गुरुवार, 30 अगस्त 2012

राजयोग

नंदकिशोर दीक्षित एक परम्परावादी गरीब पण्डित अपनी पुश्तैनी कर्मकांडी वृति से घर-परिवार का भरण पोषण करते थे. मध्यभारत के पूर्वी छोर पर बसा हुआ उनका कस्बा एकाएक तब सुर्ख़ियों में आया जब उसके बगल वाले इलाके में लौह अयस्क के बड़े भंडारों की खोज हुई. इन खदानों के अयस्क के शोधन के लिए बड़ा कारखाना स्थापित हो गया तो देखते ही देखते यह असीमित औद्योगिक शहर बन गया. तमाम सामाजिक मूल्य बदल गए, पर पण्डित जी का धन्धा यथावत चलता रहा. पूजापाठ, नामकरण, शादी आदि सोलहों संस्कारों को कराने में उनको दक्षता हासिल थी. वे गणित एवँ फलित ज्योतिष का भी ज्ञान रखते थे.

दीक्षित जी को अधेड़ अवस्था में तीन पुत्रियों के बाद एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. नाम रखा गया मोहन. पण्डित जी ने स्वयं अपने बालक की कुंडली बनाई. वे बहुत प्रसन्न थे कि कि बेटे की कुंडली में राजयोग था पर मोहन तो परिवार के लाड़-प्यार में ऐसा बिगड़ता गया कि आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी. दीक्षित जी चाहते थे कि वह पूजा विधान व कर्मकांड के आवश्यक मन्त्र व श्लोक याद करे, पर नहीं, वह तो उनके नियंत्रण से बाहर हो गया, एकदम आवारा हो गया. उसके राजयोग वाली बात बचपन में ही हवा हो गयी.

शहर में कोई सामाजिक या राजनैतिक कार्यक्रम होता था तो मोहन, रिक्शे /तांगे से ऐलान करने वाले के बगल में बैठकर मुफ्त में घूमने का मजा लेता रहता था. जब कभी मौक़ा मिलता था तो उसी तर्ज पर माइक पर बोलता था. ऊपर वाले ने उसे ऐसी बुलंद व ओजश्वी वाणी दे रखी थी कि वह धीरे धीरे ऐलान करने वालों को मात देने लगा. और कुछ समय बाद तो कोई भी कार्यक्रम होने पर मोहन को प्राथमिकता से ऐलान करने के लिए बुलाया जाने लगा. उसे राजनैतिक बातों की ऐसी बढ़िया समझ थी कि अपनी तरफ से नमक-मिर्च लगा कर बोल देता था. इस प्रकार अठारह वर्ष का होते होते वह एक स्थापित उद्घोषक हो गया. यद्यपि उसकी अपनी कोई दलीय प्रतिबद्धता नहीं थी, फिर भी जो भी नेता आये, जिस पार्टी का भी आये, वह उसके लिए काम करता था बदले में उसे इस काम का अच्छा दाम भी मिलने लगा था.

एक बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक का वहाँ आगमन हुआ, उन्होंने उसकी वाणी की ओज व सधी हुयी भाषा को सुना तो उस लड़के में उनको भविष्य की संभावनाएं नजर आई. उन्होंने उसे संघ का प्रचारक नियुक्त कर दिया और उसे संघ के तौर तरीकों एवँ सिद्धांतों को समझाने-सिखाने के लिए नागपुर बुला लिया. अब उसकी एक लाइन तय हो गयी तथा वह संजीदा भी हो गया.

सं १९७५ में जब देश में आपातकाल लगा तो जयप्रकाश नारायण जी के आह्वान पर जो आन्दोलन चला उसमें मोहन ने फिर जोर शोर से माइक पकड़ा और अग्रगण्य बन गया, साथ ही गिरफ्तार भी कर लिया गया. उन्नीस महीने जेल में रहा. बाहर आने पर ‘मोहन भैय्या’ एक हीरो बन गए.

सं १९७७ में जब लोकसभा के चुनावों की घोषणा हुई तो मोहन भैय्या ने खेल खेल में संयुक्त विपक्षी पार्टी से टिकट मांग लिया. बड़े बड़े दिग्गजों को पीछे छोड़कर मोहन भैय्या को लोकसभा का टिकट मिल गया और वे भारी मतों से जीत भी गए.

नई दिल्ली में गैर कांग्रेसी सरकार बनी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. बिलकुल नया प्रयोग और अनुभव था. मोहन भैय्या को जैसे अप्रत्याशित छप्पर फाड़ कर यह सब मिल गया था. अनेक स्वागत समारोह हुए. वृद्ध पण्डित नन्दकिशोर दीक्षित को सपना सा लग रहा था. बेटे की इस सफलता पर वह बार बार ईश्वर को धन्यवाद दे रहे थे.

इस ऐतिहासिक कहानी का अंत बहुत दारुण रहा. लगभग ६ महीनों के बाद मोहन भैय्या अपने एक दोस्त की मोटरसाइकिल पर बैठ कर दिल्ली में कहीं जा रहे थे, तिलक ब्रिज के पास मोटरसाइकिल दुर्घटनाग्रस्त हो गयी मोहन भैय्या के सर में गंभीर चोट आई और वे बचाए नहीं जा सके. अगर उन्होंने हेलमेट पहनी होती तो शायद ये अकाल म्रत्यु नहीं होती.

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मंगलवार, 28 अगस्त 2012

वर्जनाहीन

वर्जना का शाब्दिक अर्थ है ‘मनाही’ अथवा ‘रोक-टोक’. समाज शास्त्र में वर्जनाहीन समाज का मतलब स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में मान्यताओं की सीमाओं की छूट से लिया जाता है. हम सुनते–पढ़ते हैं कि उत्तरी यूरोप के कुछ स्कैंडिनेवियन देश, जिनमें नार्वे, स्वीडन आदि हैं, में ‘विवाह’ नाम की संस्था का महत्व खतम सा है. कामरेड स्टेलिन ने अपने समय में सोवियत रूस में बच्चों और स्त्रियों का राष्ट्रीयकरण करने का प्रयोग किया. चीन के कुछ प्रदेशों में ऐसे कबीले हैं जो मातृसत्तात्मक हैं जिनके बच्चों को डीएनए टेस्ट कराने की कोई बात नहीं होती है. विशाल अफ्रीकी महाद्वीप में भी कई मातृप्रधान कबीले होते हैं. भारत में भी कुछ आदिवासी क्षेत्रों में इसी प्रकार स्त्री प्रधान सामजिक व्यवस्थाएं चली आ रही हैं. हिमांचल के एक आँचल मे बहुपति प्रथा का चलन रहा है.

अपने को सभ्य कहने वाले समाज का बाहरी चेहरा अनेक नियम-बंधन व पाक प्रतिबद्धता पूर्वक आयने के सामने आता है, पर मनुष्य मूल रूप से एक पशु ही है, जिसे चरित्र में अनेक विद्रूपताएं हैं. दुनियाँ भर में छोटे बड़े शहरों में चकले-वैश्यालय, सैक्स रैकेट ऐसे उदाहरण हैं कि लगता है समाज का चेहरा लिपा-पुता है जिसमें असंख्य दाग छुपाये जाते हैं. वैश्यालयों को सरकारी लाइसेंस दिया जाना या थाई सरकार की तरह वेश्यावृत्ति को सरकारी उद्योग का दर्जा दिया जाना वर्जना हीनता का ही रूप है.

वर्तमान में बड़े शहरों में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव स्वरुप ‘‘लिव इन" सम्बन्धों पर समाज की अघोषित मान्यता को वर्जनाहीन कहा जाय तो गलत नहीं होगा.

नेपाल जो पहले एक घोषित हिन्दू राष्ट्र था और अब राजशाही से हटकर लोकतंत्री प्रपंच के चौराहे पर भ्रमित खड़ा लगता है, आर्थिक दृष्टि से बहुत गरीब व पिछड़ा देश है. यहाँ की लडकियों को दलालों द्वारा भारतीय बाजारों से लेकर खाड़ी देशों तक में बेचा जाता है. गरीबी बहुत बड़ा अभिशाप है. अति गरीब नेपाली पुरुष वर्ग भी भारतीय प्रदेशों की सीमाओं में आकर मेहनत-मजदूरी करते हैं. भूखे नर-नारियों के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सिद्धांत का मतलब कितना मायने रखता होगा? समझा जा सकता है.

एक छोटी सी सत्य कथा, नेपाल की ‘बिजली’ नाम की एक दलित लड़की अल्पायु में प्रेमबहादुर नाम के अपने पति के साथ विवाहोपरांत टनकपुर-सितारगंज होते हुए हल्द्वानी पहुँच जाती है, जहाँ अन्य नेपाली रिश्तेदार कुली, मजदूरी,  या रिक्शा चलाने का काम करते हैं. प्रेमबहादुर भी रिक्शा चलाने का काम करने लगता है. गुजारा नहीं हो पा रहा था इसलिए बिजली यहाँ की अन्य नेपाली स्त्रियों की ही तरह घरों में महरी का काम करने लगती है. उसके बच्चे हो जाते हैं, होते रहते हैं. एक दिन ज्यादा ठर्रा-शराब पी जाने के कारण प्रेमबहादुर मर जाता है. उसके मरने के तीन महीने बाद बिजली रणबहादुर की पत्नी बन गयी. बच्चे चाय की दुकानों-ढाबों पर काम करने लगते हैं. बड़ी लड़की मनीषा है जो जल्दी सयानी हो गयी एक सजातीय नेपाली लड़का, जो टेम्पो चलाने लगा था, उनके घर (झोपड़ा) आने जाने लगा. उसके साथ खुशी खुशी मनीषा की शादी कर दी. शादी क्या थी? जान पहचान के दस-पन्द्रह नेपाली परिवार इकट्ठा हुए खूब खाया-पिया और जयमाला डलवा दी. फोटोग्राफर बुला कर बहुत सी फोटो भी खिंचवाई गयी.

जिन जिन घरों मे बिजली काम करती है, सबने बेटी के व्याह के नाम पर रूपये देकर और गिफ्ट देकर बिजली की मदद की. कहानी का पटाक्षेप इस प्रकार होता है कि मनीषा शादी के लगभग चार महीनों के बाद पति को छोड़कर एक अन्य लड़के के साथ भागकर रुद्रपुर चली गयी है. बिजली बिलकुल भी विचलित नहीं हुई है क्योंकि उनके समाज में ऐसा होता ही रहता है.

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रविवार, 26 अगस्त 2012

रैली

घनश्याम बैरवा पिछले दस वर्षों से विधान सभा सदस्य रहे हैं. सत्तासुख लूटने का नुस्खा कोई उनसे सीखे. वे अनुसूचित जाति से थे और उनका यह विधान सभा क्षेत्र अनुसूचित वर्ग के लिए आरक्षित भी चला आ रहा था. उनकी पार्टी के प्रति वफादारी व समर्पण की बातें हाईकमांड तक सबको ज्ञात थी, फलत: तीसरी बार भी उनको पार्टी का टिकट मिल गया.

इस बार का चुनाव कुछ दूसरी रंगत का हो रहा था क्योंकि प्रमुख विरोधी पार्टी वालों ने भी एक बैरवा जाति के अध्यापक को मैदान में जा खड़ा कर दिया, जिसकी व्यक्तिगत छवि बहुत अच्छी थी.

इन दस वर्षों में घनश्याम बैरवा पूरी तरह बदल गए थे. वे संभ्रांत हो गए थे और आम नेताओं की तरह ही विलासिताप्रिय हो चुके थे. बुरा हो चुनाव आयोग का कि ठीक मई-जून के महीने में राज्य के चुनावों की तिथियाँ घोषित कर दी. राजस्थान के रेतीले इलाकों में इन दिनों पारा ४५ डिग्री के पार हो जाता है. चुनाव आयोग ने तो अपनी सहूलियत देखी, पर चुनाव लड़ने वालों की मुसीबत हो गयी. गाँव-गाँव ढाणी-ढाणी जाकर वोट माँगना बड़ा कष्टकर काम हो गया.

वोटर बहुत चतुर हो गये थे. वोटों के ठेकेदारों की भी ज्यादा नहीं चल रही थी क्योंकि हवा घनश्याम बैरवा के पक्ष में नहीं चल रही थी. यद्यपि अब वे इस फन में अनुभवी हो चुके थे और कोई कंजूसी भी नहीं बरती जा रही थी, पर जनता तो परिवर्तन चाहती है. कहने को, अपने पिछले कार्यकालों में उन्होंने बहुतों के निजी और सार्जनिक काम भी कराये थे, पर लोगों की धारणा थी कि उन्होंने उससे ज्यादा खुद खाया भी है. इस दौरान बने उनके बड़े बड़े घर-बंगलों को देखकर नजदीकी लोगों को भी ईर्ष्या होने लगी थी.

चुनावों में सिद्धांतों को कौन याद करता है? पार्टियों के घोषणापत्रों के बारे में लोग जानते हैं कि यह सब पोथी के बैगन होते हैं. जाति-बिरादरी का बड़ा हाथ होता है, पर इस बार तो दोनों प्रमुख उम्मीदवार बैरवा ही थे. सारे समीकरण गड़बड़ा गए. विपक्ष ने अपने सारे ब्रह्मास्त्र चला दिये तो घनश्याम बैरवा को चिंता होना स्वाभाविक था. उन्होंने अपनी तिजोरी खोल दी फिर भी आशंका बनी ही रही. इसलिए तय किया कि घर घर जाकर लोगों को पटाया जाये, व्यतिगत लालच दिये जाएँ, और चुनाव से ठीक चार दिन पहले बड़ी रैली शहर में निकाली जाये ताकि दुश्मन के हौसले पस्त हो जायें और हवा अपने पक्ष में बन जाये.

वे तपती धूप में गाँव-गाँव घर-घर घूमने लगे. परिणाम यह हुआ कि उनको लू लग गयी. पिछले दस वर्षों से वे गर्मियों में इस तरह कभी बाहर नहीं निकले थे. उनके निजी घर व जयपुर स्थित विधायक निवास में एयर-कन्डीशनर लगे थे. गाडियां भी ए.सी. थी, पर मजबूरी आदमी से क्या क्या नहीं कराती है. प्रचार के दौरान गधों को भी बाप कहना पड़ रहा था. सर्वसाधारण बन कर हाथ जोड़ते हुए वोटरों की लानत-मलानत सुनते हुए घूमते रहे और बीमार पड़ गए. डॉक्टरों ने बेड रेस्ट की सलाह दी और उपचार किया लेकिन ज्यों ज्यों ईलाज किया गया, मर्ज बढ़ता ही गया. 

हालत इस कदर बिगड़ गयी कि नेता जी कोमा में आ गए. बुरी हालत देखकर सबके हाथ-पाँव फूल गए. डॉक्टरों ने अस्पताल में भर्ती करने की सलाह दी, पर चुनाव मुँह बाए खड़ा था. परिवार वाले किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए. अस्पताल ले जाने का मतलब दुश्मन को उत्साहपूर्ण सन्देश देना और जनता में भी बुरा सन्देश जाने का ख़तरा होता.

हालत यह है कि नेता जी घर पर ही म्रत्युशय्या पर पड़े थे. पत्नी सिराहने बैठकर आंसू टपका रही थी, सभी के मुँह लटके हुए थे. डॉक्टर परेशान थे. एकाएक नेता जी ने आँख खोली और धीमे स्वर में बोले, “बड़ा बेटा कहाँ है?”

पत्नी ने उत्साहित होकर बताया, “यहीं आपके पताने खड़ा है.”

नेता जी ने फिर पूछा, “तीनों बेटियाँ और दामाद कहाँ हैं?”

“सब यहीं खड़ी हैं. दामाद जी भी यहीं है,” पत्नी ने कहा.

“छोटा बेटा कहाँ है?” एक बार फिर नेता जी ने व्यग्रता से पूछा.

“वह भी इधर ही है.” वह बोली.

“नेता जी ने थोड़ी आवाज बढ़ाते हुए कहा, “सब यहीं हैं तो रैली में कौन गया है? किसी को तो वहाँ रहना जरूरी था,” और वे फिर से कोमा में चले गए.

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शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

भय बिन होय न प्रीति

कुमाऊनी और गढ़वाली समाज की बहुत सी बातें अनोखी रही हैं, अभी कुछ वर्ष पहले तक वर्ण-व्यवस्था, कर्म-काण्ड, जात-पात, छुआछूत, भूतप्रेत व अन्ध विश्वासों का ऐसा जोर था कि बाहर वाले लोग एकाएक विश्वास नहीं कर पायेंगे, पर अब आधुनिकता के प्रकाश में बहुत कुछ बदल गया है.

अपने को कुलीन कहने वाले ब्राह्मण निसरौ-भिक्षा वृत्ति तो कर सकते थे, पर अपने खुद के खेतों में हल नहीं चलाते थे. (पण्डित गोविन्द वल्लभ पन्त जी ने खुद हल चला कर इस मिथक को तोड़ा था.) इसके लिए कोई शिल्पकार/दलित, ठाकुर राजपूत या कोई भूमिहार ब्राह्मण (जिसे पितलिया ब्राह्मण भी कहा जाता था) ‘हाली’ का काम करते थे.

ऐसे ही एक कुलीन वन्शौत्पन्न व्यक्ति थे नारायणदत्त पन्त. वे मामूली पढ़े लिखे थे कर्म-काण्ड वृत्ति भी नहीं सीख सके थे पर उनके पास बीस नाली बढ़िया पुश्तैनी सेरे की जमीन मण्डल सेरे में थी. जमीन पानी वाली थी.  इतना धान-गेहूं पैदा हो जाता था कि पूरे परिवार का साल भर भरण पोषण हो जाता था. उनका खानदानी हाली धनीराम इस साल चल बसा था और अब उसके परिवार में कोई ऐसा नहीं था जो नारायणदत्त पन्त के खेतों को जोतने का काम कर सके. पन्त जी बहुत परेशान रहे क्योंकि जमीन में अगर बीज नहीं बोये गए तो आगे खायेंगे क्या? ढूंढते करते एक भूमिहार ब्राह्मण शिवदत्त मिल ही गया. उसको उन्होंने कहा कि अपनी जमीन में से वे पाँच नाली पूरी तरह कमा खाने के लिए देंगे बदले में उनकी १५ नाली में भी उपज करनी होगी.

शिवदत्त गरीब आदमी था उसे इस व्यवस्था में फ़ायदा ही नजर आया और वह मेहनत के साथ खेती करने लगा. पन्त जी का अहसान मानते हुए वह पहले उनके खेतों की जुताई करता था बाद में अपने हिस्से में. कई वर्षों तक ये कार्य सुचारू चलता रहा लेकिन बाद में गाँव के कुछ ज्वलनशील लोगों ने शिवदत्त को भड़का दिया कि ‘तुम भी ब्राह्मण और पन्त भी ब्राह्मण, अब तो सब बराबर हो गए हैं, तुम उसके गुलाम बन कर उसके खेत क्यों जोतते आ रहे हो. अब तो सरकार का नया क़ानून आ गया है कि जमीन का मालिक वही है जिसके कब्जे में जमीन है.’ शिवदत्त का सिर फिर गया और उसने आगामी फसल के समय अपने हिस्से की जमीन पर तो बीज बो लिए पर पन्त की जमीन को परती ही छोड़ दिया.

पन्त ने जब शिवदत्त से इस बारे में बात की तो उसने साफ़ साफ़ कह दिया ‘अब आप अपनी जमीन खुद जोत लो.’ उसकी बेरुखी तथा मतलबफरोशी से पन्त बहुत आहत हुआ, गुस्सा भी आया, पर स्वयं शरीर से कमजोर व मन से दुर्बल था कुछ नहीं कर सका. भड़काने वाले खुश थे कि पन्त के खेत बंजर पड़े रह गए. यों दो साल गुजर गए नारायणदत्त पन्त ने अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए गोमती नदी के पुल के पास एक बिजली से चलने वाली आटा-चक्की लगा ली.

इसी बीच जब शिवदत्त ने अपनी १४ वर्षीय बेटी की पहाड़ी रीति-रिवाज से शादी की तो नारायणदत्त पन्त ने सीधे अल्मोड़ा जाकर अदालत में शिवदत्त के विरुद्ध शारदा ऐक्ट का हवाला देते हुए एक केस दर्ज करा दिया. जज साहब भी कुमाऊनी ग्रामीण परिवेश से आये थे, उन्होंने पन्त से कहा कि “यहाँ तो १८ वर्ष से कम उम्र में बेटियों की शादी करने का आम प्रचलन है, तुम ऐसी शिकायत लेकर क्यों आये हो?” पन्त ने जज साहब को बताया कि इस आदमी ने मुझे परेशान कर रखा है, मेरी जमीन पर कब्जा कर रखा है, मैं इससे सड़क पर लड़ नहीं सकता हूँ इसलिए यह कार्यवाही करनी पड़ी है. अगर आप केस को गलत मानते हैं तो खारिज कर दीजिए.”

बात क़ानून सम्मत थी इसलिए केस यों ही खारिज नहीं किया जा सकता था. राजस्व पुलिस पटवारी से पूरी विवेचना तलब की गयी तो पन्त की शिकायत सही पायी गयी. इस प्रकार शिवदत्त, उसकी पत्नी, बेटी-दामाद शादी कराने वाले पंडितों, मंगल गायन करने वाली गिदारों, और बारातियों, सभी नाम चुन चुन कर समन जारी कर दिये गए.

तहलका मचना ही था क्योंकि कानूनन सभी के जेल भेजे जाने की संभावना बन रही थी. लेकिन जज साहब इस पूरे प्रकरण में बहुत संवेदन शील रहे. उन्होंने दोनों पक्षों को बुलाया और झगड़े की तह तक गए. शिवदत्त ने माना कि उसे गाँव के कुछ चुनिन्दा लोगों ने भड़काया था और अपनी गलती स्वीकार कर ली. लिखित में बयान दिया कि भविष्य में वह नारायणदत्त पन्त के खेतों की पहले की तरह जुताई-बुवाई करता रहेगा. यह भी लिख कर दिया कि जिस दिन नारायणदत्त पन्त को दूसरा काश्तकार मिल जाएगा, या वे स्वयं काश्तकारी करना चाहेंगे वह अपने कब्जे वाले जमीन भी छोड़ देगा. नारायणदत्त पन्त ने भी कहा कि ‘वह जल्दी ही हल चलाना सीखेगा’.

इस प्रकार अदालत के बाहर समझौता बता कर केस वापस ले लिया गया.

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गुरुवार, 23 अगस्त 2012

गीत - ५

मेरे   पार्श्व   में   रहो, ओ   मेरे  मन  के  मीत
तुमसे ही मुझमें स्पंदन है, तुम्ही हो मेरे गीत.

पुष्प नहीं औ’ पत्र नहीं तुम, जिन्हें काल से है प्यार
उपमा  तेरी  अमर  प्रतिमा, मेरी कविता  हो साकार

विधि-विधान की अनुपमा, अति शुभ्रता अनुरूप
ज्यों  चकोर   को  चन्द्रमा, मन -  मंदिर का रूप

तुम नक्षत्र की वर्षा हो, तुम्ही दीप की जोत
तुम  निविड़  की आत्मा, मैं   उसमें खद्योत

झीनी पर्त पड़ी रहे  बस, तुम  तुम  ही   बनी   रहो
विलगाव रहे, अपनाव रहे तुम अपनी ही बनी रहो.

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मंगलवार, 21 अगस्त 2012

चुहुल - ३०

(१)
एक दयालु भेड़िये ने एक बकरी से कहा, “क्या तुम मेरे घर की शोभा बढ़ाने आ सकती हो?”
बकरी बोली, “मैं जरूर आती, पर मुझे मालूम है कि आपका वह सुहाना घर आपके पेट में है. क्षमा चाहती हूँ.”

(२)
एक नौकर अपने मालिक से बड़े अदब से बात करता था. वेतन बढ़ाने के लिए बोला, “सर, मेरी पत्नी कहती है कि वेतन बढ़ाने के लिए आपसे निवेदन करूँ.”
सेठ जी बोले, “ठीक है मैं भी अपनी पत्नी से पूछ कर बताऊंगा.”

(३)
एक स्टेज
आर्टिस्ट से पत्रकार ने कहा, “आपने नाटक में दब्बू पति की बहुत स्वाभाविक एक्टिंग की है.”
कलाकार का संक्षिप्त उत्तर था, “इसका पूरा श्रेय मेरी पत्नी को जाता है.”

(४)
एक महिला, अपनी छोटी सी बेटी के बारे में, अपने दार्शनिक पति को खुशी खुशी बताने लगी, “अपनी पिंकी ने चलना शुरू कर दिया है.”
पति ने व्यग्रता से पूछा, “कब से?”
“एक महीना हो गया.”
पति चिंतातुर होकर बोले, “तब तो अभी तक वह बहुत दूर पहुँच गयी होगी.”

(५)
एक लड़का अपनी प्रेमिका से मिलने उसके घर जा पहुँचा. लड़की की माँ ने दरवाजा खोला. वह जानती थी कि आगंतुक उसकी बेटी का दोस्त है. उसने बेटी को आवाज दी और दोनों को बैठक में बैठने को कहा, खुद रसोई में काम करने लगी.
लड़की का सात साल का भाई आकर दोनों के बीच में बैठ गया. लड़की चाहती थी कि वह वहाँ से कहीं चला जाये. इसलिए बोली, “देख, बाहर तेरे दोस्त आये हुए हैं. तुझे खेलने के लिए बुला रहे हैं.”
इस पर भाई बोला, “मम्मी ने कहा है कि जब तक ये बदमाश यहाँ है तू कहीं मत जाना.”

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रविवार, 19 अगस्त 2012

राजनीति में वंशवाद और परिवारवाद

डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बन जाये, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर बन जाये, वकील का बेटा वकील बन जाये, या अध्यापक का बेटा अध्यापक बन जाये तो इसे कोई भी परिवारवाद की संज्ञा नहीं देता है और ना ही किसी को सार्वजनिक रूप से जलन होती है. लेकिन अगर किसी राजनैतिक नेता का बेटा या बेटी राजनीति में घुस जाये तो सबको खलता है क्योंकि हमारे देश में राजनीति एक बहुत बढ़िया व्यवसाय बन गया है, जिसमें कोई शैक्षिक योग्यता नहीं चाहिए, ना ही उम्र का कोई तकाजा है.  मजेदार बात यह भी है कि इसमें सेवा निवृत्ति यानि रिटायरमेंट की भी कोई उम्र तय नहीं है. कब्र में पैर लटकने तक नेता लोग कुर्सी मोह नहीं छोड़ पाते हैं.

आजादी से पूर्व नेताओं ने बहुत संघर्ष किये, यातनाएं पाई. उनमें त्याग व बलिदान का जबरदस्त जज्बा था लेकिन इन ६५ वर्षों में आते आते वह सारी जनसेवा की भावना लुप्त हो गयी है. बचे हुए अधिकतर पुराने नेता लोग अपने योगदान की कीमत वसूलने में कोई कसर नहीं करते हैं. जो गुजर गए उनकी अगली पीढियाँ भरपूर लाभ ले रही हैं.

नई पीढ़ी जानती है कि इस लाभ के धन्धे में किसी प्रकार की हींग या फिटकरी लगाए बिना मलाई मिलती रहती है इसलिए राजनैतिक दलों के दलदल में सीढ़ियां तलाशने का काम स्कूल-कॉलेज से ही शुरू हो जाता है. यह भी सच है कि कई प्रतिभाशाली तो अपने जिद्दोजहद से प्रकाश में आते हैं और कुछ अपनी विशिष्ट जाति-बिरादरी का लाभ उठाते हैं, पर सबसे ज्यादा लाभ उठाने वाले वे हैं जो किसी नेता कुल में पैदा होते हैं. राजनैतिक बिसात में उनके नाम की कुर्सी पैदा होने से पहले से इन्तजार करती है.

इंदिरा गाँधी के सत्ता में आने के बाद उनसे विरोध रखने वालों ने सबसे पहले परिवारवाद का नारा बुलंद किया था क्योंकि उनके पिता जवाहरलाल बड़े नेता थे. इंदिरा जी के शहीद होने के बाद जब कांग्रेस पार्टी ने राजीव गाँधी को अपना नेता चुना तो विरोधियों ने इस नारे को और बुलंद किया. वे सत्ता में अनुभवहीन थे. उनके एक अन्तरंग साथी विश्वनाथ प्रतापसिंह ने उनको बोफोर्स के गुलेल से मार कर स्वयं सत्तानासीन हो गए पर ज्यादा  दिन नहीं चल सके. राजीव गाँधी फिर से लोकप्रिय हो रहे थे, पर इसी बीच वे भी शहीद हो गए. कॉग्रेस पार्टी अपने को अनाथ महसूस करने लगी. सोनिया गाँधी की अनिच्छा के बावजूद पार्टी की कमान उनको संभला दी गयी. इतिहास गवाह है कि इस दौर में वह विदेशी मूल की होते हुए भी सभी भारतीय नेताओं पर भारी पडी हैं. विशेषता ये भी है कि उन्होंने खुद को पूरी तरह भारतीयता के रंग में रंग लिया है. वे भारतीय परिधान पहनती हैं और साफ़ साफ़ हिंदी बोलने लगी हैं. उनका पुत्र राहुल को सत्ता का युवराज कहा जाने लगा है. लेकिन जो लोग राजनैतिक कारणों से इस परिवार से खलिश रखते है पानी पी पी कर इस खानदान को परिवारवाद के नाम पर गालियाँ देते रहते है. जबकि, कुछ वामपंथी दलों के नेताओं को छोड़कर लगभग सभी पर परिवारवाद के कलंक लगे हुए हैं.

समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायमसिंह के परिवार के लगभग बीस छोटे बड़े सदस्य केन्द्र या उत्तर प्रदेश की कुर्सियों पर विराजमान हैं.

अकाली दल के प्रकाशसिंह बादल के एक दर्जन पारिवारिक लोग कुर्सियों पर काबिज हैं.

हरियाणा में स्वर्गीय देवीलाल के पुत्र चौटाला जी और उनके बेटे कुर्सियों पर हैं.

कश्मीर में स्व. शेख अब्दुला के बाद उनके बेटे फारूख अब्दुला और उनके भी बेटे उम्र अब्दुला क्रमश: केन्द्र व राज्य में काबिज है.

कश्मीर में ही विरोधी नेता महबूबा मुफ्ती अपने पिता भूतपूर्व केन्द्रीय गृह मन्त्री की विरासत की मालकिन हैं.

हिमांचल के भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान मुख्यमंत्री के पुत्र अनुराग ठाकुर राष्ट्रीय युवा मोर्चा संभाल रहे हैं.

हरियाणा के दो भूतपूर्व बड़े नेता चौधरी बंशीलाल व भजनलाल के वंशज राजनीति में सक्रिय हैं.

बिहार के राजद के बड़े नेता लालूप्रसाद ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को चूल्हे से सीधे मुख्यमन्त्री बनाया. उनकी दो साले भी राजनीति मे अग्रणीय हैं.

स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी के पुत्र, गोविन्दवल्लभ पन्त के पुत्र-पौत्र, मध्यप्रदेश के शुक्ला बन्धु अपने पिता की विरासत को लंबे समय तक संभालते रहे थे.

उत्तराखंड के वर्तमान मुख्यमन्त्री अपने पिता हेमवतीनंदन की लीक पर हैं, उनकी बहन भी उत्तरप्रदेश में कॉग्रेस की कमान सम्हाले हुई है

चौधरी चरणसिंह के पुत्र एवँ पौत्र उनके बताए मार्ग पर प्रशस्त हैं.

वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, बाबू जगजीवनराम की बेटी हैं.

हारे हुए राष्ट्रपति उम्मीदवार संगमा लोकसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं. बेटे को आसाम मे राज्य विधान सभा में और बेटी को लोकसभा मे स्थान दिला कर आगे की रह तक रहे हैं.

मध्यप्रदेश के राज घराने वाले सिंधिया परिवार की पीढ़ियां राजनीति की अग्रिम पंक्ति में सक्रिय रही हैं.

दक्षिण मे तमिलनाडू में करुनानिधि पुत्र एवं पुत्री, भतीजे व अन्य रिश्तेदारों के साथ बदनामी झेल रहे हैं.

केरल मे स्वर्गीय करुणाकरण ने पुत्र मोह मे बहुत खेल किया, और पार्टी से विद्रोह किया.

कर्नाटक में स्वनामधन्य हरदनहल्ली देवेगौड़ा के उखाड़ पछाड़ में उनके बेटे का मुख्यमंत्री बनना और हटाया जाना ज्यादा पुराना नहीं हुआ है.

आन्ध्र में फिल्मों से आये राजनेता/मुख्यमन्त्री एन.टी.आर की विरासत में पत्नी लक्ष्मी और दामाद चंद्रबाबू नायडू के राजकाज की बातें अब भी लोगों को याद हैं.

आंध्र में ही पूर्व मुख्यमन्त्री राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन के हक की लड़ाई केवल कुर्सियों के लिए चली है.

झारखंड में शिबूसोरेन का व उनके बेटे का राजनीतिक दांवपेंच सिर्फ कुर्सी के लिए चलता रहा. वहां कोई सिद्धांतों की बात नहीं है.

शिवसेना प्रमुख बाला साहब का पुत्र-पौत्र प्रेम और राजनीति में परिवारवाद का प्यारा उदाहरण है.

एन.सी.पी. नेता शरद पवार की बेटी राज्यसभा में और भतीजा विधान सभा में उनके आदर्शों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.

महिला आयोग की वर्तमान अध्यक्षा ममता शर्मा के ससुर लंबे समय तक राजस्थान में कई विभागों के मन्त्री रहे थे.

राजस्थान के वर्तमान गृहमंत्री शांति धारीवाल के पिता भी अपने समय में बड़े नेता थे. इस प्रकार के तो अनेक बेटे अपने बाप या दादा की वसीयत को सम्हाले हुए है.

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, हरीश रावत, यशपाल आर्य, भूपेंद्रसिंह हुड्डा, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री कल्याणसिंह, इन सबके बेटे लाइन में हैं. और किस किस का नाम लिया जाये, सैकड़ों खानदानी नेता जिनके रगों में सिर्फ राजनीति बहती है. वरुण गांधी और उनकी माँ मेनका अब भारतीय जनता पार्टी की अग्रिम पंक्ति में आ चुके हैं, पर इन पर परिवारवाद का आक्षेप सुनने को नहीं मिलता है क्योंकि विपक्षी होने का लाभ इनको प्राप्त है. हाँ, सोनिया गांधी सबके निशाने पर हैं इसलिए उनके और उनके बेटे राहुल पर परिवारवाद का ठप्पा लगाना बहुत सुविधाजनक है. एक प्रबुद्ध नेता बोल रहे थे कि “अब परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं है. जनता बुद्धिमान है, अपना वोट देकर पार्लियामेन्ट में भेजती है. कल को मेरा बेटा या पोता चुनाव लड़ना चाहेगा तो कौन रोक सकता है, यह जनतंत्र है.”

सिद्धांत यह है कि मेरा विकल्प मेरे ही परिवार में से आएगा.


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शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

पण्डित नरोत्तम

अब से ७५ वर्ष पहले उत्तराखंड का बागेश्वर एक छोटा सा कस्बा हुआ करता था. इलाके का बाजार यही होता था. तब ना बिजली थी और ना ही मोटर मार्ग. अब तो यहाँ डिग्री कॉलेज है, तब केवल एक प्राइमरी स्कूल होता था. बागेश्वर अलग से जिला भी बना दिया गया है, जिसका मुख्यालय बागेश्वर शहर बन गया है. पुराने सँकरे बाजार, शिवालय (जो चंद राजाओं के समय का बना था) और सरयू-गोमती का संगम तो लगभग नहीं बदले है, पर शहर सब तरफ उपजाऊ खेतों (सेरों) को लील गया है. ऊपर पहाड़ियों/टीलों पर नवनिर्मित सरकारी कार्यालयों की जगमगाहट है और चहुँ ओर बाजारीकरण हो गया है. तब व्यापार पर स्थानीय साह लोगों का वर्चस्व था अब व्यापार के नए खिलाड़ी सिंधी-पंजाबी व ग्रामीण आँचल के नव धनाड्य शहर के मालिक हो गए हैं.

अंग्रेजों ने समाज मे अपनी पैंठ बनाने के लिए कुछ गण्यमान्य लोगों को उपाधियां दे रखी थी तथा चुनिन्दा लोगों को महत्व दे रखा था. बागनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी पूना रावल बहुत सुलझे हुए, धाकड़ और ईमानदार व्यक्ति थे. प्रशासन में उनकी तूती बोलती थी. अल्मोड़ा के जिला प्रशासन में बैठे लोग उनकी बात/सिफारिश नहीं टालते थे. आसपास ग्रामीण क्षेत्र के लोग यह बात अच्छी तरह जानते थे.

पुरकोट गाँव के नरोत्तम पांडे के बाप-दादे बरसों पहले काली कुमाऊं लोहाघाट की तरफ से पलायन करके यहाँ आ बसे थे. जंगल, घास लकड़ी व पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था इसलिए गाय-भैंस पालने वाले ये बिरादर अपनी मेहनत व जुझारू स्वभाव के कारण जंगल के इस घाटीनुमा गाँव में व्यवस्थित हो गए. यह एक परम्परागत सुप्त गाँव था. देश की आजादी के आन्दोलन की बयार यहाँ तक नहीं पहुंची थी पर पढ़ाई लिखाई के फायदों के बारे में कुछ लोग जागरूक जरूर हो चले थे. गाँव के दो अलग अलग परिवारों के दो लड़कों को उनके बड़े भाइयों के निर्देश पर पढ़ने के लिए घर से १८ मील दूर कांडा मिडिल स्कूल में राशन सहित भेज दिया गया क्योंकि उससे नजदीक में कोई मिडिल स्कूल नहीं हुआ करता था. आज तो हर दो कदम पर हाईस्कूल बना दिये गए हैं.

अपनी तरह के अन्य प्रवासी विद्यार्थियों की तरह ही वे भी घर से हर माह अपना राशन ले जाते और पढ़ाई करते थे. उन दिनों हर विद्यार्थी को यह श्लोक रटाया जाता था:
श्वान निद्रा, बको ध्यानम, काक चेष्टा तथैव च
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पञ्च लक्षणंम.
मिडिल की पढाई दर्जा सात तक होती थी, मिडिल पास हो गया तो बड़ी बात होती थी. जब लड़के बाहर की दुनिया में अपनी खिड़की खोलते हैं तो कई नई नई बातें जानकारी में आती हैं. दोनों लड़के शिक्षक प्रशिक्षण के लिए बहजोई सेंटर में गए और शिक्षक बनकर गाँव लौट आये. गाँव के दो लड़के पंडित हो गये थे, ये बहुत बड़ी उपलब्धि थी.

अब डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूलों में नौकरी पाने के लिए पूना रावाल साहब की सिफारिश चाहिए थी इसलिए दोनों लड़के अपने बड़े भाइयों सहित थैला भर कर शाक-सब्जियां और एक-एक घी का चौथाई (१/४ टिन कनस्टर) लेकर बागेश्वर नन्दीगाँव पहुँचे. रावल साहब नंदीगाँव में रहते थे. कहते हैं के नंदीगाँव की जमीन शिव के वाहन नन्दी के चरागाह के रूप में थी, पर अब तो वहाँ भी ईट और पत्थरों का जंगल अर्थात शहर के पंख आ गए हैं.

पांडे लोगों को घी के टिन व सब्जी के थैले लाने पर रावल साहब ने पहले तो बहुत नाराजी जताई, पर बाद में भेंट स्वीकार कर ली क्योंकि लाने वालों ने कहा कि ‘अपने घर से लाये हैं, कहीं से खरीद कर नहीं लाये हैं.’ रावल साहब ने दोनों को दो-दो लाइन का पत्र लिख कर दिया और कहा कि ‘अल्मोड़ा जाकर डिप्टी साहब को पेश करो.’ तदनुसार वे लोग अल्मोड़ा गए,  डिप्टी साहब ने दोनों को नियुक्ति पत्र देकर कृतार्थ किया. वेतन बता दिया कि प्रति माह सात रूपये मिला करेंगे. एक को जागेश्वर धाम के निकट पनुआनौला और दूसरे नरोत्तम पंडित को पिण्डारी ग्लेशियर की तरफ आख़िरी स्कूल सामा जाने को कहा. स्कूलों के बड़ी दुर्दशा थी. पनुआनौला में तो फिर भी जंगल में एक कमरा बना हुआ था; आठ-दस लड़के पढ़ने वाले भी थे, पर सामा में एक ग्वाड (कच्ची गोशाला) का नाम स्कूल रखा था. गाँव एकदम पिछडा हुआ, परगना दानपुर का अन्तिम छोर. सब दनपुरिये अनपढ़, शिक्षा के महत्त्व से अनभिज्ञ. पंडित नरोतम पांडे ने प्रधान से बात की, और बड़ी मुश्किल से पाँच सयाने  लड़के पढ़ने के लिए राजी किये. हालत यह कि लड़कों के पास कापी पेंसिल तो दूर, लकड़ी की पाटी और खड़िया भी उपलब्ध नहीं थी. पंडित जी को अब बिलकुल नए सिरे से धरातल के नीचे की सोच को ऊपर उठाना था. वे परेशान रहे पर नौकरी तो नौकरी ही थी, यह समझ कर दिन निकालने लगे.

अपने घर से लगभग २४ मील दूर, हफ्ते में एक बार आना-जाना बहुत कष्टकर होता था. रास्ता बहुत ऊबड़-खाबड था, बीच बीच में जंगल पड़ते थे इसलिए जंगली जानवरों का खतरा भी बना रहता था. तीन महीने बीत गए अभी पहली तनखाह भी नहीं मिली थी, पंडित नरोत्तम परेशान रहने लगे उनके मन मे विचार आया कि डिप्टी साहब को सब हालात बताई जाये और बागेश्वर के निकट बदली के लिए निवेदन किया जाये. एक कॉपी के पन्ने में गाँव वालों की तरफ से खुद मेजर नामा लिखा कि ‘नरोत्तम पांडे बहुत अच्छा मास्टर हैं लेकिन इनका घर दूर होने के कारण इनको आने-जाने में बहुत परेशानी होती है, सप्ताह में घर आने जाने में तीन चार दिन लग जाते हैं. यह ब्राह्मण आदमी हैं यहाँ गाँव मे रहने व खाने-पीने में भी दिक्कत होती है. इसलिए इनकी बदली बागेश्वार के आसपास किसी स्कूल में कर दिया जाये.’ गाँव वालों की तरफ से खुद ही पंडित जी ने स्याही युक्त १०-१५ अंगूठे टेक दिये और कपकोट पोस्ट ऑफिस में जा कर डाक में डाल आये. डाकखाने में पिछले दो महीनों की तनखाह का मनीआर्डर भी आये हुए थे, बहुत खुशी हुई. लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रही क्योंकि उनकी बदली चाहने की कार्यवाही के फलस्वरूप उनको नौकरी से हटाने के आदेश आ गए.

पंडित नरोत्तम पांडे दिल हार कर अपने सामान सहित अपने घर लौट आये और अपने पुश्तैनी धन्धे खेतीबाड़ी में लग गए. फिर कभी नौकरी की तलाश में दुबारा नहीं गए.

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बुधवार, 15 अगस्त 2012

शतनाम

जिस तरह से विष्णु सहस्र नाम का श्रोत्र लिखा गया है, उसी तरह से अगर कोई राजनीतिशास्त्र का विद्यार्थी हमारे आदरणीय प्रधान मन्त्री श्री मनमोहन सिंह के शतनाम लिखना चाहेगा तो उसे अनेक सुन्दर उपमान और समानार्थक शब्द आसानी से मिलते जायेंगे. शुरू किया जाये; निर्विकार, नाकारा, निच्छल, निरुत्साही, निराधार, अक्षम जैसे आवरणों से एक ऐसे राष्ट्रीय नेता की छबि सामने आती है, जो लगता है ‘अपश’ है, प्लास्टिक के गुड्डे की तरह स्थाई भावाव्यक्ति--मुस्कराहट व भींची आवाज से नवाजा गया हो. लीक पर पड़े रहना, किसी की मेहरबानियों का भारी भरकम ‘पगड़ा’ सर पर ढोते हुए अनिश्चय के बोझ तले बोल बोलना, महान देश के महान सपूतों की विरासत को धकेलते हुए, यथास्थिति कृतित्व के पोषक, मजबूर व्यक्ति कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा.

इतिहास में कोई आलोचक उनको ‘घोंघावतार’ या ‘कच्छप मुनि’ कह कर याद करेगा . वे ज्ञानी-ध्यानी और पी.एच.डी. अर्थशास्त्री हैं. देश की आर्थिक दिशा तय करने में उनका योगदान सारी दुनिया के विकासोन्मुख देशों को मार्गदर्शन करता है लेकिन यह सच है कि जब पूरे विश्व मे मन्दी छाई हुयी है तो यहाँ चमक कैसे आ सकती है? सब तरह घाटा और कर्जा ही कर्जा है. देश के कई अन्नदाता आत्महत्या करने को मजबूर हैं.

बीसवीं व इक्कीसवीं सदी के संक्रमणकाल में जवान स्वतंत्र भारत के ‘जेट विमान’ को बैलगाड़ी की तरह हांकने का अध्याय उनके नाम लिखा जाएगा. उनकी रोबोटीय छबि पर विपक्षी राजनैतिक नेतागण, चाहे वह धाकड़ महत्वाकांक्षी राजनीति के पण्डित अडवानी जी हों या चवन्नी छाप कोई राष्ट्रीय/क्षेत्रीय नेता, चटाखेदार चुटकियाँ ले कर तालियाँ बटोर लेता है. हाल में हुए दोनों आन्दोलनों के सिपहसालारों ने उनको ‘महँगाईद्योतक’ ‘भ्रष्टाचार संगरक्षक’ यहाँ तक कि ‘धृतराष्ट्र’ की संज्ञा दे डाली है. यह ‘राजनैतिक अजान पढ़ने वाले’ अपनी नक्कारखाने में बजाई हुई तूती को आम लोगों के के गले उतारने में सफल रहे हैं.

हे स्वनाम धन्य, लोगों को मालूम है कि आपका स्वाथ्य बहुत अच्छा नहीं रहता है, पर आदरणीय आप अपने हित में और राष्ट्रहित में किसी इंकलाबी को जिम्मेदारी देकर रुखसत तो हो ही सकते हैं. नए समीकरण बनेंगे, एकाएक नया जोश उभर कर सामने आएगा. खास फ़ायदा यह होगा कि जो लोग इन्द्रप्रस्थ पर पत्थर व कीचड़ उछाल रहे हैं, उनकी बोलती बन्द हो जायेगी.

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मंगलवार, 14 अगस्त 2012

दानी

चिंतामणि दानी केवल नाम के दानी हैं. वे किसी को भी मुफ्त में कुछ भी दान देना पाप समझते हैं. ऐसा नहीं है कि उनके पास धन संपदा की कमी रही हो, उनकी अपनी मान्यता रही है कि ‘देने वाले परमेश्वर ने सबको उनके पिछले जन्मों के कर्मों के अनुसार दिया है. किसी को कम दिया है अथवा किसी को कुछ भी नहीं दिया है. यह तो विधि विधान है, इसमें दखल नहीं देना चाहिए.’ अगर कोई भिखारी उनके घर-आँगन में टपक पड़े तो वे प्यार से खुले शब्दों में उससे कह देते हैं कि “नहीं भाई मैं तुम को कुछ भी नहीं दे सकता हूँ. वो ऊपरवाला सब देख रहा है. उसने तुमको कुछ नहीं दिया है, अगर मैं उसके दिये अपने धन में से तुमको कुछ दूंगा तो वह मुझ से भी नाराज हो जाएगा, इसलिए तुम यहाँ से चले जाओ.”

भिखारियों को ये तर्क अथवा दर्शन कहाँ समझ में आता? वे या तो पेशेवर होते हैं, या मजबूर. खैर ‘तू एक पैसा देगा, वह दस लाख देगा’ वाला फार्मूला दानी जी को कभी भी रास नहीं आया. ये बात भी नहीं कि दानी जी आस्थावान नहीं हैं, वे नित्य पूजा-पाठ करते हैं, हरिनाम जपते हैं, घंटों ध्यान-जप करते रहते हैं, और अपने नित्य नियमों में ईमानदार रहते हैं. घर में सौम्य सती-सावित्री सी सुन्दर गृहिणी अम्बा देवी है जो व्यवहारिक तथा भावनात्मक रूप से उनकी सच्ची अर्धांगिनी है. बस कमी है तो केवल यही कि भगवान ने उनके खाते में कोई औलाद नहीं लिखी है. अब दोनों की उम्र सत्तर साल के पार हो चुकी है. यह ईश्वर की मर्जी रही होगी ऐसा वे सोचते हैं. आसपास गाँव बिरादरी में अनेक लोग औलाद होने के कारण दुखी भी रहते हैं इसलिए भी वे सोचते हैं कि ‘भगवान जो करता है, भले के लिए करता है.’

नाप व बेनाप सब मिलाकर करीब डेढ़ सौ नाली जमीन उनके नाम राजस्व रजिस्टरों में दर्ज है. पिछले बंदोबस्त के समय उन्होंने पटवारी-अमीन से कहकर अपनी जमीन से लगती हुयी जंगलात की खाली पड़ी टीलों पर की जमीन भी अपने नाम करा ली थी. तब उत्तराखंड बना नहीं था और जमीन का कीमतन महत्व नहीं भी नहीं हुआ करता था. उस भू-भाग में बरसात के दिनों मे घास-सुतर उग आता है जिसे जानवर पालने वाले काटकर ले जाते हैं. पर जब से उत्तराखंड अलग राज्य बना जमीन के भाव सोने के भाव की तरह उछलने लगे हैं, विशेष कर उन जगहों की जहाँ से हिमालय के दर्शन होते हैं.

ये किस्सा तब का है जब उत्तराखंड बनने वाला था स्थानीय लोगों तब ऊसर जमीन का कोई मूल्य नहीं समझते थे. पहाड़ के बाहर के लोगों ने पूरी शिवालिक रेंज पर जमीन की खरीद का कारोबार शुरू कर दिया था तभी राज्य सरकार ने क़ानून बनाया कि ‘राज्य के बाहर का भारतीय नागरिक केवल मकान की हद तक की जमीन ही खरीद सकता है.’ इधर स्थानीय भूमाफियों ने भी अपनी दस्तक दी है.

चिंतामणि दानी के पास एक दिन एक अजनबी व्यक्ति आया. उसने बताया कि वह लखनऊ से आया है. उसने अपना नाम भी बताया था. पर दानी जी को वह याद नहीं रहा. उसने दानी जी से उनकी उत्तर मुखी पहाड़ी पर की ऊसर जमीन खरीदने की इच्छा जाहिर की. उस जमीन का क्षेत्रफल पूरी बीस नाली है. वह तप्पड अब तक ‘गाज्यो का मांग’ (बरसाती घास उगने वाली जगह) कही जाती थी. यद्यपि उस जगह की दानी जी ने घेराबंदी कर रखी थी पर वर्तमान में उनके कोई उपयोग में नहीं आ रही थी. घास काटने वाली औरतें घास काट कर ले जाती थी, या जानवर पालने वाले लोग इसे चारागाह की तरह इस्तेमाल कर रहे थे.

आगंतुक का प्रस्ताव सुन कर दानी जी के मुँह में पानी आ गया और मुँह फाड़ते हुए बोले, “एक लाख रूपये प्रति नाली लूंगा.” इस पर आगंतुक ने बड़ी शालीनता से बिना भाव-ताव किये ही अपनी अटैची में से एक एक लाख रुपयों की बीस गड्डिया निकाली और दानी जी की चारपाई पर रख दी. सब अप्रत्याशित हो गया. आगंतुक वहाँ ज्यादा देर नहीं रुका. बिना कोई लिखा-पढ़ी किये ही जाने लगा बोला, “मैं जल्दी वापस आकर इसका बेनामा करवा लूंगा.” उसको वापस हल्द्वानी की राह पकड़नी थी इसलिए वह नमस्कार करके चला गया.

चिंतामणि दानी ने इतनी बड़ी रकम पहली बार देखी थी. वे नोटों की गड्डियों को बार बार गिन रहे थे. उन्होंने पत्नी अम्बा को सब कह सुनाया तो वह भी खुश हो गयी. बेकार पड़ी हुई पुरानी बेनाप की जमीन इतने रूपये दे जायेगी उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था. अगले दिन दानी जी अल्मोड़ा जाकर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के अपने बचत खाते में जमा कर आये. तत्पश्चात उस खरीददार के आने का इन्तजार करते रहे. पर वह तो लौट कर दुबारा आया ही नहीं. एक महीने बाद ग्रामसेवक की सलाह पर उन्होंने पूरा बीस लाख रुपया फिक्स-डिपाजिट खाते में डाल दिया. पन्द्रह साल बीत गए हैं अब तक चार बार उसे रिन्यू करा चुके हैं. ब्याज सहित रकम काफी बड़ी हो चुकी है पर ना जाने क्यों रकम देने वाले की कोई खोज खबर नहीं मिली.

उम्र के इस आख़िरी पड़ाव पर चिंतामणि दानी पशोपेश में हैं कि उस अनजान आदमी के अमानत का क्या किया जाय? कभी कभी उनके मन में आता है कि इस पूरी राशि को किसी अच्छी शिक्षण संस्थान अथवा आरोग्य संस्थान को दे दी जाये, लेकिन बात यहाँ आकर रुक जाती है कि उन्होंने खुद अपने धन का कभी दान नहीं किया है और अब पराये धन को कैसे दान कर सकते हैं?

इस बारे में अम्बा देवी से सलाह ली तो उसने कहा, “इस जमीन को ग्राम सभा को इस शर्त पर लिखित करने के बाद सोंप दिया जाय कि "कभी जमीन का वह हकदार लौट आये तो उसको हस्तांतरित कर दी जाय अन्यथा ग्राम सभा इस भू-भाग पर वानकी कार्य कराती रहे.” दानी जी को यह सुझाव बहुत पसंद आया, तदनुसार कार्यवाही चल रही है. पति पत्नी के जीवन के बाद पैतृक जायदाद भाई भतीजों की हो जायेगी पर बैंक में रखे रूपये परमार्थ /लोककल्याण की योजनाओं में लगाने हेतु प्रशासन से संपर्क में हैं. वे अब सचमुच दिल से दान करने की इच्छा रखते हैं.
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रविवार, 12 अगस्त 2012

जिह्वा

रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग-पाताल
आपहु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल.
रहीम खानखाना का यह दोहा कई सदर्भों में सटीक बैठता है. मनुष्यों की पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं तथा पाँच ही ज्ञानेन्द्रियाँ. पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में रस-रसना वाली जिह्वा अनूठी है. इसका कार्यक्षेत्र भी बहुत बड़ा है. जिह्वा ना हो तो बाकी सब बेकार होता है.

ऐनेटमी के हिसाब से जिह्वा के कई केन्द्र हैं, जो सीधे सीधे दिमाग से जुड़े हुए हैं. खट्टा, मीठा, नमकीन, कसैला, कडुवा आदि नौ रसों की पहचान यही करते हैं तदनुसार मुँह मे लार पैदा होती है. जिह्वा बिना हड्डी वाला रबर सा नाजुक यंत्र है जो मनचाहा पलटता है और भोजन को अन्दर बाहर करता है. इसके नीचे छोटे छोटे गह्वर हैं जो सीधे लीवर से जुड़े होते हैं, यही नहीं इसका एक रास्ता सीधे हृदय में भी खुलता है. हृदय रोगियों को फौरन राहत देने, रक्तवाहनियों का संकोचन दूर करने के लिए एलोपैथी चिकित्सा पद्धति में 'सॉर्विट्रेट’ की गोली जीभ के नीचे रखने को कहा जाता है, जो कुछ ही सेकेण्ड में अपना असर दिखलाती है.

डॉक्टर, वैद्य और हकीम जिह्वा देखकर अनुमान लगा लेते हैं कि मरीज के पेट अथवा बुखार का क्या हाल है? सफ़ेद, मोटी या मैल जमी हुई जीभ अन्दर का सारा हाल बयान कर देती है. जीभ को ठंडा व गरम पदार्थ को सहने की गजब की क्षमता रहती है. कभी कभी पेट की खराबी से इसमें छाले उभर आते हैं, डॉक्टर पेट की सफाई व विटामिन ‘बी’ की कमी बताते हैं.

दांतों के मजबूत किले में कैद रहने वाली जिह्वा अपने को स्वयं सुरक्षित रखती है, मुँह के अन्दर के घाव भरने के लिए लार में प्रतिरोधात्मक क्षमता भी रहती है, पर जो लोग दांत व मसूढों की कायदे से सफाई नहीं करते हैं, वे अपनी जिह्वा को गन्दगी में रहने को मजबूर करते हैं. जिह्वा भी उनसे बदला लेने में देर नहीं करती है, उस गन्दगी को आमाशय में धकेल देती है. फलत: कई तरह के अंदरूनी रोग होने लगते हैं.

जिह्वा रस-रसना को लालायित रहती है. कोई भी खुशबूदार भोजन या रसीली खाद्य वास्तु सामने हो तो मुँह में पानी आ जाता है, यह जिह्वा का ही कमाल होता है. जिह्वा के कार्यपालन में एक अतिरिक्त अहम इन्द्रिय का भी योगदान होता है, इसे ग्यारहवीं अथवा उभय इन्द्रिय भी कहा जाता है, वह है ‘मन’. मन अगर असहयोगी हो तो जिह्वा अपना धर्म छोड़ देती है. पराशक्ति द्वारा सभी जीवों को जिह्वा से नवाजा गया है. कुत्ता, ऊँट, मेंढक आदि कई प्राणियों की जीभ बहुत लम्बी पायी जाती है. साँपों में तो जिह्वा श्रवण यंत्र का भी काम करती है. मनुष्यों के लिए जीभ के साथ ही वाक् यंत्र की भी संरचना की गयी है इसलिये हम अपनी आवाज को कई तरह से निकाल सकते हैं. कुछ अन्य जीवों को भी श्वर यंत्र दिये गए हैं, पर वे हमारी तरह बोल नहीं पाते हैं क्योंकि उनकी जिह्वा हमारी तरह काम नहीं करती है. तोते व उल्लू भी भिन्न भिन्न आवाजें निकाला करते हैं. पौराणिक गाथाओं में जानवरों को मनुष्य की बोली में बोलना बताया गया है, जो कोरी गप्प है.

जो लोग अपनी जिह्वा पर संयम नहीं रखते हैं, उनको रहीम कवि के सत्य कथन के अनुसार अपमान झेलना पड़ता है. मीठा बोलो, सत्य बोलो तो प्यार व सम्मान मिलता है. गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है:
कागा का को धन हरे कोयल का को देत,
तुलसी मीठे वचन से जग अपनों कर लेत.
मीठे वचन बोलने के लिए कोई अतिरिक्त कीमत नहीं चुकानी पडती है, लेकिन मीठे बोल बोलने के अनेक लाभ मिलते हैं. जो लोग नित्य मीठे व मधुर बोल बोलते हैं वे खुशहाल और सर्वप्रिय रहते हैं. इसलिए नीति उपदेशों में कहा गया है:
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करे, आपहूँ शीतल होय.
गौर करने योग्य एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि सँसार में जितने भी झगड़े-लफड़े, युद्ध-लड़ाई, मार-काट, बँटवारे, कडुवाहट पैदा होती हैं सब के पीछे मनुष्यों की वाणी ही प्रमुख कारण होती है. यह तो रही बोल वचन की बातें, लेकिन शरीर के पोषण में जिह्वा की जो जिम्मेदारी है, वह बहुत ही महत्वपूर्ण है. भोजन भट्ट या पेटू लोग अथवा नशेड़ी लोग जिह्वा का सम्मान नहीं करते हैं, नतीजा ये होता है कि शरीर के दूसरे अवयव असहयोग करने लगते हैं और शरीर रोगी हो जाता है. जो लोग जिह्वा का सम्मान करना जानते हैं अर्थात जिनको अपनी जिह्वा पर संयम होता है वे स्वस्थ रहते हैं तथा सुखी रहते हैं.

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शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

चुहुल - २९

(१)
गोस्वामी तुलसीदास ने अपने समय की सामाजिक मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए अलंकारिक एवँ दार्शनिक ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ में एक दोहे को इस प्रकार लिखा है :
"ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी; ये सब ताड़न के अधिकारी."
इस दोहे के अनेक शाब्दिक अर्थ व भावार्थ निकाले जा सकते हैं. एक सज्जन ने अपनी पत्नी को चिढ़ाने के लिए कहा, “इस दोहे का अर्थ समझ में आता है?”
पत्नी बोली, “इसका तो बहुत सरल अर्थ है, इसमें एक जगह मैं हूँ और चार जगह आप हैं.”


(२)
पुराने समय में गाँवों में शादी-व्याह के लिए लड़का-लड़की को देखने की जहमत नहीं उठानी पडती थी. नाई अथवा नाईन की सेवाएं ली जाती थी और वे अपनी चटखारेदार रिपोर्टिंग करके रिश्ते तय करवा देते थे. इस पद्धति में बहुत से आड़े-टेढ़े, काणे-लूलों की शादियाँ भी हो जाती थी. शादी हो जाने के बाद तो फिर सात जन्मों का बंधन हो जाता है.
ऐसे ही एक काणी लडकी की शादी लंगड़े लडके के साथ तय करा दी गयी. जब उसने बैठे हुए दूल्हे को जयमाला गले में डाल दी तो, कन्या पक्ष की गिदारों (पारंपरिक गीत गाने वाली औरतें) ने तान छोड़ी:
“जग जीत गयी म्हारी काणी”
वर पक्ष ने जब ये गाना सुना तो उनकी समझ में आ गया कि ‘लड़की सब को एक नजर से देखने वाली है.’ अत: उन्होंने गाने का प्रत्युत्तर तुक मिलाते हुए दे डाला “वर ठाडो हो तब जाणी”


(३)
नदी पार करते समय एक व्यक्ति की पत्नी तेज धार में बह गयी. दूसरे लोगों को ये देख कर ताज्जुब हुआ कि वह अपनी पत्नी को नदी की उल्टी धार की तरफ तलाश रहा था.
किसी ने पूछ ही लिया “तुम्हारी पत्नी तो नीचे की तरफ बह रही है, तुम उल्टी दिशा में क्यों जा रहे हो?”
वह बोला “भाई, तुम मेरी पत्नी को नहीं जानते हो, वह हमेशा उल्टे काम करती है, उल्टे बोल बोलती है इसलिए मैं उसे नदी की उल्टी धार में खोज रहा हूँ.”

(४)
एक महाविद्यालय के संस्कृत की परीक्षा में सरल हिन्दी शब्दों में अर्थ लिखने के लिए निम्न श्लोक पर्चे में आया:‘त्रिया चरित्रम, पुरुषस्य भाग्यम, देवो ना जानति कुतो मनुष्य?’एक समझदार लड़के ने उत्तर इस प्रकार लिखा:
‘स्त्री के चरित्र को देख कर पुरुष को भाग जाना चाहिए. इस विषय में देवताओं का क्या हाल है यह तो मालूम नहीं, पर देखा जाता है कि आदमी स्त्री के पीछे कुत्ता हो जाता है.’

(५) 
इंगलैंड के एक चर्च के आहते में कब्रिस्तान में एक अंग्रेज महिला अपने हाल में ही मरे पति की गीली कब्र पर हाथ से पँखा झल रही थी. जब एक भारतीय पर्यटक ने ये नजारा देखा तो उस नारी का पति-प्रेम देख कर गदगद हो गया, पास जाकर बोला, “मैडम, हमारे देश में नारियाँ ज़िंदा पति को पँखा झलाना भूल गयी हैं, आप धन्य हैं कि कब्र में दफनाने के बाद भी पति को हवा कर रही हैं.”
अंग्रेज महिला बोली, “बात ये नहीं है, दरअसल पादरी साहब ने कहा है कि जब तक पूर्व पति की कब्र सूख नहीं जायेगी, मैं दूसरी शादी नहीं कर सकती. इसलिए इसे सुखा रही हूँ.”

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बुधवार, 8 अगस्त 2012

उत्तरदायित्व

बरसात के बाद
विशाल नीम वृक्ष के नीचे
खुरदुरी मिट्टी में
केवल चार पत्तियों वाला
नीम का ही छोटा निम्बोडा
किसी अनाथ की तरह
अनचाही संतान की तरह
सहमा सहमा सा-
टकटकी लगाए
नहीं जानता है कि –
वह किसका वारिस है?
वह यह जान पाता-
उससे पहले ही
एक पशु आता है
सहज ही उसे चर जाता है
वृक्ष सिहर उठाता है कि –
फिर वही हुआ-
जो हर वर्ष होता है.
उसका उत्तरदायित्व-
फिर शेष रह गया.
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सोमवार, 6 अगस्त 2012

बैठे ठाले - २

एक जमाना था लोग कोई भी नया काम आरम्भ करते या नया मार्ग अपनाते तो पहले खूब मनन करते, बड़े-बूढों की अनुभवी-पकी राय लेते, शकुन-अपशकुन विचारते, और ग्रहदोष देखते. बुरा हो इस बुरे जमाने का कि ऐसी करवट ली सारे आचार-विचार तथा मर्यादाएँ कुचल कर रख दी. जो कोई गुजरे कल को रोता है, उसी को बुर्जुआ का फतवा दे दिया जाता है.

मुझसे अगर आप ईमान-धरम (जो मेरा बीत चुका है) की कसमें दिला कर पूछें तो मैं रोने लगूंगा और वह भी दहाडें मार कर कि अब हम दिशाहीन व लक्ष्यविहीन बढ़े जा रहे हैं, फिर भी यह समझ रहे हैं कि ज़माना हमारी ताकत से ही दौड़ रहा है. (बैलगाड़ी के नीचे चलने वाले कुत्ते की तरह.) जीवन की तमाम विधाएं छितरा रही हैं और हम लूले-लंगड़ों की तरह सब को समेटने का असफल प्रयास कर रहे हैं.

जो लोग धर्म विहीन हैं, उन्होंने अपने नए मार्ग् बना लिए हैं और अपना मनचाहा दर्शन लोगों के कानों मे पेल रहे हैं. जो लोग कर्तव्य विहीन हैं या यूँ कह दूं की कर्महीन हैं उन लोगों ने राजनैतिक मंचों से समाज सेवा शुरू कर दी है. जो लोग काव्य विहीन हैं या यूँ कहना चाहिए की काव्य शास्त्र की पहली पायदान भी ठीक से नहीं देखी है, वे ऐसा लिख रहे हैं, जिसके हजार आदमी, हजार अर्थ निकाल रहे हैं. इस विषय पर जब एक काव्यकार से चर्चा हुई तो वे बड़े आत्मविश्वास से बोले, “ये क्या कम है कि हमने काव्य रचना को अर्थ मुक्त कर दिया है, अब जो मर्जी अर्थ निकालते रहो कोई विद्यार्थी फेल नहीं हो सकता है, बस संवेदना होनी चाहिए.”

चित्रकारी को ही लीजिए, यथार्थ के नाम पर सारे सौंदर्य की ऐसी की तैसी कर दी, फिर भी वाहवाही हो रही है कि पिकासो के झड्नाती ने ऐसी मौलिक रचनायें की हैं कि पूरे एक महीने आर्ट गैलरी जाकर देख रहे हैं तो भी पूरा सौंदर्य भरपेट नहीं पचा पा रहे हैं.

अधिक दूर क्यों जाएँ, यहीं देख लीजिए कि एक नामी पत्रिका ने ‘व्यंग्यकारों की खोज’ के नाम से एक विज्ञापन छापा तो सारे गदहे-घोड़े, तीतर-बटेर तक व्यंग्यकार बन गए, और ऐसा लिख मारा कि संपादक मण्डल लंबे अरसे तक इस दुविधा मे पड़ा रहा कि किसे व्यंग्य माना जाये और किसे ढोल-मृदंग?

बहरहाल विषय से दूर नहीं भागना चाहूँगा, और पुराने सिद्धांत ‘भेड़चाल’ को ही प्रतिपादित करता हूँ कि यार लोगों को जिधर दरवाजा खुला दिखा, वहीं घुसने की कोशिश करते हैं चाहे डिब्बा पहले से ठूँस भरा हो.

फैशन की बात करें तो लीजिए कचरे से कचरा आदमी की गलमुच्छें लहराती हैं. एक मुच्छड़ सज्जन एक बार बड़े रौब से फरमा रहे थे कि “मूंछ ना हो तो मर्द की मर्दानगी नहीं झलकती है. मूंछ हो तो महिलायें अपने आप अदब करने लगती हैं.” बहुत से पुरुष ‘मैं मर्द’ की भावना को ज़िंदा रखने के लिए अपनी खूबसूरती पर दाग लगाए रहते हैं. इसी तरह बहुत सी खूबसूरत महिलायें भी अपने चहरे पर छ: छ: इंच की फ्रेम वाले चश्मे चिपकाए रहती हैं. मैंने एक दिन एक देवी जी से सादर पूछ ही लिया, “आपकी खूबसूरत आँखों पर इतने बड़े रंगीन चश्मे का क्या राज है?” पहले तो वह कुछ सपकपाई फिर बोली, “भाईसाहब, फैशन है.” बस ‘भाईसाहब’ कहते ही मैं गुमसुम हो गया क्योंकि ये रिश्ता है ही ऐसा कि आगे छेड़छाड़ की गुंजाइश ही नहीं रहती है. यह भी है कि फैशन की इस भेड़चाल में लिंगों का अस्तित्व पहचान के अभाव में खतरे में पड़ा हुआ है.

साहित्य की बात करें तो गद्य और पद्य एकाकार हो गए है. छंद, अलंकार या मात्राओं का अनुशासन जैसे खतम हो चला है क्योंकि अब हाइकू का फैशन है. कुछ भी लिखो और उसका कुछ भी अर्थ निकालते रहो. पहले तो साहित्य पर ‘सु’,‘कु,’या ‘अ’ आदि विशेषणों को लगाने की आवश्यकता ही नहीं होती थी. उसे पढ़ कर उसकी खुशबू से दिमाग के पट खुल जाते थे और अब कुसाहित्य की भड़ासयुक्त सडांध आती है.

भेड़चाल की ठेला ठेली में कोई कोना अछूता रह गया हो, ढूंढें नहीं मिल रहा है. क्रिकेट के मैदान में कुछ लोग धोनी के दीवाने हैं तो दूसरे सहवाग के, खेल समझ मे आता हो या नहीं, स्कोर पूछ लेते हैं क्योंकि यह भी फैशन मे शुमार है.

मेरा नामपट्ट देखकर यूनिवर्सिटी के दस-बारह विद्यार्थी अदब के साथ आकर कहने लगे कि “डॉक्टर साहब हम लोग स्नातकोत्तर कक्षा के छात्र हैं, शोध के लिए आपका मार्ग दर्शन चाहते हैं.” मैंने मुस्कुराते हुए कहा “भाई, मैं तो होम्योपैथी का डॉक्टर हूँ, फिर भी आप लोग आ ही गए हैं तो मैं आपको शोध के नए विषय जरूर सुझा देता हूँ.” मैंने जो मौलिक विषय उनको बताये वे इस प्रकार हैं: 'हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों के संपादकों की मजबूरी’, ‘भारतीय अखबारों के नामों की सार्थकता’, हिन्दी साहित्य को फिल्मों की देन’, हिन्दी साहित्यकारों की आपसी रंजिश’, ‘चीनी की मिठास और हमारे वर्तमान कृषिमंत्री’, ‘भारत मे दंगों का भविष्य’, और ‘आतंकवादियों के लिए चोर दरवाजे’. छात्र इन प्रगतिशील विषयों को लेकर शोध करने में व्यस्त हो गए होंगे और इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजे जायेंगे. डॉक्टर होना भी तो एक बड़ा फैशन हो गया है.

यों मैं पिछले चुनावों से राजनेताओं के पेम्फ्लिट भी तैयार करने लगा हूँ. मुझे माननीय मन्त्री जी ने आश्वासन दिया है कि मेरी रचनाओं के प्रकाशन में सरकारी सहायता देकर कृतार्थ करेंगे. मुझे लेकिन डर भी है कि मेरे अन्दर की बात का सुराग लगते ही सारे छुटभय्ये कलमकार लाइन में ना लग जाएँ. यह भेड़चाल मुझे नुकसान पहुंचा सकती है.

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शनिवार, 4 अगस्त 2012

ऐसा तो होना ही था

झुलस गए हैं बाग-बागीचे
 ताल तलैया पपड़ा गए हैं.
  संत्रसित हैं चराचर सब ओर
   भ्रष्टाचार से घबरा गये हैं,
     तो ऐसा होना ही था.

सुदूर दक्षिण में एक त्रिजुगी ठूँठ पर
 अमरबेल उग आई है,
  अतिबृष्टि, शिशिर और उसके बाद
   नए बसंत की क्षेम लाई है,
    तो ऐसा होना ही था.

अब फिर दूब अलसाई है
 प्रिय अंकुरों की उमंग
  हर किसलय को भायी है.
   चिरंजीवी रहे ये प्यारा सपना
    दिल से ये दुआ आई है
     तो ऐसा होना ही था.

सिर्फ दुआओं से इंकलाब आ जायेगा
 ये संभव भी नहीं है.
  कर्म-चेतना-बलिदान चाहिए
   ये असंभव भी नहीं था
    जो हवाओं का रुख बदलने चले थे
     भटक कर अगर फिसल जाएँ
      तो ऐसा होना ही था.

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गुरुवार, 2 अगस्त 2012

गुरुमंत्र

लगभग ४०० वर्ष पहले महान विचारक, कवि व समाज सुधारक कबीर दास का एक समय समाज के ठेकेदारों तथा कट्टरपंथियों ने बहुत विरोध किया लेकिन उनकी वाणी हमेशा पाखण्ड व अनीति के विरुद्ध मुखर रही. आज भी उनकी उलटबासियां, नीतिपरक दोहे व कवितायें उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी तब रही होंगी.

कहा जाता है कि कबीर व उनकी पत्नी में प्रेम व सामंजस्य बहुत था. उन्होंने एक-दूसरे की बात कभी भी नहीं काटी और जीवन भर समर्पित रहे. एक बार एक पत्नीपीड़ित व्यक्ति कबीर के पास आकर सुखी गृहस्थ का मन्त्र जानना चाहता था. कबीर ने कुछ सोचा फिर अपनी पत्नी को आवाज दी, “लालटेन जला कर लाओ.” भरी दुपहरी में तेज धूप थी, फिर भी श्रीमती कबीर, पति के कहने पर लालटेन जला कर ले आई. आगंतुक को बड़ा आश्चर्य कुआ कि इतनी रोशनी होते हुए भी कबीर ने लालटेन क्यों जलवाई? उसने कारण पूछ डाला तो कबीर ने कहा, “तुमको ये बताने के लिए कि अजब-गजब होने पर भी हम ना-नुकुर या प्रश्न नहीं करते है. यही बड़ा मन्त्र है.”

यह  तो एक दृष्टांत है, तब लालटेन होती भी थी, या नहीं? किसको पता है? लेकिन इसमें बहुत गहरा भाव छुपा है, जो सभी गृहस्थी लोगों के लिए एक सीख है.

जिस गृहस्थी नायक की यहाँ बात हो रही है, वे हैं कृष्णचन्द्र सती और नायिका है उनकी पत्नी सावित्री. उनकी कथा ये है कि ना जाने किस ज्योतिषी ने उन दोनों की कुंडली मिलाकर ये कहा था कि ‘२८/३३ गुण साम्य हो गए हैं’, लेकिन अब प्रत्यक्ष मे ऐसा लगता है कि दोनों चुम्बक के विलोम ध्रुव हैं. पर शुरू में ऐसा नहीं था. शादी के समय तो सती जी को अपनी पत्नी परी सी नजर आती थी. उसके बोल में शहद घुला महसूस करते थे. वह समय ही ऐसा होता है पसीना भी गुलाब होता है.

कृष्णचन्द्र सती पुलिस मे कांस्टेबुल थे और हेड कांस्टेबुल के पद पर आठ वर्ष रहने के बाद उनको सबइंस्पेक्टर यानि थानेदार बना दिया गया. उनके थानेदार बनते ही सावित्री देवी भी थानेदारनी बन गयी और अपने नए अंदाज मे आ गयी.  कृष्णचन्द्र सती रौबीले मूछ वाले आम थानेदारों की तरह हैं और वैसे ही पुलिसिया व्यवहार भी करते हैं, लेकिन जब सावित्री के सामने आते हैं तो सारी थानेदारी गायब हो जाती है क्योंकि वह अब बदमिजाज और नकारात्मक सोच वाली बन चुकी है. उसे दूसरों की हर बात में खोट नजर आती है. यही कारण है कि कोई महरी भी सावित्री देवी के घर चार दिनों से ज्यादा नहीं टिकती है.

उनके दो बेटे हैं जो अब सयाने हो गए हैं, पर माँ से भय खाते रहे हैं. दोनों की शादियाँ कर दी तो घर में बहुएँ आ गयी, जो सासू माँ के आतंक से त्रस्त रहती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह टी.वी. सीरियल ‘पवित्र रिश्ता’ मे ताई (सासू) का खौफ रहता है. थानेदार जी नौकरी से रिटायर होकर आ गए हैं और पत्नी का बहुओं के प्रति व्यवहार देख कर परेशान हैं. कुछ कहते हैं तो वह हिटलरी आवाज में डांटते हुए कहती है, "तुम चुप रहो जी.” ये अच्छा हुआ दोनों बेटों की जल्दी नौकरी लग गयी. नौकरियाँ भी घर से दूर एक को महाराष्ट्र में और दूसरे को मध्य प्रदेश मे पोस्टिंग मिल गयी. सावित्री देवी चाहती तो यह थी कि बहुवें उसके पास मे रहें, पर बेटे नहीं माने, साथ ही ले गए. बहुवें बहुत खुश हो गयी कि उनको सासू जी के खौफ से मुक्ति मिल गयी.

बच्चों के इधर उधर जाने के बाद सावित्री देवी पति के साथ अकेले हो गयी और आदत के अनुसार अब सारा गुबार थानेदार जी पर निकालती रही. उनसे घर का सारा काम भी करवाती और हर काम मे खोट भी बताती रहती थी. कृष्णचन्द्र सती ने कई बार उसको प्यार से समझाया भी कि वह अपने बोलने के लहजे में सुधार करे, पर कुत्ते की दुम की तरह वह टेढ़ी की टेढ़ी ही  रही. कभी कभी तो वे उसके वचनों से आहत हो जाते थे. एक बार तो उन्होंने कह ही डाला, “तू अगर इसी तरह बात करेगी तो मैं हरिद्वार चला जाऊंगा और सन्यासी बन जाऊंगा.” लेकिन सावित्री जानती है कि पालतू जानवर जंगल मे जाने से डरते हैं.

अब किच किच से बचने के लिए कोई काम का बहाना बनाकर थानेदार जी सुबह घर से निकल जाते और देर शाम लौटते थे पर तनाव तो था ही. राम मंदिर में हरिद्वार से एक कथावाचक स्वामी चंद्र्वेश आये तो थानेदार जी भी प्रवचन सुनने बैठ गए. कथा के अंत मे कथावाचक जी ने पूछा “किसी का कोई प्रश्न है?” कृष्णचन्द्र सती ने उनसे कहा, “स्वामी जी मुझे आपसे एकांत में बात करनी है.” गुरू जी ने समय दिया और पूरी दास्ताँन सुनी.

ये एक मानवीय समस्या थी. पति पत्नी की आपसी व्यवहार का मामला था वह भी, दोनों की पक्की उम्र में. गुरू जी ज्ञानी आदमी थे, उन्होंने कृष्णचन्द्र सती को मन्त्र दिया कि “बहरे बन जाओ. मतलब की बात सुनो-समझो बाकी पर कोई प्रतिक्रिया मत करो.” सती जी ने घर जाकर पत्नी को बताया, “‘रास्ते में एक ट्रक का टायर इतनी जोर से फटा कि दोनों कानों में भयंकर दर्द है और सुनाई देना बन्द हो गया है.” इस प्रकार सती जी बहरे हो गए हैं. सावित्री देवी ने दो दो बार ई.ऐन.टी. डाक्टर के पास भी खदेड़ दिया पर वह कहता है कि “परदे फट गए हैं, मशीन लगाने से भी कुछ नहीं होगा." सावित्री बहुत परेशान है कि थानेदार जी कुछ सुनते ही नहीं हैं. घर के काम काज पर भी असर पडता है. सावित्री नजदीक आकर कुछ कहती है तो थानेदार जी जोर-जोर से “हैं-हैं” कह देते हैं. अब थानेदार जी के पास कुछ काम भी नहीं रहता है, बस किताबों में डूबे रहते हैं. घर में कोई आता है तो सावित्री यही दुखड़ा रोती है कि "थानेदार जी के कान खराब हो गए हैं." बेचारी बहुत उखड़ी उखड़ी रहती है क्योंकि उसकी खीज सुनने वाला कोई नहीं है.

कृष्णचन्द्र सती को इस एक्टिंग मे बहुत मजा आ रहा है. कोई मतलब की बात होती है तो कहते हैं कि होंठों के ऊपर-नीचे देखकर वे कुछ बातें यों ही समझने लगे हैं. परेशानी उनको सिर्फ यह हो रही है कि अपने मोबाईल पर किसी से बात नहीं कर पा रहे हैं. सावित्री अगर दृश्यपटल से दूर हो तो वे मौक़ा देख लेते हैं. अपने बेटों को भी उन्होंने यथास्थिति से अवगत करा दिया है और फोन न करने की ताकीद कर दी है. अकेले मे शरारतन खुद से कहते हैं, “गुरु जी की जय हो ,” और मुस्कुरा लेते हैं.

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