गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

चुहुल - ४५

(१)
नई नई पत्नी अपने पति को प्यार जताते हुए बोली, “जानते हो, मैंने १६ सोमवार केवल तुलसी के पत्ते खाकर और दो साल तक हर शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत रखा तब जाकर आपको पति के रूप में पाया है.”
पति ने पूछा, “यदि तुम ये सब नहीं करती तो क्या होता?”
“तो कोई तुमसे भी गया गुजरा आदमी पल्ले पड़ता.” पत्नी ने उत्तर दिया.

(२)
एक छोटी फैक्ट्री के मालिक ने अपने कारखाने में जनरल मैनेजर के पद के लिए इंटरव्यू लिया और एक नौजवान का चयन किया. उससे उन्होंने कहा, "अब तनख्वाह की बात हो जाये.”
नौजवान बोला, “एक लाख टैक्स पेड, एक फ़्लैट, और एक शोफर ड्रिवन कार चाहिए.”
मालिक मुस्कुराकर बोला, “हम आपको चार लाख टैक्स पेड, दो फ़्लैट और दो कारें देंगे.”
मैनेजर बोला, “क्यों मजाक कर रहे हैं?”
मालिक ने कहा, “शुरुआत तो आपने ही की.”

(३)
एक कर्मचारी ऑफिस समय में करीब की नाई की दूकान पर अपने बाल कटवा रहा था. बॉस ने उसे देख लिया. बाद में बुलाकर नाराजी के स्वर में पूछा, “ऑफिस टाइम में बाल कटवा रहे थे?”
कर्मचारी बोला, “सर, बाल उगते भी तो आफिस टाइम में ही हैं.”
“सारे तो आफिस टाइम में नहीं उगते.” बॉस ने कहा.
शातिर कर्मचारी बोला, “आप सही कह रहे हैं, सर. इसीलिये मैंने सारे बाल नहीं कटवाए.”

(४)
पत्नी आये दिन बैंगन का भुर्ता या बैंगन की सब्जी परोसती थी. खाना खाते समय पति ने कहा, “आज फिर बैगन का भुर्ता? तुम्हें शायद पता नहीं कि ज्यादा बैंगन  खाने से आदमी अगले जन्म में गधे के रूप में पैदा होता है.”
पत्नी ने तपाक से उत्तर दिया, “ये तो आपको पिछले जन्म में सोचना चाहिए था.”

(५)
एक महिला, कैमिस्ट की दूकान पर जाकर बोली, “आजकल मच्छर बहुत हो गए हैं, जिसकी वजह से बच्चे परेशान रहते हैं. कोई दवा है तो दे दीजिए.”
कैमिस्ट ने 'माइलौइल’ की सैम्पल की एक छोटी सी शीशी निकाल कर दे दी. महिला इतनी छोटी पैकिंग को देखकर बहुत देर तक सोचती रही, फिर बोली, “ये तेल मच्छरों को चुपड़ना है या बच्चों को सुंघाना है.”
***

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

डंकिनी

द्वाराहाट का गोविंद नेगी, मध्यवर्गीय माता-पिता की इकलौती संतान, बी.ए. पास करके कुछ दिन बेरोजगार रहा फिर रोजगार कार्यालय के माध्यम  से  पंजाब नेशनल बैंक में क्लर्क की नौकरी पा गया, तब बैंकों में भर्ती के लिए आज की तरह प्रतियोगी परिक्षा नहीं होती थी. वह स्वभाव से सरल और शरीर से कमजोर शुरू से है. माँ-बाप खुश थे कि बेटे को जल्दी ही नौकरी मिल गयी. अगले साल ही पड़ोस के गाँव से पहाड़ी रीति रिवाज से दुर्गा नाम की लड़की से उसका विवाह भी कर दिया गया.

संस्कृत व हिन्दी की श्रंगारिक पुस्तकों में शारीरिक बनावटों तथा गुणावगुण के आधार पर कई तरह से नायिका भेद किये गए हैं. एक प्राचीन विवेचन में स्त्री को चार प्रमुख स्वरूपों में बताया गया है: पद्मिनी, चित्रानी, शंखिनी और हस्तिनी. पर दुर्गा देवी के बारे में जानकर व देखकर यह कहा जा सकता है कि एक पांचवां स्वरुप भी होता है, जिसे ‘डंकिनी’ कहा जा सकता है. क्योंकि वह बिच्छू के स्वभाव की है. बात बात में किसी को भी डंक मारती रहती है.

दुर्गा की पीठ पर थोड़ा कुबड़ निकला हुआ है. चेहरा-मोहरा तो सुन्दर है, पर कूबड़ ने उसका सारा नक्शा बिगाड़ रखा है. शारिरिक बनावट तो सब ऊपर वाले के हाथ में माना जाता है, लेकिन स्वभाव से दुर्गा बहुत बदमिजाज, कर्कश और अकड़ू है. थोड़े दिन ही सास ससुर के पास रही फिर उसकी सास ने अपने बेटे से कहा, “तू इसे अपने साथ ले जा. या तो ये हमें मार डालेगी या हम इसे मार डालेंगे क्योंकि ये परिवार में खपने वाली बहू बिलकुल नहीं है.” इस प्रकार गोविन्द अपनी मरखनी पत्नी को साथ लेकर बरेली आ गया, जहाँ पर उसकी पोस्टिंग थी.

दुर्गा अपने मिजाज के अनुसार आलसी, अशिष्ट और कठोर वचन बोलने वाली पत्नी, पति के लिए भी हौवा बन कर रही. गोविन्द को धीरे धीरे सब सहने की आदत हो गयी. इस दुनिया में सभी लोग एक से स्वभाव के हो भी नहीं सकते हैं, पर अति होने पर दुखदायी अवश्य रहते हैं. बहुत से जानवर ऐसे होते हैं, जो स्वभाव से पैदाइशी आक्रामक और कटखने होते हैं, लेकिन बच्चे तो उनके भी होते रहते हैं. अन्यथा ये दुनिया आगे कैसे चलती? दुर्गा देवी को भी दो-दो साल के अंतराल में तीन बेटे पैदा हुए. हर प्राणी अपनी औलादों को जतन से पालता है. दुर्गा ने भी अपनी जानिब से बहुत प्यार-दुलार बच्चों को दिया, पर ज्यों ज्यों बच्चे बड़े होते गए माँ से वे भी खौफ खाते रहे.

इस बीच बैंक की अनेक शाखाओं में काम करते हुए गोविन्द नेगी कैशियर बन कर रुद्रपुर आ गया. यहाँ बैंक से सस्ते ब्याज दर की सुविधा का फ़ायदा लेकर लोन से अपने लिए एक घर बनवा लिया. बाहर तो वह एक सामान्य व्यक्ति था, पर घर में आकर भीगी बिल्ली बन कर रह जाता था. पत्नी की पूरी खुट्टेबर्दारी किया करता था. समय का पता ही नहीं चलता है, यों सरकता जाता है, कुछ ही वर्षों में बच्चे सयाने हो गए. बड़े बेटे जगदीश का विवाह करके अल्मोड़ा से जानकी नाम की सुन्दर पढ़ी-लिखी बहू ले आये. तब जगदीश एक स्टील के फर्नीचर बनाने वाली कम्पनी में काम करने लग गया था.

आखिर हुआ वही जिसका अंदेशा था. दुर्गा देवी ने नवेली बहू पर कठोर-कर्कश बाण अपने स्वभाव के अनुसार छोड़ने शुरू कर दिये. छोटी छोटी बातों में डांटना फटकारना और बेटे-बहू के बीच में दीवार बनने की उसकी अपनी प्रवृत्ति ने घर में नए सिरे से कलह पैदा कर दिया. दब्बू गोविन्द असहाय होकर रह जाता. गुब्बारे को ज्यादा दबाया जाय तो वह फूटेगा ही, एक दिन जगदीश अपनी पत्नी सहित घर छोड़ कर किराए से कमरा लेकर अन्यत्र रहने लगा. बडी बात यह भी है कि बहुओं को बेटी की तरह रखना चाहिए. ससुराल वाले पीहर वालों के लिए अपशब्द या तौहीन करने वाले शब्द प्रयोग करेंगे, तो वह ज़माना अब चला गया है कि बहुएं बर्दास्त कर लेंगी.

हमारे मध्यवर्गीय समाज में लड़की वालों की कई मजबूरियाँ होती हैं. देखा जाता है कि लड़का कमा-खा रहा हो तो उसके माता-पिता के स्वभाव की खोज खबर कम ही की जाती है, ऐसा ही हुआ दूसरे बेटे कैलाश के लिए रिश्ता तय करने में. वह बैंक ऑफिसर का बेटा था, एक कम्पनी के उत्पादों का मार्केटिंग का काम संभालता था. रामनगर से एक सजातीय लड़की कविता को उसके लिए ब्याह लाये. वह एम.ए. बी.एड. पास है. कैलाश ज्यादा होशियार निकला उसने ज्यादा तकरार होने तक का इंतज़ार नहीं किया. कविता ने जब सासू माँ के व्यवहार व हिटलरी हुक्मों को रोते हुए सुनाया तो कैलाश बिना घरवालों को बताए ही अपने दहेज के सामान सहित बाहर हो गया. माँ ने उसे बहुत लानत-मलानत दी, पर पत्नी की पीड़ा उससे सही नहीं गयी. वह भी लौटकर वापस घर नहीं आया.

दैवयोग से दुर्गा देवी की आँखों में ‘ग्लाईकोमा’ (काला मोतिया) का रोग हो गया. उसकी आँखों की रोशनी बहुत कम हो गयी है. गोविन्द ने पहले स्थानीय नेत्र विशेषज्ञों को दिखाया, रोग की गंभीरता को जानते हुए उसे तुरन्त सीतापुर के प्रसिद्द नेत्र चिकित्सालय में दिखाया. आँखों के अन्दर के तनाव को कम करने के लिए आपरेशन भी किया गया, लेकिन कोई विशेष लाभ नहीं हुआ. हाँ अब रोग आगे बढ़ना रुक सा गया. डॉक्टर इसे असाध्य बता रहे हैं.

सबसे छोटा बेटा शंकर पैथोलाजी में डिप्लोमा करके एक स्थानीय अस्पताल में काम पर लगा हुआ है. वह ज्यादा ही मातृभक्त है. रात दिन पिता के साथ मिलकर माँ की आवश्यकताओं का ध्यान रखता है. गोविन्द नेगी अपनी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं. अब पत्नी की अपाहिज हालत के कारण उनका ध्येय केवल पत्नी-सेवा रह गया है. कहते हैं, "हरदी जरदी ना तजे, खटरस तजे ना आम," इस हालत में भी दुर्गा देवी की वाणी में कोई बदलाव नहीं आया है. गोविन्द पत्नी की डाट-डपट सुनते रहता है और घर के सभी कार्य करना उनकी मजबूरी भी हो गयी है.

अब माँ-बाप दोनों चाहते हैं कि शंकर शादी कर ले ताकि घर में बहू आये और कारोबार संभाल ले. लेकिन शंकर ने ठान रखी है कि जो हाल भाईयों और भाभियों का हुआ वह अपने साथ नहीं होने देगा. सोचता है, ना होगा बाँस ना बजेगी बांसुरी. शादी करनी ही नहीं है. दुर्गा देवी आँखों से लाचार है, अब वह मिलने जुलने वालों से कहा करती है कि शंकर को समझा दो कि शादी के लिए राजी हो जाये, पर सब लोग जानते हैं कि बुढ़िया ‘डंकिनी’ है इसलिए दिखावटी बातें करके चल देते हैं.

दुर्गा देवी की बड़ी बड़ी सूनी अंधेरी आँखों में पश्चात्ताप के आंसू शायद अभी भी नहीं आते हैं, पर एक तरह से अभिशप्त जीवन जी रही है.
***

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

दस्तूर पुरातन

मैं श्वेत कमल सा पुष्प अफीम का
दम्भी, गन्धी और नशीला,
तुम मेढ़ के उस पार, पीली सरसों,
नेह-स्नेह और शर्मीली सी.

बयार बसंती छूकर आती तुमको
मधुप, कीट-पतंगे दे जाते संदेशे.
मैं मजबूर कि पहरे हैं भारी मुझपर
चीरा जाऊंगा इसी अपराध में इक दिन

मैंने अनजाने में क्यों यों चाहा तुमको,
तुम तो नारी हो कोमल-प्यारी-मनभावन
काटी-पीसी जाओगी, कोल्हू में होगा मर्दन.
कि तुमने भी तो सैन किये थे अल्हड़पन में.

मैं कोई सर, तुम कोई जलधार नहीं
जो मिल पायें जाकर आगे किसी डगर
ये तो ना कोई बात नई है दस्तूर पुरातन
चाहना की भावना की, है जग दुश्मन.
                    ***

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

मैं किसनगढ़ी

मेरी जड़ें कहाँ हैं मैं नहीं जानती, पर अब मैं गर्व करती हूँ कि मेरा उपनाम ‘किसनगढ़ी’ हो गया है क्योंकि मैं किसनगढ़ राजवंश के एक पूर्व राजपुरोहित खानदान की वंशबेल बन गई हूँ. यह भी सच है कि मैं आज तक किसनगढ़ नहीं जा पाई हूँ.

जैसा कि मेरे वकील पति बताते हैं, उनके दादा जी पण्डित जयवल्लभ जोशी शास्त्री को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय की संस्तुति पर किसनगढ़ के राजा मदनसिंह ने पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में अपने राजपुरोहित के रूप में बुलाकर नियुक्ति दी थी. दादा जी मूल रूप से उत्तराखंड के अल्मोड़ावासी थे. वे संस्कृत तथा ज्योतिष के विद्वान थे.

किसनगढ़ वर्तमान राजस्थान में अजमेर से लगभग २५ किलोमीटर उत्तर में स्थित है. इस रियासत को जोधपुर के राजकुमार किसनसिंह के द्वारा सं १६०९ में बसाया गया था. किसनगढ़ वर्तमान में अपने स्फटिक खदानों (मार्बल माईन्स) के लिए जाना जाता है. जैसा कि मुझे बताया गया है, यह बहुत खूबसूरत जगह है. अभेद्य किले के चारों ओर गहरी नहर खुदी हुई थी. अब वहाँ पर बहुत से पिकनिक स्थल विकसित किये गए हैं. गोन्द तालाब और फूलमहल होटल दर्शनीय हैं. राजाओं के जमाने में राजसी भव्यता व वैभव सुख अवश्य रहे होंगे.

दादा ससुर जी शायद राजस्थान की अतिशय गर्मी को नहीं सह पाए और जल्दी ही स्वर्गवासी हो गए. राजा जी ने उनके परिवार को पूरा संरक्षण दिया, जागीर में दो गाँव भी दिये. तब उनके दोनों बेटे बहुत छोटे थे. सयाने होने पर मेरे ससुर भगवती प्रसाद जोशी घर जंवाई बन कर अपने ससुराल इलाहाबाद आ गए, और यहीं के होकर रह गए.

मैं एक पंडा परिवार की बेटी, शुरू से चित्रकला में रूचि रखती थी. इसी विषय में परास्नातक डिग्री लेकर बंगाल आर्ट कॉलेज में आर्ट की लेक्चरर हो गयी. मैंने राजा रविवर्मा की चित्रकारिता, मधुबनी आर्ट व किसनगढ़ के आर्ट ‘बनी-ठनी’ के चेहरों की सुन्दर छवियों पर बहुत बारीकी से अध्ययन किया मुखाकृति की एक एक लकीर व भावभंगिमा को पढ़ा तथा समझा है. कलाकारों की पुरानी कृतियों की प्रतिकृतियां भी बनाई और नए आयाम जोड़ कर उन मोहक स्वरूपों में स्वयं को डुबोए रखा.

प्राचीन भित्तिचित्र व मूर्तिकलाओं का राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय इतिहास बहुत विस्तृत है, हमारे देश में मुग़ल काल में मिनिएचर पेंटिंग, पोट्रेट पेंटिंग में अनेक सुन्दर चमकीले रंगों का प्रयोग किया जाता था. इस पर पर्सियन परम्परा की छाप भी स्पष्ट दीखती है. उसी काल में विभिन्न राजघरानों द्वारा चित्रकारी व चित्रकारों को प्रश्रय दिये जाने से महत्वपूर्ण कार्य हुए. भारतीय कला इतिहास में इनको प्रमुखत: कांगड़ा पेंटिंग्स, मैसूर पेंटिंग्स, तंजौर पेंटिंग्स, राजपूत पेंटिंग्स व मधुबनी पेंटिंग्स नाम से जाना जाता है. अंग्रेजी दासता के काल में यूरोपीय स्टाइल में वाटर कलर वाली पेंटिंग्स खूब बनती रही.

उड़ीसा की लोकचित्रकारी में कृष्ण चरित्र को खूबसूरत रंगों से सजाया गया है. इसे ‘पत्र-चित्र’ नाम दिया गया. किसनगढ़ के राजा ने अट्ठारहवीं सदी में निहालचंदर नाम के एक कलाकार को अपने राजकीय नवरत्न का दर्जा देकर हिन्दू देवी-देवताओं तथा रामायण-महाभारत के दृश्य चित्रों को बनवाया जिनमें मुखाकृति व रंगसज्जा अनूठी है. इसे ‘बनी-ठनी’ कला के नाम से जाना जाता है. मैंने इसको देखा, पढ़ा, तथा स्वयं को आत्मसात करने की पूरी कोशिश की है.

यह एक संयोग था कि दीपांकर जोशी से मेरा वैदिक रीति से सुनियोजित विवाह हुआ. वे एक वकील हैं. विवाह के बाद जब उन्होंने मुझे अपने परिवार का पूर्व इतिहास बताया तो मैं यह जानकार बहुत आनंदित व भावविह्वल हो गयी कि मेरे पति के खानदान के तार किसनगढ़ की पूर्व रियासत से जुड़े हुए हैं, जो कि ‘बनी-ठनी’ कला का जन्मस्थान भी है.

मैं अब खुद को सुप्रिया जोशी ‘किसनगढ़ी’ कहलाना पसन्द करती हूँ, और बनी-ठनी पर आगे शोध करके अपने जीवन का ध्येय बनाना चाहती हूँ.
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बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

ठलुआ पंचायत - १

यों तो मेरी ठलुआ पंचायत में लगभग २५ स्थाई सदस्य हैं, पर इनमें मुखर पञ्च दस-बारह ही हैं, जो प्रतिदिन दूर जंगलात की सड़क पर घूमने जाया करते हैं. बस्ती के बीच चबूतरे-चौपाल पर बैठ कर, गप्प हांकने और देश-दुनिया के गंभीर सामाजिक व राजनैतिक मुद्दों पर बहस/राय प्रकट करना अपना अधिकार समझते हैं. सभी ठलुवे अपने अपने पेशे से रिटायर्ड हैं/ पेंशनर हैं/ पारिवारिक जिम्मेदारियों से लगभग मुक्त हो चुके हैं. ये सभी नियमित रूप से अखबार पढ़ते हैं, टेलीविजन देखते-सुनते हैं, यानि मानसिक तौर पर सक्रिय रहते हैं.

मेरा गाँव, गौजाजाली (गुंजा-झाली का अपभ्रंश है. कभी यहाँ पर ‘गुंजा’ की झाडियाँ हुआ करती थी), हल्द्वानी शहर के दक्षिण में बरेली रोड पर बसा हुआ है, जिसे अब जल्दी ही नगर निगम लील जाने वाला है.

इन सभी वृद्ध सुविधाभोगी लोगों को सक्रिय बनाए रखने की शुरुआत मैंने बारह साल पहले खुद अपने से की थी. मानसिक विलासिता के लिए कला, साहित्य और संगीत तीनों विधाओं का आनन्द लेते हुए रिटायर्ड लाइफ को टायर्ड लाइफ नहीं बनने देने की मेरी सोच व प्रयास काम कर गयी. अब ये मित्र मंडली पंचायत का रूप ले चुकी है और सूत्रधार होने के नाते मैं इसका अघोषित सभापति/अध्यक्ष भी माना जाता हूँ. निस्वार्थ चैरिटेबल कार्य-कलापों की वजह से हमारी ये पंचायत चर्चा में रहती है और हम बहुत आनंदित रहते हैं.

अभी तक सब लोग इसे टाइम-पास साधन भी समझते रहे हैं और कार्यकलापों व चर्चाओं की कोई दैनन्दिनी-रिकार्ड नहीं रखा गया, पर अब यह विचार स्वीकार हो गया कि एक मिनिट्स बुक में हर बैठक की कार्यवाही दर्ज की जाये.

इन ठलुआ साथियों का मैं सर्वप्रथम मुक्तसर में परिचय कराना चाहता हूँ.ताकि आगे कार्यवाही रजिस्टर में हर बार लम्बे नाम ना लिख कर इनका सर्वनाम ठलुआ नम्बर लिखना आसान रहे:

न. १- मैं स्वयं, पुरुषोत्तम पाण्डेय. हिन्दी साहित्य में खद्योत सम, आयुर्वेद रत्न, पूर्व में ट्रेड यूनियन लीडर, अब ब्लॉगर.

न. २- रमेशचन्द्र पाण्डेय. इंटर कॉलेज के रिटायर्ड प्रिंसिपल, कर्मकांडी पण्डित, ब्लॉगर्स की रचनाओं को नियमित खंगालने वाले समदर्शी.

न. ३- गोविन्द तिवारी. रेलवे के सिग्नलिग़ डिपार्टमेंट से रिटायर्ड इंजीनियर, भाजपा के कट्टर समर्थक.

न. ४- यू.एन.सिंह. रिटायर्ड बैंक मैनेजर, राजनैतिक विश्लेषक, कॉग्रेस पार्टी के निंदक.

न. ५- डी.सी. पन्त. रिटायर्ड बैंक मैनेजर, रामदेव बाबा के कट्टर समर्थक.

न. ६- नवीन पाण्डेय, रिटायर्ड-फिजिक्स लेक्चरर, भगवान नाम की कोई आस्था नहीं, उर्दू की शायरी से लगाव.

न. ७- पूरन तिवारी. रेलवे से रिटायर्ड इंजीनियर, साहित्यिक अभिरुचि.

न. ८- सुरेश भंडारी. फल-सब्जी के बड़े आढ़तिये, भाजपा के आलोचक, कॉग्रेस के पक्के समर्थक.

न. ९- पूरन पांडे. रिटायर्ड हार्टीकल्चर सुपरवाइजर, सभी बहसों में नकारात्मक-निराशात्मक वाणी.

न. १०- भुवन तिवारी. रिटायर्ड आर्मी सूबेदार, एक घंटा पीटी-परेड. खाओ-पीओ और ऐश करो का सन्देश.

न. ११- टीकाराम देवराड़ी. रिटायर्ड आर्मी सूबेदार, हर वक्त व्यस्त, अलमस्त.

न. १२- गोविन्द वल्लभ जोशी. रिटायर्ड अकाउंट्स ऑफिसर, व्यवस्थाओं से सर्वथा असंतुष्ट.

यह लिस्ट इस प्रकार लम्बी है. फिलहाल अब पहली मीटिंग की बहस रिपोर्ट निम्न है:

न. ४- पता नहीं लोग मोदी को क्यों नहीं पचा पा रहे हैं? वे आज देश के सबसे लोकप्रिय नेता उभर कर आये हैं.

न. ८- लोकप्रियता का आपका क्या मापदंड है?

न. ४- अखबारों के सर्वे से पता चलता रहा है. उनको हिन्दू ह्रदय सम्राट कहा जा रहा है, अब तो मुसलमान भी टोपी पहनाने आ रहे हैं.

न. ८- उनका अन्दुरूनी विरोध तो खुद उनकी पार्टी के दिग्गज नेता कर रहे हैं. यह सर्व विदित है कि वह एक निरंकुश फासिस्ट की तरह व्यवहार करते हैं. और अभी तो दिल्ली बहुत दूर है. जूट ना कपास, यों ही लठमलट्ठा किये जा रहे हैं.

न. ९- कोई भी आये-जीते भैया, भेड़ पर ऊन कोई छोड़ने वाला नहीं है.

न. ७- मैं कई समकालीन हिन्दी में लिखे ब्लॉग्स को इंटरनेट पर पढ़ता हूँ. आजकल सभी लेखक वर्तमान सत्ता के खिलाफ लिख रहे हैं. काँग्रेस की छवि तो घोटालों और महंगाई ने खराब कर रखी है. एक ब्लॉगर शर्मा जी जो ‘राम राम भाई’ और 'सेहत नामा' शीर्षक से लिखते हैं, बहुत कटु शब्दों में कॉग्रेस के खिलाफ मुहिम छेड़े हुए हैं.

न. २- वे तो बाबा रामदेव की तरह विटामिन की गोलियों में राजनीति का पलेथन लगा कर मरीजों को दे रहे हैं.

न. ७- पाण्डेय जी, आपके ‘जाले’ में बैठे-ठाले, कटु सत्य, सामयिकी में आपने भी तो बहुत कटु शब्दबाण छोड़े हैं. आलोचनात्मक भाषा का प्रयोग अतिशय किया है.

न. १- मैं राजनीति पर सीधे सीधे नहीं लिखता हूँ, पर जो महसूस होता है, उस पर कलम अपने आप चल पड़ती  है. मेरा तो ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ वाला हिसाब है.

न. ५- ऐसे कैसे चलेगा, आप निरपेक्ष होकर अन्याय करना चाहते हैं?

न. १- बिलकुल विमुक्त कैसे रहा जा सकता है, पर जब सब तरफ भ्रष्टाचार-अनाचार हो किसी का समर्थन कैसे किया जा सकता है.

न. ६- केजरीवाल के बारे में आपके विचार क्या हैं?

न. १- वो तो नक्कारखाने में तूती के सामान है, पर मैं सिद्धांत रूप से उनकी मुहिम के खिलाफ नहीं हूँ. रही उनकी सफलता की बात, तो वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थाओं यह बिलकुल असंभव है. अगले चुनाव के बाद ये अस्त सा हो जाएगा.

न. ४- कांग्रेसी लोग धक्का लगाकर राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी की तरफ ले जा रहे हैं, क्या आपको नहीं लगता है कि मोदी के व्यक्तित्व के सामने वह बहुत हल्का लगता है?

न. ६- अरे, मोदी से उसको क्यों तोलते हो? राहुल उसके सामने बच्चा लगता है क्योंकि वह धूर्त नहीं है. आज की राजनीति धूर्तता का दूसरा नाम है. इसलिए आगे चल पायेगा इसमें भी संदेह होगा.

न. ८- ये बात आपने बिलकुल सत्य कही है. अब देखिये चुनाव होने तक देश का माहौल क्या बनता है, कौन जानता है. अभी अभी 'द हिन्दू' अखबार में प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष जस्टिस काटजू ने जो बयान व अपील मोदी के खिलाफ दिया है उसमें उनको हिटलर जैसा खतरनाक बताया है: पर मैं कहे देता हूँ कि नए समीकरण बनेंगे, कॉग्रेस समर्थित बहुमत होने पर राहुल को कमान जरूर दे दी जायेगी? ये भी अभी प्रश्नवाचक है.

न. १- हम सब को आशावान रहना चाहिए, देश में भविष्य के बारे में आज जो मन्थन चल रहा है उसका अंजाम सही रहेगा.

आज की बहस का यहीं समापन किया जा रहा है.
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सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

दूध की कीमत

सत्यनारायण शर्मा के दिवंगत होते ही परिवार की सत्ता बड़े बेटे डॉ. रामदत्त शर्मा के पास आ गयी. बेटे की धारणा थी कि पिता जी की पगड़ी उसे पहना दी गयी है इसलिए घर पर सारे आदेश उसी के क्रियान्वित होंगे. उसने बचपन से ही देखा था कि पिता जी किस हेकड़ी के साथ रहते थे और हर बात में अपनी ही चलाते थे, लेकिन उसने कभी यह नहीं देखा कि माँ लाजवंती उनके मनमाने व्यवहार पर कह कुछ नहीं पाती थी, अन्दर ही अन्दर कुढ़ती-उबलती रहती थी. अब बाप के मरते ही बेटा भी उसी अंदाज में आँखें तरेर कर बात करने लगा तो उसके अन्दर छुपी हुई नारीशक्ति विद्रोह करने लगी.

शर्मा परिवार मूल रूप से पुराने आगरा शहर के लोहा मंडी इलाके के रहने वाले थे. वहाँ उनका एक पुश्तैनी मकान भी है, जो अब जर्जर हालत में है. सत्यनारायण अपनी जाति जांगिड ब्राह्मण बताते थे, पर उनका खानदानी पेशा खाती (लकड़ी की कारीगरी) रहा है. राजस्थान के सवाईमाधोपुर में डालमिया सेठ के दामाद का एक बड़ा सीमेंट का कारखाना था तो वहाँ आकर नौकर हो गए. जिंदगी ने एक रफ्तार पकड़ ली. कॉलोनी में एक कमरे वाला क्वार्टर भी मिल गया. इसी घर में लाजवंती ने पहले रामदत्त को जन्म दिया और उसके लगभग पन्द्रह सालों के बाद विजयप्रकाश का जन्म हुआ.

लाजवंती अनपढ़ होने के बावजूद एक संजीदा गृहणी थी, कॉलोनी की महिलाओं में आदरणीय थी क्योंकि उसमें गाना-बजाना, नाचना व कौतुक करने के कई गुण थे. सभी शुभ अवसरों पर उसकी उपस्थिति याद की जाती थी. पति सत्यनारायण स्वभाव से टेढ़ा व रूखा होने के कारण कभी कभी उसे मन मसोस कर रहना पड़ता था, पर इसे भाग्य की विडम्बना समझ कर आम भारतीय स्त्री की तरह सहती जाती थी.

रामदत्त को बड़े प्यार-दुलार व आशाओं के साथ बड़ा किया. वह ठीक ही पढ़ रहा था. इंटर करने के बाद उसे जयपुर के एस.एम.एस. मेडिकल कॉलेज में प्रवेश भी मिल गया. तब पी.एम.टी. की परीक्षा नहीं होती थी. माँ तो माँ होती है, बहुत खुश हो गयी कि बेटा डॉक्टर बनेगा. मिलने जुलने वालों की बधाइयाँ स्वीकार करती और अपने आप पर गौरव करती थी. सत्यनारायण की बात और थी, वह अपने स्वाभव व औकात के अनुसार ओछेपन पर आ गया क्योंकि उसकी बराबरी के कर्मचारियों में से किसी का बेटा अब तक M.B.B.S. डॉक्टर नहीं बन सका था. यह सही था कि एक साधारण परिवार का सपना सच हो रहा था.

पढ़ाई व इंटर्नशिप पूरी होने के बाद, सवाईमाधोपुर के सीमेंट मैनेजमेंट ने डॉ. रामदत्त शर्मा को कारखाने के अस्पताल में बतौर मेडिकल ऑफिसर की नियुक्ति भी दे दी. बड़ा घर मिल गया, अब परिवार बड़े लोगों का परिवार हो गया. डॉक्टर की शादी कर दी गयी. बहू आगरा से ही सजातीय व पढ़ी-लिखी लाई गयी.

सत्यनारायण शर्मा अपने रिटायरमेंट के करीब थे. एक दिन ड्यूटी से घर लौटते समय उनकी साइकिल को एक ट्रैक्टर वाला टक्कर मार गया और उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गयी. इससे परिवार के सभी समीकरण बदल गए. बेटा हाकिमों की तरह व्यवहार करने लगा तो बहू मालकिन की तरह बोलने लगी. नतीजन सास-बहू में तकरार होने लगी.
इसी बीच जब अपने प्रबंधन की कमजोरियों के कारण कारखाना बंदी के कगार पर आ गया तो डॉ.रामदत्त नौकरी छोड़ कर अपनी पत्नी सहित विदेश (ओमान) चला गया. भाई विजय तब पढ़ ही रहा था. लाजवंती विजय को साथ लेकर कोटा शहर में आकर रहने लगी. पति की ग्रेच्युटी-फंड से महावीर नगर में एक जमीन का प्लाट खरीद लिया. उस पर एक छोटा सा घर बनवाने लगी. हिम्मत इस बात से भी थी कि बड़ा बेटा खाड़ी देश में रह कर खूब रूपये कमा रहा था और वक्त-बेवक्त रूपये भेज भी रहा था.

विजयप्रकाश ने जब बी.ए. कर लिया तो कोटा में ही एक कारखाने में स्थाई क्लर्क की नौकरी भी मिल गयी.

आठ साल तक ओमान में काम करने के बाद जब डॉ. रामदत्त शर्मा कोटा लौटा तो अपनी माँ से अपने भेजे रुपयों का हिसाब माँगने लगा. बुढ़िया लाजवंती को उससे ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी उसने एक ही वाक्य में बेटे को निरुत्तर कर दिया, “तू पहले, मेरे उस छाती के दूध की कीमत अदा कर जो मैंने तुझे पिलाया था.” बहरहाल जब आदमी पर स्वार्थ हावी होता है तो सारे तर्क बेमानी हो जाते हैं. बेटा पूरी तरह बहू के कहने पर था. प्रकृति से भी स्वार्थी व उजड्ड था बोला, “दूध तो सभी माएं अपने बच्चों को पिलाती हैं. यह मकान मेरे रुपयों से बना है, इसे खाली कर दो. मैं इसमें अपनी क्लीनिक चलाऊंगा.”
झगड़ा, मनमुटाव बढ़ता गया. ऐसा नहीं था कि डॉक्टर के पास रुपयों की कमी थी या वह दूसरा मकान नहीं खरीद सकता था, पर हेकड़ी और स्वार्थ ने उसे अन्धा बना दिया था. वह माँ तथा भाई प्रति अपने सारे कर्तव्य भूल गया. स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि वह अपने छोटे भाई विजय के विवाहोत्सव में भी शामिल नहीं हुआ.

कुछ परिचीतों/मित्रों के बीच में आने के बाद समझौता हुआ कि डॉक्टर निचली मंजिल पर अपनी क्लीनिक की जगह लेगा, शेष में माँ व विजय का परिवार रहेगा. डॉक्टर अपने रिहाइश के लिए घर के ऊपर दूसरी मंजिल बनाएगा. मकान बन भी गया, डॉक्टर अपनी ऐंठ व ठाट-बात से रहता रहा, पर हँसते खेलते रहने वाली बूढ़ी माँ एकदम मानसिक तनाव में रहने लगी. डॉक्टर व उसके परिवार से बात तक नहीं करती थी. बाद बाद में तो उसका मानसिक संतुलन बहुत बिगड़ गया. वह जोर जोर से प्रलाप करती थी. डॉक्टर व उसकी बहू के लिए अपशब्द प्रयोग करने लगी थी. जब उसकी मृत्यु हुई तो उसके निर्देशानुसार डॉक्टर को अपनी माँ को मुखाग्नि नहीं देने दी गयी.

इस धटनाक्रम को बीते ज्यादा समय नहीं हुआ है. अब कहा जा रहा है कि माँ भूतनी बन कर डॉक्टर के परिवार को परेशान किया करती है. डॉक्टर के बच्चे बार बार फेल हो रहे हैं, घर में एक बार बड़ी चोरी भी हो चुकी है, क्लीनिक पर मरीज आने लगभग बन्द हो गए हैं, और डॉक्टर की श्रीमती के शरीर में ल्यूकोडर्मा उभरने लगा है. इस प्रकार मन में आशंकाएं व डर घर कर गयी हैं कि इस सब के पीछे माँ की बददुआएं ही हैं. अत: माँ की आत्मा की शान्ति के लिए तथा प्रेतात्मा के मोक्ष के लिए डॉक्टर रामदत्त शर्मा ज्योतिषियों व पंडितों की सलाह पर एक बड़ा अनुष्ठान करने जा रहे है. उनको याद है कि एक बार माँ ने अपनी छाती के दूध की कीमत चुकाने को कहा था जिसे अब चुकाना एक मजबूरी हो गयी है.
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शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

चुहुल - ४४

(१)
एक व्यक्ति किसी कार्यवश दूसरे शहर गया. उसको बहुत खुशी हुई कि होटल के जिस कमरे में उसे ठहराया गया उसमें कम्प्युटर भी था और इंटरनेट से ई-मेल की सुविधा भी थी. उसने झट अपनी पत्नी को मेल लिख भेजा, पर एड्रेस में मामूली गलती से वह अन्यत्र चला गया.

जिस महिला के पास वह मेल पहुँचा वह अभी अभी अपने दिवंगत पति को कब्रिस्तान में दफ़न करके घर लौटी थी. मित्र-रिश्तेदारों की संवेदनाएं देखने के लिए जब उसने मेल खोल कर पढ़ा तो बेहोश होकर गिर पडी. परिवार वालों ने जब देखा तो पाया कि इनबॉक्स में मैसेज था, "मैं ठीक-ठाक पहुँच गया हूँ. खुशी की बात यह है कि तुम भी कल शाम तक यहाँ पहुँच जाओगी, मैं बेसब्री से इन्तजार करूँगा."

(२)
एक अमीर व्यक्ति अपने घर के सभी समारोहों को बड़ी भव्यता से यानि दिल खोलकर रूपये खर्च करके किया करते थे. वे जब एक दिन मर गए तो उनके परिवार वालों ने उसी अंदाज में शवयात्रा भी भव्यता यानि बैंडबाजे के साथ सिक्के उछालते हुए निकाली.

उनका प्यारा साला भावुक होकर बोला, “आज अगर जीजाजी ज़िंदा होते तो अपनी अन्तिम यात्रा देखकर कितने खुश होते.”

(३)
जियाउद्दीन अपने १५ बच्चों को जिराफ दिखाने के लिए चिड़ियाघर ले गया. उसके बच्चों ने कभी जिराफ नहीं देखा था. चिड़ियाघर के सुपरवाइजर से जियाउद्दीन ने कहा, “भाई, हमें जिराफ देखना है.”

बच्चों की इतनी बड़ी फ़ौज देखकर हैरान होते हुए सुपरवाइजर ने पूछ लिया, “क्या ये सभी बच्चे तुम्हारे ही हैं?”

जियाउद्दीइन ने बड़े गर्व से कहा, “हाँ सभी मेरे ही हैं.”

इस पर सुपरवाइजर बोला, “वाह, तब तो तुम यहीं ठहरो. मैं जिराफ को यहीं बुला लेता हूँ ताकि वह तुमको देख ले.”

(४)
पुलिस इंस्पेक्टर ने एक औरत से पूछा, “जिस गाड़ी ने आपको टक्कर मारी उसका रंग कैसा था और उसका नम्बर क्या था?”

वह औरत बोली, “मैं गाड़ी का रंग और नम्बर तो नहीं बता सकती, पर उसे एक औरत चला रही थी जिसकी साड़ी पर लाल जरी का बोर्डर था, कानों में मोती के झुमके थे और गले में सोने का लाकेट था.”

(५)
एक जगह पार्टी चल रही थी. बहुत से आदमी और औरतें आये हुए थे.

एक आदमी अपने बगल वाले से बोला, “भाई साहब देखिये, वो सामने वाली टेबल पर जो औरत बैठी है, वह गजब है. पहले तो मेरी तरफ मुस्कुराकर देख रही थी और आँखों से इशारे भी कर रही थी, और अब ऐसे देख रही है मानो कच्चा चबाकर खा जायेगी.
बगल वाला बोला, “इसका मिजाज हर मिनट में इसी तरह बदलता रहता है.”

उसने पूछा, “क्या आप उसको जानते हैं?”

बगलवाले ने कहा, “हाँ, खूब अच्छी तरह, वो मेरी बीवी है.”
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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

सत्य कभी नष्ट नहीं होता

किसी प्राणी के उत्तक से हूबहू दूसरा प्राणी पैदा करने की तकनीक तो कुछ वर्षों पहले वैज्ञानिकों ने खोज निकाली है. जानवरों पर इस विधि का प्रयोग करके क्लोन बनाये गए हैं, पर प्रकृति के नियमों में अनादि काल से एक सी सूरत व गुण वाले कीट-पतंगों से लेकर जानवरों/प्राणियों में यह क्रम चलता आ रहा है. हाँ, बिना बीज के ही केवल उत्तक से ‘नया’ पैदा करना आश्चर्यजनक लगता है. यह भी हॉर्मोन्स का कमाल कहा जाता है कि बिना मुर्गे के संसर्ग के मुर्गियाँ अण्डे दिये जाती हैं. वैसे प्रकृति की बहुत सी अजूबी चीजें अभी तक हमारी समझ से परे हैं.श्रृष्टि के विकास के क्रम को जब हम देखते हैं तो बताया जाता है कि प्राणियों का उद्भव अमीबा से हुआ और अमीबा ऐसा प्राणी है जो विभाजित होकर कई गुणकों में बढ़ता रहता है.

कई लोग मनुष्य का क्लोन बनाने के विरुद्ध हैं. इसके लिए अनेक नैतिक व धार्मिक कारण दिए जाते हैं. लेकिन विज्ञान को इससे क्या मतलब? वह तो निरंतर सत्य की खोज करता रहता है, जो किसी न किसी रूप में फलदाई होती है. अब देखिये जीन्स व डी.एन.ए. के बारे में पहले लोग सोच भी नहीं सकते थे, पर अब पहचान के लिए व्यक्ति विशेष के डी.एन.ए. असाधारण रूप से काम में आ रहे हैं. जैववैज्ञानिक समाचारों में यह भी प्रकाशित हो रहा है कि जीन्स में छेड़छाड़ करके वंशानुगत बीमारियों को दूर किया जा सकता है.

दुनिया की प्राचीन-पौराणिक कथाओं की परिकल्पनाएं भी बहुत मजेदार होती हैं. हमारे धर्म की रामकथा में जब अहिरावण द्वारा राम और लक्ष्मण का अपहरण करके पाताललोक में छुपाया गया, तब ब्रह्मचारी हनुमान जी उनको लेने वहाँ पहुंचे. उनको अपने ही पुत्र से युद्ध करना पड़ा, जो कि वहाँ पर द्वारपाल नियुक्त था. वह हनुमान जी का डुप्लीकेट था. उसकी उत्पत्ति के बारे मे गल्प है कि जब हनुमान जी सीता की खोज में लंका जा रहे थे तो समुद्र लांघते समय उनके शरीर से जो पसीने की बूँद गिरी वह किसी प्राणी द्वारा अपने शरीर में संरक्षित की गयी. इस प्रकार के गल्पों को हम सीधे सीधे नकारना चाहें तो भी इनका उल्लेख कहीं न कहीं मिल जाता है.
अब जीव विज्ञान भी जिस तरह से रोज नए चमत्कार बता रहा है, आगे आने वाले पाँच सौ/हजार वर्षों में क्या गुल खिलाएगा, उसकी कल्पना आज हम नहीं कर सकते हैं.

कुछ लोग यह अंदेशा जाहिर करते हैं कि जिस तरह से दुनिया में आणविक हथियारों के नए नए संस्करण पैदा किये जा रहे हैं, मानव सभ्यता एक दिन अवश्य नष्ट हो जायेगी.

प्रसिद्द वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन से जब यह पूछा गया कि तीसरा विश्वयुद्ध कैसे लड़ा जायेगा तो उन्होंने कहा,"तीसरे का तो पता नहीं, पर चौथा विश्वयुद्ध लकडियों और पत्थरों से लड़ा जाएगा." यानि सब कुछ खत्म हो जाएगा और मनुष्य जाति फिर नए सिरे से मनु-शतरूपा की तरह नई रचना में व्यस्त हो जायेगी.

मैं तो यह मानता हूँ कि यह विषय का नकारात्मक पहलू है. अच्छी बात यह होगी कि हमारी भावी पीढियाँ कई गुना ज्यादा जिम्मेदार व समझदार होंगी. आज से ज्यादा सुविधाओं का उपभोग करेंगी. दूसरे ग्रह-मंडलों में आना जाना सरल होगा. सारा विश्व एक परिवार की तरह रहेगा. आज के इतिहास को पढ़/सुन कर अगली पीढियाँ आनंदित होंगी. खुदानाखास्ता यदि यह सभ्यता नष्ट भी हो गयी तो जगह जगह टाइम-कैप्स्यूल में संरक्षित ‘दृश्य एवँ श्रव्य’ को ढूंढ निकालेंगे. हमारे विषय में अध्ययन करेंगे क्योंकि सत्य कभी नष्ट नहीं होता है.
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मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

कर्मन की गति न्यारी

जिलाधिकारी बी.आर. तेजस्वी साहब की बैठक में कबीर का लिखा तथा अनूप जलोटा का गाया यह भजन अकसर गूंजा करता है:

कबीरा जब पैदा भये, जग हँसे हम रोये;
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये.

यद्यपि जब तेजस्वी साहब पैदा हुए थे तब कोई हँसा नहीं था क्योंकि प्रसव-पीड़ा न सह पाने की वजह से उनकी माँ रामप्यारी अपने नाम को सार्थक करते हुए सचमुच भगवान को प्यारी हो गयी थी. बाप हरिनाथ इस दुर्घटना से पागल हो गया था और अनियंत्रित होकर कहीं चला गया. कहाँ गया, उसका आज तक पता नहीं चला. ऐसे में अनाथ बच्चे को उसके मामा-मामी ने पाला, पाला क्या, पालना पड़ा. उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी. थोड़ी सी जमीन थी जिससे गुजारा पूरा नहीं हो पाता था. इसलिए दूसरों के खेतों में मजदूरी करके काम चलाते थे.

मामा-मामी के दो जुड़वां बेटे रामू और श्यामू पहले से थे इस बच्चे का कायदे से कोई नामकरण संस्कार तो हो नहीं सका, हाँ, विपत्ति को साथ लेकर आया था इसलिए उसे 'बिपत्तू' पुकारा जाने लगा. बिपत्तू अभावों में पलकर, बड़ा होने लगा. ग्राम सभापति ने जोर देकर कहा कि “इस बच्चे को भी स्कूल भेजा करो,” सो एक दिन मामा जी उसे साथ लेकर नाम लिखाने ले गए. दुर्जनसिंह मास्टर ने बिना अपना दिमाग लगाए ही नाम लिख दिया, बिपत्ति राम. अगर वह चाहते तो उस वक्त कोई प्यारा सा, अच्छा सा नाम किसी राष्ट्र नायक या देवता के नाम पर आधारित लिख सकते थे, पर दुर्जनसिंह को अपने अटपटे नाम की शिकायत नहीं थी तो दूसरों पर करम करने की जुर्रत क्यों समझते. इस प्रकार बालक के भविष्य पर ‘बिपत्ति राम’ नाम की बुनियादी मोहर लगा दी गयी.

यह तो भला हो हाईस्कूल के प्रिंसिपल दयानिधि जी का, जिन्होंने सोचा कि भविष्य में कोई ठीक सा उपनाम पहचानसूचक रिकॉर्ड मे दर्ज कर दिया जाये. लड़का पढ़ने लिखने में बुद्धिमान और कुशाग्र था सो अपने मन से ही उन्होंने उसको ‘तेजस्वी’ बना दिया.

बिपत्ति राम तेजस्वी किसी रेगिस्तान में उगे हुए कैक्टस पर खिले सुन्दर पुष्प की तरह अपनी अलग पहचान बनाते चला गया. हायर सेकेण्डरी की बोर्ड परीक्षा में प्रथम आने पर वह सबकी नज़रों में आ गया. वजीफा भी मिलने लगा. क्षेत्रीय विधायक महोदय ने अपने इलाके के इस होनहार विद्यार्थी को सब प्रकार की सलाह व आर्थिक सहायता देकर आगे बढ़ने के लिए बहुत उत्साहित किया. जब इन्सान के अच्छे दिन आते हैं, तो सब तरफ से मार्ग खुलते चले जाते हैं.

सही सोच व अध्यवसाय की बदौलत नौजवान तेजस्वी भारतीय प्रशासनिक सेवा में भी चयनित हुए. वे अब एक आकर्षक, आदर्श व्यक्तित्व वाले अधिकारी हैं.

आजकल वे अपने मामा-मामी के घर से बहुत दूर जरूर हैं, पर दिल से बहुत नजदीक हैं. अपने पर किये उनके जीवनदायी अहसानों को वे याद करते रहते हैं. खुद को वे उनका तीसरा बेटा कहलाना पसन्द करते हैं और पारिवारिक हितों की पूरी तरह देखरेख करते हैं. उधर रामू और श्यामू दोनों ही पढ़ाई में फिसड्डी रहे. अत: आगे नहीं बढ़ सके. अब मामा जी की पहचान उनके भानजे बी.आर. तेजस्वी के नाम से होने लगी है. उसी की वजह से वे पूरे गाँव-इलाके में सम्माननीय हो गए हैं.

सार्वजनिक जीवन में भी तेजस्वी जी का दृष्टिकोण आम प्रशासनिक अधिकारियों से भिन्न है. फालतू दिखावे से दूर गरीब अनाथों के लिए वे सदैव चिंतित रहते हैं.

जब हम भाग्य और कर्मों के बारे में बात करते हैं तो परमात्मा की अदृश्य व्यवस्थाओं पर विश्वास करना पड़ता है.
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रविवार, 10 फ़रवरी 2013

नैनो हाइड्रो -३-मॉडल २११०

कभी कभी हम सपनों में अपने बचपन या अतीत में पहुँच जाते हैं. वही घर-गाँव, माता-पिता की छाँव एवं वे घटनाएं, जो अतीत में घटित हो चुकी हो, हमारे मन-मस्तिष्क में अमूर्त दृश्य सिनेमा की रील की तरह चलने लगती है. सपने के सक्रिय होते ही हम स्वप्न लोक में बहुत तेजी से विचरने लगते हैं. यह सब व्यक्ति की अपनी मानसिक स्थिति तथा परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है.

यहाँ मैं पीछे के समय के सपनों की नहीं बल्कि आगे आने वाले एक सौ वर्षों के बाद की एक कल्पना/स्वप्न के बारे में जो कि एक चार पहिये वाली गाड़ी को बेचने के वर्गीकृत विज्ञापन के रूप में है, उससे रूबरू कराना चाहता हूँ. कैसा होगा यह विज्ञापन? इसका स्वरूप देखिये:

दिनाँक १० फरवरी २११३.
इन्टरनेशनल परमिट, १० हजार किलोमीटर सड़क मार्ग से चली हुई, ६० हजार हवाई किलोमीटर उड़ी हुए तथा ५ हजार किलोमीटर जलयात्रा की हुई फोल्डिंग गाड़ी (पार्किंग स्पेस ६”x६”) सभी आधुनिक  उपकरणों व प्रणालियों युक्त, सोलर पावर के साथ हाइड्रोजन फ्यूल युक्त (दो रिजर्व टैंक) बिकाऊ है. कीमत केवल १५ करोड़ इंडियन रूपये. इच्छुक ग्राहक संपर्क करें. कांटेक्ट न० ००११...............

यह विज्ञापन पढ़ कर एक वंशज बोलेगा, “अरे यह विज्ञापन तो मेरे दादा के दादा ने अब से सौ वर्ष पूर्व ड्राफ्ट बना कर रख छोड़ा था, तब पुरानी गाडियाँ मात्र पचास हजार रुपयों में मिल जाया करती थी. पर वे उडती नहीं थी.”
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शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

निरुद्देश्य

सुरेन्द्रनाथ झा गुडगाँव में ३०० गज के एक प्लाट में बंगला बनाकर रह रहे हैं. वे देश के एक नामी कपड़ा उद्योग के स्पेशल डाइरेक्टर के पद से करीब दस साल पहले रिटायर हो चुके थे. उनकी उम्र अब लगभग ७८ वर्ष की है. उन्होंने जवानी में शादी नहीं की. अधेड़ उम्र में आस्ट्रेलिया गए थे, वहाँ पर एक अंग्रेज महिला मिस ग्रेफीना से दोस्ती हुई और साथ ले आये. वह पहले से तलाकशुदा थी. उसकी वफादारी तो ऐसी थी कि वह नाम की पत्नी बनी रही. करीब १४ साल साथ रह कर वह झा साहब से सारे रिश्ते तोड़ कर वापस आस्ट्रेलिया चली गयी. झा साहब अब सोचते हैं कि पता नहीं किस मनहूस घड़ी में ग्रेफीना उनसे मिली, तब वे अपनी औकात भूलकर खुद भी अंग्रेज बनने की हिमाकत करने लगे थे.

झा साहब को जब तक दम था, ९ महीने विदेशों में बिता आते थे, पर अब मधुमेह व अस्थमा के प्रकोप से ग्रसित हो गए हैं. फैमिली डॉक्टर रोज ही आता है. अपनी ड्यूटी पूरी कर जाता है. घर में ड्राईवर समेत पाँच नौकर हैं, जो उनकी देखभाल करते हैं, पर नौकरों का रिश्ता तो शुद्ध व्यवसायिक होता है. कुछ समय पहले तक ड्राईवर से कभी कभी कहा करते थे, “चलो आज नई दिल्ली घुमाकर लाओ,” पर अब दिल्ली घूमने लायक नहीं रही है, भीड़-भाड, वाहनों का जाम व प्रदूषण की सोच कर उस तरफ जाने का मन नहीं होता है.

पिछले महीने अलीगढ़ जरूर गए थे, जो कि उनका जन्म स्थान है. झा साहब का बचपन वहीं बीता था इसलिए उन गली मुहल्लों के प्रति वे अभी भी संवेदनशील हैं. वहाँ अब उनका कोई परिचित नहीं बचा है, चाचा, ताऊ के परिवार वाले थे, वे भी एक एक करके अन्यत्र बस गए हैं. सब अपने अपने सांसारिक धंधों-उलझनों में व्यस्त होंगे. झा साहब ने पिछले ५० वर्षों में उनकी कभी कोई खोज खबर भी नहीं रखी है. अलीगढ़ शहर का भी बाहरी फैलाव बहुत हो गया है. पुरानी पहचान वाली जगहें सब नैपथ्य में चली गयी हैं. उनके पुराने घर के पास जो शिव मंदिर था, वह वैसा का वैसा है. छुटपन में कई बार सुरेन्द्र माँ-बाप के साथ यहाँ आये थे, पर सयाने होने के बाद उन्होंने देवालयों मे जाकर दर्शन करना छोड़ दिया. वे सचमुच धार्मिक नहीं रहे हैं. कारण उन्होंने कभी भगवान की जरूरत महसूस नहीं की.

सुरेन्द्रनाथ झा के पिता जानकीनाथ झा तालों के कारोबार से जुड़े हुए थे. यह उनका खानदानी काम था, पर जानकीनाथ झा सपरिवार कानपुर आकर बस गए थे. अलीगढ़ से ताले ला कर यहाँ बेचा करते थे.

सुरेन्द्रनाथ झा की माता जी भी खाली बैठना पसन्द नहीं करती थी. फिरोजाबाद से चूडियों की खेप लाकर मोहल्ले मोहल्ले जाकर चूड़ियाँ बेच आती थी. झा साहब को यह सब कल की सी बात लगती है. सुरेन्द्रनाथ ने कानपुर से मैट्रिक पास करके वहीं से मैकेनिकल इन्जीनियरिंग में डिप्लोमा ले लिया. कुछ महीनों तक एल्गिन मिल में अप्रेंटिसशिप करने के बाद सिंघानिया कम्पनी के नए कपड़ा मिल में नौकरी पा गए. ये वे दिन थे, जब न्युयोर्क और लन्दन दोनों जगहों पर एक साथ पेट्रोलियम पदार्थों पर आधारित कृत्रिम धागे का आविष्कार हुआ था और उनसे NY+LON (नाइलोन) नाम दिया गया था. यह कपड़ा उद्योग का एक क्रांतिकारी समय था. शुद्ध कृत्रिम रेशे से या इसकी मिलावट से टेरेलिन, टेरीकॉट व पॉलिएस्टर जैसे नए प्रयोग हुए, जिसने कपड़ा उद्योग का सारा नक्शा ही बदल दिया.

सिंघानिया कम्पनी इस नई तकनीक का विवरण व माइक्रोप्रोसेसर बहुत महंगे दामों में खरीद कर लाई, जिस पर काम करने का जिम्मा जापान में कुछ ट्रेनिंग  दिलाने के बाद सुरेन्द्रनाथ झा को दिया गया.

देश के अन्य प्रतिस्पर्धी कपड़ा उद्योगों की भी नजर इस नई टेक्नोलॉजी पर थी. अहमदाबाद के एक नव उद्योगपति ने सिंघानिया के गर्भगृह में सेंध लगा कर एक स्पेयर माइक्रोप्रोसेसर सहित सुरेन्द्रनाथ झा को चीफ इंजीनियर के पद लालच देकर गुपचुप अपने यहाँ बुला लिया. हड़कम्प मचा, सुरेन्द्रनाथ झा पर मुकदमा दर्ज हुआ, पर नए मालिक दम्ब्वानी ने परदे के पीछे से पूरी मदद की. लेनदेन/समझौता हुआ और कुछ वर्षों के बाद मुकदमा रफा दफा भी हो गया. दम्ब्वानी मैनेजमेंट ने सुरेन्द्रनाथ झा को विशेष दर्जा दिया. विदेश यात्राओं की हर साल सौगातें दी और आर्थिक रूप से मालामाल भी कर दिया क्योंकि सुरेन्द्रनाथ झा की कृत्य से कम्पनी को लाखों का नहीं, कई करोड़ों का लाभ हो रहा था.
सुरेन्द्रनाथ झा कम्पनी में उच्च पदों पर नियुक्त रहे. उन्होंने पाश्चात्य शैली की ऐश भरी जिंदगी जी, पर अब दौलत तो ढेरों है, लेकिन शरीर की मजबूरियों के रहते खुद को लाचार महसूस करते हैं.

आज उन्होंने अपने वकील को बंगले पर बुलाया है और चाहते हैं कि अपनी वसीयत लिखवा डालें. वे पिछले कई दिनों से इसी उलझन में हैं कि इतनी सारी चल सम्पति का वारिस किसको बनाया जाये? वे उलझन में हैं, निरुद्देश्य हैं, हिसाब भी लगा रहे हैं कि जीवन में क्या पाया और क्या खोया!
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बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

बूढ़ा सेमल और बसंत

बागन में आम, जंगलन में नीम बौरायो है,
खेतन में धान्य, बेल-लतान में बसंत बगुरायो है,
भौरन-कीट-पतंगन को पराग-गंध अकुलायो है,
अरे, बूढ़े सेमल, हाय, तू काहे फगुनायो है?

कोयल पंछी कुहुक पड़े हैं, ज्यों नवसंदेसो आयो है,
निम्ब-जमीर नवांकुर लेकर नवचेतन हर्षायो है,
धरती सारी है इठलाती, यौवन खूब सजायो है,
अरे, बूढ़े सेमल ! हाय, तू काहे फगुनायो है?

बातन में मस्ती, खेलन में होरी को रंग बरसायो है,
कोई कहे राधा, कोई कहे कन्हैया आयो है,
रति-रंग तरंग चहुँ ओर चौपायों तक में छायो है,
अरे, बूढ़े सेमल, हाय, तू काहे फगुनायो है?

नहि कलरव- संगीत सगुन, ऐसो कैसो भायो है,
मन ही मन तू हर्षाय रह्यो, कौन मीत बनायो है?
पत्र-विहीनं, पलितं-मुंडम, जर्जर वेष बनायो है,
अरे, बूढ़े सेमल, हाय, तू काहे फगुनायो है?
                            ***

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

हकीम परसादी खां

परसादी खां के दादा लड्डू खां कभी रामपुर रियासत  के खिदमतगारों में शामिल थे. उन्होंने वहीं हकीम हाशिम अली से जर्राही का काम सीख लिया और अधेड़ उम्र में आगरा के ताज इलाके में आकर रहने लगे. घर के बरामदे में बैठक कर ली. दो चार नुस्खे भी याद थे सो गरीब-गुरबा आकर मामूली सी फीस देकर चोट पटक पर पट्टी या फोड़ा-फुंसी पर पुलटिस बंधवा कर अपना ईलाज करवा लेते थे. लड्डू खां ने अपने साहबजादे बाबू खां को दिल्ली के नामी हकीम अजमल खां की खिदमत में यह कह कर भेजा कि “बेटा, उस्ताद से तालीम हासिल करके आओ. आगे ज़माना कीमियागिरी का आने वाला है.”

हकीम अजमल खां साहब का उस जमाने में बड़ा नाम था. उनके पास बीसियों आदमी तो दवाएँ कूटने पीसने का काम करते रहते थे. बाबू खां जितना देख सके सीखते रहे. पाँच साल बाद आगरा लौटे और कायदे से अपनी हिकमत की दुकान खोल ली.

दिल्ली में रहते हुए उन्होंने एक खास बात जो सीखी वह थी कि अपने फन का व्यापारिक प्रचार होना चाहिए. उन्होंने खानदानी दवाखाने वालों के पूरे कारोबारी रहस्यों के बारे में देखा-सुना भी था. अपने ‘हाशमी दवाखाने’ के प्रचार के लिए चार पेन्टरों को चार दिशाओं में खूब पैसा देकर दीवारों पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखने को भेज दिया. इसका व्यापक असर होना ही था. देखते ही देखते दवाखाने की जगह कम पड़ने लगी. उन्होंने बड़े मन से नई जमीन पर बड़ा सा दवाखाना बनवा लिया. अल्लाह के करम से हाथ में शफा था और खूब दौलत बरसने लगी. उनके पाँच बेटे थे जो छुटपन से ही अब्बा के काम में हाथ बँटाते बँटाते काम भी सीखते गए. बड़े बेटे परसादी खां को तिब्बी-यूनानी चिकित्सा पद्धति की पढ़ाई के लिए दक्षिण हैदराबाद भेज दिया, जो बाद में अब्बा के कारोबार के खास वारिस बन कर उभरे. उनके दो छोटे भाई तो अलग कारोबार करने के लिए आगरा से बाहर निकल गए. हकीम इस्माइल खां टूंडला में बस गए और हकीम जफर खां अपने ससुराल अमरोहा में जाकर कारोबार करने लगे.

यों दादा से पोतों तक आते आते परिवार के कुल सदस्यों की तादाद बढ़ते बढ़ते एक सौ के पार हो चुकी है. बड़े बुजुर्ग इंतकाल भी फरमाते रहे, पर परसादी खां १०५ की पकी उम्र में भी बिना लाठी के सहारे सीधे सीधे चल लेते थे. लम्बी सफ़ेद दाढ़ी, सफ़ेद ही पगड़ी, गोल मोटा चश्मा, और रौबीली आवाज उनकी अलग ही पहचान थी. हाँ, अब उनको सुनाए नहीं देता था क्योंकि कान जवाब दे गए थे.

अल्लाह के फजल से परसादी खान के बेटे, पोते, परपोते सब खुशहाल हो गए थे. भाइयों की औलादें भी बहुत आगे बढ़ गयी. खानदान के बच्चे अलीगढ़ युनिवर्सिटी से पढ़ाई करके बड़े सरकारी ओहदों में पहुँच गए हैं. सभी छोटे-बड़े, बड़े दादा का खूब अदब मी करते रहे हैं.

अब इस उम्र में हकीम साहब शारीरिक रूप से लगभग स्वस्थ होने के बावजूद मानसिक रूप से बीमार से हो गए थे. कारण दोनों बेगमें बरसों पहले गुजर गयी थी, दो बेटे भी एक एक करके हार्ट अटैक से जाते रहे, उन्होंने ईलाज का वक्त ही नहीं दिया. दुनिया को कभी केवल राख या चूल्हे की मिट्टी से शफा देने वाले भरोसेमंद हकीम साहब अपने अजीज बेटों को बचाने में बहुत लाचार रहे. अब अल्लाह के नाम के मनके फेरते रहते थे और दिन में कई बार कह उठाते थे, “या परवरदिगार, अब तो मुझे भी उठा ले,” पर अल्लाह को सुनने की फुर्सत कहाँ थी. परसादी खां पड़े पड़े बचपन से आज तक की तमाम घटनाओं को सिनेमा की चालू रील की तरह आँखें बन्द करके देखा करते थे. दादा-दादियों, बीबियों-बेटों, चाचा-चाचियों, भतीजों, व परिवार के जो लोग इंतकाल फरमाते गए सबको अपने हाथों मिट्टी देते रहे. उनके लिए फातिहा पढ़ते रहे. यह सोच कर कि यही इस संसार का दस्तूर है, गमगीन होते थे. उनसे कम उम्र के भाई-बंधु व उनके बच्चे भी एक एक करके चले गए. उनके खुद के चौदह बच्चों में से अब केवल पाँच ही ज़िंदा बचे हैं. अपने दोनों अजीज बेटों को याद करके उनकी गुफा सी बन गयी, आँखें डबडबा कर भर आती थी.

आज सुबह हकीम साहब ने अपने परपोते डॉक्टर अजीम को बुलाकर कहा, “गाड़ी में कब्रिस्तान तक घुमा कर ले आ बेटे, मुझे अपने अजीजों का आरामगाह देखने को मन हो रहा है.” डाक्टर अजीम ने अपनी होंडा सिटी निकाली, परदादा को धीरे धीरे हाथ थाम कर गाड़ी तक ले गया. वे आज बड़ी मुश्किल से गाड़ी तक चल पाए. पिछली सीट पर दादा को बिठा कर उसने गाड़ी शुरू की. सारे रास्ते बहुत भीड़भाड़ थी. जब वह कब्रिस्तान के गेट पर पहुँचा तो चौकीदार हॉर्न सुनकर भी नहीं पहुँचा तो डॉ. अजीम खुद बाहर निकला. गेट की तरफ बढ़ने से पहले उसने दादा को निहारा तो पाया वे निढाल पड़े हुए थे. उसने उन्हें हिलाया दुलाया पर वे तो निष्प्राण से लुढ़क गए. डॉ. अजीम उनको सीधे मेडिकल कॉलेज ले गया, जहाँ जाँच करने पर घोषित कर दिया गया कि हकीम साहब खुदा को प्यारे हो चुके हैं. इस तरह एक युग का अंत हो गया.
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शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

चुहुल - ४३

(१)
एक वकील साहब ने अपना नया कार्यालय खोला. वैसे उनका धन्धा ठीक चल नहीं रहा था. एक दिन जब वे फुरसत में अपने कार्यालय में बैठे थे तो उनको एक आदमी अपनी तरफ आते हुए दिखाई दिया. उसके नजदीक आते ही उन्होंने उसको प्रभावित करने के लिए टेलीफोन उठाया और झूठ-मूठ बतियाने लगे, “हाँ भई, तुम अपने पिता जी को बोल दो कि आपके केस में जीत हो गयी है. मैं आज तक कोई केस हारा ही नहीं हूँ.”
उसके बाद रिसीवर रख कर उस आदमी से बोले, “मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?”
आगंतुक बोला, “मैं बी.एस.एन.एल. का लाइनमैन हूँ. आपका फोन कनेक्ट करने आया हूँ.”

(२)
एक बड़े परिवार में बर्तन साफ़ करने वाली महरी का पहला दिन था. घंटा भर प्लेटें साफ़ करती रही फिर भी जूठी प्लेटें अन्दर से आती रही तो उसने अपने हाथ धो कर मालकिन से कहा, “मैं आपके यहाँ का काम नहीं कर सकती क्योंकि यहाँ जूठी प्लेटें पड़ी पड़ी बच्चे दिये जा रही हैं.”

(३)
एक पत्नी अपने पति से कहती है, “बेटी जवान हो गयी है, पर आपको उसकी शादी की कोई चिंता ही नहीं है.”
पति बोला “चिंता क्यों नहीं है, सब तरफ ढूंढ रहा हूँ पर कोई कायदे का लड़का मिले तब ना. जो मिलते हैं सब गधे हैं.”
पत्नी असंतोषी स्वर में बोली, “मेरे पिता जी भी ऐसा ही सोचते तो मैं अभी तक कुंवारी ही रह जाती.”

(४)
एक बस में किसी स्टॉप पर पुलिस के एस.पी. साहब चढ़े. अन्दर सामने सीट पर एक पुलिस का सिपाही पहले से बैठा था. साहब को आते देखकर खड़ा हो गया. एस.पी. साहब ने उसे बैठ जाने को कहा. खुद खड़े ही रहे. अगले स्टॉप पर जब सिपाही फिर खड़ा होने लगा तो उन्होंने जोर से कहा, “तुम बैठे रहो भाई.” तीसरे स्टॉप पर सिपाही नहीं माना और खड़ा हो ही गया तो साहब ने इशारे से बैठने को कहा. इस पर सिपाही बोला, “सर, मेरा घर दो स्टॉप पीछे छूट गया है, अब तो मुझे उतरने दीजिए.”

(५) 
नैनो तकनीक पर अपने देश की उपलब्धियों पर चर्चा कर रहे अमेरिका, रूस, और चीन देशों के तीन वैज्ञानिक बैठे थे.
अमरीकी बोला, “हमने बाल से भी बारीक सुई बनाने का कमाल हासिल कर लिया है.”
रशियन बोला, “हमको उसमें भी छेद करना आ गया है.”
चीनी बोला, “हमने उस पर ‘मेड इन चाइना’ लिख दिया है.
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