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रविवार, 29 अगस्त 2021

वे सुनहरे दिन

 साठ साल पहले की बात है, मैं लाखेरी में नवांगुतक था , मुझे एसीसी कालोनी में L - १६ क्वाटर  आवंटित था, अविवाहित दिनों में मैंने अपने ही जैसे कुंवारे लोगों से जल्दी ही दोस्ती कर ली थी. इनमें स्व विष्णु बिहारी दीक्षित भी थे जो कि तब उदयपुर से MSW करके एसीसी में जॉब की तलाश में थे, उनके साथ ही एक लड़का शर्मा (नाम मुझे याद नहीं रहा) जिनके पिता उन दिनों लाखेरी स्थित  सेंट्रल एक्साइज के डिपुटी सुपरिंटेंडेंट हुआ करते थे भी उदयपुर स्कूल आफ सोसियल वर्क से ही  MSW कर के आये थे, इनके अलावा सेंट्रल एक्साइज के दो सब इंस्पेक्टर्स  सरदार गुरनामसिंह और प्रकाशचंद्र श्रीवास्तव तथा जीवन बीमा के फील्ड आफीसर वोहरा भी चौकड़ी के सदस्य बन गए थे. मेरा क्वाटर बैठक का अड्डा हो गया था और दोस्ताना गतविधियां चला करती थी. कभी कभी विशेष पकवान / खाना बनाने के लिए एक मि. खन्ना को भी बुलाया जाता था वे नौशेरवाँ टाकीज के सिनेमा के एजेण्ट होते थे , ता हम लोग फ्री में सिनेमा देखने का बी मजा लेते थे हालांकि फर्स्ट क्लास का टिकट मात्र सवा रुपया ही हुआ करता था.

ये सब केवल एक ही साल चला उसके बाद सब अच्छ गच्छ गच्छामि हो गया. मैं भी शादी शुदा लोगों की लिस्ट में जुड़ गया था.

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सोमवार, 23 नवंबर 2015

बाहर का नजारा

ये मर्मस्पर्शी कहानी किस लेखनी से निकली मुझे भी नहीं मालूम, पर इसे पढ़कर ये  अहसास हुआ कि कुछ लोग दूसरों की ख़ुशी के लिए किस तरह जिया करते हैं.

एक अस्पताल के बूढ़े-बीमार लोगों के अलग से वार्ड में खिड़की की तरफ पलंग पर एक अति बीमार व्यक्ति था. उसके बगल वाली पलंग पर उससे भी ज्यादा कमजोर व्यक्ति था, जो उठ-बैठ भी नहीं सकता था. खिड़की की तरफ वाला वृद्ध उसकी मजबूरी और मनोदशा को खूब समझने लगा था इसलिए रोज सुबह उठ कर उसे खिड़की के बाहर का नजारा बोल बोल कर सुनाता था, सामने सुन्दर पार्क है जिसमें तरह तरह के रंग बिरंगे फूल खिले हुए हैं.... बच्चे हरी दूब पर खेल रहे हैं.... कुछ लोग फुटपाथ पर जॉगिंग कर रहे हैं.... दो तीन महिलायें अपने छोटे बच्चों को स्ट्रॉलर में बिठा कर घुमा रही हैं.... एक तरफ लाफिंग क्लब के सदस्य तालियां बजा कर जोर जोर ठहाका लगा रहे हैं.... पार्क के बगल में जो सड़क है, उसमें अनेक कारें दौड़ रही हैं.... कुछ साइकिल-सवार भी किनारे किनारे चल रहे हैं. यों बहुत सी बातें आँखों देखाहाल में सुनाया करता था और सुना कर खुद भी तृप्त और संतुष्ट हो लेता था. क्योंकि सुनने वाला हल्की आवाज में वाह बोल दिया करता था. उसको अपने पुराने दिन याद आ जाते थे.

एक सुबह खिड़की की तरफ वाला वृद्ध सोता ही रह गया. नर्स ने आकर टटोला तो पाया वह इस संसार से विदा हो चुका था. उसके मृत शरीर को वहाँ से हटा दिया गया. असक्त वृद्ध बेचैन और भावविह्वल हुए जा रहा था. खुद को बहलाने के लिए खिड़की से बाहर देखना चाहता था. बड़ी मशक्कत के बाद वह जैसे तैसे खिड़की के पास गया तो उसने पाया की खिड़की के सामने तो बड़ी सी दीवार थी. उसने नर्स से पूछा, सिस्टर, ये दीवार खिड़की के सामने कैसे आ गयी?

नर्स से उसे बताया कि वह दीवार तो वहां पर बहुत पहले से थी. ये जानकार कि मरने वाला सिर्फ उसकी खुशी के लिए बाहर के नज़ारे की कहानी गढ़ा करता था, उसकी सूखी आँखों की कोटरें डबाडब भर आई.
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शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

यह सच है

लालू और बालू दोनों पक्के दोस्त हैं. दोनों ही क़ानून की पढ़ाई कर रहे हैं. एक दिन दोनों में इस बात पर बहस छिड़ गयी कि 'क्या बिना झूठ बोले वकालत चल सकती है?

लालू ने कहा, देखो ये सब किताबी बातें हैं कि झूठ बोलना पाप है, धर्म-दर्शन की बातें सिर्फ दूसरों को समझाने के लिए होती है, लेकिन इस संसार में कोई भी सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं हो सकता है. वे सब पौराणिक गल्प हैं. इस संसार का सारा कार्यव्यापार झूठ के पलोथन के बिना नहीं चल सकता है. नेता जी झूठ बोले बिना अपना चुनाव नहीं जीत सकते. झूठ के बिना बाजार के छोटे बड़े सौदे नहीं होते. अदालतें आजकल स्टीरियोटाईप झूठी गवाहियों के आधार पर फैसला दिया करती हैं. घरों में पति पत्नी के झगड़े झूठ बोलने से शुरू होते हैं और बच्चे पैदा होते ही वे अहसास करते हैं कि झूठ बोलना बड़ी नियामत है. इसलिए, मेरे भाई, झूठ एक अनिवार्य छठा तत्व है, जो कि क्षिति, जल, पावक, गगन और समीरा के साथ अदृश्य रूप से जुड़ा हुआ है.

बालू ने लालू के तर्क पर असहमति जताते हुए कहा, दुनिया में हर बात के अपवाद मौजूद हैं. आज भी ऐसे लोग हैं, जिन्होंने जिन्दगी में एक बार भी झूठ नहीं बोला है. बालू ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा, मेरे सगे ताऊ जी ने कभी झूठ नहीं बोला है ना ही बोलने का प्रयास ही किया है. ये बात अलग है कि वे जन्म से गूंगे हैं.
                                                          ***
एक चुटकुला ये भी :
झूठ बोलने के लिए मशहूर एक आदमी किसी दूसरे शहर में गया. एक बहुत उम्रदराज झुर्रीदार बुढ़िया का मन हुआ कि उस झूठे इंसान को देखना चाहिए. वो उसे देख कर बोली, सुना है कि तुम दुनिया के सबसे झूठे आदमी हो?
इस पर वह बोला, अरे, दुनिया का क्या है अम्मा, कुछ भी कह देते हैं, पर मैं तो आपको देखकर हैरान हूँ कि आप इस उम्र में भी इतनी सुन्दर हसींन  और आकर्षक लग रही हो.  
ये सुनकर वह बूढ़ी औरत थोड़ी शरमाई और फिर कहने लगी,  या अल्लाह! लोग कितने दुष्ट हैं की एक सच्चे इंसान पर झूठे का तमगा लगा रखा है.


                                                            ***




गुरुवार, 16 जुलाई 2015

अन्न और हम

बच्चों, भोजन के बिना प्राणी ज़िंदा नहीं रह सकते. हम इंसानों का मुख्य भोजन है, अन्न. अन्न पैदा करने वाले किसानों को अपने खेतों में कितनी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है, इसका अंदाजा सहज में नहीं लगाया जा सकता है. आपकी भोजन की जो थाली सजती है, उसको तैयार होने में अनेक हाथों की ताकत लगी होती है. कभी तुम खेत-खलिहानों में जाकर खुद अनुभव करोगे तो तुम्हें मेरी बात की सच्चाई पर असल ज्ञान होगा. बहुत से काश्तकार खुद भूखे, नंगे व बीमार रहते हुए भी हमारे लिये अन्न पैदा करने में सारा जीवन लगा देते हैं.

प्राय: देखा जाता है कि जब शहरी लोग खाना खाते हैं तो बहुत सा भोजन थाली में छोड़ कर बर्बाद कर देते हैं. इसे हम अन्न का अपमान भी कह सकते हैं. इसी सन्दर्भ में मुझे हमारे देश के प्रसिद्ध उद्योगपति श्री नवल टाटा का एक विचारणीय संस्मरण पढ़ने को मिला. मैं उसे संक्षिप्त में आपको भी बताना चाहता हूँ. वे लिखते हैं कि एक बार भारतीय उद्योगपतियों का एक दल बिजनेस ट्रिप पर जर्मनी गया, जहां वे भोजनार्थ एक नामी बड़े रेस्टोरेंट में गए. हिन्दुस्तानी आदतों के अनुसार सबने अपने लिए बहुविध व्यंजनों के ऑर्डर दिए. भोजन करने के बाद कई लोगों ने आदत के अनुसार ढेर सारा खाना अपनी प्लेटों में बाकी छोड़ दिया. महानुभावों को अनुभव नहीं था कि जर्मनी  के कानून के अनुसार भोजन बर्बाद करना अपराध होता है. वहाँ के मैनेजर ने तुरंत पुलिस बुला ली, जिसने उद्योगपतियों को खूब शर्मिन्दा किया, जुर्माना किया, और भविष्य में ऐसी गलती ना करने की हिदायत देने के बाद छोड़ा.

हमारे शास्त्रों में भी अन्न को परमात्मा का अंश कहा गया है इसलिए अन्न की बर्बादी रोकने का हर संभव प्रयास करना चाहिये.
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गुरुवार, 11 जून 2015

मेरा साथ दो

मैं डॉ. परमानंद पांडे एम.डी. एक फिज़ीशियन हूँ. तिकोनिया शहर के मुहाने पर मैंने दस साल पहले अपनी एक क्लीनिक खोली थी, जो भगवत कृपा से तथा मेरे मातहत मेडिकल स्टाफ की मेहनत के कारण शहर का एक नामी अस्पताल कहा जाने लगा है. मैंने क्लीनिक के बाहर उन तमाम बीमारियों के नाम लिखे हैं, जिनके इलाज में मुझे महारत हासिल है. मैंने मुख्य एंट्रेंस पर एक जुमला भी लिख कर लगवाया है, "हे ईश्वर,  मेरी रोजी-रोटी यहाँ आने वाले रोगियों के दुःख-दर्द से निकलती है; चूंकि मेरे कार्य में सेवाभाव भी है इसलिए आप मुझे क्षमा कर देना."

रिसेप्शनिस्ट के काउंटर पर अपनी कन्सल्टेन्सी फीस "दो सौ रुपये" भी लिखवा रखा है, ताकि आगंतुक रोगियों को पेमेंट का अहसास रहे. मुझे ये कहते हुए हर्ष हो रहा है की मैं अपने मिशन में पूरी तरह सफल हूँ. लोगों की दुआओं का असर यह है की मेरा पारिवारिक जीवन सुखमय है. पर पिछले एक साल से मैं एक मानसिक परेशानी झेल रहा हूँ कि मेरे क्लीनिक के ठीक सामने गुड्डू नाम के एक तांत्रिक ने अपनी बड़ी सी दूकान खोल ली है. मेरी ही तर्ज पर उसने अधिक चमकदार अक्षरों में उन तमाम बीमारियों तथा आपदाओं के ईलाज की गारंटी लिखी हुई हैं. उसने फेल विद्यार्थियों को पास करने की, पति-पत्नी के बिगड़े रिश्ते सुधारने की, वशीकरण कराने जैसी अतिरिक्त बातें भी लिखी हुई हैं. मेरी ही तर्ज पर अपनी फीस का बोर्ड "तीन सौ रुपये" लिख कर टांग रखा है, जो हर आने जाने वाले को आकर्षित करता है.

मेरे बचपन से ही कुछ ऐसे संस्कार रहे हैं कि मैं तांत्रिक विद्या को ठग विद्या कहा करता हूँ. अन्धविश्वासी तथा मूर्ख लोग तांत्रिकों के चक्कर में फंसते हैं. रुपया-पैसा व कई बार अपनी आबरू भी खो बैठते हैं. अखबारों में कई बार ऐसे किस्से पढ़ने को मिलते रहते हैं. अब मेरी परेशानी यह है कि मेरे कई मरीज जिनका डायग्नोसिस नहीं हो पाता है, या जिनका ईलाज लंबा होता है, उनमें से कुछ लोग या उनके परिजन गुड्डू तांत्रिक के पास चले जाते हैं. होता ये भी है कि जब किसी मरीज का तांत्रिक से मोहभंग हो जाता है, तब वह मेरे पास आकर अपनी दास्ताँ सुनाता है. मैं गुड्डू तांत्रिक की कारगुजारियों पर कुढ़ता रहता हूँ, लेकिन सीधे सीधे उससे उलझना नहीं चाहता हूँ क्योंकि कीचड़ में पत्थर मारने से छींटे अपने ऊपर ही आते हैं.

गुड्डू तांत्रिक चालाक, चतुर और बहुत बातूनी भी है. अपनी लच्छेदार बातों से जाल में ऐसे उलझाता है कि उससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है. मैंने एक दिन उसे सबक सिखाने का मन बनाया और उनकी दूकान पर पहुँच गया. वह मुझे पहचान गया. बनावटी हंसी हंसते हुए बोला, “डॉक्टर साहब, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?

मैंने गंभीर होकर कहा, मेरी जीभ कोई चीज का स्वाद नहीं पहचान रही है.

तांत्रिक ने अपने कारिंदे बल्लू को आवाज देकर कहा, अरे, २२ नंबर के बक्से की दवाई लाओ.  बल्लू एक छोटी बोतल में कुछ तरल पदार्थ लेकर आया, चार-पांच बूँद मेरे मुंह में डाले. मेरा मुंह जलने लगा तो मैंने तुरंत थूक दिया और कहा की ये तो पेट्रोल है.

तांत्रिक बोला, देखा, मेरे २२ नंबर का कमाल? आपको स्वाद पहचानने में आ गया.

मैं अपनी होशियारी में फेल होकर लौट आया. पंद्रह दिनों के बाद मैं एक और समस्या लेकर उसके पास गया. इस बार मैंने उसको कहा, मेरी याददाश्त बिलकुल ख़त्म हो गयी है. तो उसने हमेशा की तरह कुछ मन्त्र बुदबुदाए, मोरपंख घुमाए और बल्लू को आवाज दी, २२ नंबर के बक्से की दवाई लाओ.  इस पर मैंने उसको कहा, २२ नंबर बक्से की दवा तो पट्रोल थी, जो पिछली बार मेरे मुंह में डाली गयी थी?

तांत्रिक बोला, "वाह, वाह, क्या बात है? एक बार के मन्त्र से ही आपको पंद्रह दिन पुरानी  बात याद आ गयी. जाइये, आपकी याददास्त ठीक हो गयी है.

मैं उसकी चालाकी से फिर हार गया था. लेकिन मैं उसे किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहता था. कुछ दिनों के बाद मैंने एक बार फिर से उसके पास जाकर कहा कि मेरी नजर बहुत कमजोर हो गयी है. मेरी हालत ये हो रही है की मैं करेंसी नोटों को नहीं पहचान पा रहा हूँ. इस बार उसने बड़े तिकड़मी अंदाज में हाथ जोड़ते हुए कहा “डॉक्टर साहब आपने दो बार मुझे मेरी फीस दे रखी है. आपने मुझे इस काबिल समझा और सम्मान दिया, मैं अबके आपको सम्मान देते हुए आपकी बीमारी का इलाज करूंगा. मन्त्र बुदबुदाते हुए वह बोला, जैसे आप इलाज करते हो, मैं भी करता हूँ, भाई भाई से लेना जुर्म है. ये लीजिये एक हजार रुपये का नोट. लेकिन जो नोट उसने मेरी ओर बढ़ाया था, वह केवल एक सौ रुपयों का था. मेरे मुंह से निकल पड़ा, "ये नोट तो सौ का है, हजार का नहीं,

वह मक्कार हंसते हुए बोला, मैं जानता था की अब आप नोट की पहचान करने में सक्षम हो गए हैं.

यों दोस्तों, सही इरादा होते हुए भी मैं अभी तक उस ठग तांत्रिक को सबक नहीं दे पाया हूँ. आप भी मानोगे जो गलत है, सो गलत है.  टोना टोटके, अंधविश्वासों की जड़ें हमारे समाज में बहुत गहरी हैं, जिनका लाभ लेने में गुड्डू तांत्रिक जैसे लोग सफल हो जाते हैं. परन्तु इसके खिलाफ लड़ाई तो जारी रखनी होगी. इस लड़ाई में तुमको मेरा साथ देना होगा.
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गुरुवार, 7 मई 2015

सर्वव्यापी ईश्वर

दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोई,
जो  सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे  को  होई. 

संत कबीर के नीति के दोहों में बहुत गंभीर नीतिगत दार्शनिक उपदेश दिए गए हैं. यहाँ सुमिरन का तात्पर्य ईश्वर को याद करना है. वास्तव में ईश्वर एक आस्था का नाम है, जिस पर भरोसा करने से सांसारिक कष्ट कम व्यापते हैं और सद्मार्ग अपने आप मिलता जाता है. उस अदृश्य  शक्ति की अनुभूति ही परमानंद की प्राप्ति है. वह अनंत है तथा सर्वव्यापी है.

हम मनुष्यों की सामजिक मान्यताएं/व्यवस्थाएं आदि काल से धार्मिक रूप लेती गयी हैं. प्राय: सभी धर्मों के संत, समाज सुधारक, विचारक या मार्गदर्शक जगत कल्याण के उपदेश देते रहे हैं, और परमात्मा की किसी न किसी रूप में उपस्थिति बताते रहे हैं.

एक यहूदी संत अपने सुख के दिनों में जब एक बार समुद्र के किनारे रेत पर चल रहे थे तो उन्होंने पाया कि उनके पीछे जो पदचिन्ह बन रहे हैं वे दो लोगों के थे. संत को अहसास हो गया की दूसरा पदचिन्ह अदृश्य परमात्मा के थे, जो उनके साथ साथ चल रहे थे. संत दार्शनिक भाव से स्वगत बोला, हे ईश्वर! तब तुम मेरे साथ साथ क्यों नहीं आये थे, जब मैं अतिशय रूप से परेशान था? तब मैंने देखा था कि मेरे पदचिन्ह अकेले ही बनते थे.” तभी एक आकाशवाणी हुई कि मैं तो हमेशा ही तुम्हारे साथ रहा हूँ, जब तुम गर्दिश में थे तो मैं तुम्हें सुरक्षा देने के लिए गोद में उठाये रहता था, जो अकेले पदचिन्ह तब तुमने देखे थे वे सिर्फ मेरे ही थे.
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मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

बैरागी बाबा

इस संसार की व्यवस्थाओं और घटनाक्रमों पर गौर करें तो यह विश्वास अडिग होता है कि कोई अदृश्य शक्ति जरूर है जो सारे चराचर/ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करती है. इसी अदृष्ट शक्ति को हम लोग ईश्वर, अल्लाह, गॉड, आदि नाम से याद करते हैं. बहुत से सच्चे योगी, बैरागी/सन्यासी तथा आत्मज्ञानी लोग उस शक्ति से साक्षात्कार भी करते आये हैं.

ईश्वर ने पृथ्वी पर मौजूद समस्त प्राणियों में मनुष्य को श्रेष्ठतम बनाया है, जिसे अनेक सांसारिक सुख भोगने को दिए हैं. सुखों के अनुभव के लिए साथ साथ दु:खों की अनुभूति भी आवश्यक हुई है. दु:खों की कल्पना के इतर इन्द्रियों के सुखों का त्याग करने वाला मनुष्य बैरागी कहलाता है. उसे राग-द्वेष, क्रोध, शोक, माया-ममता, व इच्छा-ऐषणा का कोई कोप नहीं होता है. हमारी सनातनी सामाजिक व्यवस्था में सारे सुख-दुःख भोगने के बाद बैराग्य उत्पन्न होने के अनेक ऐतिहासिक उदाहरण हैं. सामाजिक या पौराणिक कारणों से अहं को चोट लगने पर बैराग्य की उत्पत्ति को एक मुख्य कारण माना जाता है, पर ऐसे भी अनेक दृष्टांत हैं जिनमें मानव मन बाल्यकाल में कलुषविहीन अवस्था में ही बैरागी हो जाता है; आदि शंकराचार्य व स्वामी विवेकानंद इसके अच्छे उदाहरण हैं. ये जरूरी भी नहीं है कि ऐसे मनीषी आत्मप्रचार करते आये हों. अनेक जगत कल्याणी मानव समय समय पर समाज को नई दिशा दे कर अनंत में विलीन हो गए.

यहाँ जिस बैरागी बाबा की चर्चा की जा रही है, वे कौन थे, कहाँ से आये, किसी को याद नहीं. रामगंगा के पावन तट पर एक सुरम्य स्थान को उन्होंने अपनी तपोस्थली बनायी थी. कन्द-मूल, फल या भिक्षा से प्राप्त थोड़े से अन्न से वे अपने शरीर का पालन करते थे. निकटवर्ती गावों में कुछ अटूट श्रद्धा वाले लोग नित्य आकर वेद-पुराणों की ज्ञानवर्धक चर्चाएँ सुनने के लिए उनके आश्रम में आते रहते थे. बाबा के आश्रम ने धीरे धीरे एक छोटे तीर्थ का रूप ले लिया था.

सात गाँव के जमींदार ने श्रद्धापूर्वक एक सफ़ेद रंग का घोड़े का बच्चा बाबा को भेंट कर दिया. वैसे तो बच्चे सभी जानवरों के बड़े प्यारे लगते हैं, पर वह घोड़े का बच्चा ज्यादा ही सुन्दर था. उसे पाकर मानो बाबा का बैराग्य छू-मंतर हो गया. वे उससे प्यार करने लगे. बच्चा साल भर के अन्दर ही पूरा घोड़ा बन गया. अब बैरागी बाबा को घोड़े वाला बाबा के नाम से जानने लगे. एक दिन एक डाकू की नजर उस घोड़े पर पड़ी तो उसने बाबा से मुंहमांगी कीमत पर घोड़े को खरीदना चाहा. बाबा को आभास हो गया कि सामने वाला व्यक्ति डाकू/चोर/लुटेरा है इसलिए उन्होंने अपने प्यारे घोड़े को अशुभ हाथों में देने से इनकार कर दिया. डाकू के मन में घोड़ा प्राप्त करने की तीव्र लालसा थी. उसने थोड़ा समय गुजर जाने के बाद एक दिन अपाहिज का वेष बनाया, और जब बाबा घोड़े पर बैठ कर जा रहे थे तो कराहते हुए मदद के गुहार लगाई. बाबा को उस असहाय अपाहिज पर दया आ गयी और उसे सस्नेह घोड़े पर बिठा कर साथ साथ चलने लगे. तभी ठग डाकू ने अपना असली रूप दिखाया और घोड़े को चाबुक लगाकर दौड़ाने लगा. पीछे से बाबा की आवाज सुनकर घोड़ा रुक गया. बाबा ने डाकू से कहा, अच्छा हुआ तुमने मेरा मोहभंग कर दिया. मैं बैरागी होकर भी घोड़े के प्रेम-बंधन में बंध गया था. तुम घोड़े को ले जा सकते हो लेकिन किसी को ये मत कहना कि बाबा को ठग कर घोड़ा हासिल किया है, अन्यथा दुनिया में मजबूर अपाहिज लोगों के प्रति दयाभाव समाप्त हो जाएगा.

डाकू शर्मिन्दा तो हुआ ही उसे ज्ञान भी प्राप्त हो गया. वह उतर कर बाबा के चरणों में गिर गया, और उसके बाद लूटपाट का धंधा छोड़कर सद्मार्ग पर अपना जीवन बिताने लगा.
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बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

विदूषक [किशोर कोना]

बच्चो, आज से साठ-सत्तर साल पहले, जब मैं भी तुम्हारी उम्र का था तो मैंने एक मजेदार दन्तकथा सुनी थी या पढ़ी थी, जिसे मैं आज तुम्हें सुनाना चाहता हूँ.

जैसा कि तुमको मालूम है पिछली शताब्दी से पहले विज्ञान की ऐसी उपलब्द्धियाँ नहीं थी जैसी की आज हमें प्राप्त हैं. तब न रेडियो, न टेलीविज़न, न सिनेमा और न ही टेलीफोन-मोबाईल थे. मनोरंजन के लिए लोग नाटक, प्रहसन, संगीत, नृत्य या मसखरों-बहुरूपियों-विदूषकों का सहारा लिया करते थे. तब राजा-रानी भी हुआ करते थे, जो अपने दरबारी नवरत्नों में बुद्धिमान मंत्रियों, आशु कवियों व विदूषकों को अवश्य पाला करते थे. ऐसे ही एक नामी राजा का दरबारी विदूषक जब आर्थिक तंगी में था तो उसको एक उपाय सूझा, उसने अपनी पत्नी को रानी जी के पास भेजा. पत्नी रोनी सूरत बनाकर रानी जी से बोली, मेरा पति मर गया है. अंतिम संस्कार के लिए धन नहीं है. यह सुन कर रानी जी ने अफसोस जताया और एक हजार सिक्के उसे दे दिए. जब पत्नी घर आई तो विदूषक खुद राजा के पास जाकर रोते हुए बोला, हुजूर, मेरी पत्नी का स्वर्गवास हो गया है. उसके अंतिम संस्कार के लिए मेरे पास धन नहीं है. राजा ने उसकी पत्नी की मृत्यु पर शोक जताया और उसे अंतिम संस्कार के लिए एक हजार सिक्के दे दिए.

शाम को जब राजा व रानी की मुलाक़ात हुई तो रानी ने दु:ख जताते हुए राजा को बताया कि "आपका विदूषक मर गया है”.  राजा ने तुरंत कहा, विदूषक नहीं, उसकी पत्नी मरी है. इस बाबत दोनों में बहस हो गयी. तय हुआ कि अगले दिन सच्चाई जानने दोनों ही जने विदूषक के घर जाकर अपनी बात की पुष्टि करेंगे.

विदूषक और उसकी पत्नी ने राजा व रानी को दूर से ही आते हुए देख लिया तो तुरत-फुरत दोनों सफेद चादरें लपेट कर मुर्दासन में घर के बाहर लेट गए. राजा-रानी को आया देख कर आसपास के लोग भी जमा हो गए. राजा व रानी ने देखा मरे तो दोनों ही हैं, पर पहले किसकी मौत हुई, इस बाबत बहस होने लगी. समस्या का हल निकलता न देखकर राजा ने घोषणा की, जो ये बताएगा कि पहले किसकी मौत हुई है, उसे एक हजार सिक्के ईनाम में दिए जायेंगे.

लोग कुछ समझ पाते उससे पहले विदूषक चादर हटाकर खड़ा हो गया और बोला, हुजूर, पहले मैं मरा था." राजा-रानी भी उसकी इस मसखरी पर मुस्कुराए बिना नहीं रह सके.
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मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014

चरित्र

विश्व में जितनी भी चल या अचल चीजें हैं, उन सबका अपना अपना चरित्र होता है, जैसे मिर्च का चरित्र है- तीखा-चरपरापन, गुड़ का चरित्र है मिठास, सूर्य का चरित्र है गर्मी और प्रकाश. इसी तरह हर वस्तु का अपना एक विशिष्ठ धर्म होता है, जिसे हम उसका चरित्र कहा करते हैं. लेकिन हम मनुष्यों का सामाजिक व्यवहार हमारा चरित्र कहलाता है. व्यक्ति को, परिवार को या समाज को मर्यादित व अनुशासित रखने के लिए देश, काल व परिस्थितियों के अनुसार कुछ मान्य सिद्धांत बने हुए हैं, जिनका पालन करने वाले को चरित्रवान तथा पालन ना करने वाले को चरित्रहीन कहा जाता है.

शिक्षा चाहे घर में हो या पाठशालाओं में, उसका उद्देश्य यही रहता है कि बच्चे चरित्रवान बनें. अच्छा होने की चाहत सभी लोग रखते हैं इसीलिये बच्चों को छुटपन से ही बहुत से उपदेश पढ़ाये जाते हैं, जैसे सदा सच बोलो, चोरी मत करो,’ परनिंदा मत करो, दीन-दुखियों की मदद किया करो, अपने बड़े-बूढों का आदर किया करो, आदि, आदि. इस प्रकार की नैतिक शिक्षा से बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास में भी बहुत मदद मिलती है.

दुनिया के इतिहास में जितने महान लोग अब तक हुए हैं, उन्होंने समाज को अच्छी राहें दिखाई हैं. एक महापुरुष ने कहा है, मैं अपने आपसे प्यार करता हूँ और अपनी इज्जत करता हूँ, साथ ही मैं अन्य लोगों से भी इसी तरह व्यवहार करता हूँ.

दूसरे शब्दों में, "आप दूसरे लोगों से अपने लिए जैसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, खुद भी सबके साथ वैसा ही व्यवहार किया करो." इसका उल्लेख सभी धर्मों एवं संस्कृतियों में मिलता है. इसे golden rule भी कहा जाता वह है. बच्चों, आप पढ़ लिख कर कुछ भी बनो, पर आपमें अच्छे इंसान का चरित्र होना चाहिये.
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शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

किशोरों के नाम

प्यारे बच्चों,
कहते हैं कि मुग़ल काल के उर्दू-फारसी के महान शायर मिर्जा ग़ालिब बड़े मनमौजी किस्म के आदमी थे. एक बार उनको एक बार किसी शाही दावत का निमंत्रण मिला तो वे, यों ही, अपने साधारण लिबास में पहुँच गए, लेकिन द्वारपाल ने उनको ठीक से पहचाना नहीं तथा उनके पुराने, मैले से कपड़ों पर टिप्पणी करते हुए अन्दर घुसने की इजाजत नहीं दी. घर आकर मिर्जा ने अपनी सबसे अच्छी पोशाक पहनी और बड़े ठाठ से फिर पहुँच गए. इस बार उनके चमकते-दमकते लिबास को देखकर किसी भी दरबान ने उनको नहीं रोका. दावत के दस्तरखान पर जब खाना शुरू हुआ तो मिर्जा ग़ालिब ने शाही पकवानों को अपने कपड़ों पर चुपड़ना शुरू कर दिया. यह देखकर बादशाह सलामत तथा अन्य दरबारी आश्चर्य करने लगे. पूछने पर मिर्जा ने बताया कि ऐसा लगता है कि मुझसे ज्यादा इन कपड़ों की इज्जत है. इसलिए इनको पहले खाना खिला रहा हूँ. जब बात सबकी समझ में आई तो उनकी विद्वता की सराहना करते हुए माफी मांग ली गयी.

गांधीवादी ट्रेड यूनियन लीडर स्वर्गीय जी. रामानुजम ने अपनी पुस्तक द थर्ड पार्टी में मजदूर नेताओं को नसीहत देते हुए एक जगह लिखा है कि "प्रबंधको से बातचीत या बार्गेनिंग करते समय संयत भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए. पहनावा साफ़ सुथरा व सभ्य जनों का सा होना चाहिए". उन्होंने इस बाबत उदाहरण के तौर पर बताया है कि अगर कोई लड़का मैले कुचैले कपड़े पहन कर रूपये के छुट्टे लेने पान की दूकान पर जाता है तो पनवाड़ी छुट्टा होते हुए भी कह देता है छुट्टा नहीं हैं और अगर वह साफ़ सुथरा अच्छे कपड़े पहने होता है तो पनवाड़ी बगल वाली दूकान से मांग कर भी लेकर देता है.

इस बारे में स्वामी विवेकानंद जी का अमरीकी लड़कों से हुआ वर्तालाप भी समझने और स्वीकारने योग्य है कि जब उन लड़कों ने स्वामी जी को लम्बे चौड़े गेरुवे लबादे में देखा तो वे खिल्ली उड़ाने लगे पर स्वामी जी महान दार्शनिक व विद्वान थे. उन्होंने उत्तर दिया कि “In your country a tailor makes a man perfect, but in my country character makes a man perfect.” स्वामी जी की पोशाक भारतीय परिवेश में बहुत पवित्र और ग्राह्य थी. उन्होंने चरित्र की पवित्रता को बहुत सुंदर तरीके से समझा दिया. सब लोग उनके कायल हो गए. वहां की धर्म संसद में भी उन्होंने हमारे सनातन धर्म की जो व्याख्या की वह ऐतिहासिक दस्तावेज है. 

कुल सारांश यह है कि साफ सुथरी व अच्छी वेशभूषा के साथ साथ साथ चरित्रवान भी होना चाहिए. ये चरित्र क्या होता है? इसके अच्छे-बुरे होने के बारे में अपने अगले ब्लॉग में लिखूंगा.
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बुधवार, 10 सितंबर 2014

सुखई बैद

बच्चों, तुमने फारसी कहानियों में ऊँट के गले में तरबूज फंसने के किस्से जरूर पढ़े होंगे. मैं यहाँ जो कहानी तुमको सुनाने जा रहा हूँ, वह शुद्ध देसी है. ये कोई पौराणिक कथा या गल्प कतई नहीं है, लेकिन अर्वाचीन घटना भी नहीं है. यों मान के चलो कि आज से दो-ढाई हजार साल पहले घटित घटना है.

उस जमाने में कोई मेडीकल कॉलेज या इंस्टीट्यूट तो होते नहीं थे, गुरुकुल में ऋषियों/मुनियों/सन्यासियों या सदगुरुओं से मौखिक ज्ञान मिलता था. यों भी होता था कि किसी पुराने अनुभवी वैद्य जी की शागिर्दी करके सीखते रहो.

सुखई बैद एक ऐसा ही नौसिखिया नीम हकीम था. एक बार जब वह किसी रेगिस्तानी इलाके के गाँव से गुजर रहा था, उसने एक मजेदार दृश्य देखा कि एक पालतू ऊँट एक साबुत तरबूज निगलने की कोशिश कर रहा था, और तरबूज के गले में अटकने से परेशान होकर धरती पर गिर पड़ा. ऊँट चराने वाला उसका मालिक एक किशोर लड़का था, जिसने बिना कोई देर किये ऊँट के गर्दन पर एक मूंगरी (कपड़े धोने में काम आने वाला छोटा बैटनुमा लकड़ी का हथियार) से ठोककर गले में फंसे हुए तरबूज को फोड़ दिया. इस तरह ऊँट श्वास अवरोध के कारण मरने से बच गया और खड़ा होकर चल पड़ा.

सुखई बैद ने फूली हुई गर्दन की ऐसा ठोक-पीट इलाज पहली बार देखा. जब वह अपने गाँव पहुंचा तो उसने खबर फैला दी की वह इस बार गलगंड’ (घेंघा) रोग का जादुई इलाज सीख कर आया है.

दरअसल, गलगंड तो आयोडीन नामक तत्व की कमी से होने वाली एक शारीरिक विकृति है, जिसमें गर्दन स्थित थाईराइड की ग्रंथि फूल कर मोटी हो जाती है. आज भी जिन इलाकों के पेयजल में आयोडीन की प्राकृतिक रूप से कमी पाई जाती है, वहाँ के निवासियों में ये रोग बहुतायत में पाया जाता है. इसलिए सरकार द्वारा निर्देश हैं की आयोडीन की कमी पूरी करने के लिए आयोडाइज़्ड नमक ही बेचा-खाया जाए.

सुखई बैद के पास गलगंड का जादुई इलाज कराने के लिए पहला मरीज भारीभरकम गोपू पहलवान आया. गाँव के बच्चे, बूढ़े और जवान सब बड़ी उत्सुकता से सुखई का जादुई करिश्मा देखने के लिए इकट्ठा हो गए. सुखई बैद ने बड़े इत्मीतान से गोपू पहलवान को जमीन पर लिटाया और उसके गर्दन के नीचे तकिया रख कर ऊपर से मूंगरी दे मारी। नतीजन गोपू तड़पता हुआ वहीं ढेर हो गया. देखने वाले समझ गए की सुखई ने मूर्खतापूर्ण तरीके से गोपू को मार डाला है. तुरंत पंचायत बुलाई गयी, और पंचों ने फरमान जारी किया कि इस अपराध की पहली सजा सुखई को गोपू की लाश को अपनी पीठ पर लाद कर पांच मील दूर शमशान घाट तक अकेले पहुंचाना पड़ेगा और दूसरी बड़ी सजा ये होगी की सुखई को बारहपत्थर बाहर(गाँव बदर) होना पडेगा.

पंचायत का हुक्म था, सुखई को बड़े कष्ट के साथ गोपू की ढाई मन की लाश को उतनी दूर तक ढोना पडा, और फिर गाँव छोड़ कर दूर किसी अनजाने गाँव में अजनबी की तरह रहना पड़ा.

कुछ वर्षों के बाद सुखई के उस नए गाँव में पुराने गाँव से एक लड़की ब्याह कर आई जिसने सुखई बैद को पहचान लिया और गाँव में बात फैला दी कि सुखई बैद गलगंड का जादुई इलाज जानता है.  जब गाँव के जिम्मेदार लोगों ने सुखई से से संपर्क किया तो उसका पहला प्रश्न था, यहाँ शमशान घाट कितनी दूर है? 

सुखई का प्रश्न सुन कर गाँव वाले शंकित हो गए और उसकी पूरी पड़ताल करके वहाँ की पंचायत ने उसकी नीम हकीमी बंद करवा दी. शायद तभी से "नीम हकीम खतरा-ए-जान" का मुहावरा भी चल पड़ा. अंग्रेजी में इसे कहते हैं "A little knowledge is a dangerous thing".
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शनिवार, 16 नवंबर 2013

ओल्ड इज गोल्ड

अंग्रेजी में एक कहावत है ‘देयर इज नो शॉर्टकट टु एक्सपीरियंस’, इसी को हिन्दी के एक कहावत में यों भी कहा गया है, ‘अक्ल और उम्र की भेंट नहीं होती है.’

प्राचीन साहित्य में, धार्मिक पुस्तकों या कथा-पुराणों में जो बातें लिखी रहती हैं, वे बहुत तपने के बाद बाहर आई हुई रहती हैं. संस्कृत में उन बातों को आप्तोपदेश कहा जाता है. विज्ञान हो या कोई अन्य प्रयोग, जिनकी हमें जानकारी हो जाती है, उनको फिर से जड़ मूल से खोदने की जरूरत नहीं होती है यानि बुजुर्गों के कथन या अनुभवों पर विश्वास किया जाता है.

एक छोटा सा दृष्टांत बुजुर्गों के अनुभव के सम्बन्ध में सुना जाता है कि पुराने समय में एक गाँव में किसी नौजवान लड़के की शादी तय हो गयी. लड़की वाले बड़े चुहुलबाज थे. शर्त रख दी कि बारात में केवल नौजवान लड़के ही आने चाहिए. लड़के के बाप को इस शर्त में कुछ रहस्य सा लगा तो उसने गाँव के एक होशियार बुजुर्ग (wise man) को ढोल बाजे के अन्दर छिपा कर ले जाने का निर्णय लिया.

देर शाम जब बारात गाँव में पहुँची तो लड़की वालों की तरफ से संदेशा दिया गया कि उनके गाँव का रिवाज है कि दूल्हे को लड़की वालों को एक बीस गाँठ वाला बाँस देना होता है.

बड़ी अटपटी बात थी, पर जब wise man  ने पुछवाया कि बाँस की लम्बाई और मोटाई कितनी होनी चाहिए तो उत्तर मिला, ‘लम्बाई-मोटाई कितनी भी हो उसमें बीस गाठें होनी चाहिए.’

छुपे हुए wise man ने अपने लोगों को निर्देश दिया कि ‘नदी तट या दलदल में लम्बी लम्बी दूब जड़ डाले हुए उगी रहती है. तुम बीस गाँठ वाली लम्बी दूब उखाड़ लाओ. इस प्रकार बीस गाँठ से भी ज्यादा गांठों वाली दूब-बाँस लड़की वालों को पेश की गयी तो लड़की वाले समझ गए कि बारात में जरूर कोई बुजुर्ग लाया गया है. और ठिठोली करते हुए ब्याह हो गया. उस बुजुर्ग की बुद्धि की सराहना करते हुए सम्मानित किया गया.

इसीलिए कहा गया है कि ‘ओल्ड इज गोल्ड’, पर संभल के, ये फार्मूला सब जगह फिट नहीं होगा.
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शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

नामगाँव का भोलू

जगदीश हलवाई को नामगाँव के लोग जग्गू सेठ के नाम से ही ज्यादा जानते थे. वह अपनी चौक पर स्थित मिठाई की दूकान पर टाट की बनी चौड़ी गद्दी पर विराजमान रहता था. बिक्री से जो रुपयों के नोट आते थे उनको एक लकड़ी के छोटे से बक्से में और सिक्कों को टाट पलट कर डाल देता था और सिक्कों के ऊपर आसन लगाए रहता था.

नामगाँव में एक बहुत पुराना शिव मन्दिर है और उसके बगल में शिव जी के मित्र कुबेर का मन्दिर भी बना था. मान्यता है कि कुबेर देवताओं के खजांची हैं. दीपावली में लक्ष्मी पूजा के बाद कुबेर की भी आरती उतारी जाती है. उसी उपलक्ष्य में पूजा अर्चना और मेला लगा करता था.

 हर साल की तरह मेला जुटा था. जग्गू सेठ की दूकान पर मिठाइयों की थालें सजी हुई थी. पेड़े, लड्डू, कलाकंद, रसगुल्ले, गुलाब जामुन, बर्फी, गुझिये, खुरमा, बालूशाही, इमरती, जलेबी, आदि तरह तरह की रंगीन मिठाइयाँ चांदी का वर्क चढ़ाकर सीढ़ीनुमा पटलों हरी चादरों पर रखी हुए थी. चमकीली वन्दनवारों की लड़ियाँ हवा में झूलती, घूमती, लहराती अपनी छटा बिखेर रही थी. मधुमक्खियों को भगाने के लिए तीन चार जगह धूप-अगरबत्ती जल रही थी.

बात पुरानी है. तब लोग मिठाइयों में मिलावट की कल्पना भी नहीं करते होंगे. खत्तों से दूध मंगवाकर कारीगर १५ दिन पहले से उसे घोट घोट कर मावा खुद बनाया करते थे. जगदीश और उसका बेटा खुद भी जी-जान से जुटे रहते थे. मेले के ख़त्म होने तक सारा माल बिक भी जाता था. अगर कुछ बच गया तो उसे जग्गू सेठ अपने भंडारे में बाँट दिया करता था. वह हर साल दिवाली मेले के बाद पूरे गाँव को जीमण दिया करता था. जगदीश हलवाई बहुत नम्र और दयावान व्यक्ति था. इसलिए भी सब लोग उसे सम्मान दिया करते थे.

वो सस्ता ज़माना भी था. तब चीनी चार रूपये प्रति सेर और दूध एक रूपये का दो सेर मिला करता था. वनस्पति घी या रिफाइंड तेलों का नाम किसी ने सुना भी नहीं था. सारे पकवान सरसों/मूंगफली के तेल में या शुद्ध घी में बनते थे. मिठाइयाँ भी आठ-दस रुपया प्रति सेर से ज्यादा नहीं हुआ करती थी.

गाँव मे अमीर कम, गरीब लोग ज्यादा रहते थे. आवश्यकताएं आज की तरह असीमित नहीं हुआ करती थी. वार-त्यौहार सभी का मनता था. सबके बच्चे मेले में जाते थे. गुब्बारे, कागज़ की चक्री-फिरकनी, बांसुरी, छोटे-छोटे खिलोने, हाथ में नकली घड़ी, आँखों में पारदर्शी रंगीन कागज़ के चश्मे, चूड़ी, चरेऊ, माला, फुनगे, बिंदी, नेल पालिश, रुमाल आदि आम चाहत की चीजें मेले में होती थी. दूर शहर से भी कुछ व्यापारी खील-खिलौने, बर्तन व कपड़े जैसी आम जरूरत की चीजें लाकर अपने अपने तम्बू तान कर दूकान लगा लेते थे. कुल मिलाकर इन दिनों नामगाँव में बड़ी रौनक हो जाती थी. माता-पिता या दादा दादी अपनी औकात के अनुसार अपने लाड़लों को रुपया पैसा खर्च करने के लिए देते थे. बच्चे बहुत दिनों से मन बनाए रखते थे कि उनको अबके मेले से क्या खरीदना है. बच्चों को सचमुच बहुत कौतुक होता था.

बच्चों की भीड़ से अलग एक लड़का था भोलू. जिसको उसके दादा ने मेला खर्च के लिए इस बार एक रुपया दिया था. उस एक रूपये के विनिमय के बारे में भोलू ने किसी को कुछ नहीं बताया, पर उसके मन में एक तूफानी योजना पल रही थी.

आजकल के बच्चे तो पैदा होने के थोड़े समय बाद ही मोबाईल, लैपटाप, कंप्यूटर, टीवी आदि के संचालन के जानकार हुआ करते हैं और इनका आईक्यू बड़े बड़ों को मात देता है, लेकिन तब ऐसा बिलकुल नहीं था गाँव के अधिकाँश बच्चे दब्बू और बाहरी दुनिया से बेखबर रहते थे. जो बातें अपने घर में सुना करते थे उनको ही अपना आदर्श मानते थे. गरीब आदमी के घर अकसर रूपये-पैसे की बातें होती रहती हैं, भोलू के दादा हमेशा सांसारिक बातों को घुमा-फिरा कर कहा करते थे, “रूपये को रुपया खींचता है.” ये बात भोलू के मन में गहरे बस गयी थी. वह सोचा करता था जब उसके पास रुपया हो जाएगा तो उसका रुपया अन्यत्र से रुपया खींचता रहेगा और मौज हो जायेगी. गरीब का एक ही सपना होता है--अमीर बनना.

आज भोलू बहुत खुश था उसकी जेब में एक पूरा कलदार रुपया था. उसको वह खर्च करने के बजाय अन्यत्र से रुपया खींचने में इस्तेमाल करेगा, ऐसा मन बना कर वह मेला स्थल पर चला गया. उसने अकेले ही सारे मेले का मुआयना किया और अंत में जग्गू सेठ की दूकान पर उसकी गद्दी के नजदीक आकर ठिठक कर खड़ा हो गया. वहाँ मिठाई की दनादन बिक्री और रुपयों-पैसों की आमद देख कर उसके मुँह में कई बार तरल थूक जमा हुआ और वह निगलता रहा. जब तब जग्गू हलवाई बोरी पलटकर रूपये-रेजगारी नीचे डालता था भोलू के मन में खनखनाहट होने लगती थी.

रूपये को रुपया खींचेगा ये इरादा करके उसने अपनी निकर की जेब के रूपये को बड़ी देर से मुट्ठी में भींच रखा था, जिससे हथेली में पसीना हो आया था. उसने मौक़ा देखकर रुपया सहित हाथ बाहर निकाला. सोचा, उसका रुपया चुम्बक की तरह ही सेठ के गल्ले से एक एक करके सिक्के खींचेगा तो मजा आ जायेगा. चूँकि ये चोरी थी इसलिए दिल धक धक भी कर रहा था. जब जब सेठ मिठाई तौलने के लिए हिलता और पीठ गल्ले की तरफ रखता भोलू अपना रुपया गल्ले की तरफ बढ़ाता ताकि वहाँ से रूपये खींचे जा सके, पर ये बालक की गलतफहमी थी, सिक्के तो खिंच कर नहीं आये, उलटे उसका रुपया गल्ले की तरफ गिर पड़ा.

भोलू रोने लगा तो स्वाभाविक रूप से वहाँ उपस्थित लोगों तथा खुद जगदीश हलवाई का ध्यान उस पर गया. रोने का कारण पूछा तो उसने सुबकते हुए अपनी चोरी करने के इरादे की दास्तान सच सच कह दी कि वह रूपये से रुपया खींचना चाहता था क्योंकि उसके दादा जी कहा करते हैं कि "रूपये को रुपया खींचता है."

उसके भोलेपन पर सभी उपस्थित लोग खिलखिलाकर हँस पड़े. एक व्यक्ति बोला, “तेरे दादा ने ठीक ही तो कहा. देख तेरे रूपये को सेठ जी के रुपयों ने खींच लिया है.”

जगदीश हलवाई को बालक के भोलेपन पर बड़ी दया आयी उसने पाँच रूपये भोलू को देते हुए कहा, “ये ले, तेरे रूपये ने ये खींच लिए हैं. खुश रह, पर आइन्दा इस तरह खींचने की कोशिश मत करना.”
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रविवार, 20 अक्टूबर 2013

ये सूखी झील सी आँखें

आँखें बहुत बड़ी नियामत होती हैं. इनके महत्व को वे ज्यादा अच्छी तरह महसूस करते हैं जो दृष्टिहीन होते हैं या दृष्टिहीन हो जाते हैं. यदि हम केवल दस मिनट तक ही दोनों आँखें पूरी तरह बन्द करके इस त्रासदी के बारे में सोचें/देखें जिसे दृष्टिहीन लोग जीवन भर भोगते हैं, तो भय लगता है.

कुछ लोग जन्मजात नेत्रहीन होते हैं और बहुत से लोग दुर्घटना या रोगग्रस्त होकर अपनी दृष्टि खो देते हैं. ये दुर्भाग्य अनादिकाल से इस धरती पर विद्यमान रहता आया है. अब जब मनुष्य जागरूक हुए हैं तो इसके निवारण के विषय बहुविध सोचने को बाध्य हुये हैं. ऐसा लगता है कि दृष्टिहीनता को कोई अभिशाप कहना भी उचित नहीं है. दृष्टिहीन लोगों की एक छठी इन्द्रिय अपने आप जागृत हो जाती है, जो वैकल्पित ज्ञान की संवेदनाएं प्रदान करने लगती हैं.

होमर, मिल्टन व सूरदास नैसर्गिक प्रतिभा के महान कवि हुए हैं. इसी तरह अनेक दृष्टिहीन संगीतकार व आध्यात्म के पण्डित भी हुए हैं, जिन्होंने अपनी कला व विद्वता से समाज को दिशा देने के प्रयास किये हैं.

सत्रहवीं शताब्दी में इटली के जेसूट फ्रांसिस्को ने नेत्रहीनों के लिए पढ़ने-लिखने की विधि निकालने की कोशिश की. बाद में फ्रांस के एक दृष्टिहीन व्यक्ति लुई ब्रेल (१८२१-१८५२) के पिता घोड़ों की जीन बनाने का काम करते थे. बालक लुई महज पाँच साल की उम्र में उसके साथ काम करते हुए या लकड़ी से खेलते हुए अपनी एक आँख को चोटिल कर गया. सही ईलाज नहीं मिलने से आँख में संक्रमण हो गया और वह खराब हो गयी. तीन साल के अन्दर धीरे धीरे दूसरी आँख की रोशनी भी चली गयी. बाद में लुई ब्रेल को एक अन्ध विद्यालय में पढ़ने पेरिस भेज दिया गया, जहाँ वह कालान्तर में सहायक अध्यापक भी रहा..

ब्रेल प्रतिभावान था. उसने दृष्टिहीनों के पढ़ने लिखने के लिए एक नई लिपि को जन्म दिया, जिसमें अँगुलियों के पोरों से अक्षरों के लिए कोड के रूप में उभार बिंदु बनाए गए हैं. आजकल हर भाषा उसी आधार पर अपने अल्फाबेट्स/ स्वर-व्यंजनों के कोड बन गए हैं. इस लिपि को ‘ब्रेल लिपि’ कहा जाता है. अन्ध विद्यालयों के बच्चे थोड़ा सा अभ्यास करके ब्रेल लिपि में पढ़ना लिखना बखूबी सीख लेते हैं. ब्रेल को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दी गयी है. भारत में सन २००९ में ब्रेल के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था.

कई नेत्रहीन व्यक्तियों को नेत्र प्रतिरोपण से भी दृष्टि प्राप्त हो जाती है. इसके लिए कई दृष्टिवान लोग मरणोपरांत अपने नेत्रदान करते हैं.

आज के इस वैज्ञानिक युग में इलैक्ट्रोनिक्स के बहुत चमत्कारिक प्रयोग किये जा रहे हैं. एडवांस मेडीकल साइंस में सेंसर लगी हुई इलैक्ट्रोनिक आँखों को दिमाग से जोड़ने का सद्प्रयास चल रहा है. वह दिन दूर नहीं जब नेत्रहीन व्यक्ति दृष्टिहीन नहीं रहेंगे.
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शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

पद्म भूषण मोहनसिंह ओबेरॉय

अविभाजित भारत के पश्चिमी क्षेत्र के एक छोटे से गाँव, भौंन (पेशावर), में पैदा होने वाले स्व.मोहनसिंह ओबेरॉय का जीवन अध्यवसायिक चमत्कारों से भरा रहा. उनका जन्म सन १८९८ में और देहांत सन २००२ में हुआ. इस प्रकार यह महान व्यक्ति तीन सदियों में जिया और बहुत बड़ी विरासत छोड़कर गया. उनके पिता एक छोटे ठेकेदार थे, जो उनके होश सँभालने से पहले ही चल बसे थे. प्रारंभिक शिक्षा गाँव के नजदीक पाकर, वे ग्रेजुएशन के लिए रावलपिंडी होते हुए लाहौर आ गए थे, जहाँ उन्होंने नौकरी के निमित्त टाइप राइटिंग व शॉर्टहैंड सीखी. उस इलाके में प्लेग की दहशत होने पर वे वहाँ से पलायन करके शिमला आ गए.

कहा जाता है कि नौजवान मोहनसिंह जब Hotel Clarke के अंग्रेज मालिक मिस्टर क्लार्क के दफ्तर में रोजगार की तलाश में दाखिल हुआ तो उसने उसे बिना इजाजत अन्दर आने पर नाराजी के साथ बाहर जाने के लिए कहा. बाहर जाने से पहले मोहनसिंह ने जब फर्श पर एक आलपिन पड़ी देखी तो उठा कर मि. क्लार्क की टेबल पर रख दी. मोहनसिंह की इस आदर्शपूर्ण किफायती भावना से प्रभावित होकर मि. क्लार्क ने उसे सादर अपने होटल में बतौर लिपिक नौकरी पर रख लिया तथा धीरे धीरे जिम्मेदारियां बढ़ा दी. बाद में जब अंग्रेज लोग भारत छोड़ कर जाने लगे तो मि.क्लार्क ने होटल मोहनसिंह को बेच गया. इसके लिए धन जुटाने में मोहनसिंह को अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़े.

मोहनसिंह ओबेरॉय बहुत मेहनती थे साथ ही दूरदर्शी भी थे. वे कभी खाली नहीं बैठते थे. धीरे धीरे उन्होंने अन्य शहरों में भी होटल खरीदने या बनाने का काम शुरू कर दिया, जिसमें उस समय का कोलकता का Grand Hotel प्रमुख है. उन्होंने अपने होटल्स और रिसोर्ट्स को पाँच सितारा सुविधाओं के साथ विस्तार दिया तथा देश में इसे उद्योग के रूप में पहचान दी. ओबेरॉय ग्रुप के आज विश्व के सात देशों में ३७ होटल हैं, जिनका अपना अपना अलग अलग इतिहास है. भारत, नेपाल, इजिप्ट, आस्ट्रेलिया, हंग्री, व मारीशस में ओबेरॉय ग्रुप का बड़ा नाम है. इन होटलों में हजारों कार्यकुशल स्टाफ तैनात है. भारत में होटल उद्योग में सर्वप्रथम महिलाओं को भी कर्मचारियों के रूप में नियुक्ति देने का श्रेय ओबेरॉय जी को जाता है.

मोहनसिंह ओबेरॉय ने सन १९३६ में अपने संस्थाओं को ‘ग्रुप आफ ओबेरॉय’ नाम दिया, जिसके वे संस्थापक चेयरमैन रहे और लम्बे समय तक पद पर रहते हुए कारोबार को बढ़ाते रहे. अब उनके पुत्र ८२ वर्षीय पृथ्वीराजसिंह ओबेरॉय इसके चेयरमैन हैं.

श्री मोहनसिंह ओबेरॉय स्वतंत्र भारत की राजनीति में भी सक्रिय रहे. वे दो बार राज्य सभा के तथा एक बार लोकसभा के भी सदस्य चुने गए. ब्रिटिश राज में उनको राय बहादुर की उपाधि से नवाजा गया था और जीवन के अन्तिम प्रहर सन २००१ में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया.

स्व. एम.एस. ओबेरॉय अनूठे व्यक्तित्व वाले कर्मठ व्यक्ति थे जिनका जीवन अध्यवसायी लोगों के लिए एक दीपस्तंभ की तरह है.
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मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

खिचड़ी

अगर आप हिदुस्तानी हैं तो आपने अपनी रसोई में बनी स्वादिष्ट खिचड़ी जरूर खाई होगी. खिचड़ी कई तरह से बनती है, उसमें दाल, चावल, सब्जी, खड़े मसाले आदि एक साथ डाल कर पकाया जाता है. पश्चिमी राजस्थान में और गुजरात में बाजरे की खिचड़ी बहुत स्वाद के साथ खाई जाती है. चूकि खिचड़ी पकाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडती है और जल्दी में कम ही बर्तन लगाने की अपेक्षा रहती है इसलिए लोग वक्त बेवक्त खिचड़ी बनाया करते हैं. खिचड़ी सुपाच्य होती है इसलिए बहुधा बीमारों को परोसी जाती है. मेथी दाने की खिचड़ी बहुत गुणकारी बताई जाती है. वैसे भोजन का स्वाद बदलने के लिए सप्ताह में एक बार खिचड़ी का आनन्द ले लेना चाहिए. एक लोकोक्ति मे कहा गया है कि :

खिचड़ी के चार यार, दही-मूली-घी-अचार

अगर इन खिचड़ी के यारों के साथ वह खाई जाये तो वास्तव में बहुत बढ़िया लगती है. खिचड़ी के बारे में अनुमान है कि ये प्री-वैदिक काल से ही लोगों के मुँह लगी होगी
. वैसे इतिहास के पन्नों में लाने का श्रेय राजा बीरबल को जाता है. जिसने बादशाह अकबर को सबक देने के लिए एक लम्बे बाँस पर खिचड़ी की हंडिया लटकाई थी.

आपने बचपन में खिचड़ी आधारित ये कहानी भी अवश्य सुनी होगी कि एक भोला ग्रामीण आदमी अपने ससुराल गया था, जहाँ उसकी सासू माँ ने उसे खिचड़ी खिलाई थी. उसने पहले कभी भी खिचड़ी नहीं खाई थी, उसे खिचड़ी का स्वाद इतना पसन्द आया कि वापसी की राह में वह ‘खिचड़ी’ शब्द भूल न जाये इसलिए ‘खिचड़ी, खिचड़ी’ बोलता आया पर प्यास लगने पर कुएँ पर पानी पीने के बाद वह खिचड़ी के बजाय भूल से ‘खाचिड़ी’ बोलने लगा. रास्ते में एक खेत की तैयार फसल को चिड़ियों का झुण्ड खा रहा था. खेत के मालिक ने जब जब भोले को ‘खाचिड़ी’ बोलते हुए सुना तो मारपीट पर उतारू हो गया. भोले को उसने कहा कि ‘उड़-चिड़ी’ बोले. भोले अब ‘उड़ चिड़ी’ बोलने लगा. आगे राह में एक बहेलिया जो चिड़ियों को पकड़ने के जुगाड़ में था, उससे लड़ने आ गया. इस प्रकार जब भोला अपनी पत्नी के पास पहुँचा तो पूरी तरह कनफ्यूज हो चुका था, पर खिचड़ी खाने की इच्छा अभी भी बलवती थी. उसने अपनी पत्नी से कहा कि वही भोजन बनाओ जो सासू माँ ने बना कर खिलाया था. लेकिन क्या बनाना है, यह नहीं बता सका, और अनमना होकर रसोई में रखे अनाज के डिब्बों को इधर उधर पटकने लगा. परिणामस्वरूप दाल, चावल व मसाले एक साथ बिखर पड़े. ये देख कर उसकी पत्नी के मुँह से अनायास निकला, “सब खिचड़ी कर दिया है.” भोला तुरन्त संभल कर बोला, “हाँ, यही तो मैं कहना चाहता हूँ कि खिचड़ी पकाओ
.

खिचड़ी का धार्मिक महत्त्व भी हिन्दू धर्मावलम्बी खूब मानते हैं. मकर संक्राति पर खिचड़ी दान की जाती है. उस दिन खिचड़ी खाना भी शुभ होता है.

आजकल खिचड़ी शब्द का प्रयोग राजनैतिक दलीय समीकरणों के लिए भी किया जाने लगा है. गठबंधन की सरकारों को खिचड़ी सरकार कहा जाता है पर इनका स्वाद अधिकतर कटु पाया जा रहा है.

अनुभव व परिपक्वता की निशानी के रूप में कहा जाता है कि ‘अब दाढ़ी-मूछों और सर के बाल खिचड़ी होने लगे हैं’, लेकिन लोग तो काली मेहंदी या कोई हेयर डाई लगा कर खिचड़ी को छुपाने की कोशिश करते रहते हैं.

बहरहाल खुशी की बात ये है कि हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का देश के कुछ प्रान्तों में जो घोर विरोध होता था वह अब गायब होता जा रहा है और भाषायी खिचड़ी बनती जा रही है, जिसका नाम है ‘हिन्दुस्तानी’.
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रविवार, 6 अक्टूबर 2013

एक था राजकुमार

हम मनुष्यों का जीवन-सँसार समय के साथ साथ बदलता रहता है. आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं और नए नए आविष्कारों का लाभ ले रहे हैं, पर जीवन हमेशा ऐसा नहीं था. जब कागज़ का आविष्कार नहीं हुआ था तो इतिहास, साहित्य-व्याकरण या कोई भी मानवोपयोगी शास्त्र लिखित में कैसे हो सकता था? तब सारी ज्ञान की बातें पीढ़ी दर पीढ़ी बोल कर/सुन कर आगे बढ़ती रही. इसीलिये हमारे समृद्ध वेदों को श्रुतियाँ कहा जाता है.

यों बहुत पीछे न जाकर अपने बचपन में सुनी हुई अनेक दन्त कथाओं/नीति कथाओं का का जिक्र करें जिनका व्यापक प्रभाव हमारे जीवन में पड़ता रहा है तो इनमें बहुत सी बातें आज अविश्वसनीय व बेढब जरूर लगती हैं, पर इनसे एक लीक बनती थी, जिससे समाज को आनुशासन मिला करता था. अब राजा-रानी-राजकुमारों की कहानियाँ कोई नहीं लिखता है और कोई सुनना भी नहीं चाहता है. स्मृतियों को धरोहर के रूप में दोहराने में आनन्द अवश्य मिलता है:

एक राजा था. उसकी एक रूपवती-गुणवती रानी थी और एक नौजवान बेटा (राजकुमार) था. पड़ोस के राज्य की राजकुमारी से उसका विवाह कर दिया गया. लेकिन रीति रिवाजों के चलते उनका गौना नहीं हुआ था इसलिए वह मायके में ही रहा करती थी. राजकुमार की एक बहन भी थी. अन्यत्र राज्य के किसी राजकुमार से उसका विवाह हो गया था. राजकुमार का एक बचपन का जिगरी दोस्त भी था जो कहीं दूर अन्य राज्य में रहता था. राज्य में सब व्यवस्थाएं सामान्य चल रही थी. एक दिन राजा का मन तीर्थाटन का हुआ तो वह तो वह अपने सैन्य बल के साथ चल पड़ा. जाने से पहले राजकुमार को अस्थाई रूप से गद्दी पर बैठा गया और खजाने की चाबी भी सौंप गया. खजाने में कुल एक लाख सिक्के थे जो उस समय के अनुसार बड़ी राशि होती थी.

राजकुमार के शासनकाल में एक साधू  दरबार में आया और उसने कहा कि उसके पास एक ज्ञान का ताम्र पट्ट है, जिसमें जीवन की सच्चाइयां लिखी हुई हैं. साधु ने उसकी कीमत एक लाख सिक्के बताई. राजकुमार जिज्ञासु था, उसकी उत्कंठा बढ़ी तो उसने वह ताम्र पट्ट खरीद लिया. इस कारण पूरा खजाना खाली हो गया. ताम्र पट्ट में आठ बातें नीति सम्बन्धी लिखी थी:

होते का बाप, अनहोते की माँ, आस की बहन, निराश का दोस्त,    
दृष्टि की जोरू, मुष्टि का धन, जो सोवे सो खोवे, जो जागे सो पावे.

राजा ने अपनी वापसी पर जब खजाना अनावश्यक कारणों से खाली देखा तो बहुत गुस्से में आ गया और सजा के रूप में राजकुमार को ‘देश निकाला’ दे दिया. तब राजकुमार की समझ में आया कि अगर वह धन खर्च करने के बजाय कमा कर बाप को देता तो उसको ये सजा नहीं मिलती.

राजा का आदेश पत्थर की लकीर की तरह थी. राजकुमार को देश से बाहर जाना ही पड़ा. जाने से पहले वह अपनी माँ से मिलने गया तो माँ को अपनी सजा पर बहुत दुखी पाया. अश्रुपूर्ण विदाई देते देते समय उसने पाँच स्वर्ण अशर्फियाँ राजकुमार के चोगे में छुपा कर सिल दिये और बेटे से कहा कि “ये धन मुसीबत में तुम्हारे काम आएगा.” ताम्र पट्ट में लिखी हुई ये दूसरी बात थी कि कुछ नहीं होने पर पर भी माँ स्नेहमयी  व ममतामयी होती है.

उन दिनों रेलगाड़ी या मोटरवाहन तो थे नहीं, सड़कें भी कच्ची, ऊबड़खाबड़ रही होंगी. कई दिनों तक पैदल चलकर राजकुमार अपनी बहन के ससुराल पहुंचा, पर उसको फटेहाल मैला-कुचैला देख कर द्वारपाल ने उसे अन्दर नहीं जाने दिया. संदेशा बहन के पास भेजा गया, पर उसने बड़ी बेरुखी से कह दिया कि मेरा भाई भिखारी के रूप में आ ही नहीं सकता है. राजकुमार भूखा भी था उसने भोजन देने का सन्देश भेजा तो महल में से नौकर रूखी-सूखी बासी रोटियां दे गया, जो राजकुमार से खाई नहीं गयी. उसे पट्ट  तीसरी बात भी समझ में आ गयी कि बहनें भाई से बहुत सी अपेक्षाएं रखती हैं. वहाँ से मायूस होने के बाद उसने अपने एक मित्र के पास जाने का निश्चय किया और वह चलते चलते जब उसके घर पहुंचा तो थक कर बेहाल हो चुका था. मित्र ने उसको पहचान कर हृदय से स्वागत किया, अच्छा खाना खिलाया, नए वस्त्र पहनाए. मित्र को उसके जीवन में घटी इस घटना पर बहुत दुःख हुआ और कहा कि “अब उसके पास ही रहे और किसी प्रकार की चिंता न करे.” एक सच्चे मित्र की यही पहचान होती है कि अपने दोस्त से कोई लाभ पाने की अपेक्षा नहीं करता है और उसके परेशानियों के समय हर सम्भव मदद करने को उद्यत रहता है. राजकुमार अपने मित्र के पास आराम से रहने लगा था. लेकिन जब बुरा समय होता है तो अच्छाइयों में भी कांटे उग आते हैं. एक दिन राजकुमार जब कमरे में अकेला था तो उसके देखते ही देखते एक कौवा खूंटे पर टंगा हुआ उसके मित्र की पत्नी का कीमती हार ले उड़ा. राजकुमार इस अनहोनी से घबरा गया कि हार की चोरी का इल्जाम अब उस पर आने वाला था. यदि वह ये कहे कि ‘एक कौवा उठा कर ले गया तो उसका उपहास किया जाएगा’ ये सोचते सोचते परेशान होकर वह वहाँ से चुपके से निकल लिया.

कई दिनों तक चलते हुए वह अपने ससुराल पहुचा तो उस राज्य के दरबानों ने उसे दुश्मन राज्य का गुप्तचर समझ कर पकड़ लिया. उसने अपना परिचय दिया लेकिन कोई उसे मानने को तैयार नहीं हुआ. इसमें उसकी पत्नी का रोल बहुत बुरा रहा. वहाँ के राजा ने उसे मृत्यु दंड की सजा सुना दी. जब सैनिक उसे मारने के लिए जंगल की तरफ ले गए तो उसने माँ द्वारा दी गयी पाँच स्वर्ण अशर्फियाँ उनको रिश्वत देकर अपनी जान बचाई.

ताम्र पट्ट की एक एक बात सही होती जा रही थी राजकुमार किसी अन्य अनजाने राज्य की राजधानी में पहुँच गया, जहाँ राजकीय खजाने में रातों में चोरियां हो रही थी, पर चोर-डाकू पकड़ में नहीं आ रहे थे. राजा ने ऐलान कराया था कि जो भी व्यक्ति चोरों को पकड़वायेगा उसे मुँह माँगा इनाम दिया जाएगा. राजकुमार ने हिम्मत करके अपना भाग्य अजमाने की ठानी. वह एक दुधारी तलवार लेकर रातों में चोरों के संभावित रास्ते में छुपकर बैठ गया. एक रात उसे सफलता मिल गयी. उसने एक चोर को बुरी तरह जख्मी कर दिया उसे बाद में पकड़ लिया गया. चोरों की पूरी गैंग का पर्दाफ़ाश हो गया. अगर राजकुमार अन्य चौकीदारों की तरह रात को सो जाता तो वे चोर पकड़े नहीं जाते. राजकुमार ने ताम्र पट्ट की आख़िरी बात, ‘जो सोवे सो खोवे, जो जागे सो पावे’ वाली बात याद रखी. यहाँ के राजा ने जब राजकुमार की असलियत जानी तो उसे अपना दामाद बना लिया और आधा राज्य भी दे दिया.

कुछ समय के बाद जब वह अपने सैनिक व गाजेबाजे के साथ उसी रास्ते से सब से मिलने वापस चला तो तिरस्कार करने वाली पूर्व पत्नी, मृत्युदंड देने वाले पूर्व ससुर को दण्डित करते हुए, जब अपने दोस्त के पास पँहुचा तो उसने उसी गर्मजोशी से स्वागत किया. ‘हार’ की बात बताने पर, उसके मित्र ने अफ़सोस जताते हुए बताया कि ‘हार’ तो छत पर पड़ा मिल गया था.

इस बार उसे बहन को सन्देश भेजने की जरूरत ही नहीं पड़ी वह बाजे-घाजे की आवाज सुन कर ही दौड़ी दौड़ी अपने महल से बाहर आ गयी. राजकुमार ने उसको उसके द्वारा किये गए व्यवहार की याद दिलाई. अंत में जब वह अपने पिता के राज्य में पहुँचा तो पहले अपनी माँ से मिला जिसने हमेशा की तरह उसको स्नेह पूर्वक गले लगा लिया. राजा यानि पिता को अपने बेटे के यशश्वी बन कर कर लौटने पर बहुत खुशी हो रही थी, लेकिन राजकुमार को अपने ‘देश निकाले’ के दंश अभी भी आहत किये हुए था. इसलिए वह अपने राज्य को लौट गया.
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शनिवार, 28 सितंबर 2013

शुभम करोति कल्याणम

बहुत से बच्चे बड़े खुशनसीब होते हैं. उनके बचपन में दादा-दादी मौजूद रहते हैं और अपनी गोद में खिलाते हैं. बचपन की वे अनुभूतियाँ उनको जीवन भर प्यार का अहसास कराती रहती हैं. इस कहानी का नायक नानू अभी बारह साल का है. वह स्कूल जाता है और घर आने के बाद अपने दादा जी के संग चिपट कर बैठा रहता है. दादा जी उसका होम वर्क करवाते हैं, और बीच बीच में अपने साठ वर्षों में अर्जित किये हुए अनुभवों को मजेदार ढंग से किस्से कहानियों के रूप में उसको सुनाते भी जाते हैं.

दो साल पहले दादा जी ने नानू को उसके जन्मदिन पर एक संदूकनुमा अच्छा, बड़ा गुल्लक लाकर दिया था, जो इस बीच रेजगारी व नोटों से लगभग ठस भर चुका है. नानू के मन में बहुत दिनों से एक इच्छा घूम रही है कि गुल्लक का सारा रुपया निकाल कर एक नई साइकिल खरीदी जाये. उसके दोस्तों के पास रेस वाली साइकिलें थी, जिनको देख कर ही उसका मन ललचा रहा था. उसने दादा जी को ये बात बताई तो उन्होंने इसके लिए अपनी स्वीकृति दे दी और कहा कि “अगर रूपये कम पड़ जाएँ तो वे अपने पास से पूरा कर देंगे." ये सुन कर नानू की खुशी का पारावार नहीं रहा. एक जुलाय को उसका जन्म दिन आने वाला था. पापा-मम्मी ने भी इसके लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी थी.

इन दिनों पूरे उत्तर भारत में बहुत ज्यादा बारिश होती रही और उत्तराखण्ड में कई जगहों पर बादल फटने की खबरें आई. तबाहियां होती रही. सबसे ज्यादा त्रासदी तीर्थस्थान केदारनाथ में हुई. दादा जी टीवी पर वहाँ के दृश्य और समाचार देख-सुन कर बहुत विचलित थे. उन्होंने नानू को विस्तार से बताया कि किस तरह श्रद्धालु लोग वहाँ रेत में दब कर मर गए या बह गए तथा अनेकों परिवार उजड़ गए. दादा जी को द्रवित देखकर नानू ने कहा, “हमको भी पीड़ित लोगों की मदद करनी चाहिए.” बहुत भावुक होकर वह अपना गुल्लक लेकर आया और दादा जी से बोला, “आप ये सारा रुपया दान कर दो.”

उसकी त्याग भावना व समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी की बात सुन कर दादा जी का मन भर आया. उनको अपने पोते पर गर्व महसूस हो रहा था.

गुल्लक खोला गया तो उसमें पूरे पाँच हजार रुपये निकले, जिन्हे एक स्थानीय सामाजिक संगठन के माध्यम से मुख्यमन्त्री राहत कोष में जमा  करवा दिया. दादा-पोते दोनों को अपने इस कल्याणकारी कृत्य पर बहुत सन्तोष महसूस हो रहा था.

जन्मदिन पर नानू के घर हर साल की तरह उसके दोस्तों को बुलाया गया. बिलकुल सादे कार्यक्रम में जन्मदिन की शुभकामनाएँ और दस्तूरन गिफ्ट दिये गए. नानू का सरप्राइज गिफ्ट दादा जी की तरफ से था. और वह था उसकी मनचाही ‘साइकिल’.
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रविवार, 15 सितंबर 2013

परोपकार

परोपकार का संधिविग्रह, पर+उपकार, यानि दूसरों पर कृपा करना होता है.

कभी कभी हमको अखबारों या अन्य सचार माध्यमों से मालूम होता है कि आज भी बहुत से अच्छे लोग सँसार में इस महान संकल्प के साथ जी रहे हैं. दुःख में दुखी लोगों की निस्वार्थ भाव से मदद करना, विपन्नता में आर्थिक मदद करना और सामाजिक परिवेश में रक्तदान, नेत्रदान, या अंगदान जैसे परमार्थ के काम कर जाते हैं. जो लोग स्वार्थी होते हैं, वे कभी भी परमार्थ के काम नहीं कर सकते हैं.

हमारी नैतिक शिक्षा में परोपकार सम्बन्धी बहुत से दृष्टान्तों तथा सत्य घटनाओं का जिक्र होता है, जिनको पढ़ कर, समझ कर, जीवन में बहुत खुशियाँ पाई जा सकती हैं.

कहानीकार जोसेफ जैकब ने ‘शेर और ऐन्द्रक्ल्स’ की एक बहुत मार्मिक कहानी लिखी है, जिसमें प्राचीन समय में रोम में ऐन्द्रक्ल्स नाम का एक गुलाम अपने दुष्ट मालिक के चंगुल से भाग कर जंगल की तरफ चला जाता है, जहाँ उसे एक घायल शेर मिलता है. उसके अगले पंजे में काँटा गढ़ा हुआ था और वह बुरी तरह कराह रहा था. ऐन्द्रकल्स ने हिम्मत करके उसके पंजे से काँटा खींच कर निकाल दिया. शेर ने उसे खाया नहीं. इस प्रकार ऐन्द्रक्ल्स ने उस पर उपकार किया. बाद में एक दिन ऐन्द्रक्ल्स सिपाहियों द्वारा फिर पकड़ लिया गया. सम्राट ने उसे भागने के जुर्म में भूखे शेर के बाड़े में डलवा दिया. तमाशबीन लोग देख रहे थे, पर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उस भूखे शेर ने उसको खाने के बजाय दुम हिलाकर प्यार करना शुरू कर दिया. दरअसल ये वही शेर था, जिसके पंजे में से ऐन्द्रक्ल्स ने काँटा निकाला था. सम्राट ने वास्तविकता जानने के बाद दोनों को प्राणदान दिया. शेर को भी जंगल में छोड़ कर आजाद कर दिया. इस कहानी का आदर्श यही है कि परोपकार करना चाहिए और कोई आपके साथ परोपकार करता है तो उसे भूलना नहीं चाहिए.

संस्कृत साहित्य जो हमारी सभी भारतीय भाषाओं की जननी है, उसमें एक सुन्दर प्रेरणादायक श्लोक इस प्रकार लिखा है:

परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:
परोपकाराय दुहन्ति गाव:
परोपकाराय बहन्ति नद्य:
परोपकाराय इदं शरीरम.

इसे कोरी किताबी बात ना समझा जाये और जीवन के जिस मोड़ पर भी मौक़ा मिले परोपकार करके आनंदित होना चाहिए. आज के जमाने में यदि हम किसी पर कोई मेहरबानी नहीं सकते हैं, तो किसी का बुरा भी ना करें, पीड़ा ना पहुचाएँ, ये भी परमार्थ ही समझा जाएगा.
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बुधवार, 11 सितंबर 2013

गुड़ खाया कीजिये

जब तक चीनी बनाने का आविष्कार नहीं हुआ था, लोग गुड़ खाया करते थे. गुड़ का आविष्कार किसने और कब किया, इस बारे में कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है. लेकिन ये बात पक्की है कि प्रकृति ने ‘गन्ना’ या ‘ईख’ की सौगात अनादि काल में ही मनुष्यों को दे दी थी.

मनुष्य अपने ज्ञान के आधार पर प्रकृति का दोहन करता चला आ रहा है. गन्ना के अलावा ताड़, शकरकंद, अंगूर, अनार, केला, आम आदि मीठे फल तथा शहद मिठास के श्रोत हैं, पर जो बात गुड़ में है, वह कहीं नहीं है.

कई सदियों पूर्व गन्ना व्यवसायिक स्तर पर पैदा किया जाने लगा था, लेकिन तब इसके रस को पका कर गुड़ बनाया जाता था. चीनी को लोग नहीं जानते थे.

बहुत पुरानी बात भी नहीं है; मुझे याद है मेरे बचपन में हमारे गाँव में कार्तिक के महीने में जब सब लोग गेहूं बोने से फुर्सत में हो जाते थे तो ‘चरखी-कोल्हू’ जोत लिया जाता था और गाँव के लोग बारी बारी से अपना गन्ना पेराई के लिए लाते थे. रस को बड़ी बड़ी चौड़ी चाशनियों में पकाया जाता था. उसके खौलने पर उसमें अपद्रव (मैला) ऊपर तैरने लगता था, जिसे छलनियों से निकाला जाता था. उसमें दूघ तथा घर का बनाया हुआ साफ़ चूना भी थोड़ी मात्रा में मिलाया जाता था. इससे गुड़ की रंगत बिलकुल साफ़ - सफेद हो जाती थी. जब रस पकते पकते गाढ़ा हो जाता था तो साफ़ पट्टियों में फैला कर ठंडा किया जाता था. उसके पूरी तरह ठंडा होने से पहले पिण्डलियाँ (भेलियाँ) बना ली जाती थी. कभी कभी जब ज्यादा पक जाता था तो ये बिलकुल चॉकलेट सा हो जाता था, जो दाँतों से मुश्किल कटता था. अगर शीरा बना कर रखना हो तो तरल अवस्था में कनस्तरों में डाल लिया जाता था.

ताजा खाने के लिए गुड़ की गुणवत्ता बढ़ाई जाती थी. उसमें सूखे मेवे, मूंगफली दाना, सौंफ, इलायची भी डाल दी जाती थी. ताजे गुड़ की वह प्यारी खुशबू पूरे पेराई के मौसम में पूरे गाँव में महकती थी. मेरे जेहन में अभी भी वह बसी हुई है. मुझे लगता है ये सब अब गुजरे जमाने की हकीकत बन कर रह गई है. आज गुड़, खांडसारी, व बूरा-शक्कर कई छोटे बड़े उद्योगों में मशीनों से बनाया जाता है. गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में बड़े बड़े चीनी के कारखाने लगे हुए हैं, जो अक्टूबर से अप्रेल तक पेराई करके चीनी, राब तथा इथाइल अल्कोहॉल का उत्पादन करते हैं. अंग्रेजी शासन काल में एक बार चीनी उत्पादन के पक्ष में सरकार ने गुड़ बनाने पर पाबंदी भी लगा दी थी, लेकिन इसका भारी विरोध हुआ.

चीनी और दुग्ध उत्पादों से अनेक प्रकार की मिठाइयाँ बनाई जाती हैं, लेकिन चीनी में वो बात कहाँ जो गुड़ में होती है.

गुड़ में ग्लूकोज, फ्रक्टोज, लौह तत्व तथा पोटेशियम-फोस्फोरस जैसे कई महत्वपूर्ण तत्व होते हैं. गुड़ को गुणों की खान कहा गया है. कोयले व सिलिकॉन की धूल से फेफड़ों को जो नुकसान होता है, उसे गुड़ रोकता है. इसीलिये कोयला, सीमेंट, या सिलिकॉन वाले उद्योगों में काम करने वालों को गुड़ खाना अनिवार्य बताया जाता है.

हमारे उत्तर भारत में मुजफ्फरनगर में गुड़ की सबसे बड़ी मंडी है. दक्षिण भारत में ताड़ से भी गुड़ बनता है, पर गुणों की दृष्टि से ईख का गुड़ श्रेष्ठ होता है. आज भी हमारे भारतीय ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में गुड़ का प्रयोग कई प्रकार से होता है, जैसे गुड़-तिल के लड्डू, गुड़ की रेवड़ी, गुड़ के गजक, मालपुए, गुलगुले, पँजीरी आदि. मराठी लोग गुड़ का बूरा डाल कर मीठी पूरण पूड़ी बनाते हैं. गुजराती लोग दाल में गुड़ डाल कर उसे मीठी बनाते हैं. मैंने अपने बचपन में घी+गुड़ के साथ रोटी खाई है. मक्के या मडुवे की रोटी के साथ गुड़ का स्वाद लेना हो या भुने हुए चनों के साथ गुड़ खाना हो तो उसकी अनुभूति शब्दों में बयान नहीं हो पा रही है.

आज हमारे देश में भी आम लोगों का (विशेष कर शहरों में) जीवन शैली पूरी तरह बदल गयी है. नतीजन करोड़ों लोग मधुमेह के शिकार हैं या होते जा रहे हैं. उन सबको गुड़ अथवा शर्करायुक्त पदार्थों से परहेज करना चाहिए. उनके लिए कम कैलोरी वाले आर्टीफीशियल स्वीटनर बाजार में उपलब्द्ध हैं, जिनसे वे अपनी चाय या भोजन में मिठास ला सकते हैं. 

बहरहाल स्वस्थ लोग तो गुड़ का आनंद ले ही सकते हैं.  
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