चतुरसिंह ठिठोला ने अपनी पत्नी मंजरी को हिकारत भरे स्वर में डांटा, “तुम्हें क्या जरूरत थी उसको अमियाँ देने की? मैंने
तुमसे कई बार कहा है कि इन छोटे लोगों से व्यवहार रखने की जरूरत नहीं है, पर
तुम्हें मेरी बेइज्जती करानी थी. हमारे मुँह पर थप्पड़ सा मार गया वो दो कौड़ी का हवलदार.”
मंजरी पति के स्वभाव
को जानती है. बेचारी रूआंसी होकर रह गयी, आँखें सजल हो आई.
गाँव की बसावट कुछ
ऐसी है कि एक पंक्ति में आठ-दस घर उत्तरमुखी हैं. इसे गाँव वाले ‘बिष्ट बाखली’ के नाम से पुकारते हैं. इस बाखली (मकानों की पंक्ति) में काश्तकार,
ड्राइवर, टीचर, व रिटायर्ड फ़ौजी रहते हैं. सभी बिष्ट बिरादरी के हैं. इस बाखली के
ठीक पीछे वकील साहब का पाँच बीघे का खेत है और एक पक्का मकान भी. वकील साहब को
गुजरे दस साल हो गए हैं, अब इस घर में उनका बेटा चतुरसिंह ठिठोला व उसकी पत्नी
मंजरी रहते है. चतुरसिंह को वकील साहब ने नैनीताल के एक नामी कान्वेंट स्कूल में
पढ़ाया-लिखाया और ग्रेजुएशन के लिए लखनऊ भेजा. चतुरसिंह को बचपन से ही ये अहसास भी
कराया कि वह आम ग्रामीणों से अलग है, सुपीरियर है. अत: स्वाभाविक तौर पर
वह इस ग्रामीण समाज से बिलकुल कटा रहा, और अब जब वह स्थानीय दूर-संचार विभाग में
एस.डी.ओ. बन गया तो उसके भाव और भी ऊँचे हो गए. उसकी पत्नी मंजरी जरूर
सामाजिक रहना चाहती है, लेकिन पति के स्वभाव व मकान का अलग-थलग पड़ना उसके लिए बाधक
रहा है. वह अकेलेपन के कारण बतियाने वालों की तलाश में रहती है. उसके आँगन में
गोविन्दसिंह हवलदार के घर की पिछवाड़े की खिड़की खुलती है, जहाँ पर मौक़ा पाते ही वह
गोविन्दसिंह की पत्नी मीनाक्षी से सुख-दुःख व ग्राम समाचार बाँटती रहती है.
चतुरसिंह की चहारदीवारी में एक आम का बहुत पुराना बड़ा पेड़ है. ये कभी किसी की फेंकी हुई गुठली से उगा होगा. इस पर फल बहुत छोटा आता है, जिसमें भी गुठली बड़ी और रेशे वाली होती हैं. हाँ, मिठास तो अवश्य रहती है. फल भी
हर साल नहीं आते, पर जब आते हैं तो मंजरी मीनाक्षी को आवाज देती है और थैला भर
कर पकड़ा देती है. इस प्रकार आमों से दोस्ती का रिश्ता बना रहता है.
चतुरसिंह और
गोविन्दसिंह में भी रस्मी दुआ-सलाम होती है. ये भी तब, जब गोविन्दसिंह आगे होकर
बोले. गोविन्दसिंह को एक बड़ी शिकायत रहती है कि पतझड़ के मौसम में आम के तमाम सूखे
पत्ते उसकी छत-आँगन में भर जाते हैं, जिन्हे साफ़ करने की कवायद करनी पड़ती
है. गोविन्दसिंह ने कई बार चतुरसिंह से कहा भी था कि उसकी छत की तरफ लटकी हुई बड़ी
डाल को छाँट कर छोटा करवा दें, पर चतुरसिंह ने उसके आग्रह पर कोई ध्यान नहीं
दिया. इस बार गोविन्दसिंह को ना जाने क्या सूझी सारे पत्ते समेट कर चतुरसिंह के
आँगन में फेंक दिये.
शीतयुद्ध की शुरुआत
हो गयी. पत्नियों में भी आपस में बोल-चाल बन्द हो गई. गत वर्ष जून में खूब आम
पके. झड़े भी और तोड़े भी गए. गोविन्दसिंह और उसकी पत्नी पूरे आमों के मौसम में
देखते रहे, पर मंजरी ने उनसे नजर तक नहीं
मिलाई, बल्कि उनको चिढ़ाने-जलाने के लिए ढेर सारी पीली गुठलियाँ व छिलके उनकी खिड़की की सीध में जमा करके रख छोड़े.
वैसे इस इलाके में
आम बहुतायत में पैदा होता है. बाजार में स्थानीय आम बहुत सस्ती दरों में बिकने आता है, पर
‘लिए-दिये’ की बात और होती है. अब इसमें कोई संदेह नहीं रहा कि पत्ते आँगन में फेंकने से चतुरसिंह खफा हैं. हालांकि उनसे आमों की कोई अपेक्षा गोविन्दसिंह और उसकी पत्नी कर
भी नहीं रहे थे. केवल अहं का सवाल था.
कुछ महीने पहले एक
दिन शाम को राह में घूमते हुए मंजरी और मीनाक्षी की मुलाक़ात हो गयी. मंजरी ने मुस्कुराते हुए बातों से उसे बहुत अपनापन जताया, “आप तो दिखती ही नहीं हो”, “खिड़की भी बन्द रखती हो”, “मै तो आपसे बातें करने को तरसती हूँ”. यूँ फिर से दोनों महिलाओं में
खिड़की पर आकर संपर्क साधना शुरू हो गया. महरियों के बारे में, दूध-पानी के बारे
में लम्बी वार्ता होने लगी. मंजरी ने मसाला कूटने के लिए इमाम दस्ता माँगा, इस
प्रकार अमिया-आम-गुठलियों-छिलकों की बात को पटाक्षेप दे दिया, उस बारे में चर्चा
तक नहीं की.
अगले वर्ष फिर से पेड़ पर
खूब अमिया आई, लेकिन एक दिन ऐसा अंधड़ आया कि ज्यादातर कच्चे फल जमीन पर आ
गिरे. अगली सुबह एक पॉलीथीन की थैली में बहुत सी अमिया समेट कर मंजरी ने मीनाक्षी
को आवाज देते हुए खिड़की के पास रख दिये. मीनाक्षी तब स्नान कर रही थी, गोविन्दसिंह
ने अमिया देख कर बड़ी तल्खी आवाज में मंजरी से कहा “हटाइये, हटाइये, ये बीमारी की जड़, हमको नहीं चाहिए.”
खिसियानी सी होकर
मंजरी बोली, “भाई साहब इसकी चटनी
बनाइएगा.”
गोविन्दसिंह बोला, “नहीं खानी है हमको तुम्हारे आम-अमिया की चटनी. आपको ही मुबारक हो.”
मंजरी अपनी अमिया उठा कर ले गयी. मीनाक्षी ने पति से कहा, “आपको ये सब कहने की क्या जरूरत थी, रख लेते, नहीं खानी थी तो फेंक देते.”
गोविन्दसिंह बोला, “बात आम-अमिया की नहीं है, व्यवहार की है, अगर
चतुरसिंह बड़ा आदमी है तो हम भी किसी से कम नहीं है. किसी का दिया नहीं खाते है. तू
देखना अगले साल अपने पेड़ पर भी अमिया आ जायेंगी.
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