सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नव-वर्ष संकल्प

चलो एक साल और चल बसा. जाते जाते बहुत कड़वी यादें छोड़ गया. पूरे साल भर आंदोलनों, अव्यवस्थाओं व अनाचारों का घुन्ध छाया रहा. इसमें इस बेचारे साल का क्या कसूर? कसूर तो हमारा है, जो सालभर बुराइयों के इर्दगिर्द घूमते रहे.

अगर शब्द मूक होते तो शायद ये लफड़े इतने नहीं बढ़ते, और अगर हर मामले में राजनीति नहीं होती तो ये झगड़े भी इतने नहीं फैलते.

यहाँ विदेशों की बात नहीं, अपने ही देश के बारे में सोचना है, जो कि कहने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला देश है, पर दुर्भाग्य यह है कि हम लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र तथा भीड़तंत्र में जी रहे हैं.

कोई एक क्षेत्र बीमार होता तो ईलाज आसान होता, लेकिन यहाँ तो पूरे कुँएं में भांग पड़ी है. हम एक दूसरे पर कीचड़ उछाल कर सभी कीचड़ में नहा रहे हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान में कमजोर नेतृत्व व कमजोर इच्छाशक्ति के कारण अराजकता की स्थिति बनी हुई है, पर यह बात भी सच है कि "जैसे फूल होंगे वैसी ही माला बनेगी."

राजनैतिक विचारधारा के पूर्वाग्रहों के कारण यदि हम इस सारे गड़बड़झाले का दोष किसी एक या दो व्यक्तियों पर इंगित करते हैं तो उचित नहीं है क्योंकि कहीं न कहीं हम सब स्वार्थी और दोषी हैं. जरूरत है आत्मलोचन किया जाये.

केवल क़ानून के डर से अपराधों पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता है, मूल में अपने घरों से पहले स्वयं, फिर बच्चों को संस्कार देकर चरित्रवान बनाने की कोशिश होनी चाहिए.

देश में नैतिकता, एकता, व राष्ट्रप्रेम का जज्बा जगाने के लिए सभी को मिलकर काम करना पड़ेगा. इसके लिए प्रिंट मीडिया तथा इलैक्ट्रोनिक मीडिया को ज्यादा अनुशासित रखना पड़ेगा. पीतपत्रिकारिता की जो होड़ आज चल पडी है, उस पर अंकुश लगाना होगा. इसमें सिनेमा का रोल भी अहम है, जिसे फूहड़ नचकनिया की तरह खेल नहीं दिखाने चाहिए. इन सब विषयों पर ईमानदारी से राजनीति से ऊपर उठकर चलना पड़ेगा.

अंत में इस साल के ‘सूतक’ को अगले नववर्ष में नहीं ले जाने का संकल्प करना चाहिए.
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शनिवार, 29 दिसंबर 2012

दामिनी के नाम

दामिनी !
तुम नेपथ्य में चली गयी. करोड़ों आँखों को नम कर गयी. देखो, मरना तो एक दिन सभी को है, मगर जिस तरह तुमको जाना पड़ा, उस पर पूरा देश शर्मिन्दा और घायल है. तुम जिस घनीभूत पीड़ा को झेल कर गयी हो, उसकी कसक यहाँ युगों तक महसूस की जाती रहेगी. जब जब आसमान में घनघोर घटाओं के बीच दामिनी दमकेगी, सुजनों के लिए प्रकाश और दरिंदों के लिए चाबुक का भान करायेगी.

तुम्हारे इस बलिदान से माताओं, बहुओं और बेटियों के लिए सुरक्षा की सोच उभर कर सामने आई है. तुम मातृशक्ति की प्रेरणा की मशाल बन गयी हो.

तुम एक सितारा बन गयी हो. दूर क्षितिज में अमर ज्योति बन कर बस गयी हो. हम तुम्हें सजल नेत्रों से निहारते रहेंगे, पर तुम्हारे चले जाने का बहुत दर्द तो है. ये शब्द्पुष्प विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में तुम्हें अर्पित हैं.
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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

मातृ देवो भव:

सीकर के नजदीक गाँव में रहने वाली एक गरीब विधवा, रतनी बाई, ने मेहनत मजदूरी करके अपने इकलौते बेटे हरिलाल को हाईस्कूल तक पढ़ाया और रिश्तेदारों की सलाह पर उसे राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान में रोजगारपरक ट्रेनिंग के लिए दाखिला दिलाया. वह ‘टर्बाइन आपरेटर’ का कोर्स पूरा करके बेरोजगारों की सूची में आ गया. रोजगार दफ्तर के माध्यम से उसे एक दिन राजस्थान के ही कोटा शहर के एक नामी उद्योग से बुलावा आ गया और वह नौकरी भी पा गया.

माँ बहुत खुश थी. बेटा जल्दी नौकरी पा गया था, पर घर से सैकड़ों कोस दूर भेजने में उसे बड़ी चिंता भी हो रही थी. यह गरीब लोगों मजबूरी रहती है कि रोजगार के सिलसिले में दूर दराज जाना ही पड़ता है. अपने लाड़ले से बिछुड़ने की त्रासदी रतनी बाई जैसी सैकड़ों-हजारों माँओं को झेलनी ही पडती है. हरिलाल भावनात्मक रूप से अपनी माँ से बहुत नजदीक से जुड़ा हुआ था. सोचता था कि रहने की ठीक ठाक व्यवस्था होने पर माँ को भी अपने पास कोटा ही बुला लेगा. यद्यपि माँ तो अभी से कहने लगी थी कि वह घर छोड़ कर कहीं नहीं जायेगी. वह अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहती थी. उसने अगले ही साल हरिलाल का विवाह भी कर दिया.

यह आम मनुष्यों की प्रवृति है कि अपने जीवन की अतृप्त आकाक्षाओं को अपने बच्चों में पूरा होते हुए देखना चाहते हैं. अनपढ़ रतनी बाई चाहती थी कि बेटे के लिए खूब पढ़ी-लिखी सुन्दर बहू मिले, सो संयोग से जाति-रिश्तेदारी में ही उसकी पसन्द पूरी हो गयी. एक ग्रेजुएट लड़की, दमयंती, से उसका रिश्ता हो गया. सभी नाते-रिश्तेदार रतनी बाई के भाग्य को सराहने लगे. उसने इस मुकाम तक पहुँचने में कितने पापड़ बेले, कितने कष्ट उठाये, वे सब लोगों की नजर में नहीं रहे.

बहू दमयंती एक खाते-पीते परिवार से आई थी. उसे सासू जी का कच्चा घर बिलकुल पसन्द नहीं आ रहा था.विवाह के चंद महीनों के बाद ही वह पति के पास कोटा चली आई. हरिलाल अपनी पत्नी पर पूरी तरह मोहित रहता था. उसकी हर बात पर पलक-पावड़े बिछाये रखता था. यह स्वाभाविक भी होता है. माँ से अकसर अपने एक दोस्त के मोबाईल के माध्यम से बात करता रहता था. दमयंती सीकर आने जाने के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ा करती थी. सीकर जाना भी पड़े तो ज्यादा समय झुंझुनू अपने मायके में बिताना पसन्द करती थी. माँ तरसती रहती थी. सोचती थी कि कोई अपने स्तर की बहू लाई गयी होती तो आज यह बात नहीं होती. माँ का मन है सो यह भी सोचती थी कि चलो बेटा खुश है तो सब अच्छा है.

अगले वर्ष दमयंती ने अपने पीहर में ही अपने पुत्र को जन्म दिया और वहीं से कोटा चली गयी. हरिलाल पूरी तरह उसके वश में था. जैसा वह कहती थी, वह वैसा ही करता था, पर हरिलाल के मन में कहीं ना कहीं चोर तो बैठा रहता था, जो उसे नित्य कचोटता रहता था कि माँ का यथोचित ध्यान नहीं रख पा रहा है. खर्चा-पर्चा भी जिस प्रकार माँ को भेजा करता था, वह अनियमित हो गया था. दमयंती का तर्क होता था कि पन्द्रह हजार के वेतन में घर का किराया और रोज का खर्चा बमुश्किल चल रहा है, माँ तो इतना खुद कमा लेती हैं कि गुजारा ठीक चल जाना चाहिए. माँ को साथ में रखने की बात भी कई बात दबे स्वर में हरिलाल ने दमयंती के सामने कही, पर वह नहीं चाहती थी कि माँ की निगरानी में रहे. वह कहती थी, “माँ मेहनत मजदूरी वाली है. यहाँ बैठी नहीं रह सकेगी. यहाँ लाकर क्या करोगे? वे वहीं खुश रहती हैं.” हरिलाल पत्नी की बात पर घुग्घू बन कर चुप हो जाता, पर दिल में दर्द तो छुपा कर रखता ही था.

समय निरंतर भागता रहता है. उनका बेटा नितिन अब तीन वर्ष का होने को आया है. दशहरा मैदान में एक महीने तक चलने वाला मेला चल रहा है, जहाँ अनेक कौतुक व सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं. तरह तरह का सामान बेचने वाली दुकानें-बाजार सजती हैं. कोटा में रहने वालों को मेला घूमने का बड़ा शौक होता है. बेटे को लेकर हरिलाल सपत्नी वहां पहुँचा, बड़ी भीड़ थी. अंगुली पकड़कर चलने वाला बच्चा एकाएक थोड़ी सी नजर चूकने पर भीड़ में कहीं खो गया.

माँ-बाप दोनों परेशान हो उठे. ढूँढते रहे, पर नितिन नहीं मिला. बच्चों के खोने-पाने वाले पांडाल में रिपोर्ट लिखवाई. दमयंती बच्चे के विछोह के कारण बदहवाश हो गयी, रोने चिल्लाने लगी. उसकी हालत देख कर हरिलाल भी घबरा गया.

लगभग एक घन्टे के बाद पांडाल से बच्चे की मिलने की सूचना लाउडस्पीकर पर आई तो जान में जान आई. दमयंती को जब उसका बच्चा मिला तो लिपट-लिपट कर देर तक चूमती रही. हरिलाल इस सारे परिदृश्य में अपनी माँ रतनी बाई व खुद को देखने लगा. उसने तुरन्त सीकर जाकर अपनी माँ के पास जाने का कार्यक्रम बना डाला. दमयंती ने कहा, “इतनी जल्दी बिना प्रयोजन के सीकर क्यों जा रहे हो?”

हरिलाल ने उससे कहा, “बच्चे से एक घन्टे तक बिछुड़ने पर तुम इतनी परेशान रही, विलाप करती रही, मेरे भी होश उड़ा दिये थे, पर मेरी माँ के बारे में तुम कभी नहीं सोचती हो कि उसका बेटा उससे इतने अरसे से दूर है. उसके दिल को क्या बीतती होगी? तुम कितनी स्वार्थी हो?”

इस प्रकार माँ के प्रतिसमार्पित भाव से वह सीकर गया और अपनी माँ को अपने साथ कोटा लेकर आया. अब दमयंती को भी माँ के अंत:करण के प्यार का आभास हो गया है.

माँ तो माँ है. उसको बिना किसी गिला शिकवा के अपने बच्चों के नजदीक रहना स्वर्गीय सुख देता है. हरिलाल का तो मानो बचपन फिर से लौट आया है.
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मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

महामना

आदमी यों ही बड़ा नहीं बनता है, उसके बड़प्पन या महानता के पीछे उसकी लगन, सच्चाई औए अध्यवसाय होता है. दुनिया भर में मानव जाति की सेवा करने वाले मनीषियों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपने चिरंतन कर्मों के द्वारा महत्ता प्राप्त की है.

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जिसे B.H.U. के नाम से भी जाना जाता है, के वर्तमान विराट स्वरुप को देख कर अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि इसके संस्थापक पण्डित मदन मोहन मालवीय जी थे, जो एक सनातनी व्यक्ति थे, तथा अंग्रेजी, हिन्दी व संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे. वे अच्छे वकील, समाज सुधारक और शिक्षाशास्त्री भी थे. बड़ी बात यह भी है कि वे स्वतन्त्रता संग्राम के पुरोधा भी रहे. ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लड़ाई में वे कई बार जेल भी गए. इसीलिये उनको ‘महामना’ यानि महान पुरुष की उपाधि मिली.

इस विश्वविद्यालय की विधिवत स्थापना संन १९१५ में हुई, लेकिन इसकी परिकल्पना उन्होंने सन १९०४ में ही कर डाली थी. डॉ.एनी बेसेंट के सेंट्रल हिन्दू कॉलेज का आधार उनको मिला, इतनी बड़ी परियोजना के लिए राजा-रजवाडों व सेठों के द्वारा प्रदत्त धन राशि का सदुपयोग किया गया. महामना मालवीय जी ने लिखा है कि चंदे की शुरुआत एक गरीब औरत द्वारा दिये गए एक पैसे से हुई थी. उनके बारे में प्रेरणास्पद संस्मरणों में दिल को छूने वाली एक धटना इस प्रकार है:

दक्षिण में हैदराबाद रियासत के तत्कालीन ‘निजाम’ अकूत सम्पति के मालिक थे. उनसे भी अपने संस्कृत विश्वविद्यालय के लिए चन्दा माँगने मालवीय जी हैदराबाद गए. निजाम आदतन बेहद कंजूस व अंतर्मुखी व्यक्ति थे. उन्होंने चन्दा देने से इनकार कर दिया. हैदराबाद प्रवास से लौटने से पहले उन्होंने वहाँ पर एक सेठ की शव यात्रा में उसके परिजनों द्वारा शव पर परखे गए चांदी के सिक्कों को अन्य भिखारियों की तरह उठाना शुरू कर दिया. किसी परिचित उनको पहचान लिया और सिक्के उठाने का प्रयोजन पूछा तो उन्होंने बेबाकी से कहा, “कोई ये ना कहे कि मैं हैदराबाद रियासत से खाली हाथ लौटा हूँ, इसलिए ये सिक्के उठा रहा हूँ.” यह बात दूर तक गयी और दान दाताओं की कमी नहीं रही.

इस महान शिक्षण संस्थान की बुनियाद की एक एक ईंट गवाह है कि महामना मदन मोहन मालवीय जी ने अथक प्रयास करके इस आधुनिक नालंदा को स्थापित किया था. आज बनारस तथा मिर्जापुर के दो बड़े अलग अलग परिसरों में यह विश्वविद्यालय फैला हुआ है. इसकी इस विराट परिकल्पना के चितेरे महामना को शत् शत् प्रणाम.
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रविवार, 23 दिसंबर 2012

चुहुल - ४०

(१)
एक दांत का डॉक्टर अपने मरीज के मुँह का मुआयना करके बोला, “आपके लिए एक अच्छी खबर है, पर एक बुरी खबर भी है. बोलिए, पहले कौन सी सुनना चाहते हो?”
मरीज खुशी से उछलते हुए बोला, “डाक’साहब पहले खुशी की खबर सुनना चाहूँगा.”
डॉक्टर बोला, “आपके सब दांत बढ़िया व स्वस्थ हैं. किसी दांत का भी एनेमल कटा हुआ नहीं है."
“और बुरी खबर?” पूछते हुए मरीज व्यग्र हो उठा.
डॉक्टर ने बताया, “आपके पूरे मसूड़े खराब हो चुके हैं. इनमें भयंकर इन्फैक्शन है. इनके ईलाज के लिए आपके सारे दांत निकालने पड़ेंगे.”

(२)
अपने शराबी पति से एक महिला बोली, “मुन्ने के पापा, जब आप अंग्रेज़ी शराब पीकर आते हो तो मुझे ‘परी’ नाम से पुकारते हो, और जब देसी शराब पीकर आते हो तो ‘रानी’ कहते हो. आज ये मुई कौन सी पीकर आये हो, बार बार मुझे ‘चुड़ैल’ कहे जा रहे हो?”

(३)
एक दिलफेंक शायर एक सुन्दरी पर फ़िदा हो गए. जब भी सामना होता तो उसकी खूबसूरती पर कुछ ना कुछ सुनाया करते थे, पर वह सुन्दरी उनके इस व्यवहार से तंग थी. उसके दिल में शायर साहब के लिए कोई प्यार-व्यार नहीं उपजता था.
एक दिन खीझ कर उसने शायर से पूछ ही लिया, "आखिर आप चाहते क्या हैं?”
शायर बोले, “तुम्हारे इन नरम हसीं जुल्फों के साये में रहना चाहता हूँ.”
सुन्दरी ने तुरन्त अपना जूड़ा खोला, विग उतारा, और शायर को पकड़ा कर आगे बढ़ गयी.

(४)
एक आदमी फोटो स्टूडियो में जाकर फोटोग्राफर से बोला, “भाई साहब, क्या आप मेरी पासपोर्ट साइज में ऐसी फोटो खींच सकते हैं, जिसमें सर की टोपी और पैर के जूते भी नजर आयें?”
फोटोग्राफर हँसते हुए बोला, “हाँ क्यों नहीं, जूते उतार कर सर पर रख लीजिए.”

(५)
एक आदमी को सरेआम सड़क पर अपनी पत्नी को पीटने के आरोप में गिरफ्तार करके कोर्ट में पेश किया गया, जहाँ उसने अपना जुर्म भी कबूल कर लिया. जज साहब ने उसे १०० रूपये और ७५ पैसे जुर्माना करके जमाँनत दे दी.
अभियुक्त को जुर्माने की रकम अजीब सी लगी, बोला, “जज साहब, जुर्माना १०० रुपये तो ठीक है, पर ये ७५ पैसों का क्या हिसाब है?”
जज साहब बोले, “वारदात सड़क पर हुई इसलिए यह इंटरटेंनमेंट टैक्स वसूला जा रहा है.”
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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

न+इति

चोर, उचक्के, लम्पट, लफंगे, बाहुबली, लुटेरे या समाजकंटक हर युग में रहे हैं; उनका अपना इतिहास है, लेकिन पहले समय में सज्जन, ईमानदार व चरित्रवान लोगों का प्रतिशत ज्यादा होता था. हमारे देश की स्वतन्त्रता के संक्रमण काल (आगे/पीछे) में समाज के आदर्श के रूप में एक नया शब्द उभर कर आया “नेता”. नेता का शाब्दिक अर्थ होता है नेतृत्व करने वाला, पर अब अर्थ का अनर्थ यह हो गया है "न+इति” यानि जिसकी कोई इति नहीं होती है.

एक समय था जब ‘नेता जी’ कहने पर एक पूज्य भाव मन में उभरता था. वह ऐसा व्यक्तित्व माना जाता था, जो निष्पाप व निष्कलंक होता था. धीरे धीरे ‘नेता’ सत्तानशीं या सत्तालोलुप व्यक्ति का पर्याय बन गया. अब तो इसका इतना पतन हो गया है कि नेता कहने पर गाली का आभास होने लगता है क्योंकि सारे कलुषित कारनामें नेताओं से ही शुरू होते हैं. अपवाद बहुत कम ही मिलते हैं.

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने एक चौपाई में लिखा है, “समरथ को नहिं दोष गुसांई," यानि व्यक्ति अगर शक्ति संम्पन्न हो तो उसके अवगुण गौण हो जाते हैं. आज हम इसे प्रत्यक्ष देख रहे हैं/ अनुभव कर रहे हैं कि नेता शक्ति संपन्न होता है, और वह हर प्रकार के सामाजिक शोषण को अपना विशेषाधिकार समझता है. कार्यपालिका की मशीनरी व न्यायपालिका असहाय होकर नेता जी को तन्त्र का मालिक समझते हुए ज़िंदा मक्खियाँ निगलने को मजबूर हैं.

एक डबलरोटी चुराने वाला भूखा व्यक्ति पकड़े जाने पर जमानत नहीं करा पाता है और जेल में लम्बे समय तक चक्की पीसता रहता है, दूसरी ओर सार्वजनिक धन में से करोड़ों पर अनैतिक रूप से हाथ साफ़ करने वाले, घोषित अपराधी राजनैतिक मंचों पर सरकारी बन्दूक धारियों के संरक्षण में सुरक्षित रह कर लोट-पोट खेलते हैं.

कहते हैं कि नव प्रजातंत्र में यह कमजोरी स्वाभाविक तौर पर आ जाती है. संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश में भी सही मायनों में प्रजातंत्र स्थापित होने में दो सौ वर्ष लगे थे, पर हमारे देश में जहाँ अनादि काल से सनातन सांस्कृतिक विरासत में व्यक्ति के चरित्र की शुद्धता हर कोण से महत्वपूर्ण माना गया है, यह अंधेर कैसे पैदा हो गया? जितने पन्ने पलटो, हर तरफ अनाचार के दस्तावेज मिलते हैं. "यथा राजा, तथा प्रजा" वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. गुड-गोबर एक हुआ सा लगता है.

सुबह सुबह अखबारों की सुर्खियाँ पढ़ने को मन नहीं करता है, क्योंकि उनमें अधिकतर भ्रष्टाचार, अत्याचार और बलात्कार जैसे विषयों के समाचार छपे रहते हैं. हिंसा, छल-कपट, द्वेष पर केंद्रित विचारों का वमन होता है.

मैं अनीश्वरवादी नहीं हूँ और ना ही निराशावादी हूँ इसलिए इसे समय की बलिहारी समझ कर देखता हूँ. विश्वास करता हूँ कि प्रबुद्ध जनों में सम्पूर्ण जागरण व उत्थान की प्रक्रिया स्वत: शुरू होगी. अवश्य होगी.
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गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

सहधर्मिणी

चुन्नू के दादा,

आज तुम बहुत याद आ रहे हो. तुम्हारा पोता चुन्नू अब चन्दन मिश्रा हो गया है. वह अहमदाबाद, गुजरात से आगे कहीं वीरावल की किसी फैक्ट्री में बड़ा मैनेजर हो गया है. उसने बड़ी जिद की कि "दादी को अपने साथ ले जाऊंगा." मैं तो इसी पुराने घर में आपकी यादों को संजोये हुए हर त्यौहार, हर मौसम में आपकी अनुपस्थिति में भी आपको खुद के निकट पाती रही हूँ. आपको गए अब बीस वर्ष से भी अधिक हो गए हैं, लेकिन मुझे हर रोज सपनों में आपके दर्शन होते रहते हैं. आपका मुस्कुराता हुआ चेहरा और प्यार भरी निगाहें मेरी आँखों की पुतलियों में डबडबा कर घूमा करती हैं.

बेटा कुंदन भी मुझे इतनी दूर नहीं भेजना चाहता है. बहू रमा तो कतई विश्वास नहीं कर रही थी कि मैं अस्सी साल की उम्र में पोते-पतोहू के साथ जाने को राजी हो जाऊँगी.

सच तो यह है कि चुन्नू ने कहा कि गुजरात में द्वारिकाधीश व सोमनाथ के दर्शन करवाऊंगा, तो मन में एक भारी हिलोर उठने लगी. मुझे याद है कि आपकी भी बड़ी तमन्ना थी कि एक बार द्वारिकापुरी जाकर बांकेबिहारी के सिंहासन पर उनके दर्शन किये जाएँ, पर अस्वस्थता के चलते वहाँ नहीं जा पाए थे. इसलिए मैं आपकी अतृप्त इच्छा को पूर्ण करने के उद्देश्य से वहाँ जाकर कन्हैया के दर्शन करूंगी. अपने साथ आपकी एक जीवंत फोटो भी ले जाऊंगी, जिसको मैं देवता से साक्षात्कार करवाऊंगी. मुझे पूरा विश्वास है कि आप हर घड़ी मेरे साथ रहेंगे.

आपकी – चुन्नू की दादी
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मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

चिड़िया उड़ाते थे...

पुरानी कहावत है कि पुरुष के भाग्य का कोई अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. इस कहानी के नायक रूपचंद मौर्य गोरखपुर के पास एक साधनहीन, पिछड़े गाँव के मूल निवासी हैं. उनके मामा जी बरसों पहले नैनीताल जिले के भाबर (मैदानी) इलाके में आकर जमीन मालिकों के साथ मिलकर खेती-पाती का कारोबार करते रहे. उनके जैसे सैकड़ों-हजारों लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश से या बिहार से आकर रोजी-रोटी के चक्कर में खूब मेहनत मजदूरी करते हैं.

यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि तराई और भाबर की खेती इन्ही ’साझेदारों’ के बल पर चलती है. धरती बहुत उपजाऊ है और पानी की भी कमी नहीं है पर खेती का काम ऐसा है कि सर्दी हो, गर्मी हो, या बरसात हो, चौबीसों घन्टे लगे रहना पड़ता है. मेहनत का फल जब लोगों के सामने आता है तो वे कहते हैं, “इन पूरबियों -बिहारियों के हाथों में जादू होता है.” चाहे रबी की फसल हो या खरीफ की, इनको खूब फलती है. बीच बीच में कैश-क्रॉप (सब्जी-फल-कन्द) भी उगाते हैं. नतीजन यह इलाका इनकी मेहनत की वजह से समृद्ध है. आज तो स्थिति यह है कि ये खेतिहर मजदूर झोपडियों में रहते रहते अपने निजी पक्के घरों में आ गए हैं.

हाँ तो, रूपचंद मौर्य बचपन में ही अपने मामा जी पास आया और उनकी खेती में हाथ बँटाते हुए स्कूल भी जाने लगा. उसने स्थानीय हाईस्कूल से दसवीं पास कर ली; ये दीगर बात है कि डिविजन तीसरा ही आ पाया. एक दिन जब वह मंडी में आड़तिया के पास टमाटरों की पेटियां पहुंचाने गया तो आड़तिया ने उसे एक पेटी टमाटरों की लेकर अल्मोड़ा के डी.एम. को पहुँचाने का काम सौंप दिया. संयोग था कि उनके बंगले पर उसकी मुलाक़ात खुद डी.एम. साहब से हो गयी. उन्होंने रूपचंद से उसकी कैफियत पूछी और पूछा, "नौकरी करोगे?”

रूपचंद को मानो मुँह माँगी मुराद मिल गयी. उन्होंने उसे सिफारिशी पत्र के साथ हार्टीकल्चर डिपार्टमेंट के डेप्युटी डाईरेक्टर, नैनीताल, के पास भेज दिया. डी.एम. साहब के पसीजने व हमदर्दी का विशेष कारण यह भी था कि वे स्वयं पिछड़ी जाति से थे. हर पिछड़े को आगे बढ़ाने का भाऊ साहेब अम्बेडकर जी का विचार उनमें कूट कूट कर भरा था.

बहरहाल, रूपचंद मौर्य चौखुटिया, अल्मोड़ा के सरकारी बागान में निगरानी कर्मचारियों में शामिल हो गया. वहाँ पर नर्सरी के अलावा आड़ू, नाशपाती, खुबानी, प्लम, चेरी आदि अनेक प्रकार के फलों के पेड़ थे. फल-फूलों कों कीट-पतंगों से बचाने के लिए उचित कीटनाशक दवाओं का प्रयोग वैज्ञानिक तरीकों से होता है. लेकिन फसल को जंगली चिड़ियों से बहुत नुकसान पहुंचता है. खासतौर पर तोते तो खाते कम हैं, बर्बाद ज्यादा कर देते हैं. इसलिए चिड़ियों को भगाने के लिए निगरानी कर्मचारियों को तैनात किया जाता है. जो टीन-कनस्टर बजा कर, सीटियाँ बजा कर, मुँह से आवाजें निकाल कर, फायर गन से पटाखे छोड़ कर दिन भर चिड़ियों को उड़ाते रहते हैं. नायक रूपचंद को भी चिड़ियों को उड़ाने का काम मिल गया.

ऑफ सीजन में वह एक बार डी.एम. साहब से मिलने अल्मोड़ा जा पहुँचा. वह उनके अहसान के लिए कृतज्ञता भी प्रकट करना चाहता था, पर डी.एम. साहब तो बड़े दयालु थे. उन्होंने उससे कहा, “जिंदगी भर चिडिया भगानी हैं क्या? आगे की कक्षाओं की परीक्षा देते रहो, अपनी योग्यता बढ़ाओ. रिजर्वेशन का लाभ उठाओ. जल्दी ऑफिसर बन जाओ.”

जब सदगुरू मिल जाता है और लगन हो तो मंजिल की तरफ बढ़ना आसान हो जाता है. डी.एम. साहब ने रूपचंद को आसान रास्ता बताया कि “नेपाल की त्रिभुवन युनिवर्सिटी से सीधे बी.ए. कर सकते हो." उन्होंने उसको इस विषय में बहुत सी जानकारी दी. रूपचंद अति उत्साहित होकर पढ़ाई भी करने लगा, पर बुनियाद कमजोर होने के कारण दो बार परिक्षा में फेल हो गया. अंतत: जब पास हो गया तो किस्मत का दरवाजा खुलता चला गया. वह ऑफिस में क्लर्क बना दिया गया. कालान्तर में सुपरवाईजर, इंस्पेक्टर, तथा सुपरींटेंडेंट बनते हुए सीढ़ियाँ चढ़ता चला गया. इस तेजी से हुई पदोन्नति में जातिगत आरक्षण का बहुत बड़ा योगदान था.

अपने देश में अधिकाँश सरकारी विभागों के कर्मचारी नौकरी में रहते हुए भी पेंशन सी भोगते हैं. काम करो तो करो, अन्यथा सब निभ जाता है. यह जुमला कई जगह फिट होता है, "दास मलूका कह गए सबके दाता राम." काम करने वाले करते भी हैं, पर ऑफिस में दर्जनों लोग दिन भर मटरगश्ती करके समय निकाल जाते हैं. अफसर भी उन्हीं जैसे है--खुशामद पसन्द और रिश्वतखोर. गड़बड़झाला इतना बड़ा है कि नमक में आटा सा हो गया है. रूपचंद मौर्य भी इसी मुख्यधारा में बहता चला गया.

जिला हार्टीकल्चर के तब डेप्युटी डाईरेक्टर एक मिस्टर डी.जोशी हुआ करते थे. वे लंबे समय तक इस पद पर विराजते रहे. उनके ऑफिस के ठाठ निराले थे. उनका रहन-सहन व बर्ताव बिलकुल अंग्रेजों का जैसा रहता था.  उनकी एक खूबसूरत स्टेनो सेक्रेटरी थी, मिसेज चेरियन. पता नहीं वह सुदूर दक्षिण केरला से कैसे लखनऊ, फिर नैनीताल पहुँची. डिपार्टमेंट के लोग उसे ‘चेरियन’ के बजाय ‘चिड़िया मैडम’ कहा करते थे.

उत्तर प्रदेश में प्रमोशन में आरक्षण होते ही एस.सी.\एस.टी. कर्मचारियों को प्राथमिकता मिल गयी. अगड़ों की वरीयता धरी की धरी रह गयी. इस नियम से रूपचंद मौर्य भी लाभान्वित हुए. उनको डेप्युटी डाईरेक्टर के पद पर प्रमोशन देते हुए पिथौरागढ़ स्थानातरण का आदेश मिला, लेकिन किसी मिनिस्टर की सिफारिश लगा कर कोई दूसरा ही सज्जन वहां नियुक्ति पा गया. इस तरह रूपचंद मौर्य को अपनी ही जगह पर प्रमोशन मिल गया.

अब रूपचंद मौर्य डेप्युटी डाइरेक्टर की कुर्सी पर विराजमान हो गए, और जब ‘चिड़िया मैडम’ उनके केबिन में आती तो वे बड़े अदब से उसे बैठने को कहते. मिसेज चेरियन बहुत अनुभवी महिला हैं. उनका सारा प्रशासनिक कार्य संभालती हैं. डाईरेक्टर साहब तो बस साइन भर कर देते हैं. मन ही मन कहते हैं, 'आरक्षण जिंदाबाद’.

एक पुराना कर्मचारी जो साहब के साथ कभी बागान में चिड़िया उड़ाता था,  व्यंग्य पूर्वक अपने साथियों से कह रहा था, “जो चिड़िया उड़ाते थे, अब चिड़िया बैठाते हैं.”
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रविवार, 16 दिसंबर 2012

छोटी सी 'बड़ी बात'

संन  १९६३-६४ में, मैं लाखेरी सीमेंट कर्मचारी बहुधन्धी सहकारी समिति (जिला बूंदी, राजस्थान) के प्रबंधकारिणी का अवैतनिक महामंत्री चुना गया. समिति का बड़ा कार्य-व्यापार था. कई उपभोक्ता वस्तुओं की ऐजेंसीज भी समिति के पास थी. डनलप कम्पनी द्वारा निर्मित साइकिल के ट्यूब-टायर कंट्रोल से मिला करते थे. समिति को हर महीने कुल ५० टायर-टयूब अलॉट होते थे. समिति की सदस्य संख्या तब लगभग १५०० थी. कस्बाई परिवेश में साइकिल ही मुख्य सवारी होती थी. इसलिए टायर-ट्यूब के लिए मारामारी होना स्वाभाविक था. निष्पक्षता बनाए रखने के लिए हमने तय किया कि इच्छुक ग्राहकों को लाटरी द्वारा चयन करके बेचे जाएँ और यह प्रयोग बहुत सफल भी हुआ. लाटरी में नाम आने के बाद यदि किसी ने किसी कारणवश अपना हिस्सा नहीं उठाया, तो उसे उस ग्राहक को दे दिया जाता था जो ज्यादा जरूरतमंद होता था. यह एक सामान्य प्रक्रिया हुआ करती थी.

इसके लगभग बीस वर्षों के पश्चात जब मैं कर्मचारी संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहा था, तो प्रमुख राजनैतिक पार्टियां पक्ष या विपक्ष में सक्रिय हो गयी. बड़े नेताओं के आने से चुनाव का माहौल गरमा गया. यद्यपि  उस चुनाव में भारी बहुमत से चुन लिया गया, पर एक छोटी सी ‘बड़ी बात’ मुझे आज भी पिछली पीढ़ी के लोगों की सरलता व सहज कृतज्ञता से अभिभूत करती है.

हुआ यों कि एक बुजुर्ग कामगार, श्री रामपाल (जो कि रिटायरमेंट के करीब थे), की माता का उसके गाँव में मतदान के दिन की पूर्व संध्या में देहावसान हो गया था. उन्हें तुरन्त अपने गाँव को प्रस्थान कर देना चाहिए था, पर नहीं उन्होंने अपने साथियों से कहा कि “मुझे पाण्डेय जी के पक्ष में वोट डाल कर ही जाना है क्योंकि उन्होंने मुझे तब साइकिल का ट्यूब-टायर दिलाया था जब मुझे उसकी सख्त  जरूरत थी.”

यह बात लोगों ने मुझे बाद में बताई. मुझे तो उनका टायर प्रकरण याद भी नहीं था और न मैंने उन पर कोई विशेष अहसान किया था. इधर जब भी मैं अहसान फरामोशी के किस्से सुनता-पढ़ता हूँ तो मुझे रामपाल जरूर याद आते हैं.
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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

मन के आर-पार

मनुष्य कितना ही विद्वान हो, उसका मन हमेशा एक सा नहीं रहता है. रह भी नहीं सकता है क्योंकि परमात्मा ने काम, क्रोध, मद, लोभ जैसे दुर्गुण भी उसे प्रदान किये हुए हैं.

बालादत्त तिवारी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उन्होंने स्कूल-कॉलेज की शिक्षा के साथ साथ अपने अध्यापक पिता से बचपन में ही हिन्दू धर्मशास्त्र की शिक्षा ले ली थी. और उनकी ओजस्वी वाणी ने उनके व्यक्तित्व पर चार चाँद लगा दिये. वे किशोरावस्था से ही बड़े बड़े धार्मिक आयोजनों में प्रवचन के लिए निमंत्रित किये जाने लगे थे. नैनीताल जिले के एक छोटे से गाँव के मध्यवर्गीय परिवार का ये नगीना बहुत जल्दी आसपास समाज का आदर्श भी बन गया.

जैसा कि आम तौर पर कूर्मांचल में होता रहा है, यौवन की दहलीज पर पैर रखते ही माता पिता को अपने बेटे के विवाह की चिंता लग जाती है. लड़का आवारा ना हो जाये इसलिए भी उसके पैरों में बेड़ियाँ डालना जरूरी समझा जाता है और वे उसे अपनी इच्छानुसार गृहस्थ जीवन में धकेल देते हैं. बालादत्त का विवाह माता-पिता की पसंद के अनुसार एक सुकन्या हीरा देवी से कर दिया गया. बालादत्त के पिता पण्डित लक्ष्मीदत्त तिवारी स्वयं ज्योतिष की गणना किया करते थे. उनको खुशी थी कि बेटे-बहू के जन्मलग्न के अनुसार २६ गुण साम्य वाले थे. गुणों के मिलान के आधार पर बहुत से विश्वास करने वाले लोग यह भी देखा करते हैं कि लड़के के मुकाबले लड़की के ग्रह नक्षत्र भारी नहीं होने चाहिए. इसमें राशियों के स्वामियों का भी चक्कर रहता है. मित्र राशियों की दृष्टि का भी ख़याल रखना पड़ता है. इस गोरखधंधे में कई बार बने हुए रिश्तों में रोड़ा आ जाता है या फिर बाद में पछताना पड़ता है.

सब कुछ हिसाब किताब लगाने के बावजूद हीरा देवी ने ससुराल आते ही अपना उग्र स्वभाव दिखाना शुरू कर दिया. समय समय पर हीरा देवी ने अशांति के कई अवसर पैदा किये. छोटी छोटी बातों पर बिगड़ जाना और रूठ जाना आम बात थी. बालादत्त के लिए पत्नी और परिवार के साथ सामंजस्य बैठाना कठिन हो जाता था. पत्नी के स्वभाव के आगे उनकी सारी विद्वता धरी की धरी रह गयी. इसी बीच उनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हो गयी. यह सोचा जा रहा था कि अब सब ठीक होता जाएगा पर नहीं, हीरा देवी और भी नखरैल तथा कर्कशा बनी रही. एक दिन जब बालादत्त के अहं को ज्यादा ही ठेस पहुँच गयी तो उसने संकल्प किया कि गृहस्थ जीवन त्याग कर सन्यास ले लिया जाय और किसी को बिना बताए उन्होंने हरिद्वार का रुख कर लिया जहाँ कई महीनों तक अलग अलग आश्रमों/अखाड़ों में जाकर संत-महात्माओं के सानिध्य में रहे. एक दिन गुरू एकनाथ स्वामी ने उनको कंठी पहना दी और नाम दे दिया ‘निर्मोही नाथ’.

निर्मोही नाथ की वाणी में सरस्वती विराजती थी और धर्मशास्त्रों के विषय में विषद ज्ञान था. गुरू ने चेले को सही पहचाना और धर्म नगरी के बाहर धर्म प्रचार के कार्य में लगा दिया. बहुत जल्दी वे हरियाणा, पश्चमी उत्तर प्रदेश और हिमांचल में ज्ञानी संत के रूप में स्थापित हो गए. प्रवचन किया करते थे तथा सच्चे मन से जगत कल्याण की बातें किया करते थे. दस वर्षों के अंतराल में वे एक स्थापित संत महात्मा की रूप में पहचाने जाने लगे. गुरू ने उनको हरियाणा के हिसार में स्थित अपने मठ का महंत बना कर भेज दिया. महंत बनने के बाद उनकी जीवनशैली बदल गयी. लोग अब अपने जीवन में घटित सच्चाइयों तथा समस्याओं के समाधान की फेहरिस्त लेकर आने वाले संसारियों की बातों ने उनके अपने अतीत में भी झांकने को मजबूर कर दिया.

एक दिन जब एक मजबूर महिला अपने १०-१५ वर्षीय पुत्र को लेकर उनके पास आई और आगे के लिए मार्गदर्शन व आशीर्वाद लेने से पहले बताने  लगी कि बच्चे का बाप अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियों से भाग कर लापता हो गया है तो महंत जी को उस कहानी में खुद को देखने का झटका सा लगा. उस रात महंत निर्मोही नाथ सो नहीं सके. सोचने लगे कि उनके बारे में भी इसी तरह की चर्चा घर-परिवार और समाज में होती होगी. वे हीरा देवी की बातों को लेकर अपने पुत्र की अनाथ स्थिति पर सोचते हुए बेचैन हो गए. बूढ़े माता-पिता के चित्र भी उनके सामने आने लगे. उनको लगा कि उन्होंने अपने परिवार के प्रति अन्याय किया है. पितृ ऋण नहीं चुकाया है. इस प्रकार अनेक मानसिक उथल पुथल के बाद, वे ब्रह्म मुहूर्त में उठकर दिल्ली की ओर रवाना हो गए. मठ की पुस्तिका में लिख आये कि आवश्यक कार्यवश नैनीताल जा रहे हैं.

सीधे अपने गाँव पहुंचे. माता पिता दोनों वृद्ध हो चले थे. निर्मोही बाबा का सही परिचय पाकर भाव विह्वल हो गए. हीरा देवी भी उजाड़खंड में उगे पेड़ की तरह कांतिहीन व झुर्रियों से ग्रस्त थी. अपने व्यवहार पर मानो लज्जा महसूस कर रही थी. बेटा चैतन्य, अपने पिता की प्रतिमूर्ति, सामने खड़ा सब देख रहा था. निर्मोही बाबा का मोह जागृत हो गया. उन्होंने अपनी झोली-झंटी फेंक कर वापस अपनी गृहस्थी में लौटने की स्वीकृति दे दी. गाँव-पड़ोस-बिरादरी में खुशी की लहर थी कि बालादत्त लौट आये हैं. इस कौतुक को देखने-सुनने को सभी नए पुराने लोग आ जुटे. हीरा देवी ने अपने सुहाग के चिन्हों को यथावत रखा था. उसको यह अहसास हो गया था कि सब कुछ उसके दुर्व्यवहार का परिणाम था. पति गायब होने के बाद ही उसे पति की महत्ता का भान हो गया था.

पिता ने कहा कि “जो हुआ सो हुआ" और अब बाला दत्त के वापस आने पर उनको मानो स्वर्ग के सब सुख प्राप्त हो गए हैं. घर में जश्न का माहौल हो गया, नाई बुलाया गया जिसने बालादत्त की हजामत करके उसे असली रूप में ला दिया. माँ बहुत खुश थी. लेकिन मनुष्य जो चाहता है या सोचता है, वह हमेशा सच नहीं हो पाता. एक सप्ताह बाद निर्मोही बाबा के अखाड़े के आठ-दस साधू उनके गाँव में आ धमके और बिना कोई बात-बहस किये बालादत्त पर टूट पड़े. चिमटों से मारते हुए उनको उसी अवस्था में ले गए जिसमें वे थे. साधुओं के इस अप्रत्याशित हमले से सभी लोग सकते में आ गए, पर कर कुछ भी नहीं सके.
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बुधवार, 12 दिसंबर 2012

चुहुल - ३९

(१)
सुदूर जंगल के निकट किसी गाँव में एक शहरी मेहमान आया. उसने देखा गाँव में कौवों की आबादी जरूरत से ज्यादा दिख रही है. उसने आतुर होकर एक ग्रामवासी से पूछ डाला, “तुम्हारे गाँव में कितने कौवे हैं?”
ग्रामवासी ने तुरन्त बताया, “गाँव में कुल १२५ कौवे हैं.”
आगंतुक को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उस व्यक्ति ने इस तरह कौवों की सटीक संख्या कैसे बता दी! उसने उत्सुकतावश फिर पूछा, "अगर गिनती में कम ज्यादा निकले तो?”
गाँव वाले ने कैफियत दी, “अगर कौवे गिनती में कम निकले तो समझना कि शेष कौवे मेहमान बन कर अन्य गाँवों में गए होंगे, और ज्यादा निकले तो मानना कि तुम्हारी तरह ही मेहमान बन कर हमारे गाँव में आये हैं.”

(२)
प्रेमी बोला, “तुम्हारे छोटे भाई ने मुझे तुमको चूमते हुए देख लिया है, वह घर में चुगली तो नहीं करेगा?”
प्रेमिका ने इत्मीनान से कहा, “उसे आप केवल पाँच रूपये देकर चुप करा सकते हैं. इस तरह की हरकत देखने पर वह अक्सर पाँच रुपयों में ही खुश हो जाता है."

(३)
एक चित्रकार शहर के निकट किसी गाँव में आकर एक किसान की खूबसूरत झोपड़ी को देखकर उसे अपने कैनवास पर उतारने लगा तो किसान ने उससे पूछ लिया कि “इस चित्र का तुम क्या करोगे?”
चित्रकार बोला, "इस चित्र को मैं शहर में होने वाली प्रदर्शनी में रखूँगा, हजारों लोग इसे देखेंगे.”
किसान बोला, “तो मेहरबानी करके इसके नीचे यह भी लिख देना कि 'यह किराए के लिए खाली है.'"

(४)
एक नवविवाहिता पर उसके पति को ज्यादा ही लाड़ आ रहा था बोला, “तुम आराम करो, आज खाना में बना देता हूँ.”
खाना वास्तव में बहुत लजीज बना था. पत्नी ने तारीफ़ करते हुए कहा “आप तो बहुत बढ़िया खाना बना लेते हैं. जरूर आपने अपनी माता जी से सीखा होगा.”
इस पर पति बोला, “माँ से नहीं पिता जी से सीखा है."

(५)
एक पत्नी हर बात पर मर्दों को ‘बेचारा’ कहा करती थी. एक दिन उसके पति ने उससे पूछ ही लिया, "तुम हमेशा मर्दों को ‘बेचारा-बेचारा’ क्यों कहा करती हो?”
पत्नी बोली, “क्योंकि मर्द बेचारा हवाई जहाज बना सकता है, रेल मार्ग बना सकता है, बड़े बड़े पुल व बिल्डिंगें बना सकता है, विश्वयुद्ध लड़ सकता है, पर बेचारा अपनी कमीज का टूटा हुआ बटन नहीं टांग सकता.”

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मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

गज़ल - ३

ज्यों चकवा देखा करता है
    हर शाम चांदनी की राहें,
ज्यों बेल-लता ढूंढा करती हैं
    ऊँचे दरख्तों की बाहें,

ऐसे ही हाँ, हम ऐसे ही
    पलकें बिछाये रहते हैं,
वो आयें हमारे पास कभी
    यों आस लगाते रहते हैं.

जब सावन आ के गाता है
    या आम कभी बौराते हों
हर बार दिवाली करते हम
    कि साजन शायद आतें हों.

जब मुंडेर पे कागा कह जाता
    कोई मेहमां आने वाला है
हमें और किसी का ख्याल कहाँ,
    कि दिलवर आने वाला है.

हर रात वो ख़्वाबों में आते हैं
    हर रात वो बातें करते हैं
हम शमा जलाये रहते हैं
    दिन को भी रातें करते हैं.

है ख्वाब में आने का ये आलम
    उनके खुद आने पे क्या होगा?
हम खुशी से मर जाएँगे अगर
    मेरे मेहमां का आलम क्या होगा?
                     ***

रविवार, 9 दिसंबर 2012

बैठे ठाले - ३

नई गाड़ी चलाने का रोमांच कुछ और ही होता है. मैं अपने १९ वर्ष पुरानी मारुती ८०० को एक एक्सचेंज ऑफर के तहत बदल कर, नई नैनो सी एक्स लेकर, घर आया तो देखा घर के गेट पर एक नौजवान भिखारी जिसकी उम्र लगभग २०-२२ वर्ष रही होगी, अपनी ढोलक पर थाप देता हुआ सुरीली आवाज में कुछ गा रहा था. वह बिलकुल देसी ठाठ में था. कुर्ता, काली वास्कट, धोती, गले में गेरुए रंग का दुपट्टा और सर पर साफ़ सुथरी सफ़ेद गांधी टोपी. माथे पर चन्दन तथा गले मे कंठीमाला. मैंने देखा कि ढोलक की तनियों में उसने दस दस रुपयों के बहुत सारे नोट फंसा रखे थे जिसका सन्देश यह था कि वह दस रुपयों का नोट ही स्वीकार करता था या लोग इससे कम उसे दिया ही नहीं करते हैं.

कोई लूला-लंगड़ा हो, अपाहिज हो, तो संस्कारवश कुछ न कुछ उसके दानपात्र में डालने में मन को खुशी होती है, लेकिन एक हृष्ट-पुष्ट जवान भीख मांगे तो बहुत बुरा लगता है, चाहे वह किसी भी वेश में हो. मैं अक्सर ऐसे भिखारियों को डांट-डपट कर भगा दिया करता हूँ. इसी क्रम में मैंने उससे भिड़ते ही कहा, “तुम सब प्रकार से सक्षम और तंदरुस्त हो, तुम्हें भीख माँगते हुए शर्म नहीं आती?”

उसने दीनता से कहा, “साहब, मैं तो बचपन से यों ही भजन गाकर माँगता हूँ. मैं जोगी जाति से हूँ, माँगकर खाना हमारा पेशा है.”

इतने में मेरी श्रीमती अन्दर से पाँच रुपयों का सिक्का लेकर उसे देने के लिए आई तो मैंने उससे कहा, “मत दो इसे, इसकी आदत देने वालों ने ही खराब कर रखी है. इसलिये ये कोई काम नहीं करता है.”

“अरे, जाने भी दो, अब दरवाजे पर आस लेकर आया है,” कहते हुए उसको रूपये देने लगी तो माँगने वाले ने अपना स्वाभिमान दिखाते हुए तेवर बदल लिए और बोला, “मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे रुपये.” इतना कह कर वह बिना पीछे मुड़े चल दिया और अगले घर के आगे ढोलक के साथ भजन गाने लगा. यद्यपि मैंने अपनी श्रीमती के सामने यह दर्शाने की मुद्रा बनाई कि उस भिखारी को भगाने का मुझे कोई अफसोस नहीं था, लेकिन मन ही मन मुझे बहुत ग्लानि हो रही थी कि दर पर आया भिक्षुक अस्वीकृति के साथ चला गया था.

मुझे संत कबीर का वह दोहा स्मरण हो आया, जिसमें उन्होंने लिखा है, “साईं इतना दीजिए जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय."

यह सनातनी व्यवस्था है जिसमें भिक्षाकर्म को भी एक सीमा तक मान्यता दी गयी है. साधु-संत, फ़कीर या जोगी सभी साधिकार आज भी गाँव-घरों में भिक्षा के लिए आते हैं और समर्थ लोग इसे भी धर्म की व्यवस्था मान कर दान देते हैं. (यहाँ मैं उन साधु-मठाधीशों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो दिखावा कुछ करते हैं, और पांच-सितारा सुविधाएँ भोगा करते हैं.)

मुसलमानों में भी ईद के पहले या बाद में जकात (दान) देने का प्रावधान है. वहाँ तो बकायदा आमदनी का दस प्रतिशत तय है, चाहे लोग उसका सही तरीके से पालन करें या नहीं, पर नियम प्रतिपादित है.

मूल बात, मैंने अपनी नई नवेली नैनो को गैरेज में डाल कर, घर में खुशियों की चाबियाँ लेकर प्रवेश किया और अपने लैपटाप पर अपनी डाक देखने की प्रक्रिया शुरू की तो फेसबुक पर अपने एक सुह्रद मित्र श्री राकेश सारस्वत द्वारा डाली गयी एक दिल को छूने वाली छोटी सी रचना पढ़ कर अभिभूत हो गया. मैंने राकेश जी को बहुत साधुवाद दिया कि बड़ी प्यारी व यथार्थ को बांचती हुई पन्क्तियाँ उन्होंने प्रेषित की हैं. रचना का आशय इस प्रकार है:
"जब घर में विलासिता के नाम पर सिर्फ एक टेबलफैन था, माँ जब रोटिया बनाती थी, तो पहली रोटी गाय की, और फिर घर के सदस्यों के लिए, तथा अंत में कुतिया के नाम की रोटी बनाती थी. अन्न में चींटियों, चिड़ियों, गिलहरियों का भी हिस्सा होता था. काली कुतिया के ब्याने पर तेल-गुड़ का हलवा खिलाया जाता था, पर आज घर में गाड़ी है, ए.सी. है, फ्रिज-टीवी-कंप्यूटर व तमाम आधुनिक फर्नीचर है, लेकिन यदि कोई भिक्षुक गुहार लगाये तो उसे केवल दुत्कार मिलती है. खिड़की से मात्र कर्कश आवाज बाहर निकलती है."
भावार्थ यह है कि पहले जब कुछ नहीं था तो सब कुछ था, और अब सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है.

इस रचना को पढ़कर मैं अपनी "खुशियों की चाबी" पर गंभीरता पूर्वक सोचने लगता हूँ कि यह वैचारिक  युगान्तकारी परिवर्तन हमें कहाँ ले जा रहे हैं और हमारे अंत:करण को अंत में  कितनी खुशी दे पायेंगे.
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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

आनुली आमा

आज से पचास/पछ्पन वर्ष पहले जब पण्डित हरीशचंद्र लोहनी का ब्याह रीति रिवाजों के अनुसार आनंदी उर्फ आनुली देवी के साथ हुआ और वे बारात के साथ दुल्हन की डोली लेकर अपने घर लौटे तो बहिनों, भाभियों तथा कौतुकी महिलाओं को वह बिलकुल पसंद नहीं आई. वे सभी मुँह बिचकाते हुए नई दुल्हन को जैसे अस्वीकार कर रही थी. कारण यह था कि बेचारी आनुली पैदाइशी मंदबुद्धि थी. जैसा कि आमतौर पर देखा जाता है, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण मानसिक बीमारी होती है, जिसके चेहरे पर भी लक्षण दिखते हैं, जैसे आँखें बड़ी बड़ी बाहर को उभरी दीखती हैं, माथा असामान्य रूप से बड़ा हो जाता है और सुनने समझने की क्षमता भी अनियमित रहती है.

इसमें आनुली का तो कोई कसूर नहीं था, पर घर परिवार वालों ने उसकी डोर तेज-तर्रार हरीशचंद्र से बाँध दी. शादी कराने वाले बिचौलिए पुरोहित जी को तो अपनी दक्षिणा से मतलब होता है. जन्म लग्न-चिन्ह कुंडली का मिलान किया और २८/३६ गुण मिला दिये. लड़का-लड़की की पसंद/नापसंद पूछने का तब चलन भी नहीं था और पंडितों में केवल खानदान की कुलीनता पर विचार किया जाता था.

नई नवेली के बारे में जब सब तरफ से बदसूरती की बातें सुनाई पड़ी तो हरीश के दिल को बहुत आधात लगा. अगले ही दिन वह ‘दुर्कूण पलटाने’ (मायके की देहरी का दूसरी बार फेरा लगाने की रस्म) के लिए पत्नी आनुली को उसके मायके ले गया. रास्ते के पहाड़ी पगडंडियों पर पैदल चलते हुए हरीश के मन में बार बार तूफ़ान सा उठ रहा था. वह पत्नी से दूरी बना कर चलता रहा. आनुली की मन:स्थिति क्या रही होगी, कहा नहीं जा सकता. अगली सुबह वह उसे मायके में ही छोड़कर बिना सास-ससुर से विदाई लिए चुपके से अपने गाँव लौट आया.

सब तरफ चर्चा रही कि हरीश ने दुल्हन ‘छोड़ दी’ यानि त्याग दी. “धोखा हुआ है” हरीश के माता-पिता का ये कहना कुछ हद तक सही था. सुन्दर होनहार लड़के का जीवन उस अधपगली के साथ कैसे निभता. लड़की वालों को तो आनुली की असलियत मालूम थी. उन्होंने कन्यादान की रस्म पूरी करके अपना धर्म पूरा कर लिया और अपने परलोक के लिए पाप की गठरी नहीं रखी, पर अब ब्याहता आनुली जब मायके में ही रह गयी तो कहने लगे कि ‘इसके भाग्य में विधाता ने ऐसा ही लिखा होगा’ लेकिन आनुली तो अपनी नासमझी में भी खुद को सधवा-सुहागिन समझती रही और यों ही दिन काटती रही. मन में शिकवा शिकायत रही भी होगी तो उसने कभी प्रकट नहीं किया. भतीजियाँ, भाभियाँ या उनकी बहुवें जब कभी हरीश का नाम लेकर उसे छेडती थीं तो वह नादान बालिकाओं की तरह शरमा जरूर जाती थी यानि उसके मन में कहीं ना कहीं अपने निर्मोही पति की मूरत बसी जरूर थी.

इधर अगले वर्ष हरीशचंद्र की दूसरी शादी कर दी गयी. उसकी गृहस्थी की गाड़ी चल पडी. कालान्तर में उसके दो बेटे और दो बेटियाँ हुई. आनुली को पूरी तरह भुला दिया गया. वह अपने भाइयों के परिवार के साथ लावारिस पलती रही. उसको कोई गम भी नहीं था वह उम्र के तमाम पड़ाव पार करती रही. दोनों पक्षों के बुजुर्ग अपनी उम्र के अनुसार संसार से विदा होते रहे. एक दिन ७५ साल की उम्र में पण्डित हरिश्चन्द्र लोहनी भी स्वर्गवासी हो गए.

आनुली को इस सूतक में हरीश के लड़कों के पास लाया गया. उसने भी पत्नीधर्म के अनुसार अपनी चूड़ी-चरेऊ तोड़ी और मृत पति को तिलांजलि दी तथा श्राद्ध कर्मों में पानी-पुष्प चढ़ाया.

हरीश चन्द्र की दूसरी पत्नी व बेटों ने आनुली के बारे में केवल सुना ही था, कभी मिले नहीं थे. अब इस अवसर पर जब वह साथ रही तो वे सभी उसकी मासूमियत और निश्छलता पर इतने द्रवित हुए कि उसको क्रियाकर्म के बाद भी अपने पास ही रोक लिया.

हरीश लोहनी के नाती-पोतों के लिए ‘आनुली आमा’ एक अजूबी तो थी, पर सभी ने उसे परिवार के सदस्य के रूप मे स्वीकार कर लिया. आनुली आमा को अब इहलोक से ज्यादा परलोक की फ़िक्र है. उसे दीन दुनिया की ज्यादा खबर तो नहीं है, पर वह संस्कारवश यह मानती है कि मरने के बाद ये बेटे ही उसको सदगति दिलाएंगे. वह बेटों से कहती भी है कि “जब मैं मर जाऊंगी तो मेरी अस्थियां-फूल चुन कर तुम हरिद्वार में अपने बाप की अस्थियों वाली जगह पर गंगा जी में डाल कर आना.” उसकी इस आस्था पर सबको दया आती है.
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बुधवार, 5 दिसंबर 2012

पहाड़िन

प्रकृति ने स्त्री और पुरुष दोनों में किसी को भी विशेषाधिकार दिये बिना पैदा किया, पर हमारे पुरुषप्रधान समाज में कानूनों के परे यदि कोई पुरुष यौन अपराध करे तो उसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जबकि स्त्री को छोटी सी गलती पर भी दण्डित होना पडता है. होना यह भी चाहिए कि सीता जैसी पत्नी की अपेक्षा करने वाले स्वयं भी राम के चरित्र वाले हों. इस विषय में समाज की विद्रूपताएं अनेक बार प्रकाश में आती हैं, और नहीं भी आ पाती हैं. एक दुर्भाग्य की मारी स्त्री के कहानी इस प्रकार है:

२३ वर्षीय गोविन्द वल्लभ जोशी नया नया पंचायत सेक्रेटरी बना और ट्रेनिंग पाकर सीधे अपनी नियुक्ति में नैनीताल जिले के तराई में बरेली जिले की सीमा के पास लोकाती गाँव पहुँचा. तब उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बना था और ना ही उधमसिंह नगर नाम के अलग जिले का उद्भव हुआ था.

गोविन्द जोशी जब कुर्मी आदिवासियों के इस देहाती गाँव को तलाशते हुए वहाँ गया तो ग्रामीणों ने परिचय में उससे उसके बारे में पूछा, “कहाँ के रहने वाले हो? कौन जात हो? आदि." गोविन्द ने सभी सवालों के जवाब दिये. बताया कि "वह पहाड़ का रहने वाला है, जाति से ब्राह्मण है, अभी अविवाहित है." इसी वार्तालाप के दौरान एक नौजवान ने कहा कि “हमारे नन्हे चाचा की जोरू भी पहाड़िन है,” तो गोविन्द को उत्सुकता हुई और उसने कहा कि “चलो मुलाक़ात कराओ.”

पता नहीं लडकों में से कैसे और किसने सुर्रा छोड़ दिया कि "पहाड़िन चाची का भाई आया है," बस फिर क्या था, गोविन्द को बाइज्जत नन्हे के घर ले जाया गया. नन्हे लगभग ५० वर्ष का काला कलूटा, चेहरे पर चेचक के बहुत से गहरे दाग व बड़ी बड़ी मूछों वाला आदमी था. उसको सब लोग लम्बरदार भी कह रहे थे. बातचीत शुरू हुई तो लम्बरदार ने गोविन्द को प्यार से ‘साले साहब’ भी पुकारा. यद्यपि गोविन्द यह सुन कर कुछ असहज हुआ, पर अपनापन पाकर उसे अच्छा भी लगा.

बहुत देर बाद पहाड़िन यानि कलावती झेंपते हुए प्रकट हुई. वह लगभग ४० साल की सुन्दर, सुडौल व गोरी-चिट्टी औरत थी. गोविन्द ने सहजता से नमस्कार किया तो कलावती की आँखें भर आई. उस वक्त ज्यादा कुशल बात पूछने का अवसर नहीं था. लम्बरदार ने पंचायत कार्यालय के पास ही गोविन्द के रहने-ठहरने की व्यवस्था कर दी.

गोविन्द जोशी के मन में कई दिनों तक ‘पहाड़िन’ के बारे में जानने के लिए कौतुहल रहा कि पहाड़ी औरत इस कुर्मी-भुर्जी लोगों के गाँव तक कैसे  पहुँची होगी? नन्हे-कलावती की १२ वर्षीय बेटी भवानी और १० वर्षीय बेटा छोटू गोविन्द को ‘मामा’ संबोधन से पुकारने लगे थे, और माँ द्वारा भेजी गयी खाने पीने की चीजें उसको पहुंचाते थे. गोविन्द ने उनसे उनकी माँ के बारे में बहुत सी जानकारी ले ली, पर वे यह नहीं बता सके कि वह इस आदिवासी गाँव में कैसे आई?

एक दिन गोविन्द ने जब कलावती से जिज्ञासावश अकेले में पूछ ही लिया, “दीदी, तुम यहाँ कैसे पहुंची?” यह प्रश्न सुन कर कलावती बहुत उदास हो गयी और बोली, “भैय्या, ये सब भाग्य का चक्कर था. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि अपने घर-परिवार, माँ-बाप, भाई-बहिनों से इस तरह दूर हो जाऊंगी. अब तुम भाई बन कर आये हो तो सच्चाई ये है कि मैं द्वाराहाट के सीलोन गाँव की ब्राह्मण परिवार की बहू थी. पति फ़ौज में थे, उनकी अनुपस्थिति में मुझ से एक भूल हो गयी. मैं एक पड़ोसी को अपना समझ बैठी. उसने मुझ से ऐसा धोखा किया कि मैं बदनाम हो गयी. बात इतनी बिगड़ गयी कि गाँव वालों ने मुझे गाँव से निकाल दिया. मैं बेसहारा, बदहवास होकर बस से हल्द्वानी आ गयी. वहाँ मेरी एक बुआ रहती है, पर उसके घर का पता मेरे पास नहीं था तभी मुझे एक आदमी मिला, जिसे मैंने अपना हमदर्द समझा लेकिन उसने सहारा देने के नाम पर मुझे इस लम्बरदार को बेच दिया. अब यही मेरा घर है, यही मेरा सँसार है.” यह बयान करते हुए उसके गालों में आंसू ढुलक पड़े.

गोविन्द जोशी बताते हैं कि “मैं जब तक उस गाँव में पंचायत सेक्रेटरी रहा उस परिवार को अपना समझता रहा और कलावती को अपनी बहिन के रूप में देखता रहा. दो वर्षों के बाद मैंने पंचायत सेक्रेटरी की नौकरी छोड़ कर पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय में बतौर अकाउंट्स क्लर्क नियुक्त हो गया. यह ३५ साल पुरानी दास्तान है.”

गोविन्द जोशी आगे बताते हैं, “मैं धीरे धीरे उस रिश्ते को भूलता गया क्योंकि अपनी शादी होने के बाद मैं अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गया. उसके लगभग १० वर्षों के बाद एक दिन नन्हे लम्बरदार और उसकी पत्नी कलावती मुझे ढूंढते हुए पन्तनगर आ पहुंचे. मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं उनको आवासीय परिसर में अपने क्वार्टर पर ले गया. मेरी पत्नी ने उनका अपने रिश्तेदारों की तरह स्वागत-सत्कार किया.

कलावती दीदी ने बताया कि वह इन वर्षों में मुझे बहुत याद करती रही. उसने अपना दर्द इन शब्दों में बयान किया, “मुझे लगता है कि मैं कहीं लंका में जा बसी हूँ और जीवन में कभी भी अयोध्या नहीं लौट पाऊँगी.”

उसका इस प्रकार सोचना स्वाभाविक है. कोमल नारी ह्रदय अपने बचपन, सगे सम्बन्धियों, रीति-रिवाज व संस्कारों से बिछुड़ने के बाद ऐसी त्रासदी झेलने को मजबूर था. एक भूल ने उसका सब कुछ बदल कर रख दिया था.
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सोमवार, 3 दिसंबर 2012

झोलाछाप

झोलाछाप शब्द का प्रयोग उन चिकित्सकों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो बिना किसी मान्यता प्राप्त डिग्री/डिप्लोमा के ही कार्यरत हैं. अंग्रेजी में इनको ‘क्वैक्स’ कहा जाता है. इन चिकित्सकों को दो प्रकार से देखा जाता है: एक तो यह कि इनको शरीरक्रिया विज्ञान तथा द्रव्यगुण विज्ञान की कोई जानकारी नहीं होती है और ये उन लोगों के जीवन से खिलवाड़ करते हैं जिनको ये पता ही नहीं होता है वह चिकित्सक योग्य है या नहीं. क्योंकि आजादी के ६५ सालों के बाद भी हमारे देश में अशिक्षा और अज्ञानता चारों ओर फ़ैली पड़ी है.

दूसरा यह कि हमारा देश इतना विशाल है जिसकी जनसंख्या सवा अरब के पार जा चुकी है, जिसको सँभालने के लिए योग्यता प्राप्त डॉक्टरों/वैद्यों/हकीमों की संख्या बहुत कम है. अधिकांश योग्य चिकित्सक शहरों में ही अपना ठिकाना बना लेते हैं, वहीं नौकरी या प्राईवेट प्रेक्टिस करते हैं. सरकारों के लाख चाहने पर /आर्थिक प्रलोभन बढ़ाने पर भी वे गाँव-देहात में नहीं जाना चाहते है, जबकि तीन चौथाई आबादी गावों में ही बसती है तथा उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी निगरानी की अधिक आवश्यकता होती है.

सच तो यह है कि ‘चिकित्सा’ अब कोई सेवा का मिशन नहीं रहा है. यह व्यवसाय बन गया है. व्यवसाय के रूप में भी लूट का जरिया बन गया है. बड़े बड़े डॉक्टरों ने अपनी दुकानें (अस्पताल) खोल ली हैं, जिनमें पहले कंसल्टेंसी के रूप में तगड़ी फीस ली जाती है और फिर स्वयं द्वारा नियोजित लैब/डाईग्नोसिस सेंटर्स में आवश्यक/अनावश्यक टेस्ट करवाकर मरीज को छील लिया जाता है.

देश में दवाओं का यह हाल है कि उनकी लागत व खुदरा कीमत में १००-२०० गुना का फर्क होता है. कई नामी कंपनियां अपने रिटेलर्स को २५ से ५० प्रतिशत तक का कमीशन दिया करती हैं. बिकने वाली दवाओं में भी लिखने वाले डॉक्टरों का कमीशन तय रहता है. इस सब के बावजूद तुर्रा यह है कि दवा असली है या नकली इसकी कोई गारंटी नहीं होती है. एक प्रबुद्ध कैमिस्ट का बयान है कि “दवाओं के असली या नकली होने की पहचान हम खुद ही नहीं कर पाते हैं.”
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यह गंभीर चिंता का विषय है कि सरकारी अस्पतालों को उपलब्ध होने वाली दवाओं में गुणवत्ता और कीमत में कितना घोटाला हो रहा है? इसी सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश के कई सी.एम.ओ. मारे गए हैं, अथवा लिप्त पाए गए हैं.
इस परिदृश्य में लाखों झोलाछाप डॉक्टर/वैद्य/हकीम, प्रतिबंधित/शेड्यूल्ड दवाओं-इंजेक्शनों का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं और कमाई कर रहे हैं. इनसे ईलाज कराने में हर आम गरीब आदमी को लगता है कि कन्सल्टिंग फीस तथा डाईग्नोसिस सेंटर का खर्चा बच गया. स्वस्थ होने वाला मरीज बहुत सस्ते में निबटने पर राहत महसूस करता है.

जहाँ तक राहत महसूस करने की बात है एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला गया कि ९५% रोगी तो हवा-पानी और अपनी प्रतिरोधात्मक क्षमता से कुछ दिनों में स्वत: ठीक हो जाते हैं, पर लाक्षणिक चिकित्सा से उनको लगता है कि दवा से ठीक हुए हैं. शेष ५ प्रतिशत में से ३ प्रतिशत अवश्य दवाओं का लाभ पाते हैं, बाकी बचे हुए दो प्रतिशत ऐसे होते हैं, जिनको योग्य चिकित्सक व सही डाईग्नोसिस की जरूरत होती है. अगर ये उपलब्द्ध हो गए तो ठीक, अन्यथा मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य है, चाहे वह गलत दवाओं के कारण अकाल ही आ गयी हो.

झोलाछाप चिकित्सकों की योग्यता पर सवाल उठाने तथा उनके विरुद्ध कार्यवाही करने की माँग करने वाले मुख्यत: वे योग्यता प्राप्त डॉक्टर या उनके संगठन होते हैं, जिनके आर्थिक हितों पर इनकी वजह से कमी आती है. केन्द्र/प्रदेश सरकारों ने चिकित्साधिकार देने वाली मेडीकल काउंसिलें बना रखी हैं, लेकिन उनकी निगरानी कितनी कारगर होती हैं, उस पर भी अनेक संदेह हैं. जो पंजीकृत कैमिस्ट या वैद्य कई साल पहले गुजर चुके हैं, उनके सर्टीफिकेट आज भी लाइसेंस के रूप में दुकानों पर टांगे हुए मिलेंगे. आदमी कहीं नौकरी कर रहा है और उसका सर्टीफिकेट किराए पर कैमिस्ट को दिया गया है. ड्रग इन्स्पेक्टर/हेल्थ ऑफिसर सबकी रंगदारी तय रहती है. यह हमारे भ्रष्ट तन्त्र की सच्चाई है.

इस पूरे विषय का दूसरा पहलू यह धारणा भी है कि सभी योग्यता प्राप्त या सर्टिफाइड डॉक्टर होशियार होते है. यह बिलकुल गलत है. ३३% अंक लेकर उतीर्ण होने वाले या मुन्ना भाईयों की तरकीब से जो डॉक्टर बने हैं, वे झोलाछाप डॉक्टरों से बदतर होते हैं. झोलाछाप में भी कई श्रेणियाँ हैं: कुछ ट्रेंड/अनट्रेंड कम्पाउन्डर, फार्मसिस्ट, नर्स, या अन्य अस्पताल कर्मी अपने दीर्घकालीन अनुभवों से जो ज्ञान प्राप्त किये रहते हैं, उससे उनके द्वारा किया गया चिकित्सकीय कार्य सस्ता टिकाऊ और सही होता है. ऐसे कई मामले सामने आते हैं, जिनमें आम लोगों का विश्वास बड़े डाक्टरों की अपेक्षा इन पर ज्यादा होता है. अनुभव ऐसी चीज है, जो मात्र पढ़ाई से प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसका कोई छोटा रास्ता भी नहीं होता. इसी क्रम में खानदानी वैद्य व हकीम भी आते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी इसी विद्या से जुड़े रहते हैं. कुछ समय पहले तक ‘अनुभव के आधार पर’ चिकित्साधिकार के पंजीकरण होते रहे हैं. ऐसे चिकित्सक अपने नाम के आगे R.M.P. लिखने से गुरेज नहीं करते हैं.

ऐतराज की बात यही है कि आयुर्वेद पढ़ा हुआ चिकित्सक यदि एलोपैथिक दवाओं का प्रयोग कराये या एलोपैथिक/होम्योपैथिक वाला अपनी चिकित्सा पद्धति के बजाय दूसरी दवाएं लिखे तो पूरी प्रणाली पर प्रश्न उठने लगते हैं. स्थिति यह भी होती है कि लोग तुरन्त स्वास्थ्य लाभ चाहते हैं, चाहे उनकी दवा में ‘कार्टीज़ोन या स्टीरोइड’ मिला कर दी जा रही हो, जिसके दूरगामी परिणाम घातक होते हैं.

एक समय सरकार ने चीन देश की तर्ज पर गाँवों-कस्बों में इस प्रकार चिकित्सा कार्यव्यापार कर रहे लोगों की लिस्ट बनवाई थी और इरादा था कि सबको चिकित्सा के मूलभूत आधार-सिद्धांतों की ट्रेनिंग दी जाये, पर बाद में इस विषय पर चर्चा बन्द हो गयी है. हल्ला-गुल्ला तभी होता है जब ‘क्वैक्स’ के हाथों से अचानक कोई मर जाता है और समाचार की सुर्खियाँ बन जाता है.

स्वास्थ्य मंत्रालय को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.
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शनिवार, 1 दिसंबर 2012

चुहुल - ३८

(१)
ऑफिस में काम करने वाले एक सज्जन ने अपने साथी से कहा, “यार, अगर आज घर जाकर तुम्हारे साथ कोई घाटे की घटना पेश आये तो तुम अपने गम में मुझे भी शामिल समझना.”
“घाटे की घटना? मैं समझा नहीं?” साथी ने पूछा.
वह बोला “मेरी पत्नी ने कल १५,००० हजार रुपयों की एक साड़ी खरीदी है, जिसे पहन कर वह आज तुम्हारी बीवी से मिलने गयी है.”

(२)
एक आदमी ने अपनी पत्नी का बीमा कराया और पॉलिसी लेते वक्त एजेंट से पूछा, “अगर कल को मेरी पत्नी की मृत्यु हो गयी तो मुझे क्या मिलेगा?”
एजेंट बोला, “ज्यादा से ज्यादा मृत्युदंड.”

(३)
एक बदमिजाज औरत जासूसी उपन्यास पढ़ रही थी. पढ़ते पढ़ते अपने पति से बोली, “अगर कोई मुझे अगवा करके उठा ले जाये तो तुम क्या करोगे?”
पति बोला, “मैं उससे कहूँगा - ऐसे रिस्क लेने की क्या जरूरत है? आराम से ले जाओ.”

(४)
एक व्यक्ति अपने दस वर्षीय बेटे को चिड़ियाघर दिखाने के लिए गया. वहाँ पर शेर के पिंजड़े के पास खड़ा होकर लड़का गुमसुम हो गया और गहरे सोच में पड़ गया. बाप ने उससे पूछा, “क्या सोच रहे हो, बेटा?”
बेटा बोला, “मैं सोच रहा हूँ कि अगर पिंजड़े से निकल कर ये शेर आपको खा जाएगा तो मैं कितने नम्बर की बस से घर जाऊंगा?”

(५)
पोस्टमैन की नौकरी के लिए उम्मीदवारों का इन्टरव्यू हो रहा था. एक उम्मीदवार से प्रश्न पूछा गया, “बताओ, पृथ्वी से चंद्रमा के बीच कितनी दूरी है?”
उम्मीदवार चिंता में पड़ गया, बोला, “अगर आप लोग मुझे इतनी दूर डाक पहुंचाने का काम देना चाहते हैं तो ये नौकरी मुझे नहीं चाहिए,” और उठ कर चला गया.
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