बुधवार, 30 नवंबर 2011

कविता का अन्तिम सोपान


अगर आप उमर खय्याम रचित रुबाईयां पढेंगे तो आपको लगेगा कि हरिवंश राय बच्चन जी ने अपनी मधुशाला का पूरा प्रारूप वहीं से लिया है क्योंकि बहुत समानार्थक भाव मधुशाला में उकेरे गए हैं. बच्चन जी महान विद्वान लेखक व कवि रहे हैं. उनकी वाणी और लेखनी की तुलना नहीं की जा सकती है. मैंने आज से पैंतालीस वर्ष पूर्व अपनी जवानी के दिनों में अनेक तुक्तक लिखे थे. एक आठ सोपान वाली काव्य रचना, जिसकी नायिका कविता को संबोधित करके ये पद्य लिखे हैं. यहाँ मैं उसके अन्तिम सोपान को उद्धरित कर रहा हूँ. इस रचना में मैंने सीधे सीधे चोरी तो नहीं की है पर प्रेरणा पूर्ववर्ती आदरणीय कवियों से ही ली है:

इस चोली को बदल-बदल कर
       लिखता जाऊंगा मैं कविता
कल्पान्तर तक बहती जाये
       श्रद्धा-प्रेम अनुराग की सरिता.

देह मरे जब शोक न करना
        जग भटकेगा देख के सरिता
इस तन के अन्दर बैठा ईश्वर
       कभी न मरता जैसे कविता.

दाह करन को लाश उठाओ
       मत ले जाना संगम सरिता
राम नाम सा शब्द न होवे
        बोले जावें बस कविता-कविता.

सुन्दर सा हो दृश्य जहाँ पर
       तृन-पल्लव सब गावें कविता  
दुष्ट-काष्ट की चिता हो केवल
        महोप्देश सी धूम्र की सरिता.

भष्म कणों को अस्थि-कलश में
       उठवा ही यदि लाओ कविता
ऊंचे से कोई स्तूप पे रखना
       सुनते जावें जो नित कविता.

सुबक-सुबक कर कभी न रोना
        जब भर आये यादों की सरिता
तीब्र अकेलेपन में प्रेयसी
       मन बहलाना पढ़ कर कविता.

मेरा स्मारक तुम खुद ही हो
        मन ना माने तो सुन कविता
चौराहों पर भित्ति बना कर
        खुदवा देना एक-एक कविता.

प्रिय, देहान्तर पर श्राद्ध न करना
        कभी न भटकेगी ये सरिता
कविता-प्रेमी कुछ बुलवा कर
        पढ़वा देना एक-एक कविता.

नर नारी या वाल-वृन्द जो
        सुने प्रेम से मेरी कविता
इस रस में ही ओत-प्रोत हो
        धर्म बतावें खुद भी कविता

वे न फसेंगे व्यथा जाल में
        बिन अवरोध बहे ज्यों सरिता
जिसके श्रवण से सुख व्यापे
       धन्य-धन्य हो प्यारी कविता.
                  ***

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

मेरी मॉम का दोस्त


मैं, डेविड फ्रेंकलिन, गौड को हाजिर नाजिर करके जो कुछ भी कहूंगा सच-सच कहूंगा. मेरा डैड जोजफ फ्रेंकलिन एक एंग्लोइन्डियन था और मेरी मॉम एक गोवानी केथोलिक. इन दोनों की प्रेम कहानी का मुझे ज्यादा मालूम नहीं है, पर मेरा ये सोचना था कि मेरा डैड बहुत अच्छा आदमी रहा होगा. उसमें एक अंग्रेज के सभी संस्कार व आदतें रही होंगी. मैं बहुत छोटा था तभी वह ना जाने किस बात पर मॉम से अनबन करके इंग्लेंड चला गया था. उसके बाद पलट कर वापस नहीं आया. मैं हमेशा ही उसकी कमी को महसूस करता रहा.

मेरी मॉम डोरिया मेस्कारिन्हास एक नर्स थी. वह मेरी तरह गोरी चमड़ी की तो नहीं थी पर ज्यादे काली भी नहीं थी. वह मुझसे बेहद प्यार करती थी. प्यार तो डैड भी करता था लेकिन उसका प्यार पक्का नहीं था, अगर वह पक्का प्यार करता होता तो मुझे यों अकेला छोड़ कर नहीं जाता. मैं उससे अब नफरत करता हूँ. उससे ज्यादा प्यार तो मुझे अंकल डाक्टर स्टीफन से मिला जो मेरे लिए बाप से भी ज्यादा केयरिंग था, डियर और नियर भी.

डाक्टर स्टीफन मेरी मॉम का दोस्त था. वह उम्र में मॉम से बहुत बड़ा था. वीकएंड्स पर हमारे घर आता रहता था. मुझे उसका सानिध्य बहुत अच्छा लगता था. वह बहुत मजेदार बातें करता था और मुझे नई नई बातें बताता था. मैं थोड़ा समझदार होने लगा तो मॉम ने मुझे अपने शहर रतलाम से दूर इंदौर के मिशन स्कूल में डाल दिया. ये सब मजबूरी भी थी क्योंकि मॉम को मेरी वजह से नाईट ड्यूटी करने में बहुत परेशानी हो रही थी. वह मुझे तब आया के भरोसे छोड़ना पसंद नहीं करती थी.

हॉस्टल में मुझे मॉम की बहुत याद आती थी, कभी कभी भाग कर रतलाम जाने का मन करता था. महीने-दो महीने में मॉम मुझसे मिलने इंदौर जरूर आती रहती थी. कभी कभी डाक्टर अंकल भी साथ में आता था. ना जाने क्यों अब मुझे उसका साथ में आना अच्छा नहीं लगता था. मेरे दोस्त जब उसके बारे में पूछते थे कि क्या ये तुम्हारा डैड है? तो जवाब देने में मुझे शर्म सी आने लगती थी कि वह मेरे मॉम का दोस्त है.

मैंने एक बार मॉम से कहा भी कि अंकल का आपके साथ आना मुझे अच्छा नहीं लगता है तो मॉम ने तुनक कर कहा ह्वाट हैपंड? ही इज अवर फ्रेंड. पता नहीं मेरे मन में बसा हुआ चोर मॉम व अंकल के आपसी रिश्तों के बारे में बहुत गलत-गलत सोचने लगा. मुझे लगने लगा कि हो ना हो मेरा डैड इसी आदमी के कारण हमको छोड़-छाड़ कर गया हो? दिन रात यही विचार घूमता रहता था कि क्या मैं मॉम की गलती का शिकार हूँ? क्या इसी बात से खफा होकर मेरा डैड हिन्दुस्तान छोड़ कर गया?

मैं कॉलेज में पहुंचा तो इस बाबत ज्यादा सेंसिटिव हो गया. ऐसे ऐसे गलत ख़याल मन में आते थे और मैं अन्दर ही अन्दर उग्र होने लगा. मॉम के बारे में सोचता था कि ना जाने उसको कितनी मजबूरी झेलनी पड़ी होगी? माँ तो माँ है मेरी रगों में उसी का तो खून दौड़ रहा है. कुछ सोच ऐसी भी थी कि मैं बोल भी नहीं सकता था और मैं अत्यधिक बेचैन रहने लगा था.

मेरा जिगरी दोस्त सुजान सिंह, मेरा रूम मेट भी था. वह एक रियासत के ठिकाने का ठाकुर-बन्ना था. उसमें अनेक राजसी गुण-लक्षण थे. एक दिन जब मैं बहुत तनाव में था तो उसने कुरेद कर मुझसे मेरी सारी उलझन उगलवा ली. उसने कहा कि उसके पास १२ बोर की रिवाल्वर है जिससे डाक्टर स्टीफन को हमेशा के लिए मेरी मॉम की जिंदगी से हटाया जा सकता है. हम दोनों ने क्रिसमस की छुट्टियों में इस काम को अंजाम देने का पक्का प्लान बना लिया.

सुजान और मै छुट्टियों में रतलाम मेरे घर आ गए. मॉम बहुत खुश थी. क्रिसमस की तैयारी में जुटी हुई थी पर हमारे मन में कुछ और ही चल रहा था. मैं अपने डैड की पुरानी एल्बम सुजान को दिखाना चाहता था और मॉम की अलमारी के सेफ्टी कवर में खोज रहा था तो मुझे मॉम की एक पुरानी डायरी मिल गयी. उत्सुक्ताबस मैंने वह डायरी निकाल ली और सुजान के साथ मिलकर उसे पढ़ने लगा. डायरी में मॉम ने मेरे पैदा होने के पहले की बातों से लेकर बाद में हुए डेवलपमेंट्स को बहुत करीने से वर्णन किया था. उसके कुछ अंश इस प्रकार है:   
जोजफ फ्रेंकलिन ने मेरे साथ रेप किया था और मुझे मजबूर करके मेरे साथ शादी की.... जोजफ बहुत बदचलन था उसने बहुत सी लड़कियों को बर्बाद किया.... वह लड़कियों को ब्लैकमेल करके उनका शोषण करता था.... उसने मुझे जान से मरने की कोशिश भी की थी.... डाक्टर स्टीफन मेरा बड़ा भाई की तरह है. उसने हर मुसीबत में मुझे सहारा दिया.... वह गौडफियरिंग इंसान है.... चरित्रवान और ईमानदार है.... अगर डाक्टर स्टीफन मुझे मेंरे बेटे की पढाई व व्यवस्था के बारे में मार्ग दर्शन नहीं करता तो वह ना जाने किस गली में गुम रहता.... आखिर में ये भी लिखा था कि दुनिया उसके और मेरे बारे में कितनी गन्दी बातें करती रही पर वह मेरे लिए बाप से बढ़ कर है. God bless him.”

डायरी में और भी अनेक सन्दर्भों का जिक्र था जिनको पढ़ कर मेरा दिल भर आया आखों में आंसू छलक आये. मुझे अपनी गन्दी सोच पर बड़ा अफ़सोस हो रहा था. सुजान भी डायरी पढ कर बहुत भावुक हो गया था बोला, हम कितना गलत काम करने जा रहे थे? जिसको तुम्हारी मॉम ने देवदूत तक कहा है हम उसकी ह्त्या करना चाहते थे. Sorry, very sorry.”

इस बात को आज पचास वर्ष बीत गए हैं. अब इस संसार में न मेरी मॉम है और ना अंकल डाक्टर स्टीफन. मैं हर मौके पर मॉम की कब्र के अलावा अंकल की कब्र पर भी श्रद्धा के पुष्प चढ़ा कर आता हूँ. दुआ करता हूँ, ‘May his soul rest in peace!’
                                                                          ***          

सोमवार, 28 नवंबर 2011

झगड़े की जड़


दयाराम आर्मी के इन्फेन्ट्री में ड्राईबर हो गया था. जब उसकी घरवाली का पहला बच्चा होने वाला था तो वह लम्बी छुट्टी लेकर घर आ गया था. पत्नी केकयी ने जब बेटे को जन्म दिया तो दयाराम ने आधी रात में ही थाली और शंख बजा कर सारे गाँव को जगा दिया था. तीन दिनों तक गुड़ की भेलियाँ फूटती रही और बच्चे के नामकरण पर पूरे गाँव-बिरादरी व रिश्तेदारों को दाल-भात की दावत खिलाई थी.

समय जाते देर नहीं लगती है. जब वह १५ वर्षों के बाद वह रिटायर हो कर घर आया, वह तीन लड़कों का पिता भी बन चुका था. लड़कों के नाम रखे थे राकेश, राजेश, और रीतेश. तीनों बेटे किशोर वय में थे. बड़े चँचल और होशियार भी थे पर पढ़ने लिखने में ज्यादा रूचि नहीं थी.

दयाराम ने एक टैक्सी खरीद ली और अल्मोडा-नैनीताल के पर्यटकों को घुमाने का काम पकड़ लिया. साथ ही गाँव में एक खंडहर वाली जमीन पर नया मकान बनाने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी. पति-पत्नी व तीनों बच्चे साथ मिलकर जगह को साफ़ करके खुद ही बुनियाद खोदने लगे तो एक छोटी सी ताम्बे की हँडिया में पुराने जमाने के बीस सोने के सिक्के निकल आये. आपस में सलाह मशविरा कर के तय किया कि ये बात गुप्त रखी जाये. बाहर के लोगों को कानों-कान खबर न दी जाये.

मकान बन गया. उसमें रहने भी लग गए, पर ये दहशत हमेशा बनी रही कि सोने के सिक्के कोई चुरा न ले जाये. इसलिए बच्चों को बताए बगैर दयाराम ने एक छोटे से टिन के डब्बे में सिक्के बंद करके घर के पिछवाड़े गहरा खड्डा खोद कर छुपा दिया.

बच्चे जल्दी जल्दी बड़े हो रहे थे, और घर में गाड़ी होने से चलाना भी सीख गए. राकेश के अठारह साल के होते ही ड्राइविंग लाइसेंस बना दिया गया ओर वह दूसरों की गाड़ी चलाने लग गया. वह अब अपने पिता से कहने लग गया कि सोना बेच कर उसके लिए भी एक टैक्सी खरीद दें. इस बात पर राजी नहीं होने पर बाप-बेटे में तकरार होने लगी. इसी कसमकश के बीच राकेश की शादी भी कर दी गयी. अब तो राकेश सोने के सिक्कों के बंटवारे की बात करने लगा. बात बहुत बढ़ गयी तो वह एक दिन नाराज होकर अपनी पत्नी के साथ घर छोड़ कर पास शहर में किराए से कमरा लेकर रहने लगा. उसे एक स्कूल बस चलाने की नौकरी मिल गयी थी.

इधर दयाराम ने एक दिन जब घर के पिछवाड़े खजाना निकालने के लिए खुदाई की तो उसके हाथ-पाँव फूल गए क्योंकि बहुत खोदने के बाद भी उसे वह नहीं मिला. वह हैरान था कि कैसे सोना चोरी चला गया? उसका शक घूम फिर कर राकेश पर जाता था. ज्योतिषियों व पुछ्यारों से पूछ-ताछ की गयी तो उन्होंने भी यही बताया कि घर के ही किसी सदस्य ने ये कारस्तानी की है. फिर क्या था दयाराम को पूरा यकीन हो गया कि ये काम नालायक बेटे राकेश का ही था. एक दिन उसने राकेश को बुला कर कहा कि वह सोने का बँटवारा करने को तैयार है. और फिर राकेश से पूरे सिक्के लौटाने को कहा. राकेश इस प्रकार झूठा इल्जाम लगने पर गुस्से व ताव में आ गया. बात यहाँ तक बढ़ गयी कि बाप-बेटे में हाथापाई हो गयी. आखिर में नौबत यहाँ तक आ गयी कि तू मेरा बाप नहीं, मैं तेरा बेटा नहीं कह कर राकेश घर से चला गया.

एक साल बाद जब राकेश की पत्नी ने एक बच्चे को जन्म दिया तो राकेश ने गाँव में आकर घर घर जाकर बच्चे के नामकरण की दावत में शामिल होने का निमंत्रण लोगों को दिया, सभी ने उसको बधाई दी. उसके पड़ोस में रहने वाले पंडित धर्मानन्द ने उससे पूछा, अपने बाप को भी निमंत्रण दिया कि नहीं?

इस पर राकेश तमक कर बोला ताऊ, उसके लिए तो मैं मर गया हूँ. निमंत्रण क्यों दूँ?

पंडित धर्मानन्द बड़े बुजुर्ग और संजीदा पुरुष थे उन्होंने कहा, बेटा, झगड़ा झगड़े की जगह है, पर तेरे ऊपर पित्र-ऋण भी है. तू बड़ा बेटा है. यों ही मर गया कह कर कोई मरता है क्या? तेरे पैदा होने पर तेरे बाप ने सारे गाँव को अपनी खुशी में शामिल किया था. हम तेरा निमंत्रण तभी स्वीकार करेंगे जब तेरा बाप उसमे शामिल होगा.

पंडित धर्मानन्द ने उसके सामने ही दयाराम को बुला कर पूरी बात सुनी और कहा, पुछीयारों की बात पर मत जाओ ये सब अंदाजे से बोलते हैं. पहले तो इस तरह धन गाढ़ना, छुपाना बेवकूफी है, अगर गाढ़ रखा है तो वहीं होगा. ठीक से गहराई तक खोद कर देखो.

बात बन गयी गाँव के चार-पाँच नौजवान इस खुदाई में शामिल हो गए. सचमुच काफी गहराई में टिन के डिब्बे के जंग लगे अवशेष के साथ पूरे सिक्के मिल गए.

दयाराम बहुत खुश हुआ उसको बेटे पर संदेह करने का बड़ा अफ़सोस हो रहा था. गाँव के सभी मातबर लोगों के उपस्थिति में उसने सारे सिक्के मंदिर के जीर्णोद्धार के लिये सभापति को सोंप दिए और बेटे राकेश को दो लाख रुपयों का चेक अपनी पेन्शन में से बचाई रकम में से दे दिया.

झगड़े की जड़ खतम हो गयी. राकेश के बच्चे का नामकरण गाँव में ही पारंपरिक तरीके से दाल-भात खिलाई करके किया गया.
                                      ***

रविवार, 27 नवंबर 2011

एसीसी लाखेरी के विश्वकर्मा


सन १९६० में लाखेरी में ए.सी.सी. (एसोसिएटेड सीमेंट कंपनी) के मैनेजर श्री पालेकर थे. बताते हैं कि उनसे पूर्व, प्रथम भारतीय मैनेजर श्री आर.एन. जय थे. उससे पहले सभी मैनेजर योरोपीय थे. पालेकर के बाद क्रमश: सर्व श्री महेंद्र सिंह रियल, कृष्णमूर्ति, पाई, राव, दुआ, जे.के. वालिया, पी.डी.ला, पी.एन.माथुर, गोविल, ओ.पी. जागेटिया व एन.एम्.शर्मा थे. मेरे कार्यकाल के आख़िरी सात वर्षों में, यानि १९९३ से श्री प्रेमकुमार काकू फैक्ट्री के जनरल मैनेजर/वाइस प्रेसिडेंट थे.

मैं सर्विस डिपार्टमेंट का कर्मचारी था. फैक्ट्री संचालन व प्रशासन से मेरा कोई वास्ता नहीं था लेकिन जब मैं कर्मचारी यूनियन का नेता बना तो सीधे तौर पर मैनेजमेंट के संपर्क में आने लगा. पर यूनियन प्रतिनिधि के रूप में मेरा चरित्र बिलकुल अलग किस्म का होता था.

बिट्स पिलानी के ग्रेजुएट श्री काकू के विषय में मुझे धुंधली सी याद है कि सन १९७०-७४ के बीच मैंने उनको कर्नाटक के शाहाबाद/वाडी कारखाने में एक नौजवान जूनियर इंजीनियर के रूप में देखा था. बाद में वे अस्सी के दशक में चीफ इंजीनियर बन कर लाखेरी आये. मेरा तब मी उनसे विशेष मेलजोल नहीं था.

यद्यपि फैक्ट्री पुरानी व खटारा स्थिति में थी, श्री काकू पर प्रोडक्शन संबंधी बड़ी जिम्मेदारी थी. कारखाने के लिए वे एक नर्स की तरह थे, जो मरीज की अंदरूनी हालत से पूरी तरह वाकिफ रहता है. कहाँ तार खराब हैं? कहाँ कन्वेयर बेल्ट कमजोर है? और कहाँ कहाँ नट बोल्ट ढीले हैं? सभी कुछ उनकी जानकारी में रहता था. मरीज ज्यादा बीमार हो तो डाक्टर की नींद-चैन कम होना स्वाभाविक है. उन दिनों की स्थिति वही ज्यादा जानते हैं. हम तो केवल अनुमान ही लगा सकते हैं.

उसके बाद उनका स्थानांतरण हो गया. जामुल, गागल, व मदुक्कराई में प्रमुख पदों पर होते हुए १९९३ में वे जनरल मैनेजर बन कर लाखेरी आ गए. तब तक लाखेरी में काफी उधेड़-बुन हो चुकी थी. उस संक्रमण काल में उनके अनुभव व अध्यवसाय का नमूना आज का नया कारखाना सबके सामने है. नए प्लांट को लगाने में वे विश्वकर्मा के भूमिका में थे. जिस तरह से निर्धारित समय में प्लांट तैयार हुआ, यह कहा जा सकता है कि उनका अथक फौलो-अप तथा निगरानी प्रशंशनीय है.

'घोड़ा उड़ सकता है' इस मुहावरे के वे प्रेक्टिकल रूप से साक्षी रहे हैं. उनको मैंने बहुत नजदीक से देखा और समझा है. वे काम के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति थे इसलिए अपने मातहतों से भी यही अपेक्षा करते थे. कुछ लोगों की धारणा थी कि वे बहुत सख्त आदमी है. यदि सख्ती नहीं होती तो सुखद रिजल्ट कभी नहीं मिलते. सच तो ये है कि वे अन्दर से नरम और दयालु व्यक्ति थे. बीमार कर्मचारियों या उनके आश्रितों को उन्होंने जिस प्रकार मदद की उसकी मिसाल नहीं है. कालोनी के रिहायसी मकानों में उन्होंने बहुत सुधार किये. सुरक्षा के प्रति उनका विशेष ध्यान रहता था. इस बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए उन्होंने अनेक कार्यक्रम चलाये थे.

वे वृक्ष-मित्र की उपाधि से नवाजे गए थे क्योंकि पर्यावरण के बारे में उनकी सोच विलक्षण है. उन्होंने लाखेरी में ही नहीं गागल, जामुल, व मदुक्कराई, जहाँ भी रहे, लाखों पेड़ लगवाए. उनका वानकी कार्यक्रम एक जूनून की तरह रहा.

उनके कार्यकाल में सरकारों के तमाम विभागों में लाइजनिंग इतना अच्छा था कि सब तरफ मित्रता के हाथ उठते थे.

पारिवारिक जीवन में, जैसा मैंने देखा, वे सात्विक किस्म के इंसान हैं. मुझे उनके ९०+ आयु के पिता स्वर्गीय एच.के. काकू जी की मेडिकल व्यक्ति के रूप में कई बार सेवा करने का अवसर मिला. वे योग्य पुत्र के संतुष्ट पिता थे. श्रीमती लता काकू एक सरल, सुहृद गृहिणी ही नहीं विदुषी भी हैं. मैं सन २००२ में अपनी बेटी-दामाद और नातिनी से मिलने जब फिलीपींस गया तो मुझे नातिनी हिना के बुकसेल्फ़ में श्रीमती लता काकू की लिखी कहानियां (चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित्) मिली. मैं उनकी इस प्रतिभा से परिचित नहीं था. लाखेरी के सामाजिक कार्य कलापों में भी उनकी पूरी भागीदारी रहती थी. काकू दम्पति की दो बेटियाँ हैं अब दोनों विवाहित हैं अपने अपने परिवारों के साथ सुखी-संपन्न हैं.

एक विशेष बात मैं लिखना नहीं भूलूँगा कि श्री काकू कर्मचारियों के बच्चों की अच्छी शिक्षा के बारे में हमेशा चिंतित रहते थे. उन्होंने अपने कार्यकाल में लाखेरी कालोनी परिसर में स्थित D.A.V. Public School की काया पलट करवाई. वे स्वयं स्कूल के कार्यकलापों में हिस्सा लेते रहे. भावी पीढ़ी के प्रति उनका ये आदर्शभाव प्रशंशनीय है.

रिटायरमेंट के बाद वे गुलाबी नगरी जयपुर में बस गए हैं और अभी भी अनेक संगठनों से जुड़ कर सक्रिय हैं. मै थोड़े से शब्दों में उनके स्वस्थ व सुखी रिटायर्ड जीवन की कामना करता हूँ.
                                              ***   

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

घोड़ा उड़ सकता है

घोड़ा उड़ सकता है.
पिछली शताब्दी के दूसरे दशक में जब मुम्बई-दिल्ली रेल लाइन की सर्वे हो रही थी तो एक अंग्रेज इंजीनियर ने कोटा व सवाई माधोपुर के बीच नीले पत्थरों की खेप पाई. वह कुछ नमूने अपने साथ इंग्लैण्ड ले गया. एनेलिसिस के बाद पाया कि पत्थर हाई ग्रेड लाइम स्टोन है जो सीमेंट बनाने के लिए अति उपयुक्त है. इस प्रकार मुम्बई के कुछ उद्योगपति व बूंदी के हाड़ा  नरेश के साथ मिलकर ‘BBB’ ब्रांड से सीमेंट बनाने की एक छोटी सी इकाई की स्थापना लाखेरी में की गयी. उस समय की वह नवीनतम टैक्नोलाजी आज की तुलना में काफी पुरानी थी.  

सन १९३७ में कई सीमेंट कंपनियों ने एकीकरण करके नई कम्पनी ACC  बनाई, लाखेरी यूनिट भी उसमें समाहित हो गयी. लखेरी मुख्य रेलवे लाइन के पास था. रा-मैटीरियल चूना पत्थर प्रचुर मात्रा में था, मजदूर सस्ते और उपलब्द्ध थे, पानी के लिए मेज नदी थी. कारखाना खूब मुनाफ़ा देता रहा.

मालिकों (शेयर होल्डर्स) उद्योग चलाने के लिए प्रोफेशनल नियुक्त कर रखे थे. आजादी के बाद पारसी उद्योग-पतियों का इसमें बर्चस्व रहा, टाटा भी बड़े शेयर होल्डर थे.

देश में दर्जनों छोटे-बड़े सीमेंट उद्योग आते रहे, जिनके मुकाबले में पुराने वेट-प्रोसेस प्लांट बहुत कम प्रोफिट दे रहे थे. या कहीं कहीं घाटा भी देने लगे थे. सीमेंट बिक्री कीमत पर सरकारी नियंत्रण होने से उद्योग वर्षों तक खुले में साँस नहीं ले पाया. बाद में आंशिक कंट्रोल कर लेवी सिस्टम लागू हुआ पर उद्योग में जान तब आई जब पूरी तरह डीकंट्रोल कर दिया गया. ए.सी.सी. की विशेषता ये थी कि इसने हमेशा क्वालिटी मेंटेन कर के रखी. ये इसका प्लस पॉइंट रहा है.

सत्तर के दशक में एक बार इसका शेयर वैल्यू घट कर मात्र ६७ रुपयों तक गिर गया था. उद्योग के कई प्लांट बीमार नहीं तो, बीमार जैसे ही चल रहे थे. टाप मैनेजमेंट ने घाटा दे रहे यूनिट्स से छुटकारा पाने के लिए बांमोर, शिवालिया, पोरबंदर, द्वारका, कृष्णा, और शाहाबाद को बेच डाला. लाखेरी को भी इसी लिस्ट में प्राथमिकता से रखा गया था पर कर्मचारियों की तरफ से १९८८ में मेरी यूनियन ने टाप मैनेजमेंट से वार्ता करके कारखाने को घाटे से उबारने में पूरा सहयोग देकर, ए.सी.सी. में बनाए रखने की जोरदार पैरवी की.

जो कारखाने फुटकर उद्योगपतियों ने खरीदे थे उनके कर्मचारी अभावों में आ गए थे क्योकि ए.सी.सी. तो अपने कर्मचारियों को अपने एसेट के रूप में देखती थी अन्य मारवाड़ी या कबाड़ी कारखानेदार उसी तरह व्यवहार करेगा ऐसा नहीं लगता था. उस वक्त कम्पनी के बोर्ड के चेयरमैन स्वर्गीय नानी पालखीवाला थे. मैंने कर्मचारी युनियन के अध्यक्ष के बतौर एक पैथेटिक पत्र लिखा. हमारा कहना था कि पुराने कारखाने के पेट से ही नए कारखानों ने जन्म लिया है, प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए हम हर संभव सहयोग के लिए तैयार हैं, यहाँ तक कि क़ानून व वेतन आयोगों की शिफारिशों को ताक में रख कर आधी पगार में काम करने को तैयार हैं.

हमारे भय व आशंकाओं का एक बड़ा कारण ये भी था कि हमारे पड़ोस सवाई माधोपुर में साहू जैन का, एक समय जो एशिया का सबसे बड़ा सीमेंट उत्पादक कारखाना था, मिसमैनेजमेंट के कारण बंद हो गया था और कर्मचारी अनाथ से हो गये थे. वहाँ राज्य स्तर पर बहुत राजनीति हुई पर कर्मचारी बर्बाद हो गए थे.

चेयरमैन पालखीवाला एक सुलझे हुए उद्योगपति, संविधानविद व बैरिस्टर थे, उनके पास हमारा प्रतिवेदन काम कर गया. उन्होंने तीन होलटाइम डाइरेक्टर सर्वश्री T.V.Balan,  M.M.Rajoria, और फाइनेंस डाइरेक्टर A.L.Kapoor को जायजा लेने तथा उचित कार्यवाही करने के लिए लाखेरी भेजा. मन्थन के बाद कारखाने को लाभ की स्थिति में लाने के लिए उन्होंने दो सुझाव रखे (१) वर्तमान वर्कफोर्स आधा करके कारखाना चलाया जाये (२) कारखाने में नई टेक्नोलाजी (ड्राई प्रोसेस) लाई जाये. दूसरे सुझाव में तो कर्मचारियों का कोई रोल नहीं था पर पहले के बारे में बड़ी असमंजस हमारे सामने थी. आधे कर्मचारियों को वाल्यूंटरी रिटायरमेंट स्कीम के तहत कम करना आसान नहीं था. बहरहाल मरता क्या नहीं करता? हमने लाखेरी के उन तमाम पक्षों की मीटीग्स बुलाकर यथास्थिति से अवगत कराया, जो इससे प्रभावित हो सकते थे; सभी की ये एकमत राय थी कि कारखाने को हर कीमत में बिकने से बचाया जाये.

डाइरेक्टर्स के साथ मीटिंग में मैंने जब पूछा कि इतना सब करने के बाद कम्पनी कारखाने को चलाने के लिए कितने वर्षों की गारंटी देगी? कहीं गुनाह बेलज्जत ना हो जाये. फाइनेंस डाइरेक्टर कपूर ने कहा १५ वर्ष इसके बाद मेमोरेंडम आफ अनडरस्टेंडिंग साइन हुआ. पूरे समझोते के लिए मैं अपनी पूरी कैविनेट (९ पदाधिकारी) सहित कारपोरेट आफिस मुम्बई गया. बोर्ड रूम में जो ड्राफ्ट हमें दिया गया था उसमे महज ५ साल की गारंटी दी गयी थी. मैंने कपूर साहब से पूछा कि ये क्या गलती है? उन्होंने बड़ी मायूसी से कहा पाण्डेय जी आज हमारी अपनी कोई गारंटी नहीं रही है, इसलिए मैं कुछ नहीं कह सकता हूँ. (कुछ दिनों बाद सचमुच मि. कपूर कम्पनी से बाहर हो गए थे.) इस पर मैं बैठक से उठ गया क्योंकि ये स्पष्ट रूप से धोखाधड़ी जैसा लग रहा था. मेरे साथी और कम्पनी के डाइरेक्टर्स इस डेवलपमेंट से भोंचक्के रह गए.

मान-मनोव्वल शुरू हुआ, मेरी कार्यकारिणी के अधिकाँश सदस्य मुझ पर ५ वर्ष की गारंटी पर ही राजी होने का दबाव बनाने लगे, लेकिन जब स्थिति काबू से बाहर होने लगी तो डाइरेक्टर श्री बालन ने एक मजेदार सन्दर्भ सुना कर बात बिगड़ने से बचा लिया. वह सन्दर्भ यों था:

एक बार किसी बात पर नाराज होकर अकबर ने बीरबल को फाँसी की सजा सुना दी. जब बीरबल से उसकी अन्तिम इच्छा पूछी गयी तो उसने कहा, मैं घोड़े को उड़ाने की विद्या जानता हूँ. बादशाह के घोड़े को उड़ना सिखाना चाहता हूँ. सन्देश अकबर के पास पहुँचा तो उसने पूछा कि कितना समय लगेगा? बीरबल ने बताया पूरा एक साल. बादशाह ने सहर्ष स्वीकृति दे दी. जेलर ने बीरबल से उत्कंठाबस पूछा, क्या सचमुच घोड़ा उड़ सकता है? तब बीरबल ने उत्तर दिया एक वर्ष का समय बहुत होता है. इस बीच बादशाह भी मर सकते हैं, मैं भी मर सकता हूँ, या फिर घोड़ा भी मर सकता है, कुछ भी हो सकता है. घोड़ा काबिल हुआ तो जरूर उड़ सकता है.

ये दृष्टान्त आज भी मेरे जेहन में बड़ी खूबसूरती से घूम रहा है क्योंकि जिस कारखाने को महज ५ वर्ष की गारंटी सन १९८९ में मिली थी उसमे कम्पनी ने सौ करोड से ज्यादा खर्चा करके लाफार्ज (फ्रेंच) टेक्नोलाजी का नया ड्राई प्रोसेस प्लांट लगाया है. वह घड़ी टल गयी. अब यह औरों के लिए एक आदर्श मिसाल भी बन गया है. मैं दूर बैठ कर देख रहा हूँ कि घोड़ा उड़ रहा है. ये दीगर बात है कि सन २००५ में स्विस कम्पनी होलसिम ने / बद मे लाफार्ज  ने / और अब नवधनाद्य गौतम अदानी ने ए.सी.सी. को खरीद लिया है और हमारे घोड़े पर अब वही सवार है. ऐसा चलता रहेगा; Horse will go on flying.

जिन अधिकारियों ने इस नवजीवन में योगदान किया है, उनको मैं अनेक शुभ कामनाये देंना चाहता हूँ.
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गुरुवार, 24 नवंबर 2011

गजल-२


सपनों में जी रहा हूँ इस ख़याल के सहारे
भूले से तुम ये कह दो कि हम हो गए तुम्हारे.

मुद्दत से जागता हूँ, सारी रात यों ही काटूँ
करवट बदल बदल कर तेरी याद को तराशूं
कई रात ये कलम भी मेरे साथ यों ही जागी
इसको भी है ये उलझन कि हम हो गए तुम्हारे.
                    भूले से ये कह दो ...

तेरे इश्क में तड़प कर हर खिजाँ मैंने न्योंता
हर बार आ खिजाँ ने मेरे दर्दों को है झेला
देकर यही दिलासा कि हम हो गए तुम्हारे
बनी रहे ये गफलत कि हम हो गए तुम्हारे.
                     भूले से ये कह दो...

मकामे मिलन बने हैं मेरी हर गजल के बंदिश
नगमा बना दिया है हर आरजू को तुमने
ऐसे में तुम ये कह दो कि हम हो गए तुम्हारे.
सपनों में जी रहा हूँ इस ख़याल के सहारे.
                      भूले से तुम ये कह दो...

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बुधवार, 23 नवंबर 2011

प्रतिक्रिया


गम्भीर सन्नाटा, भयावह अन्धेरा, हवा की फुसफुसाहट भी डरा रही थी. मोटे-मोटे घने पेड़ सड़क के दोनों ओर ऐसे खड़े हुए थे कि कई फर्लांग दूर तक सड़क सुरंग की तरह लग रही थी. आगे बहुत दूर क्षितिज पर एक दीप टिमटिमा रहा था. समय मध्य रात्रि से आगे बढ़ चुका था, वह अंदाजा लगाती है. ना जाने कब से वह भागे चली जा रही है? कितना और चलना होगा ? चिंतातुर तो अवश्य थी. 

रात को घर से बाहर जाने में वह डरती थी पर आज इस नि:शब्दता में उसके पैर अपने आप आगे बढे चले जा रहे थे. वह अपने प्रिय का चिंतन भी करती जा रही थी, कितना सुन्दर, सुडौल और प्यारा है उसका आदर्श?’ वह उसी के स्वरुप में खोई हुई है. वह अभी सोया भी नहीं होगा. वह रातों में जागता रहता है. मैं जब अचानक पहुंचूंगी तो वह हैरान हो जाएगा, उसकी आंखों में नशा सा चढ जाएगा. कितना आनंद आ जायेगा हम दोनों को?

उसने धीरे से अपने बालों को पीछे की ओर फेरा, खुले बाल बेहद मुलायम थे, दोनों हथेलियों से अपने गालों को सहलाया तो बहुत ठन्डे-ठन्डे लगे. ये ठंडक उसे भी सांत्वना देगी. फिर चलतेचलते उसने अपने हाथों से छाती व कमर को छुआ. उसे अपने ख़ूबसूरती पर भी नाज हो आया. उसकी हथेलियाँ साड़ी तक गयी और फिसल पडी. सोचने लगी, कितनी मोहक लगेगी उसको मेरी साड़ी!

उसका लक्ष्य दीपक अब ज्यादा दूर नहीं लग रहा था. वह मन ही मन मुस्कुराई, फिर सोचने लगी, मेरा ये छलकता यौवन और मधुमय प्यार उसे मदहोश कर डालेगा. वह मुझ में समा जाएगा. अल्लाह ने हम दोनों को एक दूसरे के लिए ही बनाया है.

एकाएक मक्का और मदीने के दृश्य उसके जहन में आ गए. कुरान शरीफ की आयतें वातावरण में गुनगुनाने की आवाजें जैसी आने लगी. वह अभिभूत होकर सोचने लगी कि 'मैं अल्लाह की मर्जी से जा रही हूँ. वह भी अल्लाह का ही नुमाइंदा है, इसीलिए तो इतनी रात में मुझे इस तरह खींचा चला जा रहा है. इंसानों में ये सब कहा होता है?

दीपक जब करीब आने लगता है तो वह और भी तेज हो जाती है. उसने अपनी आखें बंद कर ली हैं फिर भी उसे ना जाने कैसे रास्ता साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा है?

उसकी पलकों के अन्दर पुतलियाँ तेजी से घूमती महसूस होने लगी. पुतलियों में बैठा हुआ, वह भी तो घूम रहा था अचानक पुतलियाँ स्थिर हो गयी. उसका महबूब सामने खड़ा था. उज्जवल सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने, आभा मण्डल युक्त चेहरा, गले में मोगरे की माला, लखनवी टोपी, मंद-मंद मुस्कान लिए वह इस दुनिया के परे किसी और लोक का अतिमानव सा लग रहा था फिर एकाएक उसका दूसरा ही रूप उसने देखा कि वह फ़िल्मी अंदाज में गाने लगा. वह सुन कर विभोर हो गयी. वह खुद भी संगीत से बहुत मोह रखती है. बीन के साथ तबले की थाप नेपथ्य में सुनाई देने लगी. कितनी प्यारी सरगम है? शायद राग ___ है. उसके पैर भी थिरकने लगते हैं. उसे लगा सैकड़ों घुँघरू एक साथ छ्मकने लगे हैं.

अगले ही क्षण वह देखती है कि वह तो पीली पगड़ी, शेरवानी-चूडीदार पायजामा पहने सामने आ गया. उसका मुँह तो बंद था पर सुहावनी मधुर आवाज उसी की है. वह पीर है तो ऐसे भी तो गा सकता है.

अब वह उसके पास पहुँच गयी. वह सारी वीरानी व अन्धेरा कुचल आई है. दीपक में तेज प्रकाश तो है पर उसकी आंखें धुन्धला सी गयी है आँखों से दीपक की रोशनी पीने की कोशिश करती है. उसे महसूस हुआ कि वहाँ तो बहुत बड़ी महफ़िल बैठी हुई है, और उसका महबूब सबका सरताज बन कर बैठा है. दीपक उसके आगे है या पीछे ठीक ठीक अंदाज नहीं लगा पा रही है. वह और भी आगे बढ़ी तो उसने पाया कि दीप तो ऊंचे से स्तूप पर सजा है. स्तूप तो मस्जिद का ही है. चलो ये भी अच्छा हुआ कि महबूब मस्जिद में ही मिल गया. लोग ये तो नहीं कहेंगे कि किसी गैर मुसलमान से रिश्ता जोड़ा है.

मस्जिद में चढने के लिए बहुत छोटी-छोटी सीढियां क्यों बनाई होंगी? इनमें तो बच्चों के पैर भी पूरे नहीं आ सकते हैं. अवश्य ये मेरे पैगम्बर के हिसाब से बनाई गयी होंगी.

वह सीढियां चढ गयी. उसे विश्वास हो गया कि मंजिल तक पहुँच गई है. उसने खुदा का लाख लाख शुक्रिया अदा किया. पर ये क्या एक पल में नजारा बदल गया. वह एक गुम्बज के नीचे बैठा था. उसी के बदन से उजाला हो रहा था. क्या ये सब कोई माया है? वह अजब पेशोपेश में पड़ गयी. लेकिन जब वह आया और उसको अपने हाथों से सहारा देकर आसन तक ले गया तो एक स्वर्गीय अनुभूति का एहसास हुआ. उसका स्पर्श बड़ा मोहक था.

उसने कहा, इतनी रात गए तुम इस तरह अकेली क्यों भटक रही हो?

मैं तुम्हें पाने के लिए सब छोड़ कर आ गयी हूँ.

देवी, तुम ये क्या कह रही हो? मैं ब्रह्मचारी साधक हूँ. ऐसा पाप कैसे स्वीकार सकता हूँ?

पाप-पुण्य की परिभाषा मैं नहीं जानती हूँ. मैं तो तुमको जानती हूँ. तुमको चाहती हूँ. ये मेरी वर्षों की साधना है खुदा के लिए अब मुझे दूर रहने की बात मत करो.

वह उसके करीब जाने की कोशिश करती है पर वह दूर हट जाता है.

देवी, तुम भावनाओं में बह रही हो. तुम बी. ए. तक पढ़ी हुई लड़की हो मैं रमता जोगी. दोनों के संस्कार भी अलग-अलग हैं.

मैं सब सोच समझ कर ही सभी कुछ छोड़ आई हूँ. अब आपके अलावा मेरा कोई और नहीं है. आप भविष्य मेरे हाथों में दे दो, बस. मैं आपको टालस्टाय, रवीन्द्र नाथ टैगोर व शरतचन्द्र की तरह आदर्शों में नहीं उलझाना चाहती हूँ, गोर्की और मुंशी प्रेमचंद की तरह सामाजिक विषमताओं में नहीं भटकाना चाहती हूँ, जाँन डी.पासोस की तरह लड़ाई के मैदान में नहीं भेजना चाहूंगी, मैं आपको ज्याँ पाल सार्त्र की तरह विद्रोही नहीं बनाना चाहती हूँ, नाथाली सर्रात की तरह व्यक्तित्व विहीन नहीं रखना चाहती हूँ, आदिल रशीद, कृष्ण चंदर व गुलशन नंदा की तरह फ़िल्मी हीरो या खलनायक बना कर अपराध वृतियों में नहीं फ़साना चाहती हूँ, शिवानी की तरह चरित्र में नहीं उलझाऊंगी और ना गुरुदत्त की तरह ऐतिहासिक पुरुष बनाऊँगी. बाजारू साहित्य में आपका नाम नहीं लिखने दूंगी. मुझे नसीहत नहीं आपकी प्यार भरी स्वीकृति चाहिए. आप कलामय हैं, मुझे आपसे प्यार है.

देवी, ये सब नासमझी की बातें हैं. ये दुनिया तुम्हारे जज्बातों को नहीं निगल पायेगी. सुनती नहीं हो ये पत्थर तक हमारे बारे में क्या क्या बातें करने लगे हैं?

उसने देखा सचमुच सभी पत्थरों के आड़े-टेढ़े मुँह से बन गए हैं. कुछ आवाजें भी आने लगी. शोर बढ़ता गया. देखते ही देखते चेहरों की भीड़ लग गयी. मारो-मारो, ठीक कर दो, गुंडा गर्दी नहीं चलेगी. हम धर्म नहीं बदलने देंगे.

वह डर गयी बहुत परेशान हो गयी, बड़े दर्द भरे स्वर में बोली, चलो हम कहीं और चलें.

वह उठ कर उससे चिपट गयी. एक बड़ा सा नुकीला पत्थर बह्मचारी के माथे से टकराता हुआ जोर से उसे आ लगा. वह जोरों से चिल्ला पड़ी, हमको मत मारो. और भयातुर हो उठ बैठी.

अम्मी सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी, बोली, तू ये नावल-शावल पढना बंद कर, वरना किसी दिन जरूर पागल हो जायेगी. उठ, हाथ मुँह धो ले, चाय पी ले. आठ बज चुके हैं.
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