मैं सर्वप्रथम उन
आदिम मानवों को नमन करना चाहता हूँ जिन्होंने इस धरती पर पाषाण युग के बाद
(इतिहासकारों के अनुसार ताम्र युग में) ह्वील या पहिये की परिकल्पना की होगी और
उसका आविष्कार किया. आज के वैज्ञानिक युग के यांत्रिक चमत्कारों से बहुत पहले ही
ह्वील मानव सभ्यता के लिए वरदान बन गया था, जिसके प्रमाण पौराणिक काल के रथ वाहनों
के पहियों के रूप में वर्णित हैं. विश्व के अन्य भागों में जहां भी मानव सभ्यताएं
विकसित हुए, वहाँ पहिये की परिकल्पनाएं मौजूद मिली हैं. इस बात की पुष्टि लुप्त हुई माया
सभ्यता के भग्नावशेषों की भित्ति चित्रों तथा मैसोपोटामिया के अवशेषों से होती है.
आज की बात की जाए
तो बच्चों के सबसे छोटे लकड़ी के खिलौने लट्टू यानि ‘टाप’ से लेकर ट्राईसिकल, साईकिल, मोटर
बाईक, मोटर कार, रेलगाड़ी, हवाई जहाज तक, तथा घड़ी के अन्दर के पुर्जे से लेकर बिजली के पंखे, टर्बाइन व बड़ी बड़ी मशीनों तक सभी कलपुर्जे ह्वील के आविष्कार के फलस्वरूप
ही हैं, और ये सभी हमारे जीवन के आधार बने हुए हैं, और हमारी कार्यप्रणालियों
में सहायक हैं. जैसे कि आवागन के लिए वाहनों में ह्वील ही आधार होता है, ह्वील युक्त चेयर, बीमारों, बूढ़ों, विशेषकर अपन्गों के लिए वरदान है; हवाई
यात्राओं के समय सभी एयरपोर्ट्स पर फ्री उपलब्ध की जाती हैं. विकसित देशों में ज्यादातर टूरिस्ट जगहों पर भी व्हीलचेयर का प्रावधान होता है, और लगभग सभी बिल्डिंग्स व्हीलचेयर एक्सेसिबल होती हैं.
इस बार २६ जनवरी को डलास (टैक्सास- अमेरिका) से
नई दिल्ली लौटते समय व्हीलचेयर से सम्बंधित कुछ विशिष्ठ अनुभव हुए, जिनका मैं यहाँ वर्णन करना चाहता हूँ.
यों तो अच्छे भले-चंगे बुजुर्ग लोग भी अपने हवाई टिकटों के साथ ही ह्वीलचेयर की
मांग रख देते हैं, और हवाई कम्पनियां अपने ऐसे सभी यात्रियों का सम्मान करते हुए
बिना कुछ इन्क्वारी के ही उनको यह सुविधा प्रदान करती हैं. सभी बड़े एयरपोर्ट्स पर दूर
देशों को जाने वाले जहाजों के एंट्री गेट्स दूर दूर होते हैं, जहां पर यात्रियों को इस
व्यवस्था का बड़ा लाभ मिला करता है, क्योंकि ह्वीलचेयर का पोर्टर गाइड का भी काम
करता है. ह्वीलचेयर पर बैठे यात्रियों व उनके साथ चल रहे साथियों को हर चेक
पॉइंट्स पर प्राथमिकता से गेट पास भी मिलता रहता है.
मेरी अर्धांगिनी जिसके
कि आर्थो आर्थ्राइटिस से पीड़ित घुटने चार वर्ष पूर्व रिप्लेस (मैटलिक) किये गए हैं, अब अच्छा चल फिर लेती है, पर उम्र में डायमंड जुबली के करीब होने की वजह से ऐसी
यात्राओं में ह्वीलचेयर की आवश्यकता रहती है. डलास एयरपोर्ट पर लगेज बुक कराने
के बाद उनको ह्वीलचेयर पर बिठा दिया गया था और सेक्युरिटी चेकिंग होने के बाद
पोर्टर हमको हमारे जर्मन एयरवेज लुफ्थांसा के वेटिंग लाउन्ज पर बिठाकर चला गया
क्योंकि उड़ान में तब बहुत समय बाकी था. धीरे धीरे पूरा वेटिंग परिसर भर गया. एंट्री का समय नजदीक आने पर बड़ी लाइन लग गयी. तभी एक सुन्दर जवान महिला ने मेरी
श्रीमती की साडी-बिंदी वाली भारतीय कास्ट्यूम देखकर मुस्कराहट के साथ बेलाग हिन्दी
में बोला, “आप लोग ह्वीलचेयर पर आ जाओ वरना आपको भीड़ में लाइन से गुजरना पड़ेगा.”
हमें उसकी यह सलाह बड़ी प्यारी लगी. वह खुद एक ह्वीलचेयर पोर्टर का काम करने वाली
कार्यकर्त्री थी. मेरी श्रीमती को ह्वीलचेयर पर बिठाकर गेट के करीब ह्वीलचेयर
वालों की कतार में लगा दिया और बिलकुल अपनेपन के साथ बतियाने लगी. उसने बताया कि
वह काठमांडू, नेपाल की रहने वाली है. उसके पति भी वहीं किसी कंपनी का मुलाजिम था. पांच वर्ष पहले वे यहाँ आ गये थे. वह फर्राटे से लोकल इंग्लिश में अन्य पोर्टरों से
बातें भी कर रही थी. हमसे भी उसने वहां आने का कारण तथा तमाम पारिवारिक जानकारियाँ
पूछ डाली. उसने कहा कि उसे वतन नेपाल की बहुत याद आती है. लगभग १४,००० किलो मीटर
दूर अपने माता-पिता व भाई बहन से मिलने का बहुत मन करता है. मुझे लग रहा था कि वह
बहुत ‘होम सिक’ थी. जेट प्लेन के दरवाजे तक उसने ह्वीलचेयर चलाई और विदाई देते
समय रूंधे गले से ‘नमस्ते’ बोल गयी.
जर्मनी के
फ्रेंकफर्ट में हमें प्लेन बदलना था, जहां करीब चार घंटों का विश्राम होना था. यहाँ भी ह्वीलचेयर लेकर एक जर्मन महिला हमारी प्रतीक्षा में थी, जिसने हमको एक ऐसे
कैम्पस में लेजाकर बिठाया, जहां पर सभी ह्वीलचेयर वाले अपने अपने देशों को जाने के
इंतज़ार में आराम कर रहे थे. वहाँ पर चाय-कॉफ़ी की मशीन भी लगी थी, जिससे एक श्वेत दाढ़ी वाले मुस्लिम सज्जन चाय निकाल रहे थे. मैंने उनसे पेमेंट के बारे में जानकारी
चाही तो उन्होंने कहा कि "यह चाय फ्री है.” मैं बाद में जब चाय लेने मशीन पर गया तो
दो नकाब वाली मुस्लिम महिलायें भी चाय लेने आ गयी. मुझे लग रहा था की वे दोनों शायद
सास बहू थी. मुझे मशीन से चाय निकालने में कुछ दिक्कत देखकर बहू ने मुझे सही
तरीका बताया और मेरी चाय में डबल दूध व शक्कर डाल कर अपनापन घोल दिया. मैंने उनसे
पूछा, “क्या आप लोग पाकिस्तान से हैं?” उसने कहा, “नहीं, हम फिजी से हैं.” फिजी नाम
सुनकर मुझे ब्रिटिश राज के गुर्मिटिया मजदूरों का इतिहास याद आया कि किस प्रकार
गन्ने के खेतों में काम कराने के लिए गरीब हिन्दू व मुस्लिम मजदूर वहाँ ले जाए गए
थे, जो फिर वहीं के होकर रह गए. ये उन्ही के वंशज थे, जो आज भी वहाँ बिना किसी
साम्प्रदायिक भेदभाव के सौहार्द्य पूर्वक रह रहे हैं; जबकि अपने देश भारत में सत्ता
प्राप्ति के लिए राजनैतिक लोग आज भी दंगे कवाते रहते हैं, और असहिष्णुता का जहर इस कदर फैला रहे हैं कि इतिहास में कई नए काले
अध्याय जुड़ते चले जा रहे हैं.
कुछ ही देर बाद
उनका बुलावा आ गया और वे चले गए जाते जाते सास और बहू दोनों ने कनखियों से हमें
देख कर मुस्कुराते हुए हाथ हिलाकर अभिवादन किया. पता नहीं क्यों हमें ऐसा लग रहा
था की कोई ‘अपने ही’ हमसे बिछुड़ कर जा रहे हैं.
बाद में जब हमको
अपने रवानगी गेट के लाउंज में पहुंचाया गया तो देखा कि पूरा लाउंज खचाखच भरा था. यूरोप व पश्चिमी गोलार्ध से भारत आने वाले लोग फ्लाईट की इंतजारी में थे. जब
एंट्री के लिए मात्र १५ मिनट बचे थे तो एक अप्रत्याशित घटना घट गयी कि एक ३०-३५
वर्षीय व्यक्ति को इपिलेप्सी (मिर्गी) का दौरा पड़ गया. वह धड़ाम से फर्श पर आ गिरा
और छटपटाने लगा. उसका बैग खुला हुआ था, जिसमें से लैपटाप आदि सामान बिखर गया. आसपास के लोग सहायता के लिए लपक पड़े. एक
सिख सज्जन ने उसके मुंह में डालने के लिए अपनी पानी की बोतल खोल डाली तो मैंने
उनको इसके लिए मना किया कि मिर्गी के दौरे के समय पानी देना ठीक नहीं होता है. पानी श्वास नली में जा सकता है. एक अन्य व्यक्ति ने कहा कि उसे जूता सुंघाओ.
मैंने उनको भी इसके लिए मना किया क्योकि यह पारंपरिक सोच सही नहीं है. मात्र दो
मिनटों में ही उसे चेत आ गया वह लज्जित सा होकर मुस्कुरा दिया, बोला “मैं आज दवा
खाना भूल गया था.” इस बीच एयरपोर्ट का स्टाफ भी आ गया; मेडीकल असिस्टेंट की बात
करने लगे पर उसने मना कर दिया, और अपने बैग में से ही दवा ले ली. मैंने उसको कहा कि
मिर्गी वाले मरीजों को अकेले सफ़र नहीं करना चाहिए तो उसने बेबसी के साथ बताया की
इस बीमारी की वजह से उसकी पत्नी ने उससे डिवोर्स ले लिया है. उसका यह ह्रदय विदारक दुःख सुनकर हम सभी अफसोस करते हुए मौन रह
गए. एयरपोर्ट स्टाफ उसे तुरंत ह्वीलचेयर में बिठाकर सबसे पहले बोर्डिंग के लिए
ले गए.
फ्रेंकफर्ट में उस
दिन (जनवरी २७, २०१८) बहुत कोहरा छाया था सात घंटों की इस दूसरी उड़ान के दौरान सीट
के आगे स्क्रीन पर एक अंगरेजी फिल्म देखने को मिली, जो ब्रिटेन की पूर्व महारानी
स्वर्गीय विक्टोरिया और उनके खानसामा
अब्दुल करीम की प्रेमगाथा थी. यद्यपि मुझे पूर्व में इस सन्दर्भ में कुछ सुनी
सुनाई जानकारी थी, पर फिल्म में बहुत खूबसूरती से उस प्रेमलीला को दिखाया गया है.
ब्रिटिश राज के लोगों ने राजवंश को बदनामी से बचाने के लिए महारानी की मृत्यु के
बाद अब्दुल करीम की उपस्थिति में ही सारे प्रेमपत्र जला डाले; इस प्रकार एक दुखद
अंत भी था.
जब हमारा प्लेन रात २ बजे नई दिल्ली के इंदिरागांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पहुंचा तो यहाँ पर और भी घना कोहरा और ठण्ड का प्रकोप था. ह्वीलचेयर पर मेरी श्रीमती को बिठाकर पोर्टर ने हमको जल्दी ही ग्रीन चेनल से बाहर निकालने में फुर्ती दिखाई. लगेज के बाहर आने में जरूर आधा घंटा लगा. बाहर गेट नंबर चार पर हमारा पुत्र चि. प्रद्युम्न अपनी गाड़ी पार्किंग में खड़ी करके बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था. ह्वीलचेयर नजदीक देखकर वह हमें लेने आगे बढ़ा और प्रणाम करके पोर्टर से ह्वीलचेयर लेकर अपनी माँ से बतियाते हुए तेजी से पार्किंग की तरफ ले चला. बेहद ठंड व कोहरे के बीच हमारा यह मिलन भी आनंददायक था. ह्वीलचेयर आगे आगे थी और मैं लगेज ट्राली लेकर पीछे पीछे असीम लेखकीय विचारों को समेटता हुआ चल रहा था.
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