गुरुवार, 29 नवंबर 2012

मनभावनी

मोतिया कपोलन में लाली ये गुलाब सी,
नयना हैं सम्मोहनी-दिलनशीं शराब सी.

अबीर बन गया हूँ मैं, मुझको तुमसे प्यार है,
प्यार में बिखेर दो, जाँ तुम्हें निसार है.

छप रहूँ तुम्हारे तन, मोरडे का पँख बन,
पद्मिनी सी बाँध लो, छुप रहूँ तुम्हारे तन.

खिलखिला उड़ेल दो प्यार का अनूप रंग
सिलसिला बना रहे, भीजहूँ तुम्हारे संग.

                           ***

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

उत्तम वृद्धाश्रम

कुछ लोग बाहर से कुछ होते हैं और अन्दर से कुछ और, लेकिन पण्डित उत्तमचन्द्र पुरोहित, जैसे बाहर से उज्जवल-धवल और निर्विकार दिखते थे, अन्दर से भी बिलकुल वैसे ही थे. एकाएक विश्वास नहीं होता कि इस कलियुग में आज भी ऐसे मनीषी पैदा होते रहते हैं.

बामनिया गाँव लगभग दो सौ घरों वाला पुराना गाँव है, जिसमें अधिकतर घर सनाढ्य ब्राह्मणों के हैं. कथावाचक स्वर्गीय पण्डित दीनदयाल पुरोहित के ज्येष्ठपुत्र उत्तमचन्द्र बचपन से ही धार्मिक संस्कारों में उसी तरह पगे हुए थे, जिस तरह सुनार की भट्टी में सोना निखरता है. प्रारंभिक शिक्षा के लिए उनको हरिद्वार के एक नामी गुरुकुल में भेज दिया गया था और वहाँ से अनेक विद्याओं में पारंगत होकर विद्यावाचस्पति की उपाधि के साथ अपने गाँव लौटे. गाँव लौट कर भी उन्होंने बनारस जाने का निर्णय किया जहाँ अंगरेजी व उर्दू भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और इनके साहित्य का अध्ययन किया. तत्पश्चात अनेक मंसूबे लेकर लौट आये.

पण्डित उत्तमचंद ने एक महान भविष्यदृष्टा की तरह जनसेवा का एक व्यापक मानचित्र अपने मन में बनाया और अपने गाँव में गुरुकुल जैसा ही प्रतिष्ठान स्थापित किया, जिसमें आचार्य रहते हुए उन्होंने गाँव के बच्चों के लिए बहुमुखी शिक्षा की व्यवस्था की. यह उन्हीं का प्रताप है कि उनके बाद वाली पीढ़ियों में बामनिया गाँव में पाँच आई ए एस, आठ आई पी एस, दर्जनों इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, वकील, अध्यापक -प्राध्यापक हुए हैं, जो देश-समाज की सेवा में समर्पित हैं.

आजादी के बाद देश में टुच्ची दलगत राजनीति करने वाले या सेवा के नामपर धन बटोरने वाले सेठों/उद्योगपतियों/मठ-महंतों के लिए उनकी यह उपलब्धि ईर्ष्या का सबब हो सकता था, पर उन्होंने शुद्ध रूप से इसे अपने जीवन का निस्वार्थ मिशन बनाया, जिसकी कि आसपास प्रदेशों में कोई समकालीन मिसाल नहीं मिलती है.

पण्डित उत्तमचन्द्र हर दिल अजीज थे. एक अघोषित न्यायाधीश भी थे. गाँव के लोगों में कोई विवाद हो जाये तो लोग थाने या न्यायालय जाने के बजाय उनके पास आकर निपटारा करवा लेते थे. गाँव में नागरिक सुविधाओं के लिए पंचायत उनसे हमेशा मार्गदर्शन लेती रही. उनके जीवन की सरलता में इतनी व्यस्तता थी कि वे आजीवन कुंवारे ही रहे. कई बार विवाह के प्रस्ताव आये पर उन्होंने हमेशा सबको मुस्कुराकर टाल दिया. पैतृक संपत्ति सब उनके भाईयों की देखरेख में थी. उनके बीच वे एक सन्यासी की तरह जीवन जिए. उनकी गरिमा व आभामण्डल विश्वसनीय तथा दर्शनीय थी.

दलगत राजनीति से परे, वे साहित्य व दर्शन पर अपनी लेखनी चलाते रहे. यद्यपि उन्होंने अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं को छपने/छपाने का कोई प्रयास नहीं किया--कारण वे आत्मप्रचार से कोसों दूर रहते थे--लेकिन अब जब वे इस सँसार में नहीं हैं तो उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों के खजाने के प्रकाशन के लिए बहुत से विद्वान/प्रकाशक प्रयासरत हैं. जीवन के अन्तिम २५ वर्षों में उन्होंने भगवदगीता, कुरआन शरीफ तथा बाइबल पर भाष्य लिखे, जो पठनीय हैं. उन्होंने तीनों भाष्यों के अंत में यह वाक्य जरूर लिखा है: ‘सब धर्मों का सार यही है, सत्याचरण और परसुख चिन्तन.’

उम्र के अस्सी बसंत पार करने के बाद उनके मन में आया कि जीवन के शेष दिन हरिद्वार में गंगा मईया के तट पर साधना पूर्वक बिताने चाहिए. गाँव वालों से विदा लेने के लिए प्रस्थान से पूर्व उन्होंने विधिवत अपना श्राद्ध कर्म करवाया. सब को ब्रह्मभोज पर बुलाया. हरिद्वार में एक सुविधाओं वाले वृद्धाश्रम में उन्होंने एक लाख रूपये जमा करके अपने लिए एक सीट बुक करवा रखी थी. गाँव के लोगों ने सजल नेत्रों से इस सम्माननीय बुजुर्ग को विदा किया. एक दर्जन लोग उनके साथ हरिद्वार तक भी गए और छोड़ कर आये.

पुरोहित जी के लिए यह नया अनुभव जरूर था, लेकिन आश्रम के तमाम लोगों से उन्होंने धीरे धीरे स्नेह सम्बन्ध बना लिए. आश्रम का सादगी भरा निर्मल वातावरण उनको खूब भा रहा था, पर अब शरीर पर उम्र का प्रभाव तो था ही, ग्रीष्म व वर्षा ऋतु से लेकर शरद ऋतु तक आबोहवा भी अच्छी लग रही थी, पर जब शिशिर ऋतु आई तो ठण्ड से बहुत कष्ट होने लगा. असह्य होने पर उन्होंने सारी व्यथा अपने भतीजे को लिख डाली क्योंकि उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था. नतीजा यह हुआ कि व्याकुल-चिंतित स्वजन तुरन्त हरिद्वार आकर उन्हें बामनिया गाँव ले आये. जहाँ वे लगभग दो वर्षों तक और जिए. एक दिन हरि कीर्तन करते हुए हृदयाघात हुआ और वे एकाएक चल दिये.

कृतज्ञ गाँव वासियों ने उनकी स्मृति में एक भव्य वृद्धाश्रम बनवाया है, नाम रखा है ‘उत्तम वृद्धाश्रम.’ आश्रम की मुख्य दीवार पर स्व. पण्डित उत्तमचन्द्र के एक आदमकद चित्र के नीचे लिखा है: "कौन कहता है कि अब इस धरा पर देव तुल्य लोग पैदा नहीं होते हैं?"
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रविवार, 25 नवंबर 2012

नामकरण के रुपये

हम सुनते, पढ़ते, और अनुभव करते रहे हैं कि एक राजहठ होता है, एक त्रियाहठ होता है और एक बालहठ भी होता है. हमारे देश में तो अब राजा नहीं रहे, पर जब थे तो उनमें बहुत से फितूरी या हठी हुआ करते थे. वे सर्वशक्तिमान थे इसलिए निरंकुश होते थे. उनके हठ राजसी होते थे, जिसका कोई तोड़ नहीं होता था. त्रियाहठ बहुत संवेदनशील और प्रतिशोधात्मक हुआ करते हैं इसलिए खतरनाक भी माना जाता है. जहाँ तक बालहठ की बात है यह बहुत मनोरंजक व गुदगुदाने वाले होता है.

मैंने एक पत्रिका में यह मजेदार किस्सा पढ़ा कि रेल यात्रा के दौरान एक प्यारा सा ५ वर्षीय बालक घी-रोटी खाने की जिद पर अड़ गया. रोटी तो थी पर घी कहाँ से लाते? बच्चे ने पूरे डिब्बे को सिर पर उठा लिया. मुंहलगा बच्चा था, डांट भी नहीं पा रहे थे. माँ-बाप परेशान हो गए. इतने में एक तीव्रबुद्धि सहयात्री को तरकीब सूझी. उसने तकिये के अन्दर से थोड़ी सी रुई निकालकर रोटी पर रख दी, माँ ने रुई पर रोटी रगड़कर घी-रोटी के रूप में बच्चे के मुँह में ग्रास दिया तो उसने प्रसन्नतापूर्वक रोटी खाई. इस दृश्य को देख रहे सभी यात्री लोट-पोट हुए बिना नहीं रहे.

मेरे घर पर मेरी पौत्री संजना का जब नामकरण संस्कार हुआ तो सभी नजदीकी इष्टमित्रों व पड़ोसियों को प्रीतिभोज पर आमन्त्रित किया था. बहुत बढ़िया ढंग से कार्यक्रम समपन्न हुआ. आजकल के दस्तूर के मुताबिक़ बालिका को शुभाशीषों के साथ रुपयों वाले लिफाफे भी मिले. शाम को उन रुपयों का हिसाब करते हुए धन देने वालों की लिस्ट बनाई जा रही थी क्योंकि यह सामाजिक दस्तूर होता है, जब उनके परिवारों में भी कोई शुभकार्य होगा तो प्रतिदान करते समय लिस्ट देख ली जाती है.

जब नोट गिने जा रहे थे, तो तब सात-वर्षीय पौत्र सिद्धान्त गौर से देख रहा था. उसने उसमें से कुछ रुपये लेने चाहे तो मैंने उसको बताया कि “ये रुपये संजना के नामकरण में आये हुए हैं. इसलिए ये उसी के हैं.” इस बात पर उसने प्रश्न किया कि “मेरे नामकरण पर पर भी तो रूपये आये होंगे, वे कहाँ हैं? मुझको मेरे रूपये चाहिए.”

वह जिद पर आ गया कि "मेरे रूपये अभी दो. अभी चाहिए.” स्वभाव से भी वह तेज रहा है. उसके माँ-बाप ने उसे समझाना चाहा पर बालहठ था वह अड़ गया. मुझे एक तरकीब सूझी और मैंने अपने बैंक की पुरानी चेक बुक का काउंटर फोलियो अलमारी से निकाल कर उसको दिया और कहा कि "तुम्हारे नामकरण के रूपये बैंक में जमा हैं. इस चेक बुक से तुम जब चाहो निकाल सकते हो.”

बैंक का नाम आते ही उसने उत्सुकता से पूछा, “इसमें कितने रूपये हैं?” मैंने उसे बताया कि “बैंक में तो रुपये बढ़ते रहते हैं. अब तक एक लाख तो हो ही गए होंगे.”

सिद्धान्त चेक बुक पाकर बहुत खुश हो गया क्योंकि अपने नामकरण का खजाना उसे मिल गया था. अब जब कि वह सयाना हो गया है, इस बालसुलभ प्यारे संस्मरण को मैं मौके-बेमौके उसे सुनाता हूँ तो वह भी  मुस्कुराए बिना नहीं रहता.

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शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

माँ सच बोलती है

राजधानी से लगभग ३०  किलोमीटर बाहर एक बड़े नेता जी का फ़ार्म हाउस है. उन्होंने यह जमीन बर्षों पहले स्थानीय किसानों से अच्छी कीमत देकर खरीदी थी. चारों ओर दीवार, और उसके ऊपर कंटीली तारों की बाड़ लगी हुई है. अन्दर बहुत बढ़िया आधुनिक सुविधाओं युक्त फ़ार्म हाउस बना हुआ है. तरह तरह के पेड़ लगाए गए हैं. खूबसूरत लैंडस्केप बने हुए हैं. बचे हुए हिस्से में खेती भी होती है. पानी के लिए गहरा ट्यूबवेल बना है. सर्वत्र हरियाली है. इस प्रकार नेता जी के इस घर के ठाठ निराले हैं. उनके पारिवारिक समारोह/पार्टियां गाहे-बगाहे यहाँ आयोजित होती रहती हैं. चाक-चौबंद सिक्योरिटी रहती है.

बगल की जमीन वाले किसान भंवरलाल और उसके परिवार के लिए यह एक स्वप्नलोक जैसा है, जहाँ उनका प्रवेश निषेध है. नेता जी ने भंवरलाल को भी उसकी पाँच बीघा जमीन बेचने के लिए कई बार लालच भरे सन्देश भेजे, पर भंवरलाल को अपनी इस पुश्तैनी जमीन से बहुत लगाव रहा और उसने बेचने से इनकार कर दिया था. उसने सोचा रुपया तो आता जाता है, खर्च भी हो जाएगा, और अपनी अगली पीढ़ी के लिए विरासत नहीं छोड़ पायेगा.

भंवरलाल की जमीन अभी भी ऊबड़-खाबड़ है, नेताजी की दीवार से सटी जमीन पर बड़े बड़े झड़बेरी के पेड़ उगे हुए हैं. ऊसर जमीन है इसलिए केवल बरसाती फसल ही हो पाती है. आज भंवरलाल अपने हल-बैल लेकर जमीन जोतने गया हुआ है. उसकी पत्नी कंचनबाई डलिया में दिन के खाने का सामान रोटियां, साग, प्याज तथा पानी का बर्तन रख कर लाई है. उनका एक पाँच साल का बेटा भी है जो माँ के साथ साथ नंगे पैर खेत में इधर उधर डोल रहा है. धूप तेज है, उसकी माँ उसे बार बार दीवार की छाया में एक स्थान पर बैठाने का प्रयास करती है, पर बालक बहुत चँचल है, मानता ही नहीं.

दीवार के दूसरी तरफ पेड़ों पर बड़े बड़े गुब्बारे टंगे हुए हैं. वहाँ शायद नेता जी के बेटे-बेटी अथवा पोते-पोती का कल रात जन्मदिन मनाया होगा. बच्चे की नजर बार बार उन गुब्बारों पर जाती है. वह उनको ललचाई आँखों से देखता है. उसे इस दुनियादारी की कोई समझ अभी नहीं है. माँ सब समझ रही है कि बबुआ गुब्बारों को हसरत भरी नज़रों से देख रहा है. बेटे को वह झड़बेरी के दानों से खुश करना चाहती है, लेकिन झड़बेरी के पके हुए दाने तो गाँव के छोरे छापरों ने पहले ही तोड़ रखे है, जो बचे हैं वे बहुत ऊंचाई पर उसकी पहुँच से दूर हैं. बबुआ ने जब देखा कि माँ झड़बेरी तोड़ने के लिए प्रयासरत है तो वह थोड़ा उतावला हो गया. माँ को बेटे की उत्कंठा पर बहुत तरस और प्यार आ रहा था, साथ ही नेता जी के वैभव पर ईर्ष्या भी हो रही थी. वह बबुआ को गोद में ले लेती है और उसे परी कहानियों की मानिंद बताती है कि “धूप की गर्मी की वजह से गुब्बारे फूटने वाले हैं और उनके फूटने से जो भटाका होगा उससे झड़बेरी के दाने छिटक कर गिर पड़ेंगे”

बबुआ माँ की बात को तो पूरी तरह नहीं समझ पाता है, पर वह झड़बेरी मिलने की उम्मीद से खुश हो जाता है. उसका विश्वास है कि ‘माँ सच बोलती है.’

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बुधवार, 21 नवंबर 2012

नाड़ी-वैद्य

जब भी कोई बीमार व्यक्ति डॉक्टर, वैद्य या हकीम के पास जाता है तो प्रथम दृष्टया जो परीक्षा वह करते हैं, उनमें हाथ की नाड़ी या नब्ज देखना एक आम रिवाज सा है. ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति वाले डॉक्टर तो इसे पल्स (हृदय की धड़कन की गति) जांच करना बताते हैं, इसके आगे कुछ भी नहीं. स्वस्थ व्यक्ति की पल्स रेट प्रति मिनट ७२ होती है, बीमार लोगों में रोग के अनुसार कम या ज्यादा पाई जाती है. यह बीमारी के बारे में अनुमान लगाने के लिए एक लक्षण समझा जाता है.

बाहरी तौर पर रोगी को हो रही परेशानियों का इतिहास पूछकर और आवश्यक हुआ तो थर्मामीटर, स्टैथेस्कोप से जाँच करके या रक्तादि पदार्थों/विकारों की प्रयोगशाला में जाँच की जाती है. रोग के निदान के और भी अनेक वैज्ञानिक तरीके व उपकरण आज डॉक्टरों के पास उपलब्द्ध होते हैं.

कहते हैं कि पहले समय में वैद्य जी (आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति वाले चिकित्सक) बीमार की नब्ज देख कर ही रोग की जानकारी ले लेते थे. आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के शरीर में तीन तरह के दोष होते हैं वात, पित्त व कफ. सारी चिकित्सा पद्धति इसी सिद्धांत पर आधारित है. यह एक गहन विषय है.

आयुर्वेद के तीन प्राचीन महान ग्रन्थ, जिन्हें वृहदत्रयी कहा जाता है (१) चरक संहिता, (२) सुश्रुत संहिता, (३) वाग्भट्ट; इनमें नाड़ी विज्ञान (नब्ज परीक्षण) के बारे में कोई चर्चा नहीं है, लेकिन शारंगधर आदि अनेक मान्य पुस्तकों इस विषय की विवेचना मिलती है. आधुनिक आयुर्वेदिक चिकित्सकों को यह विषय भी पढ़ाया जाता है.

बहुत से लोगों की मान्यता है कि यह एक फालतू मिथक है कि नाड़ी की गति देखने भर से रोग का निदान होता है. अधिकांश चिकित्सक केवल रोगी व्यक्ति के सन्तोष के लिए उसका हाथ पकड़ते हैं और  नब्ज टटोलने का नाटक भर करते हैं. लेकिन अनेक वैद्य दावा करते हैं कि यह एक विज्ञान है. ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनका दृढ़ विश्वास है कि नाड़ी का जानकार वैद्य रोगी से बीमारी के बारे में पूछताछ नहीं करता है और नब्ज की गति से ही सब मालूम कर लेता है. इसी सन्दर्भ में एक वैद्य जी ने एक बहुत मजेदार किस्सा कह सुनाया: 

"एक सनकी जागीरदार साहब ने एक नाड़ी वैद्य की जाँच करने के लिए उसे अपने महल में बुलाया और कहा कि “रोगिणी पर्दानशीं है इस वजह से सामने नहीं आ सकती है,” इस पर नाड़ी वैद्य ने कहा कि “मरीज के हाथ में एक पतली रस्सी बाँध दीजिए, उसका सिरा मुझे पकड़ा दीजिए.” जागीरदार ने अपनी घोड़ी की अगली टांग में रस्सी बाँध कर बगल वाले कमरे में वैद्य जी को पकड़ा दी. वैद्य जी देर तक रस्सी पकड़ने के बाद बोले, “रोगिणी को दाना, पानी, और चारा दीजिए, भूखी लगती है.”

यह दृष्टान्त अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, पर इसका भावार्थ यह है कि कुछ नाड़ी वैद्य इतने सिद्धहस्त होते हैं कि रस्सी के सहारे भी जाँच लेते हैं. चिकित्सा विज्ञान में अब सब तरह से सूक्ष्म विधाएं विकसित हो गई हैं और शरीर के परीक्षण में पूर्णतया वैज्ञानिक आधार पर शत्-प्रतिशत सही परिणाम उपलब्द्ध होते है, इसलिए अब केवल अनुमानों के आधार पर चिकित्सा करना/कराना बुद्धिमतापूर्ण नहीं है.
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सोमवार, 19 नवंबर 2012

क्योंकि तू सच बोलता है

दीवाली निकल गयी है. बिना बिके हुए दीयों, करवों, घडों का ढेर लगा हुआ है. चाक बन्द पड़ी है. अब तो गाँव के लोग भी मोमबत्ती जलाने लगे हैं. रही सही कसर इन चाइनीज लड़ियों ने पूरी कर दी है. पेट पालने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा.

बुधराम कुम्हार आज बहुत दिनों के बाद मनरेगा में अपने गधे के साथ मजदूरी करने गया है. उसकी पत्नी शान्ति खूंटे से बंधी बूढ़ी गाय और दोनों बकरियों को चारा-पानी देकर घर के लिपे-पुते आँगन में नीम के पेड़ के नीचे खटिया पर सुस्ता रही है. उसका चौदह वर्षीय बेटा अरविन्द गाँव के सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता है. वह बड़ा बुद्धिमान है. हर बार कक्षा में प्रथम आता रहा है. सभी मास्टर लोग उसकी बुद्धिमत्ता की व स्पष्टवादिता की तारीफ़ किया करते हैं. आज उसके स्कूल की छुट्टी है. वह माँ के बगल में खटिया पर आ बैठा है और अन्यमनस्क होकर माँ से पूछता है, “माँ, अगर ये गाँव का मुखिया मर जाएगा तो फिर कौन मुखिया बनेगा?”

माँ ने उत्तर दिया, “उसका बेटा.”

"अगर वह भी मर गया तो?” उसने फिर से प्रश्न किया.

“उसके परिवार का कोई और व्यक्ति मुखिया बन जाएगा.” माँ ने बताया.

उत्कंठित होकर अरविन्द ने एक और प्रश्न किया, “अगर उसके परिवार के सब लोग मर गए तो?”

माँ बेटे के अटपटे सवालों के जवाब देते जा रही थी, बोली, “अगर सब मर गए तो किसी इसके किसी रिश्तेदार को मुखिया बनाया जाएगा, मगर तू ये सब क्यों पूछ रहा है?”

अरविन्द बोला “यों ही, व्यवस्था परिवर्तन की बात सोचता हूँ.”

माँ उसका मतलब समझ गयी. उसने दुनिया देखी है. वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, भ्रष्ट राजतंत्र, ऊँच-नीच सब उसकी जानकारी में है. इसलिए सभी बातों का निचोड़ निकालते हुए वह बेटे से बोली, “मैं तेरा मतलब समझ गयी हूँ, पर तू अपने मन में मुखिया बनने का सपना मत पालना क्योंकि ये लोग तुझे कभी भी मुखिया कबूल नहीं करेंगे क्योंकि तू सच बोलता है.”

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शनिवार, 17 नवंबर 2012

चुहुल - ३७

(१)
एक छोटे से कस्बे में एक बार कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया. बड़े नामी कवि तो पहुंचे नहीं ऐसे ही छुटभइये कवियों को काव्यपाठ के लिए मंच पर बुलाया गया. श्रोता इस कारण आयोजकों से नाराज थे. मुख्य आयोजक राधेश्याम दृश्य से गायब हो गया.
एक कवि जब माइक पर लम्बी लंबी छोड़ रहा था तो बीच में एक दबंग किस्म का आदमी लट्ठ लेकर स्टेज के इर्द-गिर्द घूमने लगा. खतरे की स्थिति को भांपते हुए कवि उससे बोला,“आप ज्यादा परेशान मत होइए, बस आख़िरी चार लाइनें सुनाकर बैठ रहा हूँ.”
लट्ठबाज बोला, “आप सुनाते रहिये, आप तो हमारे मेहमान हैं. मैं तो राधेश्याम को ढूंढ रहा हूँ, जिसने आपको यहाँ बुलाया है.”


(२)
एक विदेश से लौटे धोबी ने शहर में अपनी नई नई लाँड्री खोली. लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए लाँड्री के बाहर बोर्ड भी लगाया, जिसमें लिखा था ‘हम आपके कपड़ों को हाथों से धोकर नहीं फाडते हैं, हमारा सब काम मशीनों से किया जाता है.’

(३)
एक कंजूस आदमी अपने दोस्त को अपनी कुशल-बात का पत्र बैरंग यानि बिना टिकट का लिफाफे में भेजा करता था. तीन-चार बार ऐसा हुआ. दोस्त को तकलीफ होनी ही थी क्योंकि हर बार दस रूपये जुर्माना देना पड़ रहा था.
इस बार दोस्त ने एक भारी सा पार्सल (VPP) कंजूस मित्र के नाम भेजा. मित्र ने अस्सी रुपये देकर पार्सल छुड़ाया, खोला तो देखा कि उसके अन्दर एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था, जिस पर एक कागज़ चिपका था, लिखा था “दोस्त तुम्हारी कुशल पाकर इस पत्थर से भी भारी बोझ मन से उतर गया है.”

(४)
घर जवाँई बन कर ससुराल में रह रहे एक मर्द की पत्नी को उसकी बचपन की एक सहेली मिल गयी तो सहेली बोली, “तू बड़ी किस्मत वाली है. मायके और ससुराल दोनों के मजे एक साथ ले रही है. तेरा पति तो तेरे काबू में होगा?”
इस बात पर वह बोली “बहन, दूर के ढोल सुहावने लगते हैं, मेरा पति रोज रोज अपने मायके जाने की धमकी देता है.”

(५)
दिल्ली में लालकिले से यूनिवर्सिटी को जाने वाली बस में बहुत भीड़ थी. यात्री खड़े खड़े भी जा रहे थे. अचानक ड्राइवर ने जब ब्रेक लगाया तो एक नौजवान गिरते गिरते बचा. उसने धक्के में अपने आगे खड़ी लडकी का सहारा लिया था. लड़की को उसकी यह हरकत नागवार गुज़री. भन्ना कर बोली, “क्या कर रहे हो?”
लड़का संजीदगी से बोला, “पी.एच.डी. कर रहा हूँ, फाइनल स्टेज में हूँ.”
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गुरुवार, 15 नवंबर 2012

तन्हा

                  (१)
डरता हूँ खेल तमाशों में जाने से,
मंदिर या महफ़िल में जाने से
भटके ना कहीं अनजाने में भी
मेरे महबूब की याद तन्हा.
                   (२)
दम-दिलासा देने वालों ने कहा मुझसे
लगा लो दिल जहाँ में और भी कुछ है.
सूझता है नहीं फकीरी में
कि दिल तो दे दिया कब का, बेचारा खो गया तन्हा.
                   (३)
दिन होता है तो रात ढूँढता हूँ
रात आती है तो नींद ढूँढता हूँ,
नींद मिल जाये तो ख्वाब ढूँढता हूँ,
ख्वाब आ जाये तो दिलबर को ढूँढता हूँ,
दिलबर मिल जाए तो फिर खुद को ढूँढता हूँ.
हाय! ये ढूँढने का मुसलसर रफत
जिंदगानी बन गयी है तन्हा.
                   (४)
गुलों से ये गुजारिश है, ना छेड़ें आज खुशबू से
खिजा तुमको भी ना बक्शेगी, हमारा हाल है तन्हा.
                   (५)
गंधी न दे इत्र मुझको
कि मुझे अब गन्ध नहीं सुहाती है
या पहले ला कर दे दवा मेरी
गन्ध मेरे दिलबर के तन की तन्हा.
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मंगलवार, 13 नवंबर 2012

मौलाना गिल्लौरी

पूरे शहर में चाचा गिल्लौरी को कौन बच्चा नहीं जानता है? वे जिधर को निकल जाते हैं, ‘गिल्लौरी-गिल्लौरी ’, चिल्लाते हुए बच्चे उनके पीछे लग जाते हैं. दरअसल अपने को लोगों की नजर में लाने के लिए बरसों पहले ये फंडा उन्होंने खुद ही ईजाद किया था. शुरू में उन्होंने सड़क चलते बच्चों को टॉफियाँ बांटी और ‘गिल्लौरी’ बोलने के लिए उकसाया, लेकिन अब तो छोटे-बड़े सब जानते हैं कि ये इस शहर का नगीना और कोई नहीं ‘मौलाना गिल्लौरी ’ ही हैं.‘मौलाना’ शब्द भी उनकी खुद कि तिकड़मबाजी से मिला था. हुआ यों कि एक बार वे जब पुरानी दिल्ली की चांदनी चौक में टोपियों की दूकान पर गए तो उनको वहाँ ‘तुर्की टोपी’ बहुत पसंद आई ऐसी टोपी उन्होंने शायर मिर्जा ग़ालिब और मुग़ल सल्तनत के आख़िरी बादशाह बहादुरशाह ‘जफ़र’ के चित्रों में देखी थी. जब वे तुर्की टोपी पहन कर शहर में लौटे तो लोगों की नजर में रातों-रात ‘मौलाना’ हो गए.

मौलाना गिल्लौरी ऐसी ऐसी खट्टी-मीठी बातें निकाल कर लाते हैं कि हर कोई लट्टू हो जाता है. उनके नायाब नुस्खों में मच्छरों से बचाव का जो उपाय है, वह बेहद कारगार है. महज दस ग्राम जीरे से निजात पाया जा सकता है. मौलाना गिल्लौरी बहुत गंभीर मुद्रा में बताते हैं कि “मच्छर को गर्दन से पकड़ लो और एक छोटे चिमटे से उसके मुँह में जीरा फिट कर दो, अगर वह अपना मुँह न खोले तो थोड़ी गुदगुदी करके खुलवाओ. बस वह फिर जीरे को मुंह में लिए लिए फिरेगा, निकाल नहीं पायेगा. हाँ मच्छर पकड़ने में थोड़ी मशक्कत आपको जरूर करनी पड़ेगी”

चाचा गिल्लौरी ने एक बार बच्चों को मोर पकड़ने की तरकीब भी बता डाली कि “शाम होते होते जब मोर अपने ठिकाने पर जाता है तो आप जाकर देख लो कि वह कहाँ बैठता है, सुबह सवेरे अँधेरे में ही जाकर उसकी कलगी में एक टिकिया मक्खन की फिट कर आओ. ज्यों ज्यों धूप खिलेगी गरमी से मक्खन पिघल कर उसकी आँखों में आएगा और वह कुछ समय के लिए अन्धा हो जाएगा. तब आप आराम से जाकर उसको पकड़ सकते हैं.” इस तरह बहुत से फंडे चाचा गिल्लौरी  के पास रहते हैं और बच्चे उनका खूब मजा लेते हैं.

यह बात सही है कि वे बच्चों से बहुत प्यार करते हैं. करते भी क्यों नहीं? उनके अपने हरम में ३ बीवियों से १८ छोटे-बड़े बच्चे मौजूद हैं. पूरा घर गुलजार रहता है. पिछली बार मीठी ईद के बाद घर के सभी सदस्यों ने मौलाना से ईदी में सिनेमा दिखाने का वादा लिया था सो, जुम्मे के दिन जब शाहरुख खान-कैटरीना की नई फिल्म लगने वाली थी तो पहले से २१ टिकट (जिनमें दस हाफ टिकट थे) मंगवा लिए गए. सब जने पैदल पैदल सिनेमा हाल के नजदीक पहुंचे ही थे कि एक पुलिस वाले ने मौलाना गिल्लौरी को रोक लिया. पुलिस वाला हाल ही में तबादला होकर यहाँ आया था और मौलाना से अपरिचित था. पुलिस वाला बोला “थाने चलिए”.

मौलाना थाने के नाम से घबरा गए और बोले, "पहले कसूर बताइए. आप जानते नहीं कि हम मौलाना गिल्लौरी है?."

“आप गिल्लौरी हैं या बिल्लौरी, थाने में तो आपको चलना पड़ेगा. इतने सारे लोग आपके पीछे पड़े हुए हैं, घेर रहे हैं, जरूर कोई गड़बड़ मामला लगता है.” पुलिस वाले ने कहा.

जब बच्चों ने खिलखिलाते हुए बताया कि “ये तो हमारे अब्बू हैं,” और मौलाना ने पुलिस वाले के हाथ में ईद का दस्तूर हँसते हुए रखा, तब जाकर आगे बढ़ पाए.

मौलाना गिल्लौरी इस बार कोई बड़ा चुनाव लड़ना चाहते हैं, पर कोई पार्टी उनको घास नहीं डाल रही है इसलिए वे आजाद उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरेंगे. वे चाहते हैं कि उनकी टोपी ही उनका चुनाव चिन्ह हो. उन्हें उम्मीद है कि शहर के सारे बच्चे उन्हें जरूर जीतने में मदद करेंगे.

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रविवार, 11 नवंबर 2012

दीपोत्सव - प्रसंगवश

आज धन-तेरस है. अधिकाँश लोग धन का अर्थ यहाँ पर रुपया-पैसा-दौलत से लगाते हैं. सच तो यह है कि वैद्य धनवंतरि का आज के दिन उदभव हुआ था. पौराणिक गल्पों के अनुसार वे उन चौदह रत्नों में से एक थे जो सुरों व असुरों के द्वारा समुद्र मन्थन में निकले थे. अब व्यवसायिक हित साधने के लिए इसे सीधे सीधे धन से जोड़ दिया गया है. अन्धी दौड़ में सभी चाहते हैं कि उनके पास अधिक से अधिक धन आ जाये. वणिकजन धन संग्रह में ज्यादा प्रवीण होते हैं. अनेक माध्यमों से आम लोगों के दिलों में यह बात बैठा दी गयी है कि आज के दिन सोना, चांदी या बर्तन जरूर खरीदना चाहिए. अंधविश्वास की पराकाष्ठा यहाँ तक है कि पढ़े-लिखे विद्वान कहे जाने वाले लोग भी मोटर-गाड़ी या इस तरह का कीमती सामान खरीदने के लिए इस दिन की प्रतीक्षा करते हैं. तेरस, त्रियोदशी का अपभ्रंश मात्र है, यानि महीने में शुक्ल और कृष्ण, दो पक्ष, चन्द्रमा के उजाले के हिसाब से आते हैं दोनों में उजाला और अन्धेरा भी बराबर रहता है. त्रियोदशी एक तिथि मात्र है. 

दीपावली खुशियों का त्यौहार है, इसके पीछे अनेक दार्शनिक भाव व कथाएं हैं. यह प्रकाशपर्व कृषक वर्ग से लेकर वणिक वर्ग तक सबके लिए एक श्रेष्ठ संक्रमणकाल होता है. इस बहाने घरों की साफ़-सफाई, मित्र मिलन व खुशियों का आदान-प्रदान होता है. अगले दिन गोवर्धन पूजा का भी विधान होता है, हमारे हिन्दू धर्म की ये विशेषता है कि वर्ष भर कुछ न कुछ पर्व चलते रहते हैं.जिससे जीवन में शून्यभाव पैदा नहीं होता है. दीपावली धन की देवी लक्ष्मी के पूजन का भी बड़ा पर्व होता है. सत्य तो यह है कि पैसे को पैसा खींचता है. जो लोग अभावग्रस्त होते हैं, उन्हें उनकी प्रकृति के अनुसार दूसरों का उल्लास देखकर सुख या दु:ख अवश्य व्यापता होगा.

बारूदी पटाखे वातावरण को बहुत प्रदूषित करते हैं. यह चिंता का विषय है. पटाखों से ध्वनि प्रदूषण भी होता है जिसका खामियाजा बच्चे, बूढ़े व बीमार लोगों को भुगतना पड़ता है.

कुछ धनलोभी लोग दीपावली पर जुआ खेलना भी पर्व का एक आवश्यक कर्म मानते हैं. बिना प्रयास के रातोंरात अमीर बनने का ख्वाब इंसानी फितरत है, लेकिन यह धारणा बिलकुल भ्रांतिपूर्ण है. जुए में अनेक हँसते-खेलते परिवार बर्बाद होते हुए देखे गए हैं. सीख के लिए महाभारत की कथा एक अच्छा उदाहरण है. महाभारत के युगान्तकारी युद्ध की जड़ में जुआ और  बेईमानी ही मुख्य कारक थे.

आज देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का श्रोत पूर्णरूपेण धनलिप्सा ही है. गाँधी जी ने कहा था कि धनिक लोगों को खुद को धन के ट्रस्टी के रूप में व्यवहार करना चाहिए, लेकिन आजकल शायद ही कोई ऐसा ट्रस्ट होगा जहाँ भ्रष्टाचार की जड़ें नहीं पहुँच पाई हो.
अंत में उन तमाम गृह स्वामियों/स्वामिनियों को सलाम है जो ‘मनीप्लांट’ को भी कुबेरदृष्टि मानते हैं और धन-तेरस पर इस लतिका की मन से पूजा किया करते हैं. हमने बचपन में नीति के एक दोहे में पढ़ा था:

         गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान ! 
         जब आवे संतोषधन, सब धन धुरि सामान !!

परन्तु यह तो मात्र आप्तोपदेश भर है.
आप सभी को दीपावली की अनेक शुभकामनाओं के साथ.
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शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

पुदीने का फूल

मैंने बचपन से ही पुदीने का स्वाद चखा है और इसकी पौध भी देखी है, पर यहाँ अपने देश में मैंने पुदीने की पौध पर फूल कभी नहीं देखे. गत वर्ष संयुक्त राज्य अमेरिका के ज्योर्जिया राज्य के अटलांटा शहर में अपने बेटी-दामाद के कोर्टयार्ड में पुदीने के ऊँचे पौधों पर छोटे छोटे बैंगनी आभा वाले फूल देखने को मिले. यह पुदीना बहुत खुशबूदार व स्वाद में उतना तीखा चरपरा नहीं था जैसा हम भारत में पाते हैं.

मैंने पढ़ा है कि पुदीना विश्व के सभी उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पाई जाने वाली औषधीय वनस्पति है और आदि मानव से लेकर अब तक लोग किसी न किसी रूप में इसका प्रयोग करते हैं.

चूँकि पुदीने पर कभी फूल देखे नहीं थे इसलिए अजूबा सा लग रहा था. ‘पुदीने के फूल’ पर मुझे होलीकोत्सव पर किया गया अपना एक मजाक याद आ रहा है, जिसे मैं अपने पाठकों के साथ शेयर करना चाहता हूँ.

ए.सी.सी. लाखेरी (जिला बूंदी, राजस्थान) के आवासीय परिसर में हम लोग हर वर्ष होली के धुलंडी के दिन शाम को ३ घन्टे का एक हास्य कार्यक्रम, जिसे मूर्ख सम्मलेन भी कहा जाता था, आयोजित किया करते थे. महीने भर पहले से उसकी तैयारी की जाती थी. मैं उसका मुख्य सूत्रधार हुआ करता था. कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय होता था, नाटक, स्वांग, गीत- कविताएं, समाचार, उपाधि वितरण स्थानीय मुद्दों को लेकर किये जाते थे. पूरे कार्यक्रम में कोई अश्लीलता या भोंडापन बिलकुल नहीं होता था. एक जिम्मेदार लोगों की कमेटी इसे पहले सेंसर भी करती थी. इस आयोजन में किसी न किसी गण्यमान्य व्यक्ति को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित भी किया जाता था. सम्मानित क्या करते थे, उसका ठट्टा करते थे. शीर्षक होता था ‘बुरा ना मानो होली है’.

इस आयोजन के लिए हमारी कमेटी फैक्ट्री के कर्मचारियों व बाजार के दूकानदारों से चन्दा लिया करती थी. बाजार के लोग भी इस आयोजन का बड़ी बेसब्री से इन्तजार किया करते थे. बाजार में मोबिन भाई की एक साइकिल की नामी दूकान थी. उनसे चन्दा नकद ना लेकर गैस-पेट्रोमैक्स आदि प्रकाश की आपद्कालीन व्यवस्था की सेवा ली जाती थी. वे भी बहुत उत्साहित होकर सहयोग करते थे.

मोबिन भाई के वालिद (अब मरहूम) जनाब गुल मोहम्मद भी पहले दूकान पर बैठते थे. शहर में उनकी एक और बड़ी साइकिल की दूकान हुआ करती थी. मुझे मालूम नहीं लोग क्यों उन्हें ‘चाचा पुदीना’ कह कर चिढ़ाया करते थे. उनके साथ कोई ऐसी बात/घटना जरूर हुई होगी कि पुदीना से उनको चिढ़ थी. बच्चे तो बह बड़े लोग भी यह फिकरा उनको सुना कर मजा लेते थे. जवाब में वे गाली भी निकाल देते थे. उनकी यह कमजोरी पूरे इलाके वालों को मालूम थी.

सं १९८१ में मैंने मोबिन भाई का प्रशस्ति पत्र तैयार किया, जिसमें उनको “हे, पुदीने के फूल” से संबोधित किया गया. बकायदा उनको स्टेज पर बिठा कर यह प्रशस्ति पढ़ी गयी. लोगों ने पुदीने के फूल पर बहुत मजा लिया. हमारे लिए बात आई गयी हो गयी. उसके अगले वर्ष होली पर मैं उनसे फिर प्रकाश व्यवस्था के लिए मिलने गया तो वे बिफर पड़े, बोले, “मैं आप लोगों को इसलिए सहयोग नहीं करता कि आप मिलकर सार्वजनिक रूप से मुझे बेइज्जत करें. माफ करें मैं इस बार आपको सहयोग नहीं कर सकता.”

मुझे उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी, फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी. उनको पुदीने का फूल कहने से जो दु:ख पहुँचा, उसके लिए क्षमा माँगी, पर उनकी नाराजी बरकरार रही. जब मैंने उनसे कहा कि अगर वे नाराज ही रहे तो हम इस बार भी स्टेज पर ‘पुदीने के फूल’ पर फिर चर्चा करेंगे, तो वे नरम पड़ गए और पुन: सहयोगी बने. जब तक ये सम्मलेन चलता रहा वे सहयोगी बने रहे.

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बुधवार, 7 नवंबर 2012

रहमनिया

आपने रामकथा तो सुनी या पढ़ी होगी. उसमें एक दृष्टांत निषादराज का भी आता है, जो भगवान राम का परम मित्र बना और अमर हो गया. मैं उसी निषादराज के वंश की वर्त्तमान कड़ी की एक इकाई हूँ, और ना जाने किन अपराधों में शापित हूँ! शापित इसलिए कह रही हूँ कि ऊपरवाले ने मुझे सुगढ़-सुन्दर शरीर और रूप दिया लेकिन रंग पक्का यानि एकदम काला दिया है. यों तो मेरे माता-पिता दोनों ही सांवले थे

पर मैं अभागिन तो एकदम उल्टे तवे के रंग में खिली हूँ. दक्षिण भारत में तो मेरे जोट के बहुत से लोग हैं पर मैं यहाँ उस प्रदेश में जन्मी हूँ जहाँ अधिकतर लोग गोरे-चिट्टे या गोरी चमड़ी वाले होते हैं.

चावल के दानों के बीच मैं अकेली काले सोयाबीन की तरह अलग ही नजर आती हूँ. लोगों ने मेरे बचपन से ही मुझे ‘काली माई’ नाम दे रखा है. मुझे बुरा तो लगता है पर बोलने वालों का मुँह कौन बन्द कर सकता है? पिता काश्तकारी करते थे. समाज की पारम्परिक रीति रिवाज के अनुसार कम उम्र में ही मेरी शादी अपनी रिश्तेदारी में ही कर दी थी, लेकिन मेरा ‘गौना’ नहीं हो सका क्योंकि जिस लड़के से मेरी शादी हुई थी, उसने मेरे काले रंग पर नफ़रत जताते हुए मुझे त्याग दिया. इस बाबत तब मुझे ज्यादा ज्ञान भी नहीं था, लेकिन परित्यक्ता होने का लाभ यह मिला कि हाईस्कूल करने के बाद मुझे नर्स की ट्रेनिंग में प्राथमिकता से चयन कर लिया गया. तदनुसार ट्रेनिंग पूरी करने पर एक अस्पताल में नियुक्ति भी मिल गयी.

मैं काली थी तो क्या हुआ दिलवाली तो थी ही. इधर उधर नजर भटकती रही. एक हैंडसम पर दिल आ गया. मैं उसे अपनाना चाहती थी, लेकिन उसने प्रतिकारस्वरुप जो उत्तर मुझे दिया वह दिल तोड़ने वाला था. उसने लिखत में दिया :

“अमावस की रात में
   आसमान में बादल भरे हों ज्यों
     जुगनू सी टिमटिमाती आँखें
       काली बिल्ली सी तुम मुझ पर झपटना चाहती हो
         तुम्ही बोलो कैसे करूँ में प्यार?
           मुझको अंधियारी रातों की चाह नहीं.”

दुत्कार की यह पहली चोट नहीं थी. कई बार अपने इस रंग के कारण मुझे अपमानित होना पड़ा. एक बार दिल्ली के ऑल इंडिया मेडीकल इंस्टिट्यूट में स्टाफ नर्स के पद के लिये इन्टरव्यू देने पहुंचना था. जल्दी में रेल रिजर्वेशन नहीं हो पाया तो उम्मीद थी कि टीटीई मुझे कोई सीट देकर कृतार्थ कर देगा, पर जब मैंने उससे कहा “ब्रदर, मुझे जरूरी काम से दिल्ली जाना पड़ रहा है. प्लीज  एक सीट या बर्थ मुझे दे दीजिए.” इस पर उसे मानो बिच्छू का डंक लग गया हो वह तपाक से बोला, “मैं तुम जैसी चालू मद्रासी लडकियों को खूब जानता हूँ. दिन में लोगों के घरों में जाकर चन्दा उगाहती हो कि ‘बाढ़ आ गयी, सूखा पड़ गया है,’ और रात में रेल में रिजर्वेशन चाहिये. उतर जा मेरे पास कोई सीट तुम्हारे लिए नहीं है.” अन्य सुनने वाले यात्री ठहाका मार कर हँस रहे थे. सोचती हूँ कि क्या भूलूँ और क्या याद करूँ?

हिन्दू लोग भगवान को कृष्ण इसलिए कहते हैं कि वे काले थे. नाथद्वारे में विराजने वाले श्रीनाथ जी मेरे जैसे ही काले हैं. काले शनिदेव की हजार नियामतों के साथ पूजा की जाती है, पर मैं, जिसकी जिंदगी का मिशन सेवा और प्यार है, सामान्य सदाचार व आदर से भी महरूम रह जाती हूँ क्योंकि मैं इस समाज के नैतिक अनैतिक बंधनों में बंधी रही.

मुझे यह कहते हुए कतई संकोच नहीं है कि सारे के सारे लोग स्वार्थी है, जो केवल अपने सुखों की तलाश में जीते हैं. इहलोक, परलोक की बहुत सी गपबाजी की जाती है. मुझे इन बातों को सुनकर नफ़रत सी हो जाती है, मन विद्रोह करने लगता है, माथे पर तपन होने लगती है.

स्थितियां हमेशा एक सी नहीं रहती हैं. एक दिन ऐसा लगा मानो मेरे जलते-तपते माथे पर किसी ने अपना ठंडा हाथ रख कर अन्दर तक ठंडक पहुँचा दी. वह और कोई नहीं, अब्दुल था, अब्दुल रहमान. जो अपनी दादागिरी व गुंडागर्दी के लिए पूरी बस्ती में बदनाम था. मेरे लिए तो वह अवलम्बन बन कर आया. मुझे बिलकुल नहीं लगता कि वह कोई गुंडा या गैंगस्टर है. वह तो मजलूम, मजबूर व बेबसों का हमदर्द है. उनके लिए वह अपनी जान पर भी खेलकर लड़ पडता है. ऐसे मामले में गुंडई की परिभाषा बदलनी होगी. पर बदलेगा कौन?

उसने मुझे अपना बना लिया और मैं भी उसके साथ अपने को सुरक्षित महसूस करने लगी. उसके तमाम दुर्गुणों में मुझे अच्छाइयां नजर आने लगी, वह मेरे अनछुए जीवन में बहार बन के आया.

यह सच है कि मेरी जाति समाज के ठेकेदारों ने मुझ पर थू-थू किया और मेरा सामाजिक बहिष्कार कर दिया, पर मैं अब्दुल रहमान की अब्दुल रहमनिया बन कर बहुत खुश हूँ और तृप्त हूँ. वह हर मुकाम पर मेरा साथ देता है, मेरा ख़याल रखता है. जलने वाले लोग उसको ‘कलर ब्लाइंड’ कह कर उलाहना देते रहे पर वह मस्तमौला है. उसने अपने घर परिवार तथा छींटाकसी करने वालों की कभी परवाह नहीं की. अब लोग मुझसे इस कारण खौफ खाते हैं कि अब्दुल मेरा रखवाला है.

मेरी भावनाओं को आप समझें या ना समझें इसमें मेरा कोई दोष नहीं है. एक मुझ जैसी स्त्री और लता दोनों ही ऐसे नाजुक बेलड़ी की तरह होते है, जो सहारा देने वाले पर लिपटने को मजबूर होते हैं, चाहे वह सूखे झाड़ हों या कांटेदार वृक्ष. मैं सात जन्मों के काल्पनिक सँसार पर विश्वास नहीं करती हूँ, ना ही मुझे किसी स्वर्ग में जाने की इच्छा है. आमीन.

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सोमवार, 5 नवंबर 2012

चुहुल - ३६

(१)
एक दार्शनिक व्यक्ति अपने विचारों में कहीं गहरे खोये हुए थे. पत्नी ने झकझोरते हुए पूछा, “अब किस सोच में पड़े हुए हो?”
दार्शनिक बोले, “मैं सोच रहा था कि दुनिया में यदि एक भी बेवकूफ न बचे तो कैसा होगा?”
पत्नी ने झल्लाते हुए कहा, “हमेशा अपने ही बारे में सोचते रहते हो, कभी घर के कामकाज की चिंता भी किया करो.”

(२)
एक कबाड़ खरीदने वाला गली में आवाज देता हुआ जा रहा था. गृहिणी ने आवाज सुनी और खिड़की खोलकर उससे पूछने लगी, “क्या क्या खरीदते हो?”
कबाड़ी ने जवाब दिया, “नया पुराना जो भी आप बेचना चाहती हैं, सब ले लूंगा.”
इस पर महिला ने कहा, “शाम को ५ बजे बाद आना इस वक्त मेरे पति घर में नहीं हैं.”

(३)
गुरू जी संस्कृत पढ़ा रहे थे. उसके बारे में कह रहे थे, "यह देवताओं की भाषा है. इसीलिये संस्कृत को देवभाषा भी कहा जाता है.” वे आगे बोले “हमारे पूर्वज देवता थे.”
इस पर एक लड़के ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “गुरू जी, मेरे पिता जी तो बता रहे थे कि हमारे पूर्वज बन्दर थे.”
गुरू जी ने शालीनता से उत्तर दिया, “मैं तुम्हारे खानदान की बात नहीं कर रहा हूँ.”

(४)
एक नवविवाहित जोड़ा मधु मिलन के लिए शिमला गया. वहाँ होटल में एक कमरा एक सप्ताह के लिए बुक कराया. मैनेजर ने कमरे का किराया ५०० रूपये प्रतिदिन बताया. उन्होंने किराए के ७ दिनों के ५०० रूपये के हिसाब से सात दिनों के लिए ३५०० रूपये अलग से रिजर्व रख लिए.
सात दिनों के प्रवास बाद जब होटल से चेक आउट का समय आया तो युवक पेमेंट करने के लिए काउंटर पर गया तो मैनेजर ने ६००० रुपयों का बिल बताया. इस पर युवक ने कहा, “आपने किराया तो ५०० रूपये रोज बताया था?”
मैनेजर बोला, “हाँ, सही बताया था. शेष २५०० रूपये आप लोगों के खाने का बिल है”
युवक ने कहा, “हमने खाना तो एक बार भी आपके यहाँ नहीं खाया है.”
मैनेजर बोला, “नहीं खाया तो इसमें गलती आपकी है, खाना तो तैयार था.”
युवक इस दलील से परेशान होकर अपने रूम में गया. पत्नी को मामला कह सुनाया. पत्नी होशियार थी बोली, “चलो मैं उसको हिसाब बताती हूँ.”
काउंटर पर जाकर युवती मैनेजर से बोली, “मैंने भी आपसे १०,००० रूपये लेने हैं.”
मैनेजर बोला, “किस बात के?”
युवती ने कहा, “मुझे छेड़ने के”
मैनेजर बोला, “मैंने कब आपको छेड़ा?”
युवती, “नहीं छेड़ा तो इसमें गलती आपकी है, मैं तो तैयार थी.”
इस प्रकार नहले पर दहला मार कर मैनेजर को शर्मिन्दा किया और तय किराया चुकाया.

(५)
एक किरायेदार तकाजे के बावजूद पिछले ६ महीनों से किराया नहीं दे रहा था. कुल किराया २,००० रूपये प्रतिमाह के हिसाब से १२,००० रुपयों तक चढ़ गया. इस बार वह बड़ी बेतकल्लुफी से आया और मकान मालिक के हाथ में १,००० हजार रूपये रख दिये.
मकान मालिक बोला, “ये तो केवल आधे महीने का किराया है.”
किरायेदार सहजता से बोला, “अरे, रख लीजिए, लक्ष्मी को आते हुए मना नहीं करना चाहिए. मैं पिछले दरवाजे की चौखट निकाल कर नहीं बेचता तो ये हजार रूपये भी आपको नहीं दे पाता.”

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शनिवार, 3 नवंबर 2012

कटु सत्य

मैं कोई ज्योतिषी या भविष्यवक्ता नहीं हूँ, पर इतना जानता हूँ कि यदि कोई अनाड़ी तैराक किसी गहरी नदी के भंवर में नहाने लगे तो अवश्य ही डूबेगा.

मैं इंदिरा गाँधी के आपद्काल का प्रत्यक्षदर्शी और भुक्तभोगी रहा हूँ. उस काल में अनेक विचारकों व सभ्य नागरिकों ने उसकी तारीफ़ में यह भी कहा था कि “यह अनुशासन पर्व है.” ऐसे नारे भी जगह जगह लिखे मिलते थे कि ‘समय का अनुशासन क्या केवल रेलों के लिए ही है?’ यानि प्रशासन में चुस्ती और पाबंदी का बोध जागृत हुआ सा लगने लगा था. इंदिरा जी और उनके सिपहसालारों को लग रहा था कि इस हथियार से वे जनता को बखूबी हांक सकते हैं. जनसंपर्क वाले कर्मचारियों ने अतिउत्साहित होकर परिवार नियोजनार्थ जो नसबंदी का दौर चलाया वह आम लोगों के लिए भयकारक था. लोग दु:खी हो गए थे और उस व्यवस्था से निजात चाहते थे. अत: सं १९७७ के आम चुनावों में इंदिरा गाँधी की सत्ता का पराभव का कारण बना. ये दीगर बात है कि उसके बाद मोरारजी देसाई की जनता सरकार बिना लगाम के घोड़ों के रथ के सामान चलने के कारण ढाई साल में परास्त हो गयी थी. जब नेतागण जनता के आक्रोश को नहीं समझ पाते हैं या जरूरत ही नहीं समझते हैं तो उनका राजनैतिक पराभव निश्चित होता है.

आज देश में फिर भ्रष्टाचार और निरंकुश मनमाने आर्थिक निर्णय घनघोर घटाओं की तरह उमड़ घुमड़ रहे हैं. जिनके परिणामस्वरूप महंगाई बेलगाम हो गयी है. हर परिवार को मूलभूत आवश्यकता रसोई गैस के दंश को झेलना पड़ रहा है, इससे यह साफ़ लगाने लगा है कि केन्द्र की मौजूदा सरकार के पराभव के लिए यह अकेला कारण ही पर्याप्त होगा.

इस सन्दर्भ में विश्व की आर्थिक मंदी या विकास की बातें कहकर लोगों को सन्तोष नहीं कराया जा सकता है. अब अंदरूनी स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि कोई भी ‘लालीपॉप’ काम करने वाला नहीं लगता है. केवल सैद्धांतिक अर्थशास्त्र या सांख्यिकी से नैया पार नहीं लग सकती है.

पिछली सदी के पूर्वार्ध में जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया वजूद में नहीं आया था, अखबारों को ही मीडिया कहा जाता था. तब एक प्रबुद्ध अंग्रेज विचारक ने कहा था, “Give me the press, I will not care who rules the country.” लेकिन आज तो मीडिया अनेक रूपों में प्रबल हो गया है. टेलीविजन के सैकड़ों चेनल्स हैं, जो प्रतिस्पर्धात्मक तरीकों से पत्रकारिता/पीतपत्रकारिता में हद से बाहर जाकर भी मसलों को उछाल रहे हैं. अदालतों के बजाय बहुधा विवेचन व निर्णय सुनाने लगे हैं. इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका कुछ सीमा तक प्रभावित भी होने लगी है.

वर्तमान में केन्द्र सरकार के विरुद्ध आग उगलने वाले राजनैतिक प्रतिद्वंदी पार्टियां/नेतागण नेपथ्य में चले गए हैं और जो मुखर हो रहे हैं, उनमें भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाने वाले अन्ना समर्थक, रामलीला मैदान में चोट खाए हुए रामदेव योगी, शीघ्र राजनैतिक पार्टी की घोषणा करने वाले अरविन्द केजरीवाल की ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की टीम तथा जनरल वी.के.सिंह जैसे सरकार से खार खाए हुए प्रभावशाली लोग हैं जो सरकार के लिए कब्र खोदने में दिन रात लगे हुए है.

मेरा दृढ़ विश्वास है कि इन विरोधी हमलों से ज्यादा मारक कारण खाद्य पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी, पेट्रोल-डीजल रसोई गैस में लगी आग होगी, जो वर्तमान सत्ताधारी पार्टियों के पराभव का निमित्त बनेगा.

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गुरुवार, 1 नवंबर 2012

वफ़ा

जिनकी मूरत दिल में बसी है,
        करीब मेरे है, खुद आ गयी है.
प्यार क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
        इक बदन में दो दो रूह आ गयी हैं.

मिली वो तो संध्या सुबह बन गयी है,
        अभी तक के सफर की थकां मिट गयी है,
खुशी क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
        इक भूले मुसाफिर को मंजिल मिल गयी है.

बेखुदी में मैं उससे घबरा रहा था,
        मिली वो तो वीरां, गुलिस्ताँ हो गया है
मिलन क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
        इक भँवरा कमलनी में कैद हो गया है.
     
जमाने ने उसको बख्शा नहीं है,
        उल्फत का जिसको शऊर आ गया हो,
नशा क्या है जमाने को समझाऊ क्या?
        बिन पिए ही ‘गरचे शरूर आ गया हो.

वफ़ा की शिकायत उनसे नहीं है,
        हीर औ’ शीरी की वो हमसफर हो गयी है,
वफा क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
         परवाने को बचाकर शमा जल रही है.

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