शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

बैठे ठाले - १५

मित्रो!
दिल पर हाथ रख कर बोलिए, क्या आज देश में धार्मिक असहिष्णुता फ़ैली हुई नहीं है? सत्तानशीं लोग कहते हैं कि ये काग्रेसियों की साजिश मात्र है, बदनाम करने की मुहिम है, पर यह पूरा सच नहीं है.

मैं हल्द्वानी शहर से सटे हुए एक आधुनिक गाँव में निवास कर रहा हूँ, जहाँ 99.9% आबादी हिन्दू है. अधिकाँश बुजुर्ग सरकारी या गैरसरकारी सेवाओं से रिटायर्ड हैं, जहां कहीं भी उठते बैठते या साथ घूमते हैं तो देश की सियासत पर चर्चा होने लगती है. समाचार चैनल्स की ख़बरों पर तप्सरा होने लगता है. केंद्र की पिछली सरकार में हुए घोटालों को भाजपा ने अपने लोकसभा चुनावों में खूब भुनाया अत: अधिकांश लोग परिवर्तन चाहते थे, और आज भी मोदी’, मोदी की आवाजों से खुश नजर आते हैं. परन्तु मैं अनुभव कर रहा हूँ कि लोग दूसरे धर्मों, विशेषकर मुस्लिम धर्म के प्रति गैर जरूरी रूप से असहिष्णु हो रहे हैं. उनको ये हिन्दुस्तानी मानने को तैयार नहीं है. मैं समझता हूँ की ये ध्रुवीकरण बरास्ता असहिष्णुता ही है.

प्रधानमंत्री जी ने आज जिन शब्दों में संविधान दिवस पर लोकसभा में भाषण दिया वे बहुत पावन नज़र आ रहे थे, पर खाली बोल देने से क्या होता है? सच्चे मन से उन पर अमल भी होना चाहिए. उनके अनुयायियों को मनमाना बोलने की छूट है, और नसीहत की बात तब होती है, जब सारा जहर फ़ैल चुका होता है. कई मामलों में प्रधानमंत्री जी की लम्बी चुप्पी संदेह के घेरे में रही है. और आलोचाना का कारण भी बनी है. छिद्रान्वेषी जन कहते हैं कि राजनीति में कई मुखौटे होते हैं.

आज राज्य सभा में विरोध पक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद जी का भाषण मैंने आद्योपांत सुना, उसमें उन्होंने सही कहा कि संविधान बनाने की भूमिका में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को नकारने जैसी प्रक्रिया सदन और सदन के बाहर हो रही है. इससे बड़ी असहिष्णुता क्या हो सकती है. जिन्होंने आजादी के आगे-पीछे नेहरू जी के त्याग और देशभक्ति का इतिहास नहीं पढ़ा सुना है, वे उनकी कुछ व्यक्तिगत कमजोरियों को मुद्दा बनाकर उछाल रहे हैं, ये शर्मनाक असहिष्णुता ही है.

हो ये रहा है की जहां कहीं असहमति या विरोध के स्वर उठते हैं, सत्ता पक्ष द्वारा तीखी प्रक्रिया देकर दुत्कारने के अनेक प्रमाण सामने आ जाते हैं. इसी को असहिष्णुता कहा जा रहा है, जो सत्य है.

जब कुछ मान्य कलाकार, साहित्यकार, व बुद्धिजीवी देश के वातावरण में असहिष्णुता की गंध महसूस करके अपना विरोध प्रकट कर रहे हैं, तो उनका मजाक बनाने या उनको गालियां देने के बजाय इस समस्या को गंभीरता से लिया जाना चाहिए.
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सोमवार, 23 नवंबर 2015

बाहर का नजारा

ये मर्मस्पर्शी कहानी किस लेखनी से निकली मुझे भी नहीं मालूम, पर इसे पढ़कर ये  अहसास हुआ कि कुछ लोग दूसरों की ख़ुशी के लिए किस तरह जिया करते हैं.

एक अस्पताल के बूढ़े-बीमार लोगों के अलग से वार्ड में खिड़की की तरफ पलंग पर एक अति बीमार व्यक्ति था. उसके बगल वाली पलंग पर उससे भी ज्यादा कमजोर व्यक्ति था, जो उठ-बैठ भी नहीं सकता था. खिड़की की तरफ वाला वृद्ध उसकी मजबूरी और मनोदशा को खूब समझने लगा था इसलिए रोज सुबह उठ कर उसे खिड़की के बाहर का नजारा बोल बोल कर सुनाता था, सामने सुन्दर पार्क है जिसमें तरह तरह के रंग बिरंगे फूल खिले हुए हैं.... बच्चे हरी दूब पर खेल रहे हैं.... कुछ लोग फुटपाथ पर जॉगिंग कर रहे हैं.... दो तीन महिलायें अपने छोटे बच्चों को स्ट्रॉलर में बिठा कर घुमा रही हैं.... एक तरफ लाफिंग क्लब के सदस्य तालियां बजा कर जोर जोर ठहाका लगा रहे हैं.... पार्क के बगल में जो सड़क है, उसमें अनेक कारें दौड़ रही हैं.... कुछ साइकिल-सवार भी किनारे किनारे चल रहे हैं. यों बहुत सी बातें आँखों देखाहाल में सुनाया करता था और सुना कर खुद भी तृप्त और संतुष्ट हो लेता था. क्योंकि सुनने वाला हल्की आवाज में वाह बोल दिया करता था. उसको अपने पुराने दिन याद आ जाते थे.

एक सुबह खिड़की की तरफ वाला वृद्ध सोता ही रह गया. नर्स ने आकर टटोला तो पाया वह इस संसार से विदा हो चुका था. उसके मृत शरीर को वहाँ से हटा दिया गया. असक्त वृद्ध बेचैन और भावविह्वल हुए जा रहा था. खुद को बहलाने के लिए खिड़की से बाहर देखना चाहता था. बड़ी मशक्कत के बाद वह जैसे तैसे खिड़की के पास गया तो उसने पाया की खिड़की के सामने तो बड़ी सी दीवार थी. उसने नर्स से पूछा, सिस्टर, ये दीवार खिड़की के सामने कैसे आ गयी?

नर्स से उसे बताया कि वह दीवार तो वहां पर बहुत पहले से थी. ये जानकार कि मरने वाला सिर्फ उसकी खुशी के लिए बाहर के नज़ारे की कहानी गढ़ा करता था, उसकी सूखी आँखों की कोटरें डबाडब भर आई.
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