डार्विन के विकास के
सिद्धांत को यों ही मान्यता नहीं मिली है. उसमें तमाम व्यवहारिक व वैज्ञानिक तथ्य
हैं. ये प्राणीमात्र, ये समाज, और ये दुनिया पल पल बदलते रहे हैं. मनुष्य बन्दर से आदमी,
जंगली से सभ्य मानव होते गए, यद्यपि मूलभूत गुणावगुण साथ चलते रहे हैं.
कहानी का नायक
श्यामू, जो अब सम्मानीय रिटायर्ड वरिष्ठ नागरिक है, गाजियाबाद में आबाद है. पिछली
शताब्दी के छठे दशक में रोजगार की तलाश में सुदूर पिथौरागढ़ के पास एक अति पिछड़े
गाँव भट्टराई (तब पिथौरागढ़ अविभाजित अल्मोड़ा जिले का ही भाग था) से दिल्ली आया. दरअसल आजादी के बाद नई दिल्ली के सरकारी दफ्तरों व उनसे सम्बंधित गैर सरकारी
दफ्तरों में उन दिनों नौकरियों की बहार आई थी. उसमें शीर्ष पद तो दक्षिण भारतीय या
बंगाली बाबू ले उड़े क्योंकि उनको अच्छी अंग्रेजी आती थी. छोटे चपरासी, दफ्तरीयों,
चौकीदारों-फराशों के लिए यू.पी., बिहार, या दिल्ली के आसपास के लड़के दरियागंज स्थित
रोजगार दफ्तर के माध्यम से घुसने लगे. इन नौकरियों के प्रति आकर्षण ठीक वैसा
ही था जैसा बाद में आई.टी. सैक्टर वाले लड़कों का हैदराबाद/बैंगलूरू की तरफ, और बाद में यूनाइटेड
स्टेट्स की तरफ चला गया.
श्यामबल्लभ भट्टराई
अपने गाँव के ही नामी चाचा प्रकाश भट्टराई के भरोसे दिल्ली युसूफ सराय पहुँच गया, जहां
प्रकाश भट्टराई अपनी पत्नी व छोटी बेटियों के साथ एक झुग्गी-झोपड़े में रहता था.
श्यामबल्लभ ने उसी साल थर्ड डिविजन में यू.पी बोर्ड से हाईस्कूल पास किया था. प्रकाश भट्टराई उसका सगा चाचा तो नहीं था, लेकिन गाँव में उसकी बड़ी हांम थी. वह कुछ वर्षों पहले दिल्ली आकर मालामाल हो
गया था. उसे निर्माणाधीन आल इंडिया मेडीकल इंस्टिट्यूट में रात की चौकीदारी जो मिल
गयी थी. रात में वह सीमेंट, लोहा-लक्कड़ का पूरा मालिक हो जाता था. चोर-कबाड़ी लोग
व्यवस्था की कमजोर कड़ी ढूंढ ही लेते हैं. इस प्रकार उसने खूब रुपये कमाए. दुनिया को
बताने के लिए उसने दिन में अपना एक चाय का खोमचा भी खोल रखा था. वैसे तब दौर
समाजवादी आर्थिक क्रान्ति का चल रहा था, उसे तब भ्रष्टाचार नाम नहीं मिला था. कहते
हैं कि पंजाब के कुछ असंतुष्ट नेताओं ने जब प्रधानमंत्री नेहरू जी से मुख्यमंत्री
प्रतापसिंह कैरो के बारे में गंभीर शिकायतें की तो उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज
में लेकर कहा, "देश की दौलत देश में ही तो है.”
प्रकाश भट्टराई जब भी
पहाड़ अपने गाँव जाता था तो उसके साथ बहुत मालमत्ता होता था, उसके ठाट निराले होते थे. वह शाल-दुशाले में रहता था. गाँव में वह आदरणीय तथा आदर्श बन गया. वह
जरूरतमंदों को आर्थिक मदद देकर उपकृत भी करता था इसलिए चंद वर्षों में उसका असली
नाम नेपथ्य में चला गया और ‘सेठजी’ के नाम से जाने जाना
लगा.
श्यामू जब सेठजी के
पास पहुंचा तो उन्होंने पहले तो उसे खूब अपनापन जताया. ‘बेटाराम’ संबोधन से पुकारने लगे, पर धीरे धीरे आश्रय देने के एवज
में रसोई के काम में चाची का हाथ बंटाने व जूठे बर्तन साफ़ करने की आवश्यक
जिम्मेदारी से भी नवाज दिया. तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि ‘पराधीन
सपनेहु सुख नाही’ वह जो सपने संजो कर सेठजी के पास आया
था, वे सब बिखर गए. सेठजी उससे काम कराने के लिए पुचकारते हुए ‘बेटाराम’
तो पुकारते थे, पर श्यामू इसे आतंक के रूप में महसूस करने लगा था. फिर भी एक काम अच्छा यह हो गया कि श्यामू ने दरियागंज स्थित एम्प्लायमेंट एक्सचेंज में अपना नाम दर्ज करवा लिया.
श्यामू का मन दिल्ली
से भाग जाने को करने लगा था. जाने से पहले वह एक बार रोजगार दफ्तर की तरफ पूछताछ के
लिए गया, जहाँ अचानक उसे अपने स्कूल का पूर्वपरिचित, धर्मानंद नामक लड़का, मिल गया. धर्मानंद एक सरदार जी के घरेलू नौकर के बतौर काम करता था. उससे मिलकर श्यामू को
ऐसा लगा कि जैसे किसी ने अँधेरे बीहड़ में उसका हाथ थाम लिया हो. धर्मा ने सरदार जी
से उसका परिचय कराया तथा कोई काम दिलाने
का निवेदन भी कर डाला. सरदार जी एक बन्दर एक्सपोर्ट कंपनी चलाते था. देश के कई
भागों से बन्दर पकड़ कर पिंजरों में दिल्ली लाये जाते थे फिर उनको गंतव्य की और
भेजा जाता था. सरदार जी ने श्यामू को दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर बन्दर गिनने व
पिंजरे सँभालने का जिम्मा दे दिया. करीब एक साल तक बन्दर संभाल करते हुए श्यामू खुद भी बन्दर सा हो चला
था, पर उसकी किस्मत ने ऐसी पलटी मारी कि उसे एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज से मेडीकल इंस्टीट्यूट में ही अटेंडेंट की नौकरी का परवाना
मिल गया.
जब श्यामबल्लभ
भट्टराई सरकारी नौकर हो गया तो उसने नए परिवेश में साथियों की देखादेखी अंग्रेजी टाईप-राईटिंग सीखनी शुरू दी. तीन साल बाद उसे अपनी योग्यतानुसार एल.डी.सी.
टाईपिस्ट का प्रमोशन भी मिल गया. वह बाबू हो गया. जब संस्थान का विस्तार हुआ और
विभागों का पुनर्गठन हुआ तो सेठजी चपरासी बन कर श्यामबल्लभ भट्टराई के विभाग में ही
आ गया. अगले दस वर्षों के अंतराल में श्यामबल्लभ भट्टराई पहले सेक्शन इंचार्ज और
बाद में एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफीसर बना दिया गया.
चोर चोरी करना छोड़ दे
तो भी हेराफेरी से बाज नहीं आता है. अपने सेवाकाल के आख़िरी दिनों में प्रकाश
भट्टराई ने कार्यालय के कबाड़े के साथ दो टाईपराईटर भी चोरी के साथ बेच डाले. बात
पकड़ में आ गयी और ऊपर तक रिपोर्ट पहुँच गयी. वह सस्पेंड कर दिया गया. अब तो
प्रकाश अपने बेटाराम को ‘साहब-साहब’ पुकारते हुए पगचम्पी की जुगत में रहने
लगा, लेकिन मामला ‘बेटाराम’ के वश से बाहर हो
चला था. केस लंबा चला, जैसा कि आम सरकारी कर्मचारियों के मामले में होता है. इन्क्वायरी की फाईल से कुछ जरूरी सबूत गायब हो गए. और सबूतों के अभाव में प्रकाश
भट्टराई बाद में बरी कर दिया गया.करनी किसी की भी हो सकती थी पर लोग
बातें करते रहे कि आखिरकार ‘बेटाराम’ ही शायद सेठजी का तारणहार रहा होगा.
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