मंगलवार, 28 जुलाई 2015

बैठे ठाले - 15

दर्द दिल-ओ-दिमाग का एक ऐसा अहसास है जो प्राणीमात्र को तड़पा देता है. कहा गया है कि "जाके पैर फटे ना बिवाई सो क्या जाने पीर पराई" सच में, दर्द चाहे शारीरिक हो या मानसिक उसका अहसास तभी होता है, जब खुद पर आ पड़ती है.

दर्द को दुनिया के तमाम भाषाओं में कोई भी नाम दिया गया हो, पर अहसास सबका वही पीड़ा ही है. अंग्रेजी में "pain" व अन्य यूरोपीय भाषाओं में कहीं पीन, कहीं पाईंन, कहीं पैन उच्चारित किया जाता है, पर टीस या पीड़ा सभी की एक है. हमारे शायरों/आशिकों ने दर्द-ऐ-दिल का प्रयोग अपनी अभिव्यक्तियों में बहुतायत से किया हुआ है. भावनात्मक दर्द-ऐ-दिल के बारे में कहा जाता है कि इसकी कोई कीमियाई दवा भी नहीं है. हाँ शारीरिक दर्दों के लिए मेडिकल साइन्स इतना आगे बढ़ चुका है, कि दर्दरोधक या दर्दनाशक औषधियां  चोट-घाव, टूटफूट व ऑप्रेशन के समय तंत्रिका को सुन्न करके असहनीय दर्द से बचाते हैं.

दर्द चाहे सर में हो, पेट में हो, कान-नाक-गले या दांत में हो, चैन नहीं लेने देता है. एक छोटा सा काँटा पैर में चुभ जाए अथवा धूल का कण आँख में घुस जाए तो बहुत बेचैनी हो जाती है. दुर्घटनाओं में शरीर की अंदरूनी चोट या कैंसर जैसे असाध्य रोग में दर्द से कराहते लोगों को देखने भर से संताप होता है. जो लोग अनियमित भोजन या नशीली चीजों का सेवन करके अपने लीवर को खराब कर लेते हैं, और असाध्य दर्द को निमंत्रण देते हैं, उनको इसकी बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ती है. इसलिए आप्तोपदेश में बार बार कहा गया है कि सदाचारी जीवन जीने से डॉक्टर-वैद्य की जरूरत नहीं पड़ती है. शरीर तो सबके नश्वर होते हैं. आयु सीमा भी सीमित होती है. जीवन यात्रा समापन से पहले कई तरह के दर्द बुढ़ापे में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने लगते हैं. ये प्रकृति की प्रक्रिया है. जो लोग ज्ञानी या योगी होते हैं, वे अपने संकल्पबल या योगबल से कम से कम दर्दों का अहसास करते हुए संसार त्यागते हैं.
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शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

यह सच है

लालू और बालू दोनों पक्के दोस्त हैं. दोनों ही क़ानून की पढ़ाई कर रहे हैं. एक दिन दोनों में इस बात पर बहस छिड़ गयी कि 'क्या बिना झूठ बोले वकालत चल सकती है?

लालू ने कहा, देखो ये सब किताबी बातें हैं कि झूठ बोलना पाप है, धर्म-दर्शन की बातें सिर्फ दूसरों को समझाने के लिए होती है, लेकिन इस संसार में कोई भी सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं हो सकता है. वे सब पौराणिक गल्प हैं. इस संसार का सारा कार्यव्यापार झूठ के पलोथन के बिना नहीं चल सकता है. नेता जी झूठ बोले बिना अपना चुनाव नहीं जीत सकते. झूठ के बिना बाजार के छोटे बड़े सौदे नहीं होते. अदालतें आजकल स्टीरियोटाईप झूठी गवाहियों के आधार पर फैसला दिया करती हैं. घरों में पति पत्नी के झगड़े झूठ बोलने से शुरू होते हैं और बच्चे पैदा होते ही वे अहसास करते हैं कि झूठ बोलना बड़ी नियामत है. इसलिए, मेरे भाई, झूठ एक अनिवार्य छठा तत्व है, जो कि क्षिति, जल, पावक, गगन और समीरा के साथ अदृश्य रूप से जुड़ा हुआ है.

बालू ने लालू के तर्क पर असहमति जताते हुए कहा, दुनिया में हर बात के अपवाद मौजूद हैं. आज भी ऐसे लोग हैं, जिन्होंने जिन्दगी में एक बार भी झूठ नहीं बोला है. बालू ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा, मेरे सगे ताऊ जी ने कभी झूठ नहीं बोला है ना ही बोलने का प्रयास ही किया है. ये बात अलग है कि वे जन्म से गूंगे हैं.
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एक चुटकुला ये भी :
झूठ बोलने के लिए मशहूर एक आदमी किसी दूसरे शहर में गया. एक बहुत उम्रदराज झुर्रीदार बुढ़िया का मन हुआ कि उस झूठे इंसान को देखना चाहिए. वो उसे देख कर बोली, सुना है कि तुम दुनिया के सबसे झूठे आदमी हो?
इस पर वह बोला, अरे, दुनिया का क्या है अम्मा, कुछ भी कह देते हैं, पर मैं तो आपको देखकर हैरान हूँ कि आप इस उम्र में भी इतनी सुन्दर हसींन  और आकर्षक लग रही हो.  
ये सुनकर वह बूढ़ी औरत थोड़ी शरमाई और फिर कहने लगी,  या अल्लाह! लोग कितने दुष्ट हैं की एक सच्चे इंसान पर झूठे का तमगा लगा रखा है.


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गुरुवार, 16 जुलाई 2015

अन्न और हम

बच्चों, भोजन के बिना प्राणी ज़िंदा नहीं रह सकते. हम इंसानों का मुख्य भोजन है, अन्न. अन्न पैदा करने वाले किसानों को अपने खेतों में कितनी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है, इसका अंदाजा सहज में नहीं लगाया जा सकता है. आपकी भोजन की जो थाली सजती है, उसको तैयार होने में अनेक हाथों की ताकत लगी होती है. कभी तुम खेत-खलिहानों में जाकर खुद अनुभव करोगे तो तुम्हें मेरी बात की सच्चाई पर असल ज्ञान होगा. बहुत से काश्तकार खुद भूखे, नंगे व बीमार रहते हुए भी हमारे लिये अन्न पैदा करने में सारा जीवन लगा देते हैं.

प्राय: देखा जाता है कि जब शहरी लोग खाना खाते हैं तो बहुत सा भोजन थाली में छोड़ कर बर्बाद कर देते हैं. इसे हम अन्न का अपमान भी कह सकते हैं. इसी सन्दर्भ में मुझे हमारे देश के प्रसिद्ध उद्योगपति श्री नवल टाटा का एक विचारणीय संस्मरण पढ़ने को मिला. मैं उसे संक्षिप्त में आपको भी बताना चाहता हूँ. वे लिखते हैं कि एक बार भारतीय उद्योगपतियों का एक दल बिजनेस ट्रिप पर जर्मनी गया, जहां वे भोजनार्थ एक नामी बड़े रेस्टोरेंट में गए. हिन्दुस्तानी आदतों के अनुसार सबने अपने लिए बहुविध व्यंजनों के ऑर्डर दिए. भोजन करने के बाद कई लोगों ने आदत के अनुसार ढेर सारा खाना अपनी प्लेटों में बाकी छोड़ दिया. महानुभावों को अनुभव नहीं था कि जर्मनी  के कानून के अनुसार भोजन बर्बाद करना अपराध होता है. वहाँ के मैनेजर ने तुरंत पुलिस बुला ली, जिसने उद्योगपतियों को खूब शर्मिन्दा किया, जुर्माना किया, और भविष्य में ऐसी गलती ना करने की हिदायत देने के बाद छोड़ा.

हमारे शास्त्रों में भी अन्न को परमात्मा का अंश कहा गया है इसलिए अन्न की बर्बादी रोकने का हर संभव प्रयास करना चाहिये.
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