स्व. राम मनोहर
लोहिया जी नेहरू युग के सबसे बड़े समाजवादी नेता थे. वे प्रखर वक्ता थे, और भारत के
सच्चे जनवादी प्रतिनिधि थे. सत्ता पक्ष के सभी लोग भी इस विपक्षी नेता का दिल से
सम्मान करते थे.
देश की आजादी के
बाद आचार्य नरेंद्र देव, आचार्य कृपलानी, तथा अन्य स्वतंत्रता सैनिकों ने नीतिगत
मतभेद होने के कारण राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी को छोड़ कर अलग से सोशलिस्ट पार्टी
का गठन किया, यद्यपि बाद में अंदरुनी मतभेदों के चलते उसका भी विभाजन प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के रूप में हुआ. आजादी के बाद की ये बयार पूरे देश में नीतियों/
कुर्सियों/ व्यक्तिगत स्वार्थों के चक्कर में बड़ी तेजी से बहती रही थी और नौजवानों
को प्रभावित कर रही थी. तब सोशलिस्टों की ये जमातें फ्यूडल लोगों से मुक्त थी. उधर
हवा का रुख देखते हुए कांग्रेस पार्टी ने भी समाजवाद शब्द का मुखौटा अपना लिया था.
मैं सन 1960 में
बिना किसी राजनैतिक संस्कार के ही लाखेरी आया था. यहाँ सब तरफ कांग्रेस का वर्चस्व
था. विरोध के स्वर नक्कारखाने की तूती की
तरह उभरते जरूर थे, पर परिवर्तन के कोई लक्षण आम लोगों में नहीं दिखाई देते थे. क्योंकि
अधिकांश लोग सुविधाभोगी होते हैं. एक छोटी सी जमात सोशलिस्टों के नाम से विद्रोही
नौजवानों की जरूर थी, जिसमें ए.सी.सी. स्कूल के एक अध्यापक स्व. बद्रीप्रसाद व्यास अग्रगण्य
थे. अन्य थे, स्व. मोहम्मद इस्माईल हनीफी, मो. अमीन पठान, बजरंगलाल वर्मा (मेहरा), नैनगराम
बैरवा, अजीज तागेवाला, आदि. सबके नाम अब मुझे याद भी नहीं रहे हैं. बूंदी के नामी वकील स्व. बिहारीलाल गुप्ता और स्व. इलाहीबक्श (इस्माईल भाई के ससुर
–पेशे से कंपाउंडर) से मार्गदर्शन मिलता था. कोटा के वकील स्व. महावीर प्रसाद शर्मा ने कारखाने की कोल गेन्ट्री के मजदूरों की अलग
से सोशलिस्ट पार्टी के झंडे के तले एक हिन्द मजदूर सभा की यूनियन बनाकर फ्री सर्विस भी देते थे. इनका कार्यालय तेजाजी की टापरियों (अब गांधीपुरा) में खोला गया. ये यूनियन काफी वर्षों तक चला, पर ये सब कार्यकलाप आंधी
का रूप कभी नहीं ले पाए. सोशलिस्ट पार्टी को नगरपालिका, यूनियन और विधान सभा के चुनावों में सब जगह
हार मिलती रही. कार्यकर्ता बिखरते चले गए.
स्व. बद्रीप्रसाद
व्यास बड़े हरफनमौला थे. बॉटम में मांगीलाल कपड़े वालों की बगल में उन्होंने एक फोटो
स्टूडियो + छुटपुट सामानों की दूकान खोल रखी थी, और मेले-ठेले में पकौड़ी-जलेबी भी
बनाकर बेच लेते थे. व्यास जी सोशलिस्ट पार्टी के कर्ताधर्ता थे. नए नए लोगों को अपनी
मीटिंग में आमंत्रित किया करते थे. मुझे भी उनके न्योते मिले. मैं दो मीटिंगों में
जरूर गया, पर उनके बड़े बड़े बोल हजम नहीं हुए. उन्हीं दिनों (सन 1963 या 64) खबर आई कि ‘सुबह देहरादून एक्सप्रेस से
लोहिया जी बम्बई की तरफ जा रहे हैं, और ट्रेन पर कार्यकर्ताओं को दर्शन देंगे. कार्यकर्ताओं
को फूलमालाओं सहित रेलवे प्लेटफार्म पर पहुँचने का आग्रह किया गया उत्सुकतावश मैं
भी गया. कुल जमा आठ लोग थे.
फर्स्टक्लास के ए.सी.
कोच के दरवाजे पर लोहिया जी खड़े मिले और मालाएं लेने नीचे भी आये. उस दिन ट्रेन 5 मिनट तक रुकी रही. व्यास जी ने एक एक करके सबका परिचय दिया. जब मेरा नंबर आया तो
वे बोले, “ये हमारे नए सदस्य हैं.” उनका इस तरह से परिचय देना मुझे अखर गया क्योंकि
एक तो मैंने उनकी पार्टी की सदस्यता ग्रहण नहीं की थी, दूसरा खुद को पुराना
सोशलिस्ट बताने के लिए मेरा इस्तेमाल किया. मैंने बाद में व्यास जी से कहा, “नया
सदस्य कहने की कहाँ जरूरत थी?” उन्होंने बात को शातिराना तरीके से टाल दिया. उसके
बाद मैं उनकी सोहबत में कभी नहीं गया. पर लोहिया जी की मूरत आज तक मेरी स्मृति में है.
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