

पश्चिमी विकसित देशों में कई जगह जुडवाँ बच्चों के लिए अलग से विशिष्ट स्कूल खोले गए हैं. दिल्ली में डी.पी.एस.
आदि कई स्कूलों में प्रवेश के लिए जुडवाँ बच्चों के लिए अतिरिक्त पॉइंट्स रखे गए हैं. इंग्लेंड में एक जुडवाँ बच्चों के स्कूल (नाम मुझे याद नहीं आ रहा है) ने अपने नए-पुराने स्टूडेंट्स का एक मिलन समारोह आयोजित किया था जिसमे अधेड उम्र तक के भाई-बहन, भाई-भाई, या दोनों बहनें गलबहियां ड़ाल कर आनद ले रहे थे.इसकी वीडियो क्लिपिंग मैंने देखी थी.

यहाँ भारत में राजस्थान के करौली (सवाईमाधोपुर जिला) में मुझे एक मित्र-पुत्र की बरात में जाने का सौभाग्य बरसों पहले प्राप्त हुआ था, ये जानकर अच्छा लगा था कि बरात जिनके घर गयी थी वे दो भाई थे, जुडवाँ थे. एक का नाम जोरावर सिंह और दूसरे का नाम भक्तावर सिंह था. वे अभी भी सकुशल होंगे ऐसी कामना है. वे दोनों राज्य सरकार की सेवा में तहसीलदार थे, एक ही दिन की नियुक्ति और तदनुसार एक ही दिन रिटायर भी हो चुके थे. दोनों शक्ल सूरत व प्रकृति में सामान थे. उनके साथ आनंददायक मुलाक़ात रही थी.

मेरी पौत्री प्रज्ञा कहती है कि उसके क्लास में भी एक जोड़ा भाई-बहिन है जो ट्विन्स है, भाई बहन से केवल १२ मिनट बड़ा है. इसी सन्दर्भ में एक मजेदार अदालती केस हिस्ट्री मैंने सुनी थी कि जायदाद के झगड़े में जुडवाँ छोटे भाई (जो बाद में पैदा हुआ था) ने क्लेम किया कि वह दूसरे भाई से पहले माँ के गर्भ में गया इसलिए उसे बड़ा माना जाये. अदालत ने उसके इस तर्क को स्वीकार नहीं किया क्योंकि जिन शुक्राणुओं से उत्पत्ति होती है वे लाखों में एक साथ जन्म की प्रक्रिया में शामिल होते हैं.

हमारी बौलीवुड की अनेक फिल्मो में विरोधाभाषी चरित्र वाले पात्रों को जुडवाँ के रूप में कई बार बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया गया है जिनमे यादगार फिल्म राम और श्याम, सीता और गीता  जैसी अनेक फिल्मे है.

एक अंगरेजी पत्रिका में एक चुटकुला ट्विन्स के बारे में लिखा था कि एक ट्विन कहता है मेरा जुडवाँ भाई मुझे बचपन से ही सताता आया था, वह बदमाशी करता था नाम मेरा लगाता था, वह चोरियां करता था सजा मुझे  मिलती थी, वह लड़कियों को छेडता था बदनामी मुझे मिलती थी. बड़ा होने पर भी उसके कारनामों से मैं त्रस्त रहता था पर अब मैंने बहुत बढ़िया ढंग से उससे पूरा बदला ले लिया है कि मैं मर गया था लोग उसे दफ़न कर आये हैं.

खैर, ये तो हुई चुटकुले वाली बात, जुडवाँ होना एक विशिष्टता की बात तो है ही आपने क्लोनिंग वाली बात सुनी-पढ़ी होगी. वैज्ञानिकों ने क्लोनिंग द्वारा बहुत से भेढ-बकरे, गाय या अन्य जानवरों के क्लोन पैदा करने की सफलता पा ली है. इस तकनीक में एक टिश्यू द्वारा नया हूबहू गुण-दोष वाला प्राणी पैदा हो जाता है. मनुष्य की भी क्लोनिंग चुपचाप  प्रयोगशालाओं में अवश्य की जा रही होगी. सार्वजनिक रूप से इसका विरोध किया जा रहा है क्योंकि इसमे तर्क दिया जा रहा है कि इससे अनेक सामाजिक समस्याएं पैदा हो जायेंगी. पितृत्व तथा मातृत्व पर प्रश्नचिन्ह लग जायेंगे, लेकिन हर चीज के अच्छाई व बुराई दोनों पहलू होते हैं.

अब ये वैज्ञानिक कार्य तो घड़ी की सुई की तरह है, जो निरंतर आगे ही बढ़ती जाती है पीछे को कभी नहीं चलेगी. मनुष्य ने अपने बुद्धिकौशल से प्रकृति पर विजय पाने की मुहिम छेड़ रखी है. चूँकि अभी वैज्ञानिक युग का प्रथम चरण ही चल रहा है आगे देखिये क्या-क्या होता रहेगा? मैं शुभाकांक्षी हूँ.
                                       ***

शनिवार, 21 जनवरी 2012

मीत सलोना


अधबचे खपरेलों पर उगी हुई घास
गुज़री हुई झंझाओं को मुँह फाड़ कर
               न भी कहे
               कह भी न सके,

दूसरी मंजिल से त्याज्य पनियारी
अपने चेचक से दागों को भर ही सके
               न भी बहे
               बह भी न सके,

बृद्ध-बीमार गंधर्व की उलझती टांगें
अब केवल एक किलो भार भर
               न भी सहे
               सह भी न सके,

रहे मन में उलझा मेरा मीत सलोना
चाहे दूर क्षितिज या सत्य-प्रकृति
               न भी रहे
               रह भी न सके.
                     ***

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

पीपल और मैं


बहुत से लोग जन्मदिन धूमधाम से मनाते हैं. शौकीन लोग तो अपनी सगाई व शादी की सालगिरह भी मनाते हैं. कुछ भाग्यशाली ऐसे भी होते हैं जो अपनी इन तिथियों की सिल्वर जुबली या गोल्डन जुबली समारोह-पूर्वक मनाते हैं. डाइमंड जुबली या प्लैटिनम जुबली की बात मैं नहीं करना चाहती हूँ. क्योंकि उम्र के इन पड़ावों पर सम्बंधित लोग सब कुछ मना कर दूसरे लोक मे पँहुच चुके होते हैं अथवा अल्जाइमर्स के शिकार हो चुके होते हैं.

मेरी बात और है, मैं तो तुम्हारे प्यार की याद में उसी तरह रतजगा करती हूँ जिस तरह ठीक ५० साल पहले आज ही के दिन तुमने मुझे चुपके से ये सुनहरा पीपल का पत्ता अपने दिल के रूप में क्लास रूम में ही कापी में छुपा कर दिया था. तुम्हारी वो शर्मीली चोर निगाहें मुझे अभी तक याद हैं. इस पहले और आख़िरी प्यार की निशानी को मैंने अनमोल सौगात की तरह सम्हाल रखा है. ये बिलकुल दिल के आकार का है तुमने शरारतन बड़ी हिम्मत करके मुझे दिया था और मैंने मुस्कुरा कर तुमको प्यार की स्वीकृति दी थी. आज इतने अरसे के बाद मैं ना जाने क्यों उसी दिन की तरह तुम्हें अपने पार्श्व में महसूस कर रही हूँ. मन चँचल हो रहा है और हिरनी के अल्हड़ छोने की तरह कुलाचे भर रहा है. शायद ये इसलिए भी हो रहा है कि मेरे इकलौते व एकाकी प्यार की अनुभूति की आज स्वर्ण जयन्ती है.

तुम ना जाने मेरे किशोर मन पर मनभावन सपनों की छाप छोड़ कर कहाँ चले गए और सँसार की भीड़ में खो गए. मैं तुम्हें भूल नहीं पाई हूँ. नित्य जीवन के हर छोटे मोटे मोड़ पर तुम्हारी छुवन महसूस करती रहती हूँ.

मेरे घर के पास एक पीपल का पेड़ लगभग तुम्हारी-मेरी उम्र का सीधा सपाट खडा है. इसे शायद पास के मंदिर वालों ने लगाया होगा और सींचा होगा. पिछले कई वर्षों से मैं इसमें तुम्हारा प्रतिरूप देखने लगी हूँ. आस-पास मोहल्ले की औरतें वार-त्योहार इसकी प्रदक्षिणा करती हैं, और सिन्दूर लगा कर अक्षत-पुष्प चढ़ा कर जाती हैं. सुहागनें इसमें कलेवा-धागा लपेट कर बाँध जाती हैं. मेरा मन करता है मैं भी तुम्हें अपने डोरे में लपेट कर बाँध लूँ, पर नहीं, मैं तुम्हें बांधूंगी नहीं क्योंकि मैंने तुम्हें सच्चे दिल से प्यार किया है. तुम पुरुष हो अनंत आकाश में ना जाने उड़ कर कहाँ चले गए हो? नारी मन के कोमल भावों के बारे में सोचने की तुम्हें कहाँ फुर्सत होगी? तुम तो मुझे चेतन-अचेतन मन से पूरी तरह भूल चुके होगे, अन्यथा क्या तुम्हें मेरी कभी याद नहीं आती? ना सही, तुम कहीं अपने सँसार में सुखी होगे, मुझे अब इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं रहती है. लेकिन इस माघ-फागुन की बसंती बयार में जब इस पीपल के पत्ते सरसराहट करते होते हैं तो मुझे लगता है कि तुम मुझसे कुछ कहना चाहते हो. मैं कान लगा कर इस मधुर ध्वनि-संगीत का पान करती हूँ और आँखें बंद करके तुम्हारे उसी किशोर स्वरुप को हिलते-डुलते महसूस करती हूँ.

अब पतझड़ शरू होने जा रहा है और जब भी एक पत्ता खड़खड़ाता हुआ तितली की तरह तैरता हुआ नीचे आता है तो मैं भाग कर उसे पकड़ने की कोशिश करती हूँ, ये सोच कर कि तुम निरंतर ऐसे प्रेमपत्र मुझे भेजते रहते हो और हर पत्र में नई इबारत व चाहना की भावना भरी होती है.

कभी-कभी जब तेज हवा इन पत्रों को कहीं दूर उड़ा कर जाती है या सुबह-सुबह सड़क झाड़ने वाला इन्हें उठा कर ले जाता है तो मैं बहुत उदास हो जाती हूँ. कल मुझे एक बड़ा सा सूखा-पीला पत्ता मिला जिसमें ऊपर की परत नहीं थी और झीनी-झीनी जाली बनी हुई थी. मैंने उसे उठा लिया, उसकी बारीक खिड़कियों में तुमको ढूँढने के लिए बहुत देर तक दृष्टि गड़ाये रही. मैंने पाया तुम मेरे साथ वहीं थे अनेक रूपों में माया नगरी के नवरंगों में कभी राज कपूर-नर्गिस, कभी राजेन्द्रकुमार-माला सिन्हा या कभी देवानंद-वहीदा रहमान के रूप में नृत्य-गायन करते हुये मेरे सपने व छद्म अवधारणाएं तुम्हारे ही रंग में सरोबार भीगती रही.

सड़क के उस पार ठीक मेरे इस पीपल के पेड़ की सामने एक सेमल का पेड़ भी है. वह अभी पूरी तरह पत्र विहीन है. उस पर छोटी-छोटी कोपलें और सुर्ख लाल फूलों के गुच्छे खिलने लगे हैं. हर साल इसी मौसम में इसमें ढलती तरुनाई का ज्वार उठता है. मैं खुद को इस सेमल के पेड़ के रूप में देखने लगी हूँ. तुम्हारी इस नजदीकी से मुझे अब अधिक आनंदानुभूति होने लगी है. मैं तुम्हारी मृदुल हंसी और सरसराहट को सुन कर मन्त्र मुग्ध  हूँ. अनंत काल तक साथ निभाने का वादा करती हूँ. इस स्वर्ण जयन्ती पर तुमको भी अनेकों मुबारकबाद देती हूँ.
                                     ***  .          

बुधवार, 18 जनवरी 2012

मियाँ फजीहत


उनका असली नाम तो रसूल खान है, पर ये नाम अब लोग भूल चुके हैं. उनको मियाँ फजीहत या फजीहत चाचा के नाम से ज्यादा जाना जाता है. वे काम-धाम तो कुछ करते नहीं हैं, दिनभर फालतू घूमते रहते हैं. सुबह से ही इस फिराक में रहते हैं कि कहीं चाय-पानी या खाना मयस्सर हो जाये. अगर कोई सुराग मिल जाता है तो दिन की शुरुआत अच्छी हो जाती है. वे इस टोह में रहते हैं कि शहर में कहाँ दावत का धुँआ निकलने वाला है, ताकि वहां हाजिरी देकर दो एक दिन के लिए खाने की छुट्टी हो जाये. पर वे हैं बड़े खुद्दार किस्म के आदमी. किसी से ये नहीं कहेंगे कि भूख लगी है खाना खिला दो. यों अकेले आदमी की जिंदगी जी रहे हैं. कोई पूछे तो कहा करते हैं कि खुदा ने सबके खाने-पीने का इन्तजाम अपने हाथों में रखा है. चीटी के लिए कण तो हाथी के लिए मण, पूरे हिसाब से किया गया है.

भाग्य के भरोसे रहने वाले निठल्ले लोगों की ऐसी ही सोच होती है, पर हमेशा तो ऐसा चल नहीं सकता. कभी कभी फाके-मस्ती भी झेलनी पडती है. मस्जिद के पास वाले ढाबे में दानी लोग गरीबों के लिए खाने के पत्तल बोल जाते हैं तो फजीहत मियाँ चूकते नहीं हैं. जब कोई उनसे कहे कि चाचा कुछ काम किया करो तो वे साफ़ लफ्जों में कहने से परहेज नहीं करते हैं, "पंछी करे न चाकरी, अजगर करे न काम; दास मलूका कह गए सबके दाता राम."

शादी ब्याह के मौसम में वे सब जगह पहुँच कर प्रसाद ग्रहण कर आते हैं. उनमें खास बात ये भी है कि वे जात-पात व धर्म की दीवारों को नहीं मानते हैं. इसलिए अक्सर शादी-ब्याह के मौसम में उनका पेट खराब हो जाया करता है. लेकिन वे इसकी परवाह नहीं करते क्योंकि हकीम गनी खान से मुफ्त में पेट रोकने की दवा नसीब हो जाया करती थी, पर अब जब से हकीम साहब को खुद जन्नत नसीब हो गयी है तो वे दवा के मोहताज हो गए हैं.

पिछले साल कुछ ऐसा हुआ कि आस-पास शहर में शादियों का अकाल सा रहा. हिन्दू कहते थे कि इस साल सावा के मुहूरत ही नहीं हैं और मुसलमान भी ना जाने क्यों शादियों से कन्नी काटते रहे. फजीहत चाचा को वास्तव में फजीहत का मौक़ा आ गया. पिछले हफ्ते-दस दिनों से कहीं भी दावत का धुंआ नहीं उठ रहा था और मस्जिद के पास वाले ढाबे पर भी किसी दाता ने नजरशानी नहीं की थी. पेट जरूर खराब था पर खाली पड़ा था.

वे उदास बैठे, खाने की कोई तरकीब सोच ही रहे थे कि किसी को बातें करते हुए सुना कि सदर गली में एक नया सस्ता जनता होटल खुल गया है, जहाँ एक रूपये में दो रोटी और दाल फ्री का बोर्ड लगा हुआ था. उन्होंने जेब टटोली तो एक रूपये का एक अधफटा सा नोट रिजर्व में रखा मिल गया. और वे शान से तहमद को पेट पर कसते हुए उस ओर चल पड़े.

जनता होटल मिल गया, और उनकी खुशी व व्यग्रता का ठिकाना न रहा. तुरन्त रुपया देकर खाने का कूपन लेकर कोने की टेबल पर आ गये. बैरा को बड़ी मातबरी से कूपन दे कर दाल-रोटी का इन्तजार करने लगे. इन्जार के पल समाप्त होते ही उन्होंने पाया कि होटल वाले ने बड़ी चालाकी बरती हुई थी, दोनों रोटीयाँ बहुत छोटी व पतली थी साथ ही दाल भी गुजराती थी जिसमें दाने ढूँढने पड़ रहे थे. अब क्या किया जाये? उन्होंने तरकीब निकाली कि रोटी को चूरे के रूप में खाँयें और दाल की पूरी कटोरी पी जाएँ.

जब तीन चार कटोरे दाल पी गए और रोटी एक भी पूरी नहीं खाई गयी थी तो बैरा ने मालिक को यथास्थिति से अवगत करना उचित समझा. मालिक भी महा काईयाँ था वह ऐसे ग्राहकों से निबटना खूब जानता था. उसने बैरा से कहा कि दाल में जम कर लाल मिर्च डाल कर दे और उसमें थोड़ा जमालगोटा भी घोल दे.

मियाँ फजीहत डकार लेते हुए दाल पी तो रहे थे और मिर्च की शिकायत भी ज्यादा ही हो रही थी, तो उन्होंने रोटी खाने की स्पीड और कम कर दी. दाल व पानी का ज्यादा सेवन करते रहे. उनको तसल्ली हो रही थी कि पेट भरने का  ठीक इन्तजाम हो गया था. वे ऐसा सोच ही रहे थे कि जमालगोटा का असर शुरू हो गया, पेट पहले से खराब था सो तेजी से गु ड़-गुड़ करने लगा. जल्दी से दाल-रोटी से निबट के बाहर निकलने वाले थे कि होटल के दरवाजे पर जाते-जाते पेट लीक होने लगा. अब बीच बाजार में जोर की हाजत होने पर सार्वजनिक रूप से बैठ तो सकते नहीं थे इसलिए उन्होंने इसी में अपनी सुविधा समझी कि लीक होने दिया जाये.

पीले रंग कॉ मसाला टांगों व तहमद पर होते हुए उनके पीछे-पीछे बाजार को अपवित्र करते हुए एक लकीर की तरह बनता चला गया. वे एक फर्लांग के करीब पहुंचे ही थे कि उनका एक जिगरी दूसरा फजीहत मिल गया. उसने पूछा, चाचा सुना है कि यहाँ पर एक जनता होटल खुला है, जिसमें एक रूपये में दो रोटी और दाल फ्री मिल रही है? तो चाचा फजीहत ने उसकी तरफ गंभीरता से देखा और थोड़ा सा सोच कर कहा, ये जो पीली लकीर है, तुम इसी के सहारे-सहारे चले जाओ, सीधे जनता होटल में पहुँच जाओगे.

उसने चाचा फजीहत की नज़रों से नजर मिलाई, उनमें कुछ शरारत थी. वे मुस्कुरा भी रहे थे. छोटे फजीहत ने मुँह बिचकाया और उसी लकीर पर आगे बढ़ गया.
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सोमवार, 16 जनवरी 2012

चुहुल-१५

                                    
(१)
एक पति अपनी पत्नी को मजाक में उकसाते हुए बोला, कल रात मेरे सपने में एक बहुत सुन्दर औरत आई और प्यारी-प्यारी बातें करती रही.
पत्नी ने तुरन्त पूछा, अकेले आई होगी?
पति, हाँ, पर तुमको कैसे मालूम हुआ?
पत्नी. क्योंकि उसका पति सपने में मेरे साथ जो था.

(२)
एक आदमी रात को दोस्तों के साथ काकटेल पार्टी करके, नशे में धुत्त घर पहुँचा. दरवाजा बहुत देर तक खटकाता रहा पर खुला नहीं. पूरी रात बाहर बैठ कर निकालनी पडी. बैठे बैठे बीवी को गालियाँ देता रहा.
सुबह जब नशा उतर गया तो उसे याद आया कि पत्नी तो कल ही अपने मायके चली गयी थी, चाबी अपनी ही जेब में थी.

(३)
एक शराबी ने सिक्का उछाल कर अपना नव वर्ष संकल्प बताया कि अगर हेड आया तो ह्विस्की पिएगा, टेल आया तो वोदका पिएगा, सिक्का जमीन पर खड़ा रह गया तो रम पिएगा, और अगर सिक्का हवा में ही लटका रहा तो जिंदगी भर शराब नहीं पिएगा.

(४)
गाँव में बिजली आने की खबर से सब लोग उत्साहित थे. इसी खुशी में कुछ लोग नाचने लगे. उनको नाचते देख कर हाल ही में शहर से गाँव लाया गया एक कुत्ता, जो हमेशा उदासीन रह रहा था, भी नाचने लगा. किसी ने उससे पूछा, अबे, तू क्यों नाच रहा है?
उसने कहा, बिजली आयेगी तो खम्भे भी जरूर लगेंगे.

(५)
भगवान की कृपा से एक दम्पति की सात सन्तानें थी. पति महोदय मौज में पत्नी को चिढ़ाने के लिए जब भी आवाज देते तो कहते ओ, सात बच्चों की माँ....
पत्नी को ये संबोधन बहुत चुभता था.
एक बार पति के एक दोस्त घर आये तो पति ने उसी तरह चुटकी लेते हुए आवाज दी, "सात बच्चों की माँ, ये मेरे दोस्त आये हैं, एक गिलास पानी लाना.
पत्नी ने उसी लहजे में जबाब दिया अभी लाई, चार बच्चों के बाप.
दोस्त ने पूछा बाकी तीन किसके हैं ?
उस दिन के बाद पति ने ऐसी चुहुलबाजी नहीं की.
                                         ***