शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

पुदीने का फूल

मैंने बचपन से ही पुदीने का स्वाद चखा है और इसकी पौध भी देखी है, पर यहाँ अपने देश में मैंने पुदीने की पौध पर फूल कभी नहीं देखे. गत वर्ष संयुक्त राज्य अमेरिका के ज्योर्जिया राज्य के अटलांटा शहर में अपने बेटी-दामाद के कोर्टयार्ड में पुदीने के ऊँचे पौधों पर छोटे छोटे बैंगनी आभा वाले फूल देखने को मिले. यह पुदीना बहुत खुशबूदार व स्वाद में उतना तीखा चरपरा नहीं था जैसा हम भारत में पाते हैं.

मैंने पढ़ा है कि पुदीना विश्व के सभी उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पाई जाने वाली औषधीय वनस्पति है और आदि मानव से लेकर अब तक लोग किसी न किसी रूप में इसका प्रयोग करते हैं.

चूँकि पुदीने पर कभी फूल देखे नहीं थे इसलिए अजूबा सा लग रहा था. ‘पुदीने के फूल’ पर मुझे होलीकोत्सव पर किया गया अपना एक मजाक याद आ रहा है, जिसे मैं अपने पाठकों के साथ शेयर करना चाहता हूँ.

ए.सी.सी. लाखेरी (जिला बूंदी, राजस्थान) के आवासीय परिसर में हम लोग हर वर्ष होली के धुलंडी के दिन शाम को ३ घन्टे का एक हास्य कार्यक्रम, जिसे मूर्ख सम्मलेन भी कहा जाता था, आयोजित किया करते थे. महीने भर पहले से उसकी तैयारी की जाती थी. मैं उसका मुख्य सूत्रधार हुआ करता था. कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय होता था, नाटक, स्वांग, गीत- कविताएं, समाचार, उपाधि वितरण स्थानीय मुद्दों को लेकर किये जाते थे. पूरे कार्यक्रम में कोई अश्लीलता या भोंडापन बिलकुल नहीं होता था. एक जिम्मेदार लोगों की कमेटी इसे पहले सेंसर भी करती थी. इस आयोजन में किसी न किसी गण्यमान्य व्यक्ति को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित भी किया जाता था. सम्मानित क्या करते थे, उसका ठट्टा करते थे. शीर्षक होता था ‘बुरा ना मानो होली है’.

इस आयोजन के लिए हमारी कमेटी फैक्ट्री के कर्मचारियों व बाजार के दूकानदारों से चन्दा लिया करती थी. बाजार के लोग भी इस आयोजन का बड़ी बेसब्री से इन्तजार किया करते थे. बाजार में मोबिन भाई की एक साइकिल की नामी दूकान थी. उनसे चन्दा नकद ना लेकर गैस-पेट्रोमैक्स आदि प्रकाश की आपद्कालीन व्यवस्था की सेवा ली जाती थी. वे भी बहुत उत्साहित होकर सहयोग करते थे.

मोबिन भाई के वालिद (अब मरहूम) जनाब गुल मोहम्मद भी पहले दूकान पर बैठते थे. शहर में उनकी एक और बड़ी साइकिल की दूकान हुआ करती थी. मुझे मालूम नहीं लोग क्यों उन्हें ‘चाचा पुदीना’ कह कर चिढ़ाया करते थे. उनके साथ कोई ऐसी बात/घटना जरूर हुई होगी कि पुदीना से उनको चिढ़ थी. बच्चे तो बह बड़े लोग भी यह फिकरा उनको सुना कर मजा लेते थे. जवाब में वे गाली भी निकाल देते थे. उनकी यह कमजोरी पूरे इलाके वालों को मालूम थी.

सं १९८१ में मैंने मोबिन भाई का प्रशस्ति पत्र तैयार किया, जिसमें उनको “हे, पुदीने के फूल” से संबोधित किया गया. बकायदा उनको स्टेज पर बिठा कर यह प्रशस्ति पढ़ी गयी. लोगों ने पुदीने के फूल पर बहुत मजा लिया. हमारे लिए बात आई गयी हो गयी. उसके अगले वर्ष होली पर मैं उनसे फिर प्रकाश व्यवस्था के लिए मिलने गया तो वे बिफर पड़े, बोले, “मैं आप लोगों को इसलिए सहयोग नहीं करता कि आप मिलकर सार्वजनिक रूप से मुझे बेइज्जत करें. माफ करें मैं इस बार आपको सहयोग नहीं कर सकता.”

मुझे उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी, फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी. उनको पुदीने का फूल कहने से जो दु:ख पहुँचा, उसके लिए क्षमा माँगी, पर उनकी नाराजी बरकरार रही. जब मैंने उनसे कहा कि अगर वे नाराज ही रहे तो हम इस बार भी स्टेज पर ‘पुदीने के फूल’ पर फिर चर्चा करेंगे, तो वे नरम पड़ गए और पुन: सहयोगी बने. जब तक ये सम्मलेन चलता रहा वे सहयोगी बने रहे.

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बुधवार, 7 नवंबर 2012

रहमनिया

आपने रामकथा तो सुनी या पढ़ी होगी. उसमें एक दृष्टांत निषादराज का भी आता है, जो भगवान राम का परम मित्र बना और अमर हो गया. मैं उसी निषादराज के वंश की वर्त्तमान कड़ी की एक इकाई हूँ, और ना जाने किन अपराधों में शापित हूँ! शापित इसलिए कह रही हूँ कि ऊपरवाले ने मुझे सुगढ़-सुन्दर शरीर और रूप दिया लेकिन रंग पक्का यानि एकदम काला दिया है. यों तो मेरे माता-पिता दोनों ही सांवले थे

पर मैं अभागिन तो एकदम उल्टे तवे के रंग में खिली हूँ. दक्षिण भारत में तो मेरे जोट के बहुत से लोग हैं पर मैं यहाँ उस प्रदेश में जन्मी हूँ जहाँ अधिकतर लोग गोरे-चिट्टे या गोरी चमड़ी वाले होते हैं.

चावल के दानों के बीच मैं अकेली काले सोयाबीन की तरह अलग ही नजर आती हूँ. लोगों ने मेरे बचपन से ही मुझे ‘काली माई’ नाम दे रखा है. मुझे बुरा तो लगता है पर बोलने वालों का मुँह कौन बन्द कर सकता है? पिता काश्तकारी करते थे. समाज की पारम्परिक रीति रिवाज के अनुसार कम उम्र में ही मेरी शादी अपनी रिश्तेदारी में ही कर दी थी, लेकिन मेरा ‘गौना’ नहीं हो सका क्योंकि जिस लड़के से मेरी शादी हुई थी, उसने मेरे काले रंग पर नफ़रत जताते हुए मुझे त्याग दिया. इस बाबत तब मुझे ज्यादा ज्ञान भी नहीं था, लेकिन परित्यक्ता होने का लाभ यह मिला कि हाईस्कूल करने के बाद मुझे नर्स की ट्रेनिंग में प्राथमिकता से चयन कर लिया गया. तदनुसार ट्रेनिंग पूरी करने पर एक अस्पताल में नियुक्ति भी मिल गयी.

मैं काली थी तो क्या हुआ दिलवाली तो थी ही. इधर उधर नजर भटकती रही. एक हैंडसम पर दिल आ गया. मैं उसे अपनाना चाहती थी, लेकिन उसने प्रतिकारस्वरुप जो उत्तर मुझे दिया वह दिल तोड़ने वाला था. उसने लिखत में दिया :

“अमावस की रात में
   आसमान में बादल भरे हों ज्यों
     जुगनू सी टिमटिमाती आँखें
       काली बिल्ली सी तुम मुझ पर झपटना चाहती हो
         तुम्ही बोलो कैसे करूँ में प्यार?
           मुझको अंधियारी रातों की चाह नहीं.”

दुत्कार की यह पहली चोट नहीं थी. कई बार अपने इस रंग के कारण मुझे अपमानित होना पड़ा. एक बार दिल्ली के ऑल इंडिया मेडीकल इंस्टिट्यूट में स्टाफ नर्स के पद के लिये इन्टरव्यू देने पहुंचना था. जल्दी में रेल रिजर्वेशन नहीं हो पाया तो उम्मीद थी कि टीटीई मुझे कोई सीट देकर कृतार्थ कर देगा, पर जब मैंने उससे कहा “ब्रदर, मुझे जरूरी काम से दिल्ली जाना पड़ रहा है. प्लीज  एक सीट या बर्थ मुझे दे दीजिए.” इस पर उसे मानो बिच्छू का डंक लग गया हो वह तपाक से बोला, “मैं तुम जैसी चालू मद्रासी लडकियों को खूब जानता हूँ. दिन में लोगों के घरों में जाकर चन्दा उगाहती हो कि ‘बाढ़ आ गयी, सूखा पड़ गया है,’ और रात में रेल में रिजर्वेशन चाहिये. उतर जा मेरे पास कोई सीट तुम्हारे लिए नहीं है.” अन्य सुनने वाले यात्री ठहाका मार कर हँस रहे थे. सोचती हूँ कि क्या भूलूँ और क्या याद करूँ?

हिन्दू लोग भगवान को कृष्ण इसलिए कहते हैं कि वे काले थे. नाथद्वारे में विराजने वाले श्रीनाथ जी मेरे जैसे ही काले हैं. काले शनिदेव की हजार नियामतों के साथ पूजा की जाती है, पर मैं, जिसकी जिंदगी का मिशन सेवा और प्यार है, सामान्य सदाचार व आदर से भी महरूम रह जाती हूँ क्योंकि मैं इस समाज के नैतिक अनैतिक बंधनों में बंधी रही.

मुझे यह कहते हुए कतई संकोच नहीं है कि सारे के सारे लोग स्वार्थी है, जो केवल अपने सुखों की तलाश में जीते हैं. इहलोक, परलोक की बहुत सी गपबाजी की जाती है. मुझे इन बातों को सुनकर नफ़रत सी हो जाती है, मन विद्रोह करने लगता है, माथे पर तपन होने लगती है.

स्थितियां हमेशा एक सी नहीं रहती हैं. एक दिन ऐसा लगा मानो मेरे जलते-तपते माथे पर किसी ने अपना ठंडा हाथ रख कर अन्दर तक ठंडक पहुँचा दी. वह और कोई नहीं, अब्दुल था, अब्दुल रहमान. जो अपनी दादागिरी व गुंडागर्दी के लिए पूरी बस्ती में बदनाम था. मेरे लिए तो वह अवलम्बन बन कर आया. मुझे बिलकुल नहीं लगता कि वह कोई गुंडा या गैंगस्टर है. वह तो मजलूम, मजबूर व बेबसों का हमदर्द है. उनके लिए वह अपनी जान पर भी खेलकर लड़ पडता है. ऐसे मामले में गुंडई की परिभाषा बदलनी होगी. पर बदलेगा कौन?

उसने मुझे अपना बना लिया और मैं भी उसके साथ अपने को सुरक्षित महसूस करने लगी. उसके तमाम दुर्गुणों में मुझे अच्छाइयां नजर आने लगी, वह मेरे अनछुए जीवन में बहार बन के आया.

यह सच है कि मेरी जाति समाज के ठेकेदारों ने मुझ पर थू-थू किया और मेरा सामाजिक बहिष्कार कर दिया, पर मैं अब्दुल रहमान की अब्दुल रहमनिया बन कर बहुत खुश हूँ और तृप्त हूँ. वह हर मुकाम पर मेरा साथ देता है, मेरा ख़याल रखता है. जलने वाले लोग उसको ‘कलर ब्लाइंड’ कह कर उलाहना देते रहे पर वह मस्तमौला है. उसने अपने घर परिवार तथा छींटाकसी करने वालों की कभी परवाह नहीं की. अब लोग मुझसे इस कारण खौफ खाते हैं कि अब्दुल मेरा रखवाला है.

मेरी भावनाओं को आप समझें या ना समझें इसमें मेरा कोई दोष नहीं है. एक मुझ जैसी स्त्री और लता दोनों ही ऐसे नाजुक बेलड़ी की तरह होते है, जो सहारा देने वाले पर लिपटने को मजबूर होते हैं, चाहे वह सूखे झाड़ हों या कांटेदार वृक्ष. मैं सात जन्मों के काल्पनिक सँसार पर विश्वास नहीं करती हूँ, ना ही मुझे किसी स्वर्ग में जाने की इच्छा है. आमीन.

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सोमवार, 5 नवंबर 2012

चुहुल - ३६

(१)
एक दार्शनिक व्यक्ति अपने विचारों में कहीं गहरे खोये हुए थे. पत्नी ने झकझोरते हुए पूछा, “अब किस सोच में पड़े हुए हो?”
दार्शनिक बोले, “मैं सोच रहा था कि दुनिया में यदि एक भी बेवकूफ न बचे तो कैसा होगा?”
पत्नी ने झल्लाते हुए कहा, “हमेशा अपने ही बारे में सोचते रहते हो, कभी घर के कामकाज की चिंता भी किया करो.”

(२)
एक कबाड़ खरीदने वाला गली में आवाज देता हुआ जा रहा था. गृहिणी ने आवाज सुनी और खिड़की खोलकर उससे पूछने लगी, “क्या क्या खरीदते हो?”
कबाड़ी ने जवाब दिया, “नया पुराना जो भी आप बेचना चाहती हैं, सब ले लूंगा.”
इस पर महिला ने कहा, “शाम को ५ बजे बाद आना इस वक्त मेरे पति घर में नहीं हैं.”

(३)
गुरू जी संस्कृत पढ़ा रहे थे. उसके बारे में कह रहे थे, "यह देवताओं की भाषा है. इसीलिये संस्कृत को देवभाषा भी कहा जाता है.” वे आगे बोले “हमारे पूर्वज देवता थे.”
इस पर एक लड़के ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “गुरू जी, मेरे पिता जी तो बता रहे थे कि हमारे पूर्वज बन्दर थे.”
गुरू जी ने शालीनता से उत्तर दिया, “मैं तुम्हारे खानदान की बात नहीं कर रहा हूँ.”

(४)
एक नवविवाहित जोड़ा मधु मिलन के लिए शिमला गया. वहाँ होटल में एक कमरा एक सप्ताह के लिए बुक कराया. मैनेजर ने कमरे का किराया ५०० रूपये प्रतिदिन बताया. उन्होंने किराए के ७ दिनों के ५०० रूपये के हिसाब से सात दिनों के लिए ३५०० रूपये अलग से रिजर्व रख लिए.
सात दिनों के प्रवास बाद जब होटल से चेक आउट का समय आया तो युवक पेमेंट करने के लिए काउंटर पर गया तो मैनेजर ने ६००० रुपयों का बिल बताया. इस पर युवक ने कहा, “आपने किराया तो ५०० रूपये रोज बताया था?”
मैनेजर बोला, “हाँ, सही बताया था. शेष २५०० रूपये आप लोगों के खाने का बिल है”
युवक ने कहा, “हमने खाना तो एक बार भी आपके यहाँ नहीं खाया है.”
मैनेजर बोला, “नहीं खाया तो इसमें गलती आपकी है, खाना तो तैयार था.”
युवक इस दलील से परेशान होकर अपने रूम में गया. पत्नी को मामला कह सुनाया. पत्नी होशियार थी बोली, “चलो मैं उसको हिसाब बताती हूँ.”
काउंटर पर जाकर युवती मैनेजर से बोली, “मैंने भी आपसे १०,००० रूपये लेने हैं.”
मैनेजर बोला, “किस बात के?”
युवती ने कहा, “मुझे छेड़ने के”
मैनेजर बोला, “मैंने कब आपको छेड़ा?”
युवती, “नहीं छेड़ा तो इसमें गलती आपकी है, मैं तो तैयार थी.”
इस प्रकार नहले पर दहला मार कर मैनेजर को शर्मिन्दा किया और तय किराया चुकाया.

(५)
एक किरायेदार तकाजे के बावजूद पिछले ६ महीनों से किराया नहीं दे रहा था. कुल किराया २,००० रूपये प्रतिमाह के हिसाब से १२,००० रुपयों तक चढ़ गया. इस बार वह बड़ी बेतकल्लुफी से आया और मकान मालिक के हाथ में १,००० हजार रूपये रख दिये.
मकान मालिक बोला, “ये तो केवल आधे महीने का किराया है.”
किरायेदार सहजता से बोला, “अरे, रख लीजिए, लक्ष्मी को आते हुए मना नहीं करना चाहिए. मैं पिछले दरवाजे की चौखट निकाल कर नहीं बेचता तो ये हजार रूपये भी आपको नहीं दे पाता.”

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शनिवार, 3 नवंबर 2012

कटु सत्य

मैं कोई ज्योतिषी या भविष्यवक्ता नहीं हूँ, पर इतना जानता हूँ कि यदि कोई अनाड़ी तैराक किसी गहरी नदी के भंवर में नहाने लगे तो अवश्य ही डूबेगा.

मैं इंदिरा गाँधी के आपद्काल का प्रत्यक्षदर्शी और भुक्तभोगी रहा हूँ. उस काल में अनेक विचारकों व सभ्य नागरिकों ने उसकी तारीफ़ में यह भी कहा था कि “यह अनुशासन पर्व है.” ऐसे नारे भी जगह जगह लिखे मिलते थे कि ‘समय का अनुशासन क्या केवल रेलों के लिए ही है?’ यानि प्रशासन में चुस्ती और पाबंदी का बोध जागृत हुआ सा लगने लगा था. इंदिरा जी और उनके सिपहसालारों को लग रहा था कि इस हथियार से वे जनता को बखूबी हांक सकते हैं. जनसंपर्क वाले कर्मचारियों ने अतिउत्साहित होकर परिवार नियोजनार्थ जो नसबंदी का दौर चलाया वह आम लोगों के लिए भयकारक था. लोग दु:खी हो गए थे और उस व्यवस्था से निजात चाहते थे. अत: सं १९७७ के आम चुनावों में इंदिरा गाँधी की सत्ता का पराभव का कारण बना. ये दीगर बात है कि उसके बाद मोरारजी देसाई की जनता सरकार बिना लगाम के घोड़ों के रथ के सामान चलने के कारण ढाई साल में परास्त हो गयी थी. जब नेतागण जनता के आक्रोश को नहीं समझ पाते हैं या जरूरत ही नहीं समझते हैं तो उनका राजनैतिक पराभव निश्चित होता है.

आज देश में फिर भ्रष्टाचार और निरंकुश मनमाने आर्थिक निर्णय घनघोर घटाओं की तरह उमड़ घुमड़ रहे हैं. जिनके परिणामस्वरूप महंगाई बेलगाम हो गयी है. हर परिवार को मूलभूत आवश्यकता रसोई गैस के दंश को झेलना पड़ रहा है, इससे यह साफ़ लगाने लगा है कि केन्द्र की मौजूदा सरकार के पराभव के लिए यह अकेला कारण ही पर्याप्त होगा.

इस सन्दर्भ में विश्व की आर्थिक मंदी या विकास की बातें कहकर लोगों को सन्तोष नहीं कराया जा सकता है. अब अंदरूनी स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि कोई भी ‘लालीपॉप’ काम करने वाला नहीं लगता है. केवल सैद्धांतिक अर्थशास्त्र या सांख्यिकी से नैया पार नहीं लग सकती है.

पिछली सदी के पूर्वार्ध में जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया वजूद में नहीं आया था, अखबारों को ही मीडिया कहा जाता था. तब एक प्रबुद्ध अंग्रेज विचारक ने कहा था, “Give me the press, I will not care who rules the country.” लेकिन आज तो मीडिया अनेक रूपों में प्रबल हो गया है. टेलीविजन के सैकड़ों चेनल्स हैं, जो प्रतिस्पर्धात्मक तरीकों से पत्रकारिता/पीतपत्रकारिता में हद से बाहर जाकर भी मसलों को उछाल रहे हैं. अदालतों के बजाय बहुधा विवेचन व निर्णय सुनाने लगे हैं. इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका कुछ सीमा तक प्रभावित भी होने लगी है.

वर्तमान में केन्द्र सरकार के विरुद्ध आग उगलने वाले राजनैतिक प्रतिद्वंदी पार्टियां/नेतागण नेपथ्य में चले गए हैं और जो मुखर हो रहे हैं, उनमें भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाने वाले अन्ना समर्थक, रामलीला मैदान में चोट खाए हुए रामदेव योगी, शीघ्र राजनैतिक पार्टी की घोषणा करने वाले अरविन्द केजरीवाल की ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की टीम तथा जनरल वी.के.सिंह जैसे सरकार से खार खाए हुए प्रभावशाली लोग हैं जो सरकार के लिए कब्र खोदने में दिन रात लगे हुए है.

मेरा दृढ़ विश्वास है कि इन विरोधी हमलों से ज्यादा मारक कारण खाद्य पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी, पेट्रोल-डीजल रसोई गैस में लगी आग होगी, जो वर्तमान सत्ताधारी पार्टियों के पराभव का निमित्त बनेगा.

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गुरुवार, 1 नवंबर 2012

वफ़ा

जिनकी मूरत दिल में बसी है,
        करीब मेरे है, खुद आ गयी है.
प्यार क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
        इक बदन में दो दो रूह आ गयी हैं.

मिली वो तो संध्या सुबह बन गयी है,
        अभी तक के सफर की थकां मिट गयी है,
खुशी क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
        इक भूले मुसाफिर को मंजिल मिल गयी है.

बेखुदी में मैं उससे घबरा रहा था,
        मिली वो तो वीरां, गुलिस्ताँ हो गया है
मिलन क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
        इक भँवरा कमलनी में कैद हो गया है.
     
जमाने ने उसको बख्शा नहीं है,
        उल्फत का जिसको शऊर आ गया हो,
नशा क्या है जमाने को समझाऊ क्या?
        बिन पिए ही ‘गरचे शरूर आ गया हो.

वफ़ा की शिकायत उनसे नहीं है,
        हीर औ’ शीरी की वो हमसफर हो गयी है,
वफा क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
         परवाने को बचाकर शमा जल रही है.

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