शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

चरमोत्कर्ष


महफ़िलों के लिए सजाये गए गुलदस्ते,
चुनिंदों के लिए महकते हुए पकवान,
कमरों में बंद बहारें,
लदे-भरे बाजार
एक भरते हुए गुब्बारे की तरह
बढ़ाती जा रही है अपना क्षेत्रफल.

दूसरा पहलू  
पसीने से लथपथ-
कृषक की फटी अंगिया
अनजाने में कुछ चरमराती है,
बेबसी बताती है.

कृषक-पत्नी की गोद में-
बिलखता हुआ उसका नादान बालक
रक्तहीन व वस्त्र विहीन
किसी खिलोने या लड्डू के लिए नहीं-
मचलता है झड़बेरी के दानों के लिए.

तभी माँ भुलावा देती है
गुब्बारे फ़ैल कर आने वाले है झड़बेरी तक
और उसके फटने से
झड़बेरी के दाने आयेंगे छिटक कर
बबुआ, तेरे हाथों में.
                      *** 

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

चुहुल-१३


                                     (१)
एक मुस्लिम महिला अपने चार बच्चों के साथ जयपुर की ट्रेन पकड़ने के लिए सवाई माधोपुर के रेलवे प्लेटफार्म पर आ गयी, पर ट्रेन लेट थी तो बच्चों को खाना खिलाने के लिए घर से लाई हुई रोटियों की पोटली के साथ एक पेड़ के नीचे बिठा कर पानी लेने नल पर गयी. जब तक वह वापस आई तो देखा एक बन्दर रोटी की पोटली लेकर पेड़ पर चढ़ गया और मजे से तोड़ तोड़ कर खा रहा था.
महिला को बड़ा दुःख हुआ, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी, ऐसे में उसने अपना रोष इन शब्दों में व्यक्त किया, बड़ा आया हनुमान की औलाद... मुसलमानों की रोटी खा रहा है.

                                        (२)
एक पागल व्यक्ति ने अपने मुँह पर अंगुली रख कर सिसकारा किया और बोला, सब लोग चुप हो जाओ एक अजीब सी आवाज आ रही है.
सभी उपस्थित लोग मौन हो गए लेकिन दो मिनट तक जब कोई आवाज नहीं सुनाई दी तो एक ने कहा, हमें तो कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही है.
पागल बोला अरे, एक-दो मिनट में कैसे सुनाई देगा? मैं पूरे दो घन्टे से कान लगाए बैठा हूँ, मुझे अभी तक सुनाई नहीं पडी.

                                         (३)
एक शराबी, नशे में धुत्त, रात को १२ बजे घर लौटा और बाहर लगे ताले को खोलने का प्रयास कर रहा था पर हाथ इस कदर हिल रहे थे कि ताला और चाबी का कांटेक्ट नहीं हो पा रहा था. देर तक खट-पट की आवाजें सुन कर पड़ोसी बाहर निकल कर आया और बोला, क्यों भाई ताला नहीं खुल रहा है क्या?
इस पर शराबी ने कहा. क्या करूं मेरा पूरा मकान हिल रहा है, तुम जरा मदद करो, इस मकान को पकड़ कर रखो, मैं ताला खोलता हूँ.

                                          (४)
एक मुच्छड़ ने चलाते-चलाते अपनी साईकिल एक महिला से जा भिड़ा दी. महिला को बहुत गुस्सा आया बोली, शर्म करो, इतनी बड़ी बड़ी मूछें रखते हो और साईकिल से टक्कर मारते हो?
मुच्छड़ बोला, बहिन जी, माफ करना, ये मूछें हैं साईकिल की ब्रेक नहीं.

                                          (५)
एक बार गीदड़ों की बड़ी पंचायत बैठी और तय हुआ कि अपना भी कोई सरपंच चुना जाये. सो एक तेज तर्रार गीदड़ को सरपंच चुन लिया गया, पर सब की शक्ल एक सी होने के कारण पहचान के लिए सरपंच की पूंछ पर दो फुट का एक डंडा बाँध दिया गया.
हुआ ये कि अगले ही दिन कुछ कुत्ते, गीदड़ों के पीछे लग गए. गीदड भाग कर जल्दी से अपनी खोह (धरती के अन्दर सुरँग नुमा गुफा) में घुस गए पर सरपंच साहब का डंडा खोह के मुहाने पर तिरछा अटक कर रह गया. दूसरे गीदड़ों ने आवाज दी, सरपंच जी जल्दी घुसिए.
सरपंच बोला, कैसे घुसूं, मेरी सरपंची अटक गयी है.
                                          *** 

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

लावण्यमयी लाखेरी (बूंदी, राजस्थान)


मैं लाखेरी के इतिहास से जुड़ा हुआ हूँ. मैंने अपनी जड़े यहाँ इतनी गहराई तक डाल दी थी, या यों कहना चाहिए कि गहराई तक जड़ें जाने के संयोग बनते चले गए थे.

ज्यों गंगा के किनारे पानी का विशेष महत्त्व नहीं होता, ज्यों तीर्थों के स्थाई निवासी वहाँ के देवस्थानों का कोई विशेष आकर्षण नहीं रखते, और जिस प्रकार सदाबहार हिमालय की वादियों में रहने वाले स्थाई निवासी वहाँ की अलौकिक छटा को नेत्रों से नहीं पी सकते, उसी तरह लाखेरी के घोंसले में रहने वाले व्यक्ति को इसके वास्तविक विलास का आनंद तभी मिल सकता है जब वह बाहर आकर उसे निहारे. अंतरिक्ष में पहुँचने के बाद अंतरिक्ष यात्री ने अपने उदगार बड़े उल्लास के साथ व्यक्त किये कि धरती बहुत सुन्दर व मनोहारी है. मैंने अन्दर से और बाहर से इस भूमि को एक कामगार की हैसियत से भी और एक रचनाधर्मी की दृष्टि से भी देखा है, इसलिए इसको मैं एक पुण्यभूमि व धन्यभूमि के नाम से संबोधित करता हूँ.

धर्म, अर्थ, काम, व मोक्ष, जीवन के ये चारों उद्देश्य यदि कोई प्राप्त करना चाहे तो लाखेरी लाखों स्थानों में से एक अनुपम स्थान है. अरावली पर्वत मालाओं की उपत्यकाओं की कवच में बसी यह प्राचीन नगरी अनेक अभाव-अभियोग होते हुए भी कितने लोगों के पेट पालती है, इसका हिसाब लगाना मुश्किल होगा. शहरों में शहर, और गाँवों में बड़ा गाँव, भारत के हर इलाके का व्यक्ति अपनी अपनी सभ्यताओं की छाप लिए एक महानगरीय विचारों का उदाहरण है. कस्बाई परिवेश के अनेक दोष होते हुए भी यह मातृतुल्य है, जिसके दोष गिनाने का अधिकार पुत्रों को नहीं होता है.

कुछ निराशाबादी लोग यों कह सकते हैं कि लाखेरी में क्या रखा है? यहाँ तो जीवन बेकार बिताना जैसा है. ये उलाहना  ग्लैमर पसंद लोगों का हो सकता है, लेकिन ग्लैमर तो चंद दिनों की चमक है. मैंने दिल्ली व मुम्बई में काफी दिनों तक रह कर देखा है वहाँ सब कुछ होते हुए भी कोई भाईचारा या अपनापन लोगों के जीवन में अनुभव नहीं होता है. वहाँ आदमी मशीन हो चुका है जहा रिश्तों को शुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से देखा जाता है. जैसे तश्तरी में अनेक प्रकार के पकवान करीने से सजा कर परोसे जाते हैं पर उनकी शुद्धता व पवित्रता पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगे होते हैं. जबकि लाखेरी वालों को शुद्ध तथा मीठे अनाज व सब्जियां प्रकृति के सौगात के रूप में प्राप्त हैं. कुवे-बावड़ी ही नहीं, मेज नदी का गंदला पानी भी अपने में स्वाभाविक मनोहारी मिठास रखता है. आप-पास में सवाई माधोपुर या गंगापुर चले जाइए वह स्वाद आपको नहीं मिलेगा.

चारों तरफ खेत-बाड़ी, अमराइयां, बरसात में पहाड़ियों पर उगे घास व पौधों की तरुणाईयाँ, छलछलाते जलाशयों व जलस्रोतों की शहनाईयां, यह सब देखकर, अब से पचास साल पहले मुझे सब कुछ मेरे कौसानी व नैनीताल की ही तरह आकर्षक व सुन्दर लगा था.

हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, आस्तिक-नास्तिक, हर वर्ण के, कद काठी के, शराबी-कबाबी से लेकर राम और रहीम के अनन्य उपासक तक इस घरोंदे की कुशल कामना में मेरे साथ आवाज में आवाज मिलाते हुए एक असीम नाद के स्वर में सुनकर मैं आनंदित व बिह्वल हुआ था तथा उन तारों को आज कई वर्षों के बाद भी झंकृत महसूस कर रहा हूँ.

बन्देश्वर महादेव, बाला जी, चमावाली माता, मूडकटे बाला जी, शालन्ध्रा देव स्थान, लुनाबा देवस्थान, नानादेवी का मंदिर, गाँव के अन्दर राधा कृष्ण मंदिर, लकड़ेश्वर महादेव, भूमिया देव, आदि नारायण चारभुजा जी का प्राचीन मंदिर, मनसापूर्ण गणेश जी और ए,सी.सी. कालोनी के बीच बना नया शिव मंदिर, सभी इस चौहद्दी की रक्षा में अनवरत हिन्दू विश्वासों को बनाये हुए हैं. अलीशेर बाबा की जमीन पर सीमेंट प्लांट बना है. आज भी कंपनी जामा मस्जिद को कुछ मुआवजा/ चढ़ावा देती है? (मुझे आज की यथास्थिति मालूम नहीं है.) गरमपुरा, ईश्वर नगर व गाँधीपुरा में मुस्लिम मतावलंबी अपनी मस्जिदों में, सिख अपने गुरुद्वारा में और ईसाई रामधन चौराहे के पास अपने गिरजा घर में जगत कल्याण की प्रार्थनाएं करते रहते हैं:


सर्वे सुखिन: सन्तु, सर्वे सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, माँ कश्चित दु:ख भाग भवेत.
                       (मनुस्मृति से साभार)

जिस नगरी में देवताओं को गुहार लगती हो, जहाँ लोग केवल राजनीति को धर्म नहीं समझते है, जहाँ स्त्री को माँ-बहिन तथा अन्य रिश्तों से भी पहचाना जाता है, जहाँ लोग एक दूसरे के सुख-दु:ख में हमेशा शामिल रहते हैं, जहाँ का पत्थर, सीमेंट के रूप में राष्ट्र के अनेक निर्माण कार्यों में पिछले नब्बे वर्षों से भी ज्यादा समय से सतत जाता रहा है, आज भी दिन-रात उत्पादन की प्रक्रिया जारी है, ऐसी पावन स्थली को शत शत नमन. प्रकृति ने जिस स्थान को इतना सुन्दर और समृद्ध बनाया है, इसकी गोद में मैं फिर फिर आना चाहूँगा.  
                               ***

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

नफ़रत


मैं और मेरी पत्नी संयुक्त राज्य अमेरिका से जर्मन एयरवेज लुफ्थांसा से भारत वापस आ रहे थे. बीच में फ्रेंकफर्ट में ५ घन्टे का विराम था जहाँ से लुफ्थांसा की कनेक्टिंग फ्लाईट हमको लेनी थी. फ्रेंकफर्ट में अन्य देशों से आने वाले यात्री भी यहाँ इसी तरह इकट्ठे होकर भारत के लिए फ्लाईट पकड़ते हैं. फ्रेंकफर्ट का एयरपोर्ट इतना विशाल है कि कई किलोमीटर दूर दूसरा एंट्री गेट मिलता है. अधिकाश बुजुर्ग यात्री, यात्रा टिकट के साथ ही ह्वीलचेयर की भी बुकिंग करवा लेते हैं, जो एयरपोर्ट पर भागा-दौड़ी व मार्गदर्शन में बड़ा सहायक होता है.

यहाँ नार्वे से आने वाली एक ४० वर्षीय महिला डाक्टर हमें मिली. संयोग से इकानॉमी क्लास में वह हमारी सिटिंग रो में तीसरी यात्री निकली. जैसा कि मैं अपनी आदत के अनुसार हर अजनबी से उसके बारे में पूछताछ करता हूँ, उससे भी मैंने हाय-हेलो किया पर वह शुरू में हाँ, हूँ में अनिच्छा पूर्वक जवाब देती रही. मेरी पत्नी नहीं चाह रही थी कि मैं अनावश्यक रूप से उसकी बातें पूछता रहूँ, लेकिन जब उसने बताया कि वह एक फिजीशियन है तो मैंने भी अपना परिचय एक मेडीकल प्रेक्टिशनर के रूप में उसको दिया. उसके बाद उसने मेडिकल टर्म्स के बारे में मेरी जानकारी के बारे में अनेक प्रश्न पूछे. मैंने उसको बताया कि मैं I.C.M.R. (इन्डियन कौंसल आफ मेडिकल रिसर्च) से संबद्ध एक रिसर्च इंस्टिटयूट में काम कर चुका हूँ तो वह व्यग्रता से मेरे अनुभव सुनने लगी. मैंने बताया कि बैक्टीरियोलॉजी में मीडिया प्रिपरेशन, कल्चर से लेकर सेंसीटिविटी टेस्ट तक की प्रक्रिया द्वारा किस प्रकार डाइग्नोसिस किया जाता है, सीरोलौजिकल टेस्ट में किस तरह जींस व ट्रांसमिटिंग डिजीजेज पर रिपोर्ट दी जाती हैं, हिस्टोपैथोलॉजी में औरगन्स को वैक्स में डालकर पतले स्लाइसों में काट कर स्लाइडों में उतारा जाता है तथा बायो-कैमिस्ट्री में औटोएनेलाइजर किस प्रकार फंक्शन करता है, आदि अनेक विषयों में उसने गंभीरता से मुझ से चर्चा की. वह मेरी इन बेसिक जानकारियों से बहुत प्रभावित लग रही थी. फिर वह कुछ खुल कर बोलने लगी. उसने अपने विषय में बताया कि वह पंजाब में भटिंडा से है. पी.जी. करने के बाद कुछ महीने दिल्ली में लेडी हार्डिंग में अपनी सेवाएं दी और उसके बाद नार्वे सरकार के एक ऐड पर आवेदन किया और १५ साल पहले ओस्लो आ गयी और अब वहीं की होकर रह गयी है. वहीं की नागरिकता उसे मिल गयी है. इस बार कई वर्षों के बाद भारत अपनी बीमार नानी से मिलने जा रही थी.

फ्रेंकफर्ट से नई दिल्ली ७ घंटों का लंबा सफर था, वह कोई किताब पढ़ कर या टच स्क्रीन पर वीडियो देख कर अपने-आप को व्यस्त रख रही थी पर बीच-बीच में हम दोनों से बतियाने भी लगी थी. उसने हमसे हमारे घर-परिवार व व्यक्तिगत जीवन की बहुत पूछताछ की. उसको ये आश्चर्य हो रहा था कि हम एक प्लैंड व व्यवस्थित जीवन जी रहे हैं और अपनी शादी की गोल्डन जुबली मना चुके हैं. उसका ख्याल था कि भारत में अधिकाँश लोग अज्ञानता, अशिक्षा, दरिद्रता, स्वार्थपूर्ण, अनियमित जीवन के शिकार हैं. सफर के अंत में उसने एक छोटी सी किताब मुझे दी, जिसकी जिल्द पर नाम लिखा था, I  Hate Men. उसने मुझसे कहा कि यह उसकी संक्षिप्त autobiography है और मैं उसे घर जा कर ही पढूं.

घर पहुँच कर उस पुस्तक को मैंने एक घन्टे में आद्योपांत पढ़ डाला. मुझे दु:ख हुआ कि उसके विचारों में अनेक गलतफहमियां थी जिनको मैं दूर कर सकता था. क्योंकि उसने बाल्यकाल में जो भोगा और अनुभव किया वह भारतीय समाज का एक विद्रूप चेहरा व अपवाद है. प्रथम वचन में लिखी उसकी आत्मकथा का संक्षिप्त इस प्रकार है: मैं अमृता उर्फ अमृत कौर बचपन में ही मातृहीन हो गयी थी. पिता आर्मी में मेजर थे. मेरे डैडी ने मेरी मॉम को बहुत परेशान किया, जिस कारण उसने खुद ही अपने जीवन का अंत कर लिया.... I hate my dad. मुझे नौकरों के भरोसे रखा गया जिन्होंने मुझे हमेशा परेशान किया. मुझे molest करने की भी कोशिशें भी की गयी. मैं होस्टल में रहने लगी. मेरी हंसी बचपन में ही छीन गयी थी.... कॉलेज में भी लड़कों ने मेरे साथ योन दुर्वव्यवहार करने की कोशिश की. मुझे लगने लगा कि भारत में लड़कियों के लिए आत्मसम्मान जैसी कोई चीज नहीं बची है. उनको खिलौना समझा जाता है. I hate India.… कहने को भारत की संस्कृति वैदिक व नैतिक है पर मुझे यह जंगली जानवरों की संस्कृति लगती है. I hate Indian culture.… मैंने आजीवन कुंवारी रहने का निश्चय किया है. मैं किसी पुरुष की मित्रता स्वीकार नहीं करती हूँ. I hate men.... इसीलिये मैं यहाँ स्वीडन की वादियों में श्वेत बर्फीले धरती-आसमान के बीच अपने जीवन को ट्यूलिप के फूल की तरह अलग से सहेजे हुई हूँ.

अमृता ने ये सम्पूर्ण बातें बड़े मार्मिक ढंग से लिखी हैं. एकांत की नीरवता में जैसे सारे सांसारिक सुख खो गए हों. काश ! वह मुझे दुबारा मिलती तो मैं उसे वास्तविक भारतीय वांग्मय संस्कृति व सभ्य समाज के भी दर्शन करा कर प्यार के अनेक रूपों के विषय में बता सकता.

मैं उसकी किताब में छपी ई.मेल एड्रेस द्वारा ये बताना चाहूँगा कि जो उसने देखा-भोगा वह अवश्य ही दुर्भाग्यपूर्ण था, पर सब ऐसा नहीं है. ईश्वर की बनाई इस प्रकृति में बुराइयों से ज्यादा अच्छाइयां भी है. भारत भी इसका अपवाद नहीं है.
                                   ***

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

गुरू जी


शंकरलाल दीक्षित जी को सब लोग गुरू जी के नाम से संबोधित करते थे. वे हमारे हाईस्कूल के फिजिकल इंस्ट्रक्टर थे. स्कूल में उनका एक अनुशासन होता था और सभी लड़के-लड़कियों को अभिभवकों की तरह डांट भी दिया करते थे. राष्ट्रीय दिवसों पर जब हमारी परेड होती थी तो वे नियंत्रक होते थे. उनकी आवाज इतनी बुलंद थी कि स्कूल के मैदान के चारों ओर बैठे हुए दर्शक-श्रोता भी लाउडस्पीकर की आवाज की तरह सुन सकते थे.

उनके व्यक्तिगत जीवन के विषय में तब हम लड़कों को कुछ भी मालूम नहीं था. जब मैं १२ साल बाद बतौर प्राध्यापक उसी स्कूल में आया तो पुराने अध्यापकों में से केवल गुरू जी ही वहाँ मिले और उनको पाकर मुझे बहुत हर्ष हुआ. उनके साथ बैठ कर अनेक पुरानी यादों को दोहराया गया. मुझे आवास चाहिए था तो उन्होंने अपने निजी मकान में मुझे दो कमरे किराए पर भी दे दिये. नजदीक आने पर मुझे मालूम हुआ कि गूरू जी महज तीस वर्ष की उम्र में विधुर हो गए थे, परन्तु उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया. उनका इकलौता पुत्र कार्तिकेय अब आई.आई.टी., रुड़की में पढ़ रहा था और घर में बूढ़ी माता जी, जिनकी उम्र अब लगभग ८० वर्ष हो चुकी थी, बरसों से बेटे-पोते के हितार्थ सर्वस्व न्योछावर करती रही थी.

माता जी बहुत मृदुल स्वभाव की, मेहनती, व धार्मिक प्रवृतियों वाली थी. उनके सानिध्य में अपने परिवार को लाकर मैं भी अपने आप को धन्य समझ रहा था. गुरू जी बहुत हँसमुख एवं खुशमिजाज़ किस्म व्यक्ति थे, उनका ये नया स्वरुप मुझे  उनके घर में ही देखने को मिला. माता जी को वे अन्नपूर्णा देवी कहा करते थे. वे बताते थे कि अभी तक माता जी उनको छोटा बच्चा ही समझती थीं. पत्नी के गुजरने के बाद कार्तिकेय भी पूरी तरह दादी जी पर ही आश्रित रहा. उसका लालन-पालन माता जी ने अपनी गरिमामय छत्रछाया में किया.

गुरू जी आश्वस्त थे कि उनकी नानी १००+ आयु में स्वर्ग सिधारी थी इसलिए माता जी भी शतायु रहेंगी. लोग कहा करते थे कि गुरू जी बहुत भाग्यशाली हैं, पर मुझे एक बड़ा खालीपन उनके जीवन में व घर में हमेशा ही खलता था. बिना घरवाली के घर में सारी नियामतें होते हुए भी होटल के सामान हो जाता है. गुरू जी ५८ वर्ष की उम्र में स्कूल से रिटायर हो गए थे और चार वर्षों के बाद मेरा भी स्थानातरण वहा से करीब ६० किलोमीटर दूर हो गया था. यद्यपि पत्रादि माध्यमों से गुरू जी के संपर्क में रहा, लेकिन यह धीरे-घीरे कम होता गया. १५ वर्षों के बाद जब माता जी के स्वर्ग सिधारने का समाचार मिला तो मैं अपनी श्रद्धांजलि देने गया था.

कार्तिकेय विदेश में, दूर अमेरिका के केलीफोर्निया में, एक मल्टीनेशनल कम्पनी में वरिष्ट पद पर काम कर रहा था. उसने वहीँ अपनी एक जर्मन सहकर्मी से विवाह कर लिया था. वह भी दादी के अन्तिम दर्शनों के लिए पहुँच गया था. उसका आना गुरू जी के लिए ज्यादा राहत देने वाला नहीं था क्योंकि उसे जल्दी ही वापस जाना था. चूंकि माता जी अन्तिम समय तक गुरु जी की केयर टेकर की तरह रही, अब उनके जाने के बाद गुरू जी निपट अकेले हो गए. कार्तिकेय उनको अपने साथ ले जाना चाहता था पर गुरू जी इसके लिए बिलकुल राजी नहीं थे. माता जी के जाने के बाद गुरू जी के लिए जैसे सारे काम खतम हो गए थे. मैं कल्पना करता था कि इतना लंबा विधुर जीवन जीने के बाद अब शायद उनको महसूस हो रहा होगा कि दु:ख-सुख बांटने के लिए कोई साथी होना चाहिए था.

जीवन की आपाधापी में किसको फुर्सत है जो दूसरों के बारे में सोचे? हम सभी सांसारिक लोग अपने-अपने गुणा-भाग में व्यस्त हो जाते हैं. ये अच्छा हुआ कि कार्तिकेय के जोर देने पर उन्होंने एक फुल-टाइम नौकर रख लिया और अब वही गुरू जी के घर के व व्यक्तिगत कार्यों की देखरेख कर रहा था, पर नौकर तो नौकर होता है उसमें समर्पण भाव भी हो जरूरी नहीं है. वह कितने दिन टिकेगा इसकी भी गारन्टी नहीं होती है.

पिछले महिने सर्विस से रिटायरमेंट के बाद जब मैं गुरू जी से मिलने व उनका आशीर्वाद लेने उनके घर पहुँचा तो मालूम हुआ कि वे तो नई दिल्ली में एक वृद्धाश्रम में काफी समय पहले चले गए थे. मैं उनको ढूंढते हुए दिल्ली गया. उनसे मिला तो मुझे पाकर वे अपने को भाव विह्वल होने से नहीं रोक पाए. वे बहुत दुबले हो गए थे. उन्होंने बताया कि वृद्धाश्रम में सब तरह से उनकी देखभाल होती है. अनेक लोग उनकी ही तरह जीवन का अन्तिम सोपान यहाँ गुजार रहे हैं, पर ये सब बताते हुए उनकी वाणी में दर्द साफ़ झलक रहा था.

मैंने गुरू जी से जब कहा कि आप मेरे भी पिता तुल्य हैं और अगर मेरा अनुरोध स्वीकार करें तो मेरे घर चल कर रहें. हम लोग धन्य हो जायेंगे.

गुरू जी बहुत देर तक सोचते रहे और अंत में राजी हो गए. वे मेरे घर पर पिता तुल्य ही रह रहे हैं. हमारी खूब गपशप व बातें जमती हैं. ऐसा लगने लगा है कि गुरू जी में एक नया जोश व जागृति आ गयी है. हम साथ घूमते भी हैं. मेरे परिवार के सभी लोगों को उनका आना और उनकी सेवा करने में बहुत आनंद महसूस होता है. लगता है उनको भी इस अपनेपन ने अभिभूत कर रखा है.

मैं उनके दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ.
                                           ***

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

अपने-पराये


(मेरी ये कहानी राष्ट्रीय सद्भावना के विषय की लेखन प्रतिस्पर्धा में पुरस्कृत हुई थी, और नवंबर १९७१ के ए.सी.सी. परिवार नामक गृह पत्रिका में प्रकाशित हुई थी.)

मैं बहुत दु:खी था. मुझसे भी ज्यादा दु:खी मेरी पत्नी थी क्योंकि औरतें स्वभावत: अधिक भावुक होती हैं. दु:ख रुपयों के खोने का इतना नहीं था, जितना कि उन रुपयों का भेंट के रूप में होने का था. शर्ट, उसके अन्दर गंजी, और उसमें अन्दर की ओर लम्बी-टेढ़ी जेब, जिसमें दो सौ रुपये एक लिफ़ाफ़े में रखे थे. लिफ़ाफ़े पर दो सौ रूपये लाखेरी कारखाने के लोगों की तरफ से स्थानान्तरण के अवसर पर सप्रेम भेंट" लिखा था. मुझसे पूछा गया था कि मेरी इच्छित वस्तु क्या है. पर लम्बी यात्रा को देखते हुए शाहाबाद जाकर, नकद से कोई इच्छित वस्तु खरीदने की मेरी इच्छा का स्वागत किया गया, और ये वही दो सौ रूपये खो गए थे गलती मेरी थी कि जेब पर पिन नहीं लगाई थी.

निर्धारित तिथि को लाखेरी से चलने से पूर्व ही मुझे कुछ मित्रों ने दृढ़ शब्दों में एक सप्ताह बाद चलने को कहा था क्योंकि अहमदाबाद के दंगों के बाद रास्ते के दो तीन शहरों में साम्प्रदायिक सौहार्द्य बिगड़ा हुआ था किन्तु रेल का रिजर्वेशन हो चुका था और दो दिन पूर्व शुभाकांक्षियों द्वारा विदाई दी जा चुकी थी अत: मैं सपरिवार पूर्वनिश्चित कार्यक्रम के अनुसार चल पड़ा.

लाखेरी स्टेशन पर भावभीनी विदाई, बार-बार विह्वल कर रही थी और उसके बाद एक-एक करके परिचित स्टेशन पीछे छूटते गए. श्यामगढ़ के बाद सब कुछ नया था. मैं, पत्नी, और बच्चे अपने तक ही सीमित हो गए. डिब्बे में कम ही लोग थे, किसी से विशेष बात भी नहीं हुई. हम आपस में ही बातें करते, बाहर देखते, कभी कुछ चबैना करते रहे. शाम ढले रतलाम आया. अनायास मेरा हाथ गुप्त जेब पर गया, किन्तु लिफाफा न था. मैंने जल्दी-जल्दी अन्दर-बाहर सब टटोला लिफाफा गायब था. पत्नी को बताया, पुन: जेबें भी अच्छी तरह देखी गयी, कोई कटी नहीं थी. लिफाफा ऊपर से ही निकल कर गिरा होगा. फिर भी आस-पास सब टटोला, पर भेंट का लिफाफा नहीं मिला. यद्यपि पत्नी ने मुझे धैर्य दिया, फिर भी मैंने महसूस किया कि उन्हें मुझसे अधिक वेदना थी.

नियति का खेल समझ कर हम चुप रह गए. सहयात्रियों से कहना उचित नहीं समझा. किसी को मिला भी हो तो कौन कहेगा? सामने वाली बर्थ खाली थी, हमारे बच्चे खेल रहे थे. बर्थ के नीचे हमारा सामान व हमारी लकड़ी की पेटियां थी, जिन पर पता लिखा था. अब मुझे इनकी चिंता रहने लगी. रतलाम के बाद के स्टेशन से एक सज्जन चढ़े और सामने की बर्थ पर उन्होंने अपना बिस्तर खोला ऊपर-नीचे ताक-झाँक कर हमारी पेटीयों के साथ ही अपना ट्रंक बर्थ के नीचे डाल दिया. व्यक्तित्व से लगा कि वे भी मध्यम वर्ग के हैं. इस बीच वे एक दो बार बाथरूम तक भी गए और अपने आपको व्यवस्थित करते रहे. एकाएक उन्होंने बातचीत शुरू की, "भाई साहब, क्या आप ए.सी.सी. में सर्विस करते हैं?
जी हाँ, मैंने कहा.
सुना है कि आपका मैनेजमेंट कर्मचारियों के लिए बहुत अच्छा है. फिलहाल कुल कितने कारखाने हैं?
१८ कारखाने, दो कोलिअरियाँ, एक फायरब्रिक्स एण्ड पाटरी वर्क्स, एक हैवी इंजीनियरिंग वर्क्स, दो सफ़ेद सीमेंट प्लांट्स है और कुछ कारखानों के साथ ग्राम कल्याण के लिए फ़ार्म तथा सुव्यवस्थित योजना है, जिनसे सैकड़ों गाँव फ़ायदा उठाते हैं.
आप शाहाबाद जा रहे हैं?
जी हाँ.
बहुत दूर ट्रांसफर हुआ ?
जी हाँ, ए.सी.सी. के नौकरी इन्डियन सिविल सर्विस की तरह ही है. कार्यक्षेत्र पूरा भारत है और सभी जगहें देखने को मिलती हैं.
आप आ तो लाखेरी से रहे हैं?
जी हाँ, मगर आपको यह सब कैसे मालूम ?
आपकी पेटियों पर लिखा है. वे थोड़ा सा मुस्कुराए फिर बोले, आपकी कम्पनी का मालिक कौन हैं?
हमारी कम्पनी शेयर होल्डर्स की है. अमीर-गरीब सभी तरह के लोगों के शेयर इसमें हैं. चुने हुए संचालक संचालन करते हैं. हम कर्मचारी लोग भी ऐसा महसूस करते हैं कि हम ही मालिक हैं, मैंने कहा और फिर पूछा, आपको कहाँ तक जाना है ?
आपका पूरा साथ दूंगा, गुलबर्गा तक जाना है.
मुझे आनंदानुभूति सी हुई और मैंने झट पूछा, आपका शुभ नाम? कुछ क्षण के लिए वे अटके फिर बोले, मुझे जमील कहते हैं.
मेरी नजर उनके बिस्तर पर गयी और देखा उनके बिस्तर और मैंने देखा उनके बिस्तर के सिराहने एक लम्बा चाकू छिपा रखा है. फ़ौरन मुझे याद आया कि यह वही इलाका था जहाँ पिछले दिनों दंगे हुए थे, फिर तो मैं अपेक्षाकृत अधिक सावधान हो गया. दो तीन दिन पहले इसी ट्रेन में कुछ वारदातें हुई थी, कहीं ऐसा न हो कि ... सोचते-सोचते मैं कुछ अधिक परेशान हो गया अचानक मुझे अपनी भूल भी याद आई कि मेरे पास आत्मरक्षार्थ एक साधारण हथियार भी नहीं था. मैं अजीब पशोपेश में पड़ गया और यह भी महसूस करने लगा कि वे मुझको स्टडी कर रहे हैं.
वे कुछ कहना चाहते थे पर मैं मौक़ा नहीं देना चाहता था, फिर भी उन्होंने एकाएक मुझसे पूछा, आप कुछ परेशान मालूम पड़ते हैं. क्या रास्ते में कोई चीज खो गयी है? वे कुछ मुस्कुरा से रहे थे.

मैं सपकपा गया. कुछ कहता इससे पहले हमारे वार्ता सुनती हुई मेरी पत्नी बोल उठी, हाँ भाई साहब, एक लिफाफा जिसमें दो सौ रुपये थे कहीं गिर गया है.
अगर वह आपको मिल जाये तो?
सत्यनारायण भगवान की कथा कराऊंगी, पत्नी ने उत्तर दिया.
सचमुच जमील साहब ने लिफाफा, बिलकुल वही लिफाफा निकाल कर मेरी तरफ बढ़ा दिया और बोले, बाथरूम के दरवाजे पर यह पड़ा था.
मैं ठगा सा रह गया. मन कृतज्ञता से भर गया. इसके बाद मैंने उनसे अनेक प्रश्न किये. उन्होंने जो बताया वह अत्यंत हृदयविदारक था. उन्होंने बताया कि वे यहाँ एक मिल में काम करते थे. नौकरी छोड़ कर जा रहे थे क्योंकि हाल के दंगों में गुंडों ने उनकी बहिन और भाई की ह्त्या कर दी थी. बातें करते हुए अनेक बार उनकी आँखें भर आई. हमारे दिलों में भी बेहद दर्द और सहानुभूति उपज आई.

वास्तव में समाज में कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो धर्म एवं जाति के नाम पर विद्वेष फैलाते हैं, अत्याचार करते हैं, निरीह व भोले लोग हमेशा शिकार बनते हैं. मैं सोचने लगा, आखिर ईश्वर या अल्लाह एक ही तो है, इन्सानों में फर्क कहाँ है? फर्क तो कराया जाता है. कुछ लोगों के राजनैतिक स्वार्थों ने ही हमें बांटा है. हमारे देश में व्याप्त ये विष-बीज न जाने कब तक अंकुरित होते रहेंगे?

बच्चे नींद में थे, मै और मेरी पत्नी जमील साहब की दु:ख-गाथा से इतने द्रवित हो गए कि मन की स्थिति को शब्दों में वर्णन नहीं कर पा रहा हूँ. हमें लगा कि किसी ने जंजीर खींची और गाड़ी जंगल में खड़ी हो गयी. सोये हुए कुछ यात्री जाग पड़े. पीछे के डिब्बे से रोने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी. जमील साहब दरवाजे की तरफ चले गए. हम दोनों ने विशेष चिंता नहीं की और इस बीच बच्चों को आराम से अलग-अलग सुलाने का इन्तजाम करते रहे. जमील साहब कुछ मिनटों बाद घबराए से वापस आये और झपट कर अपना ट्रंक खोल कर, एक काला सा कपड़ा निकाल कर मेरी पत्नी की तरफ फैंक कर बोले, बहिन जी आप ये बुर्का पहन लो" यह कहते हुए जमील साहब कांपने लगे.

मेरी पत्नी ने मेरी तरफ देखा और वास्तव में हम दोनों बेहद परेशान हो गए. मैं पसीना-पसीना हो गया और कुछ ढिठाई से बोला, क्यों?

मेरी पत्नी ने बुर्का केवल दूर से देखा था, यहाँ तक कि कभी छुआ भी न था. वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी. डिब्बे के दूसरे छोर पर हल्ला होते ही मेरी पत्नी ने अन्यमनस्क भाव से बुर्का ओढ़ लिया और सहमी सी कोने में बैठ गयी. देखते ही देखते कई लोग डिब्बे में आ गए. उनकी आखों की तलाशी मैं स्पष्ट देख रहा था मैंने अनुभव किया कि जमील भाई की बात सही थी. दस-बारह गुंडे हमारे पास से होकर गुजर गए. बुर्के का ऐसा असर हुआ कि उनकी सहानुभूति पूर्ण दृष्टि हमारी तरफ घूमी और वे निकल गए.

बाद में मालूम हुआ कि वे हमारे डिब्बे से दो-तीन महिला यात्रियों के जेवर लूट कर ले गए. छुरों के नोक पर कई लोगों को भी उन्होंने लूटा. लोगों ने हल्ला-प्रतिवाद भी किया किन्तु सबको जान प्यारी थी, अत: हिंसा से जवाब नहीं दिया जा सका. पुलिस आई, पर गुंडे अँधेरे का फ़ायदा उठाकर जंगल की तरफ भाग गए. सब हक्के-बक्के रह गए.

यह सब इतनी जल्दी हो गया कि एक सपना सा लगा. गाड़ी आगे बढ़ी. मैं सोचता रहा कि आदमी-आदमी में कितना अंतर होता है. जब जमील साहब ने बताया कि वह बुर्का उनकी मरहूम बहिन का था तो मेरी पत्नी का ह्रदय इतना द्रवित हो गया कि वह अपने आंसूं नहीं रोक सकी. जमील भाई से उसने कहा कि वे उसके लिए भाई से भी बढ़ कर हैं और बातों-बातों में उनसे अनुरोध किया कि वे यह बुर्का देकर जाएँ ताकि हमेशा भाई की याद ताजी रहे. इसे जमील भाई ने मान लिया.

यात्रा पूरी हो गयी. उस घटना और इस लेखन के बीच दो राखियां जमील साहब की बहिन उन्हें भेज चुकी है. बुर्का स्नेह और श्रद्धा के साथ रखा हुआ है.
                                        *** 

रविवार, 18 दिसंबर 2011

चुहुल-१२


(१)                                      
एक व्यक्ति ने आपसी बहसबाजी में ही सामने वाले को एक झांपट रसीद कर दी तो सामने वाला गुस्से में तमतमाते हुए बड़ी गंभीरता से बोला, तू ने मुझे जो झांपट लगाई है वह सच्ची में सीरियसली लगाई है या मजाक में लगाई?
झांपट लगाने वाला बोला, "सीरियसली लगाई है. क्या कर लेगा ?
मार खाने वाला बोला, तब तो ठीक है क्योंकि मुझे मजाक बिलकुल पसंद नहीं.

(२)                                      
एक लड़का गली के नुक्कड़ पर सहमा सा खडा था. उससे किसी ने पूछा, तुम्हारा नाम क्या है?
उत्तर- शेर सिंह.
प्रश्न- पिता का नाम?
उत्तर- बहादुर सिंह.
प्रश्न- दादा का नाम?
उत्तर- शमशेर सिंह."
प्रश्न- यहाँ क्यों खड़े हो?
उत्तर- वह सामने जो कुत्ता है, उससे डर लगता है.

(३)                                      
एक मन्त्री जी किसी गाँव में पहुंचे और सरपंच से पूछने लगे, क्या आपके गाँव में कोई बड़ा आदमी पैदा हुआ है?
सरपंच ने बड़ी मासूमियत से उत्तर दिया, महोदय, हमारे गाँव में तो सभी बच्चे ही पैदा होते रहे हैं."

(४)                                       
एक बुढ़िया गलत साइड से सड़क पार कर रही थी. ट्रैफिक पुलिस ने उसे रोकने के लिए बार-बार सीटी बजाई पर उसने एक न सुनी. आखिर सिपाही झुँझलाते हुए उसके पास गया और गुस्से में बोला, ए बुढ़िया, इतनी देर से सीटी बजा रहा हूँ, सुनती नहीं है क्या?
बुढ़िया बोली, अरे हवलदार, मैंने जवानी में ही किसी की सीटी नहीं सुनी, अब बुढापे में तेरी सीटी सुनूंगी क्या?

(५)                                        
दो चूहे एक सड़क पर चले जा रहे थे, उधर से एक हाथी को आता देख एक चूहा बोला, यार, आज इसका रास्ता रोक कर ठुकाई की जाये तो बड़ा मजा आएगा.
दूसरा बोला, जाने दे यार. हम दो हैं और वह अकेला है. लोग क्या कहेंगे?
***    
                                      

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

कृतज्ञता


हम इस देश के आम आदमी
और एक तुम हो, खास.
क्योंकि सबसे अच्छा अन्न तुम खाते हो
मलाई तुम्हारे हिस्से में है
तुम्हारा नाम राष्ट्र के हर किस्से में है.

तुम कहते हो
राष्ट्र तुम्हारे कन्धों पर है,
तुम्हारी दृष्टि राष्ट्र के धन्धों पर है.
इसीलिये हर उत्तम पर-
तुम्हारा ही अधिकार है.
कोई प्रतिवाद करे भी तो क्या?
हमें सब स्वीकार है.

योंकि तुम हमारे नेता हो
राष्ट्र मंच के अभिनेता हो,
भाषण करते थकते हो
महीनों घर छोड़ फिरते रहते हो.

राष्ट्र पर तुम्हारा एहसान है,
राष्ट्र को तुम पर अभिमान है,
राष्ट्र का अन्न तुम्हारे पेट में जाने पर
अपने को कृतज्ञ मानता है
क्योंकि हम अन्न के प्रति कृतज्ञ है
इसलिए तुम्हारे प्रति
हमारी कृतज्ञता दुगुनी हो जाती है.

पर श्रीमान!
उपवास की सीख मत दो
हम बहुत दिनों से भूखे हैं.
                                  ***