मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

चरित्र

विश्व में जितनी भी चल या अचल चीजें हैं, उन सबका अपना अपना चरित्र होता है, जैसे मिर्च का चरित्र है- तीखा-चरपरापन, गुड़ का चरित्र है मिठास, सूर्य का चरित्र है गर्मी और प्रकाश. इसी तरह हर वस्तु का अपना एक विशिष्ठ धर्म होता है, जिसे हम उसका चरित्र कहा करते हैं. लेकिन हम मनुष्यों का सामाजिक व्यवहार हमारा चरित्र कहलाता है. व्यक्ति को, परिवार को या समाज को मर्यादित व अनुशासित रखने के लिए देश, काल व परिस्थितियों के अनुसार कुछ मान्य सिद्धांत बने हुए हैं, जिनका पालन करने वाले को चरित्रवान तथा पालन ना करने वाले को चरित्रहीन कहा जाता है.

शिक्षा चाहे घर में हो या पाठशालाओं में, उसका उद्देश्य यही रहता है कि बच्चे चरित्रवान बनें. अच्छा होने की चाहत सभी लोग रखते हैं इसीलिये बच्चों को छुटपन से ही बहुत से उपदेश पढ़ाये जाते हैं, जैसे सदा सच बोलो, चोरी मत करो,’ परनिंदा मत करो, दीन-दुखियों की मदद किया करो, अपने बड़े-बूढों का आदर किया करो, आदि, आदि. इस प्रकार की नैतिक शिक्षा से बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास में भी बहुत मदद मिलती है.

दुनिया के इतिहास में जितने महान लोग अब तक हुए हैं, उन्होंने समाज को अच्छी राहें दिखाई हैं. एक महापुरुष ने कहा है, मैं अपने आपसे प्यार करता हूँ और अपनी इज्जत करता हूँ, साथ ही मैं अन्य लोगों से भी इसी तरह व्यवहार करता हूँ.

दूसरे शब्दों में, "आप दूसरे लोगों से अपने लिए जैसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, खुद भी सबके साथ वैसा ही व्यवहार किया करो." इसका उल्लेख सभी धर्मों एवं संस्कृतियों में मिलता है. इसे golden rule भी कहा जाता वह है. बच्चों, आप पढ़ लिख कर कुछ भी बनो, पर आपमें अच्छे इंसान का चरित्र होना चाहिये.
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शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

किशोरों के नाम

प्यारे बच्चों,
कहते हैं कि मुग़ल काल के उर्दू-फारसी के महान शायर मिर्जा ग़ालिब बड़े मनमौजी किस्म के आदमी थे. एक बार उनको एक बार किसी शाही दावत का निमंत्रण मिला तो वे, यों ही, अपने साधारण लिबास में पहुँच गए, लेकिन द्वारपाल ने उनको ठीक से पहचाना नहीं तथा उनके पुराने, मैले से कपड़ों पर टिप्पणी करते हुए अन्दर घुसने की इजाजत नहीं दी. घर आकर मिर्जा ने अपनी सबसे अच्छी पोशाक पहनी और बड़े ठाठ से फिर पहुँच गए. इस बार उनके चमकते-दमकते लिबास को देखकर किसी भी दरबान ने उनको नहीं रोका. दावत के दस्तरखान पर जब खाना शुरू हुआ तो मिर्जा ग़ालिब ने शाही पकवानों को अपने कपड़ों पर चुपड़ना शुरू कर दिया. यह देखकर बादशाह सलामत तथा अन्य दरबारी आश्चर्य करने लगे. पूछने पर मिर्जा ने बताया कि ऐसा लगता है कि मुझसे ज्यादा इन कपड़ों की इज्जत है. इसलिए इनको पहले खाना खिला रहा हूँ. जब बात सबकी समझ में आई तो उनकी विद्वता की सराहना करते हुए माफी मांग ली गयी.

गांधीवादी ट्रेड यूनियन लीडर स्वर्गीय जी. रामानुजम ने अपनी पुस्तक द थर्ड पार्टी में मजदूर नेताओं को नसीहत देते हुए एक जगह लिखा है कि "प्रबंधको से बातचीत या बार्गेनिंग करते समय संयत भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए. पहनावा साफ़ सुथरा व सभ्य जनों का सा होना चाहिए". उन्होंने इस बाबत उदाहरण के तौर पर बताया है कि अगर कोई लड़का मैले कुचैले कपड़े पहन कर रूपये के छुट्टे लेने पान की दूकान पर जाता है तो पनवाड़ी छुट्टा होते हुए भी कह देता है छुट्टा नहीं हैं और अगर वह साफ़ सुथरा अच्छे कपड़े पहने होता है तो पनवाड़ी बगल वाली दूकान से मांग कर भी लेकर देता है.

इस बारे में स्वामी विवेकानंद जी का अमरीकी लड़कों से हुआ वर्तालाप भी समझने और स्वीकारने योग्य है कि जब उन लड़कों ने स्वामी जी को लम्बे चौड़े गेरुवे लबादे में देखा तो वे खिल्ली उड़ाने लगे पर स्वामी जी महान दार्शनिक व विद्वान थे. उन्होंने उत्तर दिया कि “In your country a tailor makes a man perfect, but in my country character makes a man perfect.” स्वामी जी की पोशाक भारतीय परिवेश में बहुत पवित्र और ग्राह्य थी. उन्होंने चरित्र की पवित्रता को बहुत सुंदर तरीके से समझा दिया. सब लोग उनके कायल हो गए. वहां की धर्म संसद में भी उन्होंने हमारे सनातन धर्म की जो व्याख्या की वह ऐतिहासिक दस्तावेज है. 

कुल सारांश यह है कि साफ सुथरी व अच्छी वेशभूषा के साथ साथ साथ चरित्रवान भी होना चाहिए. ये चरित्र क्या होता है? इसके अच्छे-बुरे होने के बारे में अपने अगले ब्लॉग में लिखूंगा.
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सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

चुहुल - ६७

(१)
लड़की देखने के लिए बेटे सहित माता-पिता लड़की के घर गए. जैसा कि आजकल आम रिवाज हो गया है लड़का-लड़की को एक दूसरे को समझने व बातचीत करने के लिए अलग कमरे में बैठा दिया गया. दोनों ही बड़े शर्मीले थे. बहुत देर तक कोई बातचीत नहीं हुई. लड़की ने पहल की और पूछ लिया, आप कितने भाई-बहन हैं? लड़का कुछ सोच कर बोला, अभी तक तो हम तीन हैं, अगर तुम आ जाओगी तो फिर चार हो जायेंगे.

(२)
एक शर्मीला दामाद लम्बी छुट्टी लेकर अपने शहर से अपने ससुराल के गाँव गया. सासू जी ने पांच दिनों तक सुबह-शाम पालक की हरी सब्जी से स्वागत किया क्योंकि उसकी मान्यता थी कि शहर में लौह एवं विटामिन युक्त ताजे पालक की उपलब्धता नहीं होती है. छठे दिन दामाद ने शर्माते हुए कह ही डाला, माता जी, आपका पालक का खेत कहाँ है मुझको बता दीजिये, वहीं जाकर चर आऊंगा.

(३)
बच्चों को पता चल गया कि कल पापा पड़ोस में रहने वाली आंटी के साथ इमरान हाशमी की फिल्म के मैटनी शो देखने गए थे. गुड्डू ने चुपके से मम्मी को ये खबर दे दी. मम्मी तो अन्दर ही अन्दर जल भुन गयी, सीधे जाकर पति से पूछने लगी, क्यों जी, कल आप उस चुड़ैल के साथ मैटनी शो देखने गए थे?
पति शातिराना अंदाज में बोला, हाँ, क्योंकि वह फिल्म परिवार के साथ देखने लायक नहीं है.

(४)
शहर में वायरल फीवर फैला हुआ था. एक डॉक्टर के क्लीनिक के दरवाजे पर सुबह सुबह लम्बी लाइन लग गयी. एक व्यक्ति लाइन से आगे जाने का प्रयास करने लगा तो लोगों ने उसे पीछे खींच लिया घुसने नहीं दिया. जब दो तीन बार ऐसा हो गया तो वह गुस्से से बोला, ठीक है, तुम लोग लाइन में लगे रहो, मैं आज क्लीनिक खोलूंगा ही नहीं. वह खुद डॉक्टर था.

(५)
एक बूढ़ी औरत फिल्म देख रही थी. हर दो चार मिनट के बाद वह कोल्ड ड्रिंक के कैन को बार बार मुंह पर ले जा रही थी. बगल में बैठे एक चुलबुले लड़के को शरारत सूझी, बोला, अम्मा, इतनी देर में तो आपका ये ड्रिंक गर्म हो गया होगा. इसकी सब गैस निकल गयी होगी. इसे ऐसे पीना चाहिए," ये कहते हुए उसने कैन अपने मुंह में उड़ेल लिया.
अम्मा बोली, अरे बेटा, ये क्या किया? इसमें कोल्ड ड्रिंक नहीं, मेरे पान की पीक थी.
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बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

बेटाराम

डार्विन के विकास के सिद्धांत को यों ही मान्यता नहीं मिली है. उसमें तमाम व्यवहारिक व वैज्ञानिक तथ्य हैं. ये प्राणीमात्र, ये समाज, और ये दुनिया पल पल बदलते रहे हैं. मनुष्य बन्दर से आदमी, जंगली से सभ्य मानव होते गए, यद्यपि मूलभूत गुणावगुण साथ चलते रहे हैं.

कहानी का नायक श्यामू, जो अब सम्मानीय रिटायर्ड वरिष्ठ नागरिक है, गाजियाबाद में आबाद है. पिछली शताब्दी के छठे दशक में रोजगार की तलाश में सुदूर पिथौरागढ़ के पास एक अति पिछड़े गाँव भट्टराई (तब पिथौरागढ़ अविभाजित अल्मोड़ा जिले का ही भाग था) से दिल्ली आया. दरअसल आजादी के बाद नई दिल्ली के सरकारी दफ्तरों व उनसे सम्बंधित गैर सरकारी दफ्तरों में उन दिनों नौकरियों की बहार आई थी. उसमें शीर्ष पद तो दक्षिण भारतीय या बंगाली बाबू ले उड़े क्योंकि उनको अच्छी अंग्रेजी आती थी. छोटे चपरासी, दफ्तरीयों, चौकीदारों-फराशों के लिए यू.पी., बिहार, या दिल्ली के आसपास के लड़के दरियागंज स्थित रोजगार दफ्तर के माध्यम से घुसने लगे. इन नौकरियों के प्रति आकर्षण ठीक वैसा ही था जैसा बाद में आई.टी. सैक्टर वाले लड़कों का हैदराबाद/बैंगलूरू की तरफ, और बाद में यूनाइटेड स्टेट्स की तरफ चला गया.

श्यामबल्लभ भट्टराई अपने गाँव के ही नामी चाचा प्रकाश भट्टराई के भरोसे दिल्ली युसूफ सराय पहुँच गया, जहां प्रकाश भट्टराई अपनी पत्नी व छोटी बेटियों के साथ एक झुग्गी-झोपड़े में रहता था. श्यामबल्लभ ने उसी साल थर्ड डिविजन में यू.पी बोर्ड से हाईस्कूल पास किया था. प्रकाश भट्टराई उसका सगा चाचा तो नहीं था, लेकिन गाँव में उसकी बड़ी हांम थी. वह कुछ वर्षों पहले दिल्ली आकर मालामाल हो गया था. उसे निर्माणाधीन आल इंडिया मेडीकल इंस्टिट्यूट में रात की चौकीदारी जो मिल गयी थी. रात में वह सीमेंट, लोहा-लक्कड़ का पूरा मालिक हो जाता था. चोर-कबाड़ी लोग व्यवस्था की कमजोर कड़ी ढूंढ ही लेते हैं. इस प्रकार उसने खूब रुपये कमाए. दुनिया को बताने के लिए उसने दिन में अपना एक चाय का खोमचा भी खोल रखा था. वैसे तब दौर समाजवादी आर्थिक क्रान्ति का चल रहा था, उसे तब भ्रष्टाचार नाम नहीं मिला था. कहते हैं कि पंजाब के कुछ असंतुष्ट नेताओं ने जब प्रधानमंत्री नेहरू जी से मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरो के बारे में गंभीर शिकायतें की तो उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज में लेकर कहा, "देश की दौलत देश में ही तो है.

प्रकाश भट्टराई जब भी पहाड़ अपने गाँव जाता था तो उसके साथ बहुत मालमत्ता होता था, उसके ठाट निराले होते थे. वह शाल-दुशाले में रहता था. गाँव में वह आदरणीय तथा आदर्श बन गया. वह जरूरतमंदों को आर्थिक मदद देकर उपकृत भी करता था इसलिए चंद वर्षों में उसका असली नाम नेपथ्य में चला गया और सेठजी के नाम से जाने जाना लगा.

श्यामू जब सेठजी के पास पहुंचा तो उन्होंने पहले तो उसे खूब अपनापन जताया. बेटाराम संबोधन से पुकारने लगे, पर धीरे धीरे आश्रय देने के एवज में रसोई के काम में चाची का हाथ बंटाने व जूठे बर्तन साफ़ करने की आवश्यक जिम्मेदारी से भी नवाज दिया. तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि पराधीन सपनेहु सुख नाही वह जो सपने संजो कर सेठजी के पास आया था, वे सब बिखर गए. सेठजी उससे काम कराने के लिए पुचकारते हुए बेटाराम तो पुकारते थे, पर श्यामू इसे आतंक के रूप में महसूस करने लगा था. फिर भी एक काम अच्छा यह हो गया कि श्यामू ने दरियागंज स्थित एम्प्लायमेंट एक्सचेंज में अपना नाम दर्ज करवा लिया.

श्यामू का मन दिल्ली से भाग जाने को करने लगा था. जाने से पहले वह एक बार रोजगार दफ्तर की तरफ पूछताछ के लिए गया, जहाँ अचानक उसे अपने स्कूल का पूर्वपरिचित, धर्मानंद नामक लड़का, मिल गया. धर्मानंद एक सरदार जी के घरेलू नौकर के बतौर काम करता था. उससे मिलकर श्यामू को ऐसा लगा कि जैसे किसी ने अँधेरे बीहड़ में उसका हाथ थाम लिया हो. धर्मा ने सरदार जी से उसका परिचय कराया तथा कोई काम दिलाने का निवेदन भी कर डाला. सरदार जी एक बन्दर एक्सपोर्ट कंपनी चलाते था. देश के कई भागों से बन्दर पकड़ कर पिंजरों में दिल्ली लाये जाते थे फिर उनको गंतव्य की और भेजा जाता था. सरदार जी ने श्यामू को दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर बन्दर गिनने व पिंजरे सँभालने का जिम्मा दे दिया. करीब एक साल तक बन्दर संभाल करते हुए श्यामू खुद भी बन्दर सा हो चला था, पर उसकी किस्मत ने ऐसी पलटी मारी कि उसे एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज से मेडीकल इंस्टीट्यूट में ही अटेंडेंट की नौकरी का परवाना मिल गया.

जब श्यामबल्लभ भट्टराई सरकारी नौकर हो गया तो उसने नए परिवेश में साथियों की देखादेखी अंग्रेजी टाईप-राईटिंग सीखनी शुरू दी. तीन साल बाद उसे अपनी योग्यतानुसार एल.डी.सी. टाईपिस्ट का प्रमोशन भी मिल गया. वह बाबू हो गया. जब संस्थान का विस्तार हुआ और विभागों का पुनर्गठन हुआ तो सेठजी चपरासी बन कर श्यामबल्लभ भट्टराई के विभाग में ही आ गया. अगले दस वर्षों के अंतराल में श्यामबल्लभ भट्टराई पहले सेक्शन इंचार्ज और बाद में एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफीसर बना दिया गया.
   
चोर चोरी करना छोड़ दे तो भी हेराफेरी से बाज नहीं आता है. अपने सेवाकाल के आख़िरी दिनों में प्रकाश भट्टराई ने कार्यालय के कबाड़े के साथ दो टाईपराईटर भी चोरी के साथ बेच डाले. बात पकड़ में आ गयी और ऊपर तक रिपोर्ट पहुँच गयी. वह सस्पेंड कर दिया गया. अब तो प्रकाश अपने बेटाराम को साहब-साहब पुकारते हुए पगचम्पी की जुगत में रहने लगा, लेकिन मामला बेटाराम के वश से बाहर हो चला था. केस लंबा चला, जैसा कि आम सरकारी कर्मचारियों के मामले में होता है. इन्क्वायरी की फाईल से कुछ जरूरी सबूत गायब हो गए. और सबूतों के अभाव में प्रकाश भट्टराई बाद में बरी कर दिया गया.करनी किसी की भी हो सकती थी पर लोग बातें करते रहे कि आखिरकार बेटाराम ही शायद सेठजी का तारणहार रहा होगा.
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