शुक्रवार, 28 मार्च 2014

कुँवे में भाँग

डॉक्टरी व्यवसाय को परमार्थ का कार्य माना जाता रहा है, पर अब इसका बुरी तरह  बाजारीकरण हो गया है. इसमें बहुत विद्रूपता आ गयी है.

हमारे शहर हल्द्वानी में एक मेडीकल कॉलेज है, बड़ा राजकीय बेस अस्पताल है, सब सुविधाओं वाला जनाना अस्पताल है, आयुर्वैदिक व होम्योपैथी के सरकारी अस्पताल हैं, दर्जनों डाईग्नोस्टिक सेंटर्स हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में प्राइवेट अस्पतालों की बाढ़ सी आ गयी है, जो बड़ी भारी बिल्डिंगों में बड़े तामझाम वाले हैं. स्थानीय अखबारों में पूरे पेज पर अपना ऐड देकर विज्ञापित रहते हैं. कहने को इनमें सभी आधुनिक चिकित्सा सुविधाएँ हैं, पर ईलाज के नाम पर खुली लूट चल रही है. जिस पर किसी प्रशासनिक शक्ति का नियंत्रण नहीं है.

तगड़ी कंसल्टेशन फीस, जरूरी/ गैर-जरूरी पैथोलॉजिकल जांचों, आपरेशन चार्जेज, दवाओं की ऊँची दरें, भर्ती मरीजों के थ्री-स्टार होटलों के स्तर बेड चार्जेज; सब मिलाकर मरीजों को आर्थिक रूप से निचोड़ लिया जाता है.

कुछ बड़े नामी प्राइवेट अस्पतालों ने सरकारी पैनल पर होने के प्रमाण पत्र ले रखे हैं इनमें यदि कोई बीमाशुदा मरीज (फ़ौजी /  ई.एस.आई. कवर्ड/ मेडीक्लेम-बीमित ) आ पड़े तो उसका डिस्चार्ज बिल अविश्वसनीय रूप से बड़ा बनाया जाता है, जिसे सरकार या बीमा कंपनियाँ चुकाने को मजबूर होती हैं. ऐसा भी नहीं है कि इस लूट पर बीमा या सरकारी अधिकारियों की नजर नहीं पड़ती होगी, पर लूट के हिस्सेदार कभी नहीं बोल सकते हैं.

कई उदाहरण हैं जहाँ बीमित मरीज को मामूली सी बीमारी में भी आई.सी.यू. में लम्बे समय तक रोक कर रखा जाता है ताकि बड़ा बिल बन सके. हाल में एक डाईबिटीज के मरीज का रात में शुगर लेवल कम होने से उसे कम्पन व अर्ध-चेतना हो गयी. घरवाले उसे तुरन्त एक नामी प्राइवेट अस्पताल ले गए.  ग्लूकोज का ड्रिप लगते ही मरीज आधे धंटे में नार्मल हो गया, लेकिन जब अस्पताल वालों को बताया गया कि बीमार व्यक्ति का बेटा रुद्रपुर के कारखाने में काम करता है और ई.एस.आई. कवर्ड है तो उसे चार दिनों तक अनावश्यक रूप से आई.सी.यू में रखा गया और दवाओं व बेड चार्जेज का कुल बिल ५६,००० रूपये बना दिया.  इस पर एकाएक विश्वास नहीं होता है, पर ये सब चल रहा है.

गली मुहल्लों में प्रेक्टिस करने वाले फिजीशियन/ डॉक्टर मजबूर-मजलूम लोगों का कितना शोषण कर रहे है, कोई नहीं जानता है. ऊपर से असली-नकली दवाओं का भेद करना मुश्किल हो गया है. इस तरह के गोरखधंधे-भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं रही है. आखिर में इस लाइलाज बीमारी को देखकर ऐसा लगने लगा है मानो पूरे कुँवें में भाँग पड़ी है.
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बुधवार, 26 मार्च 2014

ये सत्य है

तब मैं लगभग पचास वर्ष का रहा होऊँगा. शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ. ये अब से लगभग २५ वर्ष पहले की बात है. एक गुजराती बुजुर्ग श्री बी. एस. झाला पोरबंदर से लाखेरी, राजस्थान आये थे, जहाँ उनका बेटा ए.सी.सी. सीमेंट कारखाने में स्थानान्तरित होकर आया था. बुजुर्ग झाला मोटे काले चश्मे में बड़े आकर्षक लगते थे. वे खुशमिजाज भी बहुत थे. अपने पोते चि. लहर के साथ घूमते हुए मुझे मिले तो तपाक से बोले, मैंने अपने बुढ़ापे के सब आपरेशन करवा लिए हैं. कैफियत में उन्होंने बताया कि दोनों आँखों के मोतियाबिंद व प्रोस्टेट ग्रन्थि का सफल आपरेशन करवाकर वे निरोग महसूस कर रहे हैं. मुझे तब बुढ़ापे के आपरेशन' पर ज्यादा सोचने की जुर्रत नहीं हुई थी और ना ही प्रोस्टेट ग्रन्थि के बढ़ने से होने वाली परेशानियों का प्रत्यक्ष रूप से कोई ज्ञान था. आज जब मैं उनकी उम्र का हो गया हूँ तो उनकी कही बातें रह रह कर याद आ रही हैं क्योंकि उम्र की इस दहलीज पर उसी तरह के शारिरिक लक्षण मुझे भी परेशान करने लगे हैं.

एक अंग्रेजी कहावत है, “A woman is old when she looks old and a man is old when he feels old.” तो कितनी भी सावधानियां बरती जाएँ जीवन में शारिरिक बसन्त दुबारा नहीं आता है. इन्द्रियाँ शिथिल हो ही जाती हैं.

सर्विस काल के दौरान मैं अपने जिमखाना-क्लब में अकसर हाउजी यानि तम्बोला का खेल खिलाया करता था, जिसमें 87 आने पर बड़े मजे से बोला करता था, “Eighty-seven, go to heaven.”  अब मुझे अपना 87 का लैंडमार्क थोड़ी ही दूरी पर नजर भी आने लगा है, पर मुझे संतुष्टि है कि मैंने अपने सारे शौक पूरे करते हुए अपनी सभी पारिवारिक व सामाजिक जिम्मेदारियां पूरी कर ली हैं. समय इतनी तेजी से निकलता चला गया कि पता ही नहीं चला कि मैं जीवन के चौथे प्रहर में आ गया हूँ. किसी दार्शनिक कवि ने एक वृद्ध माता के मनोभावों को सटीकता से व्यक्त किया है:
वही आम-अमराईयाँ, वही गाँव, वही छाँव! 
'बहूबहू' सब कहत रहे, बुढ़िया पड़ गयो नाँव !!
और, ये जिंदगी के मेले कभी खतम ना होंगे, अफसोस हम ना होंगे,' यही सत्य है.
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शनिवार, 22 मार्च 2014

चुहुल - ६३

(१)
ये अंजुमन वाले आये दिन कोई ना कोई नया मुद्दा लेकर चन्दा वसूलने का बहाना ढूँढते रहते हैं. इस बार जब मौलवी जी कंजूस कल्लू खां के दर पर रसीद बुक लेकर आये और बोले, मियाँ, कब्रिस्तान की चाहरदीवारी करना जरूरी है. हर घर से हजार रूपये ले रहा हूँ.
अब दस-पाँच रुपयों की बात होती तो कल्लू मन मसोस कर दे भी देता. हजार रुपयों की माँग तो नकारनी ही पड़ेगी, सो बड़ी मासूमियत से बोला, मौलवी साहब, चाहरदीवारी की कहाँ जरूरत आ रही है? ना अन्दर से कोई भाग सकता है और ना बाहर वाला कोई अन्दर जाना चाहता है.

(२)
दोस्त बोला, यार, तुम्हारा कुता तो शेर जैसा दीखता है. क्या खिलाया करते हो इसे?
रामू बोला, ये शेर ही है, पर प्यार के चक्कर में पड़ गया था, सो शक्ल कुत्ते की बना डाली है.

 (३)
पति तुम्हारे पिता की जले पर नमक छिड़कने की आदत गयी नहीं.
पत्नी क्यों अब क्या कह दिया?
पति पूछ रहे थे कि मेरी बेटी के साथ तुम सुखी तो हो ना?

(४)
एक छोटा बच्चा जिज्ञासावश अपने बाप से पूछता है, पापा, मुझे बुद्धि कहाँ से मिली है?"
पापा  "जरूर तुम्हारी मम्मी से मिली है, क्योंकि मेरी तो मेरे ही पास है.

(५)
अपनी अति झगड़ालू पत्नी की मृत्यु के उपरान्त उसका पति अन्तिम संस्कार करके घर लौट रहा था. अचानक मौसम बहुत खराब हो गया. आसमान में बिजली कड़कने लगी, गड़गड़ाहट शुरू हो गयी, तो वह अपने आप  से बोला, ऊपर जाकर भी शुरू हो गयी है.
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शनिवार, 8 मार्च 2014

सड़क जाम

ये पुरानी कहावत है कि सांप पकड़ने वाले को सांप ही खाता है. जीवनसिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ.

जीवनसिंह के दादा अपने गाँव के कई साथियों के साथ लगभग अस्सी साल पहले पिथौरागढ़ के कम्स्यार इलाके से भाबर आये थे. ये लोग लकड़ी चिरानी का काम करते थे फिर जंगल साफ़ होने पर इन्होने वहीं अपनी बस्ती बना ली और खेती करने लगे. बस्ती बरेली को जाने वाली मुख्य सड़क (हाईवे) के अगल-बगल है. समयांतर में सरकार ने ये जमीनें उन्ही काश्तकारों के नाम कर दी थी. गाँवों के अजीब अजीब नामकरण भी हो गए, जैसे हैडा गज्जर, हाथी खाल, पदमपुर देवलिया, बच्ची धरमा, गौजाझाली आदि आदि.

समय बदला, पंचायती राज आया तो जीवनसिंह अपने गाँव के सभापति बना दिये गए. इन तीस चालीस वर्षों में जब हर व्यवस्था का राजनीतिकरण हो गया तो सभापति  (ग्राम प्रधान) के पद का महत्व बढ़ गया. प्रधान बनना बड़ी बात हो गयी. इसमें कमाई के भी अनेक स्रोत निकल आये. हालाँकि इससे गाँवों में आपसी स्पर्धा और दुश्मनियाँ भी पैदा हो गयी.

जीवनसिंह पढ़े लिखे नहीं थे, पर इस संचारयुग के संसाधनों ने अनायास ही उनको जागरूक बना दिया. उन्होंने अपने इकलौते बेटे कमलसिंह को हाईस्कूल तक पढ़ाया तथा अपने अनुभवों के राजनैतिक गुर सिखाते रहे. नजदीक के शहर हल्द्वानी की खबरें जानते सुनते हुए कमल जान गया कि सुर्ख़ियों में आने के लिए सड़क जाम करने का टोटका बड़ा कारगर है. जीवनसिंह ने भी इसे नेतागिरी का शॉर्टकट समझते हुए बेटे पर कोई लगाम नहीं लगाई. कमल आये दिन हाईवे पर छोटी छोटी समस्याओं के समाधान के लिए वाहनों को रोक कर जाम की स्थिति पैदा करने लगा. कुकिंग गैस की सप्लाई में विलम्ब हो, नलकूप पर बिजली का पम्प फुंकने का मसला हो, गाँव के किसी व्यक्ति के साथ सड़क हादसा हो जाये या राशन-चीनी की दूकान में वितरण व्यवस्था में देरी/अव्यवस्था हो तो कमल सक्रिय होकर सड़क जाम करने में देर नहीं करता था. आलम ये हो गया कि जहाँ कहीं खुराफात की बात हो कमल का उसमें फोटो निकल कर स्थानीय अखबारों में आने लगा. प्रशासन उसकी खुराफातों से बहुत परेशान रहा क्योंकि हाईवे जाम करने की बीमारी से आने जाने वाले लोगों को भारी परेशानी झेलनी पड़ रही थी. इस बात पर बहुत आलोचनाएं छप रही थी, पर प्रशासनिक अधिकारियों की डाट डपट ज्यादा काम नहीं कर रही थी.

उधर जीवनसिंह बेटे की इस प्रगति पर खुश रहते थे और लोगों को कहते नहीं थकते थे कि मेरा बेटा इस इलाके का विधायक बनने लायक है.

कमल को राजनीति में फिट करने के लिए उन्होंने उसे उत्तराखण्ड राज्य बनते ही उसे भाजपा में शामिल होने की सलाह दी और फिर जब काँग्रेस की सरकार बनी तो पाला बदलने को भी कह दिया. जीवनसिंह का मानना था कि सत्तासुख भोगने के लिए सत्तानशीं पार्टी के साथ जुड़ा रहना फायदेमंद होता है.

प्रकृति अपना सामंजस्य बनाए रखती है. हर दिन एक सा भी नहीं रहता है. एक दिन अचानक जीवनसिंह को ब्रेन स्ट्रोक हुआ और वे बेहोश हो गए. उनको हल्द्वानी के एक नामी अस्पताल में शिफ्ट किया गया, जहाँ आईसीयू में रखा गया. तीन दिनों तक हाथ-पावों में हरकत न होने पर कमल नेता अपने स्वभाव के अनुसार डॉक्टरों को हड़काने लगा तो अपनी खाल बचाने के लिए उन्होंने आनन-फानन में जीवनसिंह को बरेली के अस्पताल को रेफर कर दिया. एम्बुलेंस में चार साथियों के साथ कमल अपने बाप को ले चिंतातुर होकर चल पड़ा.

किच्छा-पुलभट्टा और बहेड़ी के बीच कोई वाहन दुर्घटना होने के कारण स्थानीय लोगों ने हुल्लड़ किया हुआ था और लम्बा जाम लगाया हुआ था कई घंटों तक फंसे रहने के दौरान कमल ने जाम खुलवाने के लिए हंगामा करने वालों व पुलिस वालों के बड़े निहोरे किये. एम्बुलेंस ऐसी जगह फंस रही थी, जहाँ से आगे या पीछे कहीं नहीं निकला जा सकता था. इस बीच दुर्भाग्य ये रहा कि एम्बुलेंस में ऑक्सीजन सिलैंडर में गैस चुक गयी. नतीजन जीवनसिंह ने वहीं दम तोड़ दिया.

कमल अपने मृत पिता की लाश पर खूब रोया. जाम लगाने वालों को गालियाँ देता रहा. आज उसकी समझ में आ गया कि सड़क जाम करना कितना बड़ा गैरजिम्मेदाराना कृत्य है.
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शनिवार, 1 मार्च 2014

एक्स वाई जेड

पण्डित धरणीधर शास्त्री नैनीताल जिले के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक हैं. शास्त्री जी के एक साथ बहुत से विशेषण हैं. वे धैर्यवान हैं, देव-निष्ठावान, सुजान व भाग्यवान भी हैं. उनकी सुलक्षिणी अर्धांगिनी पद्मिनी देवी उनके बहुत अनुकूल है. हमेशा उनके हर कथन को आप्तोपदेश मानती रही है. ऐसा समर्पण-श्रद्धाभाव अमूमन आजकल की प्रबुद्ध नारियों में बहुत ढूंढने से ही मिल सकता है.

पहले पण्डित जी की चाहना जरूर थी कि सन्तानों में एक पुत्र भी हो, पर उनके हाथ की लकीरों में सिर्फ बेटियाँ ही लिखी थी. एक के बाद एक पाँच बेटियाँ पैदा होती रही. परमेश्वर ने रूप, गुण के अलावा सभी को विलक्षण बुद्धि भी प्रदान की. माता-पिता से सभी संस्कार पाते हुए ये बेटियाँ स्कूली शिक्षा पाकर परास्नातक तक की पढ़ाई कर रही हैं. शास्त्री जी पत्नी सहित अपनी बेटियों से पूर्ण संतुष्ट हैं. उनकी समझ में आ गया है कि इस जमाने में बेटियाँ बेटों से ज्यादा जिम्मेदार हो गयी हैं.

पितृधर्म का निर्वाह करते हुए सबसे बड़ी बेटी सरस्वती का विवाह दो वर्ष पूर्व जयपुर राजस्थान निवासी एक सजातीय युवक दिनेश वैष्णव से विधिविधान से करवा दिया था. दिनेश सिविल इंजीनियर है. बेटी नम्बर दो भैरवी ने मनोविज्ञान में एम.ए., फिर एम.फिल. कर लिया था. उसने इस साल नेट की परिक्षा भी पास कर ली है. बहन-बहनोई के बुलावे पर वह पिता के साथ जयपुर गयी, जहाँ उसे किसी कॉलेज में प्राध्यापक के पद के लिए मैनेजमेंट के साथ साक्षात्कार करना था. कुछ अपरिहार्य कारणों से साक्षात्कार की तिथि एक महीने टाल दी गयी. दोनों पिता-पुत्री को इतने दिनों तक वहाँ ठहरना भारी लगा और दोबारा जयपुर आने का कार्यक्रम बनाकर रानीखेत एक्सप्रेस में रिजर्वेशन करवा कर लौट पड़े.

ट्रेन से हल्द्वानी उतरना था. उतरते समय भैरवी ने देखा कि उसकी अपनी अटैची जिसमें कपड़ों के साथ सभी ओरीजिनल डिग्रियां, सर्टिफिकेट्स व जरूरी कागजात थे, गायब थी. अटैची में उसने अपनी सोने की दो चूड़ियाँ भी रखी थी. बदहवास होकर उसने पिता को अटैची चोरी होने की बात बताई तो शास्त्री जी भी परेशान हो गए. ये अनहोनी थी, जिसकी उन्होंने कोई कल्पना भी नहीं की थी. बाकी मुसाफिर अपनी अपनी राह चल  दिये. रेलगाड़ी भी अगले स्टेशन काठगोदाम को चल पड़ी. स्टेशन मास्टर और पुलिस को रिपोर्ट लिखाई, पर चोर तो पहुँच से बहुत दूर था, ना जाने पिछले किस स्टेशन पर ये वारदात करके उतर गया होगा. भारतीय रेलगाड़ियों में ऐसी घटनाएं आजकल आम हो गयी हैं. ज़रा सी नजर से बाहर होते ही सामान गायब होने का खतरा बना रहता है. चलती गाड़ियों में  खिडकियों के पास बैठे मुसाफिर विशेषकर महिलाओं का सामान-पर्स या जेवर झपट्टा मारकर लूट लिया जाता है. चोर-झपट्टामार ये नहीं देखता है कि मुसाफिर को उसकी हरकत से कितना कष्ट होता है. कई बार तो कान या गले का आभूषण खिंचने पर महिलाओं को लहूलुहान होते देखा गया है.

सभी रेलवे स्टेशनों पर ये जरूर लिखा रहता है कि चोरों-जेबकतरों से सावधान, यात्री अपने सामान की रक्षा खुद करें. रेलवे का सुरक्षा तन्त्र बहुत लापरवाह और भ्रष्ट लगता है. चोरी होने की स्थिति में यात्री बेचारा होकर रह जाता है. जब कोई विदेशी सैलानी बेफिक्री से यहाँ के रेलों में सफर करता है और उसका पासपोर्ट-वीजा-नकदी सब चोरी चला जाता है तो उसको कैसा लगता होगा? ये हमारी राष्ट्रीय शर्मिंदगी की बात है.

बेटी को ज्यादा परेशान देखकर शास्त्री जी ने हिम्मत-दिलासा दिलाई और कहा, जो नियति में है, उसे टाला नहीं जा सकता है, सब ठीक हो जाएगा, सर्टिफिकेटस की प्रतियां दुबारा प्राप्त की जा सकती हैं. कपडे व चूड़ियाँ फिर बन जायेंगी, आदि आदि.

घर पहुँच कर उदासी के साथ घटनाक्रम की चर्चा हुई  सभी सदस्य इस त्रासदी से दु:खी हुए शास्त्री जी ने सबको धैर्य बंधाते हुए अंग्रेजी का ये जुमला दोहराया, "That which can not be cured, should be endured."  भैरवी को कपड़े व सोना खोने का इतना दु:ख नहीं था, जितना कि उसकी बहुमूल्य डिग्रियां व सम्बंधित कागजात जाने का था. प्रमाणपत्रों की तो उसे सद्य जरूरत भी थी.

माँ पद्मिनी ने कहा, अगर चोर पढ़ा-लिखा समझदार होगा तो तुम्हारे प्रमाणपत्रों को देखकर अवश्य सोचेगा कि वे सब उसके काम के नहीं हैं, वह उन्हें हमारे पते पर भेज भी सकता है.

हाँ, सचमुच एक सप्ताह बाद एक कुरियर के मार्फ़त भैरवी के समस्त कागजात-प्रमाणपत्र उसके घर के पते पर आ गए. भेजने वाले ने अपना नाम लिखा था, एक्स-वाई-जेड’.  परिवार में सारी खुशियाँ लौट आई. परमेश्वर और चोर दोनों को धन्यवाद दिया गया.
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