गुरुवार, 20 नवंबर 2014

चुहुल - 68

(१)
एक आदमी सड़क पर चिल्लाता जा रहा था, ये सरकार निकम्मी है. पुलिस वाले ने सुना और उसे पकड़ कर थाने ले गया. थाने में ले जाकर सरकार के खिलाफ बगावती बातें करने के आरोप में उसकी ताजपोशी की जाने लगी तो वह अपनी सफाई में बोला, मैं तो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ नारे लगा रहा था.
इस पर थानेदार ने उसकी पिटाई करते हुए कहा, साले, तू झूठ बोल रहा है. हमको भी मालूम है कि कौन सी सरकार निकम्मी है.

(२)
एक नौसिखिया आशिक अपने ही स्कूल की जूनियर कक्षा की लड़की से मेलजोल बढ़ाने में कामयाब हो गया, पर प्यार का इजहार नहीं कर पा रहा था. एक दिन मौक़ा पाकर उससे बोला, जब से तुमसे मुलाक़ात हुई है, ना जाने मुझे क्या हो रहा है नींद कम आती है, भूख भी कम लगती है, और पढ़ाई में बिलकुल मन नहीं लगता है. क्या करना चाहिए?
लड़की चिंतित होकर बोली, भैय्या, तुम आज ही किसी सायकायट्रिक को दिखाओ. मेरी माँ सही कह रही थी कि तुम्हें कोई बीमारी है.

(३)
अध्यापक दो में से दो गये तो क्या बचा?
विद्यार्थी सर, मैं समझा नहीं?
अध्यापक इस तरह समझो कि तुम्हें खाना दिया गया, जिसमें दो रोटिया हैं, वे दोनों  ही तुमने खाली, तो क्या बचा?
विद्यार्थी सब्जी बचेगी सर.

(४)
दस वर्षीय नेहा पिछली छुट्टियों में अपनी मौसी के घर गयी. मौसी ने रसोई में जाने से पहले नेहा से पूछ लिया नेहा, तुम कितनी रोटिया खाती हो?
नेहा ने बड़े भोलेपन से जवाब दिया, वैसे तो मैं तीन रोटियाँ खाती हूँ, सब्जी अच्छी लगे तो चार खा लेती हूँ, लेकिन अगर कोई नहीं देख रहा हो तो पांच रोटियां भी खा लेती हूँ.

(५)
तीन जिगरी दोस्त हैं: चिंटू, मिंटू और छोटू. उम्र क्रमश: 12, 10 और 8 साल. एक दिन इन तीनों ने प्रोग्राम बनाया कि बड़ों की ही तरह अपन भी पिकनिक मनाने चलें. तीन बोतल कोल्ड ड्रिंक शाम को ही खरीद कर रख ली, आज हलवाई की दूकान से 6 समोसे खरीदे और चल पड़े
पार्क काफी दूर था, वहां जाकर याद आया कि कोल्ड ड्रिंक तो घर ही रह गया. अब घर जाकर कौन लाये? तय हुआ कि लो सबसे छोटा है वह जाकर लेकर आयेगा. छोटू ने कहा, मैं इस शर्त पर जाऊंगा कि मेरे आने तक तुम समोसे नहीं खाओगे.
ठीक है, दोनों ने कहा.
छोटू का इन्तजार करते करते एक घंटा, दो घंटे, और तीन घंटे बीत गए, छोटू नहीं दिखा. अब तो घर लौटने का समय भी हो चला था तो चिंटू ने मिंटू से कहा यार, अब तो भूख भी लग आई है, छोटू आने वाला नहीं लगता है, चलो समोसे खा लेते हैं.
जैसे ही उसने समोसे का पैकेट खोला तो झाड़ी के पीछे से छोटू निकल कर आया और बोला, अगर तुम लोग ऐसी बेईमानी करोगे तो मैं कोल्ड ड्रिंक लेने जाऊंगा ही नहीं.
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सोमवार, 17 नवंबर 2014

ईवेन्ट मैनेजर (सामयिकी)

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता, भूतपूर्व उपप्रधान मंत्री श्री लालकृष्ण अडवानी ने वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के बारे में सटीक बात कही है कि “वे एक अच्छे ईवेंट मैनेजर (event manager) है. इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी जी ने भारतीय मतदाताओं की नब्ज को बहुत बढ़िया ढंग से पकड़ा है. गुड़ नहीं तो गुड़ जैसी बात ही करो
का फार्मूला फिट किया हुआ है. उधर कांग्रेस पार्टी औंधे मुंह गिर कर परिवर्तन की मार सह रही है. सच बात तो यह है कि मोदी जी के मुकाबले उनके पास कोई धुरंधर नेता नहीं है. राहुल गांधी को धक्का दे दे कर आगे किया जाता रहा है, पर वह एक अविकसित, डरी हुए आत्मा है, जिसने अपने सामने अपनी दादी इंदिरा जी व पिता राजीव गांधी की प्रत्यक्ष मौत देखी है, जो कि बदले की भावना से की गयी थी. जिस बच्चे का शैशव, नाम बदल कर, डर के साये में बीता हो, उसके मानसिक स्थिति के बारे में सही आकलन करना आसान नहीं हो सकता है. बहरहाल वह मोदी जी जैसे सर्वगुणसंपन्न राजनैतिक खिलाड़ी की तुलना के ग्राफ में बहुत नीचे है. यहाँ उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी व राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता कोई मुद्दा नहीं है, ना इस बारे में उन पर कोई शक किया जा सकता है. वह एक सहज, सरल व परावलम्बी व्यक्तित्व है, जो आज की धूर्ततापूर्ण राजनीति में सफल कलाकार साबित नहीं हो सकता है.

वोल्टेयर ने कहा था कि “Give me the press, I will not care who rules the country.” उस जमाने में जब आज की तरह इलैक्ट्रोनिक मीडिया नहीं था, अखबार ही जनमत को प्रभावित करते थे. आज तो हमारे बेडरूम के अन्दर तक मीडिया का दखल हो चुका है, टीवी चैनल्स के मालिकों व संपादकों के वेस्टेड इंटरेस्ट हो सकते हैं, जिनका प्रत्यक्ष/परोक्ष प्रभाव हम लोग पिछले दिनों से देखते आ रहे हैं. मीडिया वालों के कई बिजनेस टार्गेट हो सकते हैं, पर सत्ता को दण्डवत करने का नया इतिहास इस बार उजागर हो रहा है.

मैंने इंटरमीडिएट करने के बाद करीब आठ महीनों तक एक प्राइवेट जूनियर हाई स्कूल में अध्यापन कार्य भी किया था, रवाईखाल, बागेश्वर के उस नए स्कूल के हेडमास्टर स्वर्गीय रूपसिंह परिहार थे. वे एक काफी वृद्ध रिटायर्ड हेडमास्टर थे, जिन्होंने अपनी जवानी के दिनों में मेरे पिताश्री को भी काण्डा मिडिल स्कूल में पढ़ाया था और मुझे भी सन 1949-50 में बागेश्वर मिडिल स्कूल में पढ़ाया था. वे जबरदस्त ईवेंट मैनेजर माने जाते थे. उनका कहना था कि लिफ़ाफ़े के भीतर क्या है ये तो लोगों को बाद में मालूम होता है, प्रथम दृष्टया लिफ़ाफ़े का बाहरी लुक आकर्षक होना चाहिए. रवाईखाल का वह ग्रामीण स्कूल अब हायर सेकेंडरी बन चुका है, पर उसकी बुनियाद भविष्यदृष्टा रूपसिंह जी ने तभी डाल दी थी.

दूसरा उदाहरण ए.सी.सी. लाखेरी सीमेंट कारखाने का है, जिसमें 1980-90 के दशक के बीच कई वर्षों तक स्वनामधन्य श्री प्रेमनारायण माथुर का जनरल मैनेजर के रूप में वर्चस्व रहा. मुझे उनके साथ काम करने का लम्बा अवसर मिला.  प्राईवेट कंपनियों में प्लांट हैड अपनी फैक्ट्री व कैम्पस का राजा होता था. ये कारखाना सात बर्षों से ज्यादा समय तक लगातार घाटे में चलता आ रहा था, और सिक यूनिट घोषित हो चुका था. चूंकि माथुर साहब अच्छे ईवेंट मैनेजर थे, उन्होंने बुरे दिनों में भी कॉर्पोरेट ऑफिस, सरकारी तंत्र और कर्मचारियों के साथ सामंजस्य बनाते हुए सीमेंट उत्पादन की तिथियों को इस प्रकार से समायोजित किया कि उत्पादकता का राष्ट्रीय अवार्ड हासिल किया. ये उनका कमाल था कि कुछ ना होते हुए भी सब कुछ होने का अहसास कराते रहे थे. ये दीगर बात है कि उनके जाने के बाद कारखाना बिकने के कगार पर आ गया था.

माथुर साहब उसके बाद सऊदी अरब के एक सुलतान के कारखाने जनरल मैनेजर बने थे. वहां से रिटायर होने के बाद भी सुलतान ने उनको नहीं छोड़ा, उनको अपना सलाहकार बनाए रखा था. उनके ईवेंट मैनेजरी का किस्सा ये भी है कि उन्होंने सुलतान को भारत भ्रमण का निमंत्रण दिया, और जब सुलतान  दिल्ली में उतरा तो बड़ी भीड़ फूल मालाओं से उसका स्वागत करने को तत्पर मिली. उसके बाद जब वह ताजमहल देखने आगरा गया तो वहाँ भी बहुत लोग उनकी अगवानी में मालाएं लेकर इन्तजार कर रहे थे. इसी प्रकार जब वह चारमीनार देखने हैदराबाद पहुंचा तो वहां का स्वागत देख कर गदगद हो गया. जबकि माथुर साहब का उन शहरों में कोई व्यक्तिगत आधार नहीं था फिर भी सुलतान को अहसास कराया गया कि प्रेमनारायण माथुर कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं.

मैं माथुर साहब को उनकी जवानी के दिनों से जानता हूँ, वे एक जूनियर ऑफिसर के रूप में लाखेरी माईन्स में इंजीनियर थे, पर वे लोगों के दिलों को जीतने की कला जानते हैं. भगवान उनको लम्बी उम्र दे. वे आजकल फरीदाबाद में विराजते हैं.

गत पांच महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जहां भी, जिस देश में भी, किसी भी प्रयोजन से भ्रमण कर रहे हैं, उनके मैनेजर्स/प्रायोजक आगे आगे वहाँ पहुँच कर प्रवासी भारतीय जनमानस को इस तरह से उद्वेलित करते आ रहे हैं कि मोदी जी की यात्रा एक यादगार समारोह बन जाता है. दुनिया हंसती है, हंसाने वाला चाहिए. मीडिया पूरी तरह समर्पित है और व्यवस्थापक सुनियोजित ढंग से अपना कर्तव्य निभा रहे हैं.

ये सब लिखकर मैं मोदी जी के करिश्माई चरित्र को कम नहीं करना चाहता हूँ, लेकिन घरेलू मोर्चे पर अभी तक महंगाई, बेरोजगारी, ग्रास-रूट पर भृष्टाचार तथा साम्प्रदायिक सौहार्द्य की यथास्थिति चिंतनीय है. बीच बीच में कालाधन, शौचालय, स्वच्छता अभियान जैसे मुद्दे उछालकर कुछ हो रहा है का अहसास कराया जा रहा है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सोने व पेट्रोल के भावों में गिरावट को मोदी इफेक्ट नाम देकर भरमाया जा रहा है. हाँ ये जरूर है कि मनमोहन सिंह जी के समय में जो शून्य की सुनसानी थी, वह अब नहीं है. लगता है कि देश में कोई प्रधानमंत्री नाम की चीज मौजूद है जैसा कि जवाहरलाल जी के समय में होता था.
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मंगलवार, 11 नवंबर 2014

डर

आज मौली का 35वां हैप्पी बर्थडे है. वह कई दिनों से इसे कुछ नए ढंग से मनाने की सोच रही थी, पर घर गृहस्थी के काम उसे उलझाए रहे. उसने परम्परागत ढंग से ही सुबह नहा-धोकर घर के ही मंदिर में दीप प्रज्ज्वलित कर पूजा-अर्चना की फिर पतिदेव को प्रणाम कर प्यार पाया, उल्लासित होकर रसोई में चली गयी. उसे माँ की बहुत याद आ रही थी. उसने माँ की पसंद की काजू, किशमिश, पिस्ते-बादाम वाली गाढ़ी खीर बनाई. पूड़ियाँ बनाई, बड़े बनाए और केले के मालपुए बनाए. दस वर्षीय बेटे अक्षत और पति रजनीकांत को पेटभर खिलाया. शनिवार था इसलिए अक्षत को आज स्कूल नहीं जाना था. रजनीकांत अपने निर्धारित समय पर ऑफिस को चला गया. 

पकवान खुद खाने से पहले उसने एक टिफिन डिब्बे में अलग अलग खानों में सारी चीजें माँ के लिए पैक कर रख दी. माँ के पास जाने के लिए जल्दी जल्दी तैयार हो रही थी कि इतने में उसकी स्कूलमेट भावना का फोन आ गया कि वह एक घंटे बाद उसके घर विज्ञान नगर पहुँच रही है’. मौली एकदम सकते में आ गयी. वह भावना को बता नहीं सकी कि उसे डडवाडा (कोटा रेलवे स्टेशन के पास) माँ के पास जाना है. नई परिस्थिति पर सोचते हुए उसने अक्षत को पास बुलाकर पूछा, बेटा, तू अकेला नानी के पास जा सकता है? अक्षत ने बिना सोचे समझे आत्मविश्वास से कहा, मैंने नानी के घर का रास्ता देखा है, टेम्पू से जाऊंगा, बजरिया में मंदिर पर उतर कर सीधे नानी के घर चला जाऊंगा.

मौली की माँ वेदवती देवी अपने पुश्तैनी घर में अकेली रहती हैं. वह अध्यापिका थी और अब रिटायर हुए पांच साल हो चुके हैं. मौली उनकी इकलौती संतान है. वह मौली की शादी के बाद चाहती थी कि रजनीकांत घर जंवाई बन कर उनके पास ही रहें, पर रजनीकांत को ये मंजूर नहीं था. उसका कहना था, आप आकर हमारे साथ रहो”. रजनीकांत का विज्ञान नगर में अपना बड़ा दुमंजिला मकान है, जिसमें सभी आधुनिक सुविधाएं हैं. उसका अपना कार्यस्थल इन्द्रप्रस्थ औद्योगिक क्षेत्र भी दूसरी दिशा में है, तथा अक्षत का स्कूल भी तलमंडी में नजदीक है. माँ का मन है, वो बेटी से कहने लगी, मेरे बाद ये सब तुम्हारा ही है, जब तक हाथ-पाँव चल रहे हैं, मैं डडवाडा में ही रहूँगी. इसमें तुम्हारे पिता की यादें भी बसी हुयी हैं. जब अशक्त हो जाऊंगी तो तुम्हारे पास ही आना पड़ेगा. माँ-बेटी में बहुत प्यार व समझदारी है, स्वाभाविक रूप से एक दूसरे की बहुत चिंता किया करती हैं. मौली ने बचपन में बाप की जगह भी माँ को ही पाया था, और ये भी सच है कि बेटी ही माँ को सबसे अच्छी तरह समझ सकती है. उसे याद है उसके जन्मदिन पर माँ उसे सजा-संवार कर पूजा किया करती थी, उसकी सहेलियों को घर बुलाकर ढेर सारे पकवान बना कर खिलाती थी. अब मौली हर वार-त्यौहार या शुभ दिन, माँ का आशीर्वाद लेना नहीं भूलती है.

आज ऐन वक्त पर भावना का फोन आ गया तो सोचा माँ से शाम को जाकर मिल लूंगी. माँ के पास लैंड-लाइन टेलीफोन है, पर माँ के कान जवाब दे गए हैं, बहुत कम सुनाई पड़ता है. समस्या के निराकरण के लिए ई.एन.टी. डॉक्टर से कान की जांच करवाकर सुनने की मशीन लगवा दी है, पर माँ कहती है कि ये बहुत असुविधाजनक है इसलिए निकाल कर रख देती है, और जब जरूरत महसूस करती है तो फिट कर लेती है. मौली की शुक्रवार को माँ से बात हुयी थी. मौली ने कह दिया था कि खाना मत बनाना, मैं लेकर आऊँगी”. अब इस असमंजस में जब अक्षत नानी के घर जाने को तैयार हो गया तो उसे राहत मिल गयी. एक थैले में टिफिन डब्बा रख कर, अच्छी तरह ले जाने को समझाकर, टेम्पो के लिए खुले रुपये देकर, अन्दर की जेब में १०० रुपयों का एक नोट भी रख दिया. अक्षर तुरंत दबे पाँव निकल गया. मौली जब तक उसे देख पाती, वह एकदम गायब हो गया. मौली पीछे पीछे झालावाड़ रोड तक भी गयी, पर अक्षत ने कमाल कर दिया इतनी जल्दी निकल गया. मौली ने कभी भी बेटे को इस तरह अकेले सड़क पर नहीं छोड़ा था. जिस तरह मुर्गी अपने चूजे को अपने पंखों के अन्दर छुपाये रखती है, उसी तरह मौली ने बेटे को कोई एक्सपोजर नहीं होने दिया था. अब सोच रही थी कि सीधे सीधे टेम्पो जाते है, हजारों लोग आते-जाते रहते हैं’, लेकिन मन में बैठा चोर डरा भी रहा था कि कोई अक्षत का अपहरण न कर ले क्योंकि आजकल कोटा में ऐसी अपराधिक धटनाएं बहुत होने लगी थी. ये भी सोच रही थी कि एक दिन तो बच्चे को इस दुनिया में अकेले विचरण करना है. उसने कई बार माँ को फोन लगाया पर वह उठा नहीं रही थी. माँ जरूर मशीन हटाकर काम में लग रही होगी या सो गयी होगी.

भावना आई, खूब गले मिले, गिले शिकवे हुए. वह बर्थडे गिफ्ट लेकर आई थी. दरअसल भावना मौली का जन्मदिन हमेशा याद रखती है. दो घटों तक दोनों सहेलिया खूब बतियाती रही फिर वह चली गयी. इस बीच भी मौली के मन में बार बार अक्षत का ख़याल आ रहा था. एक बार फिर से फोन लगाया तो माँ ने उठा लिया, पर ये क्या? उसने बताया कि अक्षत वहाँ नहीं पंहुचा था. दिन के दो बजने को आये थे. बच्चे का वहां नहीं पहुंचना चिंता का विषय हो गया. उसने तुरंत पति को फोन किया और घबराहट में यथास्थिति बयान कर दी. रजनीकांत पहले तो अक्षत को इस तरह अकेले भेजने पर नाराज हुआ फिर तुरंत घर की तरफ रवाना हो गया. मौली बदहवास सी होकर पड़ोस के लोगों व बच्चों को अपनी बात बताने निकल पड़ी. सब लोग सुनकर हैरत में थे कि अक्षत खो गया.

उधर माँ भूखी थी, इस बात की भी चिंता हो रही थी. तीन बजे रजनीकांत घर पहुँच गया. पति-पत्नी दोनों ने तय किया कि एकदम पुलिस स्टेशन जाने के बजाय रेलवे स्टेशन की तरफ जाकर डडवाडा में उसे खोजना चाहिए. पड़ोस में हल्ला होने से कुछ लड़के पहले ही निकल पड़े थे. रजनीकान्त ज्यों ही मोटर-बाईक उठाने के लिए सीढ़ियों से नीचे उतरा तो उसको वहाँ कुछ खटपट की आवाज सी सुनाई पड़ी, जब झुककर देखा तो अक्षत को सिमटकर छुपा बैठा पाया.

रजनीकांत ने मौली को आवाज दी और बताया, अक्षत तो यहाँ दुबका बैठा है! उसे पाकर दोनों को बड़ी राहत मिली. इस अजीब स्थिति पर अक्षत ने रोना शुरू कर दिया. उसे प्यार से समझाकर अन्दर ले गए. रजनीकांत मौली से बोले, इसे डरपोक बनाने का श्रेय तुमको जाता है. फिर अक्षत की नानी को फोन से सूचना देकर वे तीनों टिफिन डिब्बा लेकर नानी के पास गए. वह भी बेहद डरी हुई थी.
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बुधवार, 5 नवंबर 2014

हिटलर

जर्मनी के तानाशाह अडोल्फ़ हिटलर का असली सरनेम हिडलर था. चूंकि वह अपने तेजस्वी भाषणों से हिट होता गया इसलिए उसे हिटलर कहा जाने लगा, ऐसा कहा जाता है. वह एक विकासपुरुष के रूप में भी जाना जाता था. उसने लोगों को खूब सपने दिखाए थे और तदनुसार बहुत काम भी किये. यहाँ तक कि उसकी मृत्यु के बाद, यानि द्वितीय विश्व युद्ध में हार के बाद भी जर्मनी का विकास रुका नहीं क्योंकि मित्रराष्ट्रों ने जर्मनी पर पुरानी कठोर शर्तें नहीं लगाई कि कोई दूसरा हिटलर फिर से पैदा ना हो.

मैंने जर्मनी का इतिहास पहले नहीं पढ़ा था. मेरे पौत्र/पौत्री की बुकसेल्फ़ में अनेक महापुरुषों की जीवनी संबंधी पुस्तकें संग्रहित हैं, इन्हीं में मुझे अडोल्फ़ हिटलर की जीवनी (लेखक IGEN B.) भी मिली. ये पुस्तक सरल अंग्रेजी में लिखी हुई है. इसके पूर्वार्ध में जर्मनी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का बड़े सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है. अब तक मैंने हिटलर को महज एक क्रूर तानाशाह व यहूदियों के हत्यारे के रूप में जाना-सुना था, और मैं उसे मानवता का दुश्मन माना करता रहा हूँ, जिसने दुनिया को द्वितीय विश्वयुद्ध में धकेला था. उसकी जीवनी पढ़ने के बाद उसके द्वारा मानवता के प्रति किये गए अपराधों को एक तरफ रख कर देखा जाए तो वहां की तत्कालीन परिस्थितियों के वशीभूत उसके बचपन और युवावस्था में किये गए संघर्षों की कहानी में होनहार विरवान के होत चीकने पात वाली तमाम विशिष्टताएं हैं, जो हर किसी में नहीं हो सकती हैं. उसका दादा जूते बनाकर गुजारा करता था, उसका बाप एक मामूली सरकारी नौकर था, वह स्वयं मात्र एक पेंटर-कलाकार था, जो आर्थिक विपन्नताओं में पला-बढ़ा था.

यह भी सच है कि उन दिनों जर्मनी में राजनैतिक समीकरणों व देश के विभाजन के बाद मूल जर्मनों की दुर्दशा हो रही थी. सारे वैभव तथा सरकारी उच्च पदों पर यहूदियों का कब्जा था. बालक अडोल्फ़ ने अनुभव किया कि इस दुर्दशा के लिए यहूदी लोग जिम्मेदार हैं इसलिए वह यहूदियों से घृणा करता था. परिस्थितियों ने जब उसे कम उम्र में ही सीढ़ी दर सीढ़ी चांसलर के पद तक पहुंचा दिया तो उसने यहूदियों पर अनेक अत्याचार किये, और उनका नरसंहार कराया  और वह धार्मिक उन्माद के चलते जर्मनों का हृदय सम्राट बना रहा. जो जर्मन लोग ह्यूमिलिएशन में  जी रहे थे, उनमें जातीय जोश भर कर राष्ट्रप्रेम की शक्ति का नवसंचार किया. हम ही सर्वश्रेष्ठ नस्ल हैं" का मंत्र फूंका. सत्ता पर कब्जा होने के साथ ऐसी बिसात बिछाई कि विरोधियों का एक एक कर खात्मा कर दिया. कम्यूनिस्टों को देश का दुश्मन करार दे दिया, पर उसकी विश्व विजय की महत्वाकांक्षा उसके लिए भारी पड़ी. पड़ोसी देशों से दुश्मनी और युद्ध के चलते उसके मनसूबे नाकामयाब हो गए. उसे छुपकर अपने बंकर में ही अपनी पत्नी सहित आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ा. ये उसके तानाशाही विचारों की अंतिम परिणीति थी. 

परिवर्तन प्रकृति का नियम और समय की मांग होती है. किसी ना किसी रूप में क्रान्ति होती रहती है. उसके शुभाशुभ परिणाम तो बहुत बाद में निकलते हैं. जर्मनी हार गया उसे दो भागों में बंटना पड़ा. उसकी जो दुर्दशा हुई उसके घाव बहुत दिनों तक हरे रहे,

हम भारत में रहने वाले लोग पंचायती हैं. हमारे संविधान में सत्ता हस्तांतरण की प्रजातंत्रीय प्रक्रिया मतपेटियों के मार्फ़त होती है. अभी ये जरूर है कि चुनावों में धनबल, बाहुबल, और जाति+धर्म-बल का खुला खेल होता रहा है, अशिक्षा व गरीबी का बड़ा रोल चुनावों में रहता आया है.

सन २०१४ के लोकसभा चुनावों का परिणाम कतई अप्रत्याशित नहीं था क्योंकि पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह जी की सरकार अपने ढीले रवैये व भ्रष्टाचार+घोटालों के चलते बहुत बदनाम हो चली थी. गत वर्षों से इसी सम्बन्ध में अन्ना हजारे व रामदेव जी के आन्दोलन लोगों को उद्वेलित करते आ रहे थे अत: आम लोग सत्ता में परिवर्तन चाहते थे. ऐसे में नरेंद्र मोदी जी जैसे साधन सम्पन्न, अनुभवी सुवक्ता की अगुवाई में धार्मिक जोश के तड़के के साथ लहर सी फ़ैलती गयी. जिस तरह जर्मनी में १९३० के दशक में हालात बने थे, ठीक उसी तरह मोदी जी हिन्दू ह्रदयसम्राट का परोक्ष तमगा लगा कर, गरीब चाय बेचने वाले बालक का चेहरा बता कर सुनियोजित ढंग से सत्ता पर काबिज हो गए. उनके पीछे कट्टर हिन्दू विचारधारा वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पूरा हाथ भी था और है. संघ का कि पूरे भारत में ही नहीं बल्कि अप्रवासी भारतीयों में भी सुनियोजित नेटवर्क काम करता है.

कल क्या होगा, ये तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन आज मोदी और बीजेपी हिटलर की नाज़ी पार्टी की याद दिलाते हैं. उन्होंने पार्टी और सरकार में सारे सिपहसालार अपने ढंग से प्रतिष्ठित कर लिए हैं. इस निरंकुशता को पार्टी के अन्दर के अतृप्त तत्व कितने दिन बर्दाश्त करेंगे, ये भी भविष्य के गर्भ में है. इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने जिस तरह से चापलूसी और खुट्टेबर्दारी की हदें पार कर रखी हैं, शुभ लक्षण नहीं है क्योंकि कोरे आश्वासनों से लम्बे समय तक लोगों का असंतोष दबाया नहीं जा सकेगा.

विशेष सावधानी पड़ोसी देश चीन व पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध निभाने में रखनी होगी. कहा जाता है कि चौथा विश्वयुद्ध लाठी-भाटों से लड़ा जाएगा, अब इसका दोष हमारे सनातन राष्ट्र पर नहीं आना चाहिए. मुझे बार बार पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी का एक वाक्य हॉन्ट करता है, जिसमें उन्होंने मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने को डिजास्टरस यानि विनाशकारी कहा था. अब चूंकि मोदी जी लोकप्रिय प्रधानमंत्री बन चुके हैं, वे काग्रेस पार्टी के लिए जरूर डिजास्टरस साबित हो चुके हैं, पर राष्ट्र तथा यहाँ बसने वाले निर्दोष नागरिकों के लिए किसी प्रकार से भी डिजास्टरस ना हो, ऐसी कामना है.
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सोमवार, 3 नवंबर 2014

टापू

महावीर नगर (प्रथम), कोटा, राजस्थान में बजरंगबली का मंदिर तथा बजरंग व्यायामशाला एक अच्छे बड़े दूबाच्छादित पार्क में स्थित हैं. इसमें बड़े छायादार पेड़ हैं. पार्क के किनारे पर जगह जगह बैठने के लिए बैंच लगाई गयी हैं. बच्चों के लिए झूले डाले गए हैं. चौहद्दी में अन्दर की तरफ घूमने के लिए चौकोर पथ बनाया गया है, जिसमें पक्की टाईल्स बिछाई गयी हैं. इस पार्क की नगर निगम कोटा द्वारा देखरेख की जाती है. मंदिर में भजन कीर्तन होते रहते हैं, घन्टियां बजती हैं, जीवन की आपाधापी के बीच ये सुन्दर मनभावन परिदृश्य बहुत सुकून देता है. मैं पिछले दस-बारह सालों से जाड़ों में जब भी कोटा अपने बच्चों के पास आता रहा हूँ तो आधा-एक घंटा इस पार्क में घूमने व विश्राम करने में बिताया करता हूँ.

इस बार घूमते हुए मैंने देखा कि एक अफ्रीकी नस्ल का सा व्यक्ति रोज नियमित रूप से आकर एक बैंच पर निर्विकार बैठा रहता है और घूमने वाले लोगों को बड़े गौर से घूरता रहता है. पिछले सप्ताह वह नित्य मुझसे हर राउंड पर आँखें चार करता रहा. कल वह गैरहाजिर था. थकान मिटाने के लिए मैं उसकी वाली बैंच पर पत्नी सहित बैठ गया, और खेलते हुए बच्चों का तमाशा देखने लगा. थोड़ी देर बाद वह अजनबी भी आकर उसी बैंच पर बैठने के लिए हमारे सामने खड़ा हो गया. मैंने खिसक कर उसके लिए जगह बनाई और अपने स्वभाव के अनुसार उससे परिचय प्राप्त करने की पहल गुड ईवनिंग कह कर की. इसके जवाब में उसने भी गुड ईवनिंग कहा और मुस्कुराते हुए मेरी तरफ मुंह किया तो मैंने देखा उसने राख का दक्षिण भारतीय स्टाईल का लिंगायाती टीका माथे पर लगाया हुआ था. मुझे अपनी गलती का तुरंत अहसास हो गया कि ये सज्जन अफ्रीकी कदापि नहीं हैं. मैंने मेलजोल बढ़ाने के लिए उससे हिन्दी में बातचीत शुरू की तो पाया उसकी हिन्दी में हल्का दक्षिण भारतीय लहजा जरूर था, पर वह साफ़ साफ़ हिन्दी बोल रहा था. मैंने खोद खोद कर उससे उसके बारे में पूछ डाला और वह एक अच्छे अनुशासित बच्चे की अपनी राम कहानी सुनाता रहा. उसने जो भी कहा मैं अपने शब्दों में लिख रहा हूँ.   

मेरा नाम टापूमुत्थूकृष्णन है. आप मुझे सिर्फ टापू कह सकते हैं. मैं तमिलनाडु का रहने वाला हूँ. यहाँ राजस्थान विद्युत निगम में मैं सुपरवाईजर था. अब रिटायर हो चुका हूँ. मैंने यहाँ महावीर नगर प्रथम में बीस साल पहले एक जमीन का प्लॉट खरीदा और मकान बना लिया था. मैं विद्युत निगम में काम करने के लिए अपने गाँव के आसपास से 25 और आदमियों को भी साथ लेकर आया था, लेकिन वे सब धीरे धीरे सबके सब यहाँ से चले गए हैं. कोटा में मेरे अलावा तमिल लोग बहुत से होंगे लेकिन मेरा किसी से संपर्क नहीं है. मैं किसी तमिल सोसाइटी या संगठन से भी जुड़ा हुआ नहीं हूँ. यहाँ मेरे परिवार में हम तीन लोग हैं, मैं, मेरी पत्नी और हमारा एक बेटा. हमारा बेटा एक फैक्ट्री में इंजीनियर है. मैं साल-दो साल में तमिलनाडु अपने सगे लोगों से मिलाने जाया करता हूँ. रास्ता बड़ा लंबा है, पूरे ३० घंटे लगते हैं. इस बार मैं काफी दिनों तक साउथ में रहा. बेटे के लिए बहू की तलाश करता रहा. उसकी उम्र ३५ से ऊपर हो चुकी है. मैं उसकी शादी नहीं करा सका क्योंकि अपनी जाति में कहीं रिश्ता बन ही नहीं पाया. जहां भी बात होती है, बाद में बिगड़ जाती है क्योंकि कोई भी अपनी लड़की को इतनी दूर नहीं भेजना चाहता. मैं बहुत दु:खी हूँ. आज मैं सोचता हूँ कि मैंने इतनी दूर आकर नौकरी की और यहीं घर बना लिया, ये बड़ी गलती थी. मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए था. कहते हुए उसकी आँखें डबाडब भर आई.

मैंने उसे सांत्वना देते हुए बात बदलने की कोशिश की. मैंने उसको बताया कि मैं उसे नाईजीरियन समझ रहा था. मुझे कन्नड़ भाषा के लगभग एक सौ शब्द आते हैं (जो कि मैंने पिछले सत्तर के दशक में अपने कर्नाटक प्रवास में सीखे थे) टापू को भी मामूली कन्नड़ समझ में आती है. वह बात करते हुए मेरे और निकट खिसक आया. उसने बताया कि उसकी रसोई में दाल, रोटी. सब्जी ही बनती है, इडली, डोसा, साम्भर आदि साउथ-इन्डियन खाना कभी कभी बन पाता है. "अड़ोस-पड़ोस में पंजाबी या जैन लोगों के घर हैं. हम लोग उनमें मिक्स नहीं हो पाए हैं. उसने बड़ी मासूमियत से बताया कि वह ज्यादा पढ़ा लिखा भी नहीं है और जिन्दगी के इस मुकाम पर बिलकुल अलग थलग पड़ा हुआ है. त्रिची वापस जाना चाहता है, जहाँ गोदावरी नदी के किनारे उसका गाँव है, लेकिन बेटा वहां जाना पसंद नहीं करता है. उसका बचपन राजस्थान में बीता और यहीं पढ़ाई-लिखाई हुई तथा यहीं नौकरी भी लग गयी. उसको यहीं अच्छा लगता है. मैंने टापू को सलाह दी कि बेटे की शादी यहीं किसी उत्तर भारतीय लड़की से करा दे, आजकल अंतरजातीय विवाह बहुतायत में हो रहे हैं. समय बदल गया है. इसके अनुसार चलने की कोशिश करो. अखबार में मैट्रीमोनियल द्वारा बहुत रिश्ते आ जायेंगे. तुम्हारे घर में किलकारियां और खुशियाँ अपनेआप आ जायेंगी. वह बोला, मेरा बेटा भी मेरी तरह पक्के रंग का है, इसलिए यहाँ की लड़किया उसे पसंद नहीं करेंगी. मैंने उसे बताया कि दुनिया की एक तिहाई आबादी पक्के रंग की है. तुम इस काले-गोरे वाली मानसिकता से बाहर निकलो. ये रंगरूप तो भगवान ने दिया है. इसके बारे में ज्यादा मत सोचा करो. तुम लम्बी छुट्टी दिलवाकर बेटे को तमिलनाडु ले जाओ कोई ना कोई रिश्ता सजातीय भी मिल जाएगा. मेरी बातों से उसे जरूर सांत्वना मिली होगी. वह बोला, मैं कल अपने बेटे को भी आपसे मिलाने के लिए लाऊंगा। आप उसे समझा देना.

ये नौकरीपेशा लोगों की दूर निर्वासन की पीड़ा सिर्फ इस अकेले की नहीं होगी. ऐसे बहुत से परिवार होंगे, जो ऐसी ही त्रासदी से जूझ रहे होंगे. यहाँ टापू अपने नाम को पूर्णतया सार्थक कर रहा है.
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