शुक्रवार, 30 मार्च 2012

पानी रे पानी

चित्र सौजन्य: permacultureusa.org
रहीम खान खाना लिख कर गए हैं,
"रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून. 
पानी बिना ना ऊबरे मोती, मानस, चून."


आज से कुछ दशक पहले हम सोच भी नहीं सकते थे कि पीने का पानी बोतलों में खरीद कर पिया करेंगे. अब शुद्ध/मिनरल वाटर के नाम से पानी खरीदना हमारी मजबूरी/आदत हो गयी है.


पानी की महिमा अपरम्पार है. इस दुनिया में दो हिस्सा पानी है और एक हिस्सा जमीन, फिर भी हम पानी के लिए रोये जा रहे हैं. पञ्च भूतों में जल एक महत्वपूर्ण घटक है. यदि जल ना हो तो प्रकृति की प्रक्रियाएं बन्द हो जायेंगी. वैज्ञानिक लोग दूसरे ग्रहों में खोज करके जानने की कोशिश करते आ रहे हैं कि अन्यत्र कहीं पानी है या नहीं. हम तो इतनी दूर की नहीं सोचना चाहते हैं. गर्मियां आ रही हैं और हमारे जल स्रोत सूखते जा रहे हैं. कई शहर-कस्बों में पानी के लिए खाली बर्तनों की लम्बी कतारें लगने लगी हैं. जहां पानी का अच्छा साधन है वहाँ भी लोगों से अपील की जा रही है कि जल ही जीवन है, इसे व्यर्थ बर्बाद ना करें.


मेरे एक नजदीकी मित्र हैं, जिन्होंने जल-संसाधनों में पी.एच.डी. की है और जीवन भर इसी विषय वे पढ़ते-पढ़ाते रहे हैं और बड़े बड़े पदों पर काम करते रहे हैं, साथ में रिसर्च भी करते रहे हैं. लेकिन ऐसे बड़ी सोच-समझ वाले लोग देश के बाहर विदेशों में जा कर बस जाते हैं क्योंकि उनको यहाँ पर जरूरी सुविधाए व धन नहीं मिलता है.

ये तो ईश्वर/प्रकृति की माया है जिसका पार किसी ने नहीं पाया है. अमेरिका में अमेजन नदी, अफ्रीका में नील नदी, चीन में यांग्त्से नदी, पश्चिमी एशिया में दजला और फरात नदियाँ, भारत में गंगा नदी, इसी प्रकार सभी देशों में अपनी अपनी नदियाँ लाइफ लाइन की तरह हैं. पुरातन काल से ही जितनी बड़ी बड़ी सभ्यताएं दुनिया में विकसित होती रही सभी नदियों की तटों पर ही हुई हैं. जबसे मनुष्य खेती पर निर्भर रहने लगा है, सिंचाई के लिए जल संसाधनों की आवश्यकता रहने लगी, चाहे वह कुआँ-बावडी हो या गूल-नहर. आजादी के बाद देश में जल प्रबंधन के लिए कई विभाग बने, आयोग बने, और डैम तथा नहरों का जाल बिछाया गया फिर भी बहुत बड़ा मैदान इस क्षेत्र में खाली लगता है. हाल में पूरे देश की नदियों को आपस में जोड कर, बर्बाद जा रहे पानी से जरूरत वाले प्रदेशों को सिंचित करने की बात को नए सिरे से स्वीकृति मिली है.


आबादी बढ़ने से नदियों पर दबाव भी बहुत बढ़ गया है. और ओद्योगीकरण के कारण नदियों में कैमिकल प्रदूषण भी हद दर्जे तक बढ़ गया है. नदियों की सफाई व उन्हें प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकारी व गैर सरकारी अनेक संगठन काम कर रहे हैं लेकिन ये सब कसरत ऊँट के मुँह में जीरा साबित हो रहे हैं. इसके अलावा समस्या ये भी है कि इस मद में जो राशि आवंटित की जाती है, वह सही ढंग से संयोजित नहीं हो रही है. जो लोग इसमें जुड़े हुए हैं, वे दिखावा ज्यादा तथा असल काम कम कर रहे हैं.

गंगा, यमुना नर्मदा आदि कई नदियाँ हमारी धार्मिक आस्थाओं से भी जुड़ी हुई हैं, पर अब इनका जल सीधे सीधे पीने योग्य नहीं रह गया है. गत दो वर्ष पूर्व मेरी एक रिश्तेदार, जो अति धार्मिक आस्थाओं वाली हैं, इलाहाबाद गयी थी गंगा में एक डुबकी लगाने के बाद एक लोटा पानी इसलिए पी गयी कि वह गंगा जल था, फलस्वरूप उल्टी-दस्त की ऐसी शिकायत हुई कि बड़ी मुश्किल से एक महीने में सम्हल पाई.

आज की तरह पिछली शताब्दी में पीने के पानी के शोधन के लिए फिल्टर्स/आर-ओ आसानी से उपलब्ध नहीं थे. बड़े शहरों में जरूर जलशोधन के लिए रिज़रवोयर्स में बड़े फिल्टर्स लगाए जाते थे, जिसमें फिटकरी, क्लोरीन अथवा ब्लीचिंग पाउडर डाल कर पानी को पीने योग्य बनाया जाता रहा है. ये सब होते हुए भी पीने के पानी के लिए जो अंतर्राष्ट्रीय मानक है, हमारा ग्राफ उससे बहुत नीचे रहा है. मैदानी इलाकों में कुँए बावडियों के पानी में भी बहुत शिकायतें होती हैं. पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में पानी में आर्सनिक की इतनी मात्रा है कि बड़ी जनसंख्या उसके दुष्प्रभाव से विकलांगता की शिकार है. पानी का खारापन भी एक अभिशाप जैसा ही है.

पहाड़ों में बरसात का पानी पेड़ों की जड़ों द्वारा संगृहीत होता है, जो ऊंचाई पर भी वर्ष भर झरनों, धाराओं, या चश्मो-नौलों में उपलब्ध रहता है. ये वास्तविक मिनरल वाटर होता है. अन्यथा छोटी या मध्यम श्रेणी की नदियों में जो पानी बहता है, उसमे गंदे नालों-गधेरों की गन्दगी भी समाहित रहती है, जो बिना उचित ट्रीटमेंट के कत्तई पीने योग्य नहीं होता है. ट्रीटमेंट प्लांटों की गुणवत्ता पर भी कई बार सवाल उठाये जाते हैं क्योंकि नलों में कीड़े-मकोड़े, केचुए, सांप-मेढक के बच्चे निकल आते हैं. भारत में नदियों के किनारे पर शव दाह करने अथवा मरे हुए जानवरों के बह कर आने से पानी बेहद प्रदूषित रहता है. इसके लिए बड़े स्तरों पर जन जागृति एवं मैनेजमेंट की जरूरत है. शहरों के गंदे पानी की निकासी भी बड़ी चुनौती है. इसकी रीसाइक्लिंग करके अन्य उपयोगों में लिया जाना चाहिए. इस मामले में हम सिंगापुर व चीन के प्रबंधन से बहुत कुछ सीख सकते हैं, जिन्होंने इस क्षेत्र में काफी सफलता हासिल कर ली है. अपशिष्ट डिस्पोजल भी सीधे सीधे तौर से पानी की शुद्धता के प्रश्न से जुड़ा हुआ मामला है. ग्रामीण क्षेत्रों में इस ओर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है.

बारिश कम होने अथवा जल स्रोतों के अत्यधिक दोहन से धरती का जल स्तर निरंतर नीचे जा रहा है, ये भी चिंता का विषय है. बात ये भी सही लगती है कि हमारे देश में समस्या पानी की उपलब्धता की उतनी नहीं है जितनी कि उसके ठीक से प्रबंधन की है.

जहाँ तक पूरे विश्व का सवाल है, अलग अलग देशों/महाद्वीपों की अपनी भौगोलिक स्थितियों पर पानी का मामला विचारणीय होगा लेकिन ये भी कहा जा रहा है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाने वाला है. इधर ग्लोबल वार्मिंग का दुष्प्रभाव ये भी खतरे के रूप में बताया जा रहा है कि ग्लेशियर्स धीरे धीरे पिघलते जा रहे हैं और उनका पानी समुद्र का जलस्तर बढाता जा रहा है. एक समय ऐसा आएगा कि मालदीव जैसे समुद्री टापू देश तथा खाडियों में बसे हुए शहर पानी की डूबत में आ जायेंगे, जो कि बड़ी त्रासदी होगी.

अंत में, अंग्रेजी का एक पानीदार मुहावरा: 
"We know the worth of water when the well is dry. (हमको पानी की अहमियत तब मालूम पडती है जब कुँवा सूख जाता है.)"                                                              
                                  ***

बुधवार, 28 मार्च 2012

नाराजी इस हद तक

(देश-दुनिया के समस्त कानूनविदों, वकीलों व न्यायिक अधिकारियों को सादर नमन करते हुए मैं इस दृष्टांत को कहानी के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ. सभी लोग अच्छे या सभी लोग बुरे नहीं होते हैं, अपवाद सब तरफ हैं. वकालत के पेशे से जुड़े लोगों में भी निश्चित तौर पर अपवाद हैं, ये उसी अँधेरे पक्ष पर एक व्यंग है, उसी रूप में लिया जाये.)

बनवारीलाल गुप्ता वकील बनना चाहते थे क्योंकि उनके पिता हजारीलाल गुप्ता यही चाहते थे. वे बरसों से अदालतों के चक्कर काट रहे थे, फिर भी अपने पुश्तैनी मकान को किरायेदारों से खाली नहीं करवा पा रहे थे. सरकार ने क़ानून ही ऐसे बना रखे हैं कि मकान मालिक बेचारा बन कर रह जाता है. दो दो किरायेदार मकान में रहते आ रहे थे. आधे मकान पर उनका बरसों का कब्जा था लेकिन किराया इतना कम कि बताने में भी शर्म आती थी. नाम मात्र पन्द्रह पन्द्रह रूपये मासिक. खुद को अब कमरों की जरूरत आन पड़ी क्योंकि परिवार बड़ा हो गया था, लेकिन किरायेदार थे कि बार बार बोलने पर भी खाली करने का नाम नहीं ले रहे थे. नौबत झगड़े के बाद, अदालत तक गयी और अब तारीख, पेशी, आये दिन के चक्कर, वकीलों की फीस. हर बार नया पंगा. वकील भी केस की तारीख बदलवाने में उस्ताद. कि हर पेशी में शगुन की तरह फीस दो अन्यथा सीधे मुँह बात ही न करें. दिन भर बैठे रहो नम्बर ही ना आये. तंग आकर वकील भी बदल डाले, पर ढाक के वही तीन पात. इसलिए पिता जी का सपना था कि अगर बेटा वकील हो जाएगा तो सारी समस्या हल हो जायेगी. बनवारीलाल लॉ कॉलेज तक पहुंच गए. एल.एल.बी. उतीर्ण हो गए, लेकिन उन्होंने अपना रजिस्ट्रेशन नहीं करवाया क्योंकि उनको लगने लगा था कि यह तो फरेबी का धन्धा बन गया है.

वकालत क्या है? किसी मजलूम-मजबूर व्यक्ति को कानूनी सहायता देना उसकी विधिवत पैरवी करना ताकि पीड़ित को न्याय मिल सके. लेकिन नटवरलाल को कॉलेज के दिनों में ही ऐसा लगाने लगा कि क़ानून की पढ़ाई तो एक तरफ ताक पर रहती है और व्यवहारिक तौर पर पूरी इमारत झूठ और तिकड़मी बयानों पर आधारित होती है. हर अदालत में लिखा रहता है सत्यमेव जयते पर कितनी बार सत्य की जय हो पाती है, ये भुक्त भोगी ही जान पाता है. चोरी, बलात्कार, लूट व फौजदारी मामलों में सच को कैसे पलटा जाये, टेक्निकल पॉइंट्स के आधार पर असल गवाहों को किस तरह बेवकूफ सिद्ध किया जाये और नकली पेशेवर गवाहों को गीता/कुरान पर हाथ रखवाकर झूठी कसमें दिलवा दी जाएँ. ये सारा खेल हर अदालत में होता है. वकील बड़े बड़े नुक्ते उठा कर बहस करते हैं. मजिस्ट्रेट भी सब समझ रहे होते हैं. अखबार/मीडिया वाले चटखारे लेकर तुरतदान करते हुए अपनी राय से अदालती फैसलों से पहले ही सजा की घोषणा या अपराधमुक्त करने की बातें प्रकाशित कर देते हैं

बनवारीलाल गुप्ता जब कॉलेज के पढ़ ही रहे थे तो सारे सिस्टम और वकीलों के तौर तरीकों पर सोच सोच कर बहुत उद्विग्न रहा करते थे. ये सब उनको जैसे माफिक नहीं आ रहा था.

वकालतनामा भरने के बाद सच क्या है? क्या बोलना है? इस बात को वकील ही पढ़ाते-सिखाते हैं. इसी बात पर उनका अपना मकान इतने बरसों में खाली नहीं हो पाया और ना ही किराया मिल पाया, इसके उलट उनके पिता पर गाली-गलौज व अभद्रता करने के आरोप में केस कर दिये गए. आरोपों को साथ लेकर ही हजारीलाल गुप्ता इस दुनिया से विदा हो गए. पुलिस का रोल भी बहुत संदिग्ध व भ्रष्टाचारी रहा. इसलिए बनवारीलाल गुप्ता का अच्छे नम्बरों से एल.एल.बी. उतीर्ण करने के बाद भी इस पेशे के लिए अपना रजिस्ट्रेशन कराने का मन नहीं हुआ. नहीं करवाया. अन्यत्र नौकरी तलाशते हुए स्थानीय म्यूनिसिपैलिटी में क्लर्की करना बेहतर समझा. यों सारी जिंदगी नकारात्मक सोच के साथ गुजार दी. लोगों का क्या? लोगों का काम है कहना, जो यही कहते रहे कि वकालत इनके बस में नहीं थी इसलिए क्लर्की करते रहे.

बनवारीलाल बड़े तीखे स्वरों में वकीलों के प्रति नफरत व्यक्त करते आये हैं. जहाँ कहीं भी वकीलों का जिक्र होता था, वे कडुवाहट के साथ अपशब्द निकालते थे कहते थे, ये लॉयर नहीं लायर हैं. कई बार लोगों ने उनसे कहा कि सारे वकील ऐसे नहीं है, पर वे मानते थे कि सच को झूठ साबित करने का नाम ही वकालत है.

बयासी साल की उम्र में जब बनवारीलाल गुप्ता बहुत बीमार हो गए, तो उन्होंने शहर के एक सीनियर वकील एस.पी. श्रीवास्तव को तलब किया और कहा कि उनका एल.एल.बी. का प्रमाणपत्र बहुत पुराना है पर वकील के रूप में वे मरने से पहले अपना रजिस्ट्रेशन अवश्य करवाना चाहते हैं. सभी लोगों को इस बारे में बहुत ताज्जुब हुआ कि जो आदमी जिंदगीभर वकीलों के खिलाफ उलटा-सीधा बोलता रहा है, अपने अन्तिम समय पर खुद को वकील के रूप में रजिस्टर करवाना चाहता है. खैर, एस.पी. श्रीवास्तव ने प्रमाणपत्र के आधार पर उनका रजिस्ट्रेशन करवा दिया. ये उनके लिए सामान्य काम था.

जब रजिस्ट्रेशन का प्रमाणपत्र लेकर एस.पी. श्रीवास्तव बनवारीलाल गुप्ता के पास आये तो उन्होंने बड़ी संजीदगी से उनसे पूछ डाला, ताऊ, ये बात समझ में नहीं आई कि जिंदगी भर आपने रजिस्ट्रेशन नहीं करवाया और अब इस उम्र में इच्छा जताई है. इसके पीछे आपका मकसद क्या है?

बनवारीलाल बोले, मैंने रजिस्ट्रेशन इसलिए करवाया कि जब मैं मरूंगा तो वकीलों की टोटल संख्या में कम से एक की कमी तो आयेगी.
                                           ***

मंगलवार, 27 मार्च 2012

कोका-कोला म्यूज़ियम


अमेरिका प्रवास के दौरान जिन दर्शनीय स्थलों को देखने का अवसर मिला उन एक है कोका-कोला म्यूज़ियम जो ज्योर्जिया राज्य के अटलांटा शहर में स्थित है. CNN Center और Centennial Olympic Park के बिलकुल नजदीक में ये म्यूजियम बनाया हुआ है. अहाते के द्वार के पास कोका-कोला के आविष्कारक डॉ. पैमबर्टन की आदमकद से बड़ी कांस्य मूर्ति है, जो हाथ में गिलास लेकर हर आने वाले को इस सॉफ्ट ड्रिंक की अपनी चाहत देना चाहते हैं.
  
पन्द्रह डालर्स प्रति व्यक्ति का टिकट लेकर हम, यानि मैं, मेरी श्रीमती, हमारी बेटी और दामाद इस संग्रहालय को देखने के लिए गए.

कोका-कोला एक नॉन-अल्कोहोलिक साफ्ट ड्रिंक के रूप में जाना जाता है और विश्व भर में करोड़ों लोग चाव से इसका मजा लेते हैं. इसके खिलाफ दुष्प्रचार में ये भी कहा जाता रहा है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. विशेषकर छोटे बच्चों के लिए अच्छा नहीं है, पर बच्चे तो इसके दीवाने होते हैं. बीच में कुछ एजेंसियों ने इसमें पेस्टीसाइड होने के समाचार भी प्रसारित किये लेकिन ये प्रयोग होने वाले पानी की गुणवत्ता पर निर्भर करता है अन्यथा इसका जो फार्मूला है वह तो सोडा बेस होने की वजह से ऊर्जा देने वाला, चुस्ती लाने वाला तथा पाचन तंत्र को साफ़ रखने वाले पदार्थों से बना होता है.

यद्यपि मैं कभी-कभार मुफ्त मिलने पर कोका-कोला पी लेता हूँ, मन में उत्कंठा थी कि इसकी जन्मस्थली तक आया हूँ तो इसके व इसके जन्मदाता के बारे में जानकारी ली जाये. इसके लिए अटलांटा स्थित भव्य संग्रहालय से अच्छा स्थान-साधन नहीं हो सकता था.

संगहालय में घुसते ही नब्बे फुट के ग्लास पिलर पर २७ फुट की कोका-कोला की बोतल दिखी. स्वागत कर्ताओं ने दर्शक-आगंतुकों के लिए अनेक विज्ञापन चित्र, पुरानी रंगीन कांच की बोतलें, प्रारंभिक दिनों में इस्तेमाल होने वाले रेफ्रिजिरेटर नुमा टैप वाली मशीनें, सौ वर्ष पूर्व ट्रांसपोर्ट में काम आने वाली मोटर कार आदि बहुत खूबसूरती से सम्हाल कर उनका इतिहास सहित दिखाए गए थे. एक छोटे से थियेटर में 3D कार्टून फिल्म भी दर्शकों को दिखाई गयी. कोका-कोला से सम्बंधित जिंगल सुनाये गए. इतिहास-भरा बहुत बढ़िया ये स्क्रिप्ट मन को मोहने वाला था. उसी काम्प्लेक्स में पोलर बियर बना एक व्यक्ति सब का मनोरंजन भी कर रहा था.

कोका-कोला का आविष्कार डॉ. जान पैमबर्टन ने सन १८८६ में किया था वह मूलत: एक फार्मासिस्ट था. कहा तो ये भी जाता है कि वह खुद कोकैन एडिक्ट था. शुरुआती दौर में उसके इस ड्रिंक में कोकैन की मात्रा भी रहती थी. कोक के पत्तों का मिश्रण+कैफीन+वनीला+कोला+शक्कर से यह तैयार किया जाता था. इसका फ़ॉर्मूला हमेशा गोपनीय रखा जाता रहा. बाद में 1890 में इसके फार्मूले में शायद कोकैन को हटा दिया गया. इसके बाद मी अनेक बार इसके फ्लेवर पर रिसर्च व तदनुसार बदलाव किये गए.

इसको मैजिक लिक्विड भी कहा जाता था तथा पैमबर्टन कैमिकल कंपनी खुद को फैक्ट्री आफ हैप्पीनेस कहती थी. आज कोका-कोला दुनिया के २०० से अधिक देशों में पिया जाता है. प्रारम्भ में ये केवल दवा की दुकानों पर ही उपलब्ध होता था. इसे 'टॉनिक' और नर्व स्टिमुलेन्ट के रूप में पहचाना जाता था.

म्यूजियम में एक फाउन्टेन बार है जहाँ ५ पिलरों में टैप लगे हैं, जिनमें तीस से अधिक फ्लेवर्स का कोका-कोला निकलता है. आगंतुकों को छूट है कि जितना मर्जी पियो और मजा लो. मुख्यत: कोला, कोला चेरी, कोला वनीला, कोला ग्रीन टी, कोला लेमन लाइम, कोला ओरेन्ज, कोला रसभरी, कोला पाइनएप्पल हैं.

म्यूज़ियम में सैकड़ों तरह/डिजाइन की नई पुरानी बोतलें, टिन पैकिंग सजाई गयी हैं. बड़ी बड़ी बोटलिंग प्लांट वाली मशीनों के नमूने, चालू हालत में चलती हुई दिखाई जाती हैं. अफ़्रीकन-अमेरिकन गाइड्स दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती हैं.

बताते हैं कि पैमबर्टन केमिकल कम्पनी अब सॉफ्ट ड्रिंक के साथ साथ कई अन्य उत्पादों की भी मार्केटिंग करती है जैसे जूस, मिनरल वाटर, कंसंट्रेटेड जूसेज, वेजीटेबल जूसेज, नेक्टर और जैम आदि.

संग्रहालय से विदा होते समय हमें एक एक कोका-कोला की छोटी बोतल गिफ्ट की गयी. सब मिला कर एक यादगार अनुभव रहा.
                                    ***

रविवार, 25 मार्च 2012

मन पंछीड़ा

मैं गाजियाबाद के इंदिरापुरम इलाके के वैभव खंड की बहुमंजिली इमारत की छठी मंजिल की बाल्कनी में बैठ कर बाहर के विहँगम दृश्य को निहार रहा हूँ. नीचे सड़क पर सैकड़ों की संख्या में रंग बिरंगी कारें खड़ी हैं या रेंग रही हैं. चारों ओर अट्टालिकाओं का किला सा बना हुआ है और गोलाई में सब तरफ घरों की बाल्कनियां ही बाल्कनियां हैं. बीच में बड़ा सा हरा-भरा गोल पार्क है जिसमें घरों से बाहर निकल कर आये हुए थके-मांदे लोग, औरतें तथा खेलने-कूदने में व्यस्त छोटे बच्चे, गतिमान नजर आ रहे हैं. पार्क के एक गेट पर फलों का एक ठेला नित्य लगता है, जिसमें सेव, संतरे, अमरुद, पपीते, अंगूर, चीकू, अनार और केले आदि प्रचुर मात्रा में रहते हैं, खूब बिकते भी हैं. वैभव पार्क में वैभवशाली लोग ही रहते हैं. फलों की खरीद में बिरले ही उनका भाव पूछते हैं. ये महानगर का ऐसा हिस्सा है, जहां हमारे देश की एक नई संस्कृति का संक्रमण हो रहा है.

पार्क में ६०+ या ७०+ आयु वर्ग के लोगों के अनेक लोग समूह बना कर उपस्थित होते हैं. कुछ तो सुबह-सवेरे टहलने, सामूहिक योगाभ्यास करने अथवा कसरतें करने के लिए आते हैं, और बहुत से रिटायर्ड+टायर्ड लोग बाद में धूप/छाँव में बैठ कर देश-दुनिया की राजनीति संबंधी या अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी विषयों पर बहस/चर्चा करके समय काटते हैं. इनमें कोई उत्तराखंडी, कोई कश्मीरी, कोई पंजाबी, कोई यू.पी. का या बिहार-बंगाल का मूल निवासी है. ये लोग पिछले दो-पाँच वर्षों में इन फ्लैटों के मालिक बने हैं. लगभग सभी के बेटे/बहू रोजगार करते हैं.

जनवरी-फरवरी में इस बार ठण्ड भी ज्यादा ही पड़ी तो घूप सेकनेवाली औरतें भी बड़ी संख्या में पार्क में नजर आ रही थीं. मनोरंजन के लिए अन्ताक्षरी, तम्बोला व हंसी ठट्टे की आवाजें इनके समूहों से आती थी. कुल मिला कर मैं ये निष्कर्ष निकालता हूँ कि ये अपनी मूल जमीन से उखड़े हुए लोग इस नए वातावरण में आत्मसात होने की प्रक्रिया में हैं.

अपने अपने गाँव-शहरों या प्रदेशों से आये हुए पुरानी पीढ़ी के लोग, जरूर अपने अतीत को याद करके लम्बी लम्बी सांसें लेते रहते हैं, पर नई पीढ़ी तो साईबर युग की है, जो घास, गोबर, गाय, भैंस, बकरी इत्यादि को केवल डिस्कवरी चैनल पर देख कर मस्त हो जाती हैं या कभी छुट्टी-छपाटी में अपने नौनिहालों को चिड़िया घर ले जाकर आदिम धरा के मूल निवासियों के वंशजों को देख आते हैं. घर लौटते हुए रास्ते में गोलगप्पे, चाट, चाउमिन, बर्गर, पिज्जा या छोले-भठूरे से तृप्त हो कर आते हैं.

यहाँ मैं अपने कनिष्ट पुत्र चिरंजीव प्रद्युम्न के आवास में सभी आधुनिक सुख-सुविधाओं को भोगते हुए जिंदगी के चौथे पहर की दहलीज पर समय रूपी विशाल पहाड़ की चोटी पर विचारों की दूरबीन लिए हुए, एक तरफ अतीत व दूसरी तरफ भविष्य का दृश्य देख सकता हूँ. भविष्य के दृश्य तो अभी कल्पनातीत ज्यादा हैं इसलिए स्पष्ट भी नहीं हैं लेकिन अतीत को मैं साफ़ साफ़ देख रहा हूँ. अपने बाल्यकाल में जाकर, बागेश्वर धाम से सात मील उत्तर में गौरीउडियार/पुरकोट की वादियों में विचरण करने लगा हूँ.

आज से चैत्र का महीना लग गया है. प्योली और बुराँश फूले हुए होंगे. आज ही फूलदेई का मनोहारी त्योहार मनाया जा रहा होगा. छोटे बच्चे घर-घर जा कर फूल और अक्षत देहरियों पर बिखेर रहे होंगे. जल्दी ही काफल, हिसालू, किलमोड़ी, बेडु, चुआरू, खुमानी, आलूबुखारा, जामुन, किम (शहतूत) व गुनकाफल पकने लगेंगे. धौल के लाल फूलों में शहद भर गया होगा तथा दय के साबूदाने जैसे श्वेत दानों में मिठास आ गयी होगी. बाद में शहद भरे तिमिल पकने लगेंगे. दाड़िम, अनार, जामीर, माताककड़ी, नीबू आदि फल अपने समय से हर वर्ष की तरह पेड़ों पर लद जायेंगे. नाशपती, मिहोल, लुकाट अखरोट, पांगर, आम, व केलों की सौगात समय समय पर मिलती होगी.  

अभी तो गेहूं की उमी और असोज में तिल, भंगीरा, गुड़ युक्त खाजे, घी में तर उडद के बेडू रोटी, धारे नौले का निर्मल शुद्ध पानी, हरेला जन्यो-पुण्यों, बग्वाली पर खीर-पूड़ी, घीत्यार का दानेदार-खुशबूदार घी, मकर संक्रांति के घुघुते, बिना चीनी का स्वादिस्ट दूध-बिगौत, मलाईदार दही, मडुआ की रोटी, कौणी-झुंगर का भात, छांछ वाला जौला, भट की चुरकानी, तरूड, गेठी, गडेरी की सब्जी और कार्तिक-मार्गशीष में कोल्हू पर बनने वाला गुड़ और शीरा, किस किस मिठास को याद करूँ रील बहुत लम्बी है.

मैं उड़ कर सत्तर साल पीछे जाकर अपनी ईजा (माँ) की गोद में सर रखना चाहता हूँ. चाहता हूँ कि बाबू (पिताजी) के कन्धों पर फिर से बैठ जाऊं. पर क्या मेरे इस दिवास्वप्न के पंख गुजरे समय के तरफ उड़ने की ताकत दे सकेंगे? माता-पिता को स्वर्ग सिधारे एक अरसा हो गया है. उन सुनहरे लम्हों को यहाँ याद करके दिल भर आ रहा है और आनंद की अनुभूति कर रहा हूँ, लेकिन अक्षम हूँ एक खुले पिंजड़े के पंख विहीन पंछी की तरह.
                                      ***

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

जज साहब

मैं खूबचंद्र, जज साहब से तब से जुड़ा हुआ हूँ, जब वे लोअर कोर्ट में वकालत करते थे. मैं उनका मुंशी था, उनके आफिस का कार्य संयोजन करता था. वे बड़े तेज-तर्रार, हंसमुख और बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी रहे हैं. शुरू शुरू में तो मैं उनसे बहुत डरता था और डांट भी खाता था, पर जैसे जैसे समय बीतता गया उनका मुझ पर और मेरा उन पर अपनेपन का अहसास व भरोसा बनता गया. बाद में वे मजिस्ट्रेट बने, पचास की उम्र पार होने के बाद तो वे हाईकोर्ट के जज बना दिये गए. उनकी जहाँ जहाँ भी पोस्टिंग हुई मैं उनके साथ गया. वे पैंसठ साल की उम्र में रिटायर हो गए. अब उनकी उम्र ७६ साल के करीब हो चुकी है. पर उन्होंने हुझे रिटायर नहीं होने दिया है. मैं उनका मैनेजर हूँ. मैं खुद भी चौंसठ साल का हो चुका हूँ. मैं जब भी उनसे अपनी रिटायर होने की बात करता हूँ तो वे रूआंसे हो जाते हैं. मैं बड़ा मजबूर हो गया हूँ कि मेरा उनके साथ ये बंधन मेरी बेडियाँ बन गयी हैं.

एक हंसमुख, चुलबुला, फितरती आदमी, जज बनते ही किस तरह आम लोगों से कट जाता है, और रिजर्व हो जाता है ये चमत्कारिक बदलाव मैंने स्वयं होते देखा है. विधुर भी वे ५५ साल की उम्र में ही हो गए थे पर उनके रोजनामचे में जो नित्यकर्म व अनुशासन बने हुए थे, मैडम की मृत्यु के उपरान्त भी वे उसी लीक पर बने रहे.

वे चाहते थे कि उनका इकलौता बेटा (जिसे वे प्यार से माय कॉमप्लेन बॉय कहते थे) भी क़ानून की पढ़ाई करके उनका उत्तराधिकारी बने लेकिन वह तो फ़ूड टैक्नोलजी में डिग्री लेकर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अधिकारी बन कर सुदूर अमेरिका में  पिट्सबर्ग जा कर बस गया और वहीं उसने एक सीरियाई मूल की सहकर्मी लड़की से शादी कर ली. इस प्रकार वह पिता से अनन्य प्यार करते हुए भी दूसरी दुनिया का व्यक्ति हो गया. उसकी दो पुत्रियां हैं. वे लोग पाँच-सात वर्षों के अंतराल में छुट्टियों में इंडिया आते जरूर हैं, पर उनको यहाँ का वातावरण बिलकुल माफिक नहीं आता है. यहाँ की घूल-धक्कड, धुंआ और गन्दगी से उनको एलर्जी होती है. यद्यपि बेटा चाहता है कि पिता जी उसके साथ जाकर अमेरिका में रहें, पर नहीं; जज साहब को अपनी निजता, अपना घर, और अपनी व्यवस्था से बहुत मोह है. वे कभी वहाँ नहीं गए.

जज साहब खुद क़ानून सम्बन्धी लेख-फीचर तथा किताबों के नियमित लेखक रहे हैं, लेकिन उनकी लायब्रेरी में एक हजार से अधिक किताबें हैं, जो कि दुनिया भर के नामी साहित्यकारों, वैज्ञानिकों या समाजशास्त्रियों द्वारा लिखित हैं. इस उम्र में भी जज साहब नित्य चार घन्टे अपनी स्टडी रूम में बिताते हैं. सेक्रेटरी को डिक्टेशन देते हैं और कई संस्थाओं को अनुदान देने और दिलाने का काम करते हैं.

रिटायरमेंट के बाद भी जज साहब को कई औद्योगिक घरानों से कानूनी सलाह-अनुबंधों के लिए सम्पर्क किया गया, लेकिन वे अपने वकालत के दिनों के सहयोगी-साथियों को आगे करते रहे, स्वयं किसी अनुबंध में नहीं पड़े. सरकार व कार्यपालिका से वे बहुत खिन्न रहते थे. अपने अदालती निर्णयों में उन्होंने अनेक स्ट्रिकचर पारित किये इसलिए वे किसी आयोग या जाँच कमीशन का सदस्य बन कर खुद को छोटा अनुभव नहीं करना चाहते थे.

उनका घरेलू नौकर दीनू उनके बारे में क्या कहता है वह भी उनके व्यक्तित्व के बारे में प्रकाश डालता है: मैं, दीनू उर्फ दीन मोहम्मद, बीस सालों से जज साहब का सेवक हूँ. घर में पीर, बावर्ची, भिश्ती, बियरर सब कुछ मैं ही हूँ. जज साहब एक नेक दिल इंसान हैं. मैनेजर साहब की तरह ही, मैं भी अपने मालिक को खूब अच्छी तरह समझने लगा हूँ. उनकी खाने पीने की रूचियाँ, उनका नित्य नियम सब मुझे मालूम रहता है. वे जो चाहते हैं मै उनके कहने से पहले ही तैयार करके रखता हूँ.

मैं और मेरा छोटा सा परिवार जज साहब की कोठी के अहाते में बने सर्वेंट क्वार्टर में रहते हैं. मैं चौबीसों घन्टे उनके लिए उपलब्ध रहता हूँ. कोई इंसान इतना विशाल ह्रदय, स्वच्छ विचार और दूसरों की तकलीफ को समझने वाला हो सकता है, इसकी मैंने पहले कभी कल्पना तक नहीं की थी. मैं तो नौकर बन कर इधर आया था ओर अब लगता है जज साहब के बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है. कभी कभी तो मुझे डर लगने लगता है कि यदि जज साहब नही होंगे तो मेरा क्या होगा?

जज साहब की कुछ खास बातें ये हैं कि मैंने उनको कभी हंसते हुए नहीं देखा है. उनको सुबह सवेरे दो कप चाय देनी होती है. एक कप मीठी और एक कप फीकी. फीकी चाय को वे कभी पीते नहीं हैं यों ही पड़ी रहती है. बाद में ठण्डी हो जाने पर वे उसे स्वयं जाकर यार्ड में आंवले के पेड़ की जड़ में डाल आते थे.

मैनेजर साहब बताते हैं कि मैडम को डाईबीटीज थी और वे फीकी चाय पिया करती थी. उनके नाम की चाय आज भी वैसे ही बनती है. इसी प्रकार जज साहब के पलंग पर दो बिस्तर नित्य बिछते हैं और सुबह बदले जाते हैं, जिस पर दो तकिये अगल-बगल होते हैं. मैनेजर साहब ने इस बारे में भी मुझे बताया था कि मैडम का बिस्तर भी वर्षों से यथावत रोज सहेजा-बिछाया जाता है.

एक कमरा जिसमें मैडम की एक बड़ी फोटो लगी हुयी है, जज साहब ने उनकी याद में जैसा का तैसा सहेज कर बन्द रखा है. जिसकी सफाई सप्ताह में एक बार वे अपने सामने ही करवाया करते हैं. इस कमरे की अलमारियों में मैडम की साडियां, शालें, कपडे, जूले-चप्पल, छाते, ड्रेसिंग-टेबल, श्रृंगारदान का सामान व अनेक तरह की लाल हरी चूड़ियाँ, ना जाने क्या क्या सामान भरा है? सब करीने से समेटसहेज कर रखे गए हैं. एक कोने पर मेज के ऊपर एक बड़ा सा तम्बूरा भी खड़ा रखा गया है.

जब भी उनके बेटे का फोन आता है, वे बहुत बेचैन हो कर कमरों में घूमने लगते हैं. मैं उनकी बातें तो सुन/समझ नहीं पाता हूँ, लेकिन महसूस करता हूँ कि बच्चों की निकटता तो इस उम्र में हर व्यक्ति चाहता है. वैसे उन्होंने कभी भी मुझसे मेरी व्यक्तिगत बातें नहीं पूछी, लेकिन कल ना जाने उनको क्या सूझी उन्होंने मुझसे पूछा, तुम्हारे कितने बच्चे हैं?” मैंने बताया कि एक ही बच्चा है. तो वे गंभीरता से बोले, बच्चे तो कम से कम दो होने चाहिए," और ये कहते हुए वे गहन उदासी में डूब गए.    
                                       ***

बुधवार, 21 मार्च 2012

चीड़

मेरे एक मित्र ने फेसबुक पर चीड़ का नवप्रस्फुटित पुष्प का चित्र डाल कर जब ये पूछा कि ये किस चीज का चित्र है? तो मेरी स्मृति हरी हो गयी और मैं बचपन में अपने कूर्मांचल स्थित गाँवों के पहाड़ों के विशालकाय चीड़ बृक्षों के वनों में काल्पनिक भ्रमण करने लगा. नए बुनियों (बाल चीड़ बृक्ष) से लेकर वृद्ध-झंखाड हुए चीड़ बृक्षों के बारे में कुछ लिखने का मन हुआ. इस विषय में पूरी बोटेनिकल जानकारी हेतु विकिपीडीया द्वारा संग्रहित लेख पढ़ने के लिए अपना कंप्यूटर खोला तो इस विषय में बृहद जानकारी+फोटो-युक्त अनेक लेख मिले. चीड़ कहाँ कहाँ पैदा होता है? पिरामिडनुमा पेड़ कितनी ऊँचाई तक के हो सकते है? कितनी प्रजातियों के चीड़ विश्व में पाए जाते हैं? इसकी लकड़ी, पत्ते व तैलीय अवयवों का क्या क्या उपयोग होता है? तथा लीसा, विरोजा, तारपीन का तेल, डामर व राल का सारा विवरण  हिन्दी, अंगरेजी व अन्य भाषाओं में विस्तार से पढ़ कर नई-नई बाते उसमें मिली. लेकिन मैंने जो चीड़ के बारे में समझा था/समझा हूँ, उस पर कुछ पंक्तियाँ अवश्य लिखना चाहता हूँ.

चीड़ की लकड़ी चूल्हों में जलाने का एक मुख्य ईंधन हुआ करती थी. तब कुकिंग गैस जैसी किसी चीज का नाम लोगों को मालूम नहीं था. गांव के हर घर वाले पुराने चीड़ के पेड़ काट/कटवा कर अपना एक टाल बना कर रखते थे. जो गहन तैलीय हिस्सा होता था उसके छिलुके बनाए जाते थे जो देर तक जलते रहते थे, और प्रकाश करने के काम आते थे. आज भी दूर दराज के गाँवों में छिलुकों का प्रयोग अवश्य होता ही होगा. छिलुकों से बहुत झोल (कार्बन) निकलता है. इसका विकल्प मिट्टी का तेल या बिजली बहुत बाद में आयी.

मकान बनाने के लिए भराणे, बांसे, व तख्तों का चिरान विशेष तरीके से किया जाता है. तब जंगलों के लिए सरकारी दखल-क़ानून भी ज्यादा नहीं थे. पेड़ भी इफरात में थे, फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट से इजाजत लेकर उपलब्धता हो जाती थी. चोरी से या पतरौल/रेंजरों की मिलीभगत से भी पेड़ कटते रहे हैं.

चीड़ का पाइनएप्पल जैसा, पर कठोर फल, जिसे कुमायूँ में स्योंत कहा जाता है के अन्दर हर फलक में चिलगोजा के टेस्ट वाला एक पंखयुक्त बीज होता है. स्योंत हरा होता है औए परिपक्व होने पर बादामी रंग का हो जाता है. ये बीज गर्मियों में फूटने (फैलने) पर हवा से उड़ कर प्राकृतिक रूप से बाहर दूर दूर पहुँच जाता है बरसात में नमी मिलने पर धरती में जड़ डाल कर उग आता है. इनका जन्मदर बहुत ही कम है क्योंकि इस बीज को खाने वाले बहुत से कीट हैं और असुरक्षित पड़े रहने से पानी के बहाव के साथ चले जाते हैं और नष्ट हो जाते है. अब जब बड़े स्तर पर पेड़ों का कटान-चिरान हुआ और पहाड़ बृक्षहीन हो गए तो सरकार द्वारा नए सिरे से बीज रोपण/पौधा रोपण किया जा रहा है. ये पर्यावरण के प्रति सजगता की निशानी भी है.

कुमाऊं-गढ़वाल में जब परिवहन के लिए सड़के नहीं थी तो चीड़ के गिल्टियों, बल्लियों व सिल्फरों को नदियों में बहा कर मैदानी मुहानों तक ले लाया जाता था. जो रेल लाइन के स्लीफर व अन्य भवन निर्माण आदि में उपयोगी होते थे. बचपन में हम इस बहान को बड़े कौतुहल से देखा करते थे.

यद्यपि चीड़ का पेड़ सदाबहार होता है, पर हर साल जाड़ों में पुराने पत्ते गिरते रहते हैं और नए आते रहते हैं बसंत ऋतु आते ही अनेक नई कोपलें फूटती हैं बादामी रंग का पिरूल (पुरानी पत्तियाँ) पालतू जानवरों के सुतर-बिस्तर के लिए काम में लिया जाता है तथा खेतों में पुरानी फसल के डंठलों/खुमों को जलाने के काम में भी लिया जाता है. अब इस पिरूल पर वैज्ञानिक प्रयोग भी हो रहे है, इसको कम्प्रेस करके क्यूब बनाये जा रहे हैं जो आल्टरनेटिव फ्यूल के रूप में प्रयुक्त हो रहा है.

चीड़ के फूल पर एक पीले रंग का अबीर भी फागुन के मदमाते मौसम में पराग की तरह पैदा होता है जिसमें प्यारी सी महक भी होती है.

चीड़ के सयाने पेड़ों से लीसा दोहन भी खूब होता है. पेड़ के तने को छील कर कुप्पियाँ लगा दिये जाते हैं, जिनमें लीसा (गोंद) टपकता रहता है, जो बाद में कनस्तरों में भरकर कारखानों को भेजा जाता है. इसके अनेक उत्पाद हैं सरकार के राजस्व का ये बड़ा श्रोत है.

इन पंक्तियों के लेखक को संयुक्त राज्य अमेरिका में अटलांटा जाने का अवसर मिला वहाँ भी चीड़ खूब है पर वहाँ के चीड़ की खासियत यह है कि पेड़ पतले व सपाट लंबे होते हैं, उनके फलों का साइज भी छोटा होता है. अमेरिका में तमाम बिजली के पोल चीड़ के हैं तथा मकान बनाने का ९०% मैटीरियल चीड़ के तख्तों से बना होता है. पर वे लोग इनको पहले केमिकली सीजन्ड कर लेते हैं. ताकि उनकी लाइफ लम्बी हो और दीमक-पानी उसको नष्ट नहीं कर पाता है. लेकिन वहाँ लीसा दोहन के दर्शन कहीं नहीं हुये. पिरूल का उपयोग खुली जगहों को ढकने में भी होता है ताकि मिट्टी ना उड़ सके, इसी तरह पेड़ की बाहरी छिलके (बुगेट) का उपयोग आँगन-बगीचों में जहाँ जरूरत हो बिछा कर खरपतवार ना उगने देने के लिए किया जाता है. यही कारण है कि चीड़ के जंगलों में दूसरे पादप बहुत कम उग पाते हैं.

चीड़ तथा सजावटी मोरपंखी के पौधे व ठन्डे इलाकों में देवदार के पेड़ एक ही प्रजाति के हैं. इनके पत्ते मसलने पर एक सी गन्ध आती है.

अगर आप नैनीताल घूमने आयें तो आपको चीड़ के फलों से बने कई सजावटी कलाकृतियां सस्ते दामों में उपलब्ध हो सकती हैं.
                                     ***

सोमवार, 19 मार्च 2012

रूमाल-चोर

हैंकी या रूमाल की ज्यादा जरूरत तब पड़ती है जब जुकाम हो जाये, छींकें आने लगें, नाक बहने लगे. आम दिनों में तो रूमाल ज्यादातर जेबों में पड़े रहते हैं क्योंकि आजकल टिश्यू पेपर की उपलब्धता व उसके यूज-एण्ड-थ्रो वाला उपयोग सभी को माफिक आता है.

जुकाम एक कम्युनिकेबल यानि संक्रामक रोग है. कई तरह के वायरस हैं जो वातावरण में घूमते रहते हैं. कहते हैं कि इसका ईलाज दवाओं से करोगे तो एक सप्ताह में ठीक होगा और अगर वैसे ही सुनकते रहोगे तो सात दिन लग जायेंगे. बहरहाल घर में पहले किटटू भैया को जुकाम हुआ, होना ही था, वह होली में पानी से खूब देर तक खेलते रहे थे और उसके बाद शालू का भी बुरा हाल रहा. मम्मी परेशान रही डीकोल्ड टोटल, कोल्डरिन, आदि चालू दवाएँ भी खिलाती रही तथा  विक्स वैपोरब की छाती में मालिश करके नरम कम्बल में सुलाती रही. जुकाम से ज्यादा परेशानी बाद में उसकी खांसी से हो रही है.

खैर, ये तो इस बदलते मौसम में घर घर की कहानी होती है. जुकाम से तो बड़े बूढ़े तक ज्यादा परेशान रहते हैं लेकिन वे तुलसी-दल, अदरख, तेजपत्ता की चाय/काढा पी कर लम्बी लम्बी सासें खीचते रहते है. बंद नाक खोलने के लिए नेजल ड्रॉप्स डालते रहते हैं.

कोई खाँसे तो चाची फोरन कहेगी, एंटीबायोटिक क्यों नहीं देते हो? अब चाची को कौन समझाये की डाक्टर अँकल ने पिछली बार साफ़ साफ़ कहा था की "जुकाम में कोई एंटीबायोटिक काम नहीं करता है." कुछ लोग तो बेमतलब खुद ही बाजार से एन्टीबायोटिक की गोलियाँ लाकर मामूली जुकाम में खा जाते हैं. ये बहुत खतरनाक भी हो सकता है, पापा ऐसा कहते हैं.

बीमारी की बात छोडो, असल समस्या ये थी कि जुकाम के दौरान रोजाना तीन चार रूमाल धोकर आंगन मे सुखाने डाले गए जो गायब होते रहे. बड़ा ताज्जुब हो रहा था. चोर कुल मिलाकर आठ-दस रूमाल पार कर गया था. मजबूरन पुराने पजामे फाड़ कर नाक पोछने का इन्तजाम करना पड़ा.

मम्मी भी हैरान थी कि आँगन में से रूमाल ले कौन जा सकता है? वह यह भी बताती है कि छोटी गुड़िया निन्नी के ऊनी जुराब भी कोई उठा कर ले गया है. चोर बड़े कपड़ों पर हाथ साफ़ नहीं कर रहा था पापा को अपने काम से फुर्सत ही नहीं रहती है. सुबह-सुबह भाग दौड़ करके अँधेरे में ही निकल जाते है और देर रात घर लौटते हैं. इस इतवार को जब वे डाइनिंग टेबल पर थे तो इस गम्भीर मसले पर उनको जानकारी दी गयी तो उन्होंने सहज में ही कह दिया, अरे, एक सीसी टीवी कैमरा फिट कर दो, देखो चोर पकड़ में आ जाएगा. किटटू भैया को बात जम गयी. पापा ने नेशनल इलेक्टॉनिक्स वाले को फोन करके कह दिया कि घर में आकर एक सीसी टीवी कैमरा लगा जाये, सो बात बन गयी.

आँगन में जिस कोण से रूमाल गायब होते रहे थे वहाँ गैंडे की आँख जैसी एक कैमरे की फिटिंग कर दी गयी और अन्दर उसका कनेक्शन टी.वी. पर कर दिया गया. दो नए फूलदार नए रूमाल लाकर कैमरे के फोकस में लटका दिये गए. बहुत उत्सुकता थी कि चोर का पता चल जाएगा. किट्टू और शालू सोफे पर धात लगाए दुबक कर बैठ गए. पन्द्रह मिनट में इनको सचमुच चोर दिख गया, एक मोटी सी गिलहरी कूदते-फाँदते हुए तार पर आई और एक एक करके दोनों रूमालों को अगले पंजों से मोड़-माड़ कर अपने मुँह में दबा कर वापस जाने लगी तो किट्टू और शालू दोनों ही चिल्ला पड़े, "गिलहरी रूमाल ले जा रही है." वे बाहर निकल आये तो गिलहरी पर निगाह रही. उन्होंने मम्मी को बताया कि "एक गिलहरी रूमालों की गड्डी बना कर मुँह में दबाकर आँगन के बाहर अशोक के पेड़ में घुस गयी." मम्मी ने पड़ोसी मनीष चाचा को बुला कर पेड़ से गिलहरी को भगाने को कहा और एक लंबे बाँस से पेड़ के घने पत्तों में छेड की गयी तो दो गिलहरियाँ चिट्-चिट् आवाज करती हुयी पेड़ पर ऊपर की तरफ चढ़ती नजर आई. मनीष चाचा पेड़ पर चढ़ गए. उन्होंने बताया कि वहाँ गिलहरियों ने दो बड़े-बड़े घोंसले बना रखे हैं, एक तो अभी खाली था पर दूसरे में दो छोटे छोटे प्यारे बच्चे हैं जिनकी अभी आँखें भी नहीं खुली थी. मनीष चाचा बता रहे थे कि रूमाल व मोज़े सब घोंसलों के अन्दर बच्चों के लिए नरम बिस्तर के रूप में इस्तेमाल किये गए हैं.

मम्मी ने मनीष चाचा से कहा कि इनको मत छेड़ना, पाप लगेगा."  चोर तो आखिर पहचाने गए पर सब खुश हैं कि उनके घर के सामने अशोक बृक्ष पर गिलहरी ने बच्चे दिये हैं. किट्टू को और शालू को अब अपने रूमाल गायब होने का कोई अफसोस नहीं है.
                                    ***

शनिवार, 17 मार्च 2012

चुहुल-२०

(१)
टीचर- कल स्कूल क्यों नहीं आये?
स्टूडेंट- सर, आपके कहने पर डर्टी पिक्चर' देखने गया था.
टीचर- ऐसा मैंने कब कहा था?
स्टूडेंट- आपने कहा तो था, 'विद्या में मन लगाओ. सर, आप भूल गए हैं.'

(२)
घर के बाहर बोर्ड लगा था: यहाँ बिजली के हर तरह के सामानों की मरम्मत की जाती है.
उसके नीचे ये भी लिखा था: यदि घंटी ना बजे तो कृपया दरवाजा खटखटाएं.


(३)
भिखारी- दो दिनों से भूखा हूँ, कुछ खाने को दे दो, बाबू जी.
बाबू जी- अभी खाना बना नहीं है.
भिखारी- तो आप ऐसा कीजिये मेरा मोबाइल नम्बर सेव कर लीजिए. जब खाना तैयार हो जाये तो मिस कॉल मार
        देना. 

(४)
एक लड़का जब आफिस में काम कर रहा था तो किसी का फोन आया कि "उसके पिता का देहांत हो गया है."
यह सुन कर वह रोने लग गया.
इतने में उसकी बहन का भी फोन आया कि "पिता जी नहीं रहे." यह सुन कर वह लड़का और जोर से रोने लग पड़ा.
किसी ने पूछा, "अब क्या हुआ?"
वह बोला, "मेरी बहन का फोन है कि उसके पिता का भी आज ही देहांत हुआ है."

(५)
होली के मौसम में एक लड़का पड़ोस की दूकान पर अण्डे लेने गया. संयोग से उस वक्त दूकानदारनी (रिश्ते में भाभी) दूकान पर बैठी थी.
लड़के ने सहज में पूछा, भाभी, ये अण्डे कैसे दिये?
भाभी चुहुल करते हुए बोली, तुम भाव पूछ रहे हो या तरीका?"
लड़के ने भी उसी अंदाज में कहा, चलो भाव फिर कभी पूछ लेंगे, फिलहाल तरीका ही बता दो.

***

गुरुवार, 15 मार्च 2012

डी.एस.पी. स्ट्रेला

(इस कहानी का लिंक पिछली कहानी दोस्ती में दगा से है)

गफ्फार खान के साथ पत्नी के गायब होने पर हैरिस मैसी एकदम सकते में आ गया था क्योंकि एक साल की मासूम बेटी पूरी तरह उसकी जिम्मेदारी पर आ गयी थी और बदनामी हो रही थी सो अलग. लेकिन ऊपर वाले के निजाम को आज तक कोई नहीं समझ पाया है. एक शाम जब वह रेलवे प्लेटफार्म पर स्ट्रेला को लेकर टहल रहा था तो अचानक एक बारह--तेरह साल के सफिया नाम के लड़के से टकरा गया. बातचीत में खुलासा हुआ कि वह आगरा शहर से किन्नरों के चंगुल से छूट कर आया है. उसने धीरे से बताया कि वह खुद भी जन्मजात किन्नर है. हैरिस मैसी को जैसे मन माँगी मुराद मिल गयी, वह उसको अपने घर ले आया. उससे लाड़-प्यार से बात की. वह भूखा था सो खाना खिलाया. इस प्रकार अपनापन पाकर सफिया हमेशा के लिए परिवार का हिस्सा हो गया. दरअसल सफिया को किन्नरों की टोली ने उसके माँ-बाप से तभी छीन लिया था, जब वह केवल तीन महीने का था. किन्नरों की अपनी एक अलग जमात होती है, जहाँ सबकी एक ही जाति व धर्म होता है. वे टोह में रहते हैं कि गाँव/शहर में  कोई नपुँसक (बिना जननेंद्रिय वाला) बच्चा पैदा हो और उनके काम आये. वे उस पर अपना अधिकार समझते हैं, वे बाकायदा उसका पालन-पोषण करते हैं. गाने-बजाने व नाचने की ट्रेनिंग तथा लटके-झटके सब उसे सिखाकर तैयार करते हैं ताकि उनका बंश भी चलता रहे.

किन्नरों की अपनी कोई खेती या बिजनेस तो होता नहीं है, एक समय था की किन्नरों को कई नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं थे. गाँव/शहरों में लोगों के बच्चे पैदा होने पर या शादी व्याह में बधाईयां गा कर जो इनाम मिल जाता था उसी से जीवन निर्वाह करते थे. लेकिन आजकल ये लोग ट्रेड युनियन जैसी एकता बना कर रहते हैं, इलाके बंटे हुए रहते हैं. इनके अपने गुरू भी होते हैं और समय समय पर जलसे भी होते हैं. कुछ किन्नर तो आर्थिक रूप से समृद्ध भी बताए जाते हैं.

अब आजकल कहीं कहीं तो बधाई के प्रतिदान में हजारों रुपयों  व कपड़ों की असीमित मांग करने लगते हैं, दादागिरी या अश्लील हरकतों से परेशान करके अपने दस्तूर को, यजमान को दु:खी करके वसूल करते हैं. इनमें आजकल राजनैतिक चेतना भी पाई गयी है और ये चुनाव के मैदान में ताल ठोकने लगे हैं. राजनैतिक नेताओं के विद्रूप चेहरों को चोट पहुचाने के लिए लोग इन्हें जिता भी देते हैं. हम सामान्य जन केवल कल्पना ही कर सकते हैं की जिन मनुष्यों के जीवन का आनंददायक प्रणय सोपान व सामाजिक सम्मान छिना हुआ हो, उसकी मानसिक स्थिति कैसी होती होगी? कितना इन्फीरियोरिटी काम्प्लेक्स रहता होगा. पौराणिक काल से ही ये विडम्बना किन्नरों के नाम लिखी गयी हैं.

सफिया तो अभी बच्चा ही था यद्यपि किन्नरों वाले लटके-झटके बात करने का लहजा देख कर उसकी पहचान अलग ही हो रही थी. हैरिस मैसी ने उसे अपने बेटे का दर्जा देकर सब तरह से खुश कर दिया. बदले में वह छोटी बच्ची स्ट्रेला की भरपूर देखरेख करने लगा. कॉलोनी के बच्चे सफिया से मसखरी व कभी कभी बदतमीजी भी करते थे पर वह सब सहता रहा. उसे अच्छा आश्रय मिल गया था. अपना ही घर परिवार समझ कर रहने लगा.

सफिया के सानिध्य में स्ट्रेला खुश थी और जल्दी जल्दी बड़ी होते जा रही थी. हैरिस मैसी ने इनको बता रखा था की स्ट्रेला की माँ मर चुकी है. स्ट्रेला को तो अपनी माँ की कोई याद भी नहीं थी. स्टेला जब सात साल की हो गयी तो उसे  इंदौर के एक ईसाई मिशनरी स्कूल में डाल दिया गया. सफिया घर का केयर-टेकर के बतौर हैरिस मैसी की सेवा में अकेला रह गया.

स्ट्रेला लिखने-पढ़ने में बहुत तेज निकली. छुट्टियों में घर जरूर आती थी बाकी समय अपनी पढ़ाई के प्रति समर्पित रहती थी. समय का चक्र अपनी गति से घूमता रहा. स्कूल की पढ़ाई के बाद उसने महारानी कालेज जयपुर से ग्रेजुएशन किया और एडमिनिस्ट्रेटिव् कम्पटीशनों की परीक्षाओं में बैठी तो आई.पी.एस. में निकल गयी. ट्रेनिंग के बाद उसकी पोस्टिंग अजमेर, व्यावर और जयपुर में थोड़े थोड़े समय के लिए हुई और घूम-फिर कर टोंक शहर में नियुक्त हो गयी. नया-नया जोश था, हर मामले में वह गहराई से छानबीन करती थी. एक यौन अपराधिक मामले में जब वह सुलतान गली में गयी तो उसका सामना ढलती उम्र की मुस्लिम महिला बबीना से हुआ.

मजेदार बात यह भी है की बबीना समय समय पर अपने श्रोतों से हैरिस मैसी के बारे में जानकारी लेती रही थी. उसे ये भी मालूम था की स्ट्रेला पुलिस ऑफिसर बन गयी है. स्ट्रेला से उसने सीधे सीधे ये तो नहीं कहा की वह उसकी बेटी है पर अपने आप को उससे बातें करने से नहीं रोक पाई. जब उसने स्ट्रेला से हैरिस मैसी की सेहत के बारे में पूछा तो स्ट्रेला को बड़ा ताज्जुब हुआ और उसने बबीना से पूछा की हैरिस मैसी को वह कैसे जानती है? बबीना के पास खिसियाने के अलावा इसका कोई जवाब नहीं था. लेकिन एक बुद्धिमान पुलिस ऑफिसर के लिए ये बड़ा संदेहास्पद व अन्वेषण का मामला था. जिस मामले में वह तहकीकात करने गयी थी उसमे गफ्फार खान की दोनों लडकियां भी शामिल थी. बातें आगे बढ़ी तो धीरे-धीरे स्ट्रेला की समझ में सारी बात आती गयी. उसे इन लोगों द्वारा अपने पिता के साथ किये गए व्यवहार व धोखेबाजी पर बहुत आक्रोश हुआ. माँ की संज्ञा लेकर जो औरत आज हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रही थी, उसमें उसको व्यभिचारिणी और चंडालिनी नजर आ रही थी, उसकी माँ की भूमिका तो सफिया भाई ने निभाई थी.

डी.एस.पी. स्ट्रेला पर उनकी रिरियाहट व गिड़गिड़ाहट का कोई असर नहीं हुआ और अनैतिक देह व्यापार के जुर्म की कठोर धाराएँ लगा कर पूरे परिवार का चालान कर दिया.
                                       ***