हिमालय की गोद में
बसा हुआ हमारा छोटा सा उत्तराखंड राज्य अनेक प्राकृतिक संपदाओं से हरा भरा रहा है. इसी को देवभूमि नाम भी दिया गया है. राज्य के दो मुख्य संभाग हैं; पश्चिम की तरफ
गढ़वाल व पूर्वीय संभाग कुमाऊँ है. दोनों संभागों में हिन्दी की अपभ्रंश बोलियों
में थोड़ा सा अंतर भी है, परन्तु सामाजिक व वैचारिक धरातल पर अनेक साम्यतायें हैं. गढ़वाल के दूर-दराज पहाड़ी गांवों की वर्तमान स्थिति भी लगभग वैसी ही होनी चाहिए जैसी
हमारी कुमाऊँ क्षेत्र में है.
पिछले 50-60 वर्षों से रोजगार व आधुनिक सुख-सुविधाओं की तलाश में गावों के समर्थ लोग बड़ी संख्या में
तराई/भाबर (मैदानी क्षेत्र) की तरफ बसने लगे थे. नौकरी-पेशा लोग बड़े शहरों की
रोशनी में गुम होते चले गए. सरकारों ने अनेक लोकलुभावन घोषणाएँ या कार्यक्रम पलायन
रोकने के जरूर किये हैं, पर हवा ऐसी चली कि आज गावों में केवल बूढ़े और अशक्त लोग
बचे हैं, क्योंकि वे असमर्थ हैं. प्रेस की रिपोर्टों के अनुसार हमारे ये हजारों
गाँव जो कभी स्वावलंबी हुआ करते थे, गुलजार थे, अब खंडहरों में तब्दील हो गए हैं.
नौकरी-पेशा लोग कोटद्वार, हल्द्वानी, रामनगर, टनकपुर का रुख किया करते हैं, या कहीं रोड
साइड पर बसने की जुगत करते हैं. इसी तुफैल में बागेश्वर जैसे शहर के चारों तरफ की
कृषि वाली सेरे की पूरी जमीन मकानों की भेंट चढ़ चुकी है.
अब बचे-खुचे गावों
में भी लोगों ने खेती करना छोड़ दिया है. उसके पीछे कारण ये बताये जाते हैं कि
बंदरों, बाघों, व सूअरों का आतंक इतना बढ़ गया है कि खेती करना दुष्कर हो गया है. हाली-ग्वाल अब पहाड़ों में उपलब्ध नहीं है. सरकार सस्ते में अनाज दे रही है
(अधिसंख्य लोग बी.पी.एल. कैटेगरी में हैं). फिर खेती की हाड़तोड़ मेहनत की जहमत
क्यों की जाए? लोग अब गाय-भैस भी नहीं पालते हैं. पैकेट का दूध आसपास दूकानों में मिल
जाता है.
कुल मिलाकर हालात
ये हैं कि ये दूर दराज के गाँव अब बंजर हो गए हैं. हाँ, यहाँ से पलायन किये हुए
बुजुर्ग लोग अपने पुराने दिनों को अवश्य याद किया करते हैं. यद्यपि उनके अपने
अंधविश्वास आज भी ज़िंदा हैं. वे अपने गाँव से अपने देवी देवताओं के प्रारूप प्रस्तर
साथ में लेकर आये हैं और नई बसावट में घन्याली-जागर कराते रहते हैं.
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