शनिवार, 29 जून 2013

धूलि-अर्घ

मेरी लिखी एक कहानी ‘दिल की लगी’ (१५-४-२०१३) में विवाह के सन्दर्भ में एक शब्द आया है ‘धूलि-अर्घ’. एक पाठक ने इसके बारे में जानकारी चाही है कि ‘धूलि-अर्घ’ क्या होता है.

हिन्दू धर्मावलंबियों में देश काल के अंतर के आधार पर विवाह करने की अनेक अलग अलग परम्पराएं हैं. पर एक बात सबमें मान्य है कि विवाह दो व्यक्तियों और दो परिवारों के बीच पवित्र बंधन होता है.

हमारे उत्तराखंडी समाज में वैदिक रीति से जो परम्परागत तरीके से विवाह होते हैं, उनमें अभी भी वैदिक कालीन विधियों का पालन किया जाता है, यद्यपि अब बहुत सी बातें अप्रासंगिक भी लगने लगी हैं.

अरेन्ज्ड मैरेज में वर तथा वधू पक्ष वाले आपस में सीधे सीधे अथवा किसी मध्यस्थ के मार्फ़त रिश्ता तय करते हैं. जन्म-लग्न चिन्ह मिलाने का विधान है, राशियों एवँ ग्रहों-गुणों का मिलान पुरोहित/पण्डित देखते हैं, और जब दोनों पक्षों का मन मेल भी हो जाता है तो विवाह का दिन-लग्न/मुहूर्त तय  किया जाता है. पर आजकल देखने में आता है कि ये सब खानापूर्तियाँ सुविधानुसार कर दी जाती हैं. लड़का-लड़की की पसन्द का और उनकी शैक्षिक योग्यता पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है. अंतर्जातीय विवाह भी खूब होने लग गए हैं.

नियम-कायदा तो यह है कि बारात ‘गो-धूलि बेला’ (सूर्यास्त से पहले) कन्या पक्ष के दरवाजे पर पहुँच जानी चाहिए. उस वक्त सूर्य भगवान को जल का अर्घ दिया जाता है क्योंकि सारी श्रृष्टि सूर्य के प्रताप से चलायमान होती है. यह व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक होती थी कि रात में गाँव/बस्तियों में प्रकाश की यथोचित व्यवस्था नहीं होती थी.

जब बारात कन्या पक्ष के घर पहुँचती है तो शास्त्रीय विधि-विधान से उसका स्वागत होता है. एक साफ़-सुथरी लिपीपुती जगह/मंडप के नीचे दोनों पक्षों के पुरोहित संस्कृत (जिसे देव भाषा भी कहा जाता है) के श्लोकों द्वारा एक दूसरे पक्षों का परिचय पूछते हैं. (यद्यपि सबको ये पहले से मालूम होता है.) वर का नाम क्या है? उसके पिता का नाम क्या है? किस गोत्रोत्पन्न है? किस प्रवर के किस शाखा से है? किस वेद का अध्यायी है? आदि आदि. दूसरे पक्ष वाला उसी तरह उत्तर देकर समाधान करता है. वेदाध्याई पूछे जाने पर ब्राह्मण को यजुर्वेदाध्यायी बताया जाता है. चाहे वर ने वेद को कभी देखा भी ना हो. पर परम्परा चली आ रही है. कन्या पक्ष के पुरोहित उसी तरह श्लोकों में कुल गोत्रादि का परिचय देते हैं. तत्पश्चात कन्या का पिता वर के पदप्रक्षालन +पूजन करता है और पुरोहित आचार्य का भी पूजन करता है. वर को उपहार (कपड़ा, घड़ी, जूता) और स्वर्ण अंगूठी प्रदान करता है. साथ ही पुरोहित को भी उसी तरह उपहार व अंगूठी से नवाजा जाता है. सूर्य को अर्घ दिया जाता है.

इस समारोह नाम ’धूलि-अर्घ’ है. यह एक तरह का परिचय+स्वागत करने का विधिवत वैदिक परिपाटी है.

आजकल शहरों में ही नहीं गावों में भी विवाह के कार्यक्रम का फिल्मीकरण हो गया है. जहां एक ओर ‘धूलि-अर्घ’ के मंत्रोच्चार होते हैं, वहीँ कानफोड़ संगीत के रिकार्ड बजते हैं. विडम्बना यह भी है कि बारात रात को ग्यारह, बारह या एक बजे लाई जाती है. तब धूलि अर्घ के कोई मायने नहीं रहते हैं. विवाहोत्सव में दिखावा बहुत हो गया है और समारोह में शराब छलकती है. इस पवित्र बंधन में जो पवित्रता होनी चाहिए वह लुप्त होती जा रही है.
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गुरुवार, 27 जून 2013

सैलाब

आस्था के सैलाब की परिणिति दु:खों के सैलाब के रूप में हो गयी है. उत्तराखंड में विशेष रूप से गढ़वाल के दुर्गम पहाड़ों में स्थापित तीर्थ इस बार प्राकृतिक आपदा के शिकार हुए हैं. हजारों की संख्या में जनहानि व कई करोड़ रुपयों की धनहानि हुई है. प्रकृति के इस निष्ठुर रूप की किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी.

यह सच है कि तीर्थों में लोग अनंतकाल से श्रद्धावश जाते रहे हैं. अभी कुछ वर्ष पहले तक ये अवधारणा आम थी कि जो बुजुर्ग (अकसर केवल बुजुर्ग ही तीर्थों को जाया करते थे) ऐसी यात्राओं में घर से पैदल निकलते थे, उनमें से बहुत कम लोग ही वापस आ पाते थे. तब सड़कें नहीं थी, गाडियों-हेलीकॉप्टर की कल्पनाएँ भी नहीं थी, पर अब ऐसा नहीं है. बहुत से वाहन-साधन हैं, कच्ची मिट्टी वाली पहाड़ियों पर पक्की सड़कें हैं, मुख्य तीर्थों में हैलीपैड हैं. बड़ी बात यह भी है कि आम तीर्थयात्री आर्थिक रूप से विपिन्न भी नहीं है. बसों द्वारा या अपनी लक्जरी कारों द्वारा तीर्थ यात्रा के नाम पर देशाटन या पिकनिक/दृश्यावलोकन के लिए निकल जाते हैं.

यहाँ मानसूनी बारिश जुलाई माह में अपेक्षित रहती थी. वह इस बार मध्य जून में ही घनघोर घटाएं लेकर आई और पश्चिमी विक्षोभ का संयोग मिलने से रौद्ररूप हो गया. बादल फटे, नदियों में हद दर्जे से ज्यादा उफान तथा जमीन-सड़कों के कटान से प्रलय की स्थिति बन आई.

मौसम विभाग की पूर्वसूचना शायद एक दो दिन पहले प्रकाशित हो गयी थी, पर लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि यहाँ ऐसा पहले कभी हुआ नहीं था. इस सैलाब में अनेक परिवार बह गए, अनेक लापता हैं. जिनके स्वजन इसकी चपेट में आ गए हैं, वे बहुत दु;खी हैं. सारे देशवासियों की संवेदनाएं उनके साथ हैं. उनके घाव भरने में बहुत समय लगेगा.

बचाव कार्य में बहुत बाधाएं थी. प्रशासन बेबस देख रहा था क्योंकि यह अनपेक्षित था. ऐसे में हमारी सेना के बहादुर जवानों ने अपना जौहर बताकर हजारों लोगों की जान बचाई है. ऐसी आपदाएं कोई बोल कर नहीं आती हैं, लेकिन आपदा प्रबंधन के कुछ गुर थे, जिन्हें ठन्डे बस्ते में रखा हुआ था. सन २००७ मे बनी प्रदेश की आपदा प्रबंधन समिति की एक भी बैठक गफलत में नहीं की गयी थी.

एक नामधारी-जटाधारी बाबा कह रहे थे कि पापी लोग तीर्थों में आने से ये सब हुआ है. यह अत्यंत हास्यास्पद है.

पर्यावरणविद कहते हैं कि सड़कें, बाँध और पनबिजली योजनाएं बनाकर विकास के नाम पर पहाड़ों से जो छेड़छाड़ की गयी है, ये उसका नतीजा है, पर यह अर्धसत्य है.

भू-वैज्ञानिक डॉ खड्ग सिंह वल्दिया के अनुसार, उत्तराखंड कि त्रासद घटनायें प्राकृतिक थीं. अति-वृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना प्राकृतिक हैं. लेकिन इनसे होने वाला जान-माल का नुकसान मानव-निर्मित है. उनके अनुसार गलत तरीके से चट्टानों के बजाय भूस्खलन पर बनी सड़कें, एवं फ्लड-वे में बने आवासीय तथा व्यावसायिक परिसरों के कारण यह नुकसान कई गुना अघिक हुआ है.

बहरहाल प्राकृतिक विपदाएं इस धरती पर आती रही  हैं और प्रकृति अपना संतुलन बनाए रखती है. हिमांचल की ऊँची पर्वत श्रंखलाओं में ज्वाला देवी को जाने वाली सड़कों के किनारों पर नदी के पाट वाले गोल घिसे हुए पत्थर देखे जा सकते हैं. जरूर यहाँ हजारों लाखों वर्ष पहले ऊपर की धरती नीचे और नीचे की धरती ऊपर हुई होगी. यानि भौगोलिक तोड़-फोड़ प्रकृति का अपना नियम है. हिमालय की संरचना भी इसी नियम के तहत है. भूगर्भवेत्ता इसकी पुष्टि करते हैं.

अब यहाँ लगभग सैलाब के बाद की स्थिति है. पीड़ितों एवं गुमशुदा लोगों को ढूँढने का और उन्हें राहत प्रदान करने का कार्य जारी है. देश का दुर्भाग्य है कि इस मौत के मंजर पर राजनैतिक दलों के कुछ लोग वोटों की राजनीति कर रहे हैं जो निंदनीय है. देश दुनिया के लोगों ने आपदा पीड़ितों की सहायता के लिए जी-जान से धन तथा सामान जुटा कर भेजा है, अभी भी यह जारी है. जरूरत इस बात की है कि इसका सही उपयोग हो, पीड़ितों तक जल्दी से जल्दी सहायता पहुंचे.
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मंगलवार, 25 जून 2013

बदरंग जिंदगी

सुन्दरी बहुत सुन्दर तो नहीं थी, पर माता-पिता को उसमें सारी सुंदरता नजर आई थी क्योंकि उन्होंने उसे बड़ी मिन्नतों के बाद पाया था तदनुसार नाम भी रख लिया था. ज्यों ज्यों वह बड़ी होती गयी चँचल व बदमिजाज भी होती गयी. ऐसे बच्चे जब जवान हो जाते हैं तो कभी कभी माता-पिता के वश में भी नहीं रहते हैं.

१५ साल की उम्र होते होते सुन्दरी के पिता दरबानसिंह को ये चिंता सताने लगी थी कि बेटी किसी के साथ रफूचक्कर ना हो जाए इसलिए जल्दी हाथ पीले करने की सोचने लगे. कोशिश करने से क्या नहीं होता है. कुछ दूर की रिश्तेदारी में एक लड़का मिल गया, नाम था खुशाल सिंह.

खुशाल, पान सिंह का बेटा है, पान सिंह मुंबई में नौकरी करता था. नौकरी क्या, भूलेश्वर बाजार में चौकीदारी करता था. उसे वहाँ ‘पानू गोरखा’के नाम से पुकारा जाता था. वैसे वह गढ़वाली था, गोरखा नहीं. मुंबई में कुछ अजीब रिवाज है  सभी पहाड़ी-नेपाली चौकीदारों को गोरखा ही समझा जाता है  और गोरखों को वफादार-ईमानदार भी.

पानसिंह अपने बेटे को छुटपन में ही मुंबई ले गया था. चूंकि उसके पास अपने रहने के लिए अलग से कोई स्थाई खोली नहीं थी, वह कुछ अन्य पहाड़ी लोगों के साथ एक कोठड़ी में बिस्तर-बक्सा रखा करता था. सोने के लिए लाखों लोगों की तरह फुटपाथ का उपयोग करता था. खुशाल को जल्दी ही मुंबई की हवा लग गयी. वह अपने मवाली दोस्तों के साथ बड़ा होने लगा. उसने पैसा कमाने के कई नकारात्मक गुर सीख लिए. वह उठाईगिरी में भी माहिर होता जा रहा था. एक बार अपने पिता के नकली हस्ताक्षर करके उनके बैंक खाते में से एक हजार रूपये निकाल लिए. पिता को मालूम होने पर वह भाग गया और कई महीनों तक गायब रहा. था वह मुंबई में ही.

पान सिंह बेटे सहित दो तीन साल में अपने गाँव जरूर आता था. इस बार जब वे मुलुक (मुंबई वासी घर-गाँव को मुलुक कहा करते हैं) आये तो खुशाल की माँ ने खुश-खबरी बताई कि "कोटद्वार के दरबानसिंह की बेटी सुन्दरी से खुशाल के ब्याह की बात तय कर रखी है." बात आगे बढ़ी और स्थानीय रीति रिवाज से चट मंगनी पट ब्याह भी हो गया. पान सिंह तो जल्दी मुंबई लौट गया और खुशाल दो-तीन महीनों तक गाँव में ही रहा. अब उसका मन यहाँ नहीं लग रहा था. एक दिन वह पत्नी के दो-तीन सोने के कीमती जेवर लेकर रफूचक्कर हो गया. वह मुंबई अपने ठिकाने पर भी नहीं पहुँचा. करीब दो साल तक गायब रहा और एक दिन अचानक गाँव लौट आया. उसने बताया कि बनारस में साडियों की छपाई का काम सीख रहा था. ये बात किसी के गले नहीं उतरी. कुछ दिनों के बाद मुंबई जाने के नाम पर घर से फिर निकला और पहले की तरह लापता हो गया.

पति के इस तरह आवारा व गैरजिम्मेदारीपूर्ण रहने से सुन्दरी को शुरू में मन:स्ताप होता था, पर इतने वर्षों के अंतराल में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए अपने स्वभाव के अनुसार उसने अपने पुरुष मित्र बना लिए. सासू का घर छोड़ कर पिता के घर चली गयी. माता-पिता भी धरती पर हमेशा रहने को नहीं आये थे. उनकी मृत्यु होने के बाद वह पूरी तरह आजाद हो गयी.

आजाद हो गयी तो बदनाम भी होना ही था क्योंकि उसका ग्रामीण परिवेश वाला समाज वर्जनाहीनता को स्वीकार नहीं करता है. पर जैसे को तैसे मिल ही जाया करते हैं. एक बदनाम मन्त्री के चमचे ने उनका सीधा परिचय मन्त्री जी से करवा दिया. सुन्दरी उनकी राजनैतिक पार्टी की सक्रिय कायकर्ता बन गयी. ये नेता लोग कार्यकर्ताओं को इस्तेमाल करना भी खूब जानते हैं. अब सुन्दरी का दायरा बहुत बढ़ गया था. उसका पारिवारिक जीवन नष्टप्राय: हो चुका था. ऐसे में एक दिन ढूंढते-करते खुशाल पुन: प्रकट हो गया. इस बार सुन्दरी ने उसको घास नहीं डाली और झगड़ा करके बाहर निकलवा दिया. खुशाल बहुत भद्दी भद्दी गलियां व धमकियां देकर चला गया था. इधर सुन्दरी की हिमायत में बहुत से लोग थे. सुन्दरी अब गाली या धमकियों की परवाह नहीं करती थी.

कालचक्र घूमता रहता है. बहुत कुछ अपने आप बदलता भी रहता है. राजनीति में जब कभी किसी का ग्राफ ऊपर चढ़ता है तो एकाएक जमीन पर भी आ जाता है. सुन्दरी का अब सब कुछ ढल चुका है. उसकी अपनी पार्टी सत्ता में भी नहीं रही है.अब उसे कोई पूछता भी नहीं है. वह एकांत में बैठी अपनी नीलम के नग वाली अंगूठी को निहार रही है, जो अब उसकी जिंदगी की तरह ही बदरंग हो चुकी है, और अपने गले में लटके बरायनाम मंगलसूत्र को अँगुलियों से मसल रही है; ‘इसे उतार दूँ या यों ही गले में डाली रहूँ?’ इस कशमकश में है 

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रविवार, 23 जून 2013

अनुदार चरिता नाम...

पण्डित लोग बच्चों के पैदा होते वक्त के ग्रह-नक्षत्रों की गणना करके राशि निकाल लेते हैं और तदनुसार नामकरण कर देते हैं. बच्चा जब बड़ा होता है तब उसे महसूस होता है कि उसका नाम कुछ और होता तो कुछ बात और अच्छी होती.

कपोतसिंह क्षेत्री जब हाईस्कूल में पढ़ रहा था तो उसने जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ के कुछ अंश पढ़े. उसे कामायनी शब्द बहुत भाया तो अपना उपनाम ‘कामायनी’ ही रख लिया. तब वह कुछ कवितायें-तुकबन्दियाँ भी किया करता था. कपोतसिंह क्षेत्री ‘कामायनी’ बहुत स्वार्थी किस्म का था. कुछ लोगों की जन्मजात प्रवृत्ति ऐसी होती है कि वे दूसरों को दुःख पहुंचा कर भी अपना मतलब हल करते हैं. यहाँ तक कि माता पिता को भी उसने अपने स्वभावत: परेशान कर रखा था. उसके पिता बहादुर सिंह क्षेत्री तो कपोत (कबूतर ) के बजाय उसे कभी कभी कुपूत कह देते थे. बाहर अपने संगी-साथियों में भी वह झगड़ालू और महामतलबी के रूप में बदनाम था. उसके कॉलेज के लड़के पीठ पीछे उसके लिए ‘कामायनी’ के बजाय ‘कमीनाई’ शब्द इस्तेमाल किया करते थे.

अब जब वह एक जनरल इंश्योरेंस कम्पनी में सर्वेयर के बतौर नियुक्ति पा गया तो उसकी लम्पटता और बेईमानी की हदें पार हो गयी. वह ग्राहकों तथा कम्पनी दोनों को जम कर चूना लगाता है. मुरव्वत नाम का शब्द उसके शब्दकोष में है ही नहीं. और लोगों का क्या है कि बेईमानी में हिस्सा मिलने पर सब खुश रहते हैं. ना मिलने पर गालियाँ देकर रह जाते हैं. बड़ी बात ये भी है कि दुष्ट आदमी से सब डरते हैं.

कपोत के जीजा हाइडिल (बिजली विभाग) में एक्जेक्यूटिव इंजीनियर हुआ करते थे. यहाँ उनकी ईमानदारी/बेईमानी का विश्लेषण नहीं किया जाएगा, पर उन्होंने जो अकूत संपत्ति जमा की उसमें रामपुर रोड पर तीन  बीघा जमीन भी है. उन्होंने इस जमीन पर ३ बेडरूम वाला घर बनवाया था, परन्तु दुर्भाग्यवश, गृहप्रवेश से पहले ही हार्ट अटैक हो गया और वह चल बसे. बहिन ने घर-जमीन अपने नाम होते हुए भी इसे अपशकुनी मान कर इस घर में रहने से इनकार कर दिया. अब तो कपोत सिंह इसका मालिक हो गया. बिजली विभाग के नए-पुराने सभी कर्मचारियों को मिलने वाली मुफ्त की बिजली का मनचाहा उपभोग/ दुरपयोग  भी करता रहा है  उसको पूछने वाला कोई नहीं है.

कपोत सिंह के यहाँ कोई नौकर या महरी नहीं टिकती है क्योंकि वह पहले ही दिन से उनके पुरखों का श्राद्ध करने लगता है. लोहे का बड़ा गेट चौबीसों घन्टे खुला रहता है. इस फार्महाउसनुमा परिसर में आम अमरुद के पेड़ भी लगवा रखे हैं. मजाल है कोई छोकरा जाकर एक पत्ता भी तोड़ सके. वह माँ-बहिन की गालियां देने लगता है या कुत्ते को छू लगा देता है. भिक्षा मांगने वाले इस घर के पास कभी नहीं फटकते हैं. बस्ती में सब को मालूम है कि कपोत सिंह करोड़ों का मालिक है, पर मन्दिर-गुरुद्वारे वाले चन्दा लेने इस घर में अब नहीं घुसते है. सबको मालूम है कि घर का मालिक कितना कमीना है. वह दान मांगने वालों को हरामखोर कहा करता है.

ये जगह कभी शहर से बहुत बाहर होती थी, लेकिन जब से शहर ने अपने पँख पसारे हैं तो इस परिसर के चारों ओर बस्ती बस गयी है. बस्ती में अनेक धार्मिक अनुष्ठान व शादी ब्याह होते रहते हैं, पर कपोतसिंह इनमें कभी भाग नहीं लेता है. उसको कोई सलाम भी नहीं करता है क्योंकि वह घमंडी और अहंकारी है. इस तरह वह समाज में एक ‘टापू’ की तरह रहता है.

उसकी बीवी के बारे में बस्ती की  औरतें आपस में बातें करती रहती हैं कि ‘वह बेचारी बहुत विनम्र है, किसी से ज्यादा बात नहीं कर पाती है. शायद वह इस राक्षस से डरती होगी.’ इनके कोई बाल-बच्चा भी नहीं है इसलिए अन्दर की बातें छन कर बाहर बिलकुल नहीं आ पाती हैं.

गत रविवार को एक अनहोनी घटना हो गयी. कपोतसिंह की पत्नी कूलर साफ़ करते हुए करेंट के कारण उसी पर चिपक गयी और तत्काल उसकी मृत्यु हो गयी. कपोतसिंह थोड़ी देर बाद बदहवास होकर बस्ती के लोगों को सूचित करते हुए दौड़ा, पर लोगों को जैसे सांप सूंघ गया हो, संवेदनहीन हो गए, कोई भी मदद करने या मातमपुर्सी करने उसके अहाते में नहीं गया.

उसके ऑफिस की उस दिन छुट्टी थी. जिसको भी फोन से सूचित किया नहीं आ सके. दिन भर, रात भर वह लाश के पास अकेला गुमसुम बैठा रहा. अगली सुबह कुछ रिश्तेदार व परिचित क्लाइंट्स आ जुटे. सभी बड़े लोग थे इसलिए अब्दुल्ला बिल्डिंग के पास वाली मजदूर-मंडी से दिहाड़ी तय करके छः लोग लाये गए तब जाकर अर्थी को अन्तिम संस्कार के लिए उठाया जा सका.
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शुक्रवार, 21 जून 2013

नया दौर

जो लोग अपने जीवन में कुछ बड़ी उपलब्द्धि हासिल नहीं कर पाते हैं, वे अपने बच्चों से अपेक्षा रखते हैं कि उस ऊँचे मुकाम तक पहुंचें, जो कभी उनके अपने कल्पनालोक का लक्ष्य था, पर ऐसा हमेशा कहाँ हो पाता है? उनको अपने ही आत्मजों के साथ नई सामाजिक परिवर्तनों में व्यवस्थित होने में बहुत कठिनाई भी होती है क्योंकि पुराने संस्कार बहुत गहरे तक पैठ बनाए रहते हैं.

यशोदानंदन पन्त एक इंटर कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक हैं और अगले कुछ महिनों में रिटायर होने वाले हैं. उनकी धर्मपत्नी श्रीमती अम्बालिका वहीं आस-पास अल्मोड़ा शहर के ही एक प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापिका हैं. उनका सेवा काल अभी चार साल बाकी है. इनका एक ही बेटा है गौरव, जो प्रारंभ से ही पढ़ाई में बहुत अच्छे नंबरों से आगे बढ़ता रहा. यशोदानंदन चाहते थे कि बेटा भारतीय प्रशासनिक सेवा में आये, पर गौरव की अभिरुचि कम्प्यूटर साइंस में थी. पन्त नगर विश्वविद्यालय से एम.सी.ए. करके सीधे कैम्पस से चयनित होकर बंगलूरू में एक आइ.टी. कम्पनी में नौकरी पर लग गया. कम्पनी का पे-पेकेज बढ़िया है. नौसिखियों को भी २५-३० लाख रुपये सालाना मिलता है. वह संतुष्ट है.

यशोदानंदन जानते हैं कि अब जमाना बदल गया है. सब कुछ हाईटेक हो गया है. समय की रस्सी अब पुराने लोगों के हाथों से छूटती जा रही है, फिर भी पति-पत्नी की आस्थाएं अभी पुराने दौर से बाहर नहीं निकली हैं. चिलियानौला में उनका अपना स्वनिर्मित घर है. उन्होंने बरसों पहले सपने बुने थे, पर अब बेटे को आइ.टी. की नौकरी के चलते बड़े पँख लग गए हैं. तो वे सोचते हैं कि शायद ही अब इस घर में पारंपरिक पारिवारिक आनन्द-मेला लग पायेगा. ये सपनों का घर उन्होंने अपनी जवानी में बनवा लिया था. अभी भी बहुत खूबसूरत लगता है. वे कई बार पत्नी के सामने अपने दिल का दर्द बयान कर चुके हैं कि उनके बाद इस घर का क्या होगा. अम्बालिका पति से इस विषय में दार्शनिक न होने के लिए कहती है, "बेटे के साथ जायेंगे. जहाँ वह रहेगा, वहीं हम भी रहेंगे. इसमें भावुक होने की जरूरत नहीं है." पर मन तो दूर की सोचता है. यशोदानंदन कहने लगे, "बेटे-बेटियाँ तो दो चार होने चाहिए. कोई तो बुढ़ापे में अपने पास रहे और घर को भी संभाले." अम्बालिका ने बात काटते हुए कहा, “क्या आप खुद अपने पुश्तैनी गाँव में रह पाए? अब बेटे से ये उम्मीद करना कि हमारे पास ही अल्मोड़ा में रहे, कहाँ तक सही है? यहाँ उसके भविष्य के लिए क्या संभावनाएं हैं? आप खामख्वां परेशान हो रहे हैं." इस प्रकार की उधेड़बुन बुजुर्ग माता-पिता के मन में उभरना स्वाभाविक होता है. पर घड़ियों की सुइयां कभी भी प्रतिगामी नहीं होती हैं. जो कल था वह आज नहीं है और जो आज है वह आने वाले कल में नहीं होगा.

अम्बालिका का माँ का मन है, कल्पना किया करता है कि 'गौरव विवाह योग्य हो गया है... कोई कुलीन कुमाऊंनी बहू आयेगी... कम से कम स्नाकतोत्तर शिक्षा प्राप्त होगी. सासू नहीं, ‘ईजा’ के संबोधन से पुकारेगी. बेटे के साथ भी रहेगी तो भी साल में एक-दो बार हमारे सानिंध्य में रहने को अवश्य आयेगी. घर में दुगुना उजाला होगा.’ कभी ये भी सोचती है कि 'कोई संस्कारवान आई तो सुबह उठ कर प्रणाम करेगी. मेरे उठने से पहले ही पूजाघर साफ़ करके दिया-बाती एवँ आरती का थाल सजाकर आनंदानुभूति करायेगी. आगे जाकर पोता-पोती होंगे और घर गुलजार रहेगा’. पर ये सब एकाकी स्वगत बातें हैं.

गौरव दो साल तक तो विवाह के बारे में ना नुकर करता रहा क्योंकि उसे अपने कैरियर की ज्यादा चिंता थी. एक दिन माता-पिता की आशा के विपरीत उसने फोन से सूचित किया कि उसने जीवन साथी के रूप में एक लड़की जिसका नाम विभावरी जेठवा है पसंद की हुई है. उसने ये भी बताया कि “विभावरी को वह एक साल से ज्यादा समय से जानता है. विभावरी जर्मन एयरवेज, लुफ्थांसा, में एयर हॉस्टेस है. उसके माता पिता जाम नगर, गुजरात, में रहते हैं.” माँ द्वारा पूछने पर जब गौरव ने बताया कि वे लोग ब्राह्मण नहीं हैं, तो उसे बड़ा सदमा सा लगा क्योंकि अम्बालिका ने कभी भी अंतर्जातीय विवाह की कल्पना अपने बेटे के लिए नहीं की थी.

अब नई परिस्थितियों में दोनों जनों ने तुरन्त बंगलुरू जाने का कार्यक्रम बनाया ताकि घटनाक्रम को ठीक से समझा जा सके और अगर अनुचित लगे तो रोका भी जा सके. दिल्ली से उड़ान लेकर बंगलुरू बेटे के पास पहुँच गए. शंकित और उत्कंठित माता-पिता ने गौरव से विभावरी के बारे में बहुत से प्रश्न पूछ डाले. गौरव ने बड़ी बेबाकी से बताया कि विभावरी हफ्ते में दो बार बंगलुरू आती रहती है और इसी घर में उसके साथ रहती है. वे दोनों पिछले एक साल से लिव-इन रिलेशन में हैं.

माँ ने पूछा, “ये लिव-इन रिलेशन क्या होता है?”

बेटे ने बताया, “मम्मी, अब विवाह नाम की संस्था का महत्व धीरे धीरे कम हो रहा है. जरूरी नहीं कि ढोल-नगाड़े बजाये जाएँ और अग्नि के फेरे लगाए जाएँ. लिव-इन रिलेशन प्यार का रिश्ता होता है.”

पिता ने कहा, “ये बात हमारी समझ के परे है कि तुम शादी किये बगैर एक साथ रहो और सामाजिक मान्यताओं का मखौल उड़ाओ.”

गौरव बोला, “पापा, आप लोग बिलकुल परेशान न होएं, आजकल कई लोग इसी तरह रह रहे हैं. उनके बच्चे भी हैं. वे खुश भी रहते हैं. परम्परागत शादियां बहुत खर्चीली और दिखावा भर होती हैं.”

अम्बालिका बेटे का तर्क सुनकर रूआंसी हो गयी और विश्वास नहीं कर पा रही थी कि उसका बेटा ऐसा भी कह सकता है. गौरव ने माँ से कहा, “कल विभावरी आ रही है. आप लोग उससे मिलकर अपने सारे भ्रम दूर कर सकते हैं. इसमें इतना परेशान होने की आवश्यकता नहीं है.”

अगले दिन अपने कार्यक्रम के अनुसार विभावरी आई. उसको शायद गौरव ने सारी वार्तालाप की जानकारी पहले दे दी थी. आते ही उसने दोनों के पाँव छू कर प्रणाम किया, अपने भारतीय होने का अहसास कराया. वह जीन्स में थी और अंग्रेजी मिश्रित टूटी-फूटी हिन्दी में उनसे बातें करने लगी. अम्बालिका को वह किसी भी कोण से अपनी बहू के फ्रेम में फिट नजर नहीं आ रही थी. अपने मन के गुबार निकालते हुए बोली, “बेटी, बाकी तो सब ठीक था, पर बिना ब्याह के किसी के शयन कक्ष में रहना अनाचार है. इसे हमारी संस्कृति स्वीकार नहीं कर सकती है.”

वातावरण बहुत गंभीर और बोझिल हो गया तो गौरव ने कहा, “अगर आप लोग वैदिक रीति से शादी को चाहते हैं तो हम वैसा कर लेंगे.”

विभावरी ने कहा, “एक और विकल्प है कि हम कोर्ट मैरेज कर सकते हैं क्योंकि रजिस्ट्रार का सर्टिफिकेट भी हमें भविष्य में चाहिए होगा.”

बहुत मन्थन, आपसी विचार विमर्श के बाद यशोदानंदन ने बेटे से कहा, “मैं एक बार विभावरी के पिता से इस विषय में बात करना चाहता हूँ.” फोन मिलाया गया. पहले विभावरी ने गुजराती में सारी भूमिका व परिचय कराया फिर यशोदानंदन ने मोबाइल पकड़ा. "हेलो, हेलो," के अलावा वे एक दूसरे की बात समझ नहीं सके क्योंकि दोनों तरफ भाषा एक समस्या रही.

अम्बालिका ने पति से कहा, “ऐसे कैसे चलेगी रिश्तेदारी? मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा है.”

अगले दिन विभावरी के जाने से पहले यशोदानंदन व अम्बालिका ने दोनों को साथ बिठाकर सब तरह से समझाया और अपना निर्णय बताया कि ‘वैदिक रीति से विवाहोत्सव तो अवश्य होगा और वह अल्मोड़ा में होगा. वधु पक्ष के लोगों के रहने ठहराने की उचित व्यवस्था की जायेगी.’

यशोदानन्दन पन्त पत्नी सहित अल्मोड़ा लौट आये हैं. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक शादी की तारीख तय नहीं हो पायी है. यद्यपि दोनों पक्ष इस रिश्तेदारी को सहमत हैं, पर अम्बालिका इस त्रासदी को अपनी मजबूरी मानती है.
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बुधवार, 19 जून 2013

बैठे ठाले - 4

बड़े नामी शायर, निदा फाजली साहब, एक टेलीविजन चेनल द्वारा आयोजित गोष्ठी में कह रहे थे, “समय के साथ सब बदलता जाता है. नरेंद्र मोदी जी जो बारह साल पहले थे अब निश्चित तौर पर बदल गए होंगे. उनकी धार्मिक कट्टरता पहले जैसी नहीं रहेगी क्योंकि उनको देश चलाने के लिए आगे लाया जा रहा है.”  विधि-विधान या भविष्य के बारे में कौन जानता है? कुछ दिन पहले ही भाजपा में नरेंद्र मोदी जी की जिस तरह नमो: नमो: और ताजपोशी की गयी, उसकी चंद दिनों में ही हवा निकल गयी. पुरानी धारणा है कि किसी व्यक्ति द्वारा किये गए सद्कर्म या दुष्कर्म ताजिन्दगी उसका पीछा करते हैं.

फेसबुक पर मेरे कुछ युवा मित्रों ने गुजरात प्रदेश के चुनावों से पहले से मोदी जी के पक्ष में धुआँधार प्रचार शुरू कर दिया था. उनका मोदीप्रेम इस कदर क्यों हुआ? अवश्य ही उन्हें मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व गहरे भा गया होगा. मुझे यों भी लगता है कि नौजवान पीढ़ी को ‘इन्कलाब’ का जूनून होता है. यह जूनून हमने अन्नाजी की भ्रष्टाचार के विरुद्ध किये गए आन्दोलन में भी देखा था. अभी फेसबुक के कुछ मित्रों को जेडीयू के द्वारा भाजपा से तलाक होने पर गहरा सदमा भी लगा है.

अभी भी कौन जानता है कि संसद के अगले वर्ष होने वाले चुनावों तक क्या क्या समीकरण बनते बिगड़ते हैं. देश में जिस तरह का राजनैतिक वातावरण है उसमें कुछ भी हो सकता है.

मोदीवादियों को अवश्य अडवानी जी पर रोष होगा कि उन्होंने एक बना बनाया खेल बिगाड़ दिया है, लेकिन सोचिये अडवानी जी भी पुराने खाँटी-अनुभवी राजनैतिक कलाकार हैं. अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ती के लिए उनके पास कौन सा हथियार बचा था? मैं कहता हूँ कि बन्दर भी अगर बूढ़ा हो जाये तो कुलांट मारना और घुड़की देना नहीं भूलता है. ‘कुर्सी पकड़’ के खेल में कोई किसी का सगा नहीं होता है. मुगलों के इतिहास में बाप को जेल में डाल कर बेटा राजगद्दी पर बैठ जाता था. वैसे भी कहावत है कि प्यार में और युद्ध में सब जायज होता है. राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या स्थाई दुश्मन नहीं होता है. नेताओं को पाला बदलते देर नहीं लगती है.

संयुक्त राज्य अमेरिका को भी राजनैतिक परिपक्वता व स्थायित्व आने में पूरे दो सौ वर्षों के दौर से गुजरना पड़ा था. उसके कई तेज-तर्रार तो कोई सीधे सरल स्वभाव वाले राष्ट्रपतियों ने अपना कार्यकाल आलोचना-समालोचनाओं के बीच पूरा किया. सन १९२८ -१९३२ के बीच रहे राष्ट्रपति हरबर्ट हूवर (रिपब्लिकन) के बारे में एक मजेदार किस्सा कहा जाता है कि वे किसी को किसी बात पर ‘ना’ नहीं कहते थे. एक पत्रकार ने एक बार उनके पिता से पूछा, “अपने बेटे के विषय में आपके क्या विचार हैं?” तो उन्होंने हाजिर जवाबी के साथ बात में हास्य का पुट देते हुए कहा, “अगर वह एक औरत होता तो अब तक एक दर्जन से ज्यादा बच्चे जना होता.”

यह बात इस संदर्भ में आई है कि हमारे प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह जी को ‘मौनमोहन सिंह’ का ठप्पा लगाया जाता है. एक गैर राजनैतिक व्यक्ति का नाम हमारे जनतांत्रिक इतिहास में दस साल तक राज करने के लिए दर्ज हो जाये तो ये उनकी बहुत बड़ी उपलब्द्धि है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस अर्थशास्त्री को ऐसे दौर में देश का नेतृत्व सौंपा गया, जब सारा विश्व आर्थिक मन्दी के दौर से गुजर रहा था. इसके अलावा देश की आतंरिक व्यवस्था में बड़े लूट-खसोट व भष्टाचार उजागर हुए. बदनामी तो होनी ही थी.

अब ये एक तरह से संक्रांति काल चल रहा है. वामपन्थी विचारधारा के संगठनों में भी सुगबुगाहट है, लेकिन विभिन्न संगठनों के नेताओं द्वारा कुर्सियों की चाहत में बंटी हुई/उलझी हुई है. उधर वामपन्थी कहे जाने वाले चरमपंथियों को जनतंत्र की मुख्य धारा मे लाने की हिम्मत कोई वामपंथी नेता नहीं कर रहा है. ऐसे में आम देश वासियों का दिल कैसे जीत पायेंगे?

फेसबुक पर ही मेरे एक अन्य एडवोकेट मित्र नित्य मार्क्सवाद की स्तुति व पूंजीवाद की निंदा किया करते हैं. ये माना कि साम्यवाद वैज्ञानिक आधार वाले सिद्धांतों पर खड़ा किया गया था/है, पर वह भारत की धरती पर ठीक से नहीं उग पाया है. खेती तो हल से की जायेगी बन्दूक की नोक से नहीं. राष्ट्रीय दलों की अकर्मण्यता के कारण ही क्षेत्रीय दल कुकुरमुत्तों की तरह उभर आये हैं और सत्ता की चाबी अपने पास बताने लगे हैं.

अंत में, इस वर्ष मानसून ने जल्दी दस्तक दे दी है; कुछ इलाकों में घनघोर बारिश होने लगी है. चहुं ओर उल्लास व उमंग के साथ निराशा भी है कि प्राकृतिक आपदाएं भी साथ में आई हैं.
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सोमवार, 17 जून 2013

बिल्व फल

प्रकृति ने हमें अनेक औषधीय गुणों वाले फलों से नवाज़ा है. इनमें से बिल्व फल भी एक है. यह संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसे साधारण बोलचाल में ‘बेल’ कहा जाता है. अंग्रेजी में इसे wood apple कहते हैं. बेल प्राय: दक्षिणी एशिया के सभी समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में पाया जाता है. भारत के सभी क्षेत्रों में, विशेषकर तराई में समुद्र की सतह से ४००० फीट तक की ऊंचाई पर इसके पेड़ पाए जाते हैं.

हिन्दू धर्मावलम्बियों में बेल के वृक्ष को धार्मिक आस्थाओं के साथ भी जोड़ा जाता है. कहते हैं कि कल्याणकारी आदिदेव महादेव इस वृक्ष की जड़ों में वास करते है. अत: समूचे पेड़ की पूजा की जाती है. पार्थिव पूजा/शिवार्चन में अक्षत बेलपत्रों को लाखों की संख्या में अर्पित किया जाता है. इसकी त्रिपत्रक पत्तियों को सावन माह में शिवलिंगों पर गंगाजल और दूध के साथ चढ़ाया जाता है.

बेल के पेड़ १०-१५ फीट ऊँचे होते हैं जिनमें गर्मियों में हरे गोल फल लटकते दिखने लगते हैं. पकने पर ये हल्के पीले रंग के हो जाते हैं. फल बाहर से बहुत कठोर लकड़ी के समान होते हैं, जिसे तोड़ने पर अन्दर हल्के गुलाबी रंग का बीज युक्त सुगन्धित गूदा मिलता है. बेल के गूदे को बीजरहित करके सुखाकर चूर्ण के रूप में सुरक्षित रखा जाता है. इसके अलावा इसका मुरब्बा बना कर भी खाया जाता है.

बेल का गूदा आँतों की बीमारी की रामबाण औषधि होती है. प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रन्थ, चरक संहिता तथा सुश्रुत संहिता, में इसके बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है. अतिसार (डायरिया), पेचिस (डीसेनटरी) तथा अमीबियोसिस में ये तुरन्त लाभकारी होता है. गूदे में से बीज छान कर अलग करके इसका पेय (शर्बत) प्रात: खाली पेट लेने का नियम बताया गया है. इसकी तासीर ठण्डी होती है इसलिए गर्मियों में लू लग जाने पर इसे पिलाया जाये तो बहुत राहत मिलती है.

बेल की मज्जा में कई विशिष्ट अल्कलाईड यौगिक व खनिज लवण होते हैं, जो भूख व ऊर्जा दोनों को बढ़ाते हैं तथा रोग प्रतिरोधात्मक शक्तियों को बल देते हैं

पुराने जमाने में जब आज की तरह सीमेंट नहीं बनता था तो मकानों को मजबूती देने व जलरोधी बनने के लिए बेल के गूदे को चूने में मिलाकर भी लगाया जाता था.

बेल के बीजों से नए पौधे भी तैयार किये जा सकते हैं. इसके लिए बढ़िया किस्म के बड़े आकार के फलों से बीज लेने चाहिए. प्राय: बिल्व फल बाजारों में उपलब्ध रहते हैं
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शनिवार, 15 जून 2013

चुहुल - ५२

(१)
पति: बेगम, तुम बहुत खूबसूरत होती जा रही हो.
पत्नी : (रसोई घर से, खुश होकर) तुमने कैसे जाना?
पति : खुशबू आ रही है तुम्हें देखकर रोटिया भी जल रही हैं. 

(२)
एक लड़की को तीन लड़कों ने एक साथ प्रपोज किया. 
पहला: मैं तुम्हारे लिए जान तक दे सकता हूँ.
लड़की: ऐसा तो सभी दीवाने कहा करते हैं.
दूसरा लड़का: मैं तुम्हारे लिए चाँद-तारे तोड़ लाऊंगा.
लड़की: ये डायलॉग बहुत पुराना हो चुका है. 
तीसरा लड़का: मैं तुम्हारी स्कूटी में पेट्रोल डलवाता रहूँगा.
लड़की: (गले लगाकर, आँखों में आंसू लिए हुए) अरे पगले, इतना प्यार करता है मुझ से. आई लव यू, टू.

(३) 
एक भोले लड़के की शादी की तारिख नजदीक आ गयी थी, लेकिन वह उदास मायूस सा रहने लगा. उसके दोस्त ने इसका कारण पूछा तो वह बोला, “यार, ससुराल वालों ने पापा से कहा है कि बारात बहुत छोटी होनी चाहिए. पता नहीं पापा अब मुझको भी बरात में ले जाएंगे या नहीं?”

(४)
कक्षा में एक शरारती लड़के को डाँटते हुए अध्यापिका ने कहा, “अगर मैं तेरी माँ होती तो तुझे दो दिन में सुधार देती.”
लड़का खुश होकर बोला, “बहुत अच्छा मैडम. मैं आज ही पापा को बताता हूँ कि उनकी एक और लॉटरी लगने वाली है.” 

(५)
पति के घर देर से पहुँचने पर पत्नी ने देर से आने का कारण पूछा, "इतनी देर क्यों कर दी?"
पति: अरे क्या बताऊँ, एक आदमी का १००० रुपयों का नोट गिर गया था. 
पत्नी: तुम उसे ढूँढने में मदद करने लगे होंगे?
पति: (मुस्कुराते हुए) अरे नहीं, दरअसल मैंने उस नोट को अपने पैर से दबा रखा था.

गुरुवार, 13 जून 2013

मौत से साक्षात्कार

मुझे अपने साथ घटी अप्रिय घटनाओं को भूल जाने की आदत है. इसका लाभ ये होता है कि घाव हरे नहीं रहते है. यह स्वभाव की बात है, लेकिन मेरे साथ घटी तीन सच्ची घटनायें ऐसी हैं जो याद करने पर आज भी सिहरन पैदा करती हैं. इनको मैंने मौत से साक्षात्कार के रूप में अनुभव किया है.

पहली घटना: तब मैं दस साल का था. माघ महीने की संक्रांति के दिन बागेश्वर नगर में लगने वाले ‘उत्तरायणी मेला’ देखने बहुत से गाँव वालों/परिवार वालों के साथ गया था. लौटते समय शाम हो गयी. घर (गौरिउडियार गाँव) लगभग दो किलोमीटर दूर पन्द्रहपाली गाँव से ऊपर जंगल से गुजरते हुए, मैं साथ चल रहे लोगों से पिछड़ गया था क्योंकि तब मैं तेजी से चल नहीं पा रहा था. शरीर से भी कमजोर था. मेरे पीछे दस कदम दूर जरूर मेरे बुजुर्ग ताऊ स्व. हरिदत्त आ रहे थे.

अब तो सारे जंगल साफ़ कर दिये गए हैं, परन्तु तब वहाँ धौल की झाडियाँ, हरड़, आंवला, सानण, बाँज-फल्याठ, रीठा, काफल, बुराँश, जामुन, तुन आदि के बड़े बड़े पेड़ों के अलावा मालू के झाल पूरा अन्धेरा पातळ हुआ करता था. ये पहाड़ी जंगल केवल पेड़ों से आच्छादित नहीं थे, इसमें बड़ी बड़ी घास, बेल-लताएँ भी छाई थी. ऊंचाई पर एक स्तर के बाद ऊँचे ऊँचे चीड़ के पेड़ आज भी मौजूद होंगे. अकेले आदमी को दिन में भी इसके बीच से गुजरने पर डर लगा करता था. इस वन में जंगली जानवर भी बहुतायत में होते थे. बन्दर, लंगूर, घुरड, कांकड, भालू और बाघ (गुलदार) सबका बसेरा यहाँ था. बाघ शाम होते ही बस्ती के नजदीक गरजने लगते थे. रात में बस्ती में से पालतू कुत्तों को, खुले में बंधे जानवरों को उठा कर ले जाते थे. इस इलाके में आदमखोर बाघों की बातें तब कम ही सुनाई देती थी, फिर भी भय तो होता था. लोग इनके साथ जीने को मजबूर थे.

अचानक एक अंधे मोड़ पर एक बाघ प्रकट हुआ. उससे मेरी नजरें चार हुयी. मैं हक्का-बक्का था उसके और मेरे बीच सिर्फ ५ फीट का फासला था. मेरे रोंगटे खड़े हो गए और घिग्गी बंध गयी थी. बाघ मुझ पर झपटता उससे पहले ताऊ जी ने अपनी लाठी उसकी तरफ दे मारी. "हाट -हूट" किया वह उलटे पाँव झाडियों में गुम हो गया.

दूसरी घटना: अस्सी के दशक की बात है. मैं जयपुर से लाखेरी (जिला बूंदी, राजस्थान), सवाईमाधोपुर होता हुआ पसेंजर ट्रेन से  लौट रहा था. सर्दियों के दिन थे. रात पौने ११ बजे दिल्ली से मुम्बई जाने वाली जनता एक्सप्रेस से सवाईमाधोपुर से दूसरी गाड़ी में बैठना था. वहाँ से लाखेरी महज ४५ मिनट का सफर शेष था. ट्रेन आई, उसके जनरल डिब्बों में इतनी भीड़ थी कि बहुत कोशिश के बाद भी मैं घुस नहीं पाया इसलिए द्वितीय क्लास के स्लीपर के दरवाजे के पास गैलेरी में खड़ा हो गया. सवाईमाधोपुर जाड़ों की रातों में अतिशय ठण्डी जगह होती है. ट्रेन का अन्य विकल्प सुबह देहरादून एक्सप्रेस होता था इसलिए इस प्रकार सफर करना एक मजबूरी थी. मेरे जैसे अन्य यात्री जिनको कोटा की तरफ जाना था, साथ में थे. टिकट चेकर ने असंयत भाषा में सबको डांटा और अगले स्टेशन इन्दरगढ़ में उतर जाने का हुक्म दे दिया. कुछ लोग जिनको ज्यादा यात्रा का अनुभव था, उन्होंने टिकट चेकर को सुविधा शुल्क  देकर अन्दर जगह पा ली. मैं समझ रहा था कि लाखेरी वहां से महज १५ मिनट की दूरी पर है, वह मुझे उतारेगा नहीं, लेकिन उसने कोई रियायत दिये बिना हम चार-पाँच जनों को धक्का-मुक्की करके उतार ही दिया. इन्दरगढ़ में गाड़ी तीन मिनट रुकी आधा समय यों ही निकल गया. मैं भाग कर जनरल बोगी के बन्द दरवाजे पर चढ़ गया. अन्दर वालों ने शीशा तक बन्द किया हुआ था. लोग बुरी तरह बैठे-ठुंसे पड़े थे. गाड़ी चल पड़ी और स्पीड पकड़ती गयी. मैं किसी भी पोल पर टकरा सकता था, मेरे गले पर लटका हुआ बैग मुझे ज्यादा परेशान कर रहा था. उसमें अदालती कागजात थे. मैं ठण्डी बयार के थपेड़े सहते हुए दरवाजे का शटर पीट रहा था. मुझे लगने लगा कि मैं साक्षात मौत के मुँह में आ गया हूँ. इतने में एक भले मानुष ने मेरी स्थिति की गंभीरता को समझा और प्रयास करके दरवाजे को खुलवाया. (दुनिया में अच्छे लोग आज भी मौजूद हैं, पर उनकी संख्या बहुत कम है.) मैं बुरी तरह काँप रहा था और अपने दुस्साहस को कोस रहा था.

तीसरी घटना: ये अभी एक साल पहले की बात है. मैं अपने एक चचेरे भाई स्व. ताराचंद्र के साथ ना जाने क्यों कहीं निर्जन बीहड़ में चला गया था. ताराचंद्र मेरा भाई और बचपन का साथी, मुझसे एक साल छोटा था. उस अनजान दृश्य में अकाल्पनिक अनेक अजूबे थे. चलते चलते मेरे आगे एक गहरी ‘वापी’ (संकरा और गहरा कुवां) थी, जो मुझे दिखी नहीं. ताराचंद्र ने चिल्लाकर कहा, “दद्दा, उधर मत जाओ. आगे पाताल फोड़ कुआँ है!” मैं उसकी बात समझ पाता उससे पहले मेरे दोनों पैर फिसल गए और मैं उस अंधे कुँवे में नीचे की ओर तेजी से गिरते चला गया. मुझे अहसास हो रहा था कि मैं मौत के करीब हूँ. "हे राम, हे राम," कहते हुए मैं अपने माता-पिता, पत्नी व बच्चों को याद करते हुए इस सँसार से विदा हो रहा था. बहुत गहराई में जाकर मैं छपाक शब्द के साथ पानी में गिरा तो मेरी नींद खुल गयी. मैं बेहद डरा हुआ सहमा हुआ उठ बैठा. रात के तीन बजे थे. मैं उसके बाद सो नहीं सका. भाई ताराचंद्र को गुजरे हुए कई साल हो चुके थे. उसे अपने निकट ‘दद्दा’ पुकारते हुए सुना था तो मैं अपने बचपन में लौट पड़ा, पर मौत से साक्षात्कार अवश्य हुआ.
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मंगलवार, 11 जून 2013

चक्की का आटा

गोपू उर्फ गोपालकृष्ण सेंट जेवियर में सेवन्थ स्टेंडर्ड में पढ़ता है. आज जब वह स्कूल बस से उतर कर घर की तरफ चला तो पीछे से एक औरत ने अपने साथ चलने वाली दूसरी औरत से कहा, “ये मोटू किस चक्की का आटा खाता होगा?”

गोपू ने मुड़ कर उस औरत की तरफ देखा तो वे दोनों उसके डील-डौल पर हँस रही थी. गोपू को बहुत गुस्सा आया. अगर आस पास कोई डंडा होता तो वह इन चिढ़ाने वालों पर मार ही देता, पर मन मसोस कर रह गया.

दरअसल गोपू खाते-पीते घर का बच्चा है. छुटपन से ही दादी और मम्मी दोनों उसके पीछे पड़ी रहती थी कि “और खा... और खा” वजन बढ़ाने के तमाम लज़ीज़ खाने, फास्ट फूड और मिठाइयाँ बड़े प्यार व अनुग्रह के साथ परोसती थी.

जब आठ साल में ही गोपू का साइज उसके उम्र के हिसाब से दुगुना-ड्योढ़ा और वजन ७० किलोग्राम तक पहुँच गया, तब सबको उसकी चिंता सताने लगी. पापा उसे बॉम्बे हॉस्पिटल के बालरोग विशेषज्ञ डॉक्टर गोविल के पास ले गए डॉक्टर ने बताया कि गोपू के शरीर में कुछ हॉर्मोन्स के असंतुलन से मोटापा बढ़ रहा है. उन्होंने थायराइड सहित अनेक खून के जांच भी करवाए. बाद में कुछ महंगी महंगी गोलियाँ खाने को लिख दी. साथ ही उन्होंने खाने पर नियंत्रण करने की हिदायतें भी दी. इस प्रकार गोपू के भोजन पर पूरी निगरानी रखी जाने लगी. उसे भरपेट तसल्ली पूर्वक खाने को नहीं दिया जाने लगा, लेकिन गोपू भी क्या करता, भूख तो मोटे व्यक्ति को ज्यादा ही सताती है. वह चोरी छुपे अपनी तृप्ति कर लेता था .खास तौर पर डॉक्टर ने आइसक्रीम खाने को मना किया था, लेकिन आइसक्रीम में गोपू की जान बसती थी, मौक़ा मिलते ही आइसक्रीम भी खा लेता था.

मोटापे का क्या है, दुनिया की एक चौथाई आबादी मोटापे से ग्रस्त है. "सब टी.वी." पर "मेहता जी का उल्टा चश्मा" धारावाहिक में डॉ. हाथी और उनके बेटे छोटे हाथी के पात्रों को देख कर गोपू को बड़ी तसल्ली मिलती थी कि वह अकेला नहीं है. जापानी सूमो पहलवान तो अच्छी खासी कुश्ती लड़ लेते हैं. वह सोचता था, "पता नहीं दुनिया के लोगों को क्या तकलीफ है उसके ऊपर राह चलते फब्ती कस कर जाते हैं. जैसे कि उनके बाप का माल खाया हो." गोपू ने इंगलैंड के भूतपूर्व लोकप्रिय प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल के विषय में पढ़ा था. उनकी स्थूल काया की फोटो भी देखी थी. इतने बड़े महापुरुष गोलगप्पा हो सकते हैं, तो क्यों चिंता की जाये? 

पर इस मोटापे से उसे कभी कभी बहुत तकलीफ होती थी. थकान जल्दी होती थी, दम फूलने लगता था, और भूख भी बहुत लगती थी. और चौड़े चौड़े कपड़े पहनने पड़ते थे. सबसे बड़ा दुःख यह था कि देखने वाले अजूबे की तरह देखते थे, जैसे कि वह चिड़ियाघर का कोई प्राणी हो.

आज इस औरत के ‘बोल’ पर और उनकी खी-खी की हंसी ने गोपू के अन्दर तक चोट पहुंचा दी. वह घर पहुँचते ही धम्म से सोफे पर पसर गया. पापा ने उसे देखा तो पूछा, “क्या बात है बेटा, ज्यादा थकान हो गयी है क्या?”

गोपू ने गंभीरता से पापा से कहा, "पापा, ये चक्की का आटा क्या होता है? एक औरत अभी रास्ते में मेरी मजाक बना रही थी कि 'कौन सी चक्की का आटा खाता है'?"

मुम्बई महानगर के पैडर रोड इलाके में रहने वाले बच्चे ने कभी आटा चक्की देखी भी नहीं थी, और न उसे चक्की के बारे में कोई जानकारी थी. पापा गोपू की बात का मतलब समझ गए और उसको सान्त्वना देने के लिए उन्होंने एक मजेदार भाषण दे डाला, “क्या तुमको मालूम है कि आग के आविष्कार के बाद आदि मानव ने जो बड़ा महत्वपूर्ण आविष्कार किया वह ‘ह्वील’ यानि पहिया था जिसके आधार पर दूसरे तमाम छोटे-बड़े यंत्र बने और सुधरते रहे. अगर पहिये का आविष्कार नहीं होता तो आज की मशीनें कहाँ चल पाती? 

"उस जमाने में बिजली नहीं होती थी. सब काम हाथों से करना पड़ता था. अनाज पीसने के लिए पत्थरों का चाक बना जिसमें कठोर सैंडस्टोन के दो गोल पाट होते हैं. ऊपर वाले पाट के बीच में एक छेद द्वारा अनाज डाला जाता है और ऊपर की पाट को एक हैंडल से गोल घुमाया जाता है. तब आटा बाहर निकलता है. अब तो बिजली से चलने वाली चक्कियों में अनाज पीसा जाता है. हमारे देश के दूर दराज गाँवों में आज भी हाथ से घुमाई जाने वाली चक्कियां चलती हैं. पहाड़ों में पानी की धारा से फिरकनी घुमाकर ‘घराट’ चक्कियां अनाज पीसा करती थी, अब ये सिर्फ इतिहास की बातें होती जा रही हैं. आजकल बड़ी बड़ी मिलों में स्वचालित मशीनें अनाज को साफ़ करती हैं, धोती हैं, सुखाती हैं, और फिर पीस कर पैक करती हैं. वह आटा बाजार में आने के बाद हम खाया करते हैं.

"'कौन सी चक्की का आटा खाते हो?' यह तो एक मुहावरा है, जो लोग मोटे व्यक्ति को देख कर अकसर बोला करते हैं. इसमें इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है. तुम अपनी डाईट पर खुद कंट्रोल रखो. हाई कैलोरी और फैट्स वाले फास्ट फूड से बचो. खूब सलाद खाया करो, जरूरी व्यायाम किया करो. स्वस्थ रहने की दिनचर्या खुद तय करो.”

पापा ने आगे यह भी कहा, “तनाव में बिलकुल नहीं आना चाहिए. बहुत से मोटे थुलथुल लोग खुद पर ही हँस लेते है. हंसना बहुत बदी नियामत है, जिससे उनका स्नायुमंडल दुरुस्त रहता है.”

गोपू ने पापा के बातों का खूब मजा लिया और उसकी सारी परेशानी दूर हो गयी. खाने के मामले में आत्मसंयम करने की ठान कर हँसते हुए डाइनिंग टेबल पर परिवार के साथ बैठ गया, जहाँ सब लोग एक ही चक्की का आटा खा रहे थे.
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शनिवार, 8 जून 2013

रिन्कू

रिन्कू नाम है उसका. उसको अपनी जाति का पता नहीं है. उसकी माँ ने केवल यह बताया था कि उसका बाप उसके पैदा होने से पहले कहीं गायब हो गया था. 

कहानी की शुरुआत यों होती है कि बाईस साल पहले आगरा के मोहनपुरा इलाके में एक मजदूर जोड़ा, बाबू और उसकी पत्नी नट्टी, कहीं राजस्थान के देहात से आकर झोपड़ी बना कर रहने लगे. इधर उधर खुली मजदूरी करके पेट् पालते थे. बाबू को नशे की लत थी. एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन पड़ोस के एक छोकरे द्वारा चिढ़ाये जाने पर बाबू ने उसे एक जोरदार थप्पड़ दे मारा. होनहार कि वह छोकरा वहीं पर मर गया. किसी ने देखा नहीं फिर भी डर के मारे बाबू भाग खड़ा हुआ. बाद में जब लाश को लोगों ने देखा तो हो हल्ला हो गया, हुजूम इकट्ठा हो गया, पुलिस आई शक में नट्टी को पकड़ कर ले गयी. वह बेचारी ये नहीं बता सकी कि लड़के को उसने नहीं उसके पति ने थप्पड़ मारा था. सारा इल्जाम उस पर आ गया. उसे जेल भेज दिया गया. बाबू तो उसे तलाशने भी नहीं आया.

नट्टी तब सात महीने के गर्भ से थी. कुपोषण की शिकार भी थी. जब उसे अदालत मे पेश किया गया तो उसने हां या ना कुछ कहे बिना केवल सर हिलाकर अपना गुनाह कबूल कर लिया. नट्टी के लिए ये सब नया अनुभव था उसने पहली बार जाना वकील, जज और अदालत क्या होता है. उसको मन ही मन खुशी थी कि बाबू पुलिस की मार से बच गया था.

उसकी गर्भावस्था और रुग्णता को देख कर पीठासीन महिला जज महज ५००० रुपयों के जमानत-मुचलके पर छोड़ देना चाहती थी, पर जमानत देने वाला कोई नहीं था, उसे जेल भेज दिया गया. बहुत दिनों तक तक वह बाबू का इन्तजार करती रही पर वह नहीं आया ना ही उसकी कोई खोज खबर आई. लाता भी कौन? उसका इस शहर में कोई अपना नहीं था. चूँकि वह गर्भवती थी, जेल के डॉक्टर ने उसको आवश्यक दवाएं व विटामिन दिये जो शायद बाहर रहने पर उसे उपलब्ध नहीं होते.

जेल में उसकी बैरक में बहुत सी सजायाफ्ता औरतें थी. नट्टी ने जब एक हमदर्द औरत को बताया कि कुसूर तो उसके पति से हुआ था, उसे बचाने के लिए जेल में आना पड़ा तो ये बात सब तरफ फ़ैल गयी. सभी महिलाओं की हमदर्दी उसको मिलने लगी. कुछ तेज तर्रार औरतें तो उस पर दबाव बनाने लगी कि सच सच बोल कर खुद आजाद हो जाये, पर नहीं, वह सोचती है कि आज या कल उसे जेल से छोड़ दिया जाएगा वह अपने बाबू को फिर से ढूंढ लेगी. उसे ज्यादा चिंता ये लगी रहती थी कि बाबू किस हालत में होगा, अपने खाने का क्या जुगाड़ करता होगा. नट्टी बाबू को याद कर कर के रोती थी.

जेल के अस्पताल में ही नट्टी ने बेटे को जन्म दिया. जाने-अनजाने सबने उसको नाम दे डाला ‘‘रिन्कू’. और रिन्कू अपनी माँ के दुर्भाग्य के साथ बंधा ही रहा. तीन साल की उम्र होने तक वह बैरक की महिलाओं के बीच पलता रहा, उसके बाद उसे समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित अनाथालय में भेज दिया गया.

माँ का प्यार, माँ का आँचल, और माँ की गोद मे हर बच्चे की अपनी अनोखी दुनिया होती है. रिन्कू आम बच्चों से अलग छुटपन में ही सयाना हो गया. वह लोगों की बातें गौर से सुनता था और नित्य बेक़सूर माँ को जेल से बाहर लाने के सपने देखा करता था.

अपने एक अध्यापक को उसने अपनी पूरी रामकहानी सुनाई. उन्होंने उसे बहुत सी सांसारिक और अदालती बातें बताई. उन्होंने कहा कि “रूपये पास में हो तो सारे काम सरल हो जाते हैं. तुम कुछ काम करो, रूपये कमाओ, और किसी वकील के मार्फ़त अदालत में अपील करो.” गुरुमंत्र मिलने के बाद रिन्कू काम की तलाश में रहा और उसे एक हाउसिंग प्रोजेक्ट में काम मिल भी गया. उसकी जमा पूंजी दो हजार होते ही वह शहर के एक नामी वकील कुमार साहब के पास गया. उसने एक ही वाक्य में वकील साहब का दिल छू लिया, “आप मेरी बेक़सूर माँ को जेल से छुड़वा दीजिए, हम दोनों माँ-बेटा जिंदगी भर आपकी सेवा करते रहेंगे.”

वकील कुमार साहब ने अपनी माँ बचपन में खो दी थी, और वे हमेशा अपनी माँ को श्रद्धापूर्वक याद किया करते थे. इस लड़के की अपनी माँ के प्रति आसक्ति देखकर वे द्रवित हो गए. जब रिन्कू ने अपनी पूरी जमापूंजी २००० रूपये वकील साहब के चरणों मे रख दी तो कुमार साहब ने गंभीरता से सोचा कि रूपये तो जिंदगी भर कमाता रहा हूँ, यह पुण्य कमाने का अवसर इस प्रकार पहली बार मिला है. वे बोले, "ठीक है, मैं तुम्हारी माँ को रिहा करवाने की पूरी कोशिश करूँगा, पर ये रूपये तुम अपने पास ही रखो, मेरी तरफ से मदद समझ लो.”

अदालत में इस केस को दुबारा खोलने व नए सिरे से बहस करके परिणाम तक पहुँचाने मे ६ महीने लगा गए, और नट्टी रिहा हो गयी. रिन्कू ने मातृऋण चुका दिया. वकील साहब को अनेक प्रकार से धन्यवाद दिये क्योंकि उन्होंने इस केस की पैरवी करने लिए कोई फीस नहीं ली और न कोई अपेक्षा इन माँ-बेटे से की. 

२२ बर्षों के बाद नट्टी अपने बेटे रिन्कू के साथ ईदगाह स्टेशन पर राजस्थान की ओर जाने वाली रेल गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठी है. उसकी नजरें फिर भी बाबू की तलाश में इधर उधर भटक रही हैं, कि क्या पता वह यहीं कहीं घूम रहा हो!
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गुरुवार, 6 जून 2013

खयाली विकास प्राधिकरण

उत्तरांचल के लीलाधर भट्ट अपनी जवानी में ही लखनऊ आ गए थे. एक सरकारी अस्पताल में बतौर वार्ड-बॉय नियुक्ति पा गए थे. ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे इसलिए साठ साला रिटायरमेंट तक ‘बॉय’ ही रहे.

लीलाधर भट्ट बड़े सज्जन, सरल व आस्थावान व्यक्ति हैं, गरीबों, निराश्रितों की सेवा सुश्रुषा में उनको बहुत आत्म सन्तोष व सुख की अनुभूति होती है. वे अपनी नित्यचर्या मे कुछ समय निकाल कर चोटिल-बीमार जानवरों की मरहम पट्टी भी करते रहते हैं. उनके मृदुल स्वभाव के अनुकूल लोग उनको ‘दयालु’ उपनाम से अधिक जानते हैं.

अस्पताल की सेवा काल की उनकी विशिष्ठ उपलब्धि यह रही कि अपने तीनों बेटों को उन्होंने कॉलेज तक की शिक्षा दिला दी. वे इसे अपने इष्टदेव ‘गोल्ज्यू का आशीर्वाद मानते है. 

बड़ा बेटा गजाधर बी.कॉम है. उसकी एक शेड्यूल्ड बैंक में स्थाई नौकरी है. मझला दयाधर उत्तर रेलवे में टी.टी.ई. की नौकरी पाकर खुशहाल है. छोटा खयाली बचपन से ही बहुत शैतान स्वभाव वाला है. हमेशा उल्टे सीधे तरीकों से रूपये कमाने के चक्कर में रहता आया है. उसकी उड़ान के अनुसार उसे कोई स्थाई नौकरी नहीं मिल सकी तो उसने अपने जैसे ही यार-दोस्तों के साथ मिलकर सड़क परिवहन विभाग (आर.टी.ओ.) के कार्यालय में दलाली का काम शुरू कर दिया. इसमें वह लोगों के ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने, रिन्यू करवाने, गाड़ियों का रजिस्ट्रेशन-ट्रान्सफर आदि करवाने में कार्यालय कर्मियों से मिलीभगत करके अच्छा पैसा कमाने लग गया. जब धन्धा चल निकला तो उसने गोमती नगर में अपना एक कार्यालय खोल लिया जहाँ से सेवा विस्तार करते हुए रेल रिजर्वेशन, हवाई टिकट आदि बुकिंग का काम भी शुरू कर दिया, और बाद में धीरे धीरे सट्टेबाजी तथा हवाला कारोबार के नेटवर्क से भी जुड़ गया. इस काम के लिए उसने अपने दो सहायक भी रख लिए. दयालु अपने इस बेटे के बौद्धिक अध्यवसाय व समृद्धि से खुश थे, पर वे उसकी कारगुजारियों से अनभिज्ञ थे.

नौकरी से रिटायर होने के बाद वे अपनी पत्नी सहित पैतृक गाँव ताम्बाखाणी लौट आये. रिटायरमेंट से पहले ही उन्होंने तीनो लडकों की शादी करके अपनी बड़ी जिम्मेदारियां भी पूरी कर ली थी. इस पहाड़ी गाँव में उनका एक खुटकूण (पत्थरों से चिनी हुई बाहरी सीढ़ी) वाला दुमंजिला छोटा सा घर तथा थोड़ी ऊसर जमीन है, जो बरसों से बंजर पड़ी हुई है. चूंकि इस घर से बचपन की बहुत सी यादें जुड़ी हुयी हैं, वे बेसब्री से अपने रिटायरमेंट का इन्तजार कर रहे थे. घर के पास ही पानी का एक पुराना नैसर्गिक जल श्रोत है, जिसके बगल में गोल्ज्यू का मन्दिर भी स्थापित है. गाँव लौट कर दयालु ने नए सिरे से व्यवस्थित होने के तमाम उपाय किये यद्यपि बिछड़े वर्षों में बहुत कुछ बदल चुका है.

ताम्बाखाणी गाँव में बिरादरी के २५ परिवार हुआ करते थे, पर अब गिनती के १० रह गए हैं. सब दिल्ली-लखनऊ या तराई-भाबर की तरफ पलायन करके चले गए हैं. इस कारण गाँव में सुनसानी है. उनके बचपन में गाँव सरसब्ज था, गुलजार रहता था, दूध-दही व अनाज-सब्जियों की बहार हुआ करती थी, लेकिन अब तो लोगों ने जंगली सूअरों, बंदरों व अन्य जानवरों द्वारा नुकसान किये जाने के भय से सारे उद्यम करने छोड़ दिये है. दयालु गाँव की ऐसी हालत देख कर बहुत दुखी हुए. गोल्ज्यू के मन्दिर के प्रांगण मे बैठ कर घंटों जप-तप और ध्यान करने की कोशिश करते, पर मन केंद्रित नहीं हो पा रहा था.

पिछले सप्ताह एक अप्रत्याशित घटना घटी कि इंग्लैण्ड से एक पाँच सदस्यीय खोजी दल पूछते पूछते उनके गाँव में आ पहुँचा. यह दल अपने साथ दिल्ली से दुभाषिया भी लाया था. दल के मुखिया स्टूअर्ट ह्यूम ने लीलाधर भट्ट को बताया कि उनके बेटे खयाली ने एक वेबसाईट ‘ताम्बाखाणी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट’ के माध्यम से दुनिया भर से अपने एन.जी.ओ. के लिए कई लोगों व संगठनों से लाखों डॉलर्स प्राप्त किये हैं. मिस्टर ह्यूम ने बताया कि वेबसाईट पर लिखा है कि इस प्रोजेक्ट के तहत ताम्बाखाणी डिविजन में इन्फ्रास्ट्रक्चर- रोड, आवासीय कालोनियाँ, मल्टीपरपज ऐज्युकेशनल इंस्टीट्यूट और एक डैम का नक्शा खींचा गया है, जबकि यहाँ ऐसी कोई संभावना दूर दूर तक नहीं है. उन्होंने बड़े दु:ख के साथ कहा कि “आपके बेटे ने हम लोगों को ठगा है.”

यह टीम उसी दिन लौट गयी. बात सारे गाँव के लोगों तक पहुँच गयी. दयालु अपने बेटे की करतूत पर बहुत शर्मिन्दा हुए. दुखी मन से घर को ताला लगा कर चुपके से बड़े बेटे गजाधर के पास चंडीगढ़ चले गए. उनको लग रहा है कि उनकी जिंदगी भर की नेक नियति की कमाई खयाली ने गंदी नाली में डाल दी है.
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मंगलवार, 4 जून 2013

चिन्तन

इस देश का कुछ नहीं होने वाला. ये यों ही घिसट कर चलेगा क्योंकि पूरे कुँवे में ही भांग पडी है. पूरे तन्त्र में भ्रष्टाचार अब कैंसर रोग की तरह अपनी जड़ें जमा चुका है.

हमारे संविधान के तहत दी गयी राजनैतिक व्यवस्था भ्रमित होकर फेल हो गयी है. कोई सिद्धान्त नहीं रहा, सब तरह कुर्सियों व पैसों का खेल बेशर्मी से खेला जा रहा है. नेता व जिम्मेदार लोग ढीठ व बेशर्म हो चुके हैं. रूपये का इतना अवमूल्यन होने का कारण यह है कि उनका हिसाब-किताब रखना मुश्किल है क्योंकि बेहिसाब नोट छाप दिये गए हैं, ऊपर से नकली नोटों का चलन, बिलकुल हूबहू, शक ये भी है कि नोटों की तिजारत उन्हीं छापेखानों से हो रही है जहाँ भारत सरकार छपवाती है.

खिलाड़ी बिके हुए हैं. उन पर बोली लगती है. खरीदने वाले धन्ना सेठ, उद्योगपति, सिने कलाकार, घाघ नेता या सटोरियों के ग्रुप हैं, जो बिना हींग-फिटकरी लगाए ही करोड़ों-अरबों की काली कमाई कर रहे हैं और बंदरबांट हो रही है. बदगुमानी की हद ये है कि आवाज उठाई जा रही है कि सट्टेबाजी को कानूनी मान्यता दे दी जाये.

तमाम संवेदनशील मुद्दों पर मीडिया ऐसी हवा बना देता है कि आम लोग हिप्नोटाइज से हो जाते हैं. मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा खम्बा कहा जाता है, वह भी धन बटोरने का बड़ा जरिया बन गया है.

जो लोग बढ़-चढ़ कर भ्रष्टाचार-अनाचार के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, उनमें से कुछ ही गिने चुनी हस्तियों को छोड़ कर शेष अपनी गोटी फिट करने में मशगूल हैं.

लाख कोशिशें की जाएँ, पर विधान सभा या लोकसभा के चुनावों में धनबल व बाहुबल के खेल के साथ जाति तथा धर्म ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं. चूंकि अब क्षेत्रीय दल पूरे देश में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं, एकदलीय शासन का अंत हो गया है. इसलिए राजनैतिक पार्टियां अपनी गैंग बना कर सत्ता में काबिज हो रही हैं. विचारधारा या सिद्धांतों से दूर केवल व्यक्तिगत  फायदे वाला सामंजस्य किया जा रहा है.

सम्पूर्ण राष्ट्र का चरित्र-ह्रास सा लगाने लगा है. अब इन परिस्थितियों में किसी चमत्कार की आशा करना भी व्यर्थ लगता है. घोर निराशाजनक स्थिति है.
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रविवार, 2 जून 2013

चुहुल - 51

(१)
एक दुबले-पतले साहब की पत्नी कुछ ज्यादा ही मोटी-भारी थी. स्वभाव से अति आलसी भी. एक दिन बिस्तर पर पड़े पड़े दार्शनिक अंदाज में पति से बोली, “अजी, मौत कौन सी अच्छी रहती है, जो धीरे धीरे अपने आगोश में ले ले या चटपट आ जाये?”
पति बड़ी देर से परेशान था क्योंकि पत्नी ने अपनी एक टांग उसके ऊपर रखी हुयी थी, बोला, “तुम अपनी दूसरी टांग भी मेरे ऊपर रख दो, मैं चटपट ही मरना चाहता हूँ. अब और नहीं सहा जाता है.”

(२)
अकबर बादशाह कई बार ऊलजलूल सवाल पूछ कर अपने नवरत्न वजीर बीरबल की परीक्षा लिया करते थे. एक बार उन्होंने बीरबल से पूछा, “बीरबल, रमजानों में खायें भी, पियें भी और रोजा भी न टूटे ऐसी कोई तरकीब बताओ?”
बीरबल ने तुरन्त जवाब दिया, “हुजूर, किसी की लात खाइए और अपना गुस्सा पी जाइए, इससे आपका रोजा भी बचा रहेगा.”

(३)
पति-पत्नी में जोरदार झगड़ा हो रहा था. आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे थे.
पत्नी: काश! मैंने अपनी माँ का कहा माना होता और तुमसे शादी के लिए मना कर देती.
पति: क्या तुम्हारी माँ तुम्हारा ब्याह मुझसे करने को मना कर रही थी?
पत्नी: और नहीं तो क्या?
पति: हे भगवान! मैं आज तक उस औरत को बहुत बुरा समझता रहा जो मुझे इस नर्क से बचाना चाहती थी.

(४)
संस्कृत के अध्यापक ने पढ़ाते पढ़ाते बीच में किसी सन्दर्भ में वेदान्त की बातें बताई, और एक विद्यार्थी से पूछा, “वेदान्ती का मतलब जानते हो?”
लड़का बोला, “आदरणीय, वेदान्ती उस व्यक्ति को कहते हैं, जिसके दाँत नहीं होते है.”

(५)
एक फैशनेबल महिला जूतों की दूकान में अन्दर गयी. सेल्समैन से बोली, “शूज दिखाइए.”
सेल्समैन ने पूछा ”कितने साइज का?”
महिला ने जवाब दिया, “छत्तीस.”
सेल्समैन कुछ देर संशय में रहा फिर बोला, “मैडम घर से ठीक से सोच कर निकला करो कि क्या खरीदना है?”
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