मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

गागल सीमेंट वर्क्स, बिलासपुर, हिमांचल प्रदेश

सन १९८४ में मैं ए.सी.सी. के लाखेरी कारखाने में कार्यरत था. किसी कार्यवश अपने कॉर्पोरेट आफिस (सीमेंट हाउस, चर्चगेट) मुम्बई गया था. वहां प्रवेश द्वार के पास स्वागत कक्ष के सामने एक भव्य, विशाल दृश्यावली वाली तस्वीर प्रदर्शित की गयी थी. उसे देखते ही मुंह से निकल पड़ा, "वाह." दृश्य बहुत मनोहारी था. नीले अम्बर के नीचे बड़े-बड़े खड़े पहाड़, जिनके तल पर गाँव-खेत और नीचे बीचोंबीच सर्पीली नदी, और तलहटी में एक नया सीमेंट कारखाना स्थापित हुआ था, जिसे नाम दिया गया था "गागल" (वैसे गागल हिमांचल में ही धर्मशाला के पास एक अन्यत्र स्थान का नाम भी है). यहाँ पहले से बसे गाँव का नाम बरमाना है.

सन १९९७ में मुझे यूनियन प्रतिनिधि के रूप में उत्तर-पश्चिम भारत के माईन्स विभाग द्वारा आयोजित एक सिम्पोजियम में भाग लेने के लिए यहाँ आना हुआ तो मैं अति उत्साहित था क्योंकि यहाँ की सुरम्यता मेरे मन मस्तिष्क में पहले से विद्यमान थी. जब मैं यहाँ पंहुचा तो सीधे ए.सी.सी. के सतलुज गेस्ट हाउस में ले जाया गया, जहां से मंत्रमुग्ध करने वाली नैसर्गिक छटा का दर्शन सुलभ था.

सतलुज नदी, जिसे प्राचीन साहित्य में सत्द्रुत कहा गया है, अपनी लाखों वर्ष पुरानी तेज धारा को निनादित करती हुई अविरल बहती जाती है. अब तो व्यास नदी का भी जल सुरंगों के माध्यम से इसमें लाया जाता है, जो आधुनिक भारत के तीर्थ भाखड़ा डैम में जाकर मिलता है. सतलुज के किनारे पर प्राचीन कस्बा डेहर बसा हुआ है जो किसी जमाने में हिमांचल का मुख्य द्वार व व्यापार का केंद्र भी रहा होगा. उसके पृष्ट पर पर्वत मालाएं हैं, जिन पर दूर से ही देवालय-देवस्थानों के दर्शन होते हैं.

कुल्लू-मनाली मार्ग पर बरमाना एक छोटा सा गाँव किसी समय मात्र १०-२० घरों की बस्ती रही होगी. बिलासपुर से आगे घाघस पार कर जहां पंजगाई-बैरी तक हम आते हैं तो घाटी के गोद में बसे हुए इस बड़े सीमेंट उद्योग की कल्पना नहीं करते हैं, लेकिन जब पूरा परिदृश्य सामने होता है तो कंपनी के उन कर्णधारों को साधुवाद कहने का मन होता है जिन्होंने इसकी स्थापना की परिकल्पना की होगी. जहां इस कारखाने के उत्पादन से राष्ट्रनिर्माण हो रहा है वहीं इस पूरे इलाके के वैभव में अपार वृद्धि हुई है.

कारखाने और रिहायसी कालोनी के आसपास जो सघन वृक्षारोपण हुआ है, उससे ये क्षेत्र अनुपम हो गया है. इसके साथ ही जो जो पुष्पवाटिका सतलुज उद्यान के आसपास पल्लवित और पुष्पित की गयी है, उससे इसे जंगल में मंगल की संज्ञा दी जा सकती है. खदान और कारखाने के बीच में एक फलोद्यान भी बनाया गया है, जहाँ हर आने जाने वाले विशिष्ठ व्यक्ति द्वारा एक पौधा लगाया जाता रहा है. मैंने भी एक आम का पौधा यहाँ लगाया था. तब इस कारखाने के प्लांट हेड सूरी जी व माईन्स मैनेजर चावला जी थे, जिनके द्वारा किया गया स्वागत-सत्कार की यादें इतने वर्षों के बाद भी जेहन में ताजा हैं.

ये संयोग रहा कि मेरा कनिष्ठ पुत्र प्रद्युम्न सन २००६ में इसी कारखाने में एच. आर. हेड स्थानान्तरित होकर आया. और मैं अगले तीन वर्षों तक उसकी पोस्टिंग के दौरान यहाँ रहा आता जाता रहा. श्री वासुदेव ठाकुर का जिक्र करना भी मैं नहीं भूलूंगा, जिन्होंने गागल को खूबसूरत बनाने में ही अपने सुनहरे दिन बिता दिए. वे अब रिटायर हो चुके हैं. इसके अलावा डॉ. पुष्पेन्द्र हांडा, जो वर्षों तक गागल के प्राण रहे, अब मुम्बई की वादियों में रह कर जरूर पुराने घरौंदे को याद करते होंगे. गागल में लाखेरी मूल के अनेक कर्मचारी आज भी कार्यरत हैं. ए.सी.सी. का पुराना कर्मचारी होने के नाते मुझे ये जानकर आनंद व सुख का अनुभव होता है कि ये कारखाना बहुत अच्छी स्थिति में चल रहा है. सब को शुभ कामनाएं.
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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

मैं प्यारेलाल ही ठीक हूँ

यों तो मेरा नाम इस्लाम मोहम्मद है, धर्मपरायण मौलवी साहब और मेरे अम्मी-अब्बू ने ये नाम बहुत खुशी खुशी दिया होगा. ये नाम ऐसा है कि इसके उच्चारण से ही मालूम हो जाता है कि मैं धरम से मुसलमान हूँ. पहली झलक में ही ये नाम ट्रेडमार्क की तरह मेरी पहचान है.

मैं उत्तर प्रदेश के उस इलाके के ग्रामीण परिवेश में बड़ा हुआ हूँ, जिसे मुजफ्फर नगर-मेरठ कहा जाता था. पिछले साल मेरे परिवार ने भी हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों/दंगों की त्रासदी झेली है. राजनैतिक रोटियाँ सेकने वालो ने इस इलाके का भाईचारा बिगाड़ कर रख दिया है, जिसके घावों को भरने में लंबा समय लग सकता है. शंकाएं, असहिष्णुता, व डर के भूत आज भी दिन रात सताते हैं.

मैं अपने वाल्देन की सात संतानों में सबसे बड़ा हूँ. मैं जब आठ साल का हुआ तो मुझे मेरी फूफी के पास मेरठ शहर में भेज दिया गया जहां मैं फूफा की छोटी सी मोटर रिपेयेरिंग वर्कशाप में काम सीखने लग गया था. मैंने कुछ ही सालों में स्कूटर, बाईक और मोटर कार रिपेयरिंग सीख लिया था तब मुझे अच्छा जेबखर्च मिलने लगा. १८ साल का होने पर मेरे फूफा ले मेरा ड्राईविंग लाईसेंस भी बनवा दिया था मेरे गाँवखेडा के चचा दिलावरखान पेपर मिल में ड्राईवरी करते हैं, जिन्होंने मेरी नौकरी वहाँ के एक मैनेजर उपाध्याय साहब के प्राईवेट ड्राईवर के बतौर ६००० रूपये माहे पर लगा दी तो मेंरी जिन्दगी की गाड़ी बढ़िया ढंग से चल पड़ी. मैंने साहब की होंडा सिटी कार चार सालों तक चलाई।  साहब पहले तो मुझे बच्चा समझ कर नौकरी देने में बहुत झिझके थे, पर बाद में पूरा भरोसा करने लगे थे. चूँकि मैं मैकेनिक भी था इसलिए वे मेरी अहमियत समझने लगे थे. मैं उनके बच्चों के साथ खूब घुलमिल भी गया था. उनके वहा काम करते हुए खुद के मुसलमान होने का या उनके हिन्दू होने का वैभिन्य भाव कभी प्रतीत नहीं हुआ. उसी बीच मेरी शादी भी गाँव में हुई तो साहब ने मेहरबानी करके अपनी कार मुझे शादी समारोह में ले जाने के लिए दे दी, जिससे मेरे परिवार नाते रिश्तेदार भी खुश हो गए थे. निकाह के वक्त खुद हाजिर होकर साहब ने मेरी शान बढ़ा दी थी. बाद में जब साहब की बदली दिल्ली को हो गई तो मैं भी उनके साथ ही दिल्ली आ गया था. मेरे रहने का इंतजाम एक डॉरमेटरी में था जहां अन्य बहुत से ड्राईवर भी रहते थे आपस में नोकारियों और तनखाह की बातें होती रहती थी. उनमें कुछ तो बड़ी तनखाह वाले भी थे. मुझे लगा कि मुझे कम तनखाह मिल रही है. एक दिन मैंने उपाध्याय साहब की नौकरी छोड़ कर एक कर्नल साहब (सरदारजी) के वहाँ दस हजार रुपयों की नौकरी पकड़ ली. कर्नल साहब की गैराज में तीन गाड़ियां थी, पर तनखाह बढ़ने के साथ ही यहाँ मेरी नौकरी चौबीसों घंटे की हो गयी थी. कर्नल साहब बड़े सख्त मिजाज के हैं. उनका गुर्राना, डांटना मुझे बहुत खलता था. मेरा चैन हराम हो गया था. जैसे तैसे एक साल काम किया फिर एक दिन जब नहीं सहा गया तो मैंने वह नोकरी भी छोड़ दी.

मैंने उपाध्याय साहब को जाकर सारी बात बताई और फिर से काम पर रखने का आग्रह किया, लेकिन उनके पास दूसरा ड्राईवर व्यवस्थित हो कर काम कर रहा था. मुझे उन्होंने भरोसा दिया कि जब भी जरूरत पड़ेगी फोन करके बुला लेंगे.

मैं पिछले आठ महीनों से बेरोजगार हूँ. गाँव में अपने परिवार के पास ही रहता हूँ. इस बीच मेरे भी दो बच्चे हो गए हैं. ये बेरोजगारी का दर्द वही समझ सकता है, जिसे ये व्यापी हो. मैंने कई जगह नौकरी के लिए संपर्क किया लेकिन बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि मेरा नाम अब मेरी नौकरी के आड़े आने लग गया है. जब से देश में सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ा है, हिन्दू मालिक मुझ से बिदक जाते हैं. रहा सहा दुनिया में निरीह लोगों को मारने वाले आतंकवादियों ने माहौल में इस कदर जहर घोल दिया है कि कोई मुझे काम पर रखने को तैयार नहीं हो रहा है. हालाकि एक बड़े नेता ने यों भी कहा है कि सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, पर सारे आतंकवादी मुसलमान हैं. अब अगर दिल चीर कर दिखाया जा सकता तो मैं भी जरूर दिखा देता, परन्तु निर्दोष होने का प्रमाण पत्र कहाँ से लाऊँ. देश के बहुत से माननीय साधू संत, सन्यासी, साध्वी इस्लाम के बारे में जिस तरह की भाषा बोल रहे हैं, उन पर कोई लगाम नहीं है और ना ही वोटों की राजनीति करने वाले मुसलमानों के रहनुमाओं के बोलों पर कोई लगाम है. बहरहाल इन सबका असर मेरे जैसे गरीब मेहनतकश के चूल्हे पर पड़ रहा है.

इस बीच उपाध्याय साहब का एक फोनकाल आया कि दो तीन दिन का काम है, तो मैं दिल्ली आया. मुझे बताया गया कि उपाध्याय जी के पिता यानि बाबू जी को किसी ख़ास रिश्तेदार के घर वृन्दावन लेकर जाना है, जहाँ पर किसी रिश्तेदार की मौत हुयी थी. बाबू जी को मैंने पहले भी देखा है वे कर्मकांडी, तिलकधारी पंडित हैं, पर मुझ से वे अपने पोते की तरह व्यवहार करते हैं. मैं बाबू जी को साहब की छोटी गाड़ी में वृंदावन लेकर गया एक बड़े से सजीले शोकाकुल बंगले पर हम पहुचे तो गाड़ी से उतरते ही बाबू जी ने मुझसे झुक कर कहा, यहाँ तुम्हारा नाम प्यारेलाल रहेगा, समझे! और मैं समझ गया.

मेरे रहने ठहरने व खाने की व्यवस्था परिवार के लोगों के साथ ही थी. तीसरे दिन तेरहवीं होने के बाद जब सब विदा होने वालों को तिलक-रोली लगाकर विदा किया जा रहा था तो मुझे भी बदस्तूर दक्षिणा दी गयी.

बाबू जी वापसी के लिए जब गाड़ी में बैठे तो मुझ से बोले, चल इस्लाम, अब चलते हैं.
तब भावविभोर होकर मैंने बाबू जी से कहा, बाबू जी अब मैं प्यारेलाल ही ठीक हूँ, आप इसी नाम से मुझे पुकारा कीजिये.
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