मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

एक मुलाक़ात लोहिया जी से

स्व. राम मनोहर लोहिया जी नेहरू युग के सबसे बड़े समाजवादी नेता थे. वे प्रखर वक्ता थे, और भारत के सच्चे जनवादी प्रतिनिधि थे. सत्ता पक्ष के सभी लोग भी इस विपक्षी नेता का दिल से सम्मान करते थे.

देश की आजादी के बाद आचार्य नरेंद्र देव, आचार्य कृपलानी, तथा अन्य स्वतंत्रता सैनिकों ने नीतिगत मतभेद होने के कारण राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी को छोड़ कर अलग से सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया, यद्यपि बाद में अंदरुनी मतभेदों के चलते उसका भी विभाजन प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के रूप में हुआ. आजादी के बाद की ये बयार पूरे देश में नीतियों/ कुर्सियों/ व्यक्तिगत स्वार्थों के चक्कर में बड़ी तेजी से बहती रही थी और नौजवानों को प्रभावित कर रही थी. तब सोशलिस्टों की ये जमातें फ्यूडल लोगों से मुक्त थी. उधर हवा का रुख देखते हुए कांग्रेस पार्टी ने भी समाजवाद शब्द का मुखौटा अपना लिया था.

मैं सन 1960 में बिना किसी राजनैतिक संस्कार के ही लाखेरी आया था. यहाँ सब तरफ कांग्रेस का वर्चस्व था. विरोध के स्वर नक्कारखाने की तूती की तरह उभरते जरूर थे, पर परिवर्तन के कोई लक्षण आम लोगों में नहीं दिखाई देते थे. क्योंकि अधिकांश लोग सुविधाभोगी होते हैं. एक छोटी सी जमात सोशलिस्टों के नाम से विद्रोही नौजवानों की जरूर थी, जिसमें ए.सी.सी. स्कूल के एक अध्यापक स्व. बद्रीप्रसाद व्यास अग्रगण्य थे. अन्य थे, स्व. मोहम्मद इस्माईल हनीफी, मो. अमीन पठान, बजरंगलाल वर्मा (मेहरा), नैनगराम बैरवा, अजीज तागेवाला, आदि. सबके नाम अब मुझे याद भी नहीं रहे हैं. बूंदी के नामी वकील स्व. बिहारीलाल गुप्ता और स्व. इलाहीबक्श (इस्माईल भाई के ससुर –पेशे से कंपाउंडर) से मार्गदर्शन मिलता था. कोटा के वकील स्व. महावीर प्रसाद शर्मा ने कारखाने की कोल गेन्ट्री के मजदूरों की अलग से सोशलिस्ट पार्टी के झंडे के तले एक हिन्द मजदूर सभा की यूनियन बनाकर फ्री सर्विस भी देते थे. इनका कार्यालय तेजाजी की टापरियों (अब गांधीपुरा) में खोला गया. ये यूनियन काफी वर्षों तक चला, पर ये सब कार्यकलाप आंधी का रूप कभी नहीं ले पाए. सोशलिस्ट पार्टी को नगरपालिका, यूनियन और विधान सभा के चुनावों में सब जगह हार मिलती रही. कार्यकर्ता बिखरते चले गए.

स्व. बद्रीप्रसाद व्यास बड़े हरफनमौला थे. बॉटम में मांगीलाल कपड़े वालों की बगल में उन्होंने एक फोटो स्टूडियो + छुटपुट सामानों की दूकान खोल रखी थी, और मेले-ठेले में पकौड़ी-जलेबी भी बनाकर बेच लेते थे. व्यास जी सोशलिस्ट पार्टी के कर्ताधर्ता थे. नए नए लोगों को अपनी मीटिंग में आमंत्रित किया करते थे. मुझे भी उनके न्योते मिले. मैं दो मीटिंगों में जरूर गया, पर उनके बड़े बड़े बोल हजम नहीं हुए. उन्हीं दिनों (सन 1963 या 64) खबर आई कि ‘सुबह देहरादून एक्सप्रेस से लोहिया जी बम्बई की तरफ जा रहे हैं, और ट्रेन पर कार्यकर्ताओं को दर्शन देंगे. कार्यकर्ताओं को फूलमालाओं सहित रेलवे प्लेटफार्म पर पहुँचने का आग्रह किया गया उत्सुकतावश मैं भी गया. कुल जमा आठ लोग थे.

फर्स्टक्लास के ए.सी. कोच के दरवाजे पर लोहिया जी खड़े मिले और मालाएं लेने नीचे भी आये. उस दिन ट्रेन 5 मिनट तक रुकी रही. व्यास जी ने एक एक करके सबका परिचय दिया. जब मेरा नंबर आया तो वे बोले, “ये हमारे नए सदस्य हैं.” उनका इस तरह से परिचय देना मुझे अखर गया क्योंकि एक तो मैंने उनकी पार्टी की सदस्यता ग्रहण नहीं की थी, दूसरा खुद को पुराना सोशलिस्ट बताने के लिए मेरा इस्तेमाल किया. मैंने बाद में व्यास जी से कहा, “नया सदस्य कहने की कहाँ जरूरत थी?” उन्होंने बात को शातिराना तरीके से टाल दिया. उसके बाद मैं उनकी सोहबत में कभी नहीं गया. पर लोहिया जी की मूरत आज तक मेरी स्मृति में है.
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रविवार, 18 दिसंबर 2016

यादों के झरोखे से - 5

लाखेरी बंधु सहकार
सन 1970 में ए.सी.सी. मैनेजमेंट ने मेरा स्थानान्तरण कर्नाटक स्थित शाहाबाद कारखाने में कर दिया. जिन परिस्थितियों में मेरा ये स्थानातरण हुआ उसे मैंने अपने ब्लॉग में "मगर से बैर" शीर्षक से अन्यत्र कुछ वर्ष पूर्व वर्णित किया हुआ है.

दस साल की सर्विस और एक खुशहाल जिन्दगी में ये परिवर्तन पीड़ादायक था, पर मैंने अपनी खुद्दारी के चलते शाहाबाद चले जाना ही उचित समझा था. कष्ट विशेष इस बात का था कि बच्चे लाखेरी में हिन्दी माध्यम से पढ़ रहे थे, और शाहाबाद के स्कूल में माध्यम कन्नड़ था. अत: पीछे की कक्षाओं में बिठा कर अंग्रेजी माध्यम में कान्वेंट स्कूल में भरती कराया जो आगे जाकर फलदायी अवश्य हुआ.

शाहाबाद में सुखद अनुभव यह भी रहा कि वहां लाखेरी मूल के करीब बीस लोग पहले से मौजूद थे, जो सीमेंट वर्क्स में या हैवी इंजीनियरिंग वर्क्स में कार्यरत थे. अधिकाश नौजवान कैमोर इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट के माध्यम से नौकरी पर आये थे. प्रमुखत: जो मुझे अच्छी तरह याद हैं, उनमें सर्वश्री कृष्णचन्द्र दुबे (सुपुत्र हरदेव प्रसाद दुबे), हरिसिंह गोस्वामी (सुपुत्र प्रेमनाथ), चाँद अली (सुपुत्र सुभान अली), बाबूलाल पीपल, गोविन्द विलास पारेता, बाबूलाल राठौर, कालूलाल वर्मा (महावर), फुन्दीलाल वॉचमैन के दूसरे पुत्र घमंडी, पीरमोहम्मद कुरैशी ब्लैकस्मिथ के दामाद मकसूद अली आदि थे. तीन वॉचमैन कुमायूं रेजीमेंट से रिटायर्ड यहाँ थे, जो मेरे वहां जाने से अतिशत स्नेहासिक्त रहे.

लाखेरी वालों की एक दाल-बाटी-चूरमा वाली पिकनिक कगीना नदी के वॉटर डैम पर हुयी, जिसमें थोड़े दिनों के लिए लाखेरी से आये हुए न्यूक्लियस गैंग के लोग भी शामिल हुए थे. बहरहाल मेरे इर्दगिर्द ये नया समीकरण बन गया था. मैंने सबसे संपर्क बनाए रखने के लिए एक अपंजीकृत सोसाईटी बनवा दी, नाम रखा ‘लाखेरी बंधु सहकार,’ जिसकी हर महीने एक बैठक होती थी. प्रत्येक सदस्य प्रतिमाह दस रूपये अपने खाते में जमा भी करता था. तब दस रूपये की बहुत कीमत भी थी. जरूरतमंद को मामूली ब्याज पर यह रकम उधार पर दे जाती थी. श्री गोविंद विलास जी को इसका मैनेजर/कैशियर नियुक्त किया गया. ब्याज से जो रकम जमा हुयी उससे सदस्यों को स्टील के छोटे बर्तन गिफ्ट किये गए. जिन पर ‘लाखेरी बंधु सहकार’ खुदा होता था. यह संस्था 1974 मई तक बदस्तूर चलती रही. मेरे वापस लाखेरी आने के बाद विघटित हो गयी क्योकि कुछ मित्र लोग कोटा इंस्ट्रूमेंटेसन लि. में नौकरी पा गए थे, और कुछ को लाखेरी स्थानांतरण मिल गया था. उन दिनों की स्मृतियाँ आज भी जेहन में ताजी हैं.
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गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

आज पहली तारीख है...

रेडियो सीलोन से हर माह की पहली तारीख को किशोरदा की आवाज में ये फ़िल्मी गाना सुबह सवेरे ताजगी और उम्मीदें देकर जाता था. वो दिन, वो सुबह की फिज़ायें, गाने की गुदगुदी, सब गायब हो गयी हैं क्योंकि आज भी रोज की ही तरह देश भर में मुद्रा के लिए फिर मारा मारी होगी. 

यद्यपि मोदी जी की नोटबंदी से सारा ज़माना हलकान हुआ है, पर बहुत से लोग खुश भी हैं कि पड़ोसी के गुदड़ी भी खुल रही है. भ्रष्टाचार में सरोबार देश एक इंकलाब से गुजर रहा है, सभी राजनैतिक लोग इस सैलाब में अपना अपना नफ़ा-नुकसान तलाश रहे हैं. कल रात के समाचारों में ये चिंता भी व्यक्त की जा रही थी कि नौकरीपेशा को अपनी सैलरी की रकम कैसे मिल पायेगी? बाजार में मंदी और बेतहाशा बढ़ी हुए महंगाई की मार साफ़ दिखाई दे रही है क्योंकि छोटी करेंसी का टोटा हो रहा है. यों दिल खुश करने के लिए सत्ता समर्थक, मीडिया व इंटरनेट पर तरह तरह के टोटके और जुमले परोस रहे हैं, लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि अधिकाँश लोग कैश की कमी की वजह से परेशानी में हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह मोदी जी का साहसिक/दुस्साहसिक कदम है. उन्होंने 8 नवम्बर की शाम जब एकाएक इसका ऐलान किया था तो सभी राष्ट्र प्रेमियों की तरह मुझे भी बहुत खुशी हुई थी. तब इनके साइड इफेक्टस के बारे में बहुत नहीं सोचा गया था. आज 22 दिनों के बाद भी सर्व साधारण जन, घंटों बैंकों व एटीएम के सामने लाइन लगा कर खड़े रहने को मजबूर हैं. नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप या हड़ताल-हुल्लड़ से इसका समाधान होने वाला नहीं है. इसको कुछ लोग ‘टीथिंगप्रॉब्लम’ नाम दे रहे हैं. ये उनका आशावाद है. गौर तलब बात यह भी है कि जिस किसी देश ने भूतकाल में अपनी मुद्रा का इस तरह पटाक्षेप किया, वहाँ की जनता को लम्बे समय तक अप्रत्याशित कष्टों से गुजरना पड़ा है.

सर्व साधारण जन, विशेष कर, हमारे देश के मजदूर व किसान एटीएम, पेटीएम या कैशलेश ट्रांसेक्शन की रफत में नहीं है, और ना ही इतनी जल्दी सीख-सिखा पायेंगे. अत: उनके लिए उपदेश नहीं, कैश की फौरी व्यवस्था की जानी चाहिए अन्यथा इसके दुष्परिणाम होंगे.
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गुरुवार, 3 नवंबर 2016

समय बलवान

श्रीयुत रमेश कुमार सूरी जी ने एक "Just an Awareness Message" फेसबुक पर डाला है. इस विचारोत्तेजक लेख को स. महेंद्रसिंह जी ने शब्दश: "मेरे विचार" शीर्षक से पुन: प्रकाशित करके आज के हमारे बदलते सामाजिक परिवेश को दर्पण दिखाया है. हम क्या थे और क्या हो गए हैं? दीपावली जैसे राष्ट्रीय+धार्मिक त्यौहार पर लोगों का स्नेह मिलन एक औपचारिकता तक सीमित होता जा रहा है.

मैट्रोपोलिटन शहरों में ही नहीं छोटे कस्बों व गावों में भी अब सामाजिक ‘कल्चर’ बिलकुल बदल गया है. लोगों की जिन्दगी ‘फास्ट’ व ‘कॉस्मेटिक’ होती जा रही है. भारतीयता की सनातनी धरातल पर पाश्चात्य का रंग छा गया है. खानपान से लेकर पहनावे तक, साहित्य तथा कला से लेकर सामाजिक/पारिवारिक व्यवहार अपरिमित ढंग से बदल गया है, और बदलता जा रहा है. कुछ समय पहले जब टेलीवीजन हमारे बैठक अथवा बेडरूम घुसा था तो हम इसे ही नई सोच व परिवर्तन के लिए कोसा करते थे, परन्तु अब तमाम संचार माध्यम हमारी ‘नवीनता’ के लिए जिजीविषा को दोष दे रहे हैं, जो निरंतर जारी है. हमको अपनी ‘लाइफ स्टाइल’ समय के साथ बदलनी होगी.

बुढ़ा गयी हमारी पीढ़ी पहले के जैसे संबंधों को याद कर होली, दीवाली, ईद, या मौसमी उत्सवों पर ‘मिलन सुख’ को अब तरसती रहती है. अब बच्चों के पास भी इतना समय नहीं रहता है कि माँ-बाप से सकूंन पूर्वक आशीर्वाद ले सके. सिर्फ दस्तूर निभाये जा रहे हैं. अपवाद छोड़कर चोर-चकार भी हाईटेक हो गए हैं, सीधे साइबर डाका डालने लगे हैं. सारा चरित्र बदल गया है.

मैं आदरणीय सूरी जी का दर्द समझ रहा हूँ. उन्होंने अपने जीवन का ‘प्राइम टाईम’ कारखानों के कैम्पसों में स्नेहिल वातावरण में बिताया है, जिसे भुलाना मुश्किल है. मैं भी रिटायरमेंट के बाद यहाँ हल्द्वानी शहर (नैनीताल) के आउटस्कर्ट में आधुनिक गाँव गौजाजाली में निवास कर रहा हूँ. अधिकतर लोग पूर्व फ़ौजी या मेरी तरह परदेस से नौकरी करके घर लौटे हैं. हमने अपनी गली-मोहल्ले में होली-दिवाली पर सामूहिक रूप से शुभ कामनाऐं देते हुए हर घर-परिवार पर दस्तक देने की परम्परा डाल रखी है. पुरुष व महिला वर्ग उत्साह के साथ इसमें शामिल होते हैं. जाहिर है, मिष्ठान्न व मनोरंजन से ये त्यौहार परिपूर्ण रहते हैं.

जो लोग अपनी जमीन से दूर हो गए हैं, या अब जिनकी सामाजिक जड़ें नई जगहों पर  प्रत्यारोपित हुई हैं, उनका दर्द शब्दों में व्यक्त हो सकता है, पर घड़ी की सुई कभी भी पीछे को नहीं लौटेगी. यही प्रकृति का नियम है और यही नियति है. "समय बड़ा बलवान है" यह मानकर चलना चाहिए.
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सोमवार, 19 सितंबर 2016

पुण्य स्मरण

सभी धर्मों या विश्वासों में अपने पितरों को पूजने व याद करने के तरीकों का निरूपण किया गया है. हमारे सनातन धर्म में भाद्रपद मास के पूरे कृष्ण पक्ष को पितरों को समर्पित किया गया है. मातृपक्ष व पित्रपक्ष दोनों ही के तीन तीन पीढ़ियों को पिंडदान व तर्पण करके उनके मोक्ष की कामना की जाती है. हमारे धार्मिक साहित्य में वैदिक काल से ही श्राद्ध के विषय में अनेक विधि-विधान व कथानकों का उल्लेख मिलता है. यह भी सत्य है की श्राद्धों में पोषित पुरोहित वर्ग द्वारा कर्मकांडों में अनेक पाखण्ड जोड़े जाते रहे हैं, परन्तु इससे श्राद्ध का महत्व कम नहीं होता है.

मेरे माता-पिता का श्राद्धकर्म मेरे अनुज श्री बसंत बल्लभ द्वारा हर वर्ष नियमित रूप से विधिपूर्वक किया जाता है. मैं भी सपत्नी उसमें शामिल रहता हूँ. आज हम जो कुछ भी हैं, माता-पिता के पुण्यप्रताप व उनके आशीर्वादों के फलस्वरूप ही हैं. आज के ही दिन यानि 19 सितम्बर को हमारे पिताश्री की पुण्यतिथि भी है. यद्यपि उनसे बिछुड़े 36 वर्ष बीत चुके हैं, कुछ ऐसा आत्मिक अनुबंध है कि मैं उनकी पुण्य आत्मा को आज सशरीर अपने आसपास अनुभव कर रहा हूँ. उनके आशीर्वचन का छत्र सभी स्वजनों पर बना रहे ऐसी कामना है.
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मंगलवार, 23 अगस्त 2016

अँधेरे में तीर

कश्मीर समस्या के लिए मोदी सरकार की नीति शुरू से ही अँधेरे में तीर मारने जैसी रही है. इन्होंने वहां की सत्ता में हिस्सेदारी लेने के लिए मुफ्ती की पार्टी, पीडीपी, से जुगाड़ करके एक अपवित्र गठबंधन किया, जबकि चुनाव के समय स्वयं मोदी जी ने ‘बाप-बेटी की सरकार’ के विरुद्ध खुले मंच से हिकारतपूर्ण हुंकार भरे थे. यह भाजपा की अदूरदर्शिता थी, जिसका खामियाजा अब पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है, और आगे आने वाले समय में भी भुगतना पड़ सकता है.

अपनी मुस्लिम विरोधी छवि को धोने के लिए तमाम टोटके मोदी जी ने किये हैं. उनका ‘नवाज़-प्रेम’ इसका एक खुला दस्तावेज है, जबकि पाकिस्तान एक मार खाये हुए जहरीला सांप की तरह है, जो कभी भी भारत का सगा नहीं हो सकता है. उसकी बुनियाद ही भारत के प्रति घृणा और दुश्मनी पर आधारित है. इंदिरा जी के समय के शिमला समझौते से लेकर अटल जी के समय तक जितनी बार भी द्विपक्षीय ‘मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग' साइन हुए, हर बार पाकिस्तान की तरफ से धोखेबाजी हुई है. सच तो यह है कि वहाँ सेना या नामनिहाल लोकतांत्रिक राजनैतिक पार्टी, सबकी रोटी कश्मीर नाम के गरम तवे पर ही सिकती है.

हाल ही में इस्लामाबाद में 74 मुस्लिम राष्ट्रों ने एक स्वर में कश्मीर का राग पाकिस्तान के साथ मिलकर लापा है. जबकि दुनिया यह मान चुकी है कि आतंकवाद की जड़ें पाकिस्तान में ही हैं और फंडिंग से लेकर ट्रेनिंग तक वहां की सरकार/ सेना/ खुफिया एजेंसीज करती रही हैं. यह हमारी विदेश नीति की कमजोरी दर्शाता है.

मुफ्ती एंड कंपनी की पूरी हमदर्दी अलगाववादियों के साथ रही है इसलिए आज जिस अंधे मोड़ पर कश्मीर की समस्या पहुँच गयी है, वहाँ से भाजपा के लिए भी सुरक्षित लौटना संभव नहीं लगता है.

हमारे सुरक्षा कर्मियों पर पत्थरबाजी/ ग्रेनेड हमले निरंतर जारी हैं, कई इलाकों में पिछले 45 दिनों से कर्फ्यू जारी है, जनजीवन अस्त व्यस्त है; सरकार की इससे बड़ी विफलता और क्या हो सकती है?
हाँ, अपनी पीठ खुद थपथपाते रहिये.
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सोमवार, 15 अगस्त 2016

चुहुल - ८०

(१)
अस्पताल के मैटर्निटी वार्ड के बाहर एक आदमी बड़ी बेचैनी से घूम रहा था. किसी मित्र ने पूछ लिया, “क्यों परेशान हो भाई?"
वह बोला, “मेरी पत्नी को चौथा बेटा पैदा हुआ है.”
मित्र ने कहा, “यह तो खुशी की बात है.”
वह बोला, “पर दुःख की बात यह है कि वह चायनीज है.”
मित्र ने पूछा “वह कैसे?”
वह अफसोस के साथ बोला, “मैंने कल ही यू.एन. की रिपोर्ट पढ़ी है कि दुनिया में पैदा होने वाला हर चौथा बच्चा चायनीज होता है.”
 (२)
एक पाकिस्तानी सुन्दरी बनठन कर अपने शौहर से पूछती है, “कैसी लग रही हूँ?”
शौहर बोला “खुदा कसम तुमको हिन्दुस्तान की तरफ फैंकने का मन हो रहा है.”
सुन्दरी बोली, “साफ़ साफ़ क्यों नहीं कह रहे हो कि ‘बम’ लग रही हूँ.

(३)
एक फिल्म डाइरेक्टर एक मोटी सी मॉडल से कहता है, “क्या तुम मेरी नई फिल्म में काम करना चाहोगी?”
मॉडल – किस तरह का कैरेक्टर है?
डाइरेक्टर – बस जलक्रीड़ा करनी है.
मॉडल – फिल्म का नाम क्या है?
डाइरेक्टर – ‘गयी भैंस पानी में.’

(४)
पत्नी – वो आदमी जो दारू पीकर मस्त नाच रहा है, इसे मैंने दस साल पहले रिजेक्ट किया था.
पति – वाह, बड़ा खुशनसीब निकला, अभी तक सेलिब्रेट कर रहा है.


(५)
एक तंदुरुस्त आदमी विकलांग लोगों के लिए रिजर्व सीट में बैठ कर सफ़र करता पाया गया. टी.टी. ने उससे पूछा, “तुम इस सीट पर क्यों बैठे हो?”
आदमी बगल में रखे टोकरी की तरफ इशारा करते हुए बोला, "जी सर, ये मेरे साथ हैं."
टी.टी. – ये तो आम हैं.
आदमी – जी हाँ, ये सभी लंगड़े हैं.
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शनिवार, 23 जुलाई 2016

चुहुल ७९

(१)
नारी मुक्ति आन्दोलन की शिकायत पर पुलिस ने एक आदमी का चालान करके मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया. उस पर आरोप था कि उसने अपनी पढ़ी-लिखी पत्नी को दस वर्षों तक इस तरह कंट्रोल में रखा कि बेचारी सहमी सहमी रहती है.
मजिस्ट्रेट – तो तुमने दस वर्षों से डरा-धमका कर अपनी बीवी को कंट्रोल में रखा हुआ है?
मुलजिम  हुजूर, बात ऐसी है कि ...
मजिस्ट्रेट – सफाई देने की जरूरत नहीं है, तुम बस तरीका बताओ.
  
(२)
एक भद्र महिला ने अदालत में अपने पति से तलाक की गुहार लगाई तो जज साहब ने कारण पूछा.
महिला बोली, “वे मेरे प्रति वफादार नहीं हैं.”
जज  इसका क्या सबूत है तुम्हारे पास?
महिला – मेरे चार बच्चों में से किसी की भी शक्ल उनसे नहीं मिलती है.

(३)
रेल के डिब्बे में एक बुजुर्ग ने अपने सामने की सीट पर बैठे व्यक्ति से कहा, “माफ़ करना भाई, तुम बड़ी देर से कुछ कह रहे हो, लेकिन मैं ऊंचा सुनता हूँ. क्या आप ज़रा जोर से बोलेंगे?”
सामने वाला बोला, “मैं बोल कहाँ रहा हूँ? मैं तो चूइंग-गम चबा रहा हूँ.”.

(४)
डॉक्टर (मरीज से)  आपको कभी न्युमोंनिया से तकलीफ हुई थी क्या?
मरीज – हाँ, एक बार हुई थी.
डॉक्टर – कब हुयी थी?
मरीज – जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो मेरी टीचर ने न्युमोंनिया की स्पेलिंग पूछी थी.

(५)
ताऊ झगड़ा करके अपने घर से नाराज होकर कहीं चला गया. जब बहुत दिन हो गए, तो उसका बेटा अपनी महतारी से बोला, “मन्ने तो लागे है कि बापू ने कदी ओर घर बसा लियो है.” इस पर महतारी ने गुस्से में एक थप्पड़ रसीद कर दिया, और बोली, “तू गल्त क्यों बोल रिया, तेरा बापू कदी ट्रक के नीचे भी तो आ सके है.”
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रविवार, 3 जुलाई 2016

चुहुल - ७८

(१)
एक व्यक्ति को जब शराब पीने के जुर्म में जज साहब ने एक महीने की जेल की सजा सुनाई तो दया मांगने के भाव में वह बोल उठा, “जज साहब, मैंने शराब नहीं पी रखी थी...  मैं तो बस पीने जा रहा था.”
जज साहब बोले “तब ठीक है, मैं तुम्हारी सजा एक महीने से कम करके केवल  ३० दिन कर देता हूँ.”

(२)
(स्थान: हरियाणा का एक गाँव)
ताऊ बोल्यो, “अरी ओ भागवान, दरवज्जे पर एक कुत्ता आया सै, रोट्टी ले आ.”
ताई बोली, "रोट्टी तो कोई ना बची सै."
ताऊ बोल्यो, "तब तो तू म्हारो लट्ठ ले आ. इसे खाली नी जाणे देणा है."

(३)
एक पुलिसवाले को एक लड़के के थैले में कुछ संदिग्ध सामान होने का संदेह हुआ. उसने लड़के को रोक कर पूछा, “थैले में क्या है?”
लड़का बड़ी संजीदगी से बोला, “बताते हैं.”
सिपाही ने जोर देकर बोला, “जल्दी बता?”
लड़के ने उसी लहजे में फिर कहा, “कहा ना, बताते हैं.”
पुलिसवाला उसका मुंह देखता रहा, जब वह आगे कुछ नहीं बोला तो गुस्से में आ गया; इतने में उस लड़के का साथी दौड़कर आया और बोला, “ये तुतलाता है. इसके थैले में बताशे हैं.”

(४)
एक ग्रामीण परिवेश की महिला अपने छोटे बच्चे के साथ रेल में सफ़र कर रही थी. बच्चे ने अपना पायजामा गीला कर दिया तो वह उसे बदलने लगी. सामने की सीट पर बैठी शहरी परिवेश वाली महिला बोल उठी, “हगीज नहीं है क्या?”
बच्चे की माँ बोली, “नहीं, बहन जी, हगीज नहीं मुतीज है.”

(५)
एक महिला अपने घरेलू नौकर को हर वक्त डांटा करती थी. कभी कभी तो बेवजह भी. एक बार जब वह जोर जोर से डांट रही थी तो उसके पति ने पूछ लिया, “अब क्या कर दिया जो इतना चिल्ला रही हो?”
महिला शिकायत भरे अंदाज में बोली, “ये आजकल बहुत बेवकूफी करने लगा है. मैंने इसको दो अंडे लाकर दिए थे कि एक को बॉईल करके और दूसरे का ऑमलेट बना लाये, लेकिन ये उलटा करके लाया. जिस अंडे का ऑमलेट बनाना था, उसे बॉईल कर लाया, और जिसको बॉईल करना था, उसका ऑमलेट बना लाया है.”
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मंगलवार, 28 जून 2016

अहसानमंद

हल्द्वानी महानगर के चारों तरफ उभरी हुई नई बस्तियों में कई लोग पहाड़ के अनजाने गांवों से पलायन करके या अपनी नौकरियों से रिटायर होकर बहुतायत में आ बसे हैं, जिससे एक नई सांस्कृतिक रिश्तेदारी बन गयी है. ऐसा ही है मेरा गाँव, गौजाजाली.

एक दिन संयोगवश मैं किसी व्यक्तिगत निमंत्रण पर एक एडवोकेट मित्र के पास बरेली गया था. सुबह सुबह अखबार में छपे एक समाचार ने मेरा ध्यान आकर्षित किया कि मेरे गाँव के एक मातवर व्यक्ति की कार से बरेली में एक दुर्घटना घटी, जिसमे दो लोग चोटिल हुए, नतीजन पुलिस केस बनाकर उनको जेल में डाल दिया गया. इस बात को तीन दिन हो गए थे, और उनको जमानत नहीं मिल पा रही थी.

यद्यपि मेरी उनसे घनिष्टता नहीं रही थी, फिर भी उनकी इस परेशानी की घड़ी में मदद करने का मन हुआ. मैंने उनसे मुलाक़ात की, और अपने एडवोकेट मित्र से संपर्क करके जमानत दिलवाने की तुरंत कार्यवाही करवाई. वे रिहा हो गए और शायद बाद में कुछ ले-दे करके केस रफादफा भी हो  गया था. ये लगभग दो साल पुरानी दास्तान है. इन दो सालों में उनसे यदाकदा मुलाक़ात भी होती रही, पर मैंने उनकी आँखों में कभी भी कृतज्ञता का भाव नहीं पढ़ा. यद्यपि मैंने उनकी अनपेक्षित सहायता का कोई प्रतिदान नहीं चाहा, परन्तु उनका ‘तोताचश्म’ होना अखरता जरूर रहा.

कुछ दिनों बाद, एक ताजी घटना से कृतज्ञता भाव पर नया आयाम उभर कर आया. हुआ यों कि मैं पत्नी सहित हल्द्वानी शहर में अपने एक निकट संबंधी के घर मिलने गया था. अपनी कार मैं स्वयं ड्राइव कर रहा था. जब दोपहर बाद घर लौटा तो घर के गेट पर गली की एक उम्रदराज महिला अपनी बहू के साथ इन्तजार करती हुयी मिली. वह अस्वस्थ थी और अपना ‘ब्लड प्रेशर’ चेक करवाना चाहती थी. मेरे आसपास के लोग आवश्यकता होने पर मेरी मेडीकल चेरीटेबल सेवा का लाभ लेने में संकोच नहीं किया करते हैं.

मैं अपनी गाड़ी गैरेज में डाल कर उनकी सेवा में लग गया. उस दिन बाहर बला की गर्मी व उमस व्याप्त थी. ना जाने कब गेट खुला पाकर एक जानदार ‘रोडस्टर’ कुत्ता ठंडक पाने के लिए मेरे गैरेज में चुपचाप छुप कर बैठ गया. मरीज के जाने के बाद मैंने गैरेज का शटर नीचे खींच कर बंद कर दिया. कुता दो दिन, दो रात भूखा-प्यासा अन्दर बंद रहा. हमारे बेडरूम दूसरी दिशा में होने के कारण तथा टेलीवीजन की गीत-संगीत की आवाज होने के कारण हम कुत्ते की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से अनजान रहे. तीसरे दिन मेरी श्रीमती को शटर के अन्दर कुछ खटपट होने का आभास हुआ. मैंने जैसे ही शटर उठाया वह दुम हिलाता हुआ बाहर दौड़ा आया. उसने गौर से मुझे देखा और गेट खुलने पर तेजी से बाहर निकल गया. मैंने कुत्ते का हुलिया बयान करते हुए अपने ‘ईवनिंग वॉक’ मंडली को बताया तो मालूम हुआ कि ये उन्ही मतावर व्यक्ति का पालतू कुत्ता था, जिनका जिक्र ऊपर बरेली काण्ड में आया है.

कुत्ते की स्थिति का जायजा लेने जब हमारी टीम उनकी गली में पहुंची तो वह कुत्ता मुझे पहचानते हुए मेरे पैरों में लोटपोट हो गया. बहुत देर तक वह मेरे इर्दगिर्द घूम कर लाड़ बताता रहा. शायद इसलिए कि मैंने उसे हिरासत से बाहर निकाला था. इंसान और जानवर के अप्रतिम व्यवहार का अंतर देखकर मेरा मन भर आया.
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गुरुवार, 12 मई 2016

गुबार

मैं लाख कोशीशें करू या कहूं कि मेरी किसी राजनैतिक पार्टी से संबद्धता नहीं है, परन्तु मेरे मन-मस्तिष्क पर जो विचारधारा धरातल बनाकर बैठी है, वह नित्य प्रतिक्रियास्वरूप बाहर आती रहती है, और हो सकता है कि आप इससे सहमत ना भी हों.

वर्तमान में केंद्र में सत्तासीन पार्टी भाजपा के बारे में अब party with difference  वाले जुमले को सुन कर तकलीफ होने लगी है. बहुत वर्षों पहले जब श्री गोविन्दाचार्य जी भाजपा के नीति निर्धारक थिंक टैंक के स्पष्टवादी व कट्टर व्यक्तित्व वाले सिद्धांतवादी व्यक्ति थे और पार्टी नेतृत्व गाइड लाइंस के बाहर जाकर party with difference के जुमले को बार बार चोटिल कर रहे थे तो उस मौजू में एक पत्रकार ने उनसे सीधा प्रश्न किया था कि क्या वे भाजपा को कांग्रेस पार्टी के विकल्प के रूप में तैयार कर रहे हैं. तब उन्होंने बड़े दु:खी मन से पार्टी के कर्णधारों की सोच पर प्रतिक्रया व्यक्त की थी कि ये लोग विकल्प नहीं, दूसरी कांग्रेस बनाने की प्रक्रिया में हैं. जो आज सच साबित हो रही है. यहाँ गौर तलब बात यह है की इन्ही सैद्धांतिक मतभेदों के चलते गोविन्दाचार्य जी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था. यद्यपि वे आज भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हैं.

हाल में उत्तराखंड की रावत सरकार को गिराने का जोरदार ड्रामा हुआ उससे भाजपा के नीतिकारों को अवश्य शर्मिन्दगी सता रही होगी, अगर नहीं सता रही होगी तो उनकी party with difference वाली आत्मा मर चुकी होगी. आज भाजपा के नेताओं का ये वक्तव्य इस बात को तस्दीक करती है कि अगर काग्रेस के बागी विधायक भाजपा में आना चाहें तो उनका स्वागत होगा. जब तक वे कांग्रेस में थे, चोर, बेईमान व चरित्रहीन थे, और उनके खिलाफ भाजपा वालों ने आन्दोलन तक किये थे. और अब वे रातों रात आदर्श हो गए हैं.

मेरे बहुत से मित्रगण भाजपा के सक्रिय व समर्पित सदस्य हैं, जो शायद ये नहीं सुनना चाहेंगे कि पिछले दो वर्षों में खाद्य पदार्थों, दवाईयों, तथा अन्य सभी जरूरी वस्तुओं के दाम लगभग दुगुने हो गए हैं. इस सरकार की नीतियों ने अल्प बचतों पर ब्याज की दर कम करके ब्याज पर गुजारा करने वाले मध्यम वर्ग की कमर तोड़ दी है. पिछली भ्रष्ट कांग्रेस सरकार को गालियाँ देते रहने से आप अपनी नाकामियों को छिपा नहीं सकते हैं. बड़े पूजीपतियों के हितार्थ जो आर्थिक योंजनाओं का ढिढोरा पीटा जा रहा है, वे आगे जाकर राष्ट्र की अर्थ व्यवस्थाओं पर नकारात्मक परिणाम लायेंगी. रिजर्व बैंक पर अंकुश लगाने तथा न्याय पालिका के पर कतरने की सोच बेहद खतरनाक साबित हो सकती है.

पार्टी अध्यक्ष, जो मोदी जी के अभिन्न और राजदार भी रहे हैं, के अदालती केस में क्लीन चिट देने वाले सुप्रीम कोर्ट के चीफजस्टिस श्री सदाशिवम को रिटायरमेंट के तुरंत बाद केरल का गवर्नर बनाना एक ऐसा उदाहरण है जिसे सुपर भ्रष्टाचार की संज्ञा दी गयी है.   

मोदी जी द्वारा चुनावों में जो जुमले परोसे गए थे, उनकी असलियत सामने आने से आम लोग निराश हैं. ये दीगर बात है कि मीडिया का एक बहुत बड़ा तबका स्वार्थवश उनकी वाह वाही करता आ रहा है. यहाँ तक कि अंध भक्तों को उनकी अपानवायु में भी केवड़े की खुशबू  प्रतीत हो रही है.

धरातल पर पुलिस, पटवारी, तहसीलदार से लेकर सभी जनसंपर्क वाले विभागों में कांग्रेस राज की तरह से ही काम हो रहा है, बिना लिए दिए कोई काम नहीं होते हैं. सभी छोटे बड़े सरकारी प्रोजेक्ट्स जिनमें ठेकेदारी की व्यवस्था है, आकण्ठ भ्रष्टाचार यथावत है. मालूम सबको है.

किसानों की आत्महत्याओं का  मुद्दा, जिसे चुनाव के समय मोदी जी ने विशेष रूप से ऊंचे स्वरों में उछाला था, कहीं नेपथ्य में गुम हो गया है. आत्महत्याएं निरंतर जारी हैं.

विदेश नीति की चर्चा करें तो सभी निकटवर्ती देश ३६ के आंकड़े में हैं. रूस जैसे चिर मित्र के मन में अब हमारे प्रति संदेह हो गये हैं क्योंकि यहाँ पूरी अमरीकापरस्त नीतियों का पालन हो रहा है. विदेशों में स्वयं प्रायोजित कार्यक्रमों में भारतवंशियों का खुश होना स्वाभाविक है, पर ये विदेश नीति की सफलता का मापदंड नहीं हो सकता है.

जहाँ तक पूर्ववर्ती सरकारों का विषय है, सत्ता के लिए जोड़तोड़ व जातिगत/धार्मिक तुष्टीकरण की नीतियों से भाजपा बाहर नहीं निकल पाई है. जनता ने कांग्रेस पार्टी को केंद्र की सत्ता से बाहर का रास्ता इसीलिये दिखाया कि तालाब का पानी सड़ने लगा था, जिसमें ऊब और डूब दोनों होने लगी थी

अंत में आप भी मनन करें कि क्या वाकई party with difference  की भावना का अंत हो चुका है.
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शुक्रवार, 6 मई 2016

बैठे ठाले-१६ : ईमान का दिया

मेरे शहर हल्द्वानी में अनगिनत फेरीवाले कबाड़ी हैं. ये साईकिल पर सवार होकर गली-गली बस्ती-बस्ती आवाज लगाते जाते हैं. लोहा, पीतल, अल्म्युनियम आदि धातुओं से लेकर कांच के बोतल, प्लास्टिक का टूटा-फूटा सामान, तथा रद्दी अखबार, गत्ते, पुरानी कॉपी किताबें, सब कुछ ओने-पौने भाव में खरीद कर ले जाते हैं, और उसे कबाड़ के बड़े व्यापारियों तक पंहुचाते हैं. इन बेकार समझी जाने वाली चीजों की रीसाईक्लिंग होती है. ये धंधा कब शुरू हुआ इसका कोई निश्चित इतिहास नहीं है. मैं सोचता हूँ कि अगर ये कबाड़ यों ही घरों में पड़ा रहता है तो बदसूरत ढेर सा लगता है, पर अपने सही मुकाम पर पहुंचकर रूप बदल लेता है. ये जहाँ एक तरफ से सफाई है, दूसरी तरफ कुछ लोगों की आजीविका है. धूप हो, गर्मी हो, बारिश हो, या ठंड का मौसम हो, ये निरंतर फेरी लगाने वाले गरीब लोग अपने परिवारों का पेट पालने के लिए कसरत करने पर मजबूर रहते हैं. हल्द्वानी में अधिकांश कबाड़ी मुस्लिम हैं. किताबों व अखबारों को उठा कर तो ले जाते हैं, पर शायद ही पढ़-लिख पाते हों. यदि पढ़ना आता भी होगा तो उन्हें पढ़ने की फुर्सत नहीं होती होगी. 

कबाडियों का ये माजरा केवल हल्द्वानी तक ही सीमित नहीं है. देश के सभी छोटे बड़े शहरों-कस्बों में ये डंडीमार तराजू लेकर दर दर आवाज देते हैं. बहुत से लोग मजबूर व मजलूम भी होते होंगे, लेकिन कुछ शातिर भी होते हैं. आखिर हैं तो हमारे ही समाज से, जिसमें अनेक अन्दुरुनी विकृतियां हैं. यह पेशा ही ऐसा है कि अगर तोल में नहीं मारेंगे तो कमाई बहुत कम हो जायेगी. ठगते भी इस बखूबी से हैं कि आप देखते ही रह जाएंगे. इस कूड़े कबाड़ को बेचने वाले भी कम चिकचिक नहीं करते हैं. आप लाख कमाते हों, पर कबाड़ बेचते समय ऐसा मोल-भाव करेंगे, मानो हीरे बेच रहे हों. 

पुलिस वाले या सुरक्षा प्रहरी इनको चोर व उठाईगीर समझा करते हैं. कुछ अपवाद हो सकते हैं, क्योंकि यह सच है कि कबाड़ी के वेश में चोरी डकैती करने वाले कभी कभी रेकी भी करते हैं, और पकडे भी जाते हैं. कई बार इस विषय पर गम्भीरता से चर्चा होती है कि कबाडियों को लाईसेंस या परिचय पत्र देने चाहिए, पर यह कार्यान्वित नहीं हो पाता है.

मेरे घर में पुराने अखबारों के अलावा कोई अन्य प्रकार का कबाड़ा नहीं होता है. जब कुछ महीनों में जमा हो जाते हैं तो एक बुजुर्ग, इकराम कबाड़ी, आकर ले जाता है. वह अपने हिसाब से पैसे भी दे जाता है. कोई बहस हुज्जत नहीं होती है. कई वर्षों से ऐसा चलता आ रहा है. इकराम बड़ा सीधा और सरल आदमी है. मैंने जब उसको बताया कि अमरीका देश में घरों में क्विंटलों के हिसाब से अखबार आते हैं, और वहां कोई कबाड़ी नहीं घूमता है, म्युनिसिपैलिटी कूड़े के साथ उठाकर ले जाती है, तो वह वहाँ का रास्ता पूछने लगा था. इस बार सर्दियों में करीब दो माह मैं हल्द्वानी से बाहर रहा और वापस आकर तीन महीनों में इकराम के दर्शन भी नहीं हुए. इसलिए मैंने एक अन्य नौजवान कबाड़ी को रोक कर पूछा, अखबार किस भाव लेते हो? तो वह बोला, दस रूपये.” जब मैंने कहा, इकराम चाचा तो बारह के भाव ले जाते हैं? तो ये नया आदमी जिसने बाद में अपना नाम जाकिर बताया बोला, ठीक है, मैं भी बारह दे दूंगा. उसने रद्दी अपने ढंग से तोली और वजन दस किलो बताया. जब १२० रूपये देने की बारी आई तो रुपयों के बजाय अपना तराजू मुझको पेश करके बोला, अभी आप इसको रख लीजिये. मैं बाद में रकम दे जाऊंगा. मैंने पूछा, क्यों रूपये नहीं हैं क्या? वह रुआंसे स्वर में बोला, मैं बीमार चल रहा था. बड़े दिनों के बाद आज ही काम पर आया हूँ. मुझे स्वाभाविक रूप से उसकी बात पर हमदर्दी हो आई. मैंने कहा, कोई बात नहीं, बाद में दे जाना. तुम्हारा तराजू रख कर मैं क्या करूगा? उसने जल्दी जल्दी सामान समेटा और सलाम साहब कह कर चलता बना. मुझको अपने मन में बड़ा संतोष सा हो रहा था कि उसकी मजबूरी पर मैंने कोई शर्त नहीं लगाई. सोचा, वह ना जाने किस मजबूरी में होगा.

बात आई-गयी हो गयी. मैं उस धटना को भूल सा गया था. सचमुच, मैं उसकी शक्ल भी भूल गया था. इस बीच हमारी सीनियर सीटीजंस की बैठक में किसी बात पर मैंने इसका जिक्र किया तो साथियों ने मेरी दानवीरी का मजाक बनाया. एक सज्जन बोले,  मियाँ, सतयुग को गुजरे तीन युग हो चुके हैं, तुम कहाँ जी रहे हो?

आज सुबह मुझे सुखद आश्चर्य तब हुआ जब जाकिर घंटी बजाकर रूपये देने के लिए घर के गेट पर खड़ा मिला. इस युग में बड़े बड़े लोग बेशक बेईमानी करते हैं, लाखों-करोड़ों डकार जाते हैं, पर जाकिर जैसे गरीब लोगों ने इस अंधेरे में ईमान का दिया जलाए रखा है.
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गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

एक सर्वहारा की मौत

स्व. गुरुनाथ सन १९७२ में ए.सी.सी. शाहाबाद की माईन्स में बतौर मजदूर कार्यरत थे. जब मैं शाहाबाद के कर्मचारी यूनियन का जनरल सेक्रेटरी चुना गया, गुरुनाथ को जोईंट सेक्रेटरी का पद दिया गया. प्रेसिडेंट कामरेड श्रीनिवास गुडी ने जिस पार्टी कैडर को तैयार किया था, उसमें गुरुनाथ अग्रगण्य थे. काम्रेड गुडी के स्वर्गवास के बाद जब इस पूरे इलाके में लीडरशिप का वैक्यूम हो गया था तो गुरुनाथ ने शाहाबाद व वाडी के कर्मचारी संगठनों पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया. वे मात्र हाई स्कूल तक ही पढ़े थे, लेकिन अपनी संगठन चातुर्य व दमदार आवाज के बल पर छाये रहे. उसी बीच दो बड़ी घटनाओं ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी. शाहाबाद के कारखाने को ए.सी.सी. ने नब्बे के शुरुआती दशक में अन्य पार्टी को बेच दिया. नए मालिकों की सोच केवल मुनाफ़ा कमाना था. ये गुरुनाथ के लिए संघर्ष के दिन थे. तभी कर्नाटक में विधान सभा चुनावों में सी.पी.आई. के टिकट पर वे विधायक बन गए और गठजोड़ की सरकार में स्टेट लेबर मिनिस्टर बना दिए गए.  उनका आक्रामक स्वभाव व सर्वहारा बैकग्राउंड--मड्डी-झोपडपट्टी के एक अति पिछड़े समाज के सदस्य से ऊपर उठकर बंगलूरू में स्टेट मिनिस्टर बनना--के कारण वे जल्दी विवादों में भी आते रहे. परन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि विधान सभा के अगले चुनावों में उनको पार्टी टिकट नहीं मिलने पर वे स्वतंत्र उम्मेदवार के बतौर चुनाव लड़े और हार गए. वे राजनीति में पैदल हो गए. एक अपुष्ट समाचार ये भी था कि कलबुर्गी में घर बनाते हुए उनको गढ़ा धन मिल गया था. शाहाबाद-वाडी रोड पर उन्होंने एक पेट्रोल पम्प का मालिकाना हक़ प्राप्त कर लिया. यों वे समाचारों में रहते आये थे.

स्व. गुरुनाथ मेरे करीबी रहे थे. जब शाहाबाद कारखाना बिकने की कगार पर था तो वे सन १९९१-९२ में अपनी टीम सहित लाखेरी (राजस्थान) आये थे और उनके कारखाने को बिकने से बचाने के गुर जानना चाहते थे. मैं यहाँ अध्यक्ष था, पर सब जगहों की परिस्थितियाँ एक जैसी नहीं  हुआ करती हैं. शाहाबाद की बर्बादी उनकी नज़रों के सामने होती रही. कई मालिक बदलते रहे पिछले वर्षों में जे.पी. ग्रुप ने इसे खरीद लिया, पर अब उसने भी इसे किसी अन्य पार्टी को बेच दिया है. मैंने अपने ब्लॉग पर सलाम शाहाबाद-२ शीर्षक से विस्तार से इस बाबत लिखा है.

मैंने गत जनवरी में वाडी प्रवास के दौरान उनसे टेलीफोन से संपर्क किया था, पर वे अपनी व्यस्तता के कारण प्रोग्राम बना कर भी मिलने नहीं आ सके. आज मुझे सन्देश मिला है कि गुरुनाथ अब इस संसार में नहीं रहे हैं. उनका आज ही बंगलूरु में स्वर्गवास हो गया है. ये उनकी नियति थी. पूरे इलाके में शोक की लहर फ़ैली होगी. मैं भी दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना कर रहा हूँ.
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सोमवार, 21 मार्च 2016

बुरा ना मानो होली में

कुछ ना बचा है कहने को
     इस बार रंगीली होली में,
सब कुछ तो कह दिया था
     पिछली बार की होली में.

दुल्हन जानकार लाये जिसको
     नाच-नाच कर डोली में,     
किन्नर निकला वह नखरेला
     पकड़ा गया है बोली में.

सीमा पार की झूठी यारी
     जहर बुझे हैं गोली में,
फिर भी मुबारकबाद कहेंगे
    नाजिम अपनी होली में.

है आग लगी महंगाई की
     टोटे पड़ गए झोली में,
लफ्फाजी से पेट भरेंगे
     निगाहें वोटर की चोली में.

 आरक्षण की फिर ज्वाला होगी
     आग लगेगी घर-खोली में,
कुछ तो बोलो, कुछ तो बोलो
     मुंह खोलो तुम इस होली में.

कहकहा मार हंस रहे बेशरम
     कमा रहे घटतौली में,
जुमले बहुत हैं रंगों के
     फिर उछालेंगे रोली में.

रंगों का त्यौहार हमारा
      आओ गले मिलेंगे होली में,
थोड़े में ही बहुत कहा है
     बुरा ना मानो होली में.

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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

गागल सीमेंट वर्क्स, बिलासपुर, हिमांचल प्रदेश

सन १९८४ में मैं ए.सी.सी. के लाखेरी कारखाने में कार्यरत था. किसी कार्यवश अपने कॉर्पोरेट आफिस (सीमेंट हाउस, चर्चगेट) मुम्बई गया था. वहां प्रवेश द्वार के पास स्वागत कक्ष के सामने एक भव्य, विशाल दृश्यावली वाली तस्वीर प्रदर्शित की गयी थी. उसे देखते ही मुंह से निकल पड़ा, "वाह." दृश्य बहुत मनोहारी था. नीले अम्बर के नीचे बड़े-बड़े खड़े पहाड़, जिनके तल पर गाँव-खेत और नीचे बीचोंबीच सर्पीली नदी, और तलहटी में एक नया सीमेंट कारखाना स्थापित हुआ था, जिसे नाम दिया गया था "गागल" (वैसे गागल हिमांचल में ही धर्मशाला के पास एक अन्यत्र स्थान का नाम भी है). यहाँ पहले से बसे गाँव का नाम बरमाना है.

सन १९९७ में मुझे यूनियन प्रतिनिधि के रूप में उत्तर-पश्चिम भारत के माईन्स विभाग द्वारा आयोजित एक सिम्पोजियम में भाग लेने के लिए यहाँ आना हुआ तो मैं अति उत्साहित था क्योंकि यहाँ की सुरम्यता मेरे मन मस्तिष्क में पहले से विद्यमान थी. जब मैं यहाँ पंहुचा तो सीधे ए.सी.सी. के सतलुज गेस्ट हाउस में ले जाया गया, जहां से मंत्रमुग्ध करने वाली नैसर्गिक छटा का दर्शन सुलभ था.

सतलुज नदी, जिसे प्राचीन साहित्य में सत्द्रुत कहा गया है, अपनी लाखों वर्ष पुरानी तेज धारा को निनादित करती हुई अविरल बहती जाती है. अब तो व्यास नदी का भी जल सुरंगों के माध्यम से इसमें लाया जाता है, जो आधुनिक भारत के तीर्थ भाखड़ा डैम में जाकर मिलता है. सतलुज के किनारे पर प्राचीन कस्बा डेहर बसा हुआ है जो किसी जमाने में हिमांचल का मुख्य द्वार व व्यापार का केंद्र भी रहा होगा. उसके पृष्ट पर पर्वत मालाएं हैं, जिन पर दूर से ही देवालय-देवस्थानों के दर्शन होते हैं.

कुल्लू-मनाली मार्ग पर बरमाना एक छोटा सा गाँव किसी समय मात्र १०-२० घरों की बस्ती रही होगी. बिलासपुर से आगे घाघस पार कर जहां पंजगाई-बैरी तक हम आते हैं तो घाटी के गोद में बसे हुए इस बड़े सीमेंट उद्योग की कल्पना नहीं करते हैं, लेकिन जब पूरा परिदृश्य सामने होता है तो कंपनी के उन कर्णधारों को साधुवाद कहने का मन होता है जिन्होंने इसकी स्थापना की परिकल्पना की होगी. जहां इस कारखाने के उत्पादन से राष्ट्रनिर्माण हो रहा है वहीं इस पूरे इलाके के वैभव में अपार वृद्धि हुई है.

कारखाने और रिहायसी कालोनी के आसपास जो सघन वृक्षारोपण हुआ है, उससे ये क्षेत्र अनुपम हो गया है. इसके साथ ही जो जो पुष्पवाटिका सतलुज उद्यान के आसपास पल्लवित और पुष्पित की गयी है, उससे इसे जंगल में मंगल की संज्ञा दी जा सकती है. खदान और कारखाने के बीच में एक फलोद्यान भी बनाया गया है, जहाँ हर आने जाने वाले विशिष्ठ व्यक्ति द्वारा एक पौधा लगाया जाता रहा है. मैंने भी एक आम का पौधा यहाँ लगाया था. तब इस कारखाने के प्लांट हेड सूरी जी व माईन्स मैनेजर चावला जी थे, जिनके द्वारा किया गया स्वागत-सत्कार की यादें इतने वर्षों के बाद भी जेहन में ताजा हैं.

ये संयोग रहा कि मेरा कनिष्ठ पुत्र प्रद्युम्न सन २००६ में इसी कारखाने में एच. आर. हेड स्थानान्तरित होकर आया. और मैं अगले तीन वर्षों तक उसकी पोस्टिंग के दौरान यहाँ रहा आता जाता रहा. श्री वासुदेव ठाकुर का जिक्र करना भी मैं नहीं भूलूंगा, जिन्होंने गागल को खूबसूरत बनाने में ही अपने सुनहरे दिन बिता दिए. वे अब रिटायर हो चुके हैं. इसके अलावा डॉ. पुष्पेन्द्र हांडा, जो वर्षों तक गागल के प्राण रहे, अब मुम्बई की वादियों में रह कर जरूर पुराने घरौंदे को याद करते होंगे. गागल में लाखेरी मूल के अनेक कर्मचारी आज भी कार्यरत हैं. ए.सी.सी. का पुराना कर्मचारी होने के नाते मुझे ये जानकर आनंद व सुख का अनुभव होता है कि ये कारखाना बहुत अच्छी स्थिति में चल रहा है. सब को शुभ कामनाएं.
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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

मैं प्यारेलाल ही ठीक हूँ

यों तो मेरा नाम इस्लाम मोहम्मद है, धर्मपरायण मौलवी साहब और मेरे अम्मी-अब्बू ने ये नाम बहुत खुशी खुशी दिया होगा. ये नाम ऐसा है कि इसके उच्चारण से ही मालूम हो जाता है कि मैं धरम से मुसलमान हूँ. पहली झलक में ही ये नाम ट्रेडमार्क की तरह मेरी पहचान है.

मैं उत्तर प्रदेश के उस इलाके के ग्रामीण परिवेश में बड़ा हुआ हूँ, जिसे मुजफ्फर नगर-मेरठ कहा जाता था. पिछले साल मेरे परिवार ने भी हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों/दंगों की त्रासदी झेली है. राजनैतिक रोटियाँ सेकने वालो ने इस इलाके का भाईचारा बिगाड़ कर रख दिया है, जिसके घावों को भरने में लंबा समय लग सकता है. शंकाएं, असहिष्णुता, व डर के भूत आज भी दिन रात सताते हैं.

मैं अपने वाल्देन की सात संतानों में सबसे बड़ा हूँ. मैं जब आठ साल का हुआ तो मुझे मेरी फूफी के पास मेरठ शहर में भेज दिया गया जहां मैं फूफा की छोटी सी मोटर रिपेयेरिंग वर्कशाप में काम सीखने लग गया था. मैंने कुछ ही सालों में स्कूटर, बाईक और मोटर कार रिपेयरिंग सीख लिया था तब मुझे अच्छा जेबखर्च मिलने लगा. १८ साल का होने पर मेरे फूफा ले मेरा ड्राईविंग लाईसेंस भी बनवा दिया था मेरे गाँवखेडा के चचा दिलावरखान पेपर मिल में ड्राईवरी करते हैं, जिन्होंने मेरी नौकरी वहाँ के एक मैनेजर उपाध्याय साहब के प्राईवेट ड्राईवर के बतौर ६००० रूपये माहे पर लगा दी तो मेंरी जिन्दगी की गाड़ी बढ़िया ढंग से चल पड़ी. मैंने साहब की होंडा सिटी कार चार सालों तक चलाई।  साहब पहले तो मुझे बच्चा समझ कर नौकरी देने में बहुत झिझके थे, पर बाद में पूरा भरोसा करने लगे थे. चूँकि मैं मैकेनिक भी था इसलिए वे मेरी अहमियत समझने लगे थे. मैं उनके बच्चों के साथ खूब घुलमिल भी गया था. उनके वहा काम करते हुए खुद के मुसलमान होने का या उनके हिन्दू होने का वैभिन्य भाव कभी प्रतीत नहीं हुआ. उसी बीच मेरी शादी भी गाँव में हुई तो साहब ने मेहरबानी करके अपनी कार मुझे शादी समारोह में ले जाने के लिए दे दी, जिससे मेरे परिवार नाते रिश्तेदार भी खुश हो गए थे. निकाह के वक्त खुद हाजिर होकर साहब ने मेरी शान बढ़ा दी थी. बाद में जब साहब की बदली दिल्ली को हो गई तो मैं भी उनके साथ ही दिल्ली आ गया था. मेरे रहने का इंतजाम एक डॉरमेटरी में था जहां अन्य बहुत से ड्राईवर भी रहते थे आपस में नोकारियों और तनखाह की बातें होती रहती थी. उनमें कुछ तो बड़ी तनखाह वाले भी थे. मुझे लगा कि मुझे कम तनखाह मिल रही है. एक दिन मैंने उपाध्याय साहब की नौकरी छोड़ कर एक कर्नल साहब (सरदारजी) के वहाँ दस हजार रुपयों की नौकरी पकड़ ली. कर्नल साहब की गैराज में तीन गाड़ियां थी, पर तनखाह बढ़ने के साथ ही यहाँ मेरी नौकरी चौबीसों घंटे की हो गयी थी. कर्नल साहब बड़े सख्त मिजाज के हैं. उनका गुर्राना, डांटना मुझे बहुत खलता था. मेरा चैन हराम हो गया था. जैसे तैसे एक साल काम किया फिर एक दिन जब नहीं सहा गया तो मैंने वह नोकरी भी छोड़ दी.

मैंने उपाध्याय साहब को जाकर सारी बात बताई और फिर से काम पर रखने का आग्रह किया, लेकिन उनके पास दूसरा ड्राईवर व्यवस्थित हो कर काम कर रहा था. मुझे उन्होंने भरोसा दिया कि जब भी जरूरत पड़ेगी फोन करके बुला लेंगे.

मैं पिछले आठ महीनों से बेरोजगार हूँ. गाँव में अपने परिवार के पास ही रहता हूँ. इस बीच मेरे भी दो बच्चे हो गए हैं. ये बेरोजगारी का दर्द वही समझ सकता है, जिसे ये व्यापी हो. मैंने कई जगह नौकरी के लिए संपर्क किया लेकिन बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि मेरा नाम अब मेरी नौकरी के आड़े आने लग गया है. जब से देश में सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ा है, हिन्दू मालिक मुझ से बिदक जाते हैं. रहा सहा दुनिया में निरीह लोगों को मारने वाले आतंकवादियों ने माहौल में इस कदर जहर घोल दिया है कि कोई मुझे काम पर रखने को तैयार नहीं हो रहा है. हालाकि एक बड़े नेता ने यों भी कहा है कि सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, पर सारे आतंकवादी मुसलमान हैं. अब अगर दिल चीर कर दिखाया जा सकता तो मैं भी जरूर दिखा देता, परन्तु निर्दोष होने का प्रमाण पत्र कहाँ से लाऊँ. देश के बहुत से माननीय साधू संत, सन्यासी, साध्वी इस्लाम के बारे में जिस तरह की भाषा बोल रहे हैं, उन पर कोई लगाम नहीं है और ना ही वोटों की राजनीति करने वाले मुसलमानों के रहनुमाओं के बोलों पर कोई लगाम है. बहरहाल इन सबका असर मेरे जैसे गरीब मेहनतकश के चूल्हे पर पड़ रहा है.

इस बीच उपाध्याय साहब का एक फोनकाल आया कि दो तीन दिन का काम है, तो मैं दिल्ली आया. मुझे बताया गया कि उपाध्याय जी के पिता यानि बाबू जी को किसी ख़ास रिश्तेदार के घर वृन्दावन लेकर जाना है, जहाँ पर किसी रिश्तेदार की मौत हुयी थी. बाबू जी को मैंने पहले भी देखा है वे कर्मकांडी, तिलकधारी पंडित हैं, पर मुझ से वे अपने पोते की तरह व्यवहार करते हैं. मैं बाबू जी को साहब की छोटी गाड़ी में वृंदावन लेकर गया एक बड़े से सजीले शोकाकुल बंगले पर हम पहुचे तो गाड़ी से उतरते ही बाबू जी ने मुझसे झुक कर कहा, यहाँ तुम्हारा नाम प्यारेलाल रहेगा, समझे! और मैं समझ गया.

मेरे रहने ठहरने व खाने की व्यवस्था परिवार के लोगों के साथ ही थी. तीसरे दिन तेरहवीं होने के बाद जब सब विदा होने वालों को तिलक-रोली लगाकर विदा किया जा रहा था तो मुझे भी बदस्तूर दक्षिणा दी गयी.

बाबू जी वापसी के लिए जब गाड़ी में बैठे तो मुझ से बोले, चल इस्लाम, अब चलते हैं.
तब भावविभोर होकर मैंने बाबू जी से कहा, बाबू जी अब मैं प्यारेलाल ही ठीक हूँ, आप इसी नाम से मुझे पुकारा कीजिये.
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शनिवार, 30 जनवरी 2016

पछ्पन साल

55th Wedding Anniversary
जब हम जवान थे तब एक हिन्दी फिल्म, "कल आज और कल" का ये सदाबहार गीत "जब हम होंगे साठ साल के, और तुम होगी पछ्पन की..." बहुत प्यारा लगता था. प्यारा तो आज भी लगता है, पर अब हम बहुत आगे बढ़ चुके हैं. मैं हो गया हूँ 77 का और अर्धांगिनी 72 पार कर चुकी हैं. संयोग ऐसा कि आज तीस जनवरी को हमारे विवाहोत्सव की 55वीं जयन्ती है. वैवाहिक जीवन का ये लंबा सफ़र मेरी श्रीमती की कुछ शारिरिक व्याधियों के रहते बहुत सपाट तो नहीं रहा, पर बहुत ज्यादा ऊबड़ खाबड़ भी नहीं रहा है. अब हम इस मुकाम पर आ पहुंचे हैं कि एक दूसरे के बिना एक दिन भी अकेले रहना मुश्किल लगता है. बेटे पार्थ व प्रद्युम्न, तथा बेटी गिरिबाला सभी अपने अपने परिवारों के साथ सुखी और संपन्न हैं. हम अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से बहुत पहले मुक्त हो चुके हैं. ये सब भगवदकृपा है, स्वर्गीय माता-पिता का आशीर्वाद है, छोटे भाई-बहनों का प्यार व मित्रों की शुभ कामनाओं का प्रताप है.
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शनिवार, 9 जनवरी 2016

जीवेत शरद: शतम्

एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में प्रतिदिन २०,००० लोग साठ वर्ष की उम्र पार करते जा रहे हैं. औसत आयु बढ़ने से वृद्ध जनों की संख्या में लगातार इजाफा होना स्वाभाविक है. 

ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों में रहने वाले वृद्ध जनों के बारे में लोगों की सोच अलग अलग तरह की होती है. गांवों में जहां भी सभ्य लोग रहते हैं, बुजुर्गों के प्रति सम्मान दर्शाते हैं, लेकिन अधिकाँश निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों में बुड्ढों को बूढ़ा बैल सा समझ कर रखा/पाला जाता है. (अपवाद बहुत से हो सकते हैं) वहाँ बुढ़ापा दिन काटना या मृत्यु का इंतज़ार करने जैसा होता है. ये बहुत गंभीर सामाजिक समस्या है. सरकार के समाज कल्याण विभाग का ध्यान शायद इस पर बहुत कम रहता आया है. शहरों में आर्थिक रूप से संपन्न लोगों की स्थिति जरूर भिन्न है. वहां वृद्ध लोगों की देखभाल उनके परिजन अच्छी तरह किया करते हैं. भारत में पश्चिमी देशों की तरह वृद्धाश्रमों की संकल्पना नगण्य है. क्योंकि ये हमारी संस्कृति में ये कभी था ही नहीं. पश्चिम की देखादेखी बड़े शहरों में जो वृद्धाश्रम रूपये लेकर चलाये जाते हैं, उनके निवासी मध्य वर्ग के वे लोग हैं जिनकी औलादें आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं, पर व्यस्तता व खुशामद करने की इल्लत से बचना चाहते हैं. सरकार द्वारा संचालित वृद्धाश्रमों में लाचार व त्यक्त बुजुर्गों की हालत अधिक सोचनीय होती है. प्राय: सुना जाता है कि इन ठिकानों में अधिकाँश वृद्धजन मानसिक रूप से बीमार यानि डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं. अफसोस ये है कि जीवन की आपाधापी में उनकी अपनी औलादें उनको सँभालने की सुध नहीं लेती है.

सरकार ने वृद्धजन हिताय अनेक क़ानून बना रखे हैं, पर वे सब कलह और झगड़े की जड़ साबित होते है. परिवरिश के लिए खर्चा माँगना हक तो है, पर सभी लोग इतने खुशकिस्मत नहीं होते हैं कि उनकी अपनी संतानें उनके दर्द को समझ पायें. प्राय: आज के जिम्मेदार लोग अपनी अगली पीढ़ी के हितों पर केन्द्रित होकर रह जाते हैं. उनको माता-पिता की इस त्रासदी का अहसास तब होता होगा जब वे खुद वृद्धावस्था की सीमा में आने लगते हैं.

बुजुर्ग चाहते हैं उनके बच्चे, जिनके लिए वे ताउम्र खटते रहे थे, अब उनको सम्मान के साथ रखें और उनके स्वास्थ्य की चिंता की जाए. सच तो ये भी है कि नाती-पोते पोतियों के सानिध्य और प्यार-दुलार से अभिभूत होकर ही वे बुढ़ापे की बैतरणी पार कर सकते हैं, पर साइबर युग के बच्चे अपने बुजुर्गों को कहाँ समझ पाते हैं. ये जनरेशन गैप शायद कभी नहीं भर पायेगा. इसलिए हर औलाद की जिम्मेदारी बनती है कि अपने माता-पिता या खानदान में रह रहे बुजुर्गों की देखभाल अवश्य करे. उनके सम्मान का ध्यान रखा जाए.
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