स्वर्गीय केशवचंद्र नैठानी बहुत बड़े दिल वाले व्यक्ति थे. ना जाने उन्होंने कितने लोगों की मदद की और अहसान किये, पर किसी को कभी बताया नहीं. वे कहा करते थे, “अगर किसी को कोई आर्थिक मदद दांये हाथ से दी जाये तो बाएं हाथ को मालूम नहीं पड़ना चाहिए.” मैं स्वयं भी उनके अहसानमंदों में से एक हूँ. वे देहरादून के एफ.आर.आई (फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट) में एडमिनिस्ट्रेटिव विंग में बड़े बाबू थे. उन्होंने अपने कई रिश्तेदारों को ही नहीं, गैरों को भी रास्ता बता कर वन विभाग में प्रविष्टि दिलवाई.
नैठानी जी के पहली पत्नी से दो बेटे थे, बड़ा प्रकाश व छोटा विष्णु. तब उनकी बड़ी सुखी गृहस्थी थी. परन्तु जब उनके दोनों बेटे कॉलेज में ही पढ़ रहे थे, तभी उनकी श्रीमती की अल्पकालिक बीमारी से अकाल मृत्यु हो गयी. बाहर वाले, मित्रगण, सब हमदर्दी बताकर रह जाते हैं, लेकिन ४२ साल के विधुर को मानसिक व व्यवहारिक स्तर पर कितनी कठिनाइयां झेलनी होती हैं, यह वही समझ सकता है, जो भुक्तभोगी हो. उम्र के इस पड़ाव पर जब सुन्दर सुगढ़ स्त्री मझधार में छोड गयी तो परिवार को सँभालने की दृष्टि से उनके मन में आया कि जल्दी प्रकाश की शादी कर दी जाये ताकि गाड़ी पटरी पर चलती रहे. उस समय प्रकाश बी.एससी. का छात्र था. उसके लिए उन्होंने कन्या की खोज शुरू कर दी.
केशवचंद्र स्वयं बहुत खूबसूरत, गोरे-चिट्टे व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे. जब अपने एक निकट सहयोगी के साथ लड़की देखने सहारनपुर के ध्यानी परिवार में गए तो उनसे मिलकर घर के लोग इतने प्रभावित हुए कि लड़की के बाप ने कह डाला, “हम तो अपनी बेटी का व्याह आपके साथ करना चाहते है, बेटे की शादी आप बाद में करते रहना.”
बात गंभीरता से कही गयी थी, नैठानी जी असमंजस में पड़ गए. बाद में मित्रों व संगी साथियों ने उनको इस बारे में प्रोत्साहित किया. इस तरह बेटे के लिए नहीं, अपने लिए एक उन्नीस वर्षीय सुन्दर लड़की ब्याह लाये. इस पर कुछ लोगों ने मजाक भी बनाया, चटखारे भी लिए, पर लोगों का क्या है, कहते रहते हैं.
नैठानी जी बल्लूपुर चौराहे के पास अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे. नई दुल्हन ने आते ही अपना कारोबार संभाल लिया. जो चले जाते हैं, उनकी जगह कोई यथावत भर नहीं सकता है, लेकिन यही दुनिया की रीति है.
कालान्तर में उन्होंने प्रकाश व विष्णु दोनों के विवाह भी कराये. वे दोनों इंडियन फोरेस्ट सर्विस में भी आ गए. मैं, विष्णु नैठानी का दोस्त व क्लासमेट था, लेकिन मेरी घनिष्ठता प्रकाश दा से खूब रही. प्रकाश दा मेरी तरह ही साहित्य में भी रूचि रखते थे. 'जंगली' उपनाम से बहुत सी बढ़िया कवितायेँ लिखा करते थे. हम एक दूसरे की रचनाओं का खूब आनन्द लिया करते थे. चूंकि मेरा भी चयन आई.एफ.एस में हो गया था, बाद में कुछ संयोग ऐसे बने कि जब प्रकाश नैठानी उर्फ ‘जंगली’ दा अल्मोड़ा के डी.एफ.ओ. बने तो मैं उनके अधीन ए.सी.एफ (सॉइल कन्जर्वेशन) के पद पर कुछ साल रहा.
उधर केशवचंद्र जी जिनको हम सब ‘बाबू जी’ कहा करते थे, हर दो साल में एक बेटा पैदा करते हुए ६ और भी बेटों के बाप बन गए थे. उनके रिटायरमेंट तक बच्चे स्कूल कॉलेज तक ही पहुँच पाए थे अत: आगे उनके कैरियर की पूरी जिम्मेदारी जंगली दा ही निभाते रहे. वन विभाग की अन्तरप्रान्तीय नौकरी के रहते, मैं काफी समय तक इस परिवार से दूर हो गया था. कुछ सालों बाद बाबूजी की मृत्यु का समाचार मुझे देर से मिल पाया तो मैंने शोक संवेदना भी भिजवाई थी.
समय किस तरह आगे बढ़ता जाता है. यह पता ही नहीं चलता है कि समय भाग रहा है या हम भाग रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे रेल-गाड़ी के अन्दर से हमको पेड़-पौधे व धरती पीछे को भागते महसूस होते है.
प्रकाश नैठानी जब बिहार के चायवासा में कंजरवेटर थे, तभी उन्होंने देहरादून के पौस इलाके बसन्त विहार में एक शानदार घर बनवाया. दुर्भाग्य यह रहा कि उनके रिटायरमेंट के चंद साल पहले उनके साथ एक दर्दनाक हादसा हो गया कि उनका इकलौता बेटा अपने दोस्तों के साथ किसी बरसाती तालाव में नहाने गया था, जहाँ वह डूब गया. पुत्रशोक ने जंगली दा को अन्दर तक आहत कर दिया, वह हर वक्त शराब में डूबे रहने लगे. इसी हालत में जब वे रिटायर हुए तो हम सभी शुभचिंतकों ने उनको अनेक प्रकार से सान्त्वनाएं दी. उनकी श्रीमती यानि प्रभा भाभी का तो बहुत बुरा हाल था. यहाँ आकर आदमी ईश्वर की माया या प्रकृति के सामने लाचार हो जाता है.
उनके सभी छोटे भाई अपनी अपनी योग्यतानुसार नौकरियों में लग गए तथा अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए. इस सँसार का ऐसा ही दस्तूर होता है. कभी कभी जरूर बड़े भाई को याद करते होंगे. मैं भी कभी साल दो साल में किसी कार्यवश देहरादून जाता था तो उनसे मिले बिना नहीं लौटता था.
दो साल पहले जब मैं जंगली दा से मिला तो वे बहुत दार्शनिक अंदाज में बातें करने लगे थे. उनकी उम्र भी लगभग ७८ वर्ष हो गयी थी. शरीर जरूर उनका साथ नहीं दे रहा था, अनेक तरह की व्याधियों ने आ घेरा था. आर्थिक परेशानियां नहीं थी, उन्होंने खूब रूपये कमाए थे, सरकार के कई विभाग हैं ही ऐसे कि कोई ईमानदार रहना चाहे तो बड़ा मुश्किल होता है. अब तो पेंशन भी अच्छी खासी मिल रही थी. उन्होंने एक ड्राईवर-कम-कुक रखा था, जो सपरिवार उनकी सेवा में तैनात रहता था. पैदल चलने में अब जोर आने लगा था इसलिए वे उससे बोले, “चलो आज हमको एफ.आर.आई. परिसर में घुमा लाओ”
परिसर के अन्दर जाते ही बहुत सी पुरानी यादें ताजी हो गयी. हरे-भरे दूब के मैदान, बड़े बड़े छायादार पेड़, सौ वर्ष पुरानी शानदार मुख्य बिल्डिंग, हॉस्टल, लाइब्रेरी, मेस सब जैसे था, लगभग आज भी वैसा ही है. जंगली दा बोले, "कल हम लोग इस कैम्पस को अपना कहते थे. अब सब नए लोग आ गए हैं, अनेक वनकी सम्बन्धी नए विषय भी पढाए जाते हैं. यह अब डीम्ड यूनिवर्सिटी बन गयी है. कैम्पस के अन्दर के मार्गों का नाम आज भी पुराने समय के अंग्रेज अफसरों के नाम पर ही चल रहे हैं. यों घुमते हुए उन्होंने अनेक पुरानी यादों को, बाबूजी की बातों का जिक्र बड़े निराशा भरे अंदाज में किया. वे बोले, “पता नहीं अब और कितने दिन ज़िंदा रहना है!”
वे अपने हार्ट एंजाइना, डाईबिटीज, आँखों के मोतियाबिंद का बार बार जिक्र तो करते थे, पर ईलाज के बारे में कोताही बरतते रहे. दरअसल जीवन के प्रति उनका नजरिया बिलकुल नकारात्मक हो गया था. मैं भारी मन से अपने गृह नगर नैनीताल लौट आया. रास्ते भर जंगली दा की बातें सिनेमा की रील की तरह मेरे मन- मस्तिष्क में घूमती रही.
इस बात को एक साल गुजर गया. इस बीच मैं कोई संपर्क भी नहीं कर पाया. मेरी अपनी भी उम्र अब जीवन के चौथे पायदान पर पहुँच चुकी है, आँखों-कानों से मुझे भी लाचारी सी महसूस होने लग गयी है. मन हुआ कि एक बार फिर से जंगली दा से मिल आऊँ. क्या पता फिर देहरादून जाना हो या न हो?
उनके बंगले के बाहर सड़क पर जब मेरी गाड़ी रुकी तो दूर से ही उनकी छत पर सफ़ेद मरदाना पायजामा व शर्ट सूखते दिखे. मैंने मन ही मन सोचा ‘चलो जंगली दा अभी मौजूद हैं’. घंटी बजाई तो उनके नौकर ने दरवाजा खोला. मैं सीधे बैठक में पहुंच गया. प्रभा भाभी उसी पुराने अंदाज में बैठी हुई पान चबा रही थी, पर माथे पर उनकी हमेशा सजी रहने वाली बड़ी बड़ी बिंदी गायब थी. उनकी बगल में एक दुबली-पतली ६०+ उम्र की महिला भी बैठी हुई थी. मैंने दोनों को नमस्कार किया पूछ लिया, “प्रकाश दा कैसे हैं?” वह उत्तर में रूआंसे स्वर में बोली, “अरे भैया, तुमको खबर नहीं कर पाए, वे पिछले १८ अगस्त को हमें छोड़ कर चले गए हैं.”
बड़ा सदमा लगा, मैंने कहा, “छत के ऊपर मर्दाने कपड़े देख कर मुझे लगा कि भाई साहब अभी मौजूद हैं.” वह बोली, "कपड़े मेरे छोटे देवर के होंगे.” फिर साथ में बैठी महिला का परिचय कराते हुए बोली, “ये मेरी सास हैं.” मुझे बाबू जी के जीवन का घटनाक्रम याद आ गया. उनके सम्बन्ध में पुरानी बातों का जिक्र हुआ. प्रकाश दा होते तो और भी बातें होती. भाभी जी ने बताया कि बाबू जी की ही तरह प्रकाश दा भी बहुत से जरूरतमंदों को गुप्त दान दिया करते थे. विशेषकर विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता देते थे. मृत्यु से पहले बहुत सा रुपया नेत्रहीन व मूक-बधिर संस्थानों को देकर गए.
मैं सोचता हूँ कि जंगली दा की उपलब्ध कविताओं को पुस्तकाकार रूप में छपवाऊँ, इन कविताओं में रोमांस है, प्यार है, श्रृंगार है, चाहत है और जीने की तमन्ना है, दुनियाँ उनको इसी रूप में याद करती रहे उनके प्रति मेरी यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
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