पुराने लोगों ने कहा
है, "माया तेरे तीन नाम - परसा,
परसू, परसराम," और हमने अपने
जमाने में देखा-सुना है, "सत्ता
तेरे तीन नाम - पनिया, पन्ना, पनीराम."
हमारे कूर्मांचल
प्रदेश का सामाजिक ताना-बाना मैदानी देश से कुछ अलग ज्यादा ही वैदिक रहा है. देश की
आजादी के बाद इसमें सुधार व नवचेतना जागृत हुई है. यहाँ शुरू में राजनैतिक रूप से
लोग केवल काँग्रेस पार्टी को ही जानते थे. चुनावों के समय केवल रामराज्य परिषद या
सोशलिस्ट/प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के झंडे-टोपी से उनका परिचय पाते थे. पूरे
अविभाजित अल्मोड़ा जिले (अल्मोड़ा + बागेश्वर + पिथोरागढ़ + चंपावत) का एक सांसद होता था, और इलाका पट्टियों में विधायकी क्षेत्र होते थे. जिनके बड़े-बूढ़े स्वतंत्रता सेनानी
थे या जिनको सत्ता की सीढ़ियों का ज्ञान हो गया था, वे क्षेत्रीय प्रतिनिधि बन कर
राज करने लगे या यों कहना चाहिए सत्तासुख भोगने लगे. लगभग सभी नेताओं की अगली
पीढियाँ शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि में ऊपर उठती चली गयी जो कई
बार आपसी ईर्ष्या व प्रतिद्वन्दता का कारण भी बनता रहा है.
संवैधानिक व्यवस्था
के तहत कुछ क्षेत्रों में पिछड़े वर्गों/दलितों/आदिवासियों को आरक्षण मिला तो वोट
बैंक की राजनीति के साथ पुरानी सामाजिक मान्यताओं को तोड़ती हुई नई सोच पैदा हो गयी
कि नौकर मालिक की तरह व्यवहार करने लगे और मालिक सेवक हो गए.
कत्यूर घाटी में
छोटी गोमती नदी के किनारे बसे सुरडा गाँव
में अधिकतर घर जोशी पंडितों के हैं. जिनका पुस्तैनी काम आसपास के गाँवों में
जजमानी/पंडिताई करना रहा है. गाँव में कुछ ठाकुरों के घरों के अलावा लोहार, बढ़ई,
ओढ़ (राज मिस्त्री) ढोली जातियों के शिल्पकारों के भी हैं. सैकड़ों वर्षों से ये
गरीब शिल्पकार अपने गुसाईयों की सेवा करते रहे हैं. और आपस में अपनेपन का पारिवारिक
रिश्ता रहा है. ये एक दूसरे पर पूरी तरह निर्भर भी रहते आये हैं. आजादी की रोशनी में गाँव गाँव
में जब स्कूल खोल दिये गए हैं तो पंडितों, ठाकुरों के बच्चों के साथ शिल्पकारों के
बच्चे भी स्कूल जाने लगे तथा बाहरी दुनिया से साक्षात्कार करने लगे.
पण्डित ईश्वरीदत्त का
लड़का जीवनचन्द्र और उनके हाली बचीराम का बेटा पनीराम कौसानी से हाईस्कूल करने तक साथ
साथ पढ़े. जीवनचन्द्र फार्मसिस्ट की ट्रेनिंग लेकर घाटी के सरकारी अस्पताल में कार्यरत
हो गया और पनीराम तत्कालीन विधायक मोहनसिंह मेहता जी की व्यक्तिगत सेवा में लखनऊ चला
गया. मेहता जी की छत्रछाया में पनीराम नौकर से कांग्रेस का सक्रिय कार्यकर्ता बन गया. उसे
नेतागिरी की मौजूदा कार्यप्रणालियों का अच्छा ज्ञान भी होता गया. कालान्तर में कुछ
वर्षों के बाद जब ये विधान सभा क्षेत्र पिछड़ी जाति के लिए सुरक्षित घोषित हो गया तो
पनीराम ने विधायक बनने की जुगत शुरू कर दी. अपने परिवार के पीढ़ियों से अन्नदाता रहे
ईश्वरीदत्त जोशी के पुत्र जीवनचन्द्र की उपयोगिता का ख़याल आया. सहपाठी होने के कारण
भी जीवन को पनीराम में अनेक संभावनाएं नजर आने लगी. पनीराम के आग्रह के अनुसार जीवनचन्द्र
गाँव गाँव जाकर पनीराम के समर्थन में ग्राम प्रधानों, सभापतियों व अन्य जनप्रतिनिधियों
से विधायकी टिकट देने की सिफारशी आवेदन लिखवाकर कांग्रेस के प्रांतीय कार्यालय लखनऊ
तथा केन्द्रीय कार्यालय नई दिल्ली को डाक द्वारा मुस्तैदी से भिजवाता रहा. नतीजन पनीराम
को कॉग्रेस का टिकट मिल भी गया. कांग्रेस के टिकट मिलने का मतलब जीत की गारंटी हुआ
करती थी.
जीवनचन्द्र खुश था. खुद को किंगमेकर समझने लगा. बचपन का पनिया अब पनीराम आर्या राज्यमंत्री बन गया. शास्त्रों में भी लिखा है कि
पद का मद चढ़ता ही है. एक बार राज्यमंत्री पनीराम आर्या जब जीवनचन्द्र जोशी वाले अस्पताल
का निरीक्षण करने आया तो जीवनचन्द्र की अपेक्षाओं के विरुद्ध उसके मिजाज बिगड़े हुए
थे. उसने स्टाफ से अनावश्यक रूप से अपशब्द
कह डाले. जीवनचन्द्र बहुत आहत हो गया और पनीराम से बोला, “आपसे अकेले में कुछ बात करनी है.” कमरे में ले जाकर जीवनचन्द्र ने आव देखा ना ताव
पनीराम को थप्पड़ जड़ दिया और उसके बाप दादा की औकात तक याद दिला दी.
राज्यमन्त्री महोदय अपमान
का घूँट पीकर जब लखनऊ लौटे तो अस्पताल के पूरे स्टाफ का दूर दूर स्थानांतरण करवा दिया. सबसे ज्यादा
सजा जीवनचन्द्र को पीलीभीत स्थानांतरित करके दी गयी. गुप्त रिपोर्ट में मन्त्री महोदय
ने लिखा कि "जीवनचन्द्र उत्तराखण्ड
क्रान्तिदल का खतरनाक कायकर्ता है. इसे उत्तराखण्ड की सीमा से दूर भेजा जाये."
कुछ सालों तक पीलीभीत
में नौकरी करने के बाद जीवनचन्द्र अपने जुगाड़ से नैनीताल के भीमताल अस्पताल में बदली
करवाकर आ गया जहाँ एक दिन अब भूतपूर्व हो गए राज्यमंत्री पनीराम ने एक आदमी के हाथों
अपना मार्मिक पत्र लिख कर जीवनचन्द्र को लखनऊ बुलाया. पनीराम लीवर सिरोसिस की बीमारी
से गंभीर रूप से बीमार था. पत्र इस प्रकार लिखा था:
"आदरणीय पण्डित जी,
"आदरणीय पण्डित जी,
सादर नमन. मैं बहुत बीमार
हूँ. मुझे लग रहा है कि मेरी जीवन यात्रा समाप्त होने जा रही है. जाने से पूर्व मैं
आपसे अपने व्यवहार के लिए दिल से क्षमा याचना करना चाहता हूँ. कृपया दर्शन देकर मुझे
मुक्ति दें.
आपका ही,
पनीराम."
पनीराम."
जीवनचन्द्र जोशी बड़े
बेमन से उससे मिलने के लिए लखनऊ के लिए चल पड़े, पर उनके वहाँ पहुँचने से पहले ही पनीराम
शरीर छोड़ चुका था.
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