गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

मातृ देवो भव:

सीकर के नजदीक गाँव में रहने वाली एक गरीब विधवा, रतनी बाई, ने मेहनत मजदूरी करके अपने इकलौते बेटे हरिलाल को हाईस्कूल तक पढ़ाया और रिश्तेदारों की सलाह पर उसे राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान में रोजगारपरक ट्रेनिंग के लिए दाखिला दिलाया. वह ‘टर्बाइन आपरेटर’ का कोर्स पूरा करके बेरोजगारों की सूची में आ गया. रोजगार दफ्तर के माध्यम से उसे एक दिन राजस्थान के ही कोटा शहर के एक नामी उद्योग से बुलावा आ गया और वह नौकरी भी पा गया.

माँ बहुत खुश थी. बेटा जल्दी नौकरी पा गया था, पर घर से सैकड़ों कोस दूर भेजने में उसे बड़ी चिंता भी हो रही थी. यह गरीब लोगों मजबूरी रहती है कि रोजगार के सिलसिले में दूर दराज जाना ही पड़ता है. अपने लाड़ले से बिछुड़ने की त्रासदी रतनी बाई जैसी सैकड़ों-हजारों माँओं को झेलनी ही पडती है. हरिलाल भावनात्मक रूप से अपनी माँ से बहुत नजदीक से जुड़ा हुआ था. सोचता था कि रहने की ठीक ठाक व्यवस्था होने पर माँ को भी अपने पास कोटा ही बुला लेगा. यद्यपि माँ तो अभी से कहने लगी थी कि वह घर छोड़ कर कहीं नहीं जायेगी. वह अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहती थी. उसने अगले ही साल हरिलाल का विवाह भी कर दिया.

यह आम मनुष्यों की प्रवृति है कि अपने जीवन की अतृप्त आकाक्षाओं को अपने बच्चों में पूरा होते हुए देखना चाहते हैं. अनपढ़ रतनी बाई चाहती थी कि बेटे के लिए खूब पढ़ी-लिखी सुन्दर बहू मिले, सो संयोग से जाति-रिश्तेदारी में ही उसकी पसन्द पूरी हो गयी. एक ग्रेजुएट लड़की, दमयंती, से उसका रिश्ता हो गया. सभी नाते-रिश्तेदार रतनी बाई के भाग्य को सराहने लगे. उसने इस मुकाम तक पहुँचने में कितने पापड़ बेले, कितने कष्ट उठाये, वे सब लोगों की नजर में नहीं रहे.

बहू दमयंती एक खाते-पीते परिवार से आई थी. उसे सासू जी का कच्चा घर बिलकुल पसन्द नहीं आ रहा था.विवाह के चंद महीनों के बाद ही वह पति के पास कोटा चली आई. हरिलाल अपनी पत्नी पर पूरी तरह मोहित रहता था. उसकी हर बात पर पलक-पावड़े बिछाये रखता था. यह स्वाभाविक भी होता है. माँ से अकसर अपने एक दोस्त के मोबाईल के माध्यम से बात करता रहता था. दमयंती सीकर आने जाने के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ा करती थी. सीकर जाना भी पड़े तो ज्यादा समय झुंझुनू अपने मायके में बिताना पसन्द करती थी. माँ तरसती रहती थी. सोचती थी कि कोई अपने स्तर की बहू लाई गयी होती तो आज यह बात नहीं होती. माँ का मन है सो यह भी सोचती थी कि चलो बेटा खुश है तो सब अच्छा है.

अगले वर्ष दमयंती ने अपने पीहर में ही अपने पुत्र को जन्म दिया और वहीं से कोटा चली गयी. हरिलाल पूरी तरह उसके वश में था. जैसा वह कहती थी, वह वैसा ही करता था, पर हरिलाल के मन में कहीं ना कहीं चोर तो बैठा रहता था, जो उसे नित्य कचोटता रहता था कि माँ का यथोचित ध्यान नहीं रख पा रहा है. खर्चा-पर्चा भी जिस प्रकार माँ को भेजा करता था, वह अनियमित हो गया था. दमयंती का तर्क होता था कि पन्द्रह हजार के वेतन में घर का किराया और रोज का खर्चा बमुश्किल चल रहा है, माँ तो इतना खुद कमा लेती हैं कि गुजारा ठीक चल जाना चाहिए. माँ को साथ में रखने की बात भी कई बात दबे स्वर में हरिलाल ने दमयंती के सामने कही, पर वह नहीं चाहती थी कि माँ की निगरानी में रहे. वह कहती थी, “माँ मेहनत मजदूरी वाली है. यहाँ बैठी नहीं रह सकेगी. यहाँ लाकर क्या करोगे? वे वहीं खुश रहती हैं.” हरिलाल पत्नी की बात पर घुग्घू बन कर चुप हो जाता, पर दिल में दर्द तो छुपा कर रखता ही था.

समय निरंतर भागता रहता है. उनका बेटा नितिन अब तीन वर्ष का होने को आया है. दशहरा मैदान में एक महीने तक चलने वाला मेला चल रहा है, जहाँ अनेक कौतुक व सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं. तरह तरह का सामान बेचने वाली दुकानें-बाजार सजती हैं. कोटा में रहने वालों को मेला घूमने का बड़ा शौक होता है. बेटे को लेकर हरिलाल सपत्नी वहां पहुँचा, बड़ी भीड़ थी. अंगुली पकड़कर चलने वाला बच्चा एकाएक थोड़ी सी नजर चूकने पर भीड़ में कहीं खो गया.

माँ-बाप दोनों परेशान हो उठे. ढूँढते रहे, पर नितिन नहीं मिला. बच्चों के खोने-पाने वाले पांडाल में रिपोर्ट लिखवाई. दमयंती बच्चे के विछोह के कारण बदहवाश हो गयी, रोने चिल्लाने लगी. उसकी हालत देख कर हरिलाल भी घबरा गया.

लगभग एक घन्टे के बाद पांडाल से बच्चे की मिलने की सूचना लाउडस्पीकर पर आई तो जान में जान आई. दमयंती को जब उसका बच्चा मिला तो लिपट-लिपट कर देर तक चूमती रही. हरिलाल इस सारे परिदृश्य में अपनी माँ रतनी बाई व खुद को देखने लगा. उसने तुरन्त सीकर जाकर अपनी माँ के पास जाने का कार्यक्रम बना डाला. दमयंती ने कहा, “इतनी जल्दी बिना प्रयोजन के सीकर क्यों जा रहे हो?”

हरिलाल ने उससे कहा, “बच्चे से एक घन्टे तक बिछुड़ने पर तुम इतनी परेशान रही, विलाप करती रही, मेरे भी होश उड़ा दिये थे, पर मेरी माँ के बारे में तुम कभी नहीं सोचती हो कि उसका बेटा उससे इतने अरसे से दूर है. उसके दिल को क्या बीतती होगी? तुम कितनी स्वार्थी हो?”

इस प्रकार माँ के प्रतिसमार्पित भाव से वह सीकर गया और अपनी माँ को अपने साथ कोटा लेकर आया. अब दमयंती को भी माँ के अंत:करण के प्यार का आभास हो गया है.

माँ तो माँ है. उसको बिना किसी गिला शिकवा के अपने बच्चों के नजदीक रहना स्वर्गीय सुख देता है. हरिलाल का तो मानो बचपन फिर से लौट आया है.
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