गुरुवार, 31 जनवरी 2013

सातवां जन्म

पति मोहनलाल शर्मा के स्वर्ग सिधारने के बाद उनकी पत्नी सुखदेई बिलकुल अकेली हो गयी थी क्योंकि दोनों  बेटियाँ पहले ही विवाहित होकर अपने अपने ससुराल चली गयी थी और कोई नाते रिश्तेदार नजदीक में था नहीं, जो आकर उनको संभालता. देवर व उनके बच्चों से पहले उनको उम्मीद रही कि बुढ़ापा उनके साथ ही कटेगा, पर अब उनकी अपनी अलग गृहस्थी थी. जायदाद सम्बन्धी कुछ मनमुटाव होने के कारण उनकी देखभाल रस्मी रह गयी.

जब तक हाथ पैर ठीक से चल रहे थे सुखदेई ने परवाह भी नहीं की, पर अब उम्र के आख़िरी पड़ाव पर जब डाईबिटीज से ग्रस्त शरीर को संधिवात ने जकड़ लिया तो मजबूरन अपनी छोटी बेटी छम्मो के दर पर आ गयी है. यहाँ बेटी, नाती-नातिनें सभी उनके स्नेहभाजन हैं. इसलिए इनके साथ रहने पर उनको अहसास हो रहा है कि औलाद का सुख क्या होता है? बुढ़ापे में सम्मान पूर्वक देखभाल ही तो चाहिए.

स्वर्गीय पति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता व आत्मीयता का यह भाव रहा कि मृत्योपरांत भी उनके साथ पुराने दिनों के सपने देखा करती हैं. जीवन भर पति-पत्नी अपने सुख-दुःख आपस में बांटते रहे, अब सुखदेई हर वक्त इसी सोच में रहती है कि पति की आत्मा को ना जाने क्या गति मिली होगी? कभी कभी इसी सोच में बेचैन हो जाया करती है.

नए संवत्सर पर वर्षफल सुनाने के लिए और अपनी बहुप्रतीक्षित पुरोहिती दक्षिणा लेने पण्डित भीमराज श्रीमाली आये तो बच्चों ने उनको सादर प्रणाम करके आसान पर बैठाया और नानी को खबर दी कि “आपके पण्डित जी आये हैं.” नानी यानि सुखदेई, जो पण्डित भीमराज पर अटूट विश्वास व श्रद्धा रखती रही हैं. काफी दिनों से उनसे मुलाक़ात नहीं हो पा रही थी क्योंकि वह स्वयं तो संधिवात के अतिप्रकोप से चलने-फिरने में असमर्थ हो गयी हैं और पण्डित जी भी अपने गाँव के बजाय अब शहर में जाकर रहने लगे हैं. कभी तीज त्यौहार पर या पुरोहिती के काम से ही गाँव में आना होता है.

सुखदेई के मन में कई दिन से एक सवाल घूम रहा था कि जिस तरह जन्मकुंडली पढ़ कर पिछले जन्मों के बारे में बताया जाता है उसी तरह अगले जन्म के बारे में भी क्या पण्डित जी का ज्योतिष बता सकता है.

बरसों पहले जब सुखदेई के पति मौजूद थे, तब पण्डित भीमराज जी ने ही कुंडली पढ़कर बताया था कि “पिछले जन्म में तुम दोनों पति-पत्नी चिड़ियों की योनि में थे.” सच कहा था या महज बहलाने के लिए झूठ, इसका पता नहीं, पर सुखदेई मानती है कि ज्योतिष का ज्ञान होने से पण्डित जी त्रिकालदर्शी हैं, वे झूठ नहीं बोल सकते हैं.

सच्चाई तो यह है कि पण्डित जी का यह भी एक धन्धा है. वे अपने यजमानों के इस विश्वास को नहीं तोड़ना चाहते कि पुरोहित जी सर्वज्ञानी हैं. इसीलिये जब अस्सी वर्षीय वृद्ध सुखदेई व्यग्रता से अपने अगले जन्म के विषय में पूछती है तो उन्होंने सहज भाव में मुस्कुराते हुए कहा, “नहीं, माताजी, अब आपको आगे जन्म-मरण के बंधन में नहीं पड़ना पड़ेगा, मैंने आपकी कुंडली बारीकी से देखी है, उसके अनुसार अब आपको मोक्ष मिलने वाला है. आप तुलसी की माला फेरते रहिये. आप सीधे परमधाम जायेंगी.” पण्डित जी के ये वाक्य सुन कर सुखदेई सन्न रह गयी और सोच में पड़ गयी क्योंकि अभी इतनी जल्दी वे मरना भी नहीं चाहती हैं, और न ही मोक्ष की कामना करती हैं. उनको लगा कि इस सँसार से उनकी इस तरह विदाई, अनेक अतृप्त इच्छाओं के साथ नहीं होनी चाहिए. पण्डित जी से उसने पुनः एक नादान सा प्रश्न पूछा, “क्या स्वर्ग में मेरी मुलाक़ात अब दुबारा छम्मो के पिता से नहीं हो पायेगी?”

पण्डित भीमराज ने स्थिति को भांपते हुए बहुत चतुराई से कहा, “अरे, क्यों नहीं माता जी, मोहनलाल जी की आत्मा तो वहाँ आपका बेसब्री से इन्तजार कर रही होगी. आपका तो उनके साथ सात जन्मों का बंधन था, और हिसाब से ये आपका सातवाँ जन्म है. इसके बाद आप दोनों ही ब्रह्मलोक में रहेंगे जहाँ सांसारिक दुःख भी नहीं झेलने पड़ेंगे.”

यह सुनकर सुखदेई बहुत प्रसन्न हो गयी. अपनी रामकोथली (बटुआ) खोली और पण्डित जी को ५०१ रुपये दक्षिणा देते हुये निहाल हो गयी.
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मंगलवार, 29 जनवरी 2013

उमर खय्याम

उनका पूरा नाम फारसी भाषा में है, जो बहुत लंबा है. छोटा करके भी ‘उमर बिन अल खय्याम निशापुरी’ होता है. साहित्य के इतिहास में वे ‘उमर खय्याम’ के नाम से प्रसिद्ध हैं. हम उनको फारसी के प्रख्यात शायर के रूप में जानते हैं, जिन्होंने बहुत खूबसूरत सारगर्भित रूबाइयां लिखी उनकी रूबाइयों का आज दुनिया की सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है.

भारत के पश्चिम में हिंदमहासागर और उत्तरी अफ्रीका के बीच के जल सागर को फारस की खाड़ी नाम दिया गया है. ईरान को पुराने समय में फारस या परसिया कहा जाता था. फारस की खाड़ी के तीनों तरफ स्थित देशों में फ़ारसी बोली जाती थी. आज भी ईरान, ताजिकिस्तान, व अफगानिस्तान में फारसी बोली जाती है. फारसी एक प्राचीन समृद्ध भाषा है. आज दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में फारसी के विभाग हैं. इसी भाषा के विद्वान उमर खय्याम अपने समय के प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, जिन्होंने विज्ञान, ज्योतिष, इतिहास, क़ानून, औषधिशास्त्र पर अनेक किताबें लिखी. इनके अलावा उनको इस्लामी दर्शन पर और ज्यामितीय गणित पर भी महारत हासिल थी.

उनका जन्म आज से एक हजार वर्ष पूर्व ईरान के निशापुर में हुआ, जहाँ से वे बचपन में ही समरकंद चले गए थे. वहीं उनकी शिक्षा दीक्षा हुई. इस महान विचारक के अध्यवसाय व लेखन से अनेक विद्वानों ने प्रेरणा पाई है. कहते हैं कि हरिवंश राय बच्चन जी की ‘मधुशाला’ की प्रेरणा उनकी रूबाइयां ही थी. हरिवंश राय जी अंग्रेजी भाषा के भी विद्वान थे, उन्होंने बड़े दिल से मधुशाला को रचा था. यह हिन्दी भाषा की एक कालजयी रचना है.

उमर खय्याम की रूबाइयों का प्रकाशन उनकी मृत्यु के दो सौ वर्षों के बाद हो पाया था और उनका अंग्रेजी में अनुवाद तो उन्नीसवीं सदी में एडवर्ड फिट्ज जीराल्ड ने किया.

ईरान के निशापुर में उनका मकबरा बना हुआ है, जो ईरानी वास्तुकला का एक नायाब नमूना है. हर वर्ष लाखों पर्यटक वहाँ दर्शनार्थ जाते हैं. इस महान विभूति को हम भी सलाम करते हैं.
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रविवार, 27 जनवरी 2013

ताऊ श्री

मेरे ताऊ, विश्वनाथ जी, को मुझसे बेहतर कौन जानता था? मैं बचपन से ही उनका मित्र और राजदार रहा हूँ. उम्र में इतना बड़ा अंतर होते हुए भी वे मुझसे हमउम्र दोस्त की तरह बात-व्यवहार किया करते थे.

होने को तो उनके दो सगे बेटे भी हैं और दोनों अलग अलग शहरों में अच्छी नौकरियों में हैं, और अपने बाल-बच्चों सहित ऐश कर रहे हैं. लेकिन ताऊ जी की स्थिति ‘बागवान’ फिल्म के हीरो की तरह ही रही. वे अपने बच्चों के साथ सामंजस्य नहीं कर पाए क्योंकि उनमें बहुत ज्यादा खुद्दारी थी और किसी के अहसान के तले नहीं रहते थे.

ताऊ जी को सँभालती थी ताई जी, जो एक सम्पूर्ण भारतीय गृहणी थी या यों कह दूं कि लक्ष्मी थी. ताऊजी की हर छोटी छोटी जरूरतों का ख़याल रखती आई थी. वे एक प्रकार से ताई पर पूरी तरह आश्रित रहते थे.

ताऊ जी जंगलात के अकाउंट्स विभाग में नौकरी करते थे. वे कहा करते थे कि शादी के बाद हनीमून के लिए ताई जी को स्विटजरलैंड घुमाना चाहते थे, पर तब पासपोर्ट+वीजा का चक्कर हो गया था, जिसके बारे में उन्होंने पहले कभी सोचा ही नहीं था. इस तरह हसरत धरी की धरी रह गयी थी. वे कहा करते थे कि अब उनको सब बातें मालूम हैं, रूपये भी उनके पास जमा हैं इसलिए अपने रिटायरमेंट के बाद ताई जी को साथ लेकर जरूर स्विट्जरलैंड के नजारों का आनन्द लेने जायेंगे. उन्होंने दोनों के पासपोर्ट भी बनवा रखे हैं.

अभी जब ताऊ जी सर्विस में हैं, बच्चों के पास बारी बारी से छुट्टियों में घूम आते हैं. वे महसूस करते हैं कि सबको अपनी आजादी चाहिए. लंबे समय तक माँ-बाप को साथ में नहीं रखना चाहते हैं. मजबूरी में रहने पर मजा नहीं आता है. उससे तो अच्छा है कि अपने गाँव में रहें, जहाँ असुविधाओं के होते हुए भी दिन अच्छे कटते हैं. सब अपने लोग हैं. एक अघोषित भरोसा हमेशा रहता है. ताऊ जी को इस प्रकार से व्यवस्थित करने में ताई जी का बड़ा हाथ था. वे भी गाँव की खुली हवा व वातावरण छोड़कर रेवाड़ी या मुम्बई की बहुमंजिली इमारतों के छोटे छोटे कमरों में कैद होकर नहीं रहना चाहती थी. बड़ा बेटा कहा तो करता था, “जगह घर में नहीं, दिल में होती है. आप लोग अब यहीं हमारे पास ही आकर रहो, बच्चों की पढ़ाई की वजह से अब बार बार बरेली नहीं आ सकते हैं.” ताऊ जी कह देते थे अब इस बारे में रिटायरमेंट के बाद सोचा जाएगा.

ताऊ जी ने कभी बच्चों की कभी बुराई नहीं की क्योंकि वे जानते थे कि अब समय बदल गया है. जिम्मेदारी से सभी बचना चाहते हैं. इस बारे में बात करते हुए एक बार जरूर उनके मुँह से निकला था कि बेटे अगर अपने भी हैं तो बहुएँ तो पराए घर से आई हैं. फिर भी बहुओं के बारे में ताऊ जी या ताई जी हमेशा अच्छा ही बतातें हैं.

आखिरी वषों में ताई जी बहुत मुटा गयी थी. ताऊ जी उनसे कहा करते थे, “अगर यही हाल रहा तो हवाई जहाज की सीट छोटी पड़ जाने वाली है. स्विट्जरलैंड जाना है कि नहीं?”

सचमुच ताई जी स्विट्जरलैंड नहीं जा पाई. वे ताऊ जी के रिटायरमेंट से कुछ महीनों पहले ही हार्ट अटैक से चल बसी.

ताऊ जी अकेले रह गए. बच्चों के लाख कहने पर भी गाँव छोड़ने को तैयार नहीं हुए. कुछ समय तक तो वे मेरे परिवार के साथ जुड़े रहे, बाद में एक पहाड़ी लडके को फुल टाइम नौकर रख लिया. ताऊ जी की एक पहिये वाली गाड़ी फिर चल पडी, पर वो बात नहीं रही. नौकर एक समर्पित पत्नी की जगह नहीं ले सकता है. ऊपर से हमेशा यह डर भी बना रहता था कि वह चोरी करके भाग ना जाये.

मैं ताऊ जी के ही बताए रास्ते पर चलकर मार्केटिंग में एम.बी.ए. करके एक स्विस कम्पनी ‘होलसिम’ में नौकरी पा गया. ‘स्विस’ नाम सुनकर ताऊ जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि स्विटजरलैंड उनका ड्रीमलैंड था. उनको बेहद खुशी तब हुई जब मैं एक ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए कम्पनी की तरफ से पन्द्रह दिनों के लिए स्विट्जरलैंड, कम्पनी के हेडक्वाटर, गया. मैं जब वहाँ से वापस आया तो वे बहुत उत्साहित हो कर मेरे पास देहरादून आ धमके. उन्होंने वहाँ के बारे में अनेक बातें मुझसे पूछी. वे तमाम फोटो चित्र भी देखे जो मैं साथ में खींच कर लाया था. उनकी उत्कंठा को और शान्ति तब मिली जब मैंने अपने कंप्यूटर पर स्विट्जरलैंड बारे में इंटरनेट पर वहाँ का इतिहास+भूगोल व प्राकृतिक सौंदर्य वाले दृश्य उनको दिखाए. वे इतने अभिभूत हो गए कि बोले, “मैं अपना अगला जन्म स्विट्जरलैंड में ही लूंगा.”

ताऊ जी का पासपोर्ट बने दस साल हो गए थे इसलिए उसको रिन्यू करवाना आवश्यक था. ये सब काम मैंने आनलाइन, पासपोर्ट-सेवा वाली वेबसाईट द्वारा किया. उनको दस दिन बाद कार्यालय में उपस्थित होने की तारीख भी मिल गयी. सब हंसी-खुशी चल रहा था. ताऊ जी कहने लगे, “तुमको भी अपने साथ स्विट्जरलैंड ले जाऊंगा क्योंकि मुझे हवाई जहाज में सफर करने का व विदेश जाने का कोई पूर्व अनुभव नहीं है.”

“अभी तो वहां बहुत ठण्ड हो रही होगी, गर्मियों का वीजा लेंगे,” यह कहते हुए वे बहुत गहरी सोच में पड़ गए. मैंने उनसे पूछा, “ताऊ जी, किस सोच में पड़ गए हो?” वे बोले, “आज तेरी ताई होती तो कितना आनंदित होती?” यह कहते हुए उनकी आँखें नम हो आई.

वे वापस गाँव चले गए. एक महीने बाद मुझे मेरे पिता जी का फोन आया कि “तुम्हारे ताऊ अब नहीं रहे. वे सुबह बिस्तर पर मृत मिले.”

मैं स्तब्ध हूँ. किन शब्दों में, कैसे उनको श्रद्धांजलि दूं, समझ नहीं पा रहा हूँ. स्विट्जरलैंड के उनके सपने को अब इस कहानी द्वारा साकार करके इतिश्री कर रहा हूँ.
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शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

कटुसत्य - २

कालूराम जवानी में ही बुढ़ा रहा है. यही हाल उसकी जोरू घीसी का है. नन्नू अभी साल भर का भी पूरा नहीं हुआ,  घीसी फिर उम्मीद से लगती है. प्रथम दृष्ट्या फटे हाल हैं. सड़क के किनारे ईंटों से बने हुए चार फुट ऊँचे अस्थाई झोपड़े पर रैक्सीन की अधफटी काली चादर डाल कर इनके रहने का इन्तजाम ठेकेदार ने किया है. झोपड़े पर दरवाजे के नाम पर सीमेंट की खाली फटे कट्टों का पर्दा डला हुआ है. अन्दर गन्दी अधफटी गुदड़ी के अलावा दो ईंटों का चूल्हा बना रखा है, जिसके आसपास एलुमिनियम के घिसे-पिटे दो कटोरे. एक भागोना व तसला पड़े हुए हैं. एक मिट्टी का तवा भी रखा हुआ है. कोने में ईंधन के रूप में जंगली बनाड़ के सूखे झाड़-टहनियाँ, शीशम के कुछ पत्ते तथा कुछ पुराने फटे बांस की खपच्चियाँ रखी हुई हैं.

एक पौलिथिन की थैली में आधा किलो सस्ते-मोटे चावल और दूसरे में नमक रखा हुआ है. एक गंदे से पुराने शराब के खाली पौव्वे में सरसों का थोड़ा तेल भी पड़ा है. एक मैले से दस किलो पेन्ट के खाली प्लास्टिक के डब्बे में पानी सहेज कर भरा हुआ है. उसी में एक प्लास्टिक की काटी गयी बोतल का निचला भाग पड़ा है जो मग का काम देता है. कुल मिला कर गृहस्थी का इतना ही सामान उनके घर में है.

कालू के पैर में टायर की चप्पल और घीसी के पैर में दो अलग अलग साइज व रंग की पुरानी हवाई चप्पल हैं. नन्नू कमर से नीचे नंगा है. उसके शरीर में मैल की परत यों ही नजर आ रही है.

यह परिवार कहीं दूर झाबुआ, मध्यप्रदेश से रोजगार की तलाश में कोटा, राजस्थान आया है. एक बहुमंजिला इमारत बनाने वाले ठेकेदार ने इनको काम पर रख लिया है. उसने कालू को १५० रूपये रोज व घीसी को १०० रूपये रोज देने का करार किया है. इनको रोके रखने के लिए २५० रूपये की अग्रिम राशि भी दी है. १४ घन्टे रोज काम करते हुए इनको २० दिन हो गए हैं, पर ठेकेदार ने पूरे पैसे नहीं दिये. कहता है कि मेरे पास जमा हैं, तुम्हारी चोरी हो जायेगी. यह आवास इनको ठेकेदार ने ही उपलब्द्ध कराया है. मिक्सर में कंकड़, रेत और सीमेन्ट तगारी से डालते रहने का काम इनको दिया गया है. थक जाते हैं तो बीड़ी पीकर ऊर्जा प्राप्त कर लेते हैं. थोड़ी दूरी पर एक चाट, पकोड़ा, समोसे, नमकीन की ठेली लगती है. कभी कभी वहाँ से ये नमकीन-स्वादिष्ट मनभावन खरीद कर खाते हैं. एक दूसरे के मुँह देखते हुए चटखारे लेते हुए निहाल हो लेते हैं.

इनको राशनकार्ड, आधारकार्ड, गैस सिलेंडर, पेट्रोल-डीजल की कीमत से कोई लेना देना नहीं है. सेंसेक्स, शेयर बाजार, ए.सी. का रेल टिकट, इन सब के बारे में कोई जानकारी नहीं है. रेडियो, टी.वी, मोबाईल, कार आदि के बारे में इतना ही मालूम है कि ये सेठ लोगों के लिए होते हैं. झोपड़े में उजाला सड़क की लाईट से हो जाता है. संडास के लिए इनको दूर खुले नाले में जाना पड़ता है. शौच के लिए वहीं का गंदा पानी इस्तेमाल करना होता है. आज घीसी को रास्ते में एक गोबर करती हुई गाय नजर आई तो वह बहुत खुश हो गयी. एक उड़ते हुए अखबारी पन्ने में पूरा गोबर उठा लाई. उसने उसको थेप कर उपलों का रूप दे दिया है. अखबार में क्या लिखा उसको इससे कोई सरोकार नहीं है, पर अखबार पढ़ने वाले ने उन शीर्षकों को अवश्य पढ़ा होगा, जिनमें लिखा है, "सत्ताधारी पार्टी का चिन्तन शिविर जयपुर में, भावी राजनीति पर नौजवान नेतृत्व, विपक्षी पार्टी को भी सत्ता की चिंता, ठेकेदार सत्ता के गलियारों में, अपराध-बलात्कार पूर्ववत".

कटुसत्य यह भी है कि गणतंत्र बने ६३ वर्षों के बाद भी, यद्यपि देश के सभी बाजार कपड़े, राशन, फल, दवाओं, और तमाम जीवनोपयोगी वस्तुओं से लदे-भरे पड़े हैं, पर जो इकाई राष्ट्रनिर्माण के मूल में है, उसकी हालत कालूराम, घीसी और उनके बालक नन्नू से बेहतर नहीं है.
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बुधवार, 23 जनवरी 2013

अन्धेरा

इस बार दीपावली पर उनके घर में कोई दिया नहीं जला क्योंकि घर का इकलौता चिराग कुछ दिन पहले ही बुझ गया था. यों तो एक दिन सभी को जाना पड़ता है, पर जिस तरह से माता-पिता व बहन को सरेराह रोता छोड़कर वरुण चला गया और अन्धेरा कर गया, इसकी कभी कल्पना नहीं की थी.

मित्र व रिश्तेदार मातमपुरसी लगातार आते रहते हैं और मालती को रुला जाते हैं. सूर्यकांत वैसे तो बहुत हिम्मतवाला आदमी है, पर पुत्रशोक ने उसे भी तोड़ डाला है. मालती को सुबकते देख कर उसका भी गला भर आता है आँखों से आंसू झरने लगते हैं.

आनेजाने वालों की मजबूरी होती है. वे सामाजिक दस्तूर के हिसाब से ढाढस बधाने की बातें करते हैं. इसके आगे क्या कर सकते हैं? सँसार का कालचक्र कभी थमता नहीं है. विधाता की श्रृष्टि को अभी तक कोई समझ नहीं पाया है. अगर छीनना ही था तो दिया क्यों था? यह प्रश्न बार बार मन में उठता है.

सूर्यकांत के पिता सनाडय ब्राह्मण तथा मालती के पिता कान्यकुब्ज थे. एक ही उद्योग में कार्यरत दोनों पड़ोसी थे. बच्चों के जवान होते होते ना जाने कब आपस में प्यार का बीज प्रस्फुटित हुआ, घर वालों को कानोंकान खबर नहीं हुई. सूर्यकांत के घर में माँ सौतेली थी और उसके लिए बहुत अच्छा वातावरण नहीं रहता था इसलिए उसे भरोसा नहीं था कि उसके प्यार को घर में स्वीकृति मिल पायेगी. उसने मालती से सलाह लेकर चुपचाप नजदीक के बड़े शहर में जाकर आर्यसमाज मंदिर में विवाह कर लिया. कुछ हमउम्र दोस्तों का सहयोग और शुभकामनाओं के साथ दोनों विवाहित तो हो गए पर अपने मध्यवर्गीय समाज के कारण त्रासदी भुगतते हुए मानसिक यातनाएं खूब दिनों तक सहते रहे.

जो लोग अपने परिवार/समाज की इच्छा के विरुद्ध अपने प्यार के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को उद्यत रहते हैं, वे बहुत जीवट वाले होते हैं. कहते हैं कि ‘हिम्मते मरदां, मददे खुदा’.सूर्यकांत और मालती का हनीमून पीरियड बहुत परेशानियों व तंगहाली में बीता. चूंकि सूरज एक स्पोर्ट्समैन भी था, क्रिकेटर के रूप में उसकी पहचान बनी हुई थी, उसे बहुत जल्दी एक उद्योग में अकाउंट्स कलर्क की तथा मालती को सकारी प्राथमिक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गयी. उसने बी.ए. के बाद बी.एड. की डिग्री भी हासिल कर ली थी.
तुलसीदास जी ने सही लिखा है, ‘समरथ को नहि दोष गुसांई’. धीरे धीरे समयांतर पर व अपने अपने परिवारों द्वारा स्वीकृत कर लिए गए. प्यार की जीत हो गयी. सूर्यकांत–मालती की जोड़ी नौजवानों के लिए आदर्श बन गयी. उनका परिवार चार वर्षों के अंतराल में पहले दो से तीन फिर तीन से चार के आंकड़े पर आ गया. बड़ी बेटी रश्मि व छोटा वरुण, फूल से सुन्दर प्यारे बच्चे, सबके दुलारे, सौम्य बच्चे. छोटा नियोजित परिवार, सुखी परिवार, यह उनकी पहचान बनी थी.

ये कल की सी ही बात थी, गत वर्ष बिटिया ने एम.एससी. कर लिया और वरुण ने ग्रेजुएशन करके मेडीकल ट्रांसक्रिप्शन में डिप्लोमा लेकर जयपुर में काम शुरू कर लिया. जहाँ ना जाने कब उसके फेफड़ों में इन्फैक्शन हो गया. उसने इसे गंभीरता से नहीं लिया. हल्का फुल्का लाक्षणिक ईलाज अनियमितता से करवाता रहा. अन्दर बीमारी बढ़ती रही. घरवालों को तब खबर की गयी जब साथ में न्यूमोनाइटिस भी हो गया और दोनों फेफड़े जवाब देने लगे. बीमारी तीसरी स्टेज में थी. सघन चिकित्सा में ले जाया गया, पर उसे बचाया नहीं जा सका. एक जवान मौत हो गयी और साथ में माँ-बाप व बहिन सब के अरमानों को भी मौत मिल गयी.
सूर्यकांत दो वर्ष पहले अपनी नौकरी से रिटायर हो चुका था. रिटायरमेंट के बाद उसने अपने सपनों का एक सुन्दर घर बनवाया. घर मुख्य बस्ती से बाहर एकांत में है, जहाँ से मालती को स्कूल आने जाने की सुविधा होती. विडम्बना यह है कि अब यही एकांत काटने को आ रहा है.

घर को पता नहीं किस की नजर लग गयी थी, घर बनने के एक साल के अंदर ही वरुण का देहावसान हो गया. अब सब तरफ उदासी है, मायूसी है, दुःख है, रोना है, नाउम्मीदी है अन्धेरा सा है. सूरज रुँधे गले से कहता है, “सब खत्म हो गया है. जीवन का कोई उद्देश्य नहीं रहा.” मालती गुमसुम हो गयी है. कभी जार जार रोती भी है. उसे हर रात सपनों में वरुण दीखता है. घावों को हरा कर जाता है. यह ऐसा दर्द है, जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है और ना इस दर्द की कोई दवा है.

रश्मि खुद घायल सी हो गयी है. उसके पास माता-पिता को सांत्वना के लिए कोई शब्द नहीं हैं.

पर क्या यह सच नहीं है कि जिस दिन प्राणी का जन्म होता है, उसी दिन उसकी मृत्यु की तारीख भी उसके माथे पर लिख दी जाती है. यह तो मनुष्यों की अपनी माया-ममता है, जिसमें परमात्मा उसे उलझा कर रखता  है. मौत तो बिछुड़ने का एक अपरिहार्य बहाना मात्र है.

एक शायर ने लिखा है, "गुलों की तो जिंदगी थी ही इतनी, नाहक खिजां पर इल्जाम आया."
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सोमवार, 21 जनवरी 2013

परिवर्तन - 2

रघु का पिता केसरीमल एक भूतपूर्व म्युनिसिपल चेयरमैन  के बंगले की साफ़-सफाई के काम में नियुक्त था. उसने देखा/समझा कि समाज में लोगों के आगे बढ़ने के पीछे शिक्षा ही एक बड़ा कारक है. इसलिए उसने रघु को स्कूल भेजा और बाद में कॉलेज में बी.ए. तक पढ़ाया, हालांकि रघु पढ़ाई में औसत से भी कमजोर रहा, पर कैसे भी ग्रेजुएट हो गया. उन दिनों दलितों में भी दलित, मेहतर समाज, में इतनी बड़ी डिग्री प्राप्त करना बड़ी बात थी. रघु के साथ वाले तमाम लड़के इधर-उधर म्युनिसपेलिटीज में नौकरी पाकर, अपने पुश्तैनी धन्धे पर लग कर गृहस्थ हो गए थे. कुछ तो आवारा नशेड़ी भी बन कर घूम रहे थे.

रघु के मन में कई दिनों तक उथल पुथल चलती रही. वह समझ नहीं पा रहा था कि अपने इस दलित समाज में कैसे इन्कलाब यानि परिवर्तन  लाया जा सकता है. क्योंकि लाख सुविधाओं/आरक्षण के वावजूद समाज के लोग अपनी लीक को नहीं छोड़ रहे थे. उसने एक बड़ा सा बैनर बनवाया जिस पर रंगीन अक्षरों में लिखा गया कि ‘जब तक हम खुद नहीं बदलेंगे, यह समाज कभी नहीं बदलेगा.’ इस बैनर को उसने बस्ती के पंचायती चबूतरे के पास मजबूती से लगा दिया.

बस्ती के छोटे बड़े सभी बाशिंदों ने इस बैनर को पढ़ा या पढ़वाया. आपस में बतिया कर इसके अर्थ निकाल रहे थे, कोई कहता था, “अब रघु नेता बनाना चाहता है.” वार्ड मेंबर ने अपनी प्रतिक्रिया यों बयान की, “ऐसे लिखने से कोई बदलने वाला नहीं है.”

सचमुच इसका उन लोगों पर कोई असर नहीं दिख रहा था. नौजवान लड़के साथ में अधेड़ उम्र तक के लोग शाम होते ही कच्ची शराब पीकर रोज गाली गलौज करते रहते थे, और हुक्कों पर दम लगाया करते थे. महिलायें सुबह सुबह डलिया के ऊपर झाड़ू रख कर शहर की तरफ निकल जाया करती थी, अधिकतर औरतें पान, खैनी, तम्बाकू, खाती. व बीड़ी पीती थीं. मोहल्ले में केवल बूढ़े व बीमार बचे रहते थे.

घरों के बगल में सूअरों के बाड़े/दड़बे बने थे. सूअरों का बेधड़क आवागमन साथ में गन्दगी कोढ़ की तरह फैली रहती थी. सुअर-पालन को लोग आमदनी का जरिया बताते हुए पुश्तैनी कारोबार की संज्ञा देते थे. वार-त्यौहार गोश्त के लिए किसी सूअर का चीत्कार फिर उसकी ह्त्या रघु को बहुत अखरती थी, पर वह अपने आप को लाचार पाता था कोई भी इस तरह का इन्कलाब नहीं चाहता था कि सामाजिक ढांचा बदले. नालियों में गन्दगी में मुँह मारते हुए मुर्गे-मुर्गियों को देख वह घिन से मुँह बिचकाया करता था. कई बार सोचता था कि मैं गलत जगह पैदा हो गया हूँ.

रघु ने देश की राजनैतिक बयार को भी ठीक से पहचान लिया था, उसने बाबा साहेब अम्बेडकर की आत्मकथा दो बार आमूलचूल पढ़ी. फिर उनकी अध्यक्षता में बने देश संविधान के उन अंशों को भी पढ़ा, जिनमें दलितोद्धार की व्यवस्थाएं थी. इससे उसमें नई चेतना जागृत हो गयी. वह सोचने लगा कि समाज के लिए कुछ नया तो करना ही पड़ेगा ताकि दलित लोग भी राष्ट्र की मुख्य धारा में आकर सम्मान पूर्वक जी सकें. इसके लिए उनके दब्बूपने को हटाना जरूरी था. धीरे धीरे परिवर्तन के सिद्धांत को वह पचा नहीं पा रहा था. उसको यह भी अहसास था कि केवल उसकी एक बस्ती में सुधार करने से पूरे देश के मेहतर समाज में परिवर्तन लाना संभव नहीं होगा, पर यह भी तो सच है कि बूँद बूँद से घड़ा भर सकता है.

कहने को देश में पहले से बहुत से दलित राजनेता मौजूद हैं, प्रशासन में भी कई लोग बड़े जिम्मेदार पदों तक पहुँच गए हैं, पर लगता है कि असल दलित तो अभी भी अपनी ही जगह पर हैं. जो आगे बढ़े हैं, उनकी अलग जाति/बिरादरी सी बन गयी है. वे जानकार व  सुविधाभोगी हो गए हैं, और अब मुड़कर नीचे की तरफ देखते भी नहीं हैं. सारा गुणा-भाग करने के बाद रघु ने एक राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी की सदस्यता लेकर अपने मिशन को आगे बढाने का निश्चय किया और अपनी वाक् प्रतिभा के बल पर वह पार्टी के बड़े नेताओं की नजर में आ गया. पार्टी में उसे दलित मुखौटे के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा. यह स्थिति काफी दिनों तक चलती रही जिस पर रघु का मन कई बार विद्रोह करने को भी हुआ, पर अनुशासन की जंजीर उसने नहीं तोड़ी. वह इस तरह एक सांचे में फिट होकर रह गया. रघु पर पकड़ मजबूत रखने के लिए प्रांतीय अध्यक्ष जी ने उसे प्रांतीय कोषाध्यक्ष बना कर नई जिम्मेदारी दे दी.

प्रांतीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के बाद रघु ने जब विधान सभा के चुनावों में अपने क्षेत्र से अपनी दावेदारी पेश की तो उसे पार्टी का टिकट मिल ही गया. चुनाव में सारे चुनावी तिकड़म करने के बावजूद भीतरघातियों व धूर्त जातिवादी लोगों ने उसे जीतने नहीं दिया.

यद्यपि रघु का पारिवारिक जीवन आम सामाजिक कार्यकर्ता की तरह ही था, पर दलित की छाप लगी रहने से वह नेताओं के समाज में ज्यादा घुलमिल नहीं पाया था. एक कारण यह भी था कि उसकी पत्नी अनपढ़ देहाती थी.

इस बार कुछ ऐसे समीकरण बने कि बिना मांगे ही हाई कमांड ने दलित कोटा में से उसको लोकसभा के लिए टिकट दे दिया. हवा अनुकूल थी. रघु उर्फ रघुनाथ मछेरवाल जीत कर दिल्ली पहुँच गये और राष्ट्रीय धारा में आ गए. कई महत्वपूर्ण कमेटियों में नामजद भी हो गए. इस धटना क्रम के चलते उनके जीवन मे भारी परिवर्तन आ गए. थोड़े वर्षों में ही उनकी आर्थिक स्थिति सुधर गयी. कहते हैं कि ‘पैसा भगवान तो नहीं, पर भगवान से कम भी नहीं है.’ उनका जयपुर में अपना एक आलीशान घर बन गया है, बेहतरीन गाड़ी भी है. इस साल उन्होंने परमिट वाली दो बड़ी बसें जयपुर-कोटा रूट पर डाल दी हैं. कहने को यह सब बैंक लोन पर हुआ है, पर सच्चाई यह है कि सब ऊपर वाले की कृपा से हो रहा है. खुलासा यह है कि जब कार्यकर्ता नेता बन जाता है तो वह एजेंट का काम आसानी से कर लेता है. वह ठेके दिला सकता है, परमिट दिला सकता है, नौकरी दिलवा सकता है, स्थानान्तरण करवा सकता है, प्रशासन में फंसे मामलों में मनचाहे फैसले करवा सकता है, और जरूरतमंद लोग खुशी से नोटों की गड्डियां थमा जाते हैं.

रघुनाथ जी का भविष्य आगे भी उज्ज्वल है क्योंकि उनके मन्त्री बनने की संभावनाएं बरक़रार हैं. मन्त्री पर लक्ष्मी जी की कृपा न बरसे ऐसा हमारे देश में कभी नहीं हो सकता. परिवर्तन तो आना ही था चाहे किसी भी रूप में आये.
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शनिवार, 19 जनवरी 2013

नैनोबोट्स

एक पुरानी हिंदी फिल्म का यह गाना अपने समय का बहुत लोकप्रिय हुआ करता था:

"ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम ना होंगे..."

अब इस सिलिकोन वैज्ञानिक युग में जिंदगी के मेले इस तरह सजते जा रहे हैं कि हमारी पूर्व कल्पनाओं से परे हैं. पिछले एक सौ वर्षों में इतने सगुण आविष्कार हुए हैं, जिनकी वजह से मनुष्य की जीवन शैली ही बदल गयी है. आज की नई पीढ़ी को पुरानी व्यवस्थाओं के बारे बताने पर वे हँसने लगते हैं. क्योंकि आज दुनिया संचार क्रान्ति से गुजर रही है.

पिछली सदी के मध्य में बच्चों के खिलोनों के लिए तथा उसी क्रम में चन्द्रमा के धरातल पर चलने के लिए रोबोट बनाए गए. और बाद में स्वचालित मशीनों से जोड़ कर इन्सानों की तरह काम करने के परीक्षण भी रोबोट्स पर होते रहे. आम लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते थे. पर आज नैनो टेक्नोलॉजी पर आधारित मशीनें यानि छोटे रोबोट्स वह काम करने जा रहे हैं, जो इन्सान के पहुँच से बहुत दूर की बात रही है. इसका सीधा प्रभाव उन सभी क्षेत्रों पर पड़ेगा, जिनसे आम आदमी की सुविधाएँ बढेंगी और कार्यकलापों में तेजी आती रहेगी. अब नैनो रोबोट्स का ज़माना पदार्पित हो चुका है.

अब सिर्फ ५०-१०० साल बाद के लोगों की जीवनचर्या की कल्पना करेंगे तो लगता है खान-पान, पहनावे से लेकर यातायात के सारे तरीके बदल जायेंगे. अभी इनकी इंजीनियरिंग के बारे में बहुत कुछ गर्भ में है. मसलन जो डॉक्टर आज क्लीनिक्स / अस्पतालों में कार्यरत होते हैं, उनकी इस रूप में जरूरत नहीं होगी. नए नैनो टेक्नोलोजिस्ट् मेडिकल रोबोटिस्ट इनका स्थान लेते जायेंगे. यहाँ जोर देकर कहने वाली बात यह है कि नैनोबोट्स से विशेषकर चिकित्सकीय क्षेत्र में क्रान्ति आने वाली है. इसके लिए पहले यह समझना जरूरी है कि ये नैनोबोट्स क्या है.

नैनों का शाब्दिक अर्थ है बहुत छोटा (सूक्ष्मातिसूक्ष्म) इन छोटे रोबोटिक मशीनों के बारे में जो तकनीकी कार्य अभी तक हुए हैं वे बहुत उत्साहजनक हैं. इनके आकार के बारे में गणित यह है कि नैनोमीटर के मानक में इनका आकार 10 with the power of -9 मीटर है, जो सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे जा सकते हैं. इनको अभी कई और नाम भी दिये गए हैं, जैसे नैनोइड, नैनोइट, नैनो मशीन व नैनोमाइट्स.

इनके बारे में कहा जाता है कि ये अणु व परमाणु की गणना करने में सक्षम होते हैं. वायु में उपस्थित विषाणुओं की पहचान भी कर सकते हैं.

जहाँ तक चिकित्सकीय क्षेत्र में इनके उपयोग की बात है, ये शरीर में रक्त संचार के साथ प्रविष्ट होकर उपकरण बनकर, अन्दरूनी जटिल शल्य-चिकित्सा व अन्य इलाज कर सकेंगे. इम्यून सिस्टम में श्वेत रक्तकणों के साथ मिलकर बीमारियों से लडेंगे. शरीर में दवा संचारण में आश्चर्यजनक कार्य करेंगे. कैंसर व मधुमेह जैसे असाध्य रोगों के ईलाज में पूरी तरह सक्षम होंगे.

एक समय था जब विकसित देश हथियारों पर अनुसंधान करते थे. उसके बाद अंतरिक्ष के बारे में होड़ रही, पर अब भविष्यदृष्टा सरकारें नैनो टेक्नोलॉजी पर जोर शोर से रिसर्च पर धन खर्च कर रही हैं.

अब से ५०-१०० वर्ष के अंतराल में, इसके क्रांतिकारी उपयोग सामने आते रहेंगे, उसकी पूरी कल्पना अभी नहीं की जा सकती है, लेकिन यह सिद्ध है कि मानव जाति की सेवा में ये मानव निर्मित नैनोबोट्स बहुत काम करेंगे.
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गुरुवार, 17 जनवरी 2013

चुहुल - ४२

(१)
एक पत्नी अपने पति को आक्रोशित स्वर में बता रही थी, “मुझे इन भिखारियों से सख्त नफ़रत हो गयी है.”
पति ने पूछा, “ऐसी क्या बात हो गयी गई है?”
पत्नी बोली, “कल मैंने एक भिखारी को भोजन कराया था, आज सुबह वह मुझे एक किताब देकर गया, जिसका नाम है, 'खाना बनाना सीखो.'"

(२)
एक बच्चा दूध पीने से मुँह चुराता था. उसकी मम्मी ने उससे कहा, “बेटा, दूध में कैल्शियम होता है, इसको पियोगे तो बढ़िया गोरे लगोगे.”
बच्चा बोला, “मम्मी ये बात कुछ जमी नहीं.”
मम्मी ने पूछा, “क्यों?”
बच्चे ने कहा, “अगर दूध पीने से गोरे होते तो भैंस का बच्चा काला क्यों रह जाता?”

(३)
एक लेखक अपनी रचना लिखने के लिए गंभीर चिन्तन में थे पर उनके तीनों बच्चे उधम करते हुए हल्ला कर रहे थे. लेखक महोदय का ध्यान बिगड़ गया. वे गुस्से में अपनी श्रीमती को आवाज देकर बोले, “अरे, अपनी इन औलादों को यहाँ से ले जाओ."
इन शब्दों पर श्रीमती को चिढना ही था. बोली, “हाँ, हाँ, इन औलादों को मैं मायके से दहेज में जो लाई थी.”
लेखक महोदय का गुस्सा और बढ़ा. वे उत्तर में बोले, “नहीं, नहीं, मैं ही इनको बराती बनाकर वहाँ लाया था.”

(४)
एक बुजुर्ग अपने लड़के के आफिस में जाकर मैनेजर से बोले, “मेरा बेटा आपके ऑफिस में काम करता है. क्या मैं उससे मिल सकता हूँ?”
मैनेजर ने गौर से देखा फिर कहा, “खेद है कि आप कुछ देर से पहुचे हैं, आपका बेटा आपका अन्तिम संस्कार के लिए छुट्टी लेकर अभी अभी यहाँ से गया है.”

(५)
एक आदमी राह चलते बेहोश हो गया. देखते ही देखते वहाँ भीड़ इकट्ठी हो गयी. उसे जब थोड़ा होश आया तो उसने एक लाल शर्ट वाले आदमी को कहते हुए सुना, “अरे, इसके मुँह में थोडी ब्रांडी डालो, उससे ये ठीक हो जायेगा.”
यह सुन कर वह फिर लेट गया. लोग जूता सुंघाते उससे पहले ही वह बोल  उठा, “उस लाल शर्ट वाले की बात भी तो सुन लो.”
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मंगलवार, 15 जनवरी 2013

राग वैराग

उन सपनों का क्या, जो कभी फलीभूत हुए नहीं,
उन अपनों का क्या, जो कभी अभिभूत हुए नहीं.

न कसमें न वादे, सिर्फ यादें हैं, पर यादों का क्या मोल?
किसी के लिए फिजूल हैं तो किसी के लिए अनमोल.

दुविधा सुविधा की बात नहीं अब तो कोई चाह नहीं.
चाहे- अनचाहे भी सोचें, आगे कोई राह नहीं.

भीड़ भरी दुनिया में जाजम पर कोई ठौर नहीं,
इधर भी मैं, उधर भी मैं, मेरे सिवा कोई और नहीं.

समय को रेशम में लपेट कर रखने का क्या फ़ायदा?
ताम्बूल को प्रेम से चबाकर निगलने का है कायदा.

अभी तो शुरू हुई थी, अब खतम पे है ये जिंदगी,
न गिला है, न शिकवा है, यही है असल बन्दगी.
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रविवार, 13 जनवरी 2013

बागेश्वर - मेरी यादों में.

मकर संक्रांति – उत्तरायणी के अवसर पर

बागेश्वर (उत्तराखंड) अब एक अलग जिला व जिला मुख्यालय बन गया है.मैं सं १९४९ में कक्षा ६ में दाखिला लेने यहाँ लाया गया था. यह छोटा सा कस्बा मेरे गाँव से ७ मील दूर था. तब यहाँ न तो नल-बिजली होती थी और न मोटर मार्ग था.

मेरे पिताश्री पन्द्रहपाली स्कूल में अध्यापक थे. उन्होंने मुझे अपने सानिंध्य में रखने के लिए अपना स्थानांतरण बागेश्वर के एक स्कूल में कराया था. उनके स्थानांतरण हो जाने तक मुझे मिडिल स्कूल के बोर्डिंग हाउस में रहना पड़ा. बोर्डिंग हाउस, कस्बे के पश्चिमी पहाड़ी के मध्य में काफी ऊंचाई पर जुल्किया एस्टेट में था. वह भवन उसके मालिक किसी साह जी द्वारा स्कूल को दिया गया था. जगह बहुत खूबसूरत थी.

हमारा मिडिल स्कूल आगे जाकर "मोहन जोशी मेमोरियल हायर सेकेण्डरी स्कूल" में विलय कर दिया गया था. स्कूल की लकड़ी की बिल्डिंग रेलगाड़ीनुमा लम्बी कतार में बनी थी.

तब मिडिल स्कूल के हेडमास्टर बिशनसिंह दफौटी थे. उन्होंने पहले कभी मेरे पिता को भी कांडा मिडिल स्कूल में पढ़ाया था. बोर्डिंग में वे स्वयं वार्डन की तरह एक कमरे में रहते थे. मेरी उम्र लगभग ९ साल थी. मैं शाम को जल्दी ही नींद के आगोश में आ जाता था इसलिए दफौटी जी मुझे डांटते थे. इस बारे में मेरे पिता जी ने उनसे बात की तब जाकर मुझे राहत मिली.

पिता जी के बागेश्वर आ जाने के बाद हम रहने के लिए ‘अणा’ के थोकदार जी के बड़े मकान में कस्बे में आ गये थे. यह रावल जी (बागनाथ मंदिर के पुजारी) परिवार के निवास के पास ही था. सँकरे बाजार में पत्थरों का पटांन था, शायद अभी भी होगा. मेरे दो चचेरे भाई भी छोटी कक्षाओं में पढ़ने के लिए वहीं आ गए थे. हम लोग सुबह जल्दी उठ कर सरयू नदी से ताजा पानी भर कर लाते थे. सरयू का उद्गम पिण्डारी ग्लेशियर है, अत: पानी उज्जवल-धवल और स्वच्छ रहता था. घर में प्रकाश के लिए लालटेन जलती थी.

सरयू नदी के उस पार नुमाइश का मैदान था, जहाँ हम लोग शाम को खेलने जाया करते थे. हाई स्कूल तक मैंने कभी सिनेमा नहीं देखा था. एक साह जी के लड़के के घर पर हाथ से घुमाए जाने वाले प्रोजेक्टर द्वारा पहली बार चलचित्र देखा तो बहुत विस्मय हुआ. वहां तब सिनेमा हॉल था भी नहीं. बहुत बाद में एक ओपन-एयर थियेटर आया. बच्चों द्वारा सिनेमा देखना तब बहुत बुरी बात मानी जाती थी.

बागेश्वर की सीमाएं पश्चिम में गोमती नदी के झूला पुल व सराय तक से पूरब में दुग बाजार, उत्तर में कठायतबाड़ा से पहले तक और दक्षिण में बागनाथ मंदिर (संगम) तक सीमित था.

बागनाथ का प्राचीन मंदिर चंद राजाओं के समय का बना है, जो पूरे इलाके के लोगों की आस्था का केन्द्र है. यह शिव मंदिर सरयू और छोटी गोमती के संगम पर स्थित है. संगम के बगड (तट) पर शमशानघाट होने से नित्य चिताएं प्रज्ज्वलित दिखाई देती थी.

बागेश्वर के आस पास रसीले आम व पपीते खूब हुआ करते थे. घाटी होने के कारण गर्मियों में बहुत गरम हो जाता था. तब मक्खियां भी बहुत बढ़ जाया करती थी. गोमती झूला पुल के पास कई जल संचालित ‘घराट’ चलते थे, जहाँ अनाज पीसा जाता था.

पीपल चौक के पास ‘जीवन गाँधी’ की एक साफ़ सुथरी कपड़े की बड़ी दूकान थी. यह गाँधी शब्द उनके साथ इसलिए जुड़ा बताया जाता था कि जब महात्मा गाँधी बागेश्वर पधारे थे तो उन्होंने उस बालक को अपने गोद में उठाया था.

सराय के पास जिला बोर्ड का एक अस्पताल होता था, वहीं सड़क के ऊपर एक छोटा सा मुर्दाघर भी बना था. हमें उस तरफ जाने पर बड़ा डर सा लगता था.

जब गरुड़-बागेश्वर मोटर मार्ग बन रहा था तो लोगों में बहुत उत्साह था. हम स्कूली बच्चे भी श्रमदान करने गए थे. मुझे याद है मैंने भी रवाईखाल के पास फावड़ा चलाया था. जिस दिन पहली जीप बागेश्वर आई थी, जश्न का माहौल था. कुछ लोगों ने जीप पर पैसे उछालते हुए परखे भी थे.

बागनाथ गली के तिराहे पर नाथूलाल साह की मिठाई की दूकान थी, वहाँ की बालमिठाई, कलाकंद, पेड़े व जलेबी का स्वाद आज भी मुझे याद है.

बर्षा ऋतु में दोनों नदियों में बाढ़ आ जाने पर, पानी सीढ़ियों से ऊपर तल्ली बाजार तक घुस आते भी मैंने देखा है. शायद तल्ली बाजार इसीलिये उजड़ गया था.

दुग बाजार सरयू के उस पार था. उसके आखिर में एक ‘शेषशायी पानी की धारा’ थी, जिसमें हमेशा बहुत ठंडा पानी आता था. गर्मियों में ठंडा पानी लेने वालों की वहां पर लाइन लग जाया करती थी.

मकर संक्रांति पर ३ दिनों के लिए पूरे बाजार में उत्तरायणी का मेला लगता था. उस मेले की रौनक देखने लायक होती थी. कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियां बगड़ पर तम्बू लगा कर लाउडस्पीकर से धुआंधार हल्लागुल्ला करती थी. तिब्बत की तरफ से आये हुए भोटिया व्यापारी ऊनी कम्बल, पंखी, थुलम आदि ऊनी उत्पाद बेचने आते थे. पुल पर भीड़ कम करने के लिए लकड़ी के तीन अस्थाई पुल बनाए जाते थे. संक्रांति पर लोगों की आस्था का यह आलम रहता था कि बेहद ठण्ड में सुबह ४ बजे से गंगा स्नान शुरू हो जाता था. जगह जगह अलाव जलाते थे. तब घरों में भी चीड़ की लकड़ी ही ईंधन के रूप में इस्तेमाल होती थी.

बाजार में आम दिनों में चाय की दुकानों पर मसालेदार चने, पकोड़े, खीरे का रायता तथा आलू की गुटखे भुनी हुई लाल मिर्च के साथ खुले में रखे रहते थे. दो पैसे (पुराना पैसा) में एक दोना भर कर मिलता था. यह सामान आज भी वहाँ रेस्टोरेंटों में मिलता ही होगा, पर बचपन में इनकी कुछ और ही बात होती थी.

जिस प्रकार पुरानी दिल्ली आज भी मौजूद है, और दिल्ली के पँख गाजियाबाद, नोयडा, गुडगाँव, हरियाणा तक फ़ैल रहे हैं, उसी तरह बागेश्वर के पँख भी नदीगाँव, बिलोना, कठायतबाड़ा व मण्डल सेरा तक फ़ैल गए हैं.

इन पक्तियों को लिखते हुए मैं उन कलुषविहीन दिनों को याद करके अपने बचपन में लौट जाना चाहता हूँ.
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शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

नाम की महिमा

नाम से ही मनुष्य की पहचान होती है. होना तो यह चाहिए कि यथा नाम तथा गुण हो, पर ऐसा कम ही हो पाता है. हास्य कवि काका हाथरसी ने ऐसे विरोधाभाषी नाम-गुणों की फेहरिस्त बहुत मजेदार ढंग से अपनी कविता में उतारी है.

बहुत पुरानी बात नहीं है, हमारे एक साथी (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) लोगों के नाम बिगाड़ने में बहुत माहिर थे. इन्दिरा गाँधी को उन्दरा गाँधी, मोरार जी को मरोड़ जी, चरणसिंह को चूरंनसिंह, नरोत्तम को नराधम, धर्मानंद को धर्मान्ध आदि कह कर अपना मुँह बिगाड़ा करते थे. सुनने वालों का क्या, वे तो चुहल का मजा लेते थे.

नाम की महिमा पर मुझे स्व. महावीर प्रसाद शर्मा, एक सीनियर एडवोकेट याद आ रहे हैं, वे कोटा राजस्थान में रहते थे और वकालत किया करते थे. वे सच्चे मानों में सोशलिस्ट थे. गरीब मजदूरों के केस मुफ्त में भी लड़ते थे. उनको लोग ‘महावीरजी’ के नाम से ज्यादा जानते थे. तीन दशक पुरानी बात है. उनको किसी केस में दिल्ली, सुप्रीम कोर्ट में जाना था, उनके एक मुवक्किल की अगले ही दिन जयपुर के लेबर कोर्ट में भी तारीख थी. दिल्ली से रात १० बजे मुम्बई जाने वाली देहरादून एक्सप्रेस ट्रेन से वापसी थी. उन्होंने मुवक्किल को कहा कि सवाईमाधोपुर जंक्शन पर वह स्लीपर कोच के बाहर से आवाज देकर उनको जगाये, जहाँ ट्रेन सुबह लगभग ५ बजे पहुँचती है. सवाईमाधोपुर से जयपुर को तब मीटरगेज गाड़ी चला करती थी.

महावीर जी दिल्ली से वापसी में आराम से सो गए. वे जब गहरी नींद में थे तो उनको खिड़की पर से आवाजें आई ‘महावीरजी’ ‘महावीरजी’ वे हड़बड़ा कर उठे और अपने सामान+बैग सहित तुरन्त उतर गए. ट्रेन वहाँ से केवल ३ मिनट में आगे बढ़ गयी. प्लेटफॉर्म पर इक्के-दुक्के यात्री थे. वे परेशान से अजनबी जगह को पहचानने की कोशिश करते रहे, एक से उन्होंने पूछा “भाई, ये कौन सा स्टेशन है?” उसने बताया “महावीर जी है.”

इस रेल मार्ग पर सवाईमाधोपुर से पहले जैन तीर्थ ‘महावीर जी’ नाम का एक छोटा स्टेशन है. यह किस्सा मैंने खुद उनके मुखारविन्द से सुना था.
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बुधवार, 9 जनवरी 2013

क्या करेंगे अन्ना?

मीडिया की सुर्ख़ियों में आया है कि अजमेर, राजस्थान, के पुलिस एस.पी. को अपने क्षेत्र के थानों से ‘मासिक वसूली’ के पुख्ता प्रमाणों के आधार पर गिरफ्तार कर लिया गया है. रिश्वत की किश्त देने वाले तेरह थानाध्यक्षों को लाइन हाजिर किया गया व दलाल को पकड़ लिया गया है. इस तरह की खबरें पुलिस या अन्य किसी सरकारी विभागों में कोई अपवादस्वरुप नहीं हैं. अपवाद तो तब होगा जब भ्रष्टाचार के गंदे नाले में रहकर कोई कर्मचारी साफ़ सुथरा बाहर निकल आए. जरूर, ऐसे भी लोग होंगे ही, लेकिन उनको अपने भ्रष्ट अधिकारियों की बेवजह प्रताड़नाएं तथा बार बार स्थानान्तरण की मार कितनी झेलनी पड़ती होगी, इसके आंकड़े इकट्ठे करना नामुमकिन है.

हम तो बचपन से सुनते आये हैं कि सिपाही/थानेदार के स्तर से अवैध कारोबारियों/ अपराधियों को सहूलियत-संरक्षण देने के लिए अथवा दुश्मनों को झूठा फंसाने की एवज में जो रुपये लिए-दिये जाते हैं, वे बेहिसाब होते हैं, और उसकी बंदरबांट होती है, जो ऊपर तक जाती है. इसमें दलालों का रोल अहम होता है. यह ‘सच’ कार्यपालिका में बैठे सभी अधिकारियों/राजनेताओं को भलीभांति मालूम रहता है.

वैसे तो सरकारी या गैर सरकारी जिन जिन विभागों से आम जनता का काम पड़ता है, वहाँ निहित स्वार्थों के लिए लोग भी आगे होकर रिश्वत देते हैं या देने के लिये मजबूर होते हैं. उदाहरण के लिए कुछ निम्नलिखित मलाईदार विभाग बहुत बदनाम हैं:

राजस्व विभाग – तहसीलों में अर्जीनिवेश/पटवारी/पेशकार से लेकर रजिस्ट्रार तक का हर सौदे में अपना प्रतिशत तय है. अगर नहीं दिया जाये तो कोई ना कोई नुक्ता लगा कर लटका दिया जाता है.

पी.डब्लू.डी. – सारा कार्य ठेकेदारों के माध्यम से होता है. एक मुहावरा आम है: "ठेकेदार और ईमानदार दो विशेषण एक साथ किसी व्यक्ति के नहीं हो सकते हैं." ये शिकायतें भी आम हैं कि वह मजदूर की मजदूरी देने में बेईमानी करता है और प्रोजेक्ट पर घटिया सामान लगा कर अपना पैसे बनाता है क्योंकि उसे सुपरवाइजर/इंजीनियर को भी उसका तय प्रतिशत देना होता है.

यातायात विभाग – किसी भी आर.टी.ओ. ऑफिस में चले जाइये. लाइसेंस बनवाने से लेकर परमिट, रजिस्ट्रेशन तक के सारे काम में दलालों की भूमिका रहती है. कहने को जगह जगह नोटिस लगाए जाते हैं कि "बिना सुविधा शुल्क दिये अपना का कराएं," पर सब झूठ होता है.

बिजली,पानी, टेलीफोन के विभाग – लाइनमैन, वायरमैन, इलैक्ट्रीशियन या प्लम्बर आपको हर काम की सुविधा शुल्क की रकम बेबाकी से बता देते हैं, जूनियर इंजीनियर से लेकर ऊपर तक यह रकम बांटी जाती है. मजेदार बात यह भी है कि रिश्वत देना अब आम आदमी की आदत हो गयी है.

उद्योगों में कानूनी पंचाट का अकसर खुला उल्लंघन होता है, जिसकी अनदेखी करने के लिए फैकट्री इंस्पेक्टर, लेबर इंस्पेक्टर, सेफ्टी इंस्पेक्टर, ऐक्साईज इंस्पेक्टर से लेकर इन विभागों के कमिश्नर तक की बंदी बंधी रहती है.

कभी कभी ट्रेन के स्लीपर कोच के टी.टी.ई. की एक रात की कमाई किसी किसान की साल भर की मेहनत की कमाई से ज्यादा हो जाती है.

इनकमटैक्स व सेल्सटैक्स विभागों की बात ना की जाये तो अच्छा है.

सुप्रीम कोर्ट के एक माननीय जज महोदय ने व्यंग्यात्मक स्वर में एक बार कहा था, “अब रिश्वत लेने-देने को कानूनी मान्यता दे देनी चाहिए.”

किस किस की सच्चाई लिखी जाये? वकालत के न्यायिक पेशे में कितनी पवित्रता बची रह गयी है? सच को झूठ और झूठ को सच करने की दमदार रस्में और कसमें होती हैं. न्यायाधीश भी जब रिश्वत कांडों में नामित हों तो ईमानदारी खुद शरमा जाती है.

डॉक्टरी के नोबल पेशे में अब खुले आम लूट-भरी कंसल्टेंसी फीस के अलावा उनकी प्राइवेट प्रयोगशालाओं में महंगे जाँच (चाहे अनावश्यक ही हों) पर भारी कमाँई तथा दवाओं में कमीशन एक कैंसर की तरह देश के हर छोटे-बड़े शहरों में व्याप्त हो चुका है.

व्यापार में तो भ्रष्टाचार के कोई मानक तय ही नहीं हैं.

शिक्षा के क्षेत्र में ट्यूशन/कोचिंग की भारी फीस तथा राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं में पैसों का खेल कई बार उजागर हो चुके हैं.

अब ईमानदार केवल वही रह गए हैं, जिनको बेईमानी करनी नहीं आती है या जिनको मौक़ा नहीं मिल पाता.

इस सम्पूर्ण रिश्वत के गोरखधंधे में राजनैतिक नेता शामिल होते हैं, जो कुर्सियों पर आते ही रातों-रात धनांड्य हो जाते है. अकूत संपत्ति इनके खातों में जमा होती रहती है.

धन्ना के खेत को जब बाड़ ही खा रही हो तो स्पष्ट है क्या करेंगे अन्ना?
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सोमवार, 7 जनवरी 2013

पर माँ खुश नहीं है

ले. कर्नल शक्तिसिंह मेहरा ने अपने आवासीय परिसर में एक सर्वेंट क्वार्टर बनाने की योजना बनाई. उनके दिमाग में एक बात आई कि दो कमरों का एक पूरा सेट बना दिया जाये ताकि नौकर के ना रहने की स्थिति में इसमें कोई किरायेदार भी रखा जा सके. और हुआ भी ऐसा ही. उनका वर्तमान घरेलू नौकर उसी शहर में रहता था इसलिए उसे क्वार्टर की जरूरत ही नहीं पड़ी.

घर में किरायेदार रखना और उसे इज्जत के साथ निभाने की कला भी सब मकान मालिकों को नहीं आती है इसलिए कई बार छोटी छोटी बातों पर खटपट, मनमुटाव होना आम बात होती है. इसमें किरायेदार की सोच का भी फर्क होता है क्योंकि कुछ किरायेदार सोचते हैं कि किराया दे रहे हैं, मुफ्त थोड़े ही रह रहे हैं.

कर्नल साहब का नजरिया कुछ अपने ढंग का रहा है. वे किसी व्यापारी या छड़े-छाँट आदमी को किराए पर नहीं देना चाहते हैं. व्यापारी लोग रहन-सहन में बहुत अनुशासित नहीं लगते हैं तथा वक्त जरूरत उनसे घर खाली करावाना भी भारी पड़ सकता है. किरायेदारी क़ानून में सुरक्षा की दृष्टि से, घर केवल ग्यारह महीनों के लिए देने की बात भी सोच रखी थी. अकेले या छड़े व्यक्ति को किराये पर कमरे देने के बारे में मेहरा जी के अलग ही रिजर्वेशन हैं क्योंकि घर में दो जवान बिन ब्याही बेटियाँ भी हैं.

घर के गेट पर ‘TO-LET’ का नोटिस देख कर अनेक लोग आये, पर कर्नल साहब ने सब को अपने तराजू में तोल कर टरका दिया. सोच यह भी थी कि कोई अच्छे परिवार वाला हो, मित्रों की तरह रहे. अच्छा पड़ोसी मिलना भी जीवन का सुख होता है. लेकिन जब विजयसिंह आया तो कर्नल साहब को उसमें कुछ खास नजर आया. वह शानदार टाई-सूट में अपने ऑफिस की नई बोलेरो गाड़ी में खुद चलाते हुए आया था. विजयसिंह ने अपनी कैफियत में कर्नल साहब को बताया कि वह शादीशुदा है, उसका पाँच साल का एक बेटा भी है. उसकी माँ रेलवे में मेडीकल ऑफिसर है, वह मूल रूप से झारखंड का रहने वाला है, और एक नामी हैवी अर्थ मूवर्स मशीनों की बिक्री व रिपेयर्स काम करने वाली कम्पनी का सेल्स मैनेजर है.

विजयसिंह एक एम.टेक., एम.बी.ए, योग्यता वाला ऑफिसर है. लोग उसमें एक ही कमी बता सकते हैं कि वह शक्ल-सूरत से एकदम काला है और चेहरे के नाक नक्श भी बहुत अनाकर्षक हैं.

कर्नल साहब ने सब विवरण लेने के बाद विजयसिंह को कमरे किराए पर देने का निश्चय किया. वह मुँहमाँगा किराया भी देने को तैयार था. उसके नाम में ‘सिंह’ लगे होने के कारण कर्नल साहब को वह जातिभाई भी लग रहा था.

अपने अत्याधुनिक घरेलु सामान के साथ विजयसिंह उस क्वार्टर में रहने आ गया, पर उसके परिवार का कोई सदस्य साथ में नहीं आया. उसने इसका कारण बताया कि पत्नी का स्वास्थ्य खराब चल रहा है इसलिए दिल्ली में अपने माता-पिता के पास है, और ईलाज भी चल रहा है. और कहा कि अगले महीने तक आ जायेगी. लेकिन अगला महीना कहते कहते आठ- नौ महीने बीत गए तो कर्नल साहब को लगा कि विजयसिंह लगातार झूठ बोले जा रहा है. वह उसके प्रति शंकित रहने लगे. शंका ऐसी बीमारी है कि रस्सी भी सांप सी नजर आने लगती है.

इतने में एक दिन विजयसिंह की माँ, मौसी-मौसा, व साथ में विजय का बेटा वहाँ आ पहुंचे. कर्नल साहब ने उन सबसे सवालात पूछ डाले तो मालूम हुआ कि वे लोग ईसाई हैं. विजय सिंह की पत्नी ‘स्कित्जोफ्रेनिया’ (मानसिक रोग) से पीड़ित है. जैसा कि विजय की माँ ने बताया “बहू के  मायके वालों को उसकी बीमारी के बारे में पहले से मालूम था, लेकिन उन्होंने धोखे से उसकी शादी कर दी... बच्चा भी हो गया, पर उसको जब पागलपन के दौरे पड़ते हैं तो वह काटने नोचने को उतारू हो जाती है, यानि हिंसक हो जाती है. इसलिए हमारी तरफ से तलाक का मुकदमा चल रहा है.... उसके मामा लोग दिल्ली में सरकार के बड़े ओहदों पर हैं, उनकी सलाह पर हम पर उल्टे दहेज माँगने का आरोप लगा कर फँसाने की कोशिश की जा रही है. हम बड़े संकट में हैं, इसी चिंता में हम यहाँ आये हैं.”सच तो ये भी है कि माँ विजय से बहुत लगाव रखती है, शादी के दिन जब चर्च में पादरी साहब रस्में पूरी कर रहे थे तो वह बोली  "बेटा आज तक मेरा था, अब आज से पराया हो गया है."

इस बड़े लफड़े को सुनकर कर्नल साहब अजीब पशोपेश में आ गए. ऐसे में घर खाली करने को भी नहीं कह पा रहे थे. कुछ दिनों तक रुकने के बाद परिवार के सभी लोग चले गए. एक दिन अचानक विजयसिंह भी गायब हो गया. उसका मोबाईल भी स्विच-आफ आ रहा था. उसकी माँ को फोन लगाया गया तो उसने बताया कि गिरफ्तारी के डर से विजय भूमिगत हो गया है. उसकी माँ ने कर्नल साहब को कहा कि मकान का मासिक किराया वह उनके बैंक खाते में डालती रहेंगी.

इस प्रकार क्वार्टर ६ महीनों तक बन्द रहा, किराया आता रहा, पर कर्नल साहब को यह स्थिति बहुत अप्रिय लग रही थी. उन्होंने मानस बना लिया कि जब भी विजयसिंह लौटेगा वे उससे घर खाली करने को कहेंगे. इस सारे मामले के कारण कर्नल साहब के परिवार वाले भी अनावश्यक तनाव झेल रहे थे.

एक सुहानी सुबह विजयसिंह अपनी पत्नी इरावती व बेटा पौलुस के साथ लौट आया. कर्नल साहब को जल्दी ही मालूम हो गया कि पति पत्नी में सुलह-समझौता हो गया है. इरावती का स्वास्थ्य भी ठीक है. विजयसिंह पत्नी व बेटे के साथ खुश नजर आता है. आपसी वार्तालाप से कर्नल साहब को यह आभास हुआ कि बेटे और बहू के झगड़े में विजय की माँ का हाथ था. वह बहुत गुस्सैल है और बात बात में बहू पर अनर्गल आरोप लगाती रही है.

परिवार के एकीकरण का श्रेय विजयसिंह इरावती को देता है. वह यह भी बताता है कि उनके इस सुलह से माँ खुश नहीं है.शायद यह एक गहन मनोवैज्ञानिक मसला है क्योंकि विजयसिंह की माँ खुद भी एक तलाकशुदा औरत है.
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शनिवार, 5 जनवरी 2013

चुहुल - ४१

(१)
एक दादा-दादी के जोड़े ने अपनी शादी की पचासवीं सालगिरह (गोल्डन जुबली) को यादगार बनाने के लिए कुछ नए ढंग से मनाने के बारे में सोचा. उन्होंने सोचा कि अपने अविवाहित दिनों की याद ताजा करने के लिए, सेंट्रल पार्क के लवर्स पॉइंट पर जाकर मिलेंगे.
दादा जी बनठन कर हाथ में लाल गुलाब लेकर वहाँ पहुंचे और बड़ी देर तक इन्तजार करते रहे, पर दादी नहीं पहुँची.
घर लौटकर दादा जी ने नाराजी दिखाते हुए पूछा, “तू आई क्यों नहीं?”
दादी ने शैतान नादान लड़की की तरह जवाब दिया, “मम्मी ने मना कर दिया था.”

(२)
एक शराबी बार से निकल कर झूमते हुए पास के रेस्तरां में खाना खाने पहुँचा. वहाँ पहुँचते ही वेटर से बोला, “इधर गर्मी बहुत है. ए.सी. चालू करो.” वेटर ने तुरन्त स्विच आन कर दिया. थोड़ी ही देर बाद शराबी फिर बोला, “ठण्ड लग रही है. ए.सी. बन्द करो.” इस प्रकार आधे घन्टे के दौरान जब उसने खाना खाया तो उसने वेटर से पाँच बार ए.सी. चालू-बन्द करने को कहा.
जब वह चला गया तो दूसरे टेबल पर बैठे हुए एक दूसरे ग्राहक ने वेटर से पूछा, “तुम उस शराबी की बात पर बार बार स्विच बाक्स पर क्यों जा रहे थे?”
वेटर बोला, “वह ए.सी. ऑन-ऑफ करने को कह रहा था, हमारे यहाँ ए.सी. तो है नहीं, मैं पँखा ही ऑन-ऑफ करता रहा.”

(३)
गली में एक मकान के गेट पर एक छोटा बच्चा घंटी बजाने के लिए उसके स्विच पर उचक-उचक कर कोशिश कर रहा था पर उसका हाथ स्विच तक नहीं पहुच पा रहा था. उसकी परेशानी देख कर गली से गुजरते हुए एक बुजुर्ग उसकी मदद को आगे आये और घंटी का स्विच दबाकर अन्दर घंटी बजा दी. फिर बच्चे से प्यार से बोले “अब और क्या करना है?”
बच्चा बोला, “अब यहाँ ने भाग जाना चाहिए.”

(४)
इंजिनियरिंग कॉलेज के छात्रों द्वारा एक हवाई जहाज बनाया गया. उड़ान के उद्घाटन के लिए कॉलेज के प्रोफेसरों व प्रिंसिपल को बुलाया गया. उड़ान भरने से पहले सारे प्रोफ़ेसर विमान में से उतर गए क्योंकि उनको इसमें खतरा लगा रहा था, लेकिन प्रिंसिपल साहब नहीं उतरे. उनसे पूछा गया कि "आपको डर नहीं लगता है?”
प्रिंसिपल साहब बड़े इत्मीनान से बोले, “मुझे मालूम है, ये उड़ेगा ही नहीं.”

(५)
एक नेत्रहीन व्यति अपने ट्रेन्ड कुत्ते की जंजीर थाम कर सड़क जा रहा था. पर पता नहीं आज कुत्ता बदमाशी पर क्यों उतर आया था. मालिक को जानबूझ कर गड्ढों या उबड़-खाबड़ रास्ते से ले जा रहा था. मालिक ने कुत्ते को रोका, अपनी जेब से एक बिस्किट निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाया. बगल में चल रहे एक सज्जन ने यह सब देखा तो बोला, “ये आपको जानबूझ कर खराब रास्ते ले जा रहा है फिर भी आप इसको बिस्किट दे रहे हैं?”
नेत्रहीन व्यक्ति बोला, "बिस्किट दिखा कर मैं यह जानना चाहता हूँ कि इसका मुंह किस तरफ है, मैं इसके पिछवाड़े एक लात लगाना चाहता हूँ.”
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गुरुवार, 3 जनवरी 2013

बनस्थली - एक ज्ञानपीठ

पूर्वी राजस्थान के टोंक जिले में, निवाई रेलवेस्टेशन से थोड़ी सी दूरी पर कन्याओं के लिए एक शिक्षास्थली की शुरुआत सं १९३५ में स्वर्गीय पण्डित हीरालाल शास्त्री व उनकी पत्नी रतना जी ने की. उसी दौरान उनकी १२ वर्षीय बेटी शांता की अल्पकालिक बीमारी के कारण देहावसान हो जाने पर, उनके लिए यह जीने का आधार, या यों कहिये जीवन का मिशन, बन गया. पण्डित हीरालाल शास्त्री एकीकृत राजस्थान के प्रथम मुख्यमन्त्री भी रहे.

इस गाँव का आदि नाम ‘बनथली’ था, जो परिष्कृत होकर ‘बनस्थली’ कर दिया गया. प्रारभ में मात्र ४-५ लडकियों को शिक्षित करने से आगे बढ़ाते हुए कालान्तर में स्कूली शिक्षा तथा विश्वविद्यालयी विषयों तक पहुँच गया. कॉलेज से यह ‘डीम्ड युनिवर्सिटी’ बना, और अब पूर्ण विश्वविद्यालय है. जिस प्रकार कविवर रवीन्द्रनाथ टैगौर का सपना ‘शांतिनिकेतन’ के रूप में साकार हुआ उसी तरह पण्डित हीरालाल शास्त्री का यह महान सामाजिक अध्यवसाय लडकियों के लिए आधुनिक भारत के अग्रगण्य शिक्षा केन्द्र के रूप में विकसित है.

रेतीली धरती में खारे पानी वाली जमीन पर ८०० एकड़ क्षेत्र में बसा यह कैम्पस बालिकाओं के लिए अनूठे ज्ञानपीठ के रूप में स्थापित है. जहाँ सुदूर आसाम-मेघालय तथा अंडमान-निकोबार की लडकियाँ भी आकर शिक्षा प्राप्त करती हैं. यहाँ बिलकुल सादगीपूर्ण रहन-सहन + खादी धारण व नैसर्गिक रिहायशी वातावरण लडकियों को मिलता है. यह प्रारम्भ से ही महात्मा गांधी जी की परिकल्पनाओं वाली संस्थान बन गयी थी. उन्होंने खुद इसकी भरपूर तारीफ़ की थी. देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने यहाँ आकर एक बार कहा था, “अगर मैं लडकी होता तो यहीं पढना पसन्द करता.”

आज यह विश्वविद्यालय अपनी चरम पर है. घुडसवारी से लेकर सैनिक शिक्षा व विमान चलाने तक के व्यवहारिक ज्ञान के अलावा समस्त आधुनिक विज्ञानों की टैकनोलोजिकल विषयों में उत्तम ज्ञान की प्रामाणिक शिक्षा पाकर लडकियां, राष्ट्र-निर्माण से लेकर अंतर्राष्ट्रीय विधाओं में अनेकानेक क्षेत्रों में अपना योगदान कर रही हैं.

सं १९९० में इसका एक छोटा कैम्पस राज्य की राजधानी जयपुर के ‘सी-स्कीम’ क्षेत्र में भी बनाया गया. इस विश्वविद्यालय की विषयों-विधाओं और संभावनाओं के बारे में इंटरनेट पर सारी जानकारी उपलब्द्ध है.

इस महान संस्थान से सौभाग्य से मेरा भी सम्बन्ध रहा है कि मेरी बेटी गिरिबाला जोशी ने यहीं से इनोर्गेनिक कैमिस्ट्री में एम.एससी. किया था. आज जब कि देश की ५०% आबादी के उत्त्थान व सुरक्षा पर गहन चिन्तन हो रहा है तो इस संस्थान की सेवाओं तथा उपलब्द्धियों पर गर्व हो रहा है. इस अवसर पर मैं बारम्बार संस्थान से जुड़े हुए छात्राओं, शिक्षिकाओं और प्रशासनिक व्यवस्था में लगे सभी लोगों को हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करना चाहता हूँ.
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मंगलवार, 1 जनवरी 2013

दस्तूर

मुझे मालूम था –
 ‘हमेशा की तरह तुम
   इस बार भी
    ठीक आधी रात को
     मुझे मेरी शीतनिद्रा से जगाओगी.

मैं अर्धमूर्छित सा
 अलसाए बदन
  गतवर्ष के दु:स्वप्नों को भूलकर
   तुम्हारे छुवन से जागृत हो जाऊंगा.
    ज्यों पत्रविहीन आड़ू के पेड़ को-
     वसंत-वयार की छुवन हो.
      वैसे ही छोटे छोटे बैगनी रंग के पुष्प से-
       सारे बदन में उग आयेंगे’.

तुमने उसी पुराने अंदाज में कहा
 “नववर्ष शुभ हो.”
  मैं भी तो यही चाहता हूँ,
  "सब शुभ हो-
    प्यार ही प्यार हो,
     प्यार ही आधार हो,
     और खुशियाँ अपार हों."
                ***