गुरुवार, 12 मई 2016

गुबार

मैं लाख कोशीशें करू या कहूं कि मेरी किसी राजनैतिक पार्टी से संबद्धता नहीं है, परन्तु मेरे मन-मस्तिष्क पर जो विचारधारा धरातल बनाकर बैठी है, वह नित्य प्रतिक्रियास्वरूप बाहर आती रहती है, और हो सकता है कि आप इससे सहमत ना भी हों.

वर्तमान में केंद्र में सत्तासीन पार्टी भाजपा के बारे में अब party with difference  वाले जुमले को सुन कर तकलीफ होने लगी है. बहुत वर्षों पहले जब श्री गोविन्दाचार्य जी भाजपा के नीति निर्धारक थिंक टैंक के स्पष्टवादी व कट्टर व्यक्तित्व वाले सिद्धांतवादी व्यक्ति थे और पार्टी नेतृत्व गाइड लाइंस के बाहर जाकर party with difference के जुमले को बार बार चोटिल कर रहे थे तो उस मौजू में एक पत्रकार ने उनसे सीधा प्रश्न किया था कि क्या वे भाजपा को कांग्रेस पार्टी के विकल्प के रूप में तैयार कर रहे हैं. तब उन्होंने बड़े दु:खी मन से पार्टी के कर्णधारों की सोच पर प्रतिक्रया व्यक्त की थी कि ये लोग विकल्प नहीं, दूसरी कांग्रेस बनाने की प्रक्रिया में हैं. जो आज सच साबित हो रही है. यहाँ गौर तलब बात यह है की इन्ही सैद्धांतिक मतभेदों के चलते गोविन्दाचार्य जी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था. यद्यपि वे आज भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हैं.

हाल में उत्तराखंड की रावत सरकार को गिराने का जोरदार ड्रामा हुआ उससे भाजपा के नीतिकारों को अवश्य शर्मिन्दगी सता रही होगी, अगर नहीं सता रही होगी तो उनकी party with difference वाली आत्मा मर चुकी होगी. आज भाजपा के नेताओं का ये वक्तव्य इस बात को तस्दीक करती है कि अगर काग्रेस के बागी विधायक भाजपा में आना चाहें तो उनका स्वागत होगा. जब तक वे कांग्रेस में थे, चोर, बेईमान व चरित्रहीन थे, और उनके खिलाफ भाजपा वालों ने आन्दोलन तक किये थे. और अब वे रातों रात आदर्श हो गए हैं.

मेरे बहुत से मित्रगण भाजपा के सक्रिय व समर्पित सदस्य हैं, जो शायद ये नहीं सुनना चाहेंगे कि पिछले दो वर्षों में खाद्य पदार्थों, दवाईयों, तथा अन्य सभी जरूरी वस्तुओं के दाम लगभग दुगुने हो गए हैं. इस सरकार की नीतियों ने अल्प बचतों पर ब्याज की दर कम करके ब्याज पर गुजारा करने वाले मध्यम वर्ग की कमर तोड़ दी है. पिछली भ्रष्ट कांग्रेस सरकार को गालियाँ देते रहने से आप अपनी नाकामियों को छिपा नहीं सकते हैं. बड़े पूजीपतियों के हितार्थ जो आर्थिक योंजनाओं का ढिढोरा पीटा जा रहा है, वे आगे जाकर राष्ट्र की अर्थ व्यवस्थाओं पर नकारात्मक परिणाम लायेंगी. रिजर्व बैंक पर अंकुश लगाने तथा न्याय पालिका के पर कतरने की सोच बेहद खतरनाक साबित हो सकती है.

पार्टी अध्यक्ष, जो मोदी जी के अभिन्न और राजदार भी रहे हैं, के अदालती केस में क्लीन चिट देने वाले सुप्रीम कोर्ट के चीफजस्टिस श्री सदाशिवम को रिटायरमेंट के तुरंत बाद केरल का गवर्नर बनाना एक ऐसा उदाहरण है जिसे सुपर भ्रष्टाचार की संज्ञा दी गयी है.   

मोदी जी द्वारा चुनावों में जो जुमले परोसे गए थे, उनकी असलियत सामने आने से आम लोग निराश हैं. ये दीगर बात है कि मीडिया का एक बहुत बड़ा तबका स्वार्थवश उनकी वाह वाही करता आ रहा है. यहाँ तक कि अंध भक्तों को उनकी अपानवायु में भी केवड़े की खुशबू  प्रतीत हो रही है.

धरातल पर पुलिस, पटवारी, तहसीलदार से लेकर सभी जनसंपर्क वाले विभागों में कांग्रेस राज की तरह से ही काम हो रहा है, बिना लिए दिए कोई काम नहीं होते हैं. सभी छोटे बड़े सरकारी प्रोजेक्ट्स जिनमें ठेकेदारी की व्यवस्था है, आकण्ठ भ्रष्टाचार यथावत है. मालूम सबको है.

किसानों की आत्महत्याओं का  मुद्दा, जिसे चुनाव के समय मोदी जी ने विशेष रूप से ऊंचे स्वरों में उछाला था, कहीं नेपथ्य में गुम हो गया है. आत्महत्याएं निरंतर जारी हैं.

विदेश नीति की चर्चा करें तो सभी निकटवर्ती देश ३६ के आंकड़े में हैं. रूस जैसे चिर मित्र के मन में अब हमारे प्रति संदेह हो गये हैं क्योंकि यहाँ पूरी अमरीकापरस्त नीतियों का पालन हो रहा है. विदेशों में स्वयं प्रायोजित कार्यक्रमों में भारतवंशियों का खुश होना स्वाभाविक है, पर ये विदेश नीति की सफलता का मापदंड नहीं हो सकता है.

जहाँ तक पूर्ववर्ती सरकारों का विषय है, सत्ता के लिए जोड़तोड़ व जातिगत/धार्मिक तुष्टीकरण की नीतियों से भाजपा बाहर नहीं निकल पाई है. जनता ने कांग्रेस पार्टी को केंद्र की सत्ता से बाहर का रास्ता इसीलिये दिखाया कि तालाब का पानी सड़ने लगा था, जिसमें ऊब और डूब दोनों होने लगी थी

अंत में आप भी मनन करें कि क्या वाकई party with difference  की भावना का अंत हो चुका है.
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शुक्रवार, 6 मई 2016

बैठे ठाले-१६ : ईमान का दिया

मेरे शहर हल्द्वानी में अनगिनत फेरीवाले कबाड़ी हैं. ये साईकिल पर सवार होकर गली-गली बस्ती-बस्ती आवाज लगाते जाते हैं. लोहा, पीतल, अल्म्युनियम आदि धातुओं से लेकर कांच के बोतल, प्लास्टिक का टूटा-फूटा सामान, तथा रद्दी अखबार, गत्ते, पुरानी कॉपी किताबें, सब कुछ ओने-पौने भाव में खरीद कर ले जाते हैं, और उसे कबाड़ के बड़े व्यापारियों तक पंहुचाते हैं. इन बेकार समझी जाने वाली चीजों की रीसाईक्लिंग होती है. ये धंधा कब शुरू हुआ इसका कोई निश्चित इतिहास नहीं है. मैं सोचता हूँ कि अगर ये कबाड़ यों ही घरों में पड़ा रहता है तो बदसूरत ढेर सा लगता है, पर अपने सही मुकाम पर पहुंचकर रूप बदल लेता है. ये जहाँ एक तरफ से सफाई है, दूसरी तरफ कुछ लोगों की आजीविका है. धूप हो, गर्मी हो, बारिश हो, या ठंड का मौसम हो, ये निरंतर फेरी लगाने वाले गरीब लोग अपने परिवारों का पेट पालने के लिए कसरत करने पर मजबूर रहते हैं. हल्द्वानी में अधिकांश कबाड़ी मुस्लिम हैं. किताबों व अखबारों को उठा कर तो ले जाते हैं, पर शायद ही पढ़-लिख पाते हों. यदि पढ़ना आता भी होगा तो उन्हें पढ़ने की फुर्सत नहीं होती होगी. 

कबाडियों का ये माजरा केवल हल्द्वानी तक ही सीमित नहीं है. देश के सभी छोटे बड़े शहरों-कस्बों में ये डंडीमार तराजू लेकर दर दर आवाज देते हैं. बहुत से लोग मजबूर व मजलूम भी होते होंगे, लेकिन कुछ शातिर भी होते हैं. आखिर हैं तो हमारे ही समाज से, जिसमें अनेक अन्दुरुनी विकृतियां हैं. यह पेशा ही ऐसा है कि अगर तोल में नहीं मारेंगे तो कमाई बहुत कम हो जायेगी. ठगते भी इस बखूबी से हैं कि आप देखते ही रह जाएंगे. इस कूड़े कबाड़ को बेचने वाले भी कम चिकचिक नहीं करते हैं. आप लाख कमाते हों, पर कबाड़ बेचते समय ऐसा मोल-भाव करेंगे, मानो हीरे बेच रहे हों. 

पुलिस वाले या सुरक्षा प्रहरी इनको चोर व उठाईगीर समझा करते हैं. कुछ अपवाद हो सकते हैं, क्योंकि यह सच है कि कबाड़ी के वेश में चोरी डकैती करने वाले कभी कभी रेकी भी करते हैं, और पकडे भी जाते हैं. कई बार इस विषय पर गम्भीरता से चर्चा होती है कि कबाडियों को लाईसेंस या परिचय पत्र देने चाहिए, पर यह कार्यान्वित नहीं हो पाता है.

मेरे घर में पुराने अखबारों के अलावा कोई अन्य प्रकार का कबाड़ा नहीं होता है. जब कुछ महीनों में जमा हो जाते हैं तो एक बुजुर्ग, इकराम कबाड़ी, आकर ले जाता है. वह अपने हिसाब से पैसे भी दे जाता है. कोई बहस हुज्जत नहीं होती है. कई वर्षों से ऐसा चलता आ रहा है. इकराम बड़ा सीधा और सरल आदमी है. मैंने जब उसको बताया कि अमरीका देश में घरों में क्विंटलों के हिसाब से अखबार आते हैं, और वहां कोई कबाड़ी नहीं घूमता है, म्युनिसिपैलिटी कूड़े के साथ उठाकर ले जाती है, तो वह वहाँ का रास्ता पूछने लगा था. इस बार सर्दियों में करीब दो माह मैं हल्द्वानी से बाहर रहा और वापस आकर तीन महीनों में इकराम के दर्शन भी नहीं हुए. इसलिए मैंने एक अन्य नौजवान कबाड़ी को रोक कर पूछा, अखबार किस भाव लेते हो? तो वह बोला, दस रूपये.” जब मैंने कहा, इकराम चाचा तो बारह के भाव ले जाते हैं? तो ये नया आदमी जिसने बाद में अपना नाम जाकिर बताया बोला, ठीक है, मैं भी बारह दे दूंगा. उसने रद्दी अपने ढंग से तोली और वजन दस किलो बताया. जब १२० रूपये देने की बारी आई तो रुपयों के बजाय अपना तराजू मुझको पेश करके बोला, अभी आप इसको रख लीजिये. मैं बाद में रकम दे जाऊंगा. मैंने पूछा, क्यों रूपये नहीं हैं क्या? वह रुआंसे स्वर में बोला, मैं बीमार चल रहा था. बड़े दिनों के बाद आज ही काम पर आया हूँ. मुझे स्वाभाविक रूप से उसकी बात पर हमदर्दी हो आई. मैंने कहा, कोई बात नहीं, बाद में दे जाना. तुम्हारा तराजू रख कर मैं क्या करूगा? उसने जल्दी जल्दी सामान समेटा और सलाम साहब कह कर चलता बना. मुझको अपने मन में बड़ा संतोष सा हो रहा था कि उसकी मजबूरी पर मैंने कोई शर्त नहीं लगाई. सोचा, वह ना जाने किस मजबूरी में होगा.

बात आई-गयी हो गयी. मैं उस धटना को भूल सा गया था. सचमुच, मैं उसकी शक्ल भी भूल गया था. इस बीच हमारी सीनियर सीटीजंस की बैठक में किसी बात पर मैंने इसका जिक्र किया तो साथियों ने मेरी दानवीरी का मजाक बनाया. एक सज्जन बोले,  मियाँ, सतयुग को गुजरे तीन युग हो चुके हैं, तुम कहाँ जी रहे हो?

आज सुबह मुझे सुखद आश्चर्य तब हुआ जब जाकिर घंटी बजाकर रूपये देने के लिए घर के गेट पर खड़ा मिला. इस युग में बड़े बड़े लोग बेशक बेईमानी करते हैं, लाखों-करोड़ों डकार जाते हैं, पर जाकिर जैसे गरीब लोगों ने इस अंधेरे में ईमान का दिया जलाए रखा है.
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