गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

जातिगत आरक्षण

हमारा हिन्दू समाज वर्ण व्यवस्था की विकृति के कारण अनेक जातियों में बंट गया. ऊंच-नीच, छुआछूत व आर्थिक विषमताओं का शिकार हो गया. अनेक समाज सुधारकों ने समय समय पर इस गंभीर समस्या पर चिंता करते हुए सही दिशा देने की कोशिशें भी की, लेकिन इसकी जड़ें इतनी गहरी थी कि धर्म और आस्थाओं के नाम पर समर्थ लोग निचली जातियों के लोगों पर अत्याचार व शोषण करना अपना अधिकार समझते थे.

मध्यकाल में इस्लाम धर्म के भारत में आगमन पर जातिगत संकल्पनाओं में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, बल्कि कई धर्मान्तरित मुसलमानों में भी पूर्व समाज की जाति व्यवस्था यथावत बनी रही. जबकि इस्लाम में ऐसा होना कतई मान्य नहीं है. कमोवेश विदेशी आक्रमणकारियों ने भारतीय समाज की इस कमजोरी का भरपूर फ़ायदा उठाया. पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध तक संचार साधनों की कमी की वजह से कोई एकमुश्त बड़ा वैचारिक आन्दोलन भी नहीं उभर सका. आजादी की लड़ाई में देश के रहनुमाओं ने इसकी अहमियत पर ध्यान दिया. महात्मा गाँधी की अगुवाई में छुआछूत व पिछडों की दुर्दशा वाले मामलों में ये विषय आन्दोलन के रूप में उभरा जिसका परिणाम बाबा साहेब अम्बेडकर की अध्यक्षता में बना हमारा वर्तमान संविधान है, जिसमें इस सामाजिक बुराई को दंडात्मक अपराध करार दिया गया है. इसके अलावा दलितों-पिछडों को ऊपर उठाने के लिए अनेक विशिष्ठ सुविधाओं का भी प्रावधान किया गया.

साठ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या वाले इस वर्ग को उन्नत वर्ग के समकक्ष लाने के लिए प्रारम्भ में दस वर्षों के लिए सभी सरकारी क्षेत्रों में आरक्षण दिया गया, जो बाद में आगे बढ़ाया गया और आज ये असीमित सा हो गया है. आरक्षित वर्ग को न्यूनाधिक शिक्षा, रोजगार व सभी सामाजिक संस्थाओं में आर्थिक सहूलियतों के अलावा आगे बढ़ाने के खुले अवसर प्राप्य हैं, जिनका लाभ जागरूक लोगों ने भरपूर लिया भी है, पर जहाँ अज्ञानता की वजह से ये पूरी रौशनी नहीं हो पाई है, वहाँ आज भी स्थिति दयनीय है.

आरक्षित जातियों के लोगों को मिलने वाले अपेक्षित या अनपेक्षित लाभों को देखकर सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को ईर्ष्या होती है. इसलिए समय समय पर आरक्षण समाप्त करने की आवाजें उठती रहती हैं. ये भी सच है कि आरक्षित वर्ग में बहुत से लोग आर्थिक रूप से संपन्न व समृद्ध हैं, जो उसी वर्ग के गैर जागरूक, अशिक्षित लोगों के हिस्से को भी पचा ले रहे हैं. ये क्रीमी लेयर वोटों की राजनीति वाले लोकतंत्री व्यवस्था में हावी है. इसलिए आरक्षण का मुद्दा बर्रे का बड़ा छत्ता बन गया है, जिसे कोई नेता नहीं छेड़ना चाहेगा.

इंडियन नेशनल कॉग्रेस के एक वरिष्ट नेता श्री जनार्दन द्विवेदी ने अभी लोकसभा के चुनावों के ठीक पहले जाने अनजाने में इस आरक्षण के जिन्न को यह कहकर हवा दी है कि 'आरक्षण जातिगत आधार पर नहीं होना चाहिए, वरन आर्थिक आधार पर होना चाहिए. इस पर सुश्री मायावती (जिनको दलित की बेटी होने का गौरव प्राप्त है और इसे भुनाती भी रहती हैं) ने इस वक्तव्य को घोर दलित विरोधी बताते हुए कॉग्रेस को खूब कोसा है. उन्होंने इस बयान के पहले भाग को राजनैतिक अस्त्र के रूप में चलाया है. वाक्य के दूसरे भाग, आर्थिक आधार, को जैसे उन्होंने सुना ही नहीं. संसद में अजीत जोगी व पूनिया जी जैसे वरिष्ठ सांसद द्विवेदी जी के बयान पर उबल पड़े. संसद के बाहर भी अनेक माननीय अपने दांत पीस रहे हैं. कॉग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी को तुरन्त अपनी पार्टी के बचाव में आना पड़ा. द्विवेदी के व्यक्तव्य को अपनी पार्टी की विचारधारा के विरुद्ध बताते हुए अपने को अलग कर लिया और यहाँ तक कह डाला कि आरक्षण उनकी पार्टी की विचारधारा की उपज है. तमाम सक्रिय राजनैतिक नेता और दल इस मामले में मौन धारण किये हुए हैं क्योंकि सबकी नजर दलित वर्ग के वोटों पर लगी है.

मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य से विरक्त लेखक ये सोचने को मजबूर है कि क्या द्विवेदी जी ने कोई गलत बात कही है? इस विषय में अनेक स्वार्थपरक तर्क दिये जा सकते हैं, पर समय आ गया है कि आरक्षण वास्तव में जातिगत ना होकर आर्थिक आधार पर ही होना चाहिए.  प्रबुद्ध लोगों को इस विषय में सभी मंचों पर दमदार शब्दों में आवाज उठानी चाहिए.

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3 टिप्‍पणियां:

  1. सुरेन्‍द्र द्विवेदी नहीं मेरे खयाल से जनार्दन द्विवेदी होना चाहिए। उन्‍होंने सही बात उठाई पर सब उनके विरोध में उतर आए हैं।

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    1. धन्यवाद बडोला जी. मैंने आलेख में सुधार कर दिया है.

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  2. न्याय को इतिहास से अधमरा किया जाता रहा है, न्याय तो फिर भी अनुपस्थित ही है।

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