शनिवार, 30 जुलाई 2011

विकल्प का संकल्प (व्यंग)

                           ( मेरी ये रचना १९९१ मे छ्पी थी, आज भी प्रासगिक है.)
जी हाँ! मैं एक प्रबुद्ध काँग्रेसी नेता हूँ.
गांधी का नेहरू का और इंदिरा का वारिस हूँ.
मैं वारिस हूँ १८५७ की क्रान्ति का,
जलियाँवाला का और १९४२ के आन्दोलन का.
             मैंने देश को आजादी दिलाई
              मैंने सामाजिक क्रान्ति कराई
नंगों को टेरीकाट पहनाया
हरिजन और अल्पसंख्यकों को ऊपर उठाया
किसी को मिनिस्टर किसी को गवर्नर बनाया.
कुछ को राष्ट्रपति तक बनाया.
             ये देश समस्याओं का सागर है
              और मैं गुणों का आगर हूँ
               ये तंत्र चलाने का मंत्र सिफ मेरे पास है.
विपक्ष? वाममार्गी-दक्षिणमार्गी?
ओह! ये अब सब मध्य मार्गी हो गये हैं.
मिलकर बार बार मोर्चा बनायेंगे
दूध और निम्बू एक कढाई में पकाएंगे.
             कभी नहीं कभी नहीं!
              ये मेरा विकल्प नहीं बन सकते हैं.
मेरा विकल्प तो मैं स्वयं हूँ
या मेरे घर में है.
मेरा बेटा, मेरी बीवी या बहूरानी.
                       ***
                         
                        (२)
मैं भारतीय संस्कृति का स्वरूप हूँ
हिन्दू-हिंदुत्व, राष्ट्र राष्ट्रीयता  का -
पहरेदार ही नहीं, ठेकेदार भी हूँ
मेरा संकल्प है की मैं-
भृष्ट काँग्रेसी व्यवस्था से मुक्ति दिलाऊँगा
मैं राम मंदिर बनवाऊँगा 
मैं रामराज लाउँगा
                  एक दिन इस देश का हिन्दू जागेगा
                   धर्म की जयकार करेगा
चूंकि पूरी सांस्कृतिक विरासत मेरे पास है
मैं ही कांग्रेस का स्थाई विकल्प हूँ
ये दीगर बात है कि मेरे घर में -
कांग्रेसी संस्कृति के घुसपैठ जारी है.
                            ***
              
                             (३)
मैं समाजवादी हूँ, मैं इंकलाबी हूँ,
मैं आम जनता समर्थित जनमोर्ची हूँ.
मैं देश के समस्त असंतुष्ट बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधि हूँ.
मैं लोहिया की आत्मा हूँ
मैं जयप्रकाश के घोषणा हूँ
                    मैं भूखे नंगे व् बेरोजगार लोगों के-
                     दर्द का एहसास हूँ.
मैं मुसलमानों का हमदर्द हूँ.
उनके आरक्षण का हामी हूँ
मैं विरोध, विरोध के लिए करता हूँ.
चूँकि बहुमत बहुत दूर है
इसलिए मैं सत्ता के लिए -
पूरे कल्प तक कल्पना करता रहूँगा.
                       मुझे डर है कि कहीं -
कांग्रेस से निकले-निकाले हुए लोग -
मेरा झंडा न छीन लें.
पर मैं तो विकल्पी हूँ
विकल्प ही मेरा अंत है.
                              ***

                             (४)
साम्यवाद एक विज्ञान है.
जो भारत के उपजाऊ धरती पर
खूब उगेगा, खूब फलेगा.
मैं बहुत समय से तलाशता आ रहा हूँ -
एक लेनिन को,
एक माओत्से-तुंग को
जो नेतृत्व दे सर्वहारा को
                  मैं विकल्प नहीं बनाना चाहता किसी का-
                   क्योंकि मैं स्वयं ओरिजिनल हूँ.
मेरा संकल्प है - मुझे नव निर्माण करना है
एक बराबरी का समाज गढ़ना है.
लोग मुझे साम्यवादी, माओवादी नक्सलवादी-
कुछ भी कहें,मैं पहले तहस-नहस करूंगा.
फिर एकछत्र राज करूगा.
                      लेकिन मैं स्तब्ध हूँ
                       रूस और चीन ने -
                        सुधारवादी विचार लाकर
                        साम्यवाद के दांत तोड़ डाले हैं
इधर प्रतिक्रियावादी ताकतों ने
बंगाल और केरला में हमारी-
सत्ता लूटी है.
इसलिए अब हमको -
किसी गठ्वंदन में घुसकर
फिर से जगह बनानी होगी.
यही मेरा विकल्प है.

                     (५)

(इस रचना में ये बाद में जोड़ा जा रहा है):
                       
मैं विग्रही हूँ,
मेरे अलावा -
इस देश का हर नेता चोर है
भृष्ट है .
मैं युवाओं के आक्रोश का प्रतिनिधि हूँ.
दिल्ली को बदला है,
अब देश को बदलूँगा.
मैं आम आदमी हूँ
मैं झाडू  लेकर चलता हूँ
पर मेरा झाडू अभी किसी और के हाथ में है.
विकल्प मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है.
                          ***



शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

मेरी कविता

उत्ताल तरंगों से गति लेकर 
          चल पड़ी ये जीवन सरिता 
मैं काव्यमय होता जाऊं 
          हर क्षण गूंथें जाऊं कविता.

कंटक-पुष्पों को छू करके 
          आती है भावों की सरिता 
क्यों न अपना भाग्य सराहूं 
          प्यार करे जब मुझसे कविता.

जैसे माता प्यार बिखेरे
          और बहाये पय की सरिता     
ऐसे में मैं बहता जाऊं 
          और बहाये मुझको कविता 

जन्म-मरण के बंधन रहते 
          तिरता जाऊं ये जग सरिता 
पतवार बनाउंगा ये जीवन 
          नाव बनाउंगा मैं कविता 

सुख-दुःख का भाव सजाकर 
          भरता जाऊं दर्शन सरिता
व्याकुल बिह्वल कोई पी ले
          मुक्त करेगी मेरी कविता  

कलुषविहीन कलामय सी
          दुःख:हरणी ममतामय सरिता 
सदाबहार, समानगुणधर्मा 
          नित्य रहेगी मेरी कविता 

जाने क्या क्या रिश्ते होते
          ये जग रिश्तों की है सरिता
तेरा मेरा रिश्ता लेकिन
          मैं कवि हूँ तू मेरी कविता 

भूला भटका प्यासामादा 
          प्यास बुझाए समझे सरिता 
इसमे डूबे भी तर जाएँ 
          गाता जाए कविता-कविता 
                          *** 

मेघ से

                 जल दे 
                   भर दे 
                     पर प्रलय न दे.

हर सूखे को हरियाली दे
आभा छटा निराली दे 
                   जल दे, भर दे, पर प्रलय न दे 

देख ये माटी प्यासी है 
तीज पर यों उदासी है 
कलियाँ सभी रुआंसी हैं
मुस्कानें हैं पर बासी हैं
                   घन आकर इनको तन मन दे 
                   जल दे, भर दे, पर प्रलय न दे  

जिन बीजों में अंकुर हैं
बरस उन्हें निकासी दे
जिन पुष्पों में सौरभ है 
महक उठे मृदु हाँसी दे 
                   घन! प्यार इन्हें अविनाशी दे 
                   जल दे, भर दे, पर प्रलय न दे .
                                     ***   

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

अटलांटिक के उस पार

          अमेरिका का नाम सामने आते ही एक विराट नक्शा सामने घूम जाता है. उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में अनेक देश हैं. मैं जिस राष्ट का यहाँ जिक्र कर रहा हूँ, वह यू. एस. ए. कहलाता है; जिसके बड़े परदे पर न्यूयॉर्क, शिकागो, वाशिंगटन, केलिफोर्निया जैसे अनेक बड़ी बस्तियां हैं. संघीय, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं वाला यह विकसित देश बेमिसाल ही नहीं समृद्ध भी है. अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में राजनीति व राष्ट्रों के स्वार्थों को अलग रख कर यदि हम आकलन करते हैं तो यूनाइटेड स्टेट्स  नंबर एक राष्ट्र है.

          अपनी बेटी, दामाद, व नातिन से मिलने मैं ६ वर्ष पूर्व भी यहाँ आया था, लेकिन तब मैंने अपने अनुभवों को इस तरह शब्दांकित नहीं किया था. पर अब मैंने जो देखा उसे शब्दांकित करके बांटना चाहता हूँ.

           मैं यूं. एस. के दक्षिणी राज्य जोर्जिया में, अटलांटा क्षेत्र मे हूँ. नई दिल्ली से जर्मनी-फ्रांकफुर्ट होते हुए सीधे अटलांटा लंबा और थकाऊ सफ़र था. लेकिन मन उत्साहित एवं रोमांचित था. हवाई अड्डे से बाहर आते ही थकान छू हो गयी, अलबत्ता निद्रा का समय चक्र बदलने से काफी समय नार्मल होने में लगा. अब मैं सीधे उन टापिक्स पर आता हूँ जो हमारे देश की जीवन व्यवस्थाओं से कहीं ऊपर का स्तर रखती हैं.

          सड़कें चौड़ी, साफ-सुथरी, ट्रेफिक अनुशासन के प्रतीक चिन्ह, सड़कों के किनारे पदगामियों के लिए रास्ते, सब तरफ मखमली दूब करीने से कटी हुई, बस्तिओं के हर मोड़ सुन्दर सुस्सजित रंग-बिरंगे फूलों की छटा किसी चित्रकार की तूलिका से उकेरा गया मनोहारी सच.

          पिपीलिका पंक्ति की तरह अनेक मोडल्स की सुन्दर गाड़ियाँ, कोई किसी को ओवरटेक नहीं करता. मजाल है कहीं आपको हार्न की आवाज  सुनाई दे जाये. बच्चों की पीली स्कूल बसें बस्ती-बस्ती रूकती हैं  कोई उनको ओवरटेक नहीं करता है .बच्चों को शिक्षा अनिवार्य है. बारहवीं तक के बच्चों को कोई स्कूल फीस नहीं है. उनको कापी किताब नि:शुल्क दिए जाते हैं. नवजात बच्चों की तो और भी सुरक्षा की जाती है. आप उनको गोद में रख कर इधर-उधर नहीं ले जा सकते है. उनके लिए गाड़ी में अलग से बेबी-सीट लगानी होती है. क़ानून है आप छोटे बच्चों को पीट नहीं सकते है.

          तमाम घर बंगलेनुमा, केंद्रीय रूप से वातानुकूलित होते हैं. कोर्टयार्ड छायादार पेड़ों से घिरे हुए हैं. दूब की लॉन, मानो मखमली कारपेट सर्वत्र बिछाई गयी हो. धुल-मिटटी का कहीं नामोनिशान नहीं. खाली जगहों पर पिरूल (चीड़ की पत्तियां) या बुगेट (चीड़ के पेड़ की बाहरी छीलन) से बड़े करीने से ढका हुआ. घास खुद काटिए या कटवाइए, यह आपकी जिम्मेदारी है. वरना जुर्माना भरना पड़ेगा. कटी हुई घास कागज़ के बड़े-बड़े थैलों में रख कर गेट पर छोडिये, नगर प्रशासन उठवायेगा. इसी तरह घर का कचरा भी उठाया जाएगा.

          हर घर के गेट पर लेटर बौक्स हैं. डाकिया पत्र डाल भी जाएगा और ले भी जायेगा. अगर आप गाडी चला रहे हैं तो ध्यान रहे हर दोराहे पर स्टाप लिखा होगा और आपका पहिया वहाँ रोकना होगा. लाल बत्तियों पर कैमरे लगे हैं. उल्लंघन करने पर जुर्माना और ट्रेनिंग की सजा. पेट्रोल खुद ही भरना होता है.

          घरों के अन्दर साफ स्वच्छ पानी, गैस आधारित स्वचालित गीजर, सर्वत्र कारपेट बिछा हुआ. भारत मे सामान्यतया हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. बाहर भी कहीं पालीथिन कागज़ या कचरा नहीं होता है, इसे देख कर मुझे अपने शहर हल्द्वानी का विद्रूप चेहरा याद आ रहा है जहाँ बाजार गलियों से लेकर नालियाँ - नहरों तक  गंदगी और पौलिथिन से अटी पडी रहती हैं.

          मॉर्निंग वाक पर लोग दौड़ते हुए मिलते हैं. हाय, हेलो, गुडमार्निंग ऐसे कहते हैं मानो बहुत पुरानी मुलाक़ात हो. पालतू कुत्ते (यहाँ आवारा कुत्ते या जानवर नहीं होते) घुमाने वाले साथ में थैली और दस्ताने रखते हैं. अपने कुत्तों की विष्ठा को उठा कर ले जायेगे.

          यहाँ इंडियन स्टोर है जहाँ भारत की हर खाद्य सामग्री मिलती है. यह दूसरी बात है कि कीमत कई गुना ज्यादा है पर सामान सब एक्सपोर्ट क्वालिटी का नंबर वन.

          भारतीय लोगों ने हर शहर मे अपने समाज-ग्रुप  बनाये हुए हैं. हिन्दू-मुस्लिम चाहे उत्तर के हों गुजराती हों या दक्षिण आन्ध्र अथवा केरल के हों आपस मे बड़ा स्नेह और दोस्ती रखते हैं.

          दुनिया के राजनैतिक गलियारे में यू. एस. सरकार की दादागिरी और थानेदारी का मैं कतई समर्थन नहीं करता, लेकिन अपनी अंदरुनी व्यवथाओं के स्थायित्व व आर्थिक संयमों से राष्ट्रीय हितों के प्रति इनका समर्पण अनुकरणीय है.

          मैं हिमालय की गोद में बागेश्वर और पिंडारी ग्लेशियर के बीच एक बहुत पिछड़े गाँव में आजादी से पूर्व पैदा हुआ था. जिस खातडा-गूदड़ी संस्कृति से आगे बढ़ कर, अनेक संयोगों से मैं आज अमेरिका आ पहुंचा हूँ और इस शिखर से, नीचे घाटी में अपने देश और अन्तरंग को झाँक कर देख रहा हूँ तो सोचता हूँ वहां विकास की प्रक्रिया तो जारी है पर अभी लंबा सफ़र तय करना होगा.

          यूं तो अमेरिका के विषय में लिखने के लिए अनेक चीजें हैं, जैसे यहाँ की वनस्पतियाँ (चीड़ और दूब के अलावा सब कुछ अलग लगते है.) यहाँ के लोगों का सामाजिक व्यवहार, भोग और सुविधा भोग की उनकी आदतें, सब कुछ हम भारत वंशियों से अलग है. हर आम जगहों को यहाँ दर्शनीय स्थल बनाया गया है. ये तमाम बातें बाहर से आने वालों को लुभाते हैं. चूंकि हम सनातनी लोग वसुधैव कुटुम्बकम से संस्कारित हैं, इसलिए इस धरती को भी नमन करते हैं.

                                                              ***

बुधवार, 27 जुलाई 2011

स्वप्न

जिसे फूलों से रंग लेकर बनाया 
जिसे केसरों से बुनकर बनाया 
जिसे ओसकण से जुडाकर बनाया 
जिसे चादनी ने बिठाकर सजाया
             कहीं खो गयी है .

हजारों बरस मे जिसे खोज पाया
जिसे सिद्धि ने था मुझको बताया 
जिसे रिद्धि ने था मुझको बताया 
जिसे स्वप्न देवी ने मुझसे मिलाया 
              कहीं खो गयी है.

दिकों ने जिसको हाथों उठाया 
जिसे रागिनी ने गा कर जगाया 
जिसे आसमानों ने बातों लगाया 
जिसे बिजलियों ने दीपन सिखाया 
                 कहीं खो गयी है.

जिसे किन्नरी ने आकर झुलाया 
जिसे यक्षिणी ने उडकर डुलाया
जिसे तितलियों के रथ पर बिठाया 
जिसे बादलों के उसपार पाया 
                   कहीं खो गयी है

जिसे सावनों ने यौवन पिलाया 
जिसे मधु ऋतुओं ने हँसना सिखाया 
जिसे वाकदेवी का आशीष भाया
क्षमा शील लज्जा का मंत्र  पाया 
                   कहीं खो गयी है 

जिसे देख रतियाँ सुध खो गयी थी 
जिसे देख परियां खुश हो गयी थीं 
मुझे कवि बनाकर, जो रस हो गयी थी
मुझे कीर्ति दे, प्रेरणा हो गयी थी.
                     कहीं खो गयी है.

जिसे पाके मर्यादाएं खो गयी थी 
जिसे पाके मोक्षेष्णा सो गयी थी 
जिसे पाके संध्या उषा हो गयी थी 
जिसे पाके वाणी सुधा हो गयी थी.
                      कहीं खो गयी है.

जिसे पाके मैं सत्यमय हो गया था
जिसे पाके मैं तो शिवम हो गया था
जिसे पाके मैं सुन्दरम पा गया था 
जिसे पाकेमें एक ब्रह्म हो गया था 
                       कहीं खो गयी है.
                  ***

ज़ाले

ज़ाले दिखने लगते हैं 
हर नए के पुराने होने पर 
यद्यपि नए पुराने गत-अनागत 
सबका अस्तित्व निर्भर करता है
जालों के ही अस्तित्व पर .
     हर कोने पर, हर मोड़ पर
      हर दर पर, हर पर्दे पर 
      हर तन पर, हर मन पर 
शीत युद्ध की बुभुक्षा सी 
निष्प्राण, किन्तु प्राणों को-
गृहण करने की जिजीविषा 
महां छद्म ज़ाले,
कब्रगाह से बन 
गहन गम्भीर मरघटी ज्ञान की तरह
प्रतीक्षा करते हैं-
हर आगंतुक की
उसके ज़ाले हो जाने तक .
          ***

चेहरा

विकृत कायाएं 
रोगों की छायायें
चिंता व्यथा की घुटी दबी परिवादें 
छल पर छल की प्रतिक्रियाएं
खुद को भूले जाने की सच्चाई 
घुप अँधेरे में जिजीविषा ग्रस्त 
हाथों,होंठों और आखों की तडफन .
       यही है समाज का चेहरा 
        जिस पर पुते हैं हजार रंग 
         नैतिकता के नाम पर 
          आधुनिकता का लेबल लगवा कर .
                  ***

      

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

गजल

बगिया में बहुत फूल  हैं, खुशबू लिए हुए 
हमको यहाँ बुला लिया, किसकी छेड़ है?

सावन की यादगार में, डूबे हैं जब भी हम
झट से बसंत ला दिया, किसकी ये छेड़ है?

संतो के इस मुकाम  पर बाजा  लिए हुए
किसके हैं ये साये नए, किसकी ये छेड़ है?

अलसा रही है उम्र जब बीती बिसार कर
उसका ही रूप लेकर, किसकी ये छेड़ है?

मझधार में व्यथित हम, कश्ती लिए हुए
आकर वही सम्हाले, जिसकी ये छेड़ है.
                        ***

मेरा स्वार्थ

मैं मेहनत करता हूँ.
खूब पढ़ता हूँ
अपने बच्चों को 
अच्छी बातों का ज्ञान करता हूँ 
ताकि मेरे हद तक समाज सुधरे .
      मैं समाज मैं और भी बहुत काम करता हूँ.
साफ़ रहता हूँ
साफ़ रहने की बात करता हूँ 
राजनीति में दिलचस्पी लेता हूँ
कुछ सुनता हूँ
कुछ सुनाता हूँ.
      मैं राष्ट्र के अन्दर हूँ
राष्ट्र का एक अटूट हिस्सा हूँ.
फिर भी मैं सोचता हूँ 
मेरे बिना भी 
ये समाज व् राष्ट चलते रहेंगे .
        इसमें भी कोई संदेह नहीं 
मैं समाज का एक आदर्श हूँ 
या अभी तक नहीं हूँ-
तो बन साकता हूँ.
         इसलिए मैं गौरव करता हूँ की,
          राष्ट्र को मेरी आवश्यकता है.
इन सब के बावजूद मुझको लगता है 
समाज की राष्ट्र की 
और व्यवस्थाओं की
आवश्यकता मुझको अधिक है.
           क्योंकि मेरे अनेक स्वार्थ हैं.
उनमें सबसे बड़ा स्वार्थ  रोटी का है 
जो मेरे कर्तव्य ,मेरी मेहनत,मेरे ज्ञान-
और विचार शक्ति से ज्यादा वजन रखता है.
                    ****

महानिमंत्रण

हे महाशक्ति ! 
इस देवभूमि में 
इस महाभूमि में
मनु के बेटों की मौतें 
परस्पर विरोधी निदानों से
असह्य हुई जाती हैं.  
      शोषक की हृदयगति 
होने लगी है अवरुद्ध 
विरुद्ध शासन द्वारा 
रुकने पर व्यापारी परमिट ,
     शोषित ऐसे भी हैं असीमित 
जिनके बच्चों के जीवन के परमिट 
शिशिर की ठिठुरती रातों में \ 
द्वितीय प्रहर तक ही है सीमित .
       हे महाक्रान्ति !
        हे महाप्रलय !
हे शम्भु के प्रचंड रूप 
हे अणु के महायुध!
       तुमको कवि का महानिमंत्रण 
धर्म नीति जो भी हो आधार तुम्हारा 
अब तुम्ही इष्ट हो-
परित्राणाय साधुनाम 
करो अब तुम्ही नियंत्रण .
           *** 

पुराने किले बन गए हैं झरोखे

जहाँ काल को चूमती हैं उमंगें 
     सर्वस्व अर्पण किये डोलते हैं,
शिखा पर उलझते हुए ये पतंगे 
     हम वहीं पास पर जलाये हुए देखते हैं.

कहने को कहानी नई है मगर
    पुरानी डगर पर पथिक बस नए हैं,
वही धुप-छाहें कौतुक-कोलाहल 
     वृक्ष डाली पत्ते नए हैं.

नए पुष्प-भंवरे गुंजन पुराना
     कलियाँ महकती मदहोशियाँ हैं.
हमें याद आती अपनी बहारें
      वही मुक्त कानन अमराइयां हैं.

करे सूक्ष्म श्रंगार दर्पण मचलते 
       दृष्टिभेदी वसन पर वदन खेलते हैं,
हम सभी कुछ किये अब पुराने पड़े से,
    पहने लबादों के वजन झेलते हैं.

गर्वित उठे से थिरकन पिए से
      काजल से केशों के सुलझन को देखे,
मेरे  हस्त गंजापन नापते हैं
       पुराने किले बन गए हैं झरोखे.
                     ***       

सुगंध

न फूल हूँ,
न शूल हूँ,
कली भली न वृक्ष हूँ,
न श्रव्य हूँ न दृश्य हूँ.
बेमौसमी बहार हूँ ,
हर किसी का प्यार हूँ
उड़ चली बयार हूँ
असीम का ही सार हूँ.
  मैं गंध हूँ.
   सुगंध हूँ.
वैध हूँ
पर उम्रकैद हूँ-
किसी के लिए - उम्रकैद हूँ.
मैं सुगंध हूँ.
      ***

मनके

भरे बाजारों से 
या निर्जन वीरान -
सुप्त नदिया के किनारों से 
चल निकलने पर भी 
आता नहीं अंतर
योगी आराधक की अंगुलिओं की गति में.
ज्यों नियमित रूप से फिरते रहते हैं.
ऐसे ही एकाग्र हो स्मृतियों के मनके,
गुंथे हुए घूमे जाते हैं.
प्रिय! बड़े सुखकर हैं-
ये आलिंगन मन के;
भरे बाजारों में भी 
या निर्जन वीरान - सुप्त नदिया के किनारों में भी.
                    ***

सोमवार, 25 जुलाई 2011

परिवर्तन

गांधी को गुजरे अब बरस हो गए,
आज देश में अनेक गाँधी हो गए.
कहते हैं कि गाँधी ने ज़माने को बीट कर दिया 
नेशनल पार्क में मैं देख रहा हूँ गांधी को कैद,
एक चील आकर गाँधी पर सवार हो गयी.
देखते ही देखते उसने गाँधी पर बीट कर दिया.

गाँधी से चील बड़ी है तभी तो माथे पर खड़ी है .
अब गाँधी के ताबूत को उड़ा दो 
उसकी जगह चील का ताबूत जड़ा दो.
                    ***
(पूज्य बापू से क्षमा याचना)
                *****

अनुभूति

मन के मंच पर तुम्हारी अनुभूति कुछ ऐसे छाई है 
जैसे एक पत्रविहीन डाल पर असंख्य गौरैय्याँ,
चुलबुलाती हैं, खुजलाती हैं, उछलती फांदती है 
फिर एकाएक फुर्र से उड़ जाती हैं.
                ****