आजाद देश के आजाद
कलमकार लोग कोई भी,कहीं भी, किसी भी मुद्दे पर मीन मेख निकालते रहते हैं; अब उत्तर
प्रदेश की नई योगी सरकार के कृषक-ऋण माफी के मामले को ही लीजिये आलोचक कह रहे हैं
कि “ये वोटों पर डाका डालने का एक जुमला था जो ‘हाथी की पाद’ साबित हुई है.”
क्योंकि इसके साथ जो शर्तें बताई गयी हैं वे उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं करती हैं
जिसमें अन्नदाता किसान को वास्तविक राहत मिले.
किसानों ने कर्जा जिन
उद्देश्यों से भी लिया उनमें गाय, बैल, भैस या बकरी खरीद के लिया होगा वे सब कृषि कार्यों
के सहयोगी आचार से बाहर नहीं थे. स्वजनों के दुःख-बीमारी या बच्चों की पढाई अथवा
मकान बनवाने में लिया गया कर्ज पारिवारिक जीवन के लिए अतिशय जरूरी होता है. सहकारी
बैंकों या सूचीबद्ध बैंकों की ऋण वितरण की प्रक्रिया में जो अल्पशिक्षित /अनपढ़ काश्तकार पारंगत ना हो और दलालों/कमीशनखोरों के चंगुल से मुक्त ना हो, तो मजबूरन सूदखोर
शाहुकारों की शरण में आ पड़ता है, और सरलता से जमीन या जेवर गिरवी रख कर धन पा लेता
है, लेकिन मूल से ज्यादा ब्याज चुकाने में जिन्दगी बिता देता है. बहरहाल, मुद्दा कुलमीजान
‘कर्जे’ का है. जिसके कारण वह त्रस्त रहता है. आत्महत्या कोई भी खुशी से नहीं करता
है. राजनैतिक दल चुनाव जीतने के लिए गरीब की दुखती नस पर अंगुली रखते हैं. यह देश
का दुर्भाग्य है.
ये और भी बुरी
परम्परा बनती जा रही है कि चुनावों के समय पार्टियां वोटरों को लुभाने के लिए साड़ियाँ,
मोबाईल, लैपटॉप, घी+शक्कर, साइकिल आदि वस्तुएँ बाँटती हैं, या चुनाव के बाद ये सब देने का
सच्चा या झूठा वायदा करती हैं. इस बार देश के कर्णधार, सबसे बड़े नेता नरेंद्र मोदी
जी, ने अपनी रैलियों में खुले आम वायदा किया था कि “किसानों के कर्जे माफ़ करूंगा." अब
जब प्रचंड बहुमत मिल गया है तो इस वायदे को पूरा करने के बजाय इसमें शर्तें लगाकर
गलियां निकाल दी गयी हैं.
ऋण का जो अल्पांश
माफ़ हो रहा है, उसे सही दिशा में एक कदम की संज्ञा दी जा सकती है, पर वायदे की
ईमानदारी नहीं कहा जा सकता है. जहां तक धनराशि के आंकड़े हैं, ये बड़े जरूर लग रहे हैं, लेकिन इसी केन्द्रीय सरकार ने पड़ोसी मुल्क नेपाल व बांगला देश को कई गुना धन दिल
खोलकर मदद के रूप में दिया है, इसके अलावा तैमूरलंग के देश मंगोलिया जाकर अरबों
रूपये देकर वाहवाही लूटी है.
ऐसे में सारे किसान
खुद को ठगा सा महसूस करेंगे और कर्ज माफी का मामला उन राज्यों में भी शर्तों के
साथ उठेगा, जिनमें काश्तकारों की हालत उत्तर प्रदेश से बेहतर नहीं है.
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दूसरों के व्यक्तित्व के विषय में अपनी राय प्रदर्शित करना मनुष्य का सहज स्वभाव है और शासन व्यवस्था के सन्दर्भ में यह असाधारण नहीं है आपके तर्क पूर्णतया उचित है लेकिन यह कटु सत्य है कि कोई भी सरकार अपने नागरिकों की ह्रदय से भलाई नहीं चाहती है क्योंकि पद प्राप्त करते ही सबको अपने-अपने स्वार्थ दीखने लगते हैं और इनमे परमार्थ कहीं पीछे छूट जाता है ढूँढने पर लोगों की भलाई करने वाला एक सच्चा इंसान तो मिल सकता है लेकिन एक सच्ची सरकार नहीं
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