सोमवार, 30 सितंबर 2013

चुहुल - ६०


(१)
ताऊ एक बस में सफर कर रहा था. उसके बगल में बैठा दूसरा मुसाफिर बीड़ी फूंक रहा था. अचानक तेज हवा का झोंका आया और एक चिंगारी ताऊ के कुर्ते पर पड़ी और कुर्ते का कुछ हिस्सा जल गया. बुझाने के बाद बीड़ी फूकने वाला थोड़ा शर्मिन्दा भी हुआ, पर उसने देखा कि ताऊ ने इस बात पर झगड़ा नहीं किया. शरीफ आदमी लगा.
उसने ताऊ से दोस्ती के लहजे में पूछ लिया, “ताऊ किस गाँव के रहने वाले हो?”
ताऊ गुर्राते हुए बोला, “क्यों, मेरे गाँव को भी फूंकेगा के?”

(२)
पप्पू एक बहुमंजिली इमारत की लिफ्ट में था. एक लड़की तेज परफ्यूम लगा कर लिफ्ट में आई पप्पू ने लम्बी सांस ली तो वह लड़की मुस्कुराते हुए बोली, “कोबरा परफ्यूम है, ६००० रुपयों वाला.”
अगली मंजिल पर एक और लड़की दूसरे परफ्यूम से सरोबार होकर आ गयी और नैन मटकाते हुए उनके सामने बोली, “ब्रूट परफ्यूम है, ७००० रुपयों वाली.”
अचानक लिफ्ट बीच में ही रुक गयी. थोड़ी देर बाद दोनों लड़कियाँ अपनी अपनी नाक पकड़ कर पप्पू को घूरने लगी तो पप्पू हँसते हुए बोला, “पन्द्रह रुपयों वाली मूली.”

(३)
एक ससुर अपने नालायक दामाद को लताड़ के साथ पीट रहा था.  लोगों ने पूछा, “क्या बात हो गयी, क्यों पीट रहे हो?”
ससुर बोला, “मैंने इसको अस्पताल से SMS किया कि तुम बाप बन गए हो और इसने वह मैसेज अपने तमाम दोस्तों को फारवर्ड कर दिया है.”

(४)
एक माँ अपने ६ साल के बेटे को फोटो खिंचवाने के लिए फोटो स्टूडियो ले गयी.
फोटोग्राफर बच्चे को पोजीशन में बिठा कर पुचकारते हुए बोला, “इधर देखो बेटा, अभी इस कैमरे में से एक कबूतर निकलेगा.”
बच्चा बोला, “फोकस एडजस्ट कर. बेवकूफों की सी बात मत कर. ISO 200 के अन्दर रखना. हाई रिसोल्यूशन में पिक्चर आनी चाहिए. फेसबुक पर अपलोड करनी है.”

(५)
एक संभ्रांत दिखने वाली महिला पर शॉप लिफ्टिंग का मुकदमा चल रहा था. जज ने उससे पूछा, “तुमको अपनी सफाई में कुछ कहना है?” तो वह बोली, “जज साहब सफाई के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती हूँ. मेरे घर की साफ़ सफाई का काम मेरी नौकरानी करती है और जब वह छुट्टी पर रहती है तो साफ़ सफाई मेरे पति करते हैं. बेहतर है, ये सवाल आप उनसे ही पूछिए.”
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शनिवार, 28 सितंबर 2013

शुभम करोति कल्याणम

बहुत से बच्चे बड़े खुशनसीब होते हैं. उनके बचपन में दादा-दादी मौजूद रहते हैं और अपनी गोद में खिलाते हैं. बचपन की वे अनुभूतियाँ उनको जीवन भर प्यार का अहसास कराती रहती हैं. इस कहानी का नायक नानू अभी बारह साल का है. वह स्कूल जाता है और घर आने के बाद अपने दादा जी के संग चिपट कर बैठा रहता है. दादा जी उसका होम वर्क करवाते हैं, और बीच बीच में अपने साठ वर्षों में अर्जित किये हुए अनुभवों को मजेदार ढंग से किस्से कहानियों के रूप में उसको सुनाते भी जाते हैं.

दो साल पहले दादा जी ने नानू को उसके जन्मदिन पर एक संदूकनुमा अच्छा, बड़ा गुल्लक लाकर दिया था, जो इस बीच रेजगारी व नोटों से लगभग ठस भर चुका है. नानू के मन में बहुत दिनों से एक इच्छा घूम रही है कि गुल्लक का सारा रुपया निकाल कर एक नई साइकिल खरीदी जाये. उसके दोस्तों के पास रेस वाली साइकिलें थी, जिनको देख कर ही उसका मन ललचा रहा था. उसने दादा जी को ये बात बताई तो उन्होंने इसके लिए अपनी स्वीकृति दे दी और कहा कि “अगर रूपये कम पड़ जाएँ तो वे अपने पास से पूरा कर देंगे." ये सुन कर नानू की खुशी का पारावार नहीं रहा. एक जुलाय को उसका जन्म दिन आने वाला था. पापा-मम्मी ने भी इसके लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी थी.

इन दिनों पूरे उत्तर भारत में बहुत ज्यादा बारिश होती रही और उत्तराखण्ड में कई जगहों पर बादल फटने की खबरें आई. तबाहियां होती रही. सबसे ज्यादा त्रासदी तीर्थस्थान केदारनाथ में हुई. दादा जी टीवी पर वहाँ के दृश्य और समाचार देख-सुन कर बहुत विचलित थे. उन्होंने नानू को विस्तार से बताया कि किस तरह श्रद्धालु लोग वहाँ रेत में दब कर मर गए या बह गए तथा अनेकों परिवार उजड़ गए. दादा जी को द्रवित देखकर नानू ने कहा, “हमको भी पीड़ित लोगों की मदद करनी चाहिए.” बहुत भावुक होकर वह अपना गुल्लक लेकर आया और दादा जी से बोला, “आप ये सारा रुपया दान कर दो.”

उसकी त्याग भावना व समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी की बात सुन कर दादा जी का मन भर आया. उनको अपने पोते पर गर्व महसूस हो रहा था.

गुल्लक खोला गया तो उसमें पूरे पाँच हजार रुपये निकले, जिन्हे एक स्थानीय सामाजिक संगठन के माध्यम से मुख्यमन्त्री राहत कोष में जमा  करवा दिया. दादा-पोते दोनों को अपने इस कल्याणकारी कृत्य पर बहुत सन्तोष महसूस हो रहा था.

जन्मदिन पर नानू के घर हर साल की तरह उसके दोस्तों को बुलाया गया. बिलकुल सादे कार्यक्रम में जन्मदिन की शुभकामनाएँ और दस्तूरन गिफ्ट दिये गए. नानू का सरप्राइज गिफ्ट दादा जी की तरफ से था. और वह था उसकी मनचाही ‘साइकिल’.
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गुरुवार, 26 सितंबर 2013

मुक्ति

श्रीमती पूनम त्यागी, उम्र अब ५४ वर्ष, कई महीनों तक आई.सी.यू. में और उसके बाद काफी समय सी.सी.यू. वार्ड में रही. फिर पूरे एक साल तक उन्हें जनरल वार्ड में रखा गया, उसके बाद घर ले जाना पड़ा. अभी भी जब उसकी हालत बिगड़ती है तो घर वाले अस्पताल में भर्ती कर देते हैं. पूनम शत् प्रतिशत विकलांग है. वह लगभग पिछले ९ वर्षों से बिस्तर पर एक ज़िंदा लाश की तरह पड़ी है. शारीरिक स्थिति इतनी खराब है कि ये सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि वह अब तक क्यों ज़िंदा रही है, भगवान उसे उठा क्यों नहीं लेते हैं?

पूनम एक कार दुर्घटना में घायल हो गयी थी. कार उसके पति सुरेन्द्र त्यागी खुद चला रहे थे. सुरेन्द्र त्यागी तब मथुरा में इन्डियन ऑइल की पेट्रोलियम रिफाइनरी में सीनियर इंजीनियर थे. पत्नी को अपने घर गुडगाँव से ले जा कर मथुरा में अपने एक सहकर्मी की शादी के समारोह में शामिल हुए थे. वापसी में ये हादसा हो गया. उनकी कार रात एक बजे एक तेज आते हुए टैंकर से भिड़ गयी. पूनम तब कार की पिछली सीट पर सो रही थी.

दुर्घटना कभी भी बता कर नहीं आती है. पलक झपकते ही सब हो गया. सुरेन्द्र त्यागी की कार का बैलून टक्कर लगते ही निकल आया था इसलिए उनका सर व सीना बच गया, पर उनका पेट फट गया और एक जाँघ टूट गयी थी. पूनम तो केवलमात्र माँस का लोथड़ा बन गयी थी. आधे चेहरे को कांच के टुकड़ों ने फाड़ दिया था, एक आँख बाहर निकल गयी, हाथ-पैर अकल्पनीय ढंग से कट-फट गए थे. पर डाक्टरों ने उसे मरने नहीं दिया. इतनी बड़ी त्रासदी के बाद पूनन होश में आने के बाद कई बार दुहराती रही है कि वह तभी मर जाती तो मुक्ति मिल जाती. वह विक्षिप्त सी होकर प्रलाप करने लगती. लेकिन कई बार जब वह शांत रहती है, तब उसकी वाणी से लगता है कि मानसिक रूप से वह स्वस्थ और सजग है.

परसों रात वह एक फ़िल्मी गीत बड़े सुर में गा रही थी, "जिसे बनाना उसे मिटाना काम तेरा, मिटने वाले फिर क्यों लेंगे नाम तेरा." इस प्रकार वह अपने प्रति किये गए अन्याय के लिए परमेश्वर को नकार रही थी.

पूरी तरह उठने बैठने में लाचार होने के कारण, हर समय एक सेवक उसके लिए चाहिए था, इसलिए एक साँवली सी, छोटे कद की, बंगाली लड़की काजोल को आया के रूप में रख लिया. वह पिछले आठ सालों से पूनम के साथ साया की तरह रही है. काजोल अपनी इस ‘आंटी’ को अच्छी तरह पहचानती है. उसकी तमाम हरकतों पर नजर रखती है. नहलाती, धुलाती, बतियाती, टी.वी. के सामने बैठ कर फ़िल्मी बातों पर भी चर्चा करती थी. इनकी इस रक-टक को देख कर सुरेन्द्र त्यागी मन ही मन कहते थे, "मेड फॉर ईच  अदर" और काजोल के अपनेपन से भरोसेमंद रहते है.

जब पूनम अस्पताल में भर्ती रहती है तो समय निकाल कर सुरेन्द्र त्यागी अपने ड्राईवर सहित आकर घंटों उसके पास बैठे रहते हैं. उनकी उपस्थिति में पूनम ज्यादा ही भावुक होकर प्रलाप करने लगती है. त्यागी दम्पति का बेटा सुनील दुर्घटना के समय गुडगांव घर पर ही था. अगर उसकी स्कूल की परीक्षाएं नहीं चल रही होती तो शायद वह भी दुर्घटना की चपेट में आया होता. अब सुनील २५ साल का हो गया है. वह अपने विकलांग माता-पिता से अतीव प्यार करता है. आखिर उसने उनको तड़प कर जीते हुए देखा है.

काजोल को अपनी ड्यूटी से मुश्किल से छुट्टी मिल पाती है. वह जब कभी अपने परिवार से मिलने जाती है, तो इधर सुनील की बुआ को देखभाल के लिए बुलाना पड़ता है. इस बीच काजोल के भैया-भाभी आकर सुरेन्द्र त्यागी को बता गए हैं कि चंद महीनों में काजोल की शादी करने जा रहे हैं. त्यागी जी ने युद्धस्तर पर नई आया की तलाश शुरू कर दी है, लेकिन ऐसी समर्पित घरेलू लड़की मिलना बहुत मुश्किल है.

कल शाम जब त्यागी जी ने काजोल के चले जाने की बात पूनम को ठीक से समझाई तो वह एकाएक ऊँचे स्वर में रोते हुए अजीब ढंग से प्रलाप करने लगी. सुनकर आसपास वार्ड के बहुत से मरीज तथा उनके सम्बन्धी इकट्ठा हो गए. नर्स आई, डॉक्टर आये, उसे शांत करने के लिए एक कम्पोज का इंजेक्शन दिया गया. उसके बाद वह खर्राटे लेते हुए सो गयी, पर सुबह मालूम हुआ कि हमेशा के लिए सो कर सब को मुक्त कर गयी.
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मंगलवार, 24 सितंबर 2013

Indian Spinal Injuries Centre, Vasant Kunj, New Delhi

"Indian Spinal Injuries Centre, the brainchild of Major HPS Ahluwalia was conceived in 1983 and was finally materialized in the year of 1997. A Major in the army, he found himself spinally injured in the Indo-Pak war of September 1965, after his successful climb to Mt. Everest earlier that year in May. Despite the tragedy that confined him to a wheelchair for the rest of his life, hope and courage did not falter as he was shunted from one hospital to another due to lacking spinal injury services in India. He went to the Stoke Mandeville Hospital in the United Kingdom for rehabilitation determined to rebuild his life. It was an experience that totally transformed him. He realized that though he himself had been lucky to get expert care, millions of Indians were not so fortunate and were forced to lead marginalized lives. It became his life's mission to help others like him and he determined to set up a similar hospital in India.
A dream that began to realize in the 1990s soon found its motivation to serve its countrymen by catering to spinal injured patients making it a one of a kind institution in the country. To guarantee highest standards of excellence and expertise, Major Ahluwalia sought collaboration with leading institutes around the world. Among many, impressed with his vision, the Government of Italy through San Raffaelle Hospital, Milan invested 10 million American dollars in the project proving to be the largest ever Italian collaboration with any country in the health care sector.
The evidence of this thriving endeavor can be seen in the form of Indian Spinal Injuries Centre, a 145 bedded hospital sprawled across 15 acres of lush green lawns and citrus fruit trees in the heart of South Delhi, successfully running for the past 10 years. It is perhaps, the only hospital designed by a patient for a patient, providing everything that a spinal injured patient would need under one roof. It is the only hospital in India that is completely barrier free since the architects had a unique insight into the possible impediments that a spinal injured patient can face, therefore endowing a homely and easier to relate to atmosphere. The Indian Spinal Injuries Centre (ISIC) was a true landmark, not only in India, but in the whole of Asia."

उपरोक्त परिचय संस्थान की वेब साईट पर अंकित है, यह पौधा अब विशाल वृक्ष बन चुका है. रीढ़ की चोटों व अन्य अस्थि रोगों के सर्वोत्तम ईलाज के अलावा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की लगभग सभी विधाओं, जैसे दन्त चिकित्सा से लेकर हृदय रोगों तक सभी का ईलाज यहाँ होता है, फिजियोथैरेपी तथा विकलांगों के लिए रिहैबिलिटेशन की भी विशिष्ठ व्यवस्था है.

चूकि यह एक प्राइवेट संस्थान है, इसका अब व्यावसायिक दृष्टिकोण भी स्पष्ट झलकता है. सब मिलाकर ये उन लोगों के लिए बहुत बड़ी सुविधा है जो रूपये खर्च करने में समर्थ हैं.
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रविवार, 22 सितंबर 2013

फैसला सुरक्षित है

न्यायमूर्ति दत्तात्रेय देवदत्त दहाणूकर को सब लोग ‘थ्री-डी जज साहब’ नाम से ज्यादा जानते हैं. वे कई अदालतों में जज रहे, और अंत में हाईकोर्ट के जज बन कर रिटायर हुए. अब पूना में बुधवारपेठ में अपने पुस्तैनी घर में रहते हैं. न्यायाधीशों के बारे में आम लोग सोचते हैं कि वे एकांतप्रिय व असामाजिक लोगों जैसे होते हैं, लेकिन ये उनके व्यवसाय की मजबूरी है क्योंकि उन्हें सुरक्षा कवच में रहना पड़ता है. वे आम लोगों की तरह ही संवेदनशील होते हैं, पर नित्यप्रति के सीमित सम्पर्कों व कानूनी जिंदगी होने के कारण कभी कभी अपने बेटे- बेटियों के अनुचित व्यवहार पर भी प्रतिक्रया कर सकते हैं.

जज साहब का नवी मुम्बई में भी एक शानदार फ़्लैट है, जहाँ उनका बेटा करुणासागर अपनी पत्नी व बेटे के साथ रहता है. करुणासागर मुम्बई के शेयर बाजार का एक बड़ा कारोबारी है. उसे यथा नाम तथा गुण नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह अपनी सम्पति तथा लेनदेन में कभी भी नरमी नहीं दिखाता. सच तो यह है कि वह छुटपन से ही रुपयों-पैसों के गणित में प्रवीण है. स्वाभाविक रूप से लालची है. उसको मालूम है कि पिता की जायदाद का पूरा वारिस वही है, फिर भी शंकित रहता है कि कहीं पिताश्री उसमें से हिस्सा निकाल कर बहिनों में न बाँट दें क्योंकि पिता का दिल बेटियों के बहुत नजदीक रहा करता है.

जज साहब की दो बेटियाँ भी हैं. दोनों विवाहित हैं. एक कोल्हापुर में और दूसरी सांगली अपने अपने परिवारों के साथ रहती हैं. दोनों ही बेटियाँ वहीं स्थानीय कालेजों में पढ़ाती भी हैं. भगवत कृपा से दोनों ही सद्बुद्धि वाली हैं, संपन्न और सुखी हैं.

करुणासागर की शंकाएं निराधार भी नहीं हैं क्योंकि गाहे बगाहे माता-पिता दोनों ही खूब सारा रुपया व कीमती सामान बहिनों को दिया करते हैं. इस बाबत करुणासागर कई बार ऐतराज व तकरार कर चुका है. उसका ये व्यवहार जज साहब को बहुत नागवार गुजरता रहा है.

जज साहब ने अपने कार्यकाल में सैकड़ों दीवानी मुकद्दमों के फैसलों में पारिवारिक बंटवारों के झगडों में स्त्रियों के पक्ष में बहुत बढ़िया निर्णय दिये थे. बेटियों के प्रति उनके आत्मिक सत्यभावना उनकी डायरी के मुखपृष्ट पर एक कवयित्री मलिक परवीन की लिखी निम्न कविता की पंक्तिया बहुत खूबसूरती से उजागर करती हैं:

मानव सभ्यता की नींव हैं बेटियाँ,
भगवान की अद्भुत रचना हैं बेटियाँ,
खुश नसीबों के घर जन्म लेती हैं बेटियाँ,
जिंदगी के कर्ज से मुक्त कराती हैं बेटियाँ,
एक पिता का गरूर होती हैं बेटियाँ,
एक माँ की प्रतिरूप होती हैं बेटियाँ,
प्यार और ममता का नाम है बेटियाँ,
किसी के भी घर की शान हैं बेटियाँ,
हर रिश्ते का आधार हैं बेटियाँ ,
घर को खुशियों से महकाती हैं बेटियाँ.

जज साहब सोचते हैं कि ‘अगर आम के पेड़ पर बबूल की फलियाँ उग आयें तो क्या किया जाये?’ बेटे के आये दिन की किचकिच से वे बहुत दु:खी रहते हैं. एक दिन जब ज्यादा ही बहसबाजी हो गयी तो उन्होंने बेटे से कह डाला, “तुम नवी मुम्बई वाले घर को खाली कर दो, अपने रहने का अलग इन्तजाम कर लो.” धीरे धीरे आपसी रिश्ते में इतनी खटास आ गयी कि जज साहब को लगने लगा कि करुणासागर जायदाद के लिए उनके खिलाफ किसी हद तक जा सकता है. उसके हथकंडे व धमकी भरे तेवर देखकर उन्होंने हाईकोर्ट में अर्जी दे कर खुद के लिए सुरक्षा की गुहार लगा दी और हाईकोर्ट ने सरकार को आदेश देकर उनको चौबीसों घन्टे गार्ड मुहय्या करा दिया तथा करुणासागर को पाबन्द कर दिया.

अब देखिये, दौलत की कमी ना इधर है और ना उधर, लेकिन सोच में भारी फर्क होने से बेटा, बहू और पोता सभी दुश्मनों की तरह व्यवहार करने लगे हैं. ये मामला जब स्थानीय/राष्ट्रीय अखबारों की सुर्ख़ियों में आया तो दोनों बेटियाँ दौड़ी दौड़ी पूना आ गयी और भाई को भी बुला लिया. माता-पिता दोनों के सामने दोनों बहिनों ने कहा, “क़ानून में पिता की जायदाद में बेटियों के हक का प्रावधान जरूर है, पर हमें इसमें से कुछ नहीं चाहिए, हमें केवल स्नेह और प्यार चाहिए.”

थ्री-डी अभी भी अपने बेटे से बहुत नाराज थे. वे बोले, “अदालत ने आप लोगों के बयान सुन लिए है, इसका फैसला समय आने पर सुना दिया जाएगा.”
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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

चुहुल - ५९

(१)
एक राजनैतिक पार्टी के बड़े नेता इन दिनों बहुत परेशान हैं कि ये कल के छोकरे उनको धक्का देकर आगे बढ़ रहे हैं.
उनको टॉयलेट में घुसे हुए बहुत देर हो गयी तो पत्नी को चिंता होने लगी, दरवाजा खटखटाते हुए उनको आवाज दी, “अजी, फ्रेश होने में देर हो रही है या रूठ कर बैठे हो?” (फेसबुक से)

(२)
गाँधी जी जब बैरिस्टर थे तो उन्होंने एक मुवक्किल की पैरवी करके मदद की थी. बाद में जब गाँधी जी स्वर्ग चले गए तो एक बार फिर वही आदमी किसी केस में फंस गया. उसने अपने सपने में गाँधी जी से मुलाक़ात की और कहा, “आप जब ज़िंदा थे तो आपने मुझे बचाया, अब मुझे कौन बचायेगा?”
गाँधी जी ने भारत के करेन्सी नोटों की तरफ इशारा करते हुए कहा, “इनमें मेरी फोटो लगी है, यही तुझे बचायेंगे.

(३) 
ये बात उन दिनों की है जब कट्टर+आतंकवादी संगठन बब्बर खालसा हमारे पंजाब में बहुत सक्रिय था. उनको ऐसा लगाने लगा था कि अलग से खालिस्तान राज्य बनने ही वाला है.
उन अतिवादियों के कमांडरों की किसी गुप्त स्थान पर एक मीटिंग हो रही थी. एक कमांडर बोला, “बस अब हमारी जीत एक कदम दूर है.” दूसरा बोला, “ये तो ठीक है कि हमारा नया राष्ट्र बन जाएगा, लेकिन हम उसका विकास कैसे करेंगे?” तीसरा बोला, “बड़ा सरल है, हम अमरीका पर हमला कर देंगे. हमारी हार होने पर हम अमरीका के अधीन हो जायेंगे और खालिस्तान भी अमेरिका का एक राज्य हो जाएगा. अपने आप विकास करने लगेगा.”
इतने में एक बूढ़ा कमांडर बोल उठा, “अगर हम अमेरिका से जीत गए तो फिर क्या होगा?”

(४)
छोटा पप्पू दादी के पास सो रहा था. दादी ने प्यार जताते हुए कहा, “घर में हम पाँच लोग हैं, मैं हूँ, तू है, तेरे पापा हैं, तेरी मम्मी है और तेरी बहन है. जब तेरी बहन की शादी करेंगे तो चार रह जायेंगे, तेरी शादी करेंगे तो फिर से पाँच हो जायेंगे.”
पप्पू बोला “दादी, आप मर जाओगी तो हम फिर से चार ही रह जायेंगे.”
दादी गुस्सा करते हुए बोली, “चुपकर, अभी से मेरे मरने की बाट जोह रहा है, सो जा.”

(५)
एक कम आई क्यू के लिए बदनाम परिवार में पिता पुत्र के बीच संवाद हों रहा था.
बेटे ने बाप से पूछा, “अगर रास्ते में आपको एक सौ रुपयों का नोट और एक पाँच सौ रुपयों का नोट पड़े हुए मिलें तो आप कौन सा नोट उठाएंगे?”
बाप ने कहा, “मैं पाँच सौ रुपयों का नोट उठाऊँगा.”
बेटा बोला, “मैं समझ गया कि क्यों लोग हमको ‘लो आई क्यू वाले' क्यों बोलते है.”
बाप ने पूछा, ‘क्या मतलब?”
बेटा ने कहा, “आप दोनों नोट क्यों नहीं उठाएंगे?”
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बुधवार, 18 सितंबर 2013

बैठे ठाले - ८

मेरे एक मित्र मनीष दयाल ने हाल में फेसबुक पर एक विचारणीय स्टेटस अपडेट डाला था कि "शाहरुख खां की पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ ने पहले ही दिन सात करोड़ का कलेक्शन किया, ऐसी जनता के लिए यदि प्याज का भाव आठ सौ रुपय्र प्रति किलो भी हो जाये तो कम है."

वास्तव में महंगाई की जब चर्चा होती है तो आम लोगों से लेकर मीडिया तक बड़े तल्ख़ शब्दों में सरकार को कोसने में कसर नहीं रखते हैं क्योंकि सभी उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें पिछले वर्षों में बेतहाशा बढ़ी हैं. मुझे याद है सन १०६० में जब मैं नया नया नौकरी पर लगा था तो एक रूपये का ढाई सेर दूध और एक रूपये का चार सेर गेहूं आटा था. ये दीगर बात थी कि वेतन एक सौ बीस रूपये ही होता था. और भी बहुत पीछे जाएँ तो बताते हैं कि दिल्ली का लालकिला बादशाह शाहजहां ने कुल साठ लाख में बनवाया था. आज छतीसगढ़ में मोदी जी के लिए डॉ. रमन ने नकली लालकिले का जो छोटा सा बुर्ज बनवाया उसकी लागत दो करोड़ रुपयों से ज्यादा बताई जा रही है.

सन १९६० में हमारी पूरी बस्ती में केवल एक मोटरसाइकिल जीवन बीमा के विकास अधिकारी के पास थी, जो कि उसने दो हजार रुपये विभागीय लोन लेकर खरीदी थी. आज हर गली में महंगी से महंगी गाडियां खरीदने की होड़ लगी हुई है. पार्किंग की जगह नहीं मिल पा रही है. सभी छोटे बड़े शहरों का हाल ये है कि दिन भर जाम की स्थिति बनी रहती है. देश की आर्थिक स्थिति का बंटाधार करने में इस तरह के लक्जरी + अनुत्पादक खर्चों का भी बड़ा योगदान है. जितनी गाडियां उतना ज्यादा पेट्रो-डीजल भी चाहिए.

तब कुल जनसंख्या ४० करोड़ होती थी. अब शायद इतने लोग तो सवा करोड़ के आंकड़ों के साथ अनरजिस्टर्ड होंगे. इस पर देश में वोटों की राजनीति से सब लफड़े झगड़े शुरू है. जहाँ जहाँ आर्थिक सब्सिडी है, वहाँ से सीधे सीधे राष्ट्रीय घाटे में बढ़ोत्तरी हो रही है. अर्थशास्त्री इसे घटाने का उपक्रम करते हैं तो ततैय्या के छत्ते छेड़ने जैसा हो जाता है. आज जो लैपटॉप, साइकिल या मुफ्त अनाज बाँट कर वोटरों को लुभाने का प्रयास किया जा रहा है, ये आगे जाकर कैंसर की बीमारी बनने वाली है. पहाड़ी इलाकों में गाँवों के बीपीएल मे नामित छोटे किसानों ने खेती करने के पारंपरिक काम को कम कर दिया है या छोड़ ही दिया है क्योंकि सरकारी सस्ते गल्ले की सरकारी व्यवस्था उनको आलसी बना रही है. कश्मीर में केन्द्र सरकार ने वर्षों से खाद्यान्न पर ७५% से ज्यादा सब्सिडी देकर वहाँ के लोगों की मानसिकता बिगाड़ चुकी है.जब तक सत्ता की राजनीति है ये लोग खायेंगे भी और गुर्रायेंगे भी.

अब फिर से बड़े चुनाव आने वाले है इसलिए राजनैतिक दलों ने जातीय तथा साम्प्रदायिक झगड़े/दंगे करवा कर अपनी अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी है. बाद में मृतकों के परिजनों को मुआवजे का ऐलान ऐसे होता है, जैसे ये अपने घर से दे रहे हों. भड़काने वाले भाषणों से आग लगा कर हमे ईराक और सीरिया की राह पर ले जाया जा रहा है. यदि अतिवादियों के हाथों में सत्ता आ गई तो हम आज आगे आने वाले समय की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.

अब आप पूछेंगे कि इसका हल क्या है? मेरा उत्तर है कि इसका कोई फौरी हल नहीं है, और ये ऐसे ही चलेगा क्योंकि अपवादों को छोड़कर हम सब स्वार्थी और बेईमान हो चुके हैं. हमारे एक बड़े गांधीवादी ट्रेड युनियन के नेता स्व. रामानुजम कहा करते थे, “जैसे फूल होंगे वैसी ही माला बनेगी.” हाल में संसद ने देखिये दागियों के बारे में सर्वमत से बेशर्मी वाला निर्णय लेकर सर्वोच्च न्यायालय को लात लगाई है. सांसदों या विधायकों के वेतन+सुविधाओं पर बिना किसी बहस या संशोधन के बिल पास हो जाते हैं और कहते हैं कि ये गरीबों के नुमायंदे हैं.

अंत में मैं ये कहने में भी परहेज नहीं करूँगा कि हम भारतीय लोग लोकतंत्र में जीने के काबिल नहीं हैं. धनबल, बाहुबल और जातिबल सब चलेगा, फिर ऐसी ही नयी व्यवस्था होगी, जिसमें आपको भी महसूस होगा कि सिर्फ सड़े बिस्तर पलट दिये गए है.
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रविवार, 15 सितंबर 2013

परोपकार

परोपकार का संधिविग्रह, पर+उपकार, यानि दूसरों पर कृपा करना होता है.

कभी कभी हमको अखबारों या अन्य सचार माध्यमों से मालूम होता है कि आज भी बहुत से अच्छे लोग सँसार में इस महान संकल्प के साथ जी रहे हैं. दुःख में दुखी लोगों की निस्वार्थ भाव से मदद करना, विपन्नता में आर्थिक मदद करना और सामाजिक परिवेश में रक्तदान, नेत्रदान, या अंगदान जैसे परमार्थ के काम कर जाते हैं. जो लोग स्वार्थी होते हैं, वे कभी भी परमार्थ के काम नहीं कर सकते हैं.

हमारी नैतिक शिक्षा में परोपकार सम्बन्धी बहुत से दृष्टान्तों तथा सत्य घटनाओं का जिक्र होता है, जिनको पढ़ कर, समझ कर, जीवन में बहुत खुशियाँ पाई जा सकती हैं.

कहानीकार जोसेफ जैकब ने ‘शेर और ऐन्द्रक्ल्स’ की एक बहुत मार्मिक कहानी लिखी है, जिसमें प्राचीन समय में रोम में ऐन्द्रक्ल्स नाम का एक गुलाम अपने दुष्ट मालिक के चंगुल से भाग कर जंगल की तरफ चला जाता है, जहाँ उसे एक घायल शेर मिलता है. उसके अगले पंजे में काँटा गढ़ा हुआ था और वह बुरी तरह कराह रहा था. ऐन्द्रकल्स ने हिम्मत करके उसके पंजे से काँटा खींच कर निकाल दिया. शेर ने उसे खाया नहीं. इस प्रकार ऐन्द्रक्ल्स ने उस पर उपकार किया. बाद में एक दिन ऐन्द्रक्ल्स सिपाहियों द्वारा फिर पकड़ लिया गया. सम्राट ने उसे भागने के जुर्म में भूखे शेर के बाड़े में डलवा दिया. तमाशबीन लोग देख रहे थे, पर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उस भूखे शेर ने उसको खाने के बजाय दुम हिलाकर प्यार करना शुरू कर दिया. दरअसल ये वही शेर था, जिसके पंजे में से ऐन्द्रक्ल्स ने काँटा निकाला था. सम्राट ने वास्तविकता जानने के बाद दोनों को प्राणदान दिया. शेर को भी जंगल में छोड़ कर आजाद कर दिया. इस कहानी का आदर्श यही है कि परोपकार करना चाहिए और कोई आपके साथ परोपकार करता है तो उसे भूलना नहीं चाहिए.

संस्कृत साहित्य जो हमारी सभी भारतीय भाषाओं की जननी है, उसमें एक सुन्दर प्रेरणादायक श्लोक इस प्रकार लिखा है:

परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:
परोपकाराय दुहन्ति गाव:
परोपकाराय बहन्ति नद्य:
परोपकाराय इदं शरीरम.

इसे कोरी किताबी बात ना समझा जाये और जीवन के जिस मोड़ पर भी मौक़ा मिले परोपकार करके आनंदित होना चाहिए. आज के जमाने में यदि हम किसी पर कोई मेहरबानी नहीं सकते हैं, तो किसी का बुरा भी ना करें, पीड़ा ना पहुचाएँ, ये भी परमार्थ ही समझा जाएगा.
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शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

अक्षम

माया, ममता, करुणा, राग, द्वेष, लिप्सा, सन्तोष आदि स्वाभाविक गुण-अवगुण परमात्मा ने असीमित ढंग से मनुष्यों में बाँट रखे हैं. स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील भी बनाया है.

डॉ. चंद्रा लाल शिक्षा विभाग में डिप्युटी डाइरेक्टर थी और उनके पति अम्बा लाल एक कॉलेज में प्राध्यापक थे. दोनों अब अपने पदों से रिटायर हो चुके हैं. नैनीताल जिले के भीमताल में एक सुन्दर सा घर बना कर रह रहे हैं. लाल दम्पति का एक ही बेटा है मुकुल, जो स्टेट बैंक की नजदीकी शाखा में पी.ओ. है. मुकुल देखने में सुन्दर और आकर्षक है, स्वभाव से हँसमुख और मृदुभाषी है. भाग्य की विडम्बना ये रही कि बचपन में मुकुल एक बड़ी दुर्घटना का शिकार हो गया था, जिसमें उसने अपने अण्डकोश खो दिये थे. डॉक्टरों ने उनको तभी बता दिया था कि मुकुल औलाद पैदा करने में सक्षम नहीं रहेगा. ये बात डा.चंद्रा लाल को रात दिन सालती रही, पर ईश्वर की मर्जी के बारे में क्या कहा जा सकता है. मुकुल की जान बच गयी थी ये क्या कम था? इसी विचार से सन्तोष कर लिया करती है.

मुकुल तीस वर्ष का होने को आया तो माँ-बाप ने गहन विचार विमर्श के बाद तय किया कि बेटे की शादी कर देनी चाहिए, पर मुकुल इसके लिए तैयार नहीं हो रहा था. क्योंकि उसको अपनी कमजोरी मालूम थी. कुछ नजदीकी रिश्तेदारों को छोड़कर मिलने-जुलने वाले, परिचितों, पड़ोसियों को ये सब कहाँ मालूम था? इसलिये, विशेषकर महिलायें, आये दिन डॉ. चंद्रा से राह चलते कहा करती थी, “अब बहू कब ला रही हो?”, “हमारे हाथ ऊपर नीचे कब करवा रही हो?”, या “क्या ढोलक तब बजवाओगी जब बेटे की जवानी निकल जायेगी?” बोलने वालों का क्या है, पर उनके शब्द दिल के अन्दर गहरे तक भेद कर जाया करते थे.

अनेक लोग बेऔलाद भी तो होते ही हैं और ये भी है कि आजकल अच्छे अच्छे फर्टिलिटी सेंटर्स भी हैं.' ये ताने बाने बुनते हुए लाल दम्पति ने बहुत जोर देकर बेटे को शादी के लिए राजी कर लिया और काशीपुर शहर में दूर की रिश्तेदारी में एक कोमल सी, भोली सी, भावना नाम की लड़की ढूंढ ली. भावना के पिता किशनलाल जब घर, वर, व सुसंस्कृत माता-पिता से मिले तो उन्होंने शादी के लिए तुरन्त ‘हाँ’ कर दी.

धूम-धाम व विधि-विधान से विवाहोत्सव हो गया. बधाइयों और उपहारों के ढेर लग गए, लेकिन मुकुल अस्वस्थता का बहाना बनाकर भावना को हनीमून के लिए कहीं नहीं ले गया. कुछ ऐसी बातें होती हैं, जो घर की चाहर दीवारी में घूमती रहती हैं और अन्दर ही अन्दर जहर घोलती रहती हैं. जब से मुकुल ने भावना को अपने शरीर की असलियत बताई तब से वह बुझी बुझी रहने लगी थी. उसे लगा कि ससुराल वालों ने जानबूझ कर उसके साथ धोखा किया है. उसकी सास सब कुछ जानते हुए भी मुख्य विषय पर चुप थी. अभी इतनी जल्दी उसे किसी फर्टीलिटी सेंटर में ले जाने के प्रस्ताव को रखने में संकोच कर रही थी.

इस बार जब भावना अपने मायके गयी तो वहीं से अपनी दीदी के साथ अहमदाबाद चली गयी. लगभग चार महीनों के बाद मुकुल उसे वहां से बुला कर वापस भीमताल लाया. भावना का रूप लावण्य और निखर आया है.

अनुभवी औरतों की पारखी नजरें बहुत जल्दी ताड़ लेती हैं कि नवेली के पैर भारी हैं. धीरे धीरे ये खुशखबरी चर्चा का विषय बन चुकी है. लाल दम्पति मिलने वालों से बधाई भी लेने लग गए हैं, पर मुकुल अपने दिल का हाल बताने में भी खुद को सक्षम महसूस नहीं कर रहा है.
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बुधवार, 11 सितंबर 2013

गुड़ खाया कीजिये

जब तक चीनी बनाने का आविष्कार नहीं हुआ था, लोग गुड़ खाया करते थे. गुड़ का आविष्कार किसने और कब किया, इस बारे में कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है. लेकिन ये बात पक्की है कि प्रकृति ने ‘गन्ना’ या ‘ईख’ की सौगात अनादि काल में ही मनुष्यों को दे दी थी.

मनुष्य अपने ज्ञान के आधार पर प्रकृति का दोहन करता चला आ रहा है. गन्ना के अलावा ताड़, शकरकंद, अंगूर, अनार, केला, आम आदि मीठे फल तथा शहद मिठास के श्रोत हैं, पर जो बात गुड़ में है, वह कहीं नहीं है.

कई सदियों पूर्व गन्ना व्यवसायिक स्तर पर पैदा किया जाने लगा था, लेकिन तब इसके रस को पका कर गुड़ बनाया जाता था. चीनी को लोग नहीं जानते थे.

बहुत पुरानी बात भी नहीं है; मुझे याद है मेरे बचपन में हमारे गाँव में कार्तिक के महीने में जब सब लोग गेहूं बोने से फुर्सत में हो जाते थे तो ‘चरखी-कोल्हू’ जोत लिया जाता था और गाँव के लोग बारी बारी से अपना गन्ना पेराई के लिए लाते थे. रस को बड़ी बड़ी चौड़ी चाशनियों में पकाया जाता था. उसके खौलने पर उसमें अपद्रव (मैला) ऊपर तैरने लगता था, जिसे छलनियों से निकाला जाता था. उसमें दूघ तथा घर का बनाया हुआ साफ़ चूना भी थोड़ी मात्रा में मिलाया जाता था. इससे गुड़ की रंगत बिलकुल साफ़ - सफेद हो जाती थी. जब रस पकते पकते गाढ़ा हो जाता था तो साफ़ पट्टियों में फैला कर ठंडा किया जाता था. उसके पूरी तरह ठंडा होने से पहले पिण्डलियाँ (भेलियाँ) बना ली जाती थी. कभी कभी जब ज्यादा पक जाता था तो ये बिलकुल चॉकलेट सा हो जाता था, जो दाँतों से मुश्किल कटता था. अगर शीरा बना कर रखना हो तो तरल अवस्था में कनस्तरों में डाल लिया जाता था.

ताजा खाने के लिए गुड़ की गुणवत्ता बढ़ाई जाती थी. उसमें सूखे मेवे, मूंगफली दाना, सौंफ, इलायची भी डाल दी जाती थी. ताजे गुड़ की वह प्यारी खुशबू पूरे पेराई के मौसम में पूरे गाँव में महकती थी. मेरे जेहन में अभी भी वह बसी हुई है. मुझे लगता है ये सब अब गुजरे जमाने की हकीकत बन कर रह गई है. आज गुड़, खांडसारी, व बूरा-शक्कर कई छोटे बड़े उद्योगों में मशीनों से बनाया जाता है. गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में बड़े बड़े चीनी के कारखाने लगे हुए हैं, जो अक्टूबर से अप्रेल तक पेराई करके चीनी, राब तथा इथाइल अल्कोहॉल का उत्पादन करते हैं. अंग्रेजी शासन काल में एक बार चीनी उत्पादन के पक्ष में सरकार ने गुड़ बनाने पर पाबंदी भी लगा दी थी, लेकिन इसका भारी विरोध हुआ.

चीनी और दुग्ध उत्पादों से अनेक प्रकार की मिठाइयाँ बनाई जाती हैं, लेकिन चीनी में वो बात कहाँ जो गुड़ में होती है.

गुड़ में ग्लूकोज, फ्रक्टोज, लौह तत्व तथा पोटेशियम-फोस्फोरस जैसे कई महत्वपूर्ण तत्व होते हैं. गुड़ को गुणों की खान कहा गया है. कोयले व सिलिकॉन की धूल से फेफड़ों को जो नुकसान होता है, उसे गुड़ रोकता है. इसीलिये कोयला, सीमेंट, या सिलिकॉन वाले उद्योगों में काम करने वालों को गुड़ खाना अनिवार्य बताया जाता है.

हमारे उत्तर भारत में मुजफ्फरनगर में गुड़ की सबसे बड़ी मंडी है. दक्षिण भारत में ताड़ से भी गुड़ बनता है, पर गुणों की दृष्टि से ईख का गुड़ श्रेष्ठ होता है. आज भी हमारे भारतीय ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में गुड़ का प्रयोग कई प्रकार से होता है, जैसे गुड़-तिल के लड्डू, गुड़ की रेवड़ी, गुड़ के गजक, मालपुए, गुलगुले, पँजीरी आदि. मराठी लोग गुड़ का बूरा डाल कर मीठी पूरण पूड़ी बनाते हैं. गुजराती लोग दाल में गुड़ डाल कर उसे मीठी बनाते हैं. मैंने अपने बचपन में घी+गुड़ के साथ रोटी खाई है. मक्के या मडुवे की रोटी के साथ गुड़ का स्वाद लेना हो या भुने हुए चनों के साथ गुड़ खाना हो तो उसकी अनुभूति शब्दों में बयान नहीं हो पा रही है.

आज हमारे देश में भी आम लोगों का (विशेष कर शहरों में) जीवन शैली पूरी तरह बदल गयी है. नतीजन करोड़ों लोग मधुमेह के शिकार हैं या होते जा रहे हैं. उन सबको गुड़ अथवा शर्करायुक्त पदार्थों से परहेज करना चाहिए. उनके लिए कम कैलोरी वाले आर्टीफीशियल स्वीटनर बाजार में उपलब्द्ध हैं, जिनसे वे अपनी चाय या भोजन में मिठास ला सकते हैं. 

बहरहाल स्वस्थ लोग तो गुड़ का आनंद ले ही सकते हैं.  
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रविवार, 8 सितंबर 2013

सुहाना सफर

अभी हाल में हल्द्वानी से दिल्ली की रेल-यात्रा (शताब्दी एक्सप्रेस) में मेरी बगल वाली सीट में एक १६-१७ वर्षीय जापानी लड़का भोला सा, मासूम सा, चिकना सा, आकर बैठा. उसकी शक्ल सूरत और पीताभ रंग देखकर मेरी श्रीमती ने कहा, “कोरियाई लगता है.” मैंने पूछने में देर नहीं की, “Hello, from which country are you?” वह बहुत देर तक सोचने के बाद बोला, “निप्पॉन”, यानि जापान. उसको देख कर मुझे अपने पौत्रों की याद आ गयी और उससे बातें करने का मन हो रहा था.

मुझे कभी जापान जाने का मौक़ा नहीं मिला. जापान देश के बारे में मेरी सामान्य सी जानकारी रही है कि जापान कई द्वीप समूहों का देश है, जहां की वर्तमान पीढ़ियाँ उच्च तकनीकी ज्ञान रखती हैं. मोटर वाहन, इलेक्ट्रोनिक्स उत्पाद, वस्त्र व रसायन जैसे महत्वपूर्ण उद्योग वहाँ हैं. आर्थिक दृष्टि से संपन्न राष्ट्र है. आम लोगों का जीवन स्तर काफी ऊंचा है.

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान धुरी देशों के साथ होकर मित्र देशों के विरुद्ध लड़ा था. हमारे प्रिय नेता सुभाषचन्द्र बोस जापान के मित्र थे और अंग्रेजों से देश को मुक्त करवाने के लिए आजाद हिंद फ़ौज बनाकर लड़ रहे थे, पर विश्वयुद्ध में धुरी देशों की हार हो गयी. अमेरिका ने परमाणु बम डाल कर जापान के दो बड़े शहर हिरोशिमा और नागासाकी ध्वस्त कर दिये थे. जापान को तब समर्पण करना पड़ा. सन २००३ में अपनी फिलीपींस यात्रा के दौरान मैंने वहाँ जापानियों द्वारा छोड़े गए युद्ध अवशेष तथा मारे गए जापानियों व अमरीकियों के स्मारक देखे हैं.

जिज्ञासावश कभी मैंने जापान के बारे में कुछ साहित्य अवश्य पढ़ा था. उससे मालूम था कि तीन बड़े द्वीपों सहित छोटे बड़े सब मिलाकर ६८०० द्वीप जापान देश को बनाते हैं. जहाँ अकसर भूकम्प और सूनामी आते रहते हैं. भूकम्प की मार की वजह से मकान लकड़ी के बने होते हैं. कहा जाता है कि जापानियों ने कई विधाओं में चीनी संस्कृति का अनुकरण किया है.

छठी-सातवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म चीन होता हुआ यहाँ पहुंचा, और दसवीं शताब्दी तक बहुत लोकप्रिय हो गया था. आज जापान के ८५% लोग बौद्ध तथा शिन्तो (पुराने धार्मिक विश्वास वाले अनेक देवताओं के उपासक शिन्तो कहलाते हैं), शेष ईसाई व अन्य आस्था वाले हैं. 

जापान में राजा होता है, पर सत्ता में उसका कोई दखल नहीं होता है. उसके अधिकार सीमित हैं. ग्यारहवीं शताब्दी से ही तत्कालीन राजा ने खुद को राजकाज से अलग करके रखा था बाकी सब लोकतंत्रीय व्यवस्थाएं हैं. लोग ईमानदार व राष्ट्रप्रेमी हैं.

वर्षों पहले धर्मयुग नाम की हमारी हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका में मैंने किसी भारतीय साहित्यिक यात्री के जापान सम्बन्धी यात्रा संस्मरण पढ़े थे. उसमें उन्होंने लिखा था कि, “टोक्यो में जब ट्रेन में बैठे हुए अपने मित्र से उन्होंने कहा कि “यहाँ केले प्राप्य नहीं हैं,” तो उनकी बातें सुनकर एक जापानी व्यक्ति तुरन्त कहीं जाकर केले लेकर आया और बोला, “ऐसा फिर मत कहना कि जापान में केले नहीं मिलते हैं”.

ये दृष्टान्त बहुत अच्छा लगा कि जापानी लोग अपने देश की अस्मिता के प्रति कितने सावधान रहते हैं. इसके उलट हम यहाँ भारत में रोज सुनते/पढ़ते हैं कि विदेशी यात्रियों का सामान चुरा लिया गया है या उनको लूट लिया गया है.

मेरे बगल में बैठा वो जापानी लड़का कनखियों से मुझे देखता आ रहा था. अपना ब्रीफकेस ऊपर सामान वाले सेल्फ पर रख कर और एक छोटा बैग अपनी गोद में रख कर सहमा-सिमटा सा बैठा रहा. उसके पास एक बढ़िया टच स्क्रीन वाला मोबाईल फोन था, जिस पर हेड-फोन लगा कर कुछ सुन रहा था. मेरा मन उससे बतियाने को हो रहा था. मैंने बार बार उससे कुछ कुछ पूछने का प्रयास भी किया लेकिन लगा कि उसे अंग्रेजी या कोई भारतीय भाषा समझ में नहीं आती थी. इसलिए मैंने इशारों से समझाने की कोशिश भी की पर वह केवल सर हिला कर प्यारी सी मुस्कान के साथ अनमने उत्तर से दे रहा था. मैं और मेरी श्रीमती उसके उस भोलेपन पर मुग्ध थे.

इस गाड़ी में यात्रियों को नाश्ता व खाना भी परोसा जाता है. जब टमाटर के सूप के साथ ब्रेडरोल्स तथा मील्स-ऑन-ह्वील्स वाले भोजन का पैकेट आया तो उसने चारों ओर नजर डाल कर पैकेट खोला और सभी कटोरियों की फोटो खींच ली फिर खाना शुरू किया. वह इस भारतीय शाकाहारी भोजन को चख चख कर अजीब ढंग से खा रहा था. मैंने इशारों से बताने की कोशिश की कि परांठे को तोड़कर सब्जी लगा कर खाए पर शायद वह उस दिन दोपहर बाद तक भूखा ही था. सब्जी, दाल को अलग तथा परांठा, चावल को अलग से दही के साथ खा गया. उसको पेट भरने से मतलब था. हमारा मनोरंजन जरूर हो रहा था. इसी दौरान उसका एक हमउम्र साथी उससे कुछ कहने को आया वह थोड़ी टूटी फूटी अंग्रेज़ी जानता था. मैंने उससे भी जानकारी चाही तो उसने बताया कि वे लोग हिमालय देखने कौसानी तक गए थे.

उन लोगों को यहाँ का खाना कैसा लगता होगा, कहा नहीं जा सकता है क्योंकि जापानी लोग सी-फ़ूड तथा अन्य नॉनवेज के आदी होते हैं. ये भी कहा जाता है कि मीट, जिसे जापानी में ‘नीकू’ कहा जाता है, हरे धनिये की तरह हर नमकीन प्लेट का हिस्सा होता है. ये लोग भारतीय मसालों की बू भी पसन्द नहीं करते हैं.

बहरहाल हमारा ५ घंटों का मजेदार सफर खतम हो गया. उतरने से पहले मैंने उसको अपनी मिनरल वाटर की एक सील्ड बोतल दे दी तो वह बहुत खुश हो गया. उसने अपनी बोतल का सारा पानी पी लिया था. यद्यपि भाषा की समस्या होने के कारण उससे किसी विषय पर बात नहीं हो सकी, पर प्यार की भाषा आँखों से बोली जाती है. अपने बगल में उसकी उपस्थिति से पूरा सफर सुहाना रहा.
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शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

चुहुल - 58

(१) 
पुलिस इंस्पेक्टर सज्जनसिंह से – हमें सूचना मिली है कि आपके घर में विस्फोटक सामग्री है.
सज्जनसिंह – आपकी जानकारी बिलकुल सही है, मगर वह कल ही मायके गयी है.

(२)
हमारे ही एक पडोशी देश में एक जिला अदालत में बलात्कार के जुर्म के केस पर सुनवाई हो रही थी.
बचाव पक्ष का वकील बोला, “मी लॉर्ड, क़ानून की किताब के पेज नम्बर २५ में साफ़ साफ़ लिखा है कि मेरे मुवक्किल पर कोई केस बनता ही नहीं है. इसे तुरन्त बरी किया जाना चाहिए.”
जज साहब गंभीर मुद्रा में बोले, “ये कौन सी किताब है? इसे अदालत में पेश किया जाये.”
किताब पेश की गयी तो पेज नम्बर २५ में एक एक हजार की बीस नोट रखे थे.
जज साहब मुस्कुराते हुए बोले, “बहुत खूब, इस तरह की दो नजीरें और पेश की जाएँ.”

(३)
एक भौंदू लड़के को उसके पिता ने किसी जरूरी काम से शहर भेजा और ताकीद की कि समय का ध्यान रखे ताकि वापसी में रात ना हो जाये.
भौन्दूराम ने दिन में कई बार लोगों से समय पूछा आखिर परेशान होकर सर पकड़ कर बोला, “ये कैसा शहर है, जिससे भी पूछ रहा हूँ अलग अलग टाइम बता कर बेवक़ूफ़ बना रहे हैं.”

(४)
एक लड़की उफनती नदी के पुल पर से कूद कर आत्महत्या करने को तैयार थी. इतने में एक मनचला मोटरसाइकिल पर आया और उससे बोला, “तुम मरने जा रही हो, पर मरने से पहले मुझको एक ‘लम्बा किस’ देकर जाओ.”
लड़की ने उसका सर थाम कर ‘लम्बा किस’ दे दिया.
इसके बाद मनचले ने उससे पूछा, “आखिर तुम मरना क्यों चाहती हो?”
वह बोली, “दरअसल मैं लड़की नहीं, लड़का हूँ. मेरे घर वाले मुझे इस रूप में बिलकुल पसन्द नहीं करते हैं, और डांटते रहते हैं.”
यह सुनकर बेचारा मनचला बेहोश होकर नदी में गिर पड़ा.

(५)
एक व्यक्ति के घर शादी के कई साल बाद, बड़ी मन्नतों से बच्चा पैदा हुआ, लेकिन उसे खुशी नहीं हुई.
किसी मिलने वाले ने बधाई दी तो वह बोला, "बधाई देकर क्यों मेरा मजाक बना रहे हो, यार.”
“क्यों क्या हुआ”? बधाई देने वाले ने पूछा.
तो वह मायूस होकर बोला, “इतने सालों के बाद भगवान ने बच्चा तो दिया, पर क्या बताऊँ, वह बहुत छोटा सा है, और गंजा भी है, ना किसी को पहचानता है और ना बोल सकता है.”
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बुधवार, 4 सितंबर 2013

चिन्तन - २

अनेक विकसित देशों की सरकारों ने अपने नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा के लिए बहुत सी योजनाएं व नियम लागू की हुई हैं. जिनमें प्रमुखत: बीमार होने की दशा में ईलाज का पूरा खर्च बीमा कंपनियां/सरकार उठाती हैं. वृद्धावस्था के लिए धन जमा रखने की कोई जरूरत नहीं होती है क्योंकि सरकारी पेन्शन योजनाएं बेफिक्र होकर जीने के लिए भरोसा देती हैं. हाँ इसके लिए पहले अपनी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा अपने अंशदान के रूप में सरकार को देना होता है.

सच तो यह भी है कि उन देशों की जनसंख्या चीन और भारत की तरह अरबों में नहीं है. हमारे देश में गड़बड़झाला ये है कि सब लोगों की ठीक से गिनती भी नहीं की जा सकती है. करोड़ों लोग ऐसे है, जिनका किसी हिसाब में नाम नहीं है. देश की बेढब भौगोलिक सीमाएं भी ऐसी हैं कि पडोसी मुल्कों के लोग लगातार घुसपैठ करते रहते हैं. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा की गारंटी की बात बेमानी हो जाती है.

कुछ औद्योगिक संगठित क्षेत्रों में कर्मचारियों के लिए ग्रेच्युटी तथा भविष्य निधि जैसी कानूनी व्यवस्थाएं जरूर लागू है, पर जनसंख्या के अनुपात में ये ऊँट के मुँह में जीरे के सामान है.

पिछले कुछ दशकों में शहरी क्षेत्रों के जागृत लोगों ने मेडीक्लेम जैसी बीमा योजनाओं का महत्व समझा है और बीमार होने की दशा में इसका लाभ लिया जाता है. पर देश के आम आदमी को इसका कोई ज्ञान नहीं है. बीमा कंपनियों पर वैसे भी लोग कम ही भरोसा करते हैं क्योंकि अनुभव बताते हैं कि ‘गारंटी’ और ‘वारंटी’ में बहुत फर्क होता है. कई बार क्लेम लेते वक्त ग्राहक अपने को ठगा सा महसूस करता है.

हाँ, सेना के रिटायर्ड लोगों व उनके परिवार के लोगों के लिए भारत सरकार ने बहुत सी हिफाजती व्यवस्थाएं की हुई हैं. सेना के अपने विभागीय अस्पताल हैं. इसके अलावा दूर-दराज इलाकों में प्राइवेट अथवा राज्य सरकार के अस्पतालों को ‘पैनल हॉस्पिटल’ का दर्जा दिया हुआ है. इन प्राइवेट पैनल अस्पतालों में एक ही छत के नीचे काफी सुविधाएँ मिल जाती है, पर इन संस्थानों के प्रबंधन करने वाले, सैनिक परिवारों के ईलाज के नाम पर केन्द्रीय सरकार से अंधाधुंध पैसा वसूल रहे हैं. इस पर ध्यान देने की किसी को फुर्सत नहीं है. ये अपने तरह का अलग ही फूलप्रूफ रैकेट चल रहा है.

कहने को सरकारें अपने सभी छोटे बड़े अस्पतालों/मेडीकल कॉलेजों/इंस्टीटयुटों में तमाम सुविधाएँ व दवाएं निःशुल्क दे रही है, जिनका बजट लाखों-अरबों में होता है, पर हाल के वर्षों में ऑडिट रिपोर्टों में इस मद की खरीद फरोख्तों में भी बड़े बड़े घोटाले सामने आये हैं.

भ्रष्टाचार के महासागर से कानून की बाल्टी में सरकार के आम सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का ‘गंगाजल’ कैसे लिया जा सकता है, ये अभी तो दूर की कौड़ी लगती है, पर इस बारे में चिन्तन तो किया ही जा सकता है.
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सोमवार, 2 सितंबर 2013

कश्मकश

कभी कभी परिस्थितियाँ इन्सान को बचपन में ही सयाना बना कर जिम्मेदारियां थमा देती हैं. मोहन भगत जब सात साल का था, तभी पिता का साया सिर से उठ गया. उस समय उसकी दो छोटी और दो बड़ी बहनें सभी नाबालिग थी. इसके अलावा घर में पाँच बड़ी सयानी अनब्याही बुआयें भी थी, पर माँ बहुत जीवट वाली थी. परिवार की गाड़ी रुकी नहीं. बुरा समय भी कट जाता है, हिम्मत रखनी होती है.

इन दिनों मोहन भगत बड़ी कश्मकश में जी रहा है. दरअसल उसका जीवन बीमा एजेंसी का काम बिलकुल सुस्त चल रहा है. एजेंसी लेते समय तो उसको बड़ा जोश व उत्साह था, पर धीरे धीरे वह कम होता गया क्योंकि एलआईसी ने इतने सारे एजेंट बना दिये कि हर गली-मोहल्ले में दो दो एजेंट मिल जायेंगे और वे प्रतिस्पर्धा में ग्राहकों को बीमा कराने पर तीन तीन महीनों की किश्त अपनी जेब से देकर पटा लेते हैं. मोहन भगत की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि उनकी तरह लम्बे समय के लिए निवेश करके बैठा रहे. इधर पत्नी मधु का तकाजा है कि उसके लिए कम से कम एक लाख रुपयों का इन्तजाम किया जाये. वह पति से कहती है, “आपकी कमाई से तो घर का खर्चा चल नहीं रहा है इसलिए मैं अपना ब्यूटी पार्लर खोल कर कमाई करूंगी.” वह अपने ब्यूटीशियन कोर्स के डिप्लोमा का बार बार हवाला देकर दबाव बना रही थी.

घर में ७८ वर्षीय माँ है जो उम्र की इस दहलीज पर सुनने की क्षमता लगभग खो चुकी है और आँखों में भी मोतियाबिन्द के ऑपरेशन के बाद मोटा चश्मा चढ़ाये रहती है. आज वह घर की बैठक में वह बहू व मोहन की बातचीत में उनके हावभाव व होंठों की क्रियाओं की बहुत देर से संज्ञान लेने की कोशिश कर रही है. उसको अंदाजा हो गया है कि जरूर कोई खींचतान वाली बात चल रही होगी.

पत्नी मधु व्यंग्यात्मक अंदाज में कह रही थी, “ससुर जी की जोड़ी हुई ग्यारह बीघा जमीन में से आपने अब तक दस बीघा बेच खाई है. इस एक बीघे में मकान भी है और गाय का बाड़ा भी. इतनी सी जगह में क्या होता है?” मोहन को ये बात चुभ गयी. वह तल्ख स्वर में बोला, “बेच खाई क्यों बोल रही हों? मैंने कोई जुआ थोड़े ही खेला है. पाँच बुआओं और चार बहिनों की, और एक अपनी, कुल दस शादियाँ तो करनी ही थी. हर बार एक बीघा बेचना मजबूरी थी.”

मधु बोली, “कुछ अपने बेटों के लिए भी छोड़ना था. कल बड़े होंगे तो कोसेंगे.”

मोहन बोला, “तू इनकी चिंता मत किया कर. बुजुर्गों ने कहा है, ‘पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय’".

मधु ने कहा, “ये सब कहने की बातें हैं. आप हर शादी पर एक बीघा जमीन बेचते रहे, और जब अपने बच्चों की शादी करनी होगी तो आपके पास कुछ भी बचा हुआ नहीं होगा. इसलिए मैं कह रही हूँ कि आजकल ब्यूटी पार्लर खूब फलफूल रहे हैं. आप मेरे लिए जल्दी एक लाख रुपयों का इन्तजाम कर दीजिए.”

मोहन बोला, “तेरे पास १२ तोले सोने के जेवर हैं. उनमें से तीन तोला बेच दे आजकल सोने का भाव ३०,००० से ऊपर चल रहा है.”

ये सुन कर मधु रोने लगी और रोते हुए बोली, “अब मेरे जेवरों पर आपकी नजर है. इनको बेचकर भीख का कटोरा पकड़ लो.”

वातावरण बहुत गंभीर हो गया. सामने बैठी माँ ये सब देखकर कश्मकश मे थी कि ये हो क्या रहा है. जोर लगा कर बोल उठी, “क्या हो गया है? किस बात पर झगड़ रहे हो? मैं भी तो सुनूं....”

मोहन माँ के नजदीक जाकर उसके कान पर जोर जोर से बोला, “खर्चा नहीं चल रहा है. मधु पार्लर खोलना चाहती है. एक लाख रूपये चाहिए, कहाँ से लाऊँ?”

माँ को मानो बिजली का करंट लग गया हो. वह झटके के साथ उठी मोहन का हाथ थाम कर अपने कमरे में ले गयी अपने बक्से की चाबी देते हुए बोली, “इसको खोल.” मोहन ने आज्ञाकारी बेटे की तरह बक्सा खोला. माँ ने उसमें से कपड़ों के बीच छुपाए हुए अपने जेवरों का डिब्बा निकाला और उसे लेकर वापस बैठक में आ गयी. डिब्बा बड़ी मुश्किल से खुला क्योंकि लम्बे समय से खोला नहीं गया था. उसमें से अपने गुलुबन्द, नथ, कर्णफूल आदि सभी सोने के पुराने जेवर जिनका वजन लगभग दस तोले होगा बहू के हाथ में रख दिये फिर बोली, “ये मेरे किसी काम के नहीं हैं. तू इनसे अपना पार्लर खोल ले. कम पड़े तो अभी चांदी भी पड़ी है. घर में मुँह बिगाड़ कर रहना अच्छा नहीं है.”

माँ के इस स्नेहासिक्त व्यवहार से बेटा और बहू दोनों की आँखें भर आई.

मधु बोली, "माता जी, आप अपना जेवर अपने पास रखो. मेरे पास भी बहुत है. अभी सिर्फ तीन तोले से सब काम बन जाएगा."

मोहन ने मधु को बताया कि माँ के बक्से में जार्ज पञ्चम के जमाने के सौ सिक्के भी रखे हुए हैं.

मधु बोली, “नहीं, नहीं, माँ के रुपयों को भी मत निकालना. मेरे पास चूडियों के और झुमकों के दो दो सेट हैं. आप इनको बेच आइये. माँ ठीक कहती है, घर में अशांति नहीं होनी चाहिए.”

मोहन भगत को राहत भरी राह तो मिल गयी, पर वह ये भी सोचने लगा कि आजकल छोटे उद्यमों के लिए बैंक भी खुले हस्त लोन दे रहे हैं. उसी क्षण उसने यह भी सोचा कि बैंकों की ब्याज दर तो बहुत ऊँची होती है. सारी कमाई ब्याज में चली जायेगी. ऐसा क्यों ना किया जाये कि जेवरों को रेहन रखा जाये. अब बात सुलझ गयी है तो रुपयों का इन्तजाम हो ही जाएगा.
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