शनिवार, 24 मार्च 2018

यादों का झरोखा - ११ - स्व. शरद कुमार तिवारी

स्व. शरदकुमार तिवारी का असल नाम चुन्नीलाल तिवारी था (ये मुझे उनके पुत्र अनिल से मालूम हुआ है). वे मूलरूप से होशंगाबाद, मध्य प्रदेश, के रहने वाले थे. स्वभाव से फक्कड़, मुंहफट, व मनमौजी शरदबाबू सन १९३८ में ए.सी.सी. में नौकरी पर लग गए थे. कोटा के पास गोर्धन पुरा (अटरू) में मिश्रा परिवार में उनका ससुराल था. स्व. कुंजबिहारी मिश्रा उनके सगे साले थे. श्रीमती शारदा तिवारी के मामा लोग यानि दीक्षित परिवार की जड़ें तब लाखेरी में जम चुकी थी. उन्हीं के माध्यम से वे यहाँ आये. कई विभागों में काम करते हुए वे जब अकाउंट्स क्लर्क थे तो सर्वप्रथम मेरी उनसे मुलाक़ात एक साहित्यिक मित्र के रूप में हुई थी. वे उर्दूदां व अजीम शायर थे.

उन दिनों लाखेरी सन्देश’ नाम की एक गृहपत्रिका मैनेजमेंट की तरफ से निकाली जाती थी, जिसमें हम स्थानीय रचनाकारों की रचनाएँ भी छपती थी. शरद बाबू की बगल की टेबल पर स्व. केशवदत्त ‘अनंत’ की सीट होती थी. वे पत्रिका के सम्पादक मंडल में थे. मुझे तब भी कुछ लिखने का शौक चर्राता था. इस प्रकार उन लोगों से नजदीकियां हो गयी. वैसे भी शरद बाबू का परिवार मेरे पड़ोस L- 17 में रहता था. उनका इकलौता पुत्र अनिल उर्फ़ सोना तब एक किशोर बालक था. मेरी फितरत थी कि मैं छोटे बच्चों के साथ छोटा बच्चा बन जाता था. बच्चों के साथ खेलना या शरारत करना मेरा शुगल होता था, जो आज भी ये बरकरार है. अनिल बहुत अच्छे स्टेज कलाकार थे. मैंने उनकी प्रतिभा का भरपूर उपयोग होलिकोत्सव पर आयोजित हास्य सम्मेलनों में किया.

शरद बाबू जिमखाना की क्रिकेट टीम में ओपनर खिलाड़ी होते थे. स्व.शिवप्रसाद गौड़, रामचंद्र चारण, प्रेम प्रकाश वर्मा, श्यामसुंदर सेनी, इब्राहीम हनीफी, रक्षपाल शर्मा, अमृतराय आदि पुराने व नयी प्रतिभाएं टीम में होती थी. मैनेजीरियल स्टाफ भी क्रिकेट के खेल को अंग्रेजों के जमाने से ही प्रोत्साहित किया करता था. बहुत से इंजीनियर्स तथा एड्मिनिस्ट्रेशन के ऑफिसर छुट्टी के दिन मैदान में हुआ करते थे. कोटा से रेलवे की टीम बहुधा लाखेरी आया करती थी. हमारी टीम भी प्रदेश में व प्रदेश के बाहर निमंत्रित की जाती थी.

शरद बाबू टेनिस के भी अच्छे खिलाड़ी थे, और इनडोर गेम्स में भी पूरी दखल रखते थे. जिमखाना की कार्य कारिणी में रहते हुए जब वे लाईब्रेरी के इंचार्ज थे तो उन्होंने बहुत सी समकालीन लेखकों की किताबें तथा पाकेट बुक्स मंगवाई थी. वे खुद भी उपन्यास पढने के शौक़ीन थे.

अनिल ने मुझे बताया है की जब लाखेरी में रेडिओ/ ट्रांजिस्टर नहीं होते थे तो उन्होंने मुम्बई वाले दादाबाबू (मशीनिस्ट, आटा चक्की वाले, स्व. विमला भोंसले अध्यापिका के पिता) से एक ट्रांजिस्टर खरीदा था, जो क्रिकेट कमेंट्री सुनने के जुनून का प्रमाण था. उनके नजदीकी मित्र मंडली में स्व. पी.बी. दीक्षित जो तब कैमिस्ट थे व बाद में जी.एम. रिटायर हुए, अमृतराय जी, जो बाद में डी.जी.एम. रिटायर हुए, मथुरा प्रसाद, जोबनपुत्रा जी, रामचंद्र चारण आदि थे, जो उनके हमप्याला भी हुआ करते थे.

१९७५ में रिटायर होने के एक साल बाद ही उनका कैंसर से देहावसान हो गया था. श्रीमती शारदा तिवारी का सन १९८४ में स्वर्गवास हो गया था. शरद बाबू की सुषमा नाम की एक बेटी भी थी, जो सरकारी स्कूल में अध्यापिका बनी और रिटायरमेंट के बाद स्वर्गवासी हो गयी हैं. वे आजीवन स्वावलम्बी व आत्मनिर्भर रही.

सुपुत्र अनिल तिवारी को सन १९७५ में कलाकारों/ खिलाड़ियों के नाम पर की गयी भर्ती में ए.सी.सी. में नियुक्ति दे दी गयी. पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए करीब १६ साल नौकरी करके १९९१ में वालेंट्री स्कीम के तहत रिटायरमेंट ले लिया। अभी पत्नी सहित कोटा महावीर नगर तृतीय में उसी लाइफ स्टाईल से आनंद पूर्वक रहते हैं. उनका पामरेनियन प्रेम आज भी बदस्तूर है.
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गुरुवार, 22 मार्च 2018

यादों का झरोखा - १० -स्वांत:सुखाय

जब हमारे बच्चे नहीं थे या वे बहुत छोटे थे तो मुझे कुत्ता, बिल्ली, व कुछ अनौखे प्राणी पालने का शौक भी रहा था. उसी दौरान की कुछ बातें आज सुनाता हूँ. 


१.  मिस्टर बर्नट, जो कि वर्कशॉप में कार्यरत थे, ने मुझे एक लाल रंग का dachshund ब्रीड का पिल्ला दिया था, जिसके पैर छोटे छोटे और बॉडी लम्बी थी. करीब साल भर वह हमारा लाड़ला रहा. गर्मियों में हम जब अपने गाँव अल्मोड़ा गए तो उसे डॉ सी.एम्.पी.सिंह जी के घर छोड़ गए. उन्होंने उसे संभाला नहीं, और वह आवारा हो गया. हमारे लौटने पर बर्नट जी के सहचर सफिया (किन्नर) ने रिपोर्ट दी कि कुत्ता गन्दगी खाने लगा था. दुखी होकर उसे किशोर जमादार को दे दिया। किशोर के बेटे सन्नूलाल ने बाद में मुझे बताया था कि कुत्ता बहुत बढ़िया था. वह कई बरस उनके साथ रहा था.

२. फैक्ट्री में एकमात्र एन्ग्लोइन्डियन कर्मचारी स्व. V. Farrar  से मेरी मित्रता हो गयी थी. (मि. फरार के ससुर  Mr. Tom Pelly  अंग्रेज थे, और PWI के पद पर कारखाने में कार्यरत रहे थे. उन्होंने ही ACC  में कर्मचारियों के लिए PF और ग्रेच्युटी लागू करवाई थी.) उन्होंने मुझे दो खरगोश के बच्चे दिए. वयस्क होने पर इनका परिवार बढ़ा, पर एक दिन बिल्ली ने आकर मुख्य मादा को मार दिया. बचे हुए खरगोशों के मैंने किसी को दे दिया. बड़े नर खरगोश को पिंजड़े सहित प्यारी दाई ले गयी, जो काफी दिनों तक उनके गरमपुरा स्थित क्वार्टर की शोभा बढ़ाता रहा था.   

३. गांधीपुरा में रहने वाले श्री चंद्रप्रकाश इलेक्ट्रीशियन ने मुझे एक सफ़ेद कबूतरों का जोड़ा दिया, जिनके लिए एक बड़े लकड़ी के खोखे में जाली लगा कर घर बनाया गया. उसे एल टाईप १६ के बरामदे की सीमेंट की जालीदार दीवार पर फिक्स किया गया. सब कुछ ठीक था. एक दिन घात लगाकर बिल्ली ने छापा मारा और एक कबूतर को खा गयी. बाकी तीनों कबूतर डर के मारे मुकाम पर नहीं आये और जंगली हो गए.

४. श्री मिट्ठूलाल से मेरा परिचय तब हुआ जब मैं लाखेरी गाँव में भाई नजर मोहम्मद जी की डिस्पेंसरी की बगल में अपनी पार्ट टाइम क्लीनिकल लैब में बैठता था. वह मेरा अनन्य सेवक व मित्र बना रहा. मैंने उसे अखबारी कागज़ के लिफ़ाफ़े बनाने की कला सिखाई थी तथा उसके द्वारा बनाए लिफाफों को सहकारी समिति में खपाया भी था. एक दिन वह मुझे देने के लिए एक जंगली कांटेदार ‘झाऊ चूहा’ लेकर आया. यह छोटा सा प्राणी L type 16 के दोनों कमरों में लुढ़क लुढ़क कर चलता था, और हमारे पैरों से टकराकर गेंद की तरह छटक कर दूर जा गिरता था. अफ़सोस इस बात का है कि उसके बारे में आज ना मुझे और ना मेरी अर्धांगिनी को कोई याद है कि उसे किसी को दिया था या वह बाहर निकल कर कहीं खो गया था!

५. एक वाचमैन (नाम याद नहीं रहा) क्वारी ड्यूटी से छूटकर मुझे एक नेवले का छोटा बच्चा दे गया. हमने चम्मच से दूध पिला कर उसे बड़ा किया. वह कुछ महीनों में ही बड़ा हो गया और कीड़े मकौड़ों का शिकार करने लगा. क्वार्टर में तार बाड़ की फैंसिंग थी. हमारा नेवला अन्दर घुसने वाले स्व. मकबूल मसीह (सिस्टर शीला त्यागी के पिता) की मुर्गियों के साथ घूमने वाले चूजों को पकड़ कर अपना निवाला बनाने लगा. पड़ोस में स्व. दोजीराम वायरमैन के बच्चों ने देखा तो बात चूजों के मालिक तक चली गयी. नाराजी हुयी. उसी बीच एक बड़ी नेवली ने प्रेमजाल में बांधकर उसे अपने साथ ले गयी; वह फिर वापस नहीं आया.

६. श्रीमती चंदेल (वे सिविल में एक वर्कर थी. उनके पति स्व. देवीलाल चंदेल भी ब्लैकस्मिथ का काम करते थे. उनका एक बेटा डॉक्टर, एक बेटा इंजीनियर तथा एक बेटा एयरलाइन्स में ऑफिसर हुए) ने मुझे ‘मनोहर’ नस्ल की दो लाल मुर्गियां व एक मुर्गा मात्र १५ रुपयों में बेचे। लकड़ी के खोखों का पिंजडा बनाकर कुछ समय तक पाला, ये रोज अंडा देने वाली मुर्गियां थी. कुड़क होने पर एक मुर्गी को चूजे निकालने के लिए बिठाया तो आठ चूजे पैदा हो गए, पर जब मेरी माताश्री जाड़ों में लाखेरी आई तो उनके आने से पहले मुर्गियों का यह परिवार अपने चाहने वाले श्री मिट्ठूलाल तम्बोली (बाद में सेनीटेशन विभाग में अपने पिता की एवज में लगे, और जब सेनीटेशन विभाग ठेके पर दिया गया तो उनको भी ठेकेदारी दी गयी) को सौंप दिए.

७. शुद्ध दूध की चाहत में कांकरा के ठाकुर साहब स्व. धनुर्धारीसिंह हाडा जी के बाड़े से एक देसी नस्ल की बकरी खरीदी, उसके घर आने पर अहसास हुआ कि दूध कम तथा आफत ज्यादा थी. अत: तीसरे दिन ही वापस करने के लिए ले गया.

८. उपरोक्त सभी वृतान्त शाहाबाद स्थानान्तरण के पूर्व के हैं. शाहाबाद से सन १९७४ में लौटने के बाद  १९७६ में श्री अनिल तिवारी उर्फ़ सोना जी ने मुझे मेरे निवेदन पर एक सफ़ेद पामेरियन नस्ल का प्यारा पिल्ला दिया. उसे रोमी नाम दिया गया. वह मेरे परिवार का लाड़ला कुत्ता लगभग दस वर्ष साथ में रहा. एक बार जब तीनों बच्चे अपने अपने कालेजों में थे तो हमें एक विवाहोत्सव में नैनीताल आना हुआ तो रेलवे के स्लीपर डिब्बे में उसने फर्स्ट क्लास के टिकट पर हमारे साथ यात्रा भी की. पर एक बकरा ईद पर मेरे TRT क्वार्टर नम्बर २४ के सामने नफीस भाई (कैंटीन सुपर वाईजर) के आगन से हड्डी का टुकड़ा लेकर आया जो उसके गले में अटक गया. यही उसकी मौत का कारण बना. दुर्योग था कि मैं उस दिन जयपुर गया था. वापस आया तो घर में मातम छाया था.

९. उक्त रोमी नामक पामेरियन कुत्ते के साथ के लिए मैं एक सफेद बिल्ली का बच्चा भी सन १९८२ में आगरा के मोहनपुरा निवासी पूर्व में मेरे पड़ोसी रहे मालबाबू श्री मोहनलाल शर्मा के घर से लेकर आया. आगरा पार्थ और गिरिबाला को एक PMT  कोचिंग प्रोग्राम में लेकर गया था. ये बिल्ली का बच्चा घर परिवार से बहुत अच्छी तरह घुलमिल कर रौनक बनाए हुए था. करीब ६ महीने रहा. ठीक दीपावली के दिन जब वह रोज की तरह सुबह-सवेरे बाहर घूमने निकला तो वापस नहीं लौटा; बहुत खोजबीन की पर वह हमेशा के लिए चला गया. शायद कोई चील उठा कर ले गयी थी.

उसके बाद हमने इस तरह का कोई प्राणी नहीं पाला है, पर प्यारे रोमी को अभी तक हम सभी परिवार के सदस्य याद किया करते हैं.

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सोमवार, 19 मार्च 2018

यादों का झरोखा - ९ - स्व. सोहनलाल शर्मा (प्रधानाध्यापक)

सरकारी नौकरी छोड़कर ए.सी.सी. में आने का तब बड़ा लालच यों हुआ करता था कि वेतन+बोनस+ रिहायसी सुविधाएं यहाँ बेहतर हुआ करती थी. ए.सी.सी. में प्रॉवीडेंट फंड और ग्रेच्युटी देने का प्रावधान सरकारी नियम लागू होने से पहले से ही था.

स्व. सोहनलाल शर्मा B.Sc. B.T. थे. उनके निकट संबंधी (स्व. केशवदेव शर्मा CTK)  का परिवार पहले से ही लाखेरी कारखाने में नियोजित था. उसी सूत्र से वे भी यहाँ आये और यहीं के होकर रह गए. वे सहायक अध्यापक के बतौर सन १९५४ में भरती हुए और सीनिओरिटी के आधार पर हरिसिंह जी के बाद प्रधानाध्यापक बनाए गए थे. सन १९९० में इस पद से रिटायर हुए.

उनके पूर्वज आगरा के रहने वाले थे. उनके पिता स्व. ईश्वरीप्रसाद शर्मा एक सिविल इंजीनियर थे. मैं अपने शुरुआती दस वर्षों तक सोहनलाल जी के पड़ोस में L-16 क्वार्टर में रहा था. मैंने उनके वृद्ध पिताश्री को देखा था तथा उनके निकट बैठकर कई आशीर्वचन भी लिए थे. वे ज्ञान के भण्डार थे. सोहनलाल जी का छोटा भाई श्री हरिश्चंद्र शर्मा (रि. प्राध्यापक) अजमेर में व्यवस्थित हैं. उन्ही के पास रहते हुए बाबूजी का देहावसान हुआ.

सोहनलाल जी को मैं अपने बड़े भाई के रूप में मानता था. उनकी अर्धांगिनी श्रीमती हरदेई भाभीमाँ स्वरुप मेरे परिवार पर अपना छत्र बनाए रखी थी. चूंकि हम पति-पत्नी तब बच्चों के पालन-पोषण में ज्यादा तमीज नहीं रखते थे इसलिए उनका सानिध्य हमारे लिए वरदान स्वरुप रहा.

स्कूल में उनका एडमिनिस्ट्रेशन कैसा था, यह तो उनके सहयोगी अध्यापक या पढ़ाये हुए हजारों विद्यार्थी बता पायेंगे, पर गृहस्थी में वे बहुत आरामपसंद प्रवृत्ति के थे. वे सर्विस के दौरान या बाद में अपने लिए खुद का कोई आशियाना नहीं बना सके, जिसका उनको बड़ा अफसोस भी रहा करता था. तीन बेटियाँ सुधा, कमलेश और रमा को एक ही घर में तीन दामाद यानि तीन भाइयों से ब्याहा गया. यह सौभाग्य था कि तीनों भाई पोस्ट ग्रेजुएट हुनरमंद अध्यापक थे/हैं. बड़े श्री चन्द्रमोहन शर्मा (रि. फिजिक्स लेकचरर), मझले स्व. हरिमोहन शर्मा (लेकचरर गणित) तथा छोटे श्री दिनेश मोहन (M.A ) आगरा में एक स्कूल का संचालन करते हैं. दुर्भाग्य ये रहा कि दस साल पहले मझले दामाद जी का ह्रदयघात से देहावसान हो गया. उनका परिवार लाखेरी के शिव नगर में अपने घर में रहता है. पिता की मृत्यु के बाद सरकारी नियमों/प्रावधान के अनुसार पुत्र कपिल को नौकरी मिल गयी थी, और परिवार फिर पटरी पर चल पड़ा है.

श्रीमती सोहनलाल जब अकेली रह गयी थी तो नाती कपिल ने उनको सहारा दिया है अपने परिवार के रखकर पूरी देखभाल कर रहा है. उनके दोनों घुटनों पर आर्थराईटिस का कहर होने से चलने फिरने में असमर्थ हैं.

सोहनलाल जी ने अपने एक भतीजे श्री दीपक शर्मा को अपनी गार्जियनशिप में कैमोर इंजीनियरिंग इंस्टीच्यूट में भेजा, जो वेल्डिंग का कोर्स करके आये और वर्तमान में लाखेरी में सुपरवाईजर की पोस्ट पर कार्यरत है.  

सोहनलाल जी बहुत संवेदनशील व्यक्ति थे. अपने सुख दुःख मुझसे बांटा करते थे. वे चाहते थे कि रिटायरमेंट के बाद अजमेर में अपने भाई और रिश्तेदारों के मोहल्ले में जाकर बसें, पर लाखेरी ए.सी.सी. अस्पताल प्रदत्त मेडीकल सुविधाओं ने उनको यहीं रुके रहने के लिए मजबूर किया था.

मेरे लाखेरी छोड़ने के बाद जब तक पोस्ट आफिस में चिट्ठियों का चलन होता था, वे मुझे नियमित पत्र लिखा करते थे. फोन की सुविधा होने पर यदाकदा फोन भी कर लिया करते थे. मेरे बच्चे आज भी उनके लिए ताऊजी व ताईजी का संबोधन किया करते हैं. ऐसा रिश्ता जो भुलाए नहीं भूला जा सकता है.

सन २०११ में सोहनलाल जी इस संसार से अलविदा होकर उस देश चले गए जहां से कोई चिट्ठी पत्री या सन्देश नहीं आते हैं.

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यादों का झरोखा - ८ - स्व. जगदीश शंकर कुलश्रेष्ठ

मैं जब १९६० में लाखेरी आया तब ए.सी.सी. मिडिल स्कूल अपने पूरे यौवन में था. उसमें ३० से अधिक अध्यापक हुआ करते थे. यह स्कूल जिले में ही नहीं, पूरे राजस्थान का एक आदर्श स्कूल माना जाता था. स्व. गणेशबल भारद्वाज इसके प्रधानाध्यापक थे. उनके सहायक अध्यापकों में स्व. बंशीधर चतुर्वेदी, हरिसिंह राठौर, अविनाशचन्द्र गौड़ उर्फ़ मामाजी, मदनलाल वर्मा, बृजमोहन शर्मा (बाद में अकाउन्टस ऑफिसर बने), जगदीश शंकर कुलश्रेष्ठ, सोहनलाल शर्मा, ओंकारलाल शर्मा, कंवरलाल जोशी, कल्याणमल, श्रीमती आर्थर, श्रीमती विमला भोंसले, श्रीमती फ्रैंकलिन आदि सीनियर लोग थे. नई पीढ़ी की खेप में मेरे समकालीन श्री फेरुसिंह रूहेला, रतनलाल शर्मा, शम्भूलाल वर्मा, उदयसिंह जग्गी, बजरंगलाल वर्मा, कांतिप्रसाद कौशिक, बजरंगलाल पाराशर, शमशुद्दीन आदि थे. इन सभी गुरुजनों की अपनी अपनी विशिष्टता थी. चूंकि मैं भी एक अध्यापक-पुत्र हूँ इसलिए स्वाभाविक रूप से इस पूरी टीम से आत्मीयता के साथ जुड़ता चला गया और सभी का चहेता भी बन गया.

स्व. जगदीश शंकर कुलश्रेष्ठ एक आकर्षक व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे, और अपनी बात मनवाने की एक अदभुत कला उनके पास थी. मैंने उनके कौशल को कई बार तब सुना था जब वे सहकारी समिति की जनरल बॉडी में अपने रचनात्मक सुझाव दिया करते थे. वैसे तो उन वर्षों में स्कूल के कई प्रबुद्ध अध्यापक हमारी ट्रेड यूनियन ‘कामगार संघ’ की पॉलीटिक्स में भरपूर हिस्सा लिया करते थे, पर भारद्वाज जी, हरिसिंह राठौर, बृजमोहन शर्मा, जगदीश शंकर कुलश्रेष्ठ, व कांतिप्रसाद पदाधिकारी भी रहे थे. मुझे याद है, कुलश्रेष्ठ जी एक सेशन में हमारे ट्रेजरर थे.

वे बहुत अच्छे मार्गदर्शक थे. जब मैं पहली बार सोसाइटी का जनरल सेक्रेटरी चुना गया तो उन्होंने कई बार कार्य योजना के लिए मुझे नेक सलाह दी थी. मुझे उनके गुरु होने का अहसास होता था. उनके परिवार जनों से कोई घनिष्टता तब नहीं रही थी, पर तब पूरी कॉलोनी में एक कुटुंब का सा वातावरण था. मैंने श्रीमती कुलश्रेष्ठ को उनकी युवावस्था में तथा दो बेटे व दो बेटियों को किशोर-बाल अवस्था में देखा था, उनका वह स्वरुप मुझे आज भी याद है.

कुलश्रेष्ठ जी १९७९ में ए.सी.सी. से रिटायर होकर अपने बच्चों के साथ कोटा में स्थानांतरित हो गये थे. उसके बाद दुनियादारी की आपाधापी में इस परिवार से मेरा कोई संपर्क नहीं रहा. गत वर्षों में फेसबुक के माध्यम से उनके बड़े सुपुत्र अनिलजी से संपर्क हुआ तो अनेक जानकारियाँ मिली व यादें ताजा हो गयी. श्री अनिल (Engr. RVPNL Kota) व उनके अनुज श्री अवशेष (Chief Manager HR Escorts) दोनों ही अपनी अपनी सर्विसेस से रिटायर हो चुके हैं. अनिल कोटा में तथा अवशेष फरीदाबाद में सैटिल्ड हैं. अनिल बताते हैं कि उनके पिताश्री का १९९७ में तथा माताश्री का २००८ में स्वर्गवास हो गया था.

मुझे बताया गया कि इनके पूर्वज मूल रूप से उत्तरप्रदेश मैनपुरी के रहनेवाले थे. गुरूजी बचपन में ही अपने माता-पिता को खो चुके थे. हाईस्कूल पास करने के बाद अपनी बहन के पास कोटा आ गए थे, जहां कुछ समय तक पटवारी का काम करते रहे. फिर १९४४ में ए.सी.सी. स्कूल में अध्यापक का कार्य मिला तो लाखेरी के होकर रह गए. अध्यापन के दौरान ही उन्होंने ग्रेजुएशन तक अपनी पढाई पूरी की तथा टीचर्स ट्रेनिंग भी ली. उन्होंने अपने बच्चों को यथासंभव उच्च शिक्षा दिलवाई. उन्ही के प्रभाव-प्रताप से आज उनकी तीसरी पीढ़ी के बच्चे नीरद व नीरव राष्ट्रीय / अन्तराष्ट्रीय कंपनियों में सीनियर मैनेजीरियल पदों पर कार्य कर रहे हैं.

अनिल जी ने बताया कि उनकी बहनें अंजू और अंजुला अपने अपने संसार में व्यस्त और स्वस्थ हैं. हाँ, अंजुला के परिवार पर कुछ बर्ष पूर्व एक सड़क दुर्घटना का कहर हुआ जिसमें उसके पति और एक पुत्र स्वर्गवासी हो गए थे. इस नश्वर संसार में सुख भी है और दुःख भी है, पर स्मृतियों में वे लोग हमेशा ज़िंदा रहते हैं जो अच्छे काम करके और मीठे बोल बोलकर जाते हैं.

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गुरुवार, 15 मार्च 2018

यादों का झरोखा - 7 - स्व. जानकी प्रसाद झा


मुझे ए.सी. सी. लाखेरी से रिटायर हुए अब १८ वर्ष से अधिक समय हो चुका है, लेकिन कुछ आत्मीय सदाबहार लोग ऐसे भी थे, जिन्हें भुलाया नहीं जा सका है; उनमें से एक थे, स्व. जानकी प्रसाद झा.

जानकी बाबू कंपनी के जनरल स्टोर्स में क्लर्क हुआ करते थे. इकहरे बदन के ६ फीट से भी लम्बे कद के झा एक खुशदिल व सामाजिक चरित्र वाले व्यक्ति थे. उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से यह झा परिवार आजीविका के लिए किन सूत्रों द्वारा लाखेरी पहुंचे थे, यह तो मुझे मालूम नहीं है, पर लाखेरी के मैट्रोपोलिटन कॉलोनी में अपना विशिष्ठ स्थान बनाए हुए थे. इनके परिवार के स्नेहभाव व अपनेपन की वजह से मेरा परिवार इनके निकट रहा था.

जानकी बाबू बन्दा मंदिर की व्यवस्था सयोजकों में प्रमुख हुआ करते थे. भजन-कीर्तन व जागरण के अलावा अवसरों पर शरद पूर्णिमा, अन्नकूट व भंडारों के लिए आमंत्रित करना नहीं भूलते थे. वे ‘ठंडाई’ पीने-पिलाने के बड़े शौक़ीन थे. उनके दायरे में बहुत से मित्र लोग हुआ करते थे. जब ‘जिग-जैग डैम’ में नाव चला करती थी, तब उसकी चाबी जानकी बाबू के पास ही हुआ करती थी. वे जिमखाना के भी हमेशा सक्रिय सदस्य रहे; कार्यकारिणी में भी रहे. वॉलीबॉल के गजब के खिलाड़ी भी थे.

जानकी बाबू के छोटे भाई स्व. भूदेव प्रसाद भी माईन्स में फोरमैन थे. एक सेशन में वे कोआपरेटिव सोसाईटी में मेरे साथ चेयरमैन मी रहे थे. मैं तब जनरल सेक्रेटरी था.

मैंने जानकी प्रसाद जी की माताश्री को भी देखा था. उनकी अर्धांगिनी स्व. चन्द्रकान्ता देवी से मुलाक़ात होने पर ऐसा लगता था की अपने ही परिवार के सयानों से मिल रहे हैं. वे एक खुश मिजाज महिला थी. उनके घर में एक दुधारू गाय भी बंधी रहती थी. उन दिनों (१९७० के दशक में) ए.सी.सी. में कुछ कर्मचारियों का १५०-२०० रुपयों से ज्यादा वेतन नहीं हुआ करता था, अत: सीमित साधनों से परिवार का पोषण करना पड़ता था, फिर भी लोग खुशहाली में थे. जानकी बाबू के तीन कुमार महेंद्र, देवेन्द्र, और राजेन्द्र के अलावा एक लाली बिटिया भी है. महेंद्र मैकेनिकल इंजीनियर कोटा जे.के. लोन में सर्विस में लग गए थे, और बाद में रिलाइंस में चले गए थे और वहां बहुत बड़े ओहदे से रिटायर होकर नई मुम्बई के वासी हो गए. श्रीमती जानकी प्रसाद कई बार वहां से लौटकर बेटे के वैभव की चर्चा किया करती थी.

देवेन्द्र को सन ६३-६४ में मेरे कार्यकाल में सोसाईटी में बतौर सेल्सक्लार्क भरती किया गया था, पर जल्दी ही उनका चयन कैमोर इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट में हो गया था, वहाँ से मशीनिस्ट बनकर उनको ए.सी.सी. द्वारका में नियुक्ति मिल गयी और बाद में लाखेरी स्थानांतरित होकर आ गए थे. सीनियोरिटी के आधार पर उनको प्रमोशन देकर पैकिंग हाउस में सुपरवाईजर और बाद में  फोरमैन-ऑफिसर बने. अब रिटायर होकर गांधीपुरा तेजा मंदिर के पास घर बनाकर रहते हैं. सोशल मीडिया और राजनीति में सक्रिय रहते हैं. उनका पुत्र हेमेन्द्र भी कंपनी की सेल्स में कार्यरत है. छोता भाई राजेन्द्र उर्फ़ लाला पिछले २५ वर्षों से डी.ए.वी. पब्लिक स्कूल का ऑफिस संभाल रहे हैं. दोनों भाईयों का परिवार साथ रहता है.

स्व. चन्द्रकान्ता देवी बहुत जीवट वाली महिला थी. कॉलोनी के तमाम सामाजिक व धार्मिक आयोजनों में उनके मधुर गीत-लोकगीत, भजन या सुन्दरकाण्ड का वाचन सबके लिए मोहक हुआ करता था. जब उनका आवास ‘जींद की बावड़ी’ के पास था तो पूरे इलाके को जीवंत बना कर रखा था, और उसे देवस्थान बना दिया था.

यह उन्ही पति-पत्नी का प्रताप है कि उनकी अगली पीढियां संपन्न और सुखी हैं. सभी को शुभ कामनायें.

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गुरुवार, 8 मार्च 2018

एक बोध कथा


कन्हैया को तो अपनी माँ की कोई धुंधली सी याद भी नहीं है. पिता हनुमान प्रसाद को ही उसने माँ और बाप की दोहरी भूमिका में पाया था, जिन्होंने उसे अपने लाड़-प्यार में सरोबार करके बड़ा किया, पढ़ाया, लिखाया, तथा बहुत प्रयास करके अपनी एवज में ही नौकरी पर भी लगाया. अनेक अभावों के होते हुए भी पिता-पुत्र का ये परिवार सुखद भविष्य की अनेक कल्पनाएँ किया करता था, किन्तु सारा समीकरण तब बदल गया जब कन्हैया के जीवनसाथी के रूप में सुनयना का वरण हुआ तथा नजदीकी लोगों के सहयोग से भव्य विवाहोत्सव भी हो गया.

हनुमान प्रसाद बड़े मनमौजी किस्म के व्यक्ति हैं, पर उन्होंने अपने दिल के दर्द कभी भी उजागर नहीं होने दिए; पत्नी के देहावसान के बाद वे अकेलेपन का दंश तो झेलते रहे, पर उनको अपने बुढ़ापे की ज्यादा चिंता रहती थी. अपने मन को समझाने के लिए वे अकसर रामचरितमानस की ये पंक्तियाँ दुहराते रहते थे, ‘होई है सोई जो राम रचि राखा....” वे सोचते थे की पुत्रवधू के आ जाने पर उनका संसार फिर से गुलजार हो जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं क्योंकि उसके भी नौकरीपेशा होने से उनका एकाकीपन बना ही रहा. सुनयना एक बड़े घर की बेटी है. संस्कारों से ‘मॉडर्न’ है, और पिछले पांच सालों से राज्य सरकार के एक कार्यालय में बतौर कंप्यूटर आपरेटर कार्यरत है.

कन्हैया अपनी तीस वर्ष की उम्र तक माँ, बहन, या किसी स्त्री पात्र के सानिध्य में नहीं रहा इसलिए सुनयना का उसके जीवन में पदार्पण उसकी अप्रतिम आसक्ति का कारक बनना स्वाभाविक था. वह पत्नीप्रेम में इस कदर डूबा रहने लगा कि वृद्ध बीमार पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने में लापरवाह हो गया. एक दिन जब सुनयना ने उसको कहा कि “बाबू जी की सेवा हम लोग नहीं कर पायेंगे, क्यों ना उन्हें किसी अच्छी सुविधा वाले वृद्धाश्रम में भरती करवा दें?” तो कन्हैया को उसकी ये बात अमृतवाणी सी लगी और तदनुसार उसने अपने शहर में ही बरेली रोड पर स्थित अनाथाश्रम + वृद्धाश्रम की तलाश कर डाली, और आवश्यक रकम भरकर सब कागजी खानापूर्ति करने के बाद पिता को इस नई व्यवस्था के बारे में बताया.

हनुमान प्रसाद बेटे के इस प्रस्ताव को सुनकर सन्न रह गए. कई दिन-रातों तक सोचने के बाद उन्होंने बहू-बेटे की इस व्यवस्था पर अपनी स्वीकृति दे दी. एक शुभ दिन वे अपना जरूरी सामान लेकर आश्रम में आ गए; बेटा जरूर कुछ सदमे में लग रहा था, पर बहू बहुत खुश थी.

इस आश्रम के संचालक पद्मश्री गोयल साहब को पिछले चालीस वर्षों से बहुत प्रसिद्धि मिली हुयी है. उनकी धर्मपत्नी इस महान सामाजिक कार्य में कंधे से कंधा मिलाकर उनकी सहयोगी रही हैं. इस आश्रम ने अनेक मजलूम व मजबूर महिलाओं, बच्चों, व वृद्ध लोगों को आश्रय दिया है. राज्य के समाज कल्याण विभाग का दावा है कि यह आश्रम इस राज्य का सर्वोत्तम संस्थान है, जहां मानवीय संबंधों को इस तरह बने रखा जाता है कि संवासी/संवासिनियाँ अपने घर-परिवारों को याद नहीं किया करते हैं.

कन्हैया और सुनयना पिता से विदा होकर विजयी मुद्रा में लौट पड़े, पर थोड़ी दूर जाने के बाद कन्हैया को लगा कि पिता की नियमित दवाओं के बारे में आश्रम के मैनेजर को बताना भूल वह गया था. अत: लौट कर आये. उसने पाया कि उसके पिता गोयल साहब से कुछ अंतरंग वार्तालाप में व्यस्त हैं. कन्हैया ने ये माजरा देखा तो सामने जाकर पूछा, “क्या आप एक दूसरे को पहले से जानते हैं?”

श्री गोयल बोले “हाँ हमारा बहुत पुराना परिचय है, आज से तीस बरस पहले ये यहाँ से एक नवजात अनाथ बच्चे को गोद लेकर गए थे.”

कन्हैया को यह बात अंत:करण तक गोली की तरह लगी क्योंकि उसको अहसास हो गया कि वह अनाथ बच्चा वह स्वयं ही था. उसकी अश्रुधारा बह निकली. पिता के चरण पकड़ कर बैठ गया और वापस घर चलने की गुहार करने लगा.

(इस बोध कथा का सूत्र एक मित्र ने मुझे हवाट्सअप पर भेजा था, मैंने इसे अपने शब्दों में पिरोया है.)

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