शनिवार, 30 जनवरी 2016

पछ्पन साल

55th Wedding Anniversary
जब हम जवान थे तब एक हिन्दी फिल्म, "कल आज और कल" का ये सदाबहार गीत "जब हम होंगे साठ साल के, और तुम होगी पछ्पन की..." बहुत प्यारा लगता था. प्यारा तो आज भी लगता है, पर अब हम बहुत आगे बढ़ चुके हैं. मैं हो गया हूँ 77 का और अर्धांगिनी 72 पार कर चुकी हैं. संयोग ऐसा कि आज तीस जनवरी को हमारे विवाहोत्सव की 55वीं जयन्ती है. वैवाहिक जीवन का ये लंबा सफ़र मेरी श्रीमती की कुछ शारिरिक व्याधियों के रहते बहुत सपाट तो नहीं रहा, पर बहुत ज्यादा ऊबड़ खाबड़ भी नहीं रहा है. अब हम इस मुकाम पर आ पहुंचे हैं कि एक दूसरे के बिना एक दिन भी अकेले रहना मुश्किल लगता है. बेटे पार्थ व प्रद्युम्न, तथा बेटी गिरिबाला सभी अपने अपने परिवारों के साथ सुखी और संपन्न हैं. हम अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से बहुत पहले मुक्त हो चुके हैं. ये सब भगवदकृपा है, स्वर्गीय माता-पिता का आशीर्वाद है, छोटे भाई-बहनों का प्यार व मित्रों की शुभ कामनाओं का प्रताप है.
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शनिवार, 9 जनवरी 2016

जीवेत शरद: शतम्

एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में प्रतिदिन २०,००० लोग साठ वर्ष की उम्र पार करते जा रहे हैं. औसत आयु बढ़ने से वृद्ध जनों की संख्या में लगातार इजाफा होना स्वाभाविक है. 

ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों में रहने वाले वृद्ध जनों के बारे में लोगों की सोच अलग अलग तरह की होती है. गांवों में जहां भी सभ्य लोग रहते हैं, बुजुर्गों के प्रति सम्मान दर्शाते हैं, लेकिन अधिकाँश निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों में बुड्ढों को बूढ़ा बैल सा समझ कर रखा/पाला जाता है. (अपवाद बहुत से हो सकते हैं) वहाँ बुढ़ापा दिन काटना या मृत्यु का इंतज़ार करने जैसा होता है. ये बहुत गंभीर सामाजिक समस्या है. सरकार के समाज कल्याण विभाग का ध्यान शायद इस पर बहुत कम रहता आया है. शहरों में आर्थिक रूप से संपन्न लोगों की स्थिति जरूर भिन्न है. वहां वृद्ध लोगों की देखभाल उनके परिजन अच्छी तरह किया करते हैं. भारत में पश्चिमी देशों की तरह वृद्धाश्रमों की संकल्पना नगण्य है. क्योंकि ये हमारी संस्कृति में ये कभी था ही नहीं. पश्चिम की देखादेखी बड़े शहरों में जो वृद्धाश्रम रूपये लेकर चलाये जाते हैं, उनके निवासी मध्य वर्ग के वे लोग हैं जिनकी औलादें आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं, पर व्यस्तता व खुशामद करने की इल्लत से बचना चाहते हैं. सरकार द्वारा संचालित वृद्धाश्रमों में लाचार व त्यक्त बुजुर्गों की हालत अधिक सोचनीय होती है. प्राय: सुना जाता है कि इन ठिकानों में अधिकाँश वृद्धजन मानसिक रूप से बीमार यानि डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं. अफसोस ये है कि जीवन की आपाधापी में उनकी अपनी औलादें उनको सँभालने की सुध नहीं लेती है.

सरकार ने वृद्धजन हिताय अनेक क़ानून बना रखे हैं, पर वे सब कलह और झगड़े की जड़ साबित होते है. परिवरिश के लिए खर्चा माँगना हक तो है, पर सभी लोग इतने खुशकिस्मत नहीं होते हैं कि उनकी अपनी संतानें उनके दर्द को समझ पायें. प्राय: आज के जिम्मेदार लोग अपनी अगली पीढ़ी के हितों पर केन्द्रित होकर रह जाते हैं. उनको माता-पिता की इस त्रासदी का अहसास तब होता होगा जब वे खुद वृद्धावस्था की सीमा में आने लगते हैं.

बुजुर्ग चाहते हैं उनके बच्चे, जिनके लिए वे ताउम्र खटते रहे थे, अब उनको सम्मान के साथ रखें और उनके स्वास्थ्य की चिंता की जाए. सच तो ये भी है कि नाती-पोते पोतियों के सानिध्य और प्यार-दुलार से अभिभूत होकर ही वे बुढ़ापे की बैतरणी पार कर सकते हैं, पर साइबर युग के बच्चे अपने बुजुर्गों को कहाँ समझ पाते हैं. ये जनरेशन गैप शायद कभी नहीं भर पायेगा. इसलिए हर औलाद की जिम्मेदारी बनती है कि अपने माता-पिता या खानदान में रह रहे बुजुर्गों की देखभाल अवश्य करे. उनके सम्मान का ध्यान रखा जाए.
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मंगलवार, 5 जनवरी 2016

बौद्ध तीर्थ: कलबुर्गी

कर्नाटक का कलबुर्गी शहर, जिसका पुराना नाम गुलबर्गा है, में प्रसिद्ध शरण विश्वेश्वर का प्राचीन मंदिर है, तथा इसी मंदिर के नजदीक एक बड़े गुम्बज वाली भव्य मस्जिद भी है. अब शहर के बाहर ६ किलीमीटर दूरी पर सिद्धार्थ बौद्ध विहार की स्थापना से इस प्राचीन नगर को बौद्ध तीर्थ के रूप में पहचाना जाने लगा है.

यह बौद्ध विहार ७० एकड़ से भी ज्यादा जमीन पर बहुत सुन्दरता के साथ ऐतिहासिक सारनाथ शैली के स्तूपों तथा अशोक महान की लाटो व चक्रों को सुशोभित करते हुए ६० फुट ऊंचे बनाए गए टीले पर स्थापित किया गया है, जो इस देश में अपनी तरह का एक ही है.

प्रथम दृष्टया बाहर से देखने पर ये विशाल गुम्बज अदभुत व आकर्षक है. मुख्य गेट के अन्दर बाईं और ऊँचाई पर भगवा रंग में रंगी बड़ी मानव आकृतियाँ हैं, जिनको गौर से देखने पर मालूम हुआ कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर अपने अनुनायियों सहित भगवान् बुद्ध की ओर चले जा रहे हैं. डॉ. अम्बेडकर के हाथ में बड़ी सी लाठी ठीक उसी तरह थमाई गयी है, जिस तरह दिल्ली में महात्मा गांधी जी की दांडी यात्रा की मूर्ती में प्रदर्शित किया गया है. स्तूप की पूरी परिक्रमा में पत्थर बिछाए गए हैं. मंदिर में गुम्बज के अन्दर भगवान बुद्ध की स्वर्णिम मूर्ति शान्ति, अहिंसा और समानता का सन्देश देती हुयी विराजमान है. नीचे की मंजिल पर गुरु पद्मसंभव उपदेशात्मक मुद्रा में स्थापित हैं, जिनके सामने पूरे हॉल में बैठने के लिए आसन रखे हुए हैं. यहाँ आकर मुझे हरे कृष्ण मंदिरों के वातावरण वाली गहन शान्ति का अनुभव हुआ. यहाँ की दिव्यता से ही श्रद्धावान भक्त आह्लादित होकर बाहर आता है. बुद्धम् शरणम् गच्छामि का वास्तविक आभास यहीं होता है.

वैसे तो सिद्धार्थ गौतम बुद्ध विहार ट्रस्ट गुलबर्गा की स्थापना सन १९९४ में हो गयी थी लेकिन इस भव्य निर्माण को मूर्तरूप २००९ में श्री मल्लिकार्जुन खरगे  ने दिया. वे इस वक्त इस इलाके के सांसद व लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं. पूर्व में विधायक और केन्द्रीय मंत्री भी रहे थे. स्थानीय लोग उनको दूसरा अम्बेडकर भी माना करते हैं क्योंकि वे हमेशा दलित समाज के प्रति समर्पित व सुधारक रहे हैं. वे इस ट्रस्ट के चेयरमैन हैं.

इस बुद्ध विहार का लोकार्पण सन २००९ में तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल द्वारा किया गया था. चारों ओर खुली जगह को आज भी पेड़ पौधों व दूर्वा से संवारा जा रहा है. भक्तों व तपस्वियों के लिए पीछे की तरफ आवासीय परिसर सुन्दर ढंग से बनाया गया है. बौद्ध साहित्य का पुस्तकालय भी है. चूंकि देश के इस इलाके में सैकड़ों वर्षों से बुद्ध के अनुनायियों का वास रहा है इसलिए यहाँ की शिक्षण संस्थाओं में भी उनका प्रभाव रहा है. जिनमें संस्कृत भाषा भी पढ़ाई जाती है.

इस क्षेत्र का सौभाग्य रहा है कि अब से ५० साल पहले यहाँ के प्रतिनिधित्व करने वाले विधायक+मुख्यमंत्री स्व. वीरेन्द्र पाटिल थे, जिन्होंने यहाँ मेडिकल कॉलेज, एग्रीकल्चर कॉलेज व इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना करवा दी थी. इनके अलावा स्व. इनामदार स्मारक, अनेक विधाओं के कालेज/शिक्षापीठ यहाँ पर मौजूद हैं.
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शनिवार, 2 जनवरी 2016

वाडी सीमेंट प्लांट

वाडी सीमेंट प्लांट कर्नाटक राज्य के धुर उत्तर में स्थित है. यह इलाका कभी तेलंगाना, यानि हैदराबाद निजाम के साम्राज्य का हिस्सा था. परिसीमन के बाद इसे कर्नाटक में ले लिया गया था. यहाँ के निवासियों की बोलचाल की भाषा कन्नड़ तथा उर्दू है. हैदराबादी, यानि दखिनी उर्दू-मिश्रित खड़ीबोली, सुनने में बहुत प्यारी लगती है. इस इलाके में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत अधिक बताया जाता है.

१९६६/६७ में लाखेरी से हमारे जनरल मैनेजर स्व. एस. के. मूर्ति को इस कारखाने का प्रॉजेक्ट मैनेजर बनाकर भेजा गया था स्व. मूर्ति ने लाखेरी कॉलोनी के क्वार्टर्स में बाउण्ड्रीज बनवाई, कोऑपरेटिव सोसाईटी के पीछे झाड़ियों को साफ़ करवाकर एक छोटा सा पार्क भी बनवाया. हमने उनकी याद में इस पार्क का नाम बाद में मूर्तिपार्क रख लिया था, जिसमें हर साल होलिकोत्सव के कार्यक्रम हुआ करते थे. वाडी में मूर्ति साहब के वानकी प्रेम व नगर संयोजन की खूबसूरत झलक आज भी चारों तरफ विद्यमान है. सन १९७२/७३ में जब मैं शाहाबाद से स्व. कामरेड श्रीनिवास गुडी के साथ एक ट्रेड यूनियन एक्टीविस्ट के रूप में यहाँ पहली बार आया तब कंपनी एरिया/ फैक्ट्री गेट के आसपास उजाड़ बियावान सा लगता था, पर आज यहाँ हराभरा नखलिस्तान दूर तक फैला हुआ है.

स्व. श्रीनिवास गुडी
फैक्ट्री गेट के आगे मेन रोड के पास पर स्व. श्रीनिवास गुडी की उर्ध्वांग मूर्ति सुनहरे रंग में स्थापित की गयी है, जो यहाँ के निवासियों/ कामगारों और एसीसी मैनेजमेंट की विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में नजर आती है.

कारखाने के प्रबंधन कार्यालय के अन्दर एक शिलापट्ट लगा है, जिसमें लिखा गया है कि दूसरे फेज का उद्घाटन श्री नारायणदत्त तिवारी, तत्कालीन वित्तमंत्री भारत सरकार, के हाथों सन १९८४ में किया गया था. मुझे अब बताया गया कि पुराने प्लांट की उत्पादन क्षमता ३५०० टन प्रतिदिन व नए प्लांट की क्षमता १२५०० टन प्रतिदिन है. रॉ मैटीरियल की यहाँ उपलब्धता व क्वॉलिटी की कोई समस्या नहीं रही है. ये पूरा इलाका लाईम स्टोन का खजाना है. हाँ, इन वर्षों में वर्षा नहीं होने से पानी की प्राप्ति एक चिंता का विषय बना हुआ है. कगीना नदी का पूरी तरह दोहन हो रहा है, जिससे व्यवस्था बनी हुयी है. बगल में पुरानी बस्ती में सप्ताह में केवल दो बार जल निगन द्वारा समयबद्ध जल वितरण किया जा रहा है. वाडी रेलवे जंक्शन के आसपास बहुत घनी आबादी है जिसकी गलियां व नालियां गन्दगी से अटी पड़ी हैं. मैंने एक राहगीर से जब इस विषय की बात की तो वह व्यंग्यात्मक तरीके से बोला, यहाँ के लोग गन्दगी के आदी हैं, अगर सफाई हो जायेगी तो ये लोग बीमार हो जायेंगे.

फैक्ट्री की कालोनी आर्मी केंटनमेंट की तरह साफ़ सुथरी, रंगों से पुती हुयी हैं. बहुत बड़ा इलाका जंगल बना कर संरक्षित किया हुआ है. कॉलोनी में जिमखाना-क्लब, डी. ए. वी. स्कूल, अस्पताल, गेस्ट हाउस, बैंक, कृषि नर्सरी/ फ़ार्म सभी कुछ है. कॉलोनी के एक हिस्से में पुराने क्वार्टर्स बंजर अवस्था में खाली पड़े हुए हैं, जिनमें झाड़ियाँ उग आई हैं, खिड़की-दरवाजे टूट चुके हैं. शायद कर्मचारियों की संख्या कम होते जाना इसका कारण हो.  प्लांट हेड डॉ. समर बहादुर सिंह जो साउथ की अन्य कारखानों के क्लस्टर हेड भी हैं, कुछ वर्ष पहले लाखेरी में भी प्लांट हेड रह चुके हैं अत: उनसे मेरा परिचय पहले से रहा है, नए प्लांट के प्रोडक्शन हेड श्री सुमित चड्डा मेरे पुत्र प्रद्युम्न के साथ यानबू सीमेंट प्लांट में पोस्टेड थे. पुराने प्लांट के प्रोडक्शन हेड श्री सुरेश दुबे मेरे भानजे हैं. माईन्स मैनेजर श्री कुंजबिहारी वर्मा हैं, जो लाखेरी में एक समय मेरे पड़ोसी रहे श्री देवलाल जी (स्व. नंदलाल बैरवा, एम. एल. ए., के भाई) के पुत्र है. इन सब लोगों के बारे में जानकार/मिलकर इस उद्योग से अपने प्रगाढ़ रिश्तों को पुन: ताजा कर लिया है.

४०-४२ साल पुराने कामगारों या परिचितों में से अभी तक यहाँ कोई नहीं मिला है अत: मुझे कोई नहीं पहचानता है. अजनबी होकर घूमना भी तो एक नियामत ही है.
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