बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

स्थायित्व

हर चौराहा
हर मार्ग हर मोड़
बहुत व्यस्त हैं.

   इनके राही 
   बहुत उलझे हुए 
   कोलाहलग्रस्त  
   अविश्वासग्रस्त
   भयभीत से भाग रहे हैं.

मैं अपनी बालकनी से-
ये नजारा देख रहा हूँ
खट-खट, पों-पों,
भरभराहट, गड़गड़ाहट
आतंक की तरह
चीत्कार की तरह
चीरती चली जा रही हैं.

   और मैं,
   एक तालाब की तरह
   हर लहर को
   पुन: स्थायित्व दिये जा रहा हूँ.
   यद्यपि मेरा अपना स्थायित्व
   उतरोत्तर डगमगाता जा रहा है.

मेरे चौराहे,
मेरे मार्ग,
मेरे मोड़
जो इसी तरह ध्वस्त होते रहे  
अब भग्नावशेष भर बचे हैं
मैं इनका पुनर्निर्माण नहीं करूँगा.
कभी नहीं करूँगा,
क्योंकि,
अब यही मेरा स्थायित्व हो चला है.
             ***

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

बीमार मन

रजत गर्ग मुरादाबाद शहर के रहने वाले हैं. धनबाद, पश्चिम बंगाल के स्कूल आफ माइनिंग से ग्रेजुएशन करने के बाद उनको कोल इंडिया की झरिया माइन्स में माइनिंग इंजीनियर की पोस्टिंग मिल गयी थी. शादी हो गयी, एक बेटा भी अब छ: साल का हो गया, तभी उनको तमिलनाडु के डालमियापुरम में डेप्युटी मैनेजर माइनिंग का ऑफ़र मिला, पे पॅकेज दुगुना था इसलिए उन्होंने यहाँ इस्तीफ़ा देकर डालमियापुरम जाने का फैसला कर लिया.

माइनिंग डिपार्टमेंट में बड़ा कठोर कारोबार होता है. सर्दी, गर्मी, बरसात, तीनों मौसमों में फील्ड में रहना पड़ता है. सोचा कि अन्डर ग्राउंड माइन्स से निकल कर ओपन कास्ट में बहुत राहत भी मिलेगी. इस प्रकार कोयले के काले झंझटों से मुक्त हो कर रजत गर्ग सुदूर डालमियापुरम पहुँच गए. अपनी पत्नी व बच्चे को अपने पैतृक निवास मुरादाबाद पहुँचा आये और इरादा किया कि जब वहाँ व्यवस्थित हो जायेंगे तब इनको लेकर आएंगे.

डालमियापुरम में एक बड़ा सीमेंट प्लांट है जिसकी ओपन कास्ट माइन्स हाई ग्रेड लाइम स्टोन से लबालब भरी हैं, ड्रिलिंग-ब्लास्टिंग करके पत्थर तोड़ कर शावलों द्वारा बड़े बड़े डम्फरों में भर कर सीधे फैक्ट्री के क्रशर तक भेजने का काम होता है. दिन-रात तीनों शिफ्टों में काम चलता रहता है, पर यहाँ भी वही मारा-मारी, टारगेट पूरा होना चाहिए. रजत शिफ्ट इंचार्ज थे इसलिए ज्यादा जिम्मेदारी हो गयी.

बचपन में रजत गर्ग बहुत प्रकृति-प्रेमी, साहित्य-प्रेमी थे पर नौकरी लगने के बाद सब काफूर हो गया. पत्थरों के संग जिंदगी चल रही है. कभी-कभी वे अपने मामा जी को कोसते भी हैं, जिन्होंने उनको धनबाद की राह पकड़ाई थी. कहा था इसमें जॉब अपोर्चुनिटीज बहुत हैं. जॉब तो आगे से आगे मुँह बाए खड़े हैं, पर जिंदगी के सुनहरे दिन इस तरह खटते रहेंगे, ये अनुमान नहीं था. सुबह से शाम तक भारी सेफ्टी जूतों में बंधे रहो, हेलमेट से ढके रहो, और साथ में संवाद के लिए ड्राइवर-डम्फर और धूल-धक्कड. हाँ इतना सन्तोष था कि कम्पनी ने एक अच्छा फर्निश्ड बंगला दे रखा है. आस-पास संगी साथी, सभी साउथ इन्डियन, या उड़िया-बंगाली हैं. रजत गर्ग सोचते हैं कि होली-दिवाली इन लोगों के साथ कैसे मनेगी?

घर की, यानि पत्नी दीपाली और पुत्र सलिल की बहुत याद आती है. मोबाइल से बात करते रहते हैं, पर एक महीना हो गया है यहाँ मन बिलकुल नहीं लग रहा है. गेस्ट हाउस में खाना भी इडली, दोसा, साम्भर, और रसम मिलता है. मन होता है, गेस्ट हाउस वालों से कहें कभी खीर-पूड़ी, दाल-चावल, सब्जी-रोटी भी खिलाया करो. फिर सोचते हैं कि अगले महीने जाकर दीपाली-सलिल को लाने के बाद सब ठीक हो जाएगा.

वर्कशॉप में रजत की मुलाक़ात चाँद अली से हो गयी तो बहुत खुशी हुई क्योंकि चाँद ने बताया कि वह भी मुरादाबाद के कटघर का रहने वाला है. चलो एक तो अपने मुलुक का प्राणी मिला. उससे बात हुई तो उसने बताया कि वह मध्य प्रदेश में कैमोर इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट से डीजल मैकेनिक का कोर्स करके पिछले साल ही डालमियापुरम आया है. शादी इसी साल की है, बीवी को पिछले महीने ही यहाँ लेकर आया है, और उसके साथ के लिए अपने ६ वर्षीय छोटे भाई हसन को भी लाया है. रजत को ऐसा लगा कि उसे अपने रिश्तेदार मिल गये हैं. वह उसी दिन शाम को चाँद के क्वाटर पर उनसे मिलने पहुँच गए. हसन के लिए ढेर सारे चाकलेट व जेम्स के पैकेट लेकर गये थे. हसन बहुत प्यारा बच्चा है उसे देख कर अपने सलिल की बड़ी याद आयी. चाँद अली व उसकी बीवी सितारा ने चाय-नमकीन से उसका स्वागत किया. उनके अपनेपन तथा बात व्यवहार से उसको जैसे रेगिस्तान में कोई नखलिस्तान मिल गया था.

इसके बाद अगले दिनों में भी कभी कभी वे चाँद के क्वाटर पर जाते रहे. चाहे बाहर बाहर ही गए हों. उनको लगता था कि दीपाली-सलिल आयेंगे तो उनको भी इनकी कम्पनी मिल जायेगी. इस दौरान आठ-दस दिनों का गैप हो गया वे चाँद की तरफ नहीं आ सके, कुछ व्यस्तता भी रही. एक शाम कुछ हल्की बूंदा-बूंदी हो रही थी उनकी उदासी बढ़ रही थी तो उन्होंने गेस्ट हाउस खाना खाने के लिए पैदल चलते हुए पहले चाँद अली के परिवार से मिलते हुए जाने का निश्चय किया. उस दिन वे कुछ ज्यादा ही होमसिक थे क्योंकि दीपाली ने उनको फोन पर बताया था कि सलिल उनको बहुत याद करने लगा है.

जब वे चाँद अली के क्वाटर पर पहुंचे तो हसन बरामदे में ही खड़ा था. अँकल आ गए, चिल्लाता हुआ अन्दर जाकर अपनी भाभी को बुला लाया. सितारा ने रजत को "आदाब" कहते हुए बताया कि चाँद अली तो हॉकी खेलने टीम के साथ कोयम्बटूर गया हुआ था. चाँद ने रजत को बताया जरूर था कि वह डालमियापुरम की हॉकी टीम की गोल कीपिंग करता है. सितारा ने औपचारिकतावश कहा, भाई जान बैठिये. रजत ने हसन को दुलारते हुए विदा ली और चलते-चलते कहा गेस्ट हाउस जा रहा हूँ, वापसी में आऊँगा. रास्ते में उनको चाँद अली पर गुस्सा आ रहा था कि बच्चों को इस तरह परदेस में अकेले छोड़ कर खुद खेलने बाहर चला गया.

गेस्ट हाउस से जब वह लगभग एक घन्टे के बाद वापस चाँद अली की तरफ लौटे तो रास्ते में एक स्टोर से हसन के लिए एक पोटेटो चिप्स का पैकेट व कुछ टाफियां खरीदी. जब चाँद अली के क्वार्टर पर पहुँचे तो देखा सितारा छाता लेकर कहीं बाहर जाने को थी, बहुत हल्के छींटे आ रहे थे.


इतने में हसन दौड़ कर आया और रजत के पास आकर झपट कर टॉफी व चिप्स का पैकेट ले लिया. और बहुत प्यार से बोला, अँकल, आपसे भाभी जान डर रही हैं. बगल वाली मालिनी आंटी को बुलाने जा रही हैं.

रजत को मानो बिच्छू का डंक लग गया. वह एकदम सहम कर उलटे पैर लौट गया और बोला, मैं फिर आऊँगा.

बारिश एकदम बढ़ गयी साथ ही रजत की चाल भी. उसे पता नहीं चला कि वह कैसे अपने बंगले तक पहुँच गया. उसका मन बहुत विचलित और बीमार सा हो गया. उसे एहसास हो रहा था कि घिनोनी सोच से सितारा का मन भी अवश्य बीमार है.
                                     ***

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

चुहुल-१८



(१)
एक दस साल का बच्चा एक किताब को बड़े गौर से पढ़ रहा था. किताब का नाम था, बच्चों का सही पालन-पोषण कैसे करें.
माँ ने देखा तो बच्चे से पूछा, ये पुस्तक तू क्यों पढ़ रहा है?
बच्चा बोला, मैं ये जानना चाहता हूँ कि आप लोग मेरा पालन-पोषण ठीक से कर रहे हैं या नहीं.

(२)
एक छोटी लड़की दूकानदार से पूछती है, अंकल जी, गोरा होने की क्रीम भी बेचते हो क्या?
दूकानदार बोला, हाँ, है.
लड़की बोली, तो आप खुद क्यों नहीं लगाते हो. मैं आपके काले-कलूटे चेहरे से डरती रहती हूँ.

(३)
एक बच्चे ने स्कूल में अपनी अध्यापिका को फोन लगाया, बोला, मैडम, आज मेरा बेटा स्कूल नहीं आएगा. उसकी तबियत खराब है.
मैडम ने पूछा, आप कौन बोल रहे हैं?
बच्चे जवाब दिया, मैं अपना पापा बोल रहा हूँ.

(४)
सविता: कल मेरा बेटा घर आ रहा है.
कविता: पर वह तो जेल में ५ साल की सजा काट रहा था.
सविता: हाँ, लेकिन उसके अच्छे व्यवहार के कारण एक साल की सजा माफ हो गयी है.
कविता: बहुत अच्छा, भगवान ऐसी औलाद सब को दे.

(५)
वेतन के चेक मिलने पर एक कर्मचारी मालिक के पास जाकर बोला, इसमें दो सौ रूपये कम लिखे हैं.
मालिक बोला, पिछले महीने जब दो सौ रुपये ज्यादा आये थे तब तो तुमने शिकायत नहीं की?”
कर्मचारी बोला, ठीक है, वह आपकी पहली गलती थी इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा, पर आप बार-बार गलती करेंगे तो बोलना पड़ेगा.
                                        ***

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

हलाल की रोटी

फजलुर्रहमान और अतीकुर्रहमान दोनों भाई एक पुरानी सीमेंट फैक्ट्री में बतौर मजदूर भर्ती हुए थे. अपनी मेहनत व कार्यकुशलता के चलते छोटे भाई फजलू को वर्कशाप में फिटर तथा बड़े भाई अतीक को वेल्डर बना दिया गया. दोनों भाईयों ने मदरसे में ही दो जमात उर्दू पढ़ी थी बाकी वे थे अनपढों की श्रेणी में. उन दिनों उम्र का सर्टीफिकेट भी नहीं होता था न इसे गंभीरता से लिया जाता था. डाक्टरी जांच जरूर होती थी, कंपनी का मेडिकल ऑफिसर अंदाजे से या पूछ कर रिकार्ड में उम्र लिख देते थे. इसी लीक पर लोग काम करके साठ वर्ष की आयु होने पर हंसी-खुशी रिटायर हो जाया करते थे. बाद में कर्मचारी राज्य बीमा आदि कई सरकारी अधिनियम आये तो फैक्ट्री के रिकार्ड के अनुसार सबकी उम्र दर्ज कर ली गयी और कर्मचारियों के अंगूठेदस्तखत ले लिए गए.

जब फजलू को रिटायरमेंट से छ: महीने पूर्व विधिवत सूचना दी गयी तो उसने लिख कर दिया कि बड़े भाई अतीक की अभी दो साल बाकी सर्विस बताई जा रही है ऐसे में उसको अभी रिटायर नहीं किया जाये’. इस सम्बन्ध में वह ग्राम पंचायत से भी लिखवाकर लाया कि अतीकुर्रहमान बड़ा भाई व फजलुर्रहमान छोटा भाई है, जिनकी उम्र में दो साल का अंतर है.

इस दलील को मैनेजमेंट ने नहीं माना. जनरल मैनेजर राघवन बड़े सख्त पर व्यवहारिक किस्म के प्रशासक थे. उन्होंने परिस्थितियों पर अपनी टिप्पणी दी कि इस हिसाब से अतीक को पहले रिटायर हो जाना चाहिए था, लेकिन मेनेजमेंट रिकार्ड के अनुसार जाएगा जिसमें कर्मचारी ने खुद अंगूठे/दस्तखत किये हैं. इसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है क्योंकि इससे अन्य बहुत से मामलों में विवाद उत्पन्न हो सकता है.

फजलू लेबर कोर्ट की शरण में चला गया लेकिन रिटायरमेंट की निश्चित तिथि तक वहाँ तारीखें ही बदलती रही. जज साहब डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से रिटायर्ड थे उन्हें लेबर कोर्ट व लेबर लाज की विशेष जानकारी नहीं थी पर उनको यहाँ पीठासीन होने से पहले ये पाठ पढ़ाया गया था कि वर्कर, वीकर सेक्शन में है और मैनेजमेंट बहुत समर्थ व ताकतबर रहता है.’ अत: हर केस में वे कामगारों के प्रति विशेष नरम रुख रख कर फैसले देते थे. इस केस में उन्होंने लिखा कि गवाहों के साक्ष्य के आधार पर यह सिद्ध होता है कि फजलुर्रहमान, अतीकुर्रहमान का छोटा भाई है इसलिए उसकी रिटायरमेंट की तारीख कम से कम अतीकुर्रहमान से एक साल बाद होनी चाहिए. ऐब्सेंस पीरियड के लिए आधे वेतन के साथ उसे काम पर लिया जाये.

कम्पनी के वकीलों ने इस फैसले के विरुद्ध हाईकोर्ट में अपील करने की सलाह दी पर जनरल मैनेजर ने सोचा कि फैसला होने में बरसों लगेंगे और वकीलों को लाखो रुपये चुकाने होंगे. ये भी था कि हाईकोर्ट का भी कुछ भी फैसला हो सकता था. अत: उन्होंने लेबर कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए फजलू को काम पर आने का और टोकन देने का आदेश कर दिया, पर साथ में स्टाफ को ये भी कह गिया कि फजलू को टाईम आफिस के गेट पर एक स्टूल लगा कर बैठने की व्यवस्था कर दी जाये. उसे डिपार्टमेंट में न भेजा जाये.

फजलू जब जीत की खुशी लेकर फैक्ट्री लौटा तो सभी संगी-साथी कर्मचारियों ने उसे बधाईयां दी, हाथ मिलाए. कुछ दिनों तक ये क्रम चलता रहा. पर इस तरह बिना काम के बैठे रहना फजलू को अखर रहा था. कुछ लोग कमेन्ट करने लगे कि चाचा मजा आ रहा है ना? बैठे-बैठे तनख्वाह ले रहे हो? ये चलता रहा और एक दिन किसी ने पीछे से ये कमेन्ट कर दिया कि अरे, फजलू तो हराम की रोटी खा रहा है. उस दिन फजलू सो नहीं सका और उसने ठान ली कि वह अगले ही दिन काम की मांग करेगा.

डिपार्टमेंट ने उसे काम बताने से मना कर दिया. बहुत मानसिक उधेड़बुन के बाद वह जनरल मैनेजर की केबिन में पहुँच गया और सलाम बजा कर बोला, साहब मुझे डिपार्टमेंट में भेज कर काम बताइये. मैं हराम की रोटी नहीं खा सकता हूँ. जी.एम. राघवन ने कहा, कोर्ट ने ऐसा तो नहीं लिखा है कि आपको कहाँ बिठाया जाये. आपकी तनख्वाह तो चालू है ही.

फजलू हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ा कर बोला, "साहब अच्छा है, आप मुझे रिटायर कर दो.
जी.एम. बोले, ठीक है, लिख कर दे दो.

इस प्रकार फजलुर्रहमान स्वेच्छा से दुबारा रिटायर हो गया और मैनेजमेंट के पैंतरे के सामने हार गया. लेकिन उसको ये संतोष रहा कि वह हलाल की रोटी खायेगा.
                                ****

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

हस्त-रेखा

1995, फरवरी महीने की एक सर्द सुबह, मैं अपने कॉरपोरेट आफिस से आये हुए मैनेजमेंट के उच्चाधिकारियों तथा अन्य उद्योगों से आये हुए ट्रेड युनियन प्रतिनिधियों के साथ एक जोइंट मीटिंग में शामिल हुआ था. स्थान था जयपुर का होटल अशोका. विषय ऐसा था कि उस पर सभी सहमत थे इसलिए मीटिंग एक घन्टे में समाप्त हो गयी. होटल के एयर-कंडीशंड वातावारण से १० बजे बाहर आने पर बहुत ठण्ड का अनुभव हुआ. मेरे साथ मेरे सेक्रेटरी रविकांत शर्मा भी थे. हमने निश्चय किया कि पैदल ही घूमते हुए गुनगुनी धुप का आनंद लिया जाये.

पोलो विक्ट्री सिनेमा हाल और होटल से आगे चलने पर, सड़क के किनारे फुट पाथ पर एक मोटे पेड़ के सहारे एक बड़ा सा रंगीन बैनर लगा था, जिस पर हाथ व हस्त-रेखा का खुला चित्र तथा इस बारे में काफी इबारतें लिखी गयी थी. तिलकधारी बुजुर्ग ज्योतिषी एक दरी बिछा कर बैठे थे. उनके बगल में कुछ पुस्तक-पातड़े भी रखे थे. मैंने जिंदगी में कभी किसी ज्योतिषी को हस्त-रेखा नहीं दिखाई थी. ना जाने उस दिन मेरे मन में क्यों आया कि उनको अपना हाथ दिखा लिया जाये, फुर्सत भी थी.

हम दोनों जने पंडित जी की दरी में बैठ गए. मैंने शिष्टाचारवश ज्योतिषी महोदय से पूछ लिया, पंडित जी आपका शुभ नाम क्या है?

उन्होंने तमक कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, "रामानंद श्रीमाली को सारा जयपुर जानता है और आप बैनर पर मेरा नाम पता भी देख रहे हैं फिर भी अनपढ़ों की तरह नाम पूछ रहे हैं?
सचमुच उनका नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था. मैंने ही ख्याल नहीं किया था. मैं थोड़ा संकोच में तो आया पर मैंने दुबारा गलती कर डाली, पूछा, अच्छा श्रीमाली जी, आपकी फीस क्या है?
श्रीमाली जी पुन: उसी टोन में बोले, तुम कैसे पढ़े-लिखे अनपढ़ हो? यहाँ फीस के बारे में भी साफ़ साफ़ लिखा है, पढ़ो.

मैंने पढ़ा,
"हस्तरेखा देखने की साधारण फीस ११ रूपये, स्पेशल के १०१ रूपये, और डीलक्स के १००१ रुपये.

मैंने रविकांत की तरफ देखा, उन्होंने कहा, पहले साधारण में दिखाइए अगर बात में दम हो तो आगे बढ़ेंगे.

मैंने जेब से ११ रूपये निकाले, श्रीमाली जी को देते हुए कहा, 
पंडित जी साधारण रूप में ही देखिए.

श्रीमाली जी का बोनी-बट्टा था. उन्होंने ११ रुपयों को माथे पर लगाया, अपनी पुस्तकों को छुवाया फिर अपने स्वेटर के अन्दर शर्ट की जेब के हवाले किया इसके बाद उन्होंने मेरा दांया पंजा अपने हाथ में लेकर थोड़ा मरोड़ा, दबाया, और गंभीर स्वर में बोले, सच को सच कहना, गलत को गलत.

ठीक है, मैंने कहा.
हथेली के पॉइंटों व लकीरों को उभार कर उन्होंने कहा, 
तुम्हारा समय खराब चल रहा है.
मैंने कहा, ये गलत है, क्योंकि तब मैं अपनी नौकरी व बच्चों की तरफ से बेफिक्र व आनंद पूर्वक रह रहा था. बच्चों की नौकरियाँ व शादियों की जिम्मेदारियों से निबट चुका था. सामाजिक प्रतिष्ठा भी भगवत्कृपा से निर्विरोध प्राप्त थी. माताश्री ठीक-ठाक मौजूद थी उनका साया संतुष्टि के साथ मेरे परिवार के ऊपर था. कुल मीजान ये कि मैं किसी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से परेशानी में नहीं था.

ज्योतिषी जी ने और जोर से मेरी हथेली पिचकाई और फैलाई, और उसके बाद और ज्यादा आत्मविश्वास से बोले, मैं कहता हूँ कि तुम्हारा बहुत खराब समय चल रहा है.

मैंने भी उसी आत्मविश्वास से उत्तर दिया, ये बात सही नहीं है.

श्रीमाली जी का जोश देखने लायक था. मैंने उनकी आँखों में आखें मिलाई तो उनको और जोश आ गया. उन्होंने जेब से मेरे दिये हुए ११ रुपये निकाले और मेरे हाथ में वापस रख दिये. मैं बिना कुछ सोचे समझे उठ खडा हुआ और रविकांत शर्मा के साथ हंसते हुए आगे बढ़ गया.

हम दोनों ने इस बारे विश्लेषण किया कि शायद ज्योतिषी के पास वही लोग पहुचाते होंगे जो किसी परेशानी में पड़े होते हैं, शंकित होते हैं, या भयभीत होते हैं, और ज्योतिषी जी इसी प्रकार प्रतिक्रिया, धौंस देकर उनसे स्वीकारोक्ति लेते रहते होंगे. ये हमारा अनुमान था.

इसके बाद हम दोनों रिक्शे में बैठ गए और जयपुर के अन्दर दर्शनीय स्थानों को देखते हुए शाम ४ बजे अपने घर लौटने के लिए रेलवे स्टेशन आ गए. लेकिन दिन भर दिमाग में श्रीमाली जी की बात घूमती रही कि खराब समय चल रहा है. अनेक गलत आशंकाओं व संभावनाओं ने विचलित अवश्य किया. ये प्रभाव लगभग ६ महीनों तक मुझे अनावश्यक परेशान करता रहा.

मैं हस्त-रेखा विज्ञान/सामुद्रिक शास्त्र के विषय में कोई ज्ञान नहीं रखता हूँ, लेकिन इतना विश्वास जरूर है कि श्रष्टा ने हमारे हथेलियों, अँगुलियों व पैर के तलवों में जो लकीरें खींची हैं, उनमें अवश्य कोई सत्य होना चाहिए. इस विषय में अनेक विद्वानों ने बहुत सारी पुस्तकें भी लिखी हैं. इसे एक विज्ञान शास्त्र का नाम दिया है, किन्तु उसके सही ज्ञान के अभाव में जो गलत धारणाएं तथा अंधविश्वास हमारे अन्दर घर कर गए हैं, वे हमें भ्रमित करते हैं. अनाड़ी/चालाक ज्योतिषी/तांत्रिक इसका लाभ उठाते हैं.

मैंने अपने इन ब्लाग लेखन क्रम में दिनाक १९ अगस्त २०११ को एक सुन्दर कहानी फलित ज्योतिष पोस्ट की थी जिसे मेरे पाठकों ने खूब सराहा था. मैं यहाँ पुन: लिखना चाहूँगा कि हमारे समाज में जो विकृतियाँ अन्ध-विश्वास के रूप ज्योतिष या हस्तरेखा विज्ञान के नाम पर घर कर गयी हैं, उनके बारे में प्रबुद्ध लेखकों को प्रकाश डालते रहना चाहिए.
                                    *** 

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

क्या है?

क्या है,
ये मत पूछो.
जो स्वयं सिद्ध हो
ऐसी कोई भी प्रतिक्रिया
सिद्धांत हुआ करती है.

     ये कोई तृष्णा नहीं है,
     ये कोई क्षुधा नहीं है,
     ये तो इक सच्चाई है
     अन्तरंग अभिलाषा है.

ये तो इष्ट ह्रदय का है,
लतिका से तरु का आलिंगन
नहीं है कोई अनिष्ट पिपासा.
उसका तो ये अवलंबन है
जीवन है
अपनेपन की परिभाषा है.

     ये सिद्ध साध्य है
     एक आराध्य है
     तो एक आराधक है.
     अवरोध नहीं हो
     करने दो साधना.

ये उत्कंठा है
एक अनकही भाषा है
अप्रदित दिलासा है
ये मत पूछो
क्या है?
          ***

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

बज्जर लाटा

गूंगे को कुमाउनी में लाटा कहा जात्ता है, लेकिन जो गूंगा-बहरा हो उसे बज्जर लाटा कहा जाता है.

प्रकृति का खेल भी कभी कभी अजब-गजब होता है. ११ भाई बहनों में उसका नम्बर सातवाँ था. गूंगे-बहरों की दुनिया अलग ही होती है. हम जो सामान्य मनुष्य होते हैं सँसार की बातें सुनते हैं, पढते हैं, और तमाम जानकारियाँ हासिल करते रहते हैं. लेकिन गूंगे-बहरे को जो दिखाई देता है वह उसे ही ग्रहण करके अपनी अक्ल लगाता होगा. उसके मानसिक स्थिति का आकलन कोई मनोवैज्ञानिक भी शायद ठीक से नहीं कर पायेगा.

पुरोहित जी ने नामकरण के दिन उनकी जो कुंडली बनाई उसमें उसको बड़ा धैर्यवान, पराक्रमी, स्त्री प्रेमी आदि कई पुरुषार्थी गुणों युक्त पुरुष उल्लिखित किया और उसके बंद कान में नाम की घोषणा भी की. जन्म समय की लग्न-मुहूर्त और नक्षत्र के अनुसार सिंह राशि के तहत मोहन नाम से की गयी. तब ये मालूम नहीं था कि उसका श्रवण यंत्र काम नहीं करता था लेकिन पुरोहित जी को तो कर्म-कांड के अनुसार बोलना ही था. उसका ये नाम बाद में और लोगों के इस्तेमाल के काम अवश्य आया, पर मोहन कभी नहीं जान पाया कि नाम क्या होता है. घरवालों को इस बात का आभास बहुत दिनों के बाद हुआ कि बालक वाणी और श्रवण शक्ति से नहीं नवाजा गया था, लेकिन ये आश्चर्यजनक था कि बालक मोहन अपने सारे नित्य के काम अन्य चंगे बच्चों की तरह करने लग गया. उसकी आँखों में गजब की चमक रहती थी. और वह जो देखता था फुर्ती से उसे सीख लेता था.

यों उसको देखने पर किसी अजनबी को कभी नहीं लगा कि वह बज्जर लाटा है. किशोरावस्था तक वह तमाम घरेलू कामों में पारंगत हो गया. अन्य भाई बहनों से चपल और तेज था. इशारों के लिए उसे सिखाया नहीं गया. उसने अपनी इशारों की भाषा खुद ईजाद करके औरों को अपनी बात समझाने की कला सीख ली. परिवार के लोग भी उसी की इशारों वाली भाषा में उससे बात करने लग गए. सन्दर्भों का पूर्वानुमान लगाने की उसकी अद्भुत क्षमता देख कर सबको अचम्भा होता था.

शौक उसको सारे थे. नए लोगों के लिए वह अजूबा हो सकता था, पर परिवार के लिए वह एक समझदार लड़का था. उसमें कोई ऐब भी नहीं था इसलिए भी वह सबका प्रिय था.

पहाड़ के दूर-दराज गाँवों की शादियां उन दिनों बिना किसी ताम-झाम दिखावे के साधारण कार्यक्रम की तरह मित्रों, गाँव पड़ोस को दाल-भात, पूड़ी-हलवा खिला कर हो जाया करती थी. वह ऐसा समय था कि बहुत से बहुत, बीन-बाजा और दमुआं+ढोल वाले की जरूरत होती थी. कभी-कभी तो उसके बिना भी काम चला लिया जाता था. डोली में बिठाया, फेरे करा दिये, न कोई बड़ा दान दहेज. मोहन के सभी भाई बहनों की शादी हो गयी थी, पर वह कुंवारा ही रह गया क्योंकि वह बज्जर लाटा था. उसने सबकी शादियाँ देखी, सबके जोड़े बनते देखे, पर उसको तो ऊपर वाले ने अधूरा बनाया था सो मन ही मन तरस कर रह जाया करता था. अवश्य ही शादी का मतलब उसकी समझ में आ गया था कि शादी के मायने बच्चे पैदा करना’.

वे माता पिता अपने भाग्य को दिन रात कोसते रहते हैं जो चाहते हुए भी अपनी औलाद की समय पर शादी नहीं कर पाते हैं. कुछ लोग तो इसी अधूरी तमन्ना के साथ इस दुनिया से चले जाते हैं, पर मोहन के पिता ने अपनी सोच को कार्यरूप में परिणीत कर ही दिया. कत्यूर घाटी के टीट गाँव से मोहन के लिए एक भैंगी+लंगड़ी लड़की की तलाश कर ली. जिसका कोई ना हो उसका खुदा होता है, ऐसी कहावत है, सो नन्दी देवी नाम की इस लड़की की शादी मोहन के साथ करा दी गयी. सात फेरे भी हुए पर सब दस्तूरन था क्योंकि मन्त्रों का मतलब अनपढ़ नन्दी भी नहीं समझती थी, मोहन तो गूंगा बहरा था ही. घर बस गया सब लोग खुश थे.

इस कहानी के नायक मोहन आज से लगभग ९० वर्ष पहले पैदा हुए थे. तब हमारे कूर्मांचल के गाँवों का जीवन कितना सरल था उसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती है. अभाव-अभियोग व शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद मोहन उर्फ बज्जर लाटा ८० वर्ष की उम्र तक जिए और स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त हुए. उनके दो पुत्रियां व एक पुत्र अपने परिवारों के साथ आज व्यवस्थित हैं. पुत्र धीरेन्द्र सबसे छोटा है वह फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट में रेंजर के पद पर है, रिटायरमेंट के करीब है. उसके ड्राईंगरूम में बाप की आदमकद रंगीन फोटो लटकी हुई है, ऐसा लगता है कि वे हमसे कुछ कहना चाहते हैं.
                                    *** 

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

हत्या का दंश

चम्पावत के पास सक्न्यानी गाँव का २२ वर्षीय प्रेमानंद बड़ा संजीदा-सुगढ़ नौजवान था. दूर मुनस्यारी के निकट एक गाँव में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड अल्मोड़ा (तब अल्मोड़ा विभाजित नहीं था) के प्राइमरी स्कूल में उसे अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली हुई थी. वह दो दिनों के लिए अपने घर आया हुआ था. ना जाने उसकी बुद्धि क्यों खराब हुई उसने अपनी सोडशी पत्नी मधुली को बड़ी बेरहमी से काट डाला. हत्याकांड जंगल में हुआ, जहाँ औरतें घास लेने गयी हुई थी. बहिनें, भाभियाँ-घस्यारियाँ देखती चिल्लाती रह गयी.

प्रेमानंद ये दुष्कृत्य करके सीधे राजस्व पुलिस पटवारी के पास खुद ही गिरफ्तारी देने चला गया. उसे गिरफ्तार करके सीधे जेल भेज दिया गया. बाद में उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी. ये सन १९४१ की बात है. पता नहीं मधुली से ऐसा क्या अपराध हुआ कि प्रेमानंद को इतना पागलपन सवार हुआ. किसी की समझ में नहीं आया. क्या उसमें कोई चरित्र-दोष उसने देखा या कुछ और बात थी? राज बाहर नहीं आया. इस तरह पत्नी की नृशंश ह्त्या, बर्बरता तो थी ही, परिवार के लिए दु:ख और शर्म भरा आघात भी था.

पूरे इलाके में इसकी चर्चा हुई, इस तरह का कत्ल यहाँ मैंस-मार (मनुष्य को मार देना) पहली बार देखा-सुना गया. बहू बेटियाँ सब भयभीत हो गयी. कोई कहता कि इसमें जरूर इसके जालिम बाप बालादत्त की कारस्तानी होगी क्योंकि उस पर भी एक कलंक अपनी माँ को लात मारने का जग जाहिर था. उसे माँ ने श्राप दिया था कि तेरा भला नहीं होगा. माँ भी ऐसी थी कि उसकी जीभ पर काला तिल विराजमान था, जो कहती थी वह सच होकर रह जाता था. वैसे वह बड़ी धर्मात्मा प्राणी थी. बचपन में ही बड़े बूढों के साथ गया, काशी, मथुरा-बृंदावन और उत्तर में गंगोत्री, यमुनोत्री, व बदरीनाथ सब जगह पैदल तीर्थ यात्रा करके दैवी शक्तियां तथा आत्मविश्वास कमा चुकी थी.

इस दुर्घटना के बाद वास्तव में बालादत्त की पूरी पारिवारिक व्यवस्था तहस-नहस हो गयी. भाइयों में बिद्रोह-बिछोह हो गया, घर के पालतू जानवरों का नुकसान होने लगा, 'छरबट-बरबट हो गया. पुरोहित की सलाह पर इष्टदेवों का पूजन व बलि आदि देकर गृह शान्ति की कोशिश की गयी पर जो क्षति हो चुकी थी वह अपूरणीय थी.

बालादत्त ने माँ का पग पूजन किया. २१ बार क्षमा माँगी ताकि माँ का श्राप हल्का हो जाये. बुढ़िया ने कहा कि मैं तुझे अपनी तरफ से माफ करती हूँ और अपना श्राप वापस लेती हूँ, पर मेरी मृत्यु के उपरान्त तू मेरी चिता को अग्नि नहीं देगा. कालान्तर में ये भी सच हुआ.

इस बीच जब द्वितीय विश्व युद्ध हुआ तो अंग्रेजों ने कैदियों को सैनिक प्रशिक्षण देकर मोर्चे पर भेज दिया. प्रेमानंद भी इस योजना के अंतर्गत मिडिल-ईस्ट में भेज दिया गया और युद्ध समाप्ति पर एक सिपाही की ड्रेस में पीठ पर पिट्ठू लेकर साथ में नेपाली डोटियाल कुली पर बक्सा-बिस्तर का बोझ लाद कर सन १९४६ में घर आ गया. उसकी सजा माफ हो गयी थी.

पूरे गाँव-बिरादरी को बुलाकर प्रेमानंद की चंद्रायण की गयी और परिवार को मुख्य धारा में शामिल किया गया. एक साल बाद प्रेमानंद का लोहाघाट से एक गरीब की १६ वर्षीय कन्या से दूसरा विवाह किया गया. प्रेमानंद के कुछ बर्षों बाद दो पुत्र हुए और गृहथी की गाड़ी फिर से पटरी पर दौड पड़ी लेकिन मैंस-मार का कलंक धुला नहीं. प्रेमानंद अब इस सँसार में नहीं है पर आज भी अगली पीढ़ी को पुराना दंश सहना पडता है.
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शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

भटके हुए लोग

सुरेन्द्रनाथ गौड़ आगरा के नामी घराने के उस्ताद पंडित सुखीराम के शागिर्द रहे. संगीत विशारद थे. यद्यपि उनका मौसिकी से कोई पैतृक सम्बन्ध नहीं था लेकिन बचपन से ही वे अनायास इस रंग में रंगते चले गए थे. हुआ यों कि उनको फिल्म देखने व फ़िल्मी गाना गाने का जूनून था. एक दिन उस्ताद की नजर उन पर पड़ी तो जिंदगी की दिशा ही बदल गयी. उस्ताद ने ठीक ही पहचाना कि इस लड़के में संगीत की बहुत संभावनाएं थी. जोहरी की तराश मिलते ही सुरेन्द्र चमकने लगा. लोगों ने उसको मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री की तरफ मुँह करने की सलाह दी पर वह तो उस्ताद की भतीजी देविका के प्रेमजाल में इस तरह बंध गए कि दीन दुनिया की खबर ही नहीं रही.

उस्ताद का बड़ा स्नेह था, वे सब देख रहे थे और एक दिन उन्होंने दोनों को सात फेरे दिलवा कर एक बंधन में बाँध दिया. हनीमून पीरियड जरूर लंबा चला, लेकिन देविका ने धीरे धीरे उससे दूरी बनानी शुरू कर दी. वह बड़ी शोख व चँचल लड़की थी, उसकी अनेक भौतिक इच्छायें थी और सुरेन्द्रनाथ एक फक्कड किस्म का आदमी था. हालात को स्थायित्व देने के लिए उस्ताद ने उसको कहीं अच्छी नौकरी तलाशने की सलाह दी. संयोग से जयपुर के एक संगीत विद्यालय में उसको अध्यापक की नौकरी मिल भी गयी.

देविका ने इस बीच एक गोलमटोल लडकी को जन्म दिया. सब ठीक ठाक चल रहा था सुरेन्द्र को आभास नहीं था कि देविका इन हालातों में उसको छोड़ कर भी जा सकती है. एक दिन कुछ छोटी-मोटी बातों में चिकचिक होने पर वह सचमुच घर छोड़ कर गायब हो गयी. कहाँ गयी, किसके साथ गयी, कुछ पता नहीं चला. पुलिस में रिपोर्ट भी लिखवाई पर उसका कोई पता ही नहीं चला. इस प्रकार बालिका चकोरी को पालने का पूरा पूरा भार पिता पर आ गया. जब मजबूरी आ जाती है तो निभाना पड़ता है.

हमारे समाज के लोगों की सोच यह है कि जिसकी बीबी घर छोड़ कर भाग जाती है, वे बड़े दुर्भाग्यशाली होते हैं और हेय समझे जाते हैं. दिन तो जैसे तैसे कट ही जाते हैं लेकिन कलंक पीछा नहीं छोडता है. बदनामी की वजह से सुरेन्द्रनाथ जयपुर छोड़कर अपनी बिटिया सहित अजमेर आ गये और वहीं एक स्कूल में संगीत अध्यापक बन कर जीवन यापन करने लगे.

बिना माँ की बच्ची ने पिता के साये में जो संस्कार पाए वे संगीतमय ही थे. उसे वे बेटा मान कर पालते रहे और वह बचपन से वह सभी वाद्य-यंत्रों को बजाने लग गयी तथा नृत्य में कत्थक, ओडिसी, आदि शास्त्रीय शैलियों की भी जानकार हो गयी.

सुरेन्द्रनाथ को उनके शिष्य सुर जी मास्साब कहा करते थे. सुरजी को तमाम सुरों की पकड़ थी. उन्होंने बिटिया को राग भैरवी, खमाज, कल्याणी, बिलावल आदि शास्त्रीय गायनों में प्रवीण कर दिया साथ ही कॉलेज तक की पढाई भी करवाई. लड़किया बहुत जल्दी जवान भी हो जाती हैं. सुरजी को उसके लिए योग्य वर ढूँढने की मशक्कत भी करनी पड़ी. कहते हैं कि रिश्ते भगवान के घर से तय हो कर आते हैं. रिश्तेदारों की मदद से एक माध्यम वर्गीय सजातीय लड़का तो मिला पर वे उसकी आमदनी के श्रोतों से वे खुश नहीं थे. लड़का योगेश जीवन बीमा एजेंट के रूप में काम करता था. सुरजी को अपने दिन याद आ रहे थे कि कहीं विधना ने बेटी के भाग में भी वही लकीरें तो नहीं खींची? जिस तरह के वातावरण में चकोरी पली थी वह आत्मविश्वासी तथा स्वच्छंद प्रवृति की हो गयी थी. महत्वाकाक्षायें उसकी भी कम नहीं थी. सुरेन्द्रनाथ की मानसिक विवेचनाएँ निरर्थक नहीं थी पर उनके पास विकल्प नहीं के बराबर थे. अस्तु अच्छे दान दहेज के साथ योगेश के साथ ही चकोरी की शादी कर दी गयी.

इसी बीच अजमेर में ही सरकारी स्कूल में चकोरी को अध्यापिका की नौकरी मिल गयी, उसने बी.एस.सी. बी.एड. की डिग्री तो ले ही रखी थी. परिस्थितियों से समझौता करते हुए योगेश घर-जंवाई की तरह बसर करने लगा. एक साल तक तो सब ठीक रहा पर उसके बाद योगेश की पटरी उस घर से उखड़ती नजर आने लगी. विवाद हुए, खींचतान हुई, और वह गर्भवती चकोरी को अजमेर में छोड़ कर चला गया क्योंकि बेरोजगार भी हो तो भी पति के स्वाभिमान को बार बार ठेस लग रही थी. उसको लग रहा था कि उसके साथ नौकर का सा सलूक किया जा रहा है.

सुरजी के आग्रह पर कुछ नजदीकी रिश्तेदारों ने बीच-बचाव करने की कोशिश जरूर की पर चकोरी भी योगेश के शब्द बाणों से इस कदर घायल थी उसने उसके साथ आगे का जीवन बिताने से स्पष्ट मना कर दिया. जब पति पत्नी में बिगाड़ शुरू हो जाता है तो एक दूसरे की कमियां ज्यादा नजर आने लगती हैं. नौबत तलाक की आ गयी. इसी बीच चकोरी ने एक गुड़िया को भी जन्म दे दिया. शक्ल सूरत में बिलकुल अपनी माँ जैसी. नाना रिटायर हो गए और वही उसके लालन-पालन का ध्यान रखने लगे.

बच्चे तो बच्चे होते हैं उनको दीन-दुनिया की इतनी समझ नहीं होती है पर जब वे बड़े होने लगते हैं और अपने संगी-साथियों को देखते हैं तो स्वाभाविक रूप से रिश्तों के बारे में पूछने लगते हैं. गुड़िया को अपने पिता के विषय में बहुत से प्रश्न पूछने थे पर माँ थी कि उसका नाम नहीं सुनना चाहती थी. अकेले में गुड़िया माँ द्वारा छुपाई गयी पुरानी एल्बम देखती और अपने पिता के बारे में अनेक कल्पनाएँ करती रहती थी. वैसे भी बेटियों का लगाव-जुड़ाव पिता के साथ बहुत ज्यादा होता है, उन्हें वे अपना आदर्श भी मानती हैं, लेकिन यहाँ बात दूसरी ही हो गयी थी. गुड़िया बेचैन रहती थी. उसका मन पढ़ाई-लिखाई में भी कम ही लगता था. उसे नाना का सहारा जरूर था जो उसे तमाम पौराणिक से लेकर सामाजिक बातों से अवगत कराते रहते थे. दुर्भाग्यवश एक दिन आकस्मिक रूप से उनका स्वर्गवास हो गया.

मृत्यु एक शाश्वत सत्य है. पीछे रह गए स्वजन रो-धो कर जमाने की सान्त्वना पाकर चुप हो जाते हैं और अपने ढर्रे पर आ जाते हैं. इन दो माँ-बेटियों की स्थिति अलग किस्म की थी. चकोरी का एक बड़ा सपना था कि गुड़िया को डॉक्टर बना कर अपना सर ऊंचा करेगी. और भी ना जाने क्या-क्या प्लान थे. चकोरी के कई पुरुष मित्र भी थे. वे घर भी आते थे गप-शप बातें सभी नॉर्मल होने लगा था लेकिन गुड़िया इन बातों से अलग निबट अकेली होती गयी. वह बहुत उदासी व विरक्ति की स्थिति में जी रही थी.

ऐसी हालत में लड़की की विशेष देखरेख होनी चाहिए थी पर चकोरी अपनी नौकरी व सामाजिक कार्यों में मस्त रहने लगी. क्लब व अन्य आयोजनों में उसे गायन के लिए बुलाया जाता था सो उसने गुड़िया के मनोविकारों की कोई परवाह नहीं की. दुष्परिणाम यह हुआ कि १२ साल की इस लड़की ने कुंठित होकर सल्फास की गोलियाँ खाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली.

चकोरी के लिए यह बहुत बड़ा धक्का था. वह पागल सी हो गयी बार बार लोगों से कहा करती है, "मैं निरुद्देश्य जीकर क्या करूंगी? सब खतम हो गया है. मैं किसके लिए जी रही हूँ?...”
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