रविवार, 29 अप्रैल 2012

चोखी रसोई

सात गावों के पंडितों का महा-सम्मलेन आयोजित किया गया. व्याकरण से लेकर वेदों तक की चर्चाएं हुई. चूँकि समय बहुत तेजी से बदल रहा है, और लोग धर्म की आस्थाओं से विमुख होते जा रहे हैं, ये बड़ी चिंता का विषय रहा. कलिकाल में जहाँ भौतिकवाद का ऐसा प्रभाव हो गया है कि आम आदमी बिना मेहनत किये अवैध तरीकों से घन कमाना चाहता है, इसके लिए धर्म अधर्म की भी कोई सोच नहीं रही है.

सम्मलेन में उपस्थित शास्त्रीगण/महापंडितों ने गहरी चिंताए जताई कि अगर इस अधोपतन के क्रम को रोका नहीं गया तथा संस्कारित नहीं किया गया तो निश्चय ही धर्म का स्वरूप विद्रूप हो जाएगा.

एक रामायणी विद्वान ने तो रामचरितमानस में कलिकाल का उद्धरण करते हुए घोर निराशा का चित्रण कर डाला. सारी चर्चा में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, जैसे नारे बार बार लगते रहे. पर किसी ने धार्मिक कर्मकांडों में आई विकृतियों अथवा पाखंडों पर कोई चर्चा करना ठीक नहीं समझा. क्योंकि सभी लोग किसी न किसी रूप में अपनी दैनिन्दिनी में अंधविश्वासों व पाखंडों में लिप्त रहते हैं. "हम सब पाखंडी हैं," यह कहने की हिम्मत किसी में नहीं रही. बिगड़ी हुई मान्यताओं को बदलने का साहस भी नहीं कर पा रहे थे. सत्यम वद, धर्मं चर,' जैसे आदर्श तो केवल पोथी के बैगन रह गए हैं. इनको न छेड़ा जाये तो ही अच्छा है. क्योंकि सभी लोग सुबह से शाम तक सैकड़ों झूठों का बोझ ढोते चलते हैं. लेकिन उपदेश तो दे ही सकते थे. नहीं दिये.

महासम्मेलन की एक बड़ी खुली रसोई थी. पाँच शुद्ध जनेऊधारी ब्राह्मण मात्र सिंगल धोती धारण करके, शुद्ध देशी घी का तड़का लगा कर दाल, सब्जी, दूध में आटा मल कर पूडियां, देहरादून की खुशबूदार बासमती का भात, सौंठ-रायता और लालमिर्च का भुना हुआ हुआ अचार सब बन कर तैयार था. रसोइये गर्मी पसीने से तरबतर सुस्ता रहे थे. पता नहीं कहाँ से एक लाल रंग का लम्बी पूंछ वाला कुत्ता चुपके से रसोई में घुस गया, सभी छोटे-बड़े पकवानों के बर्तनों को सूंघते हुए भात के बड़े तौले पर रखे बड़े करछे को चाटने लगा. अचानक एक रसोइये की नजर पड़ी तो उसने हो-हल्ला किया, सब जागृत हो गए. सबने देखा कुत्ता रसोई के गर्भगृह से दुम दबाकर निकल रहा था.

गजब हो गया, सारी रसोई जूठी और अशुद्ध हो गयी, उधर भोजन की पत्तलें लगने वाली थी, उससे पहले ये कांड हो गया. खबर आग की तरह फ़ैली, पांडाल में आचार्य जी के कान में कही गई, उनके माथे में चिंता की लकीरें आना स्वाभाविक ही था. भोजन की महक से सभी की भूख खुली हुई थी, जिह्वा स्वाद लेने के इन्तजार में थी कि अचानक सारा माहौल बदल गया, सब भ्रष्ट हो गया.

हुल्लड़ जैसा होने पर स्थिति को सँभालते हुए हरिद्वार से पधारे हुए विद्यावाचस्पति पंडित गोविन्द भट्ट जी ने माइक पर आकर संबोधित करते हुए सब को शांत रहने को कहा और पाँच महापंडितों की राय सुनाते हुए समस्या का हल निकाला कि "चूंकि कुत्ता भगवान भैरब के गणों में एक प्रमुख गण है, और उसे मानव जाति की निगरानी का स्वाभाविक अधिकार प्राप्त है इसलिए शास्त्रों के आधार पर उसका खुली रसोई में घुसना कोई आपत्तिजनक व्यवहार नहीं है. दूसरी बात ये भी है कि कुता लाल वर्ण का है इसलिए वह सूर्य/अग्नि का प्रतीक है, जो हर हाल में शुद्ध व शुद्धि करने वाला होता है.

उपस्थित जन समूह ने सहर्ष ताली बजाई और भोजन की पंक्ति में बैठ गये.
                                      ***

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

गवाही


कहाँ से करूँ शुरू,
किस किस को करूँ रूबरू,
एक होता तो हिसाब होता,
लिख लेता तो किताब होता.

      आपको  तो  मालूम है बस एक-एक,
      पर मेरी उम्र गुजर गयी सब देख-देख.

किसी को क्यों बनाते हो, गुनाहों के गवाह,
अपनी  गवाही  मैं  खुद ही देता आया  हूँ.
                     ***

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

तन पंछीड़ा


"It is too bad to be too good." यह प्रतिक्रिया महात्मा गाँधी जी के मारे जाने पर अंग्रेज लेखक, जार्ज बर्नार्ड शा, की थी. इस सँसार में अनेक घटनाएं/दुर्घटनाएं नित्यप्रति होती रहती हैं, जिनमें सीधे-सरल, परोपकारी लोगों के साथ दुर्व्यवहार होता है. ये घटनाएं हमेशा सुर्ख़ियों में भी नहीं आ पाती हैं, लेकिन पीड़ित जन तो घाव सहलाते ही रहते हैं

डॉक्टर सुबोध बैनर्जी एक प्रतिभावान बाल-रोग विशेषज्ञ हैं. शहामत गंज में उनकी एक शानदार, सुव्यवस्थित क्लीनिक है, जिसमें इनक्यूबेटर तथा आई.सी.यू. के आधुनिक उपकरण भी उपलब्ध हैं. उन्होंने अपने पास स्टाफ भी सुयोग्य एवं अनुभवी रखा हुआ है. डॉक्टर साहब का व्यवहार और काम के प्रति समर्पण भाव ने उनको हर दिल अजीज बना दिया है. इससे भी बड़ी बात यह है कि डॉक्टर साहब ने अपनी कंसल्टेशन फीस मात्र बीस रूपये रखी है, जबकि आजकल शहर के सभी विशेषज्ञ डॉक्टर सौ या दो सौ से भी ज्यादा लेने लगे हैं. बात यहाँ तक भी है कि जो मरीज फीस देने में समर्थ नहीं होते हैं, उनको वे निशुल्क देखा करते हैं.

डॉक्टरी पेशे का वे एक उज्जवल चरित्र हैं. उनका यह आदर्श सर्वविदित है, और मात्र ८-१० वर्षों की प्रैक्टिस के दौरान उनको जन सम्मान के साथ साथ राजकीय सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं.

अपने बीमार बाल-बच्चों को लेकर सुबह से ही लोग उनकी क्लीनिक पर प्रतीक्षा करते मिलते हैं. आलम यह है कि उनको बीच में चाय अथवा भोजनावाकाश के समय में भी कटौती करनी पड़ती है. एक इंसान इतना गुणी, धैर्यवान होते हुए भी अपने कार्य में सफल हो सकता है, इस पर अन्य डाक्टरों को रश्क होता होगा, लेकिन डॉक्टर साहब का पारिवारिक जीवन इतना सुखद नहीं रहा है. आठ साल पहले कोलकता की माल्यादिनी नाम की सुन्दर लड़की से उनकी शादी हुई, और उसके तुरन्त बाद ही वे उसे यहाँ बरेली ले आये. यहाँ आकार नई गृहस्थी की शुरुआत की. डॉक्टर साहब ने नया मकान पहले से ही खरीद कर सुसज्जित करवा रखा था. कुछ समय तक सब कुछ सामान्य चलता रहा लेकिन डॉक्टर साहब की व्यस्तता ने माल्यादिनी को अकेला कर दिया. वे उनको पर्याप्त समय नहीं दे पा रहे थे, क्योंकि उनका पेशा ही ऐसा है कि दिन में कई बार इमरजेन्सी में भागना पड़ता है, रात को भी ना जाने कब बुलावा आ जाये, वे खुद तो परेशानी अनुभव नहीं करते थे, पर माल्यादिनी को ये रास नहीं आ रहा था. अगर माल्यादिनी को कोई बाल-बच्चा पैदा हो जाता तो शायद ये त्रासदी इस तरह नहीं झेलनी पड़ती, लेकिन भाग्य का खेल देखो, बच्चों के विशेषज्ञ के घर में प्रयासरत होते हुए भी कोई किलकारी नहीं गूंजी.

डाक्टर बैनर्जी को इस बात से विशेष परेशानी भी नहीं थी. वे कहा करते थे कि ये सभी बच्चे हमारे ही तो हैं.” पर एक नारी के लिए मातृत्व सुख अपरिमित व आकर्षक होता है. अत: उसके मनोविकार, सामान्य आस्थाओं, विश्वासों, तथा परोपकार वाली भावनाओं के प्रति विद्रोह करने लगे.

किसनलाल गूजर, उनका दूधवाला, नित्य उनके घर आता जाता था, और गृहिणी के छोटे-मोटे काम भी कर जाता था. माल्यादिनी उसे हमेशा चाय नाश्ता देती और अपने पास बिठाती थी. किसनलाल में भी बहुत अपनापन व भोलापन था इसलिए वह माल्यादिनी से ज्यादा ही घुलमिल गया इस प्रकार वह डॉक्टर साहब की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी से मित्रता कर बैठा. माल्यादिनी भी वैवाहिक नियमों की सीमाओं को लांघ कर अबैध सम्बन्ध जोड़ बैठी. इसे कुछ भी नाम दिया जा सकता है, यह थी चरित्र की कमजोरी.

डॉक्टर साहब ने माल्यादिनी और किसनलाल के संबंधों पर कभी शक नहीं किया, बल्कि उनको अच्छा लगता था कि किसनलाल की उपस्थिति से उनकी पत्नी को घर के कामों में काफी राहत हो रही है क्योंकि माल्यादिनी भी पहले की तरह चिढ़चिढ़ी व असंतुष्ट नहीं लगती थी.

पड़ोस में रहने वालों को किसनलाल का इस तरह घर में घुसे रहना अखर रहा था, लेकिन ईलाज क्या था? बात आपस में खुसर-पुसर तक ही सीमित रह गयी. ये तो दुनिया का पुराना दस्तूर है कि दूसरे की फटी में अंगुली डाल कर उधेड़ने की कोशिश की जाती है. एक दिन ऐसे ही जब किसनलाल श्रीमती बैनर्जी के साथ बेडरूम में था तो किसी ने डॉक्टर साहब को फोन करके सूचित किया कि "उनके घर में चोर घुसा हुआ है." डॉक्टर साहब तुरन्त घर लौटे और बिना खटपट किये अन्दर दाखिल हुए तो अपनी अर्धांगिनी को किसनलाल के बाहुपाशों में पा कर स्तम्भित रह गए. किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए.

आहत डॉक्टर को कुछ नहीं सूझा. उन्होंने गुस्से में दोनों को तुरन्त घर से निकल जाने का आदेश दे दिया. और वे दोनों शर्म से अथवा बेशर्मी से बाहर निकल गए. क्योंकि उनके पास कोई बहाना नहीं था.

प्राणीमात्र के स्वभाव/फितरत के परिपेक्ष में माल्यादिनी का मार्गभ्रष्ट होना यद्यपि कोई अनहोनी घटना नहीं थी पर ये दुर्घटना कई प्रश्न छोड़ गयी. क्या अति विश्वास में धोखेबाजी ज्यादा संभव है? क्या पत्नी को केवल रोटी, कपड़ा व दौलत से ही संतुष्ट रखा जा सकता है? क्या डॉक्टर की अतिसज्जनता ही उनके दु:खों का कारण बना?

उत्तर अनेक हो सकते हैं, पर हमको तो डॉक्टर सुबोध बैनर्जी से पूरी हमदर्दी है. जो हुआ बहुत बुरा हुआ.
                                       ***

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

चुहुल- २१


                                  (१)
दो व्यक्ति जो कि हकलाते थे, किसी बात पर लड़ पड़े. गुत्थुम-गुत्था हो गए. लोगों ने दोनों को पकड़ कर २०-३० फीट दूर कर दिया. वहाँ जाकर एक बड़ी जोर से बोला, मैं तेरा सर फोड़ दूंगा.
दूसरे ने कहा, ये बात यहीं बोलता ना.
पहले ने उत्तर दिया, बोल तो मैं वहीं रहा था, पर निकली यहाँ आकर.

                                   (२)
अंतर्राष्ट्रीय दूध दुहने की प्रतियोगिता में चीन, जापान, अमेरिका, आस्ट्रेलिया के साथ ही भारत पाकिस्तान के चैम्पियन भी भाग ले रहे थे. भारत का प्रतिनिधित्व हरियाणा के जन्डेल सिंह कर रहे थे. सभी प्रतियोगियों के ट्रेक पर भैसें बंधी थी. सीटी बजने पर सभी अपनी अपनी बाल्टी लेकर दौड़ पड़े. जन्डेल सिंह सबसे बड़ी बाल्टी लेकर रिकार्ड तोडने की उम्मीद से दौड़े थे पर दो-तीन मिनट में ही छटांक भर दूध निकाल कर लौट आये. गुस्से में बोले, हमारे साथ बदमाशी हुई है. मेरे ट्रैक पर भैंस नहीं, पाड़ा बाँध रखा है.

                                     (३)
एक १६ साल का लड़का एक छोटे से बच्चे को गोद में लेकर घुमा रहा था. किसी राहगीर ने पूछ लिया, ये बच्चा कौन है?
लड़का बोला, ये मेरा दूर का भाई है.
राहगीर ने फिर पूछा, "क्या मतलब?
लड़के ने उत्तर दिया, इसके व मेरे बीच में ६ भाई-बहिन हैं.
        
                                       (४)
बनारस के पण्डे की लड़की की शादी मथुरा के पण्डे के लड़के से हो गयी. एक दिन ससुर जी कहीं न्योते में जीमने के लिए गए तो सास ने बहू से कहा कि तेरे ससुर जीम कर आने वाले हैं. खाट के नीचे ईटें लगा दो ताकि वजन से ना टूटे.
इस पर बहू रोने लगी. बहुत पूछने के बाद बोली, मैं यहाँ बहुत छोटे घराने में आ गयी हूँ. मेरे पिता जी जीमण में जाते हैं तो उनको वहीं से खाट पर उठाकर लाया जाता है.

                                          (५)
एक मरीज डॉक्टर के कमरे के बाहर बैठ कर रो रहा था. लोगों ने रोने का कारण पूछा तो बोला. डाक्टर ने थप्पड़ मारा.
किसी ने पूछा, ये डाक्टर तो भला आदमी है, क्यों मारेगा? जरूर तुमने कुछ शरारत की होगी.
मरीज बोला, "मैं तो अपनी बीमारी बता रहा था कि मेरे पेट में तकलीफ है - सुबह लैट्रिन इतनी सख्त आती है कि आप दांत से नहीं काट सकते हैं, और शाम को इतनी पतली हो जाती है कि आप अंजुरी में नहीं समेट सकते.
                                           ***   

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

अपनी बात


शुभ आशीषें शीर्षक से माँ के दस पत्रों की श्रंखला अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करके मुझे उसी तरह का सन्तोष हो रहा है जैसा कि किसी स्कूल के विषयाध्यापक को अपनी कक्षा के बच्चों का वार्षिक कोर्स पूरा करने पर होता है. एक जिम्मेदारी सी बहुत दिनों से मन में थी, अब बोझ हल्का महसूस कर रहा हूँ.

दरसल इस विषय की सोच मुझे सन १९८० के दशक में आई थी, किशोर बेटियों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए एक काल्पनिक विदुषी प्यारी माँ के पात्र की मैंने रचना की थी.

कोटा, राजस्थान में जे.डी.बी. गर्ल्स कॉलेज की हिन्दी विभाग की अध्यक्ष स्वर्गीय डॉ. शकुंतला उपाध्याय जी ने मेरी कई रचनाएं देखी-पढ़ी थी. इन खास पत्रों को उन्होंने बहुत सराहा तथा, और मुझे सलाह दी थी कि इनको एक पुस्तिका के रूप में छपवाऊँ, जिसके लिए उन्होंने एक प्रेरणास्पद भूमिका भी लिखकर दी थी. पर तब मैं छापने-छपवाने की इच्छा रखते हुए भी प्रकाशित नहीं कर सका.

अब इंटरनेट पर अपने ब्लॉग जाले' के माध्यम से मामूली से सुधार करते हुए इनको प्रकाशित करके आनंदित हो रहा हूँ. आनंदित होने का कारण ये है कि मेरे सुधी पाठकों तथा अनेक विद्वतजनों ने इनकी भरपूर प्रशंसा की है तथा विषयवस्तु को किशोर बेटियों के ज्ञान वर्धन में एक अच्छा प्रयास बताया है.

मैं ब्लॉग पर आई किसी टिप्पणी का उत्तर नहीं दे पाया. हमारी वाणी, इंडी ब्लॉगर तथा फेसबुक पर मेरे वाल के माध्यम से जिन शुभाकांक्षी एवं मित्रों ने इनको पढ़ने का समय निकाला उन सभी को मैं हार्दिक धन्यवाद देना चाहता हूँ.

नामजद लोगों में, स्वनाम-धन्य आदरणीय डॉ. रूपचंद शास्त्री मयंक, चंद्र भूषण मिश्र गाफिल, इंदु छाबरा, केवलानंद जोशी, राजेन्द्र जी स्वर्णकार, कपिल शर्मा, अवंती सिंह, डॉ. आशुतोष मिश्रा आशु, रजनीश तिवारी, राजेश कुमारी, धीरेन्द्र जी, अरुण साथी, दिनेश पारीख, शरद खरे सिन्हा, सदा, रविकर फैजाबादी, स्मार्ट इन्डियन अनुराग शर्मा, रीना पन्त, एस. एन. शुक्ला, अनुपम पात्रा, सीमा, पृथ्वी जायसवाल, हेम पाण्डेय, रेखा चंदोला, सीमा श्रीवास्तव, शशि प्रकाश सैनी, नवनीता धर, नीरज कुमार, नितिन, अनुपम कर्ण, त्रिवेणी देवराड़ी, सोम शेखर, सारु सिंघल, शहर गुडगाँव, शमशुद अहमद, अमित अग्रवाल, वीनू, इंदु रविसिंह, भुवन जोशी, संजय नैनवाल, संगीता छिमवाल नैनवाल, सागर पाण्डेय, डॉ. कविता सहारिया, आदि अनेक प्रिय पाठकगण, और अंत में मेरी इस श्रंखला की प्रेरणा श्रोत मेरी प्यारी बेटी गिरिबाला पाण्डेय जोशी.

इन्हीं शब्दों के साथ सर्वे सुखिन: सन्तु. इति.
                                        ***

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

शुभ आशीषें (माँ के पत्र - 10)


                                                   श्रंखला का दसवाँ एवँ अन्तिम पत्र

प्यारी बिटिया,
सब प्रकार से सुखी रहो.

तुम्हारे प्रधानाचार्य का पत्र तुम्हारे पापा के नाम आया है. उन्होंने तुम्हारी बहुत सराहना की है साथ ही उन्होंने तुम्हारी भविष्य की पढाई के लिए पूछा है कि क्या विषय दिलाना चाहेंगे तथा क्या बनने का लक्ष्य रखा है? तुम्हारी रूचि के अनुसार ही तुम्हारे पापा प्रत्युत्तर देंगे. तुमसे फोन पर बात करेंगे.

जहाँ तक बनने-बनाने का प्रश्न है मुझे एक प्रेरणास्पद घटना का विवरण याद आ रहा है कि एक माता-पिता के सामने इसी प्रकार का प्रश्न चिन्ह आ खड़ा हुआ कि उनके इकलौते लाड़ले को क्या बनाना चाहिए? आपस में सोच-विचार व विमर्श के बाद भी ये तय नहीं कर पाए कि उसे क्या पढ़ाया जाये. बेटा भी इस स्थिति में नहीं था कि यह बताए कि वह क्या बनना चाहता है? अंत में माता-पिता को विचार आया कि पड़ोस के घर में एक विद्वान संत पुरुष रहते हैं, उनसे इस बारे में मार्ग दर्शन लिया जाये. संत ने उनकी समस्या को गंभीरता से सुना और यह कह कर सही हल निकाला कि दुनिया में डाक्टर बहुत हैं, इंजीनियर भी बहुत हो गए हैं, इसी प्रकार प्रोफ़ेसर, पायलट आदि की भी कोई कमी नहीं है, मैं समझता हूँ कि आप अपने बेटे को कुछ ऐसा बनाइये जिसकी वास्तव में आज कमी हो गयी है, और वह है, नेक इंसान.

यह बात शाश्वत सत्य है कि विषय कुछ भी पढ़े जायें, प्रतिभावान हर जगह सफलता पाता है. प्रतिभा केवल धैर्य, मेहनत और ईमानदारी की पराकाष्ठा है. मनुष्य की उन्नति इस बात पर निर्भर रहती है कि वह अपने आस-पास समाज को किस प्रकार स्वीकार करता है, अर्थात अपने आचार-विचार से किस प्रकार प्रभावित करता है. इसके लिए उदारता की परिभाषा को भी समझना होगा तथा अपने आप को उदार बनाये रखना होगा.

हमारे चारों तरफ प्रकृति का जो सुन्दर व व्यवस्थित साम्राज्य है, उसने हमको हर ओर से भरपूर नियामतें दी हैं. तुम अनुभव करो कि:
     सूर्य निरंतर प्रकाश और ऊर्जा देता है.
     बादल समय समय पर पानी दे जाते हैं.
     हवा निरंतर गति और स्पंदन देती है.
     पौधे अन्न और पेड़ फल देते हैं.
     श्रमिक श्रम और गुणी जन ज्ञान देते हैं.
निस्वार्थ भाव से हमें इतना प्राप्त होता रहता है कि हम इसका हिसाब किताब भी नहीं रख पाते हैं. फिर भी यदि हम दूसरों को देने में कृपणता करेंगे और उदार नहीं बनेगे तो यह कृतघ्नता ही कहलायेगी. देने से विनम्रता पैदा होती है और विनम्रता के साथ अनेक गुण अपने आप आ जाते हैं. नित्यचर्या में हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए जो आत्मसंतोषी के साथ साथ दूसरों को भी सुखकर लगे. कई बार हम दूसरों के बारे में ऐसी बातें जान जाते हैं, जिनका असर उनके लिए बहुत हानिकर हो सकता है, इसलिए वाणी को हमेशा संयत रखा चाहिए. किसी को भी नुकसान न पहुंचे, यह सोच होनी चाहिए.

कई बार ऐसा भी होता है कि हम अपनी इच्छित वास्तु को नहीं पाते हैं और बहुत निराशा का अनुभव करने लगते हैं. यदि हम व्यापक दृष्टिकोण अपनाएँ तो मोह से अपने आप मुक्ति पा सकते हैं. इसके लिए हमें अपने भावावेशों को नियंत्रण में रखना होगा क्योंकि अधिकाँश गलतियाँ भावावेश में ही होती हैं.

मेरी एक अध्यापिका, जो किसी भावावेश की भुक्तभोगी थी कहा करती थी कि गुस्से में कोई काम नहीं करना चाहिए पत्र भी नहीं लिखना चाहिए, यदि लिख भी लिया है तो डाक में नहीं डालना चाहिए.

यहाँ सब लोग स्वस्थ हैं और आशा करते हैं कि तुम सब प्रकार से अपने स्वाथ्य का ध्यान भी रख रही होगी. अब तुम सयानी हो गयी हो. तुमको समझाने के लिए कोई बात बची भी नहीं है. इस बीच मेरे एक दांत में काफी दर्द रहा. अंत में निकलवाना ही पड़ा. ये मेरी अपनी गलती से ही हुआ. दांतों के बीच कुछ फंसने पर लोहे की सुई या आलपिन से निकालती थी परिणामस्वरुप दांत का इनेमल कट गया था और उसमें कैविटी बन गयी थी. अब सबक भी मिला और दर्द से मुक्ति भी. मैं अब शेष दांतों के प्रति सजग हो गयी हूँ.

भैया, और पापा का प्यार.
जल्दी मिलेंगे.
तुम्हारी माँ.
                                           ***

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

शुभ आशीषें (माँ के पत्र -9)


                          नवाँ पत्र

प्यारी बिटिया,
सानंद रहो.

तुम्हारा पत्र मिला, अति हर्ष हुआ, विशेषकर इसलिए कि तुमने अपने विद्यालय के पुस्तकालय में बहुत रूचि बताई है. वास्तव में पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र हैं. पुस्तकें अनुभव एवं ज्ञान की भण्डार होती हैं. कल्पना करो कि एक-एक ग्रन्थ को लिखने के लिए उसके लेखक ने कितनी तपस्या की होगी? ज्ञान गंगा हमेशा ही सर्वजन हिताय बहती आई है, लेकिन जो लेखन स्वांत: सुखाय भी लिखा जाता है वह सभी के हित में भी होता है. रामचरित मानस के प्रारंभिक श्लोक में तुलसीदास जी ने लिखा है कि वे रघुनाथ जी की गाथा स्वांत:सुखाय लिख रहे हैं, लेकिन तुम्हें मालूम है कि उनका यह महाकाव्य पिछले चार शताब्दियों से जन मानस पर छाया हुआ है, और हमारे समाज को दिशाबोध कराने में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

जहाँ तक ज्ञान के भण्डार का प्रश्न है, वह इतना बड़ा है कि उसके क्षितिज कहीं तक सीमित नहीं हैं. अभी पिछली सदी में राहुल सांकृत्यायन नाम के एक महान भाषाविद, इतिहासकार, और शोधकर्ता हुए हैं, जिनको हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत के साथ साथ तिब्बत व सिंहल की भाषाओं पर भी अधिकार था. उन्होंने अनेक प्राकृत भाषाओं पर तथा बौद्ध धर्म के ग्रंथों पर बहुत शोध किया. उनके सम्मान में एक आयोजन हुआ जिसमें पंडित नेहरू जो की मुख्य अतिथि थे ने कहा, सांकृत्यायन जी किताबों के सागर में तैरते हैं. इस पर किसी श्रोता ने यों ही फब्ती कस डाली कि लेकिन पार नहीं पा सके. हाजिर जवाब नेहरू जी ने कहा, पार तो वे पा सकते हैं जो कुएँ या ताल-तलय्यों में तैरते हैं. बहुत गहरी बात नेहरू जी ने कह दी.

यदि पुस्तकें नहीं होती तो हमें हर बार अपनी मान्यताओं को कसौटी पर कसना पडता, हर बार अपने अनुभव पर विश्वास या अविश्वास से गुजरना पड़ता. सभ्यता के विकास के क्रम में सभी विषयों पर अनेक गंवेषणात्मक, आलोचनात्मक व मार्गदर्शक पुस्तकों के होने से, हम और हमारा विश्व समृद्ध है. इसका भरपूर लाभ उठाना चाहिए. इस विषय में विज्ञान ने जो देन मानव समाज को दे दी है, वह है कि अब तुम इन तमाम विषयों की अनमोल पुस्तकों को इंटरनेट के जरिये भी पढ़ सकती हो. तुम्हारे पापा, कॉलेज जाने से पहले ही तुमको ये कंप्यूटर/लैपटॉप की सुविधा उपलब्ध कराने की सोच रहे हैं.

जो लोग अपने अमूल्य समय का उपयोग अध्ययन या ज्ञान बृद्धि में नहीं करते हैं, वे कर्महीन होते हैं. मैं जब चारों ओर नजर दौड़ाती हूँ तो रोमांच हो जाता है कि अभी बहुत कुछ जानना है, बहुत कुछ पढ़ना है, इस प्रकार की भावना मुझ में जगी रहती है, और मैं भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि मेरी बेटी को भी इसी भावना में जागृत रखे.

दुनिया में अनेक लोग ऐसे भी हैं जो निठल्ले बैठना पसंद करते हैं. काम की व्यस्तता नहीं होने को ही सुख समझते हैं. इसी सन्दर्भ में बहुत समय पहले मैंने रीडर्स डाइजेस्ट में एक दृष्टान्त पढ़ा था कि एक व्यक्ति किसी कार्यालय में किसी जिम्मेदार पद पर कार्य करता था. सुबह नियत समय पर ऑफिस पहुँचता था. दिन भर पूरे समय अपनी फाइलों का निबटारा करता था. कहीं जवाब देना होता, कहीं सिफारिश करनी होती, कहीं सुझाव देने होते और किसी कागज़ को फाड़ कर फेंक देना होता था. सब काम को पूरा करने के लिए शाम को उसे एक घंटा देर तक आफिस में बैठना पडता था, फिर भी कुछ न कुछ काम बाकी रह जाता था, जिसे अगले दिन के लिए छोड़ना पड़ता था. शाम को घर लौटता तो देखता कि बंगले की आहाते में दूब बेतरतीब बढ़ी हुई है, फैंसिंग की कटिंग भी फ़ैली हुई है, मकान के रंग-रोगन फीके पड़े लगते हैं, और यह सब देख कर उसे अपनी व्यस्तता पर तरस आता था. रात को भोजन के बाद वह जल्दी सो जाता है. उसे गहरी नींद आती है क्योंकि थकान से मांसपेशियां शिथिल हो जाती हैं. एक दिन नींद में उसे एक अजीब स्वप्न आता है कि वह एक आलीशान बिल्डिंग में अपनी कुर्सी पर बैठा है. सामने सुन्दर सपाट चिकनी मेज पर दो गुलदस्ते महक रहे हैं, और टेबल पर एक भी फ़ाइल/कागज़ निबटाने को नहीं है. वह बहुत प्रसन्न हुआ कि जिंदगी में पहली बार टेबल साफ़ नजर आई. वह कुर्सी से उठा, कमरे के रंग-रोगन देखे, सुन्दर चमकदार, मन पसंद थे. फिर खिडकी पर गया, बाहर झाँका, दूब बढ़िया कटी हुई थी, फैंसिंग बारीकी से सुंदरता के साथ कटी-सजी थी. उसी सपने में आगे उसकी मुलाक़ात पोस्टमैन से हुई. उसने पोस्टमैन से पूछा, मेरी कोई डाक है? तो पोस्टमैन ने उत्तर दिया, नहीं महाशय आपकी कोई डाक नहीं है. अब तो उसे ये सुखद आश्चर्य हुआ कि जिंदगी में पहला दिन निकला है जिसमें कोई काम नहीं निकला है. अचानक उसको लगा कि वह किसी अजनबी जगह तो नहीं आ गया है? उसने रोक कर पोस्टमैन से पूछा, क्या ये स्थान स्वर्ग में है? तो पोस्टमैन ने सपाट शैली में प्रत्युत्तर दिया, आपको जरूर गलत फहमी हो रही है, ये स्वर्ग नहीं नरक है.

जो लोग व्यस्त रहते हैं, पुरुषार्थ करते हैं वही स्वर्ग में हैं, और जो परजीवी-निठल्ले रहते हैं, वे नरक भोगते हैं. समय कभी लौट कर नहीं आता है, एक एक क्षण बीतता जाता है, हम उसे खोते जाते हैं. इसलिए इसका सदुपयोग करना चाहिए.

इसी सन्दर्भ में एक बात और कि तुम्हारे ज्ञान का उद्देश्य सर्वे सुखिन: सन्तु होना चाहिए ऐसा ज्ञान किस काम का जो किसी के काम ना आये? अत: उत्साह के साथ अध्ययन करती जाओ और अपने व्यक्तित्व को सदगुणों से विकसित करती जाओ. कबीरदास ने एक दोहे में लिखा है कि सज्जन लोग सूप की तरह होते है जो अच्छी बातों को ग्रहण करते हैं और बेकार की चीजों को फैंक देते हैं.

तुम्हारा प्रगति-पत्र हाल में हमें मिला. प्राप्त अंकों का प्रतिशत देख कर बहुत सुख मिला.

अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखना. मौसमी फलों का सेवन जरूर करना क्योंकि ये प्रकृति के अनुसार गुण लिए रहते हैं, शरीर में प्रतिरोधात्मक शक्तियां बनाए रखते हैं.

भैया तुमको बहुत याद करता है. अब खूब दौड़ने लगा है. आजकल तुम्हारे पापा, एक छोटा सा चितकबरा बिल्ली का बच्चा ले आये हैं. भैया उसी के साथ खेलता रहता है.

तुम्हारे पापा व भैया का प्यार.
तुम्हारी माँ.
                                         ***

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

शुभ आशीषें (माँ के पत्र -8)

                         आठवां पत्र

प्यारी बिटिया,
शुभ आशीषें.

इस बार तुम्हारे जाने के बाद घर बहुत खाली खाली लगने लगा है, पर तुम्हारे पापा ने जो मोबाइल फोन तुमको लेकर दिया है उससे जब चाहो बात हो जाती है इसलिए पत्र लिखने के लिए पहले जैसी अनिवार्यता नहीं रह गयी है. और फोन से बात करने के बाद ऐसा नहीं लग रहा है कि तुम घर से दूर हो. तुम्हारे दादा-दादी जी भी तुमको खूब याद करते रहते हैं. उनके आशीर्वाद भी सदा तुम्हारे साथ हैं. सचमुच वे बच्चे बहुत भाग्यशाली होते हैं, जिनको बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी का सानिध्य प्राप्त होता है. तुम्हारे नाना कहा करते हैं कि मूल धन से व्याज ज्यादा प्यारा होता है. यह बुजुर्गों की एक खूबसूरत मानसिकता है कि बच्चों को स्नेह व असीमित अपनापन देते हैं.

अपने देश में सामाजिक व्यवस्था में परिवार की इकाई को इतनी पूर्णता प्राप्त है कि बूढ़े, अशक्त या अपाहिज सभी के हितों की रक्षा होती है. परिवार के सुख-दु:ख व तमाम व्यवस्थाओं में सभी सदस्य किसी न किसी रूप में जुड़े हुए रहते हैं. वैज्ञानिक/मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखो तो हमारी ये सनातनी परम्परा सर्वोत्तम है.

पश्चिमी देशों में भौतिक संपदाओं के अधिक होने के वावजूद परिवार का स्वरूप बिलकुल भिन्न है, बूढ़े माता-पिता को उनके बच्चे केवल ‘Thanksgiving Day’ पर मिलने की जुर्रत समझते हैं. अपवाद भी हो सकते हैं, पर नगण्य. अधिकतर बुजुर्ग बृद्धाश्रमों में जाने को मजबूर होते हैं. अपने प्यार भरे संबंधों की हूक उन बुजुर्गों के मन में उठाती ही होगी जिन्होंने अपना बचपन दादा-दादी, नाना-नानी या चाचा-ताऊ की छाया में संयुक्त परिवारों में बिताया हो. जीवन की आपाधापी तथा भौतिकवाद के प्रभाव में अब हमारे देश के नगर/महानगरों में भी दिखने लगा है. इस विषय में अनेक समाजशास्त्री/विचारक अपने लेख, पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित करते रहते हैं.

हमारे रिश्तों में एक दूसरे के प्रति कितनी प्रतिबद्धता होनी चाहिए इसके लिए कहीं से उपदेश/आदेश की अपेक्षा नहीं होती है. अपने माता-पिता या सासससुर की सेवा का हमारा उत्तरदायित्व कोई कर्ज नहीं है, ये तो फर्ज है क्योंकि एक दिन सबको बुढ़ापा आना ही है. तुम्हारी नानी ने मुझे मेरे बचपन में एक कहानी सुनाई थी कि एक परिवार में जवान पति-पत्नी व पति के बूढ़े पिता तीन सदस्य रहते थे. पिता बीमार रहते थे, काफी निर्बल हो गए थे, जवानी में उन्होंने अच्छे दिन भी देखे थे, पर अब उनको लगने लगा कि बहू-बेटा उनकी उपेक्षा करने लगे हैं, तो वे स्वभाव से चिड़चिड़े हो गए और बात बात में बहू को अपशब्द भी कह जाते थे. स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि एक दिन बहू ने अपने पति से रोते हुए कहा कि बाबू जी बहुत दुर्व्यवहार करने लग गए हैं. मैं बरदाश्त नहीं कर पा रही हूँ. इस घर में या तो ये रहेंगे या मैं. बेटा भी बाप की ज्यादातियों का अनुभव कर रहा था, उससे पत्नी की आंसू देखे नहीं गए इसलिए बुड्ढे से छुटकारा पाने के लिए रिक्शे में बिठा कर शहर से बाहर दूर एक चबूतरे पर छोड़ कर वापस आने लगा तो बाप ने आखों में आंसू भर कर रूआंसे स्वर में बेटे को बताया कि मैं भी अपने बाप को इसी चबूतरे पर छोड़ कर गया था. बेटे को सद्-बुद्धि आई बाप को वापस घर ले आया और सामंजस्य बनाकर रहने लगे.

ये तो एक उपदेशात्मक कथानक है. वास्तव में हम जैसा व्यवहार अपने बुजुर्गों के साथ या परिवार के अन्य सदस्यों के साथ करते हैं, भावी पीढ़ी वैसे ही संस्कारित होती है. अत: बुजुर्गों का भरपूर सम्मान होना चाहिए.

एक टी.वी. चेनल पर मैंने देखा, एक मीटिंग में एक बुजुर्गवार कह रहे थे कि अपने बच्चों से हम केवल सम्मान चाहते हैं, स्नेह चाहते हैं और प्यार चाहते हैं हमें और कुछ नहीं चाहिए.

अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना. इस बार छुट्टियों में चाहो तो अपनी किसी सहेली को निमंत्रित करके यहाँ बुला लाना, पर उसके घर वालों से पूर्वानुमति जरूर ले लेना.

घर के सभी लोगों की शुभकामनायें.
तुम्हारी माँ.
                                         ***

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

शुभ आशीषें (माँ के पत्र -7)

                                               सातवाँ पत्र

प्यारी बिटिया,
सदा सुखी रहो.
अत्र कुशलं च तत्रास्तु.

तुम्हारा पत्र मिला. प्रसन्नता हुई कि तुमने खेल- कूदों में पारितोषिक प्राप्त किये हैं. सच तो ये है कि पारितोषिक से ज्यादा महत्व इनमें भाग लेना होता है. जो बच्चे खेलों में भाग लेते हैं, उनमें प्रतिस्प्रर्धा की स्वच्छ प्रबृति स्वत: आ जाती है. इसी को खेल भावना का नाम दिया गया है, बधाई है. आज इस पत्र में मैं कुछ प्रेरक प्रसंगों को लिख रही हूँ, ये मैंने तुम्हारे दादा जी के संकलनों से प्राप्त किये हैं:

यूरोप के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रूसो, जिनकी लिखी अनेक पुस्तकों को आज राजनीति के पंडित पढ़ते हैं, एक समय लायोंस नगर में घरेलू नौकर था. एक बार उसने किसी पौराणिक चित्र की गाथा घर में आये हुए विद्वान मेहमान को प्रभावोत्पादक भाषा में ऐसे समझाई कि सब आश्चर्य में पड़ गए. मेहमान ने रूसो से आदर पूर्वक पूछा, महाशय आपने किस स्कूल में शिक्षा पाई है? इस पर उसने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया, मैंने कई स्कूलों में शिक्षा पाई लेकिन मुसीबत के स्कूल में सबसे अधिक समय तक अध्ययन किया है.

एडीसन ने सिर्फ पाँच वर्ष की उम्र में अखबार बेचे. बाद में रसायन शास्त्र पढ़ना शुरू किया. इस महान वैज्ञानिक से किसी ने पूछा,  “आपकी सफलता का राज क्या है?" तब उसने बताया, मैं नशे से दूर रहता हूँ, काम के अलावा सभी बातों में संयमी रहा हूँ.

माइकल फैराडे भी बचपन में अखबार बेच कर गुजारा करते थे. सात साल की उम्र में वे एक दुकान पर जिल्दसाजी करने लगे थे.एन्साइक्लोपीडिया नाम की पुस्तक की जिल्द बाँधते समय उसकी दृष्टि बिजली सम्बन्धी लेख पर पडी. उसने उस लेख को अच्छी तरह पढ़ा और समझा फिर तदनुसार छोटा-मोटा सामान जमा करके परीक्षण करने लगा. एक ग्राहक उस बालक के परिश्रम को देख कर बड़ा प्रसन्न हुआ और वह फैराडे को तत्कालीन प्रसिद्ध विद्वान सर हम्फ्री डेवी का भाषण सुनने ले गया. माइकल ने भाषण नोट कर लिया और उस लेख को डेवी के पास भेज दिया. डेवी इतना खुश हुआ कि उस बालक को उसने अपने यंत्रों की देखभाल के लिए रख लिया. माइकल, डेवी के परीक्षणों को ध्यान से देखा करता था. कुछ समय बाद यही बालक रियल एकेडमी में अध्यापक बना दिया गया और वैज्ञानिक जगत में चमत्कार दिखाने लगा.

इंग्लैण्ड की एलीजाबेथ फ्राय नामक महिला ने अब से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले जेलों में कैदियों की, विशेषकर महिला कैदियों की बुरी हालत देखी. उन दिनों कैदियों के लिए सभ्य सँसार में भी सद्व्यवहार का कायदा नहीं था. उनका जीवन जानवरों से भी बदतर होता था. फ्राय ने इसमें सुधार करने की योजना बनाई. अपना सारा जीवन दु:खी औरतों की स्थिति सुधारने मे लगा दी. इसका जबरदस्त प्रभाव हुआ. वहाँ की सरकार ने तदनुसार सुधार के नियम बनाये और आज सारे विश्व में फ्राय की योजना लागू है.

फर्ग्यूसन नामक गडरिये के लडके ने कांच के टुकड़ों से दूरबीन बना कर तारों की दूरी का पता लगाया था.

हमारे देश के मिसाइल मैन पूर्व राष्टपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का बचपन बहुत गरीबी में बीता.

गैलीलियो का पिता उसे डाक्टर बनाना चाहता था पर वह चुपके से गणित के प्रश्नों में उलझा रहता था. अठारह वर्ष की उम्र में उसने गिरजाघर में पेंडुलम के सिद्धांत को खोज निकाला. उसने सूक्ष्मवीक्षक यंत्रों का आविष्कार करके मनुष्य जाति की महान सेवा की है.

नेपोलियन बोनापार्ट फ़्रांस का शाहंशाह था. एक दिन अपनी पत्नी के साथ पैदल घूमने जा रहा था तो रास्ते में बोझा लाते हुए एक मजदूर को रास्ता देते हुए स्वयं एक तरफ हट गया. उसकी पत्नी को उसके इस व्यवहार पर खुशी नहीं हुई, तब नेपोलियन ने उसके घमंड और शंका का समाधान करते हुए कहा कि श्रम का हमेशा आदर करना चाहिए.

फ्रांस के ही राजा लुई १४ ने अपने मन्त्री कालवर्ट से कहा कि हम इतने विशाल और धनी देश पर शासन करते हैं, लेकिन छोटे से हॉलैंड को नहीं जीत सके. इस पर मन्त्री ने कहा, महराज देश की लम्बाई-चौड़ाई से देश की महानता नहीं होती है, महानता तो देशवासियों के चरित्र से होती है.

इस तरह के सैकड़ों प्रसंग हैं जिन्हें तुम अपनी पुस्तकों में भी पढ़ती होगी. पढ़ना तभी सार्थक होता है, जब हम उनमें उल्लिखित गुणों को धारण भी करें.

दादा, दादी, पापा व भैया का बहुत बहुत प्यार. छुट्टियाँ कब से लगने वाली हैं लिखना.
तुम्हारी माँ.
                                   ***