सोमवार, 19 नवंबर 2012

क्योंकि तू सच बोलता है

दीवाली निकल गयी है. बिना बिके हुए दीयों, करवों, घडों का ढेर लगा हुआ है. चाक बन्द पड़ी है. अब तो गाँव के लोग भी मोमबत्ती जलाने लगे हैं. रही सही कसर इन चाइनीज लड़ियों ने पूरी कर दी है. पेट पालने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा.

बुधराम कुम्हार आज बहुत दिनों के बाद मनरेगा में अपने गधे के साथ मजदूरी करने गया है. उसकी पत्नी शान्ति खूंटे से बंधी बूढ़ी गाय और दोनों बकरियों को चारा-पानी देकर घर के लिपे-पुते आँगन में नीम के पेड़ के नीचे खटिया पर सुस्ता रही है. उसका चौदह वर्षीय बेटा अरविन्द गाँव के सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता है. वह बड़ा बुद्धिमान है. हर बार कक्षा में प्रथम आता रहा है. सभी मास्टर लोग उसकी बुद्धिमत्ता की व स्पष्टवादिता की तारीफ़ किया करते हैं. आज उसके स्कूल की छुट्टी है. वह माँ के बगल में खटिया पर आ बैठा है और अन्यमनस्क होकर माँ से पूछता है, “माँ, अगर ये गाँव का मुखिया मर जाएगा तो फिर कौन मुखिया बनेगा?”

माँ ने उत्तर दिया, “उसका बेटा.”

"अगर वह भी मर गया तो?” उसने फिर से प्रश्न किया.

“उसके परिवार का कोई और व्यक्ति मुखिया बन जाएगा.” माँ ने बताया.

उत्कंठित होकर अरविन्द ने एक और प्रश्न किया, “अगर उसके परिवार के सब लोग मर गए तो?”

माँ बेटे के अटपटे सवालों के जवाब देते जा रही थी, बोली, “अगर सब मर गए तो किसी इसके किसी रिश्तेदार को मुखिया बनाया जाएगा, मगर तू ये सब क्यों पूछ रहा है?”

अरविन्द बोला “यों ही, व्यवस्था परिवर्तन की बात सोचता हूँ.”

माँ उसका मतलब समझ गयी. उसने दुनिया देखी है. वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, भ्रष्ट राजतंत्र, ऊँच-नीच सब उसकी जानकारी में है. इसलिए सभी बातों का निचोड़ निकालते हुए वह बेटे से बोली, “मैं तेरा मतलब समझ गयी हूँ, पर तू अपने मन में मुखिया बनने का सपना मत पालना क्योंकि ये लोग तुझे कभी भी मुखिया कबूल नहीं करेंगे क्योंकि तू सच बोलता है.”

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शनिवार, 17 नवंबर 2012

चुहुल - ३७

(१)
एक छोटे से कस्बे में एक बार कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया. बड़े नामी कवि तो पहुंचे नहीं ऐसे ही छुटभइये कवियों को काव्यपाठ के लिए मंच पर बुलाया गया. श्रोता इस कारण आयोजकों से नाराज थे. मुख्य आयोजक राधेश्याम दृश्य से गायब हो गया.
एक कवि जब माइक पर लम्बी लंबी छोड़ रहा था तो बीच में एक दबंग किस्म का आदमी लट्ठ लेकर स्टेज के इर्द-गिर्द घूमने लगा. खतरे की स्थिति को भांपते हुए कवि उससे बोला,“आप ज्यादा परेशान मत होइए, बस आख़िरी चार लाइनें सुनाकर बैठ रहा हूँ.”
लट्ठबाज बोला, “आप सुनाते रहिये, आप तो हमारे मेहमान हैं. मैं तो राधेश्याम को ढूंढ रहा हूँ, जिसने आपको यहाँ बुलाया है.”


(२)
एक विदेश से लौटे धोबी ने शहर में अपनी नई नई लाँड्री खोली. लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए लाँड्री के बाहर बोर्ड भी लगाया, जिसमें लिखा था ‘हम आपके कपड़ों को हाथों से धोकर नहीं फाडते हैं, हमारा सब काम मशीनों से किया जाता है.’

(३)
एक कंजूस आदमी अपने दोस्त को अपनी कुशल-बात का पत्र बैरंग यानि बिना टिकट का लिफाफे में भेजा करता था. तीन-चार बार ऐसा हुआ. दोस्त को तकलीफ होनी ही थी क्योंकि हर बार दस रूपये जुर्माना देना पड़ रहा था.
इस बार दोस्त ने एक भारी सा पार्सल (VPP) कंजूस मित्र के नाम भेजा. मित्र ने अस्सी रुपये देकर पार्सल छुड़ाया, खोला तो देखा कि उसके अन्दर एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था, जिस पर एक कागज़ चिपका था, लिखा था “दोस्त तुम्हारी कुशल पाकर इस पत्थर से भी भारी बोझ मन से उतर गया है.”

(४)
घर जवाँई बन कर ससुराल में रह रहे एक मर्द की पत्नी को उसकी बचपन की एक सहेली मिल गयी तो सहेली बोली, “तू बड़ी किस्मत वाली है. मायके और ससुराल दोनों के मजे एक साथ ले रही है. तेरा पति तो तेरे काबू में होगा?”
इस बात पर वह बोली “बहन, दूर के ढोल सुहावने लगते हैं, मेरा पति रोज रोज अपने मायके जाने की धमकी देता है.”

(५)
दिल्ली में लालकिले से यूनिवर्सिटी को जाने वाली बस में बहुत भीड़ थी. यात्री खड़े खड़े भी जा रहे थे. अचानक ड्राइवर ने जब ब्रेक लगाया तो एक नौजवान गिरते गिरते बचा. उसने धक्के में अपने आगे खड़ी लडकी का सहारा लिया था. लड़की को उसकी यह हरकत नागवार गुज़री. भन्ना कर बोली, “क्या कर रहे हो?”
लड़का संजीदगी से बोला, “पी.एच.डी. कर रहा हूँ, फाइनल स्टेज में हूँ.”
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गुरुवार, 15 नवंबर 2012

तन्हा

                  (१)
डरता हूँ खेल तमाशों में जाने से,
मंदिर या महफ़िल में जाने से
भटके ना कहीं अनजाने में भी
मेरे महबूब की याद तन्हा.
                   (२)
दम-दिलासा देने वालों ने कहा मुझसे
लगा लो दिल जहाँ में और भी कुछ है.
सूझता है नहीं फकीरी में
कि दिल तो दे दिया कब का, बेचारा खो गया तन्हा.
                   (३)
दिन होता है तो रात ढूँढता हूँ
रात आती है तो नींद ढूँढता हूँ,
नींद मिल जाये तो ख्वाब ढूँढता हूँ,
ख्वाब आ जाये तो दिलबर को ढूँढता हूँ,
दिलबर मिल जाए तो फिर खुद को ढूँढता हूँ.
हाय! ये ढूँढने का मुसलसर रफत
जिंदगानी बन गयी है तन्हा.
                   (४)
गुलों से ये गुजारिश है, ना छेड़ें आज खुशबू से
खिजा तुमको भी ना बक्शेगी, हमारा हाल है तन्हा.
                   (५)
गंधी न दे इत्र मुझको
कि मुझे अब गन्ध नहीं सुहाती है
या पहले ला कर दे दवा मेरी
गन्ध मेरे दिलबर के तन की तन्हा.
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मंगलवार, 13 नवंबर 2012

मौलाना गिल्लौरी

पूरे शहर में चाचा गिल्लौरी को कौन बच्चा नहीं जानता है? वे जिधर को निकल जाते हैं, ‘गिल्लौरी-गिल्लौरी ’, चिल्लाते हुए बच्चे उनके पीछे लग जाते हैं. दरअसल अपने को लोगों की नजर में लाने के लिए बरसों पहले ये फंडा उन्होंने खुद ही ईजाद किया था. शुरू में उन्होंने सड़क चलते बच्चों को टॉफियाँ बांटी और ‘गिल्लौरी’ बोलने के लिए उकसाया, लेकिन अब तो छोटे-बड़े सब जानते हैं कि ये इस शहर का नगीना और कोई नहीं ‘मौलाना गिल्लौरी ’ ही हैं.‘मौलाना’ शब्द भी उनकी खुद कि तिकड़मबाजी से मिला था. हुआ यों कि एक बार वे जब पुरानी दिल्ली की चांदनी चौक में टोपियों की दूकान पर गए तो उनको वहाँ ‘तुर्की टोपी’ बहुत पसंद आई ऐसी टोपी उन्होंने शायर मिर्जा ग़ालिब और मुग़ल सल्तनत के आख़िरी बादशाह बहादुरशाह ‘जफ़र’ के चित्रों में देखी थी. जब वे तुर्की टोपी पहन कर शहर में लौटे तो लोगों की नजर में रातों-रात ‘मौलाना’ हो गए.

मौलाना गिल्लौरी ऐसी ऐसी खट्टी-मीठी बातें निकाल कर लाते हैं कि हर कोई लट्टू हो जाता है. उनके नायाब नुस्खों में मच्छरों से बचाव का जो उपाय है, वह बेहद कारगार है. महज दस ग्राम जीरे से निजात पाया जा सकता है. मौलाना गिल्लौरी बहुत गंभीर मुद्रा में बताते हैं कि “मच्छर को गर्दन से पकड़ लो और एक छोटे चिमटे से उसके मुँह में जीरा फिट कर दो, अगर वह अपना मुँह न खोले तो थोड़ी गुदगुदी करके खुलवाओ. बस वह फिर जीरे को मुंह में लिए लिए फिरेगा, निकाल नहीं पायेगा. हाँ मच्छर पकड़ने में थोड़ी मशक्कत आपको जरूर करनी पड़ेगी”

चाचा गिल्लौरी ने एक बार बच्चों को मोर पकड़ने की तरकीब भी बता डाली कि “शाम होते होते जब मोर अपने ठिकाने पर जाता है तो आप जाकर देख लो कि वह कहाँ बैठता है, सुबह सवेरे अँधेरे में ही जाकर उसकी कलगी में एक टिकिया मक्खन की फिट कर आओ. ज्यों ज्यों धूप खिलेगी गरमी से मक्खन पिघल कर उसकी आँखों में आएगा और वह कुछ समय के लिए अन्धा हो जाएगा. तब आप आराम से जाकर उसको पकड़ सकते हैं.” इस तरह बहुत से फंडे चाचा गिल्लौरी  के पास रहते हैं और बच्चे उनका खूब मजा लेते हैं.

यह बात सही है कि वे बच्चों से बहुत प्यार करते हैं. करते भी क्यों नहीं? उनके अपने हरम में ३ बीवियों से १८ छोटे-बड़े बच्चे मौजूद हैं. पूरा घर गुलजार रहता है. पिछली बार मीठी ईद के बाद घर के सभी सदस्यों ने मौलाना से ईदी में सिनेमा दिखाने का वादा लिया था सो, जुम्मे के दिन जब शाहरुख खान-कैटरीना की नई फिल्म लगने वाली थी तो पहले से २१ टिकट (जिनमें दस हाफ टिकट थे) मंगवा लिए गए. सब जने पैदल पैदल सिनेमा हाल के नजदीक पहुंचे ही थे कि एक पुलिस वाले ने मौलाना गिल्लौरी को रोक लिया. पुलिस वाला हाल ही में तबादला होकर यहाँ आया था और मौलाना से अपरिचित था. पुलिस वाला बोला “थाने चलिए”.

मौलाना थाने के नाम से घबरा गए और बोले, "पहले कसूर बताइए. आप जानते नहीं कि हम मौलाना गिल्लौरी है?."

“आप गिल्लौरी हैं या बिल्लौरी, थाने में तो आपको चलना पड़ेगा. इतने सारे लोग आपके पीछे पड़े हुए हैं, घेर रहे हैं, जरूर कोई गड़बड़ मामला लगता है.” पुलिस वाले ने कहा.

जब बच्चों ने खिलखिलाते हुए बताया कि “ये तो हमारे अब्बू हैं,” और मौलाना ने पुलिस वाले के हाथ में ईद का दस्तूर हँसते हुए रखा, तब जाकर आगे बढ़ पाए.

मौलाना गिल्लौरी इस बार कोई बड़ा चुनाव लड़ना चाहते हैं, पर कोई पार्टी उनको घास नहीं डाल रही है इसलिए वे आजाद उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरेंगे. वे चाहते हैं कि उनकी टोपी ही उनका चुनाव चिन्ह हो. उन्हें उम्मीद है कि शहर के सारे बच्चे उन्हें जरूर जीतने में मदद करेंगे.

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रविवार, 11 नवंबर 2012

दीपोत्सव - प्रसंगवश

आज धन-तेरस है. अधिकाँश लोग धन का अर्थ यहाँ पर रुपया-पैसा-दौलत से लगाते हैं. सच तो यह है कि वैद्य धनवंतरि का आज के दिन उदभव हुआ था. पौराणिक गल्पों के अनुसार वे उन चौदह रत्नों में से एक थे जो सुरों व असुरों के द्वारा समुद्र मन्थन में निकले थे. अब व्यवसायिक हित साधने के लिए इसे सीधे सीधे धन से जोड़ दिया गया है. अन्धी दौड़ में सभी चाहते हैं कि उनके पास अधिक से अधिक धन आ जाये. वणिकजन धन संग्रह में ज्यादा प्रवीण होते हैं. अनेक माध्यमों से आम लोगों के दिलों में यह बात बैठा दी गयी है कि आज के दिन सोना, चांदी या बर्तन जरूर खरीदना चाहिए. अंधविश्वास की पराकाष्ठा यहाँ तक है कि पढ़े-लिखे विद्वान कहे जाने वाले लोग भी मोटर-गाड़ी या इस तरह का कीमती सामान खरीदने के लिए इस दिन की प्रतीक्षा करते हैं. तेरस, त्रियोदशी का अपभ्रंश मात्र है, यानि महीने में शुक्ल और कृष्ण, दो पक्ष, चन्द्रमा के उजाले के हिसाब से आते हैं दोनों में उजाला और अन्धेरा भी बराबर रहता है. त्रियोदशी एक तिथि मात्र है. 

दीपावली खुशियों का त्यौहार है, इसके पीछे अनेक दार्शनिक भाव व कथाएं हैं. यह प्रकाशपर्व कृषक वर्ग से लेकर वणिक वर्ग तक सबके लिए एक श्रेष्ठ संक्रमणकाल होता है. इस बहाने घरों की साफ़-सफाई, मित्र मिलन व खुशियों का आदान-प्रदान होता है. अगले दिन गोवर्धन पूजा का भी विधान होता है, हमारे हिन्दू धर्म की ये विशेषता है कि वर्ष भर कुछ न कुछ पर्व चलते रहते हैं.जिससे जीवन में शून्यभाव पैदा नहीं होता है. दीपावली धन की देवी लक्ष्मी के पूजन का भी बड़ा पर्व होता है. सत्य तो यह है कि पैसे को पैसा खींचता है. जो लोग अभावग्रस्त होते हैं, उन्हें उनकी प्रकृति के अनुसार दूसरों का उल्लास देखकर सुख या दु:ख अवश्य व्यापता होगा.

बारूदी पटाखे वातावरण को बहुत प्रदूषित करते हैं. यह चिंता का विषय है. पटाखों से ध्वनि प्रदूषण भी होता है जिसका खामियाजा बच्चे, बूढ़े व बीमार लोगों को भुगतना पड़ता है.

कुछ धनलोभी लोग दीपावली पर जुआ खेलना भी पर्व का एक आवश्यक कर्म मानते हैं. बिना प्रयास के रातोंरात अमीर बनने का ख्वाब इंसानी फितरत है, लेकिन यह धारणा बिलकुल भ्रांतिपूर्ण है. जुए में अनेक हँसते-खेलते परिवार बर्बाद होते हुए देखे गए हैं. सीख के लिए महाभारत की कथा एक अच्छा उदाहरण है. महाभारत के युगान्तकारी युद्ध की जड़ में जुआ और  बेईमानी ही मुख्य कारक थे.

आज देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का श्रोत पूर्णरूपेण धनलिप्सा ही है. गाँधी जी ने कहा था कि धनिक लोगों को खुद को धन के ट्रस्टी के रूप में व्यवहार करना चाहिए, लेकिन आजकल शायद ही कोई ऐसा ट्रस्ट होगा जहाँ भ्रष्टाचार की जड़ें नहीं पहुँच पाई हो.
अंत में उन तमाम गृह स्वामियों/स्वामिनियों को सलाम है जो ‘मनीप्लांट’ को भी कुबेरदृष्टि मानते हैं और धन-तेरस पर इस लतिका की मन से पूजा किया करते हैं. हमने बचपन में नीति के एक दोहे में पढ़ा था:

         गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान ! 
         जब आवे संतोषधन, सब धन धुरि सामान !!

परन्तु यह तो मात्र आप्तोपदेश भर है.
आप सभी को दीपावली की अनेक शुभकामनाओं के साथ.
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