शनिवार, 17 मई 2014

अमिया

चतुरसिंह ठिठोला ने अपनी पत्नी मंजरी को हिकारत भरे स्वर में डांटा, तुम्हें क्या जरूरत थी उसको अमियाँ देने की? मैंने तुमसे कई बार कहा है कि इन छोटे लोगों से व्यवहार रखने की जरूरत नहीं है, पर तुम्हें मेरी बेइज्जती करानी थी. हमारे मुँह पर थप्पड़ सा मार गया वो दो कौड़ी का हवलदार.

मंजरी पति के स्वभाव को जानती है. बेचारी रूआंसी होकर रह गयी, आँखें सजल हो आई.

गाँव की बसावट कुछ ऐसी है कि एक पंक्ति में आठ-दस घर उत्तरमुखी हैं. इसे गाँव वाले ‘बिष्ट बाखली के नाम से पुकारते हैं. इस बाखली (मकानों की पंक्ति) में काश्तकार, ड्राइवर, टीचर, व रिटायर्ड फ़ौजी रहते हैं. सभी बिष्ट बिरादरी के हैं. इस बाखली के ठीक पीछे वकील साहब का पाँच बीघे का खेत है और एक पक्का मकान भी. वकील साहब को गुजरे दस साल हो गए हैं, अब इस घर में उनका बेटा चतुरसिंह ठिठोला व उसकी पत्नी मंजरी रहते है. चतुरसिंह को वकील साहब ने नैनीताल के एक नामी कान्वेंट स्कूल में पढ़ाया-लिखाया और ग्रेजुएशन के लिए लखनऊ भेजा. चतुरसिंह को बचपन से ही ये अहसास भी कराया कि वह आम ग्रामीणों से अलग है, सुपीरियर है. अत: स्वाभाविक तौर पर वह इस ग्रामीण समाज से बिलकुल कटा रहा, और अब जब वह स्थानीय दूर-संचार विभाग में एस.डी.ओ. बन गया तो उसके भाव और भी ऊँचे हो गए. उसकी पत्नी मंजरी जरूर सामाजिक रहना चाहती है, लेकिन पति के स्वभाव व मकान का अलग-थलग पड़ना उसके लिए बाधक रहा है. वह अकेलेपन के कारण बतियाने वालों की तलाश में रहती है. उसके आँगन में गोविन्दसिंह हवलदार के घर की पिछवाड़े की खिड़की खुलती है, जहाँ पर मौक़ा पाते ही वह गोविन्दसिंह की पत्नी मीनाक्षी से सुख-दुःख व ग्राम समाचार बाँटती रहती है.

चतुरसिंह की चहारदीवारी में एक आम का बहुत पुराना बड़ा पेड़ है. ये कभी किसी की फेंकी हुई गुठली से उगा होगा. इस पर फल बहुत छोटा आता है, जिसमें भी गुठली बड़ी और रेशे वाली होती हैं. हाँ, मिठास तो अवश्य रहती है. फल भी हर साल नहीं आते, पर जब आते हैं तो मंजरी मीनाक्षी को आवाज देती है और थैला भर कर पकड़ा देती है. इस प्रकार आमों से दोस्ती का रिश्ता बना रहता है.

चतुरसिंह और गोविन्दसिंह में भी रस्मी दुआ-सलाम होती है. ये भी तब, जब गोविन्दसिंह आगे होकर बोले. गोविन्दसिंह को एक बड़ी शिकायत रहती है कि पतझड़ के मौसम में आम के तमाम सूखे पत्ते उसकी छत-आँगन में भर जाते हैं, जिन्हे साफ़ करने की कवायद करनी पड़ती है. गोविन्दसिंह ने कई बार चतुरसिंह से कहा भी था कि उसकी छत की तरफ लटकी हुई बड़ी डाल को छाँट कर छोटा करवा दें, पर चतुरसिंह ने उसके आग्रह पर कोई ध्यान नहीं दिया. इस बार गोविन्दसिंह को ना जाने क्या सूझी सारे पत्ते समेट कर चतुरसिंह के आँगन में फेंक दिये.

शीतयुद्ध की शुरुआत हो गयी. पत्नियों में भी आपस में बोल-चाल बन्द हो गई. गत वर्ष जून में खूब आम पके. झड़े भी और तोड़े भी गए. गोविन्दसिंह और उसकी पत्नी पूरे आमों के मौसम में देखते रहे, पर मंजरी ने उनसे नजर तक नहीं मिलाई, बल्कि उनको चिढ़ाने-जलाने के लिए ढेर सारी पीली गुठलियाँ व छिलके उनकी खिड़की की सीध में जमा करके रख छोड़े.

वैसे इस इलाके में आम बहुतायत में पैदा होता है. बाजार में स्थानीय आम बहुत सस्ती दरों में बिकने आता है, पर लिए-दिये की बात और होती है. अब इसमें कोई संदेह नहीं रहा कि पत्ते आँगन में फेंकने से चतुरसिंह खफा हैं. हालांकि उनसे आमों की कोई अपेक्षा गोविन्दसिंह और उसकी पत्नी कर भी नहीं रहे थे. केवल अहं का सवाल था.

कुछ महीने पहले एक दिन शाम को राह में घूमते हुए मंजरी और मीनाक्षी की मुलाक़ात हो गयी. मंजरी ने मुस्कुराते हुए बातों से उसे बहुत अपनापन जताया, आप तो दिखती ही नहीं हो, “खिड़की भी बन्द रखती हो, मै तो आपसे बातें करने को तरसती हूँ. यूँ फिर से दोनों महिलाओं में खिड़की पर आकर संपर्क साधना शुरू हो गया. महरियों के बारे में, दूध-पानी के बारे में लम्बी वार्ता होने लगी. मंजरी ने मसाला कूटने के लिए इमाम दस्ता माँगा, इस प्रकार अमिया-आम-गुठलियों-छिलकों की बात को पटाक्षेप दे दिया, उस बारे में चर्चा तक नहीं की.

अगले वर्ष फिर से पेड़ पर खूब अमिया आई, लेकिन एक दिन ऐसा अंधड़ आया कि ज्यादातर कच्चे फल जमीन पर आ गिरे. अगली सुबह एक पॉलीथीन की थैली में बहुत सी अमिया समेट कर मंजरी ने मीनाक्षी को आवाज देते हुए खिड़की के पास रख दिये. मीनाक्षी तब स्नान कर रही थी, गोविन्दसिंह ने अमिया देख कर बड़ी तल्खी आवाज में मंजरी से कहा हटाइये, हटाइये, ये बीमारी की जड़, हमको नहीं चाहिए.

खिसियानी सी होकर मंजरी बोली, भाई साहब इसकी चटनी बनाइएगा.

गोविन्दसिंह बोला, नहीं खानी है हमको तुम्हारे आम-अमिया की चटनी. आपको ही मुबारक हो.

मंजरी अपनी अमिया उठा कर ले गयी. मीनाक्षी ने पति से कहा, आपको ये सब कहने की क्या जरूरत थी, रख लेते, नहीं खानी थी तो फेंक देते.

गोविन्दसिंह बोला, बात आम-अमिया की नहीं है, व्यवहार की है, अगर चतुरसिंह बड़ा आदमी है तो हम भी किसी से कम नहीं है. किसी का दिया नहीं खाते है. तू देखना अगले साल अपने पेड़ पर भी अमिया आ जायेंगी.
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बुधवार, 14 मई 2014

चुहुल - ६४

(१)
एक सज्जन अपने दो बेटों के साथ ड्राईंगरूम में बैठे थे. उन्होंने बड़े बेटे से कहा, "जाओ बेटा, मेरे लिए एक गिलास ठंडा पानी ले आओ."
बेटे ने बड़ी बेरुखी से जवाब दिया, "मैं इस वक्त कुछ जरूरी विषय पर सोच रहा हूँ."
स्थिति का जायजा लेते हुए छोटा बेटा बाप से बोला, "पापा, आप इसको जब भी काम बताते हैं, ये हमेशा टालमटोल करके आपका कहना नहीं मानता. अच्छा होगा आप खुद जाकर फ्रिज से पानी निकाल कर पी आयें और मेरे लिए भी एक गिलास ले आयें."

(२)
गाँव से दादा जी आये तो पोते ने कई दिनों तक स्कूल जाना बन्द कर दिया. एक दिन स्कूल के टीचर को घर की तरफ आते देखा तो दादा पोते से बोले, "जरूर तेरी शिकायत लेकर आ रहे होंगे. तू छुप जा."
इस पर पोता बोला, "दादा जी, मुझे नहीं, आपको छुपना पड़ेगा क्योंकि मैंने अपनी छुट्टी की अर्जी में लिखा है कि मेरे दादा जी गुजर गए हैं."

(३)
एक नेता जी से चुनाव के दिनों में पूछा गया, "अगर आप चुनाव जीत गए तो क्या करेंगे?"
नेता जी बोले, "मुझे तो चिंता इस बात की है कि अगर मैं हार गया तो फिर क्या करूँगा?"

(४)
हमारे समाज में लड़की की शादी के लिए प्राय: ऐसा लड़का ढूँढा जाता है जो खाते-पीते घर का हो, साथ ही ये भी सुनिश्चित किया जाता है कि लड़का 'खाता-पीता' ना हो.

(५)
एक भले मानस ने अपनी वाचाल पत्नी के साथ बाजार में घूमते हुए उससे पूछा, "क्या तुम पान खाना पसन्द करोगी?"
पति के प्यार भरे प्रस्ताव को वह कैसे नकार सकती थी, बोली, "क्यों नहीं? जरूर."
पति ने पान की दूकान से सिर्फ एक पान खरीदा और पत्नी जी को दे दिया. पत्नी ने तुरन्त पूछा, "अपने लिए नहीं लगवाया क्या?"
इस पर पति ने बड़े संयम से कहा, "मेरा मुँह बिना पान के भी बन्द रह सकता है.
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मंगलवार, 6 मई 2014

प्रोस्टेट ग्लैंड

परमात्मा ने हम प्राणियों के शरीरों को इस सुनियोजित किन्तु ‘कॉम्प्लैक्स्ड ढंग से बनाया है कि हर अंग के अपने विशिष्ट स्थान व कार्य की तुलना कोई मानव निर्मित कम्प्यूटर अभी तक नहीं कर पाया है.

प्रोस्टेट यानि पौरुष ग्रन्थि महिलाओं के शरीर में नहीं होती है. ये पुरुषों में मूत्राशय से आगे जुड़ा हुआ एक सुपारीनुमा ग्रन्थि है, जिसके अन्दर से होकर मूत्र नलिका बाहर को निकलती है. इस ग्रन्थि का कर्म है कामोत्तेजना के समय धातु विसर्जन. अधिकांश पुरुषों में उम्र बढने के साथ साथ इसमें विकार पैदा होने लगते हैं, जैसे ये आकार में बढ़ने लगता है, इसमें पथरी पैदा हो सकती है, या किसी किसी की ग्रन्थि में कैंसर घर कर सकता है. सामान्यतया व्यक्ति को रात्रि में बार बार पेशाब की शिकायत होना इसका प्राथमिक लक्षण है. मूत्र की धार पतली होना, रुक रुक कर पेशाब आना, एक बार में पूरा ब्लैडर खाली ना हो पाना अथवा रुकावट होना इसके मुख्य लक्षण होते है.

अनादि काल से वैद्य, हकीम व डॉक्टर लोग इसकी लाक्षणिक चिकित्सा करते रहे हैं. इसके ईलाज के बड़े बड़े दावे भी किये जाते हैं. एलोपैथी की वर्तमान एडवांस चिकित्सा मे इसकी चिकित्सा यूरोलॉजी विभाग में होती है. इसका आख़िरी हल सर्जरी बताया गया है. एक समय था पेट काटकर आपरेशन होता था. फिर लेप्रोस्कोपिक पद्धति आई और अब बिना चीरा लगाये अथवा शरीर में बिना छेद किये ही लेजर द्वारा इसको अन्दर ही काटकर खोखला कर दिया जाता है. घाव भरने के लिए एंटीबायोटिक्स दिये जाते हैं.

सन १९८० तक रक्त परीक्षण P.S.A. (प्रोस्टेट स्पेसिफिक ऐंटीजन) टेस्ट ईजाद नहीं हुआ था. ये एंटीजन नॉर्मल से ज्यादा होने पर कैंसर की संभावना होती है इसलिए ऐसे मामलो में सर्जरी नहीं की जाती है. कैंसर की पुष्टि होने पर रेडियो विकीरण (कीमोथेरेपी) द्वारा चिकित्सा की जाती है. और इसे फ़ैलने से रोका जाता है. पुराने दिनों में आपरेशन के बाद बायोप्सी से ही कैंसर की उपस्थिति मालूम हो पाती थी तब रोगी को बचाना कठिन हो जाता था, पर आजकल सारी जांच पहले करके ही रोगी को आपरेशन की सलाह दी जाती है.
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शनिवार, 3 मई 2014

बीतराग

एक आम कहावत है कि 'अनहोनी को कोई नहीं टाल सकता है'. ऐसी ही कुछ अनपेक्षित घटनाएँ मुझे तब याद आ रही थी जब इसी ८ अप्रेल को मैं स्वयं आपरेशन थियेटर की टेबल पर लेटा था और एनेस्थिसिस्ट ने मेरे कमर में इंजेक्शन देकर निचले हिस्से को सुन्न कर दिया था. मैं सामने दीवार पर लगे मॉनीटर पर अपने प्रोस्टेट ग्लैंड को लेजर से कटते हुए आराम से देख रहा था. तब मुझे पड़े पड़े पूर्व में घटी तीन दुखद घटनाएँ याद आ रही थी.

(१) पिछले अस्सी के दशक की शुरुआत में एक दक्षिण भारतीय डॉक्टर एस. नागराजन हमारे साथ काम करते थे, बहुत मिलनसार व अच्छी प्रकृति वाले थे (वे बाद में कोयम्बटूर से सी.एम.ओ. होकर रिटायर हुए.) तब उनके ससुर जो हाल में कर्नाटक सरकार की सेवा से कृषि विभाग के डाइरेक्टर पद से रिटायर हुए थे, बेटी-दामाद से मिलने लाखेरी राजस्थान आये थे. उनको प्रोस्टेट सम्बन्धी तकलीफ रही होगी. दामाद डॉक्टर थे. उन्होंने जिद की कि इसका आपरेशन करवाकर निजात पाया जाय. वे बैंगलूरू गए, जहाँ किसी अच्छे अस्पताल में आपरेशन के लिए भर्ती किया गया. दुर्भाग्य ये रहा कि कि ससुर जी की आपरेशन के दौरान मृत्यु हो गयी. ये एनेस्थीसिआ में लापरवाही थी या हृदयाघात था, पर अनहोनी हो गयी. डॉक्टर नागराज उनको याद करके बहुत दिनों तक सिसकते रहते थे.

(२) लगभग तीस वर्ष पुरानी बात है कि मेरे एक मित्र मोहम्मद इस्माईल हनीफी हमारे कारखाने में वैल्डिंग चार्जहैंड थे, बहुत मिलनसार, हँसमुख और हरदिल अजीज थे. उनके भाई भी मेरे निकट के साथी और सहयोगी रहे हैं. इस्माईल भाई को गॉल ब्लैडर में स्टोन थे. देर से डायग्नोस हो पाया, जब तक कोटा के महाराव भीमसिंह अस्पताल में आपरेशन के लिए ले जाया गया, सारा पित्त खून में फ़ैल गया था. गंभीर हालत थी. आपरेशन थियेटर में ऐन वक्त पर बिजली चली गयी, जिससे ऑक्सीजन की सप्लाई बाधित हो गयी और टेबल पर ही उनका इंतकाल हो गया. उनके सभी बच्चे तब नाबालिग थे, परिवार के लिए अपूरणीय क्षति थी.

(३) एक थे हमारे इलेक्ट्रिकल इंजीनियर स्वर्गीय टी. एस. भल्ला. सबकी मदद करने का जज्बा रखते थे. खरी बोलने में भी कसर नहीं रखते थे. रिटायरमेंट के बाद कोटा जाकर बस गए थे, पर स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया. आँखों के आपरेशन किये तो एक आँख की रोशनी चली गयी. उसके बाद सफलता पूर्वक हार्ट की बाईपास सर्जरी करवाई. ये सब चलते हुए भी वे व्यस्त और चुस्त बने रहते थे. दुर्भाग्य से उनको प्रोस्टेट का आपरेशन भी करवाना पड़ा. पता नहीं डॉक्टरों की लापरवाही रही या एनेस्थिसिस्ट की गलती, आपरेशन के बाद उनका कमर से नीचे का हिस्सा सुन्न ही रह गया. बहुत ईलाज कराया, उनके बच्चे उनको जयपुर-मुम्बई के अस्पतालों में भी ले गए, लेकिन वे फिर बिस्तर से नहीं उठ सके. सन २०१२ में उनका देहावसान हो गया.

एक घन्टे के बाद मैं अपनी पैर की अँगुलियों में हरकत महसूस करने लगा और आपरेशन की टेबल से शिफ्ट कर दिया गया. ये वे क्षण होते हैं जब बीमार व्यक्ति बीतराग होकर अपने जीवन के आगे व पीछे के बारे में सोचा करता है.

मुद्दे की बात ये भी है कि सर्जरी हमेशा अच्छे सर्जन द्वारा, विशिष्टता वाले अस्पताल में ही करवानी चाहिए.
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गुरुवार, 1 मई 2014

आत्मकथ्य - २

आज १ मई, २०१४ है. मई दिवस मेरा जन्मदिन भी है. मेरी उम्र आज पूरे ७५ वर्ष हो रही है. इसे जीवन काल की 'हीरक जयन्ती' (डायमंड जुबली) कहा जाता है. सामान्यतया हमारे देश के वर्तमान समाज में इतनी उम्र पाकर हँसी-खुशी जी लेने को भाग्यशाली कहा जाता है. परमेश्वर की कृपा है, स्वजनों/मित्रों की शुभकामनाएँ हमेशा साथ रही इसलिए जीवन पथ पर दुरूहताएं होते हुए भी मैं आज सपरिवार सुखी और स्वस्थ हूँ.

हिमालय के निकट कुमायूँ की पहाड़ियों के मध्य एक दूरस्थ पिछड़े से गाँव पुरकोट (गौरीउड्यार) में मैं पैदा हुआ, माता-पिता की पहली संतान था जो कि अनेक मन्नतों के बाद उनको शादी के १६ वर्षों बाद प्राप्त हुआ था. मेरे पिता परिवार में पाँच भाइयों में सबसे छोटे थे. बताते थे कि मेरे पैदा होने पर परिवार में बहुत खुशी मनाई गयी थी. पिता श्री अध्यापक थे, उन्होंने अपने सारे संस्कार मुझको दिये हैं. बचपन, दादी की गोद में खूब खेला. चचेरे भाइयों और बहनों का मैं चहेता रहा, मैंने परिवार में बहुत दुलार पाया। था भी मैं नाजुक सा चिकना बच्चा, ऐसा बताते थे. पिता श्री हमेशा मेरे नाजुकपने पर चिंतित रहते थे. अपने साथ स्कूल ले जाते थे. जब मैं मिडिल स्कूल में पढ़ने के लिए बागेश्वर कस्बे में आया तो उन्होंने अपना स्थानान्तरण बागेश्वर के स्कूल में ही करवा लिया. मेरे हाईस्कूल करने तक वे साथ रहे. जब मैं इण्टर के लिए कांडा गया तो पिता जी ने अपनी बदली कत्यूर घाटी (मेरा ननिहाल भी वहीं है) में करवा लिया. थोड़ी जमीन खरीद कर वहीं बस गए. पुराना गाँव छोड़ दिया. हमारा परिवार स्यालटीट, मटेना में रहने लगा. ये सन १९५५ की बात है. तीन छोटी बहनें, और सबसे छोटा भाई बसन्त बल्लभ (हाल में एक इण्टर कॉलेज के प्रिंसिपल के पद से रिटायर हुए हैं), सभी अपने अपने परिवारों के साथ सुखी और संपन्न हैं.

मेरा विवाह सन १९६१ में कुन्ती देवी से हुआ हमारे तीन बच्चे, बड़ा बेटा डा. पार्थ, राजस्थान कोटा में रहता है, राजस्थान सरकार की सेवा में है, बेटी गिरिबाला अपने पति भुवन जोशी व बिटिया हिना के साथ टैक्सस (यू.एस.) में रहती है, छोटा प्रद्युम्न अभी सपरिवार इंदिरापुरम-गाजियाबाद में रहता है, वह जे. के. टायर्स का एच. आर. हेड है. तीनों बच्चे बहुत केयरिंग हैं इसलिए हमें बुढ़ापे के सभी सुख प्राप्त हैं.

१९९९ दिसम्बर में सर्विस से रिटायर होने के बाद मैं अपने भाई-बन्धु-बांधवों के साथ हल्द्वानी शहर के बरेली रोड पर स्थित गौजाजाली में बस गया हूँ, जहाँ सभी रिटायर्ड कर्मचारी/फ़ौजी लोग बसे हुए हैं. यहाँ एक नया सामाजिक परिवेश मिला है. अधिकतर लोग कुमाउनी हैं.

कहते हैं कि संतोषी सदा सुखी, तो मैं हमेशा अपने वर्तमान से संतुष्ट रहा हूँ. आज मुझे अनेक शुभकामनाएँ मिल रही हैं. मैं अपने सभी स्नेही जनों / मित्रों को धन्यवाद देना चाहता हूँ, और सबके अच्छे स्वास्थ्य एवं सुख-समृद्धि की कामना करता हूँ.
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