बुधवार, 29 जनवरी 2014

चुहुल - ६२

(१)
जंगल के राजा शेर की शादी होने जा रही थी. सभी गण्यमान्य जानवरों को उत्सव में शामिल होने का निमंत्रण मिला था. सभी आये. राजा की शादी थी कैसे नहीं आते? 
भीमकाय हाथी ने देखा एक चूहा भी आया है तो उत्सुकतावश उससे पूछ लिया, मियाँ, तुम इस बारात में कैसे?
चूहा बड़े आत्मविश्वास और गर्व से बोला, तुमको शायद मालूम नहीं ये शेर मेरा छोटा भाई है.
उसकी बात सुनकर हाथी हँसने लगा. तब चूहा फिर बोला, अबे, हंसता क्यों है? मेरी शादी होने से पहले मैं भी शेर था.
 (२)
सड़क के किनारे बैठे एक फटेहाल भिखारी ने राह चलते एक जेंटलमैन से कहा, मेहरबान, पाँच रूपये देते जाओ. मैं तीन दिन से भूखा हूँ.
जेंटलमैन ठिठककर खड़ा हो गया. जेब से अपना बटुआ निकालकर एक सौ रुपये का नोट निकालते हुए बोला, खुले रूपये तो हैं नहीं.
भिखारी बोला, मैं आपको ९५ रुपये लौटा दूंगा. मेरे पास खुल्ले हैं.
जेंटलमैन अपना नोट वापस रखते हुए बोला, अच्छा, पहले तुम पहले इन रुपयों को खर्च कर लो, और आगे बढ़ गया.

(३)
एक खावड़ा आदमी (भोजन भट्ट) किसी दावत में गया. वहाँ आव देखा ना ताव, एक दर्जन नान खा गया. अगली सुबह कष्ट के साथ संडास में बैठकर बोला, हे भगवान, तू मेरे नान निकाल दे या मेरी जान ले ले. अब और नहीं सहा जा रहा है.


(४)
एक मनचले आदमी के मोबाईल पर एक अनजान नंबर से कॉल आई. उधर से एक महिला बोली, क्या तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड है?
मनचले ने उत्तर दिया, हाँ जरूर है. एक नहीं, दो दो हैं, पर तुम कौन बोल रही हो?
तीखी आवाज में वह बोली, मैं बोल रही हूँ तुम्हारी बीवी! अब घर आओ तो बताऊंगी.


(५)
पत्नी पति से, आप हमेशा ऐसा क्यों कहते हैं, ये मेरा घर है, ये मेरी गाड़ी है, ये मेरा बेटा है, ये मेरी बेटी है? मैं भी तो यहाँ हूँ, आपको कहना चाहिए, ये हमारा घर है, ये हमारी गाड़ी है, ये हमारा बेटा है, ये हमारी बेटी है...'" 
शाम को पति कपड़ों की अलमारी में कुछ ढूंढ रहा था और उसको परेशान देखकर पत्नी ने पूछ लिया, इस तरह क्या ढूढ़ रहे हो?
पति बोला, हमारा अंडरवियर नहीं मिल रहा है.
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रविवार, 26 जनवरी 2014

पराशक्ति

मेरे अपने संस्कारों में परमात्मा नाम के सृष्टि रचियेता की उपस्थिति बाल्यकाल से ही रही है. घर में देवताओं की पूजा अर्चना अनेक स्वरूपों में हुआ करती थी और मैं पूर्ण समर्पण भाव से ईश्वर पर आस्था रखता था.

मेरे पैतृक गाँव गौरीउडियार (जो अब बागेश्वर जिला, उत्तराखण्ड में है) में एक बहुत बड़ी पौराणिक काल की प्रस्तर गुफा है, जिसे माता गौरी और भगवान शिव के मन्दिर के रूप में मान्यता दी गयी है. कल्याणकारी महादेव शिव अपने देवाय, दिव्याय, दिगम्बराय स्वरुप में मेरे अंतर्मन पर हमेशा विराजमान रहे. लेकिन जब मैं ३० वर्ष की उम्र पार कर गया नौकरी के सिलसिले में सुदूर दक्षिण में कर्नाटक राज्य में स्थानांतरित होकर गया तो मुझे अपने ट्रेड युनियन में कार्यरत साम्यवादी साथियों का सानिध्य प्राप्त हुआ. मैंने उसी दौरान कार्ल मार्क्स, एंजेल्स से लेकर माओवादी साहित्य का भी गहन अध्ययन किया. तब मुझे अपने ईश्वर नाम के आराध्य पर संदेह होने लगा. मेरे मन मस्तिष्क पर ये बात बैठने लगी कि देवताओं के स्वरूपों व उनके बारे में हमारे सनातन धर्म में जो अतिशय गुणगान व आरतियाँ की गयी हैं, उसमें समाज के कुछ खास वर्गों का स्वार्थ निहित होता है. इसीलिये देवभय बता कर चिरकाल से अनेक विश्वास थोपे हुए चल रहे हैं. ‘प्रकृति ही ईश्वर है’ का सिद्धांत मानने पर पूजा-पाठ कीर्तन-भजन कर्मकांड सब वृथा लगने लगे थे. मैं नास्तिक हो चला था.

मैंने कहीं ये भी पढ़ा है कि नास्तिक ही सबसे बड़ा आस्तिक होता है तथा परमात्मा की विशेषता यह है कि वह उन लोगों के भोजन की भी पूरी व्यवस्था रखता है जो उसको गालियाँ निकाला करते हैं. ये सब बड़े तर्क के विषय हैं. मुझे ये भी मालूम रहा है कि उस पराशक्ति को धर्मधुरंधरों व विचारकों ने ‘नेति-नेति’ कहा है. इस प्रकार इस सन्दर्भ में मैं एक कन्फ्यूज्ड व्यक्ति बन कर रह गया था. यद्यपि मन के किसी कोण में ‘देव-भय’ का आसान भी बना रहा था. मैं कई वर्षों तक देव मन्दिरों या तीर्थों में मत्था टेकने नहीं गया. मेरी अर्धांगिनी मेरी इस विचारधारा से बिलकुल सहमत नहीं रही. उसने अपनी धार्मिक मान्यताओं को कभी नहीं छोड़ा.

अब मैं उम्र के अन्तिम पायदान (चौथा पड़ाव) पर हूँ. देवी-देवताओं के स्मरण को अपने दैनिंदिनी में नित्याचरण के रूप में अनुपालन करता हूँ. अपने व अपने स्वजनों की कुशल के लिए प्रार्थनाएँ करने के अलावा 'सर्वे सुखिन: सन्तु' की दुआ भी किया करता हूँ. मेरा प्रिय भजन है: ‘भूलि हैं हमही तुमको, तुम तो हमारी सुधि नांहि बिसारे हो.’  

यों किसी प्रकार के शारीरिक कष्टों में, या मानसिक झंझटों में कहीं ज्यादा उलझने की नौबत नहीं आई. हमेशा उस परमपिता परमेश्वर की कृपादृष्टि बनी रही है. एक घटना जो अभी पिछली दीपावली पर घटी वह वह अनपेक्षित थी कि मेरे बाएं हाथ की रिंग वाली अंगुली के मध्य में अज्ञात कारणों से करीब ६-७ वर्षों से झन्नाटा होकर पीड़ा होती थी. शुरू में झन्नाटा कभी कभी होता था, पर धीरे धीरे इसकी आवृत्ति बढ़ती ही गयी. ये बड़ा कष्टपूर्ण था. कभी तो रात में अचानक झनझना जाता था और नींद नहीं आती थी. इसका एक्स-रे करवाने पर भी कुछ नहीं निकला. अनुमान लगाया गया कि किसी नर्व के एक्सपोजर की वजह से ये होता है. दवाएं, लेप, मालिश और एक्सरसाइज से कोई स्थाई लाभ नहीं हुआ.

दीपावली से दो दिन पूर्व वॉशबेसिन के ऊपर फिट किया हुआ शीशा जब साफ़ करते समय फ्रेम सहित नीचे गिरने लगा और मैंने उसे सँभालने के लिए उसके नीचे हाथ लगाने की कोशिश की तो वह मेरे सीधे अंगुली के ठीक उसी जगह जोर से आ टकराया जहा झन्नाटा हुआ करता था. अतिशय पीड़ा तो हुई लेकिन ये उस पराशक्ति की कृपा थी कि अंगुली में होने वाला झन्नाटा और दर्द उसके बाद गायब हो गया है.

मेरी अब मान्यता हो चली है कि मैं नित्य जो ‘नम:शिवाय’ की पंचाक्षरी से परमात्मा को याद किया करता हूँ, उसी से मुझे इस शारीरिक कष्ट से अप्रत्याशित रूप से निजात मिली है.
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शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

ये है हमारी हल्द्वानी

उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले में दक्षिण में मैदानी इलाकों से सड़क व रेल मार्ग से जुड़ने वाले हमारे शहर हल्द्वानी को ‘गेटवे ऑफ कुमाऊँ’ भी कहा जाता है.  हल्द्वानी शब्द की व्यत्युत्पति ‘हल्दू’ शब्द से होती है.  हल्दू एक जंगली पेड़ होता है जो अब उजड़ता जा रहा है.

अब से केवल सवा सौ साल पहले हल्द्वानी एक छोटा सा कस्बा हुआ करता था. कस्बाई परिवेश में ही बाजार थे. मात्र १०० मीटर की दूरी पर मन्दिर और मस्जिद बनाए गए थे जो आज भी साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रतीक के रूप में विद्यमान हैं. यद्यपि हिन्दू और मुसलमानों की बस्ती की अलग अलग पहचान थी, पर आपसी सद्भाव यहाँ हमेशा ही बना रहा है. गत शताब्दी के मध्य में यहाँ पंजाब व पाकिस्तान से सिक्खों का भी आगमन हुआ, जो परिवहन, व्यापार, और कृषि पर अपना वर्चश्व बनाते हुए यहीं के होकर रह गए.

जब पहाड़ों पर मोटर मार्ग नहीं थे तो आवश्यक सामग्रियां घोड़ों, खच्चरों, या भेड़ों पर लाद कर लाया ले जाया जाता था. तिब्बत व नेपाल तक व्यापार का फैलाव हुआ करता था. तिब्बत से ऊन, आलू, सुहागा व गंध्रायण-जम्बू मसाला आता था, और यहाँ से नमक, गुड़ व चावल जैसे खाद्य पदार्थ वापस जाता था. धीरे धीरे ये कस्बा व्यापारिक शहर बनता गया आढत वाले व्यापारी फले फूले, शहर में समृद्धि आई. बाद में हल्द्वानी शहर आसपास के गाँवों को लीलता हुआ विस्तार करता गया. पहाड़ों के संपन्न लोग भी हल्द्वानी में घर बनाने लगे. देश-परदेश से नौकरी से रिटायर होकर आने वाले लोग यहाँ बसने लगे. आज हल्द्वानी महानगर बन गया है. पर योजनाबद्ध तरीके से बसावट न होने से चौड़ी सड़कों व सुन्दर पार्कों की कोई कल्पना साकार नहीं हुई. इस प्रकार सब घिच-पिच होकर रह गया. रही-सही कसर असंख्य ऑटो रिक्शाओं, कारों, व सवारी गाड़ियों ने पूरी कर दी है. फलस्वरूप मुख्य मार्ग पर दिन भर में कई बार जाम लगा रहता है.

अंग्रेजों के जमाने में गौला नदी से तीन दिशाओं में तीन बड़ी नहरें बहुत सुनियोजित ढंग से बनाई गयी थी, जिनसे शहर के बीचों बीच होकर दूर दराज के खेतों को पानी आज भी पहुंचाया जाता है. कहते हैं कि जब यहाँ जलदाय विभाग या नलकूपों का अभ्युदय नहीं हुआ था तो लोग इन्ही नहरों के पानी को पिया भी करते थे. लेकिन आज इन नहरों का पानी इतना प्रदूषित हो चुका है कि इनसे बह कर आने वाला कूड़ा-करकट,  प्लास्टिक, पॉलिथीन खेतों को बुरी तरह खराब कर रहा है. बहुत से असामाजिक गैरजिम्मेदार लोगों ने तो अपने गटरों व नालियों के मुहाने नहरों में खोल रखे हैं.

हल्द्वानी में परिवहन की बहुत अच्छी सुविधाएँ हैं. पर्यटन स्थलों के लिए अथवा देश के किसी भी भू-भाग को जाने के लिए ट्रेन, बस, या टैक्सियाँ आसानी से उपलब्द्ध हैं. पहले ऐसा नहीं था. कुछ ही वर्षों पहले तक यहाँ केवल एक सिंगल मीटरगेज रेलवे लाइन थी, जो बरेली, लखनऊ या मथुरा-आगरा को जोड़ती थी. देश की राजधानी दिल्ली को कोई सीधी ट्रेन नहीं होती थी, पर अब ब्रॉडगेज लाइन होने से पूरब में कोलकत्ता तथा पश्चिम में दिल्ली होते हुए जयपुर-जोधपुर तक की सुपरफास्ट गाडियाँ उपलब्ध रहती हैं. इसी तरह रोड ट्रांसपोर्ट भी बहुत सहज में सभी प्रमुख शहरों के लिए नियमित तौर पर उपलब्द्ध रहता है. ये दीगर बात है सड़कें अभी भी कई जगहों पर सँकरी व खराब स्थिति में पाई जाती हैं.

पर्यटन स्थलों का द्वार होने के कारण यहाँ होटल उद्योग खूब फलाफूला है. शहर में अनेक अच्छे होटल हैं.

हल्द्वानी में सरकारी और गैर सरकारी बड़े अस्पताल है. एक सरकारी मेडीकल कॉलेज भी है. यहाँ चिकित्सा की सभी आधुनिक सुविधाएँ उपलब्द्ध रहती हैं.

नैनीताल शहर बहुत पहले से शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहा है. अब हल्द्वानी में भी अनेक अच्छे स्कूल, कॉलेज, एकेडेमी व इंस्टीट्यूट मौजूद हैं.

हल्द्वानी की कृषि उपज मंडी इस क्षेत्र की बहुत बड़ी मंडी है, जो काश्तकारों को सारी सुविधाएँ उपलब्द्ध कराती है. सब तरह का अनाज व फल-फूलों की ये मंडी हल्द्वानी की विशेषता है.

गौला एक पौराणिक नदी है. इसे हल्द्वानी की लाइफ लाइन कहा जाता है. गौला नदी से पीने का व सिंचाई के लिए पर्याप्त जल मिलता है. अधिक जल उपलब्धता के लिये इस पर एक जमरानी बाँध बनाने की योजना वर्षों से लम्बित है. गौला हर साल बरसात की बाढ़ में करोड़ों टन रेत-बालू अपने साथ बहा कर लाती है. और खनिज खनन यहाँ का मुख्य व्यवसाय बन गया है. ये अलग बात है कि इस प्रतिस्पर्धी व्यवसाय से जुड़े हुई अपराधिक गतिविधियाँ भी सुर्ख़ियों में रहती हैं.

अब हल्द्वानी और काठगोदाम आपस में मिल चुके हैं. पश्चिम में कालाढूंगी रोड पर दूर तक बाजार व बस्तियां बन गयी हैं. दक्षिण में हल्दूचौड़ तक भी हाईवे के दोनों तरफ दुकानें व आधुनिक ढंग से बनी बिल्डिंगें नजर आती हैं. पूरब में गौला पार में भी जो विशाल कृषि क्षेत्र है, उसमें व्यवसायिक-व्यापारिक गतिविधियां सक्रिय हैं. जहाँ किसी जमाने में साँपों, शेरों या मच्छरों के डर से लोग नहीं बसते थे, वहाँ की जमीन अब सोने के भाव बिक रही है.

अंत में यहाँ की सजीव सांस्कृतिक व साहित्यिक गतिविधियों की चर्चा नहीं की जाये तो हल्द्वानी का स्वरुप अधूरा रह जाएगा.  यहाँ के प्रबुद्धजन निरंतर ‘कुछ न कुछ विशेष’ हर मौकों पर आयोजित करते रहते हैं. जिसमें पर्वतीय अंचलों की संस्कृति के भूले बिसरे पक्षों को भी ज़िंदा रखा जाता है और आधुनिकता से जुड़े रहने के भी सब उपादान होते हैं.
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