गुरुवार, 29 नवंबर 2012

मनभावनी

मोतिया कपोलन में लाली ये गुलाब सी,
नयना हैं सम्मोहनी-दिलनशीं शराब सी.

अबीर बन गया हूँ मैं, मुझको तुमसे प्यार है,
प्यार में बिखेर दो, जाँ तुम्हें निसार है.

छप रहूँ तुम्हारे तन, मोरडे का पँख बन,
पद्मिनी सी बाँध लो, छुप रहूँ तुम्हारे तन.

खिलखिला उड़ेल दो प्यार का अनूप रंग
सिलसिला बना रहे, भीजहूँ तुम्हारे संग.

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मंगलवार, 27 नवंबर 2012

उत्तम वृद्धाश्रम

कुछ लोग बाहर से कुछ होते हैं और अन्दर से कुछ और, लेकिन पण्डित उत्तमचन्द्र पुरोहित, जैसे बाहर से उज्जवल-धवल और निर्विकार दिखते थे, अन्दर से भी बिलकुल वैसे ही थे. एकाएक विश्वास नहीं होता कि इस कलियुग में आज भी ऐसे मनीषी पैदा होते रहते हैं.

बामनिया गाँव लगभग दो सौ घरों वाला पुराना गाँव है, जिसमें अधिकतर घर सनाढ्य ब्राह्मणों के हैं. कथावाचक स्वर्गीय पण्डित दीनदयाल पुरोहित के ज्येष्ठपुत्र उत्तमचन्द्र बचपन से ही धार्मिक संस्कारों में उसी तरह पगे हुए थे, जिस तरह सुनार की भट्टी में सोना निखरता है. प्रारंभिक शिक्षा के लिए उनको हरिद्वार के एक नामी गुरुकुल में भेज दिया गया था और वहाँ से अनेक विद्याओं में पारंगत होकर विद्यावाचस्पति की उपाधि के साथ अपने गाँव लौटे. गाँव लौट कर भी उन्होंने बनारस जाने का निर्णय किया जहाँ अंगरेजी व उर्दू भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और इनके साहित्य का अध्ययन किया. तत्पश्चात अनेक मंसूबे लेकर लौट आये.

पण्डित उत्तमचंद ने एक महान भविष्यदृष्टा की तरह जनसेवा का एक व्यापक मानचित्र अपने मन में बनाया और अपने गाँव में गुरुकुल जैसा ही प्रतिष्ठान स्थापित किया, जिसमें आचार्य रहते हुए उन्होंने गाँव के बच्चों के लिए बहुमुखी शिक्षा की व्यवस्था की. यह उन्हीं का प्रताप है कि उनके बाद वाली पीढ़ियों में बामनिया गाँव में पाँच आई ए एस, आठ आई पी एस, दर्जनों इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, वकील, अध्यापक -प्राध्यापक हुए हैं, जो देश-समाज की सेवा में समर्पित हैं.

आजादी के बाद देश में टुच्ची दलगत राजनीति करने वाले या सेवा के नामपर धन बटोरने वाले सेठों/उद्योगपतियों/मठ-महंतों के लिए उनकी यह उपलब्धि ईर्ष्या का सबब हो सकता था, पर उन्होंने शुद्ध रूप से इसे अपने जीवन का निस्वार्थ मिशन बनाया, जिसकी कि आसपास प्रदेशों में कोई समकालीन मिसाल नहीं मिलती है.

पण्डित उत्तमचन्द्र हर दिल अजीज थे. एक अघोषित न्यायाधीश भी थे. गाँव के लोगों में कोई विवाद हो जाये तो लोग थाने या न्यायालय जाने के बजाय उनके पास आकर निपटारा करवा लेते थे. गाँव में नागरिक सुविधाओं के लिए पंचायत उनसे हमेशा मार्गदर्शन लेती रही. उनके जीवन की सरलता में इतनी व्यस्तता थी कि वे आजीवन कुंवारे ही रहे. कई बार विवाह के प्रस्ताव आये पर उन्होंने हमेशा सबको मुस्कुराकर टाल दिया. पैतृक संपत्ति सब उनके भाईयों की देखरेख में थी. उनके बीच वे एक सन्यासी की तरह जीवन जिए. उनकी गरिमा व आभामण्डल विश्वसनीय तथा दर्शनीय थी.

दलगत राजनीति से परे, वे साहित्य व दर्शन पर अपनी लेखनी चलाते रहे. यद्यपि उन्होंने अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं को छपने/छपाने का कोई प्रयास नहीं किया--कारण वे आत्मप्रचार से कोसों दूर रहते थे--लेकिन अब जब वे इस सँसार में नहीं हैं तो उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों के खजाने के प्रकाशन के लिए बहुत से विद्वान/प्रकाशक प्रयासरत हैं. जीवन के अन्तिम २५ वर्षों में उन्होंने भगवदगीता, कुरआन शरीफ तथा बाइबल पर भाष्य लिखे, जो पठनीय हैं. उन्होंने तीनों भाष्यों के अंत में यह वाक्य जरूर लिखा है: ‘सब धर्मों का सार यही है, सत्याचरण और परसुख चिन्तन.’

उम्र के अस्सी बसंत पार करने के बाद उनके मन में आया कि जीवन के शेष दिन हरिद्वार में गंगा मईया के तट पर साधना पूर्वक बिताने चाहिए. गाँव वालों से विदा लेने के लिए प्रस्थान से पूर्व उन्होंने विधिवत अपना श्राद्ध कर्म करवाया. सब को ब्रह्मभोज पर बुलाया. हरिद्वार में एक सुविधाओं वाले वृद्धाश्रम में उन्होंने एक लाख रूपये जमा करके अपने लिए एक सीट बुक करवा रखी थी. गाँव के लोगों ने सजल नेत्रों से इस सम्माननीय बुजुर्ग को विदा किया. एक दर्जन लोग उनके साथ हरिद्वार तक भी गए और छोड़ कर आये.

पुरोहित जी के लिए यह नया अनुभव जरूर था, लेकिन आश्रम के तमाम लोगों से उन्होंने धीरे धीरे स्नेह सम्बन्ध बना लिए. आश्रम का सादगी भरा निर्मल वातावरण उनको खूब भा रहा था, पर अब शरीर पर उम्र का प्रभाव तो था ही, ग्रीष्म व वर्षा ऋतु से लेकर शरद ऋतु तक आबोहवा भी अच्छी लग रही थी, पर जब शिशिर ऋतु आई तो ठण्ड से बहुत कष्ट होने लगा. असह्य होने पर उन्होंने सारी व्यथा अपने भतीजे को लिख डाली क्योंकि उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था. नतीजा यह हुआ कि व्याकुल-चिंतित स्वजन तुरन्त हरिद्वार आकर उन्हें बामनिया गाँव ले आये. जहाँ वे लगभग दो वर्षों तक और जिए. एक दिन हरि कीर्तन करते हुए हृदयाघात हुआ और वे एकाएक चल दिये.

कृतज्ञ गाँव वासियों ने उनकी स्मृति में एक भव्य वृद्धाश्रम बनवाया है, नाम रखा है ‘उत्तम वृद्धाश्रम.’ आश्रम की मुख्य दीवार पर स्व. पण्डित उत्तमचन्द्र के एक आदमकद चित्र के नीचे लिखा है: "कौन कहता है कि अब इस धरा पर देव तुल्य लोग पैदा नहीं होते हैं?"
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रविवार, 25 नवंबर 2012

नामकरण के रुपये

हम सुनते, पढ़ते, और अनुभव करते रहे हैं कि एक राजहठ होता है, एक त्रियाहठ होता है और एक बालहठ भी होता है. हमारे देश में तो अब राजा नहीं रहे, पर जब थे तो उनमें बहुत से फितूरी या हठी हुआ करते थे. वे सर्वशक्तिमान थे इसलिए निरंकुश होते थे. उनके हठ राजसी होते थे, जिसका कोई तोड़ नहीं होता था. त्रियाहठ बहुत संवेदनशील और प्रतिशोधात्मक हुआ करते हैं इसलिए खतरनाक भी माना जाता है. जहाँ तक बालहठ की बात है यह बहुत मनोरंजक व गुदगुदाने वाले होता है.

मैंने एक पत्रिका में यह मजेदार किस्सा पढ़ा कि रेल यात्रा के दौरान एक प्यारा सा ५ वर्षीय बालक घी-रोटी खाने की जिद पर अड़ गया. रोटी तो थी पर घी कहाँ से लाते? बच्चे ने पूरे डिब्बे को सिर पर उठा लिया. मुंहलगा बच्चा था, डांट भी नहीं पा रहे थे. माँ-बाप परेशान हो गए. इतने में एक तीव्रबुद्धि सहयात्री को तरकीब सूझी. उसने तकिये के अन्दर से थोड़ी सी रुई निकालकर रोटी पर रख दी, माँ ने रुई पर रोटी रगड़कर घी-रोटी के रूप में बच्चे के मुँह में ग्रास दिया तो उसने प्रसन्नतापूर्वक रोटी खाई. इस दृश्य को देख रहे सभी यात्री लोट-पोट हुए बिना नहीं रहे.

मेरे घर पर मेरी पौत्री संजना का जब नामकरण संस्कार हुआ तो सभी नजदीकी इष्टमित्रों व पड़ोसियों को प्रीतिभोज पर आमन्त्रित किया था. बहुत बढ़िया ढंग से कार्यक्रम समपन्न हुआ. आजकल के दस्तूर के मुताबिक़ बालिका को शुभाशीषों के साथ रुपयों वाले लिफाफे भी मिले. शाम को उन रुपयों का हिसाब करते हुए धन देने वालों की लिस्ट बनाई जा रही थी क्योंकि यह सामाजिक दस्तूर होता है, जब उनके परिवारों में भी कोई शुभकार्य होगा तो प्रतिदान करते समय लिस्ट देख ली जाती है.

जब नोट गिने जा रहे थे, तो तब सात-वर्षीय पौत्र सिद्धान्त गौर से देख रहा था. उसने उसमें से कुछ रुपये लेने चाहे तो मैंने उसको बताया कि “ये रुपये संजना के नामकरण में आये हुए हैं. इसलिए ये उसी के हैं.” इस बात पर उसने प्रश्न किया कि “मेरे नामकरण पर पर भी तो रूपये आये होंगे, वे कहाँ हैं? मुझको मेरे रूपये चाहिए.”

वह जिद पर आ गया कि "मेरे रूपये अभी दो. अभी चाहिए.” स्वभाव से भी वह तेज रहा है. उसके माँ-बाप ने उसे समझाना चाहा पर बालहठ था वह अड़ गया. मुझे एक तरकीब सूझी और मैंने अपने बैंक की पुरानी चेक बुक का काउंटर फोलियो अलमारी से निकाल कर उसको दिया और कहा कि "तुम्हारे नामकरण के रूपये बैंक में जमा हैं. इस चेक बुक से तुम जब चाहो निकाल सकते हो.”

बैंक का नाम आते ही उसने उत्सुकता से पूछा, “इसमें कितने रूपये हैं?” मैंने उसे बताया कि “बैंक में तो रुपये बढ़ते रहते हैं. अब तक एक लाख तो हो ही गए होंगे.”

सिद्धान्त चेक बुक पाकर बहुत खुश हो गया क्योंकि अपने नामकरण का खजाना उसे मिल गया था. अब जब कि वह सयाना हो गया है, इस बालसुलभ प्यारे संस्मरण को मैं मौके-बेमौके उसे सुनाता हूँ तो वह भी  मुस्कुराए बिना नहीं रहता.

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शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

माँ सच बोलती है

राजधानी से लगभग ३०  किलोमीटर बाहर एक बड़े नेता जी का फ़ार्म हाउस है. उन्होंने यह जमीन बर्षों पहले स्थानीय किसानों से अच्छी कीमत देकर खरीदी थी. चारों ओर दीवार, और उसके ऊपर कंटीली तारों की बाड़ लगी हुई है. अन्दर बहुत बढ़िया आधुनिक सुविधाओं युक्त फ़ार्म हाउस बना हुआ है. तरह तरह के पेड़ लगाए गए हैं. खूबसूरत लैंडस्केप बने हुए हैं. बचे हुए हिस्से में खेती भी होती है. पानी के लिए गहरा ट्यूबवेल बना है. सर्वत्र हरियाली है. इस प्रकार नेता जी के इस घर के ठाठ निराले हैं. उनके पारिवारिक समारोह/पार्टियां गाहे-बगाहे यहाँ आयोजित होती रहती हैं. चाक-चौबंद सिक्योरिटी रहती है.

बगल की जमीन वाले किसान भंवरलाल और उसके परिवार के लिए यह एक स्वप्नलोक जैसा है, जहाँ उनका प्रवेश निषेध है. नेता जी ने भंवरलाल को भी उसकी पाँच बीघा जमीन बेचने के लिए कई बार लालच भरे सन्देश भेजे, पर भंवरलाल को अपनी इस पुश्तैनी जमीन से बहुत लगाव रहा और उसने बेचने से इनकार कर दिया था. उसने सोचा रुपया तो आता जाता है, खर्च भी हो जाएगा, और अपनी अगली पीढ़ी के लिए विरासत नहीं छोड़ पायेगा.

भंवरलाल की जमीन अभी भी ऊबड़-खाबड़ है, नेताजी की दीवार से सटी जमीन पर बड़े बड़े झड़बेरी के पेड़ उगे हुए हैं. ऊसर जमीन है इसलिए केवल बरसाती फसल ही हो पाती है. आज भंवरलाल अपने हल-बैल लेकर जमीन जोतने गया हुआ है. उसकी पत्नी कंचनबाई डलिया में दिन के खाने का सामान रोटियां, साग, प्याज तथा पानी का बर्तन रख कर लाई है. उनका एक पाँच साल का बेटा भी है जो माँ के साथ साथ नंगे पैर खेत में इधर उधर डोल रहा है. धूप तेज है, उसकी माँ उसे बार बार दीवार की छाया में एक स्थान पर बैठाने का प्रयास करती है, पर बालक बहुत चँचल है, मानता ही नहीं.

दीवार के दूसरी तरफ पेड़ों पर बड़े बड़े गुब्बारे टंगे हुए हैं. वहाँ शायद नेता जी के बेटे-बेटी अथवा पोते-पोती का कल रात जन्मदिन मनाया होगा. बच्चे की नजर बार बार उन गुब्बारों पर जाती है. वह उनको ललचाई आँखों से देखता है. उसे इस दुनियादारी की कोई समझ अभी नहीं है. माँ सब समझ रही है कि बबुआ गुब्बारों को हसरत भरी नज़रों से देख रहा है. बेटे को वह झड़बेरी के दानों से खुश करना चाहती है, लेकिन झड़बेरी के पके हुए दाने तो गाँव के छोरे छापरों ने पहले ही तोड़ रखे है, जो बचे हैं वे बहुत ऊंचाई पर उसकी पहुँच से दूर हैं. बबुआ ने जब देखा कि माँ झड़बेरी तोड़ने के लिए प्रयासरत है तो वह थोड़ा उतावला हो गया. माँ को बेटे की उत्कंठा पर बहुत तरस और प्यार आ रहा था, साथ ही नेता जी के वैभव पर ईर्ष्या भी हो रही थी. वह बबुआ को गोद में ले लेती है और उसे परी कहानियों की मानिंद बताती है कि “धूप की गर्मी की वजह से गुब्बारे फूटने वाले हैं और उनके फूटने से जो भटाका होगा उससे झड़बेरी के दाने छिटक कर गिर पड़ेंगे”

बबुआ माँ की बात को तो पूरी तरह नहीं समझ पाता है, पर वह झड़बेरी मिलने की उम्मीद से खुश हो जाता है. उसका विश्वास है कि ‘माँ सच बोलती है.’

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बुधवार, 21 नवंबर 2012

नाड़ी-वैद्य

जब भी कोई बीमार व्यक्ति डॉक्टर, वैद्य या हकीम के पास जाता है तो प्रथम दृष्टया जो परीक्षा वह करते हैं, उनमें हाथ की नाड़ी या नब्ज देखना एक आम रिवाज सा है. ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति वाले डॉक्टर तो इसे पल्स (हृदय की धड़कन की गति) जांच करना बताते हैं, इसके आगे कुछ भी नहीं. स्वस्थ व्यक्ति की पल्स रेट प्रति मिनट ७२ होती है, बीमार लोगों में रोग के अनुसार कम या ज्यादा पाई जाती है. यह बीमारी के बारे में अनुमान लगाने के लिए एक लक्षण समझा जाता है.

बाहरी तौर पर रोगी को हो रही परेशानियों का इतिहास पूछकर और आवश्यक हुआ तो थर्मामीटर, स्टैथेस्कोप से जाँच करके या रक्तादि पदार्थों/विकारों की प्रयोगशाला में जाँच की जाती है. रोग के निदान के और भी अनेक वैज्ञानिक तरीके व उपकरण आज डॉक्टरों के पास उपलब्द्ध होते हैं.

कहते हैं कि पहले समय में वैद्य जी (आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति वाले चिकित्सक) बीमार की नब्ज देख कर ही रोग की जानकारी ले लेते थे. आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के शरीर में तीन तरह के दोष होते हैं वात, पित्त व कफ. सारी चिकित्सा पद्धति इसी सिद्धांत पर आधारित है. यह एक गहन विषय है.

आयुर्वेद के तीन प्राचीन महान ग्रन्थ, जिन्हें वृहदत्रयी कहा जाता है (१) चरक संहिता, (२) सुश्रुत संहिता, (३) वाग्भट्ट; इनमें नाड़ी विज्ञान (नब्ज परीक्षण) के बारे में कोई चर्चा नहीं है, लेकिन शारंगधर आदि अनेक मान्य पुस्तकों इस विषय की विवेचना मिलती है. आधुनिक आयुर्वेदिक चिकित्सकों को यह विषय भी पढ़ाया जाता है.

बहुत से लोगों की मान्यता है कि यह एक फालतू मिथक है कि नाड़ी की गति देखने भर से रोग का निदान होता है. अधिकांश चिकित्सक केवल रोगी व्यक्ति के सन्तोष के लिए उसका हाथ पकड़ते हैं और  नब्ज टटोलने का नाटक भर करते हैं. लेकिन अनेक वैद्य दावा करते हैं कि यह एक विज्ञान है. ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनका दृढ़ विश्वास है कि नाड़ी का जानकार वैद्य रोगी से बीमारी के बारे में पूछताछ नहीं करता है और नब्ज की गति से ही सब मालूम कर लेता है. इसी सन्दर्भ में एक वैद्य जी ने एक बहुत मजेदार किस्सा कह सुनाया: 

"एक सनकी जागीरदार साहब ने एक नाड़ी वैद्य की जाँच करने के लिए उसे अपने महल में बुलाया और कहा कि “रोगिणी पर्दानशीं है इस वजह से सामने नहीं आ सकती है,” इस पर नाड़ी वैद्य ने कहा कि “मरीज के हाथ में एक पतली रस्सी बाँध दीजिए, उसका सिरा मुझे पकड़ा दीजिए.” जागीरदार ने अपनी घोड़ी की अगली टांग में रस्सी बाँध कर बगल वाले कमरे में वैद्य जी को पकड़ा दी. वैद्य जी देर तक रस्सी पकड़ने के बाद बोले, “रोगिणी को दाना, पानी, और चारा दीजिए, भूखी लगती है.”

यह दृष्टान्त अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, पर इसका भावार्थ यह है कि कुछ नाड़ी वैद्य इतने सिद्धहस्त होते हैं कि रस्सी के सहारे भी जाँच लेते हैं. चिकित्सा विज्ञान में अब सब तरह से सूक्ष्म विधाएं विकसित हो गई हैं और शरीर के परीक्षण में पूर्णतया वैज्ञानिक आधार पर शत्-प्रतिशत सही परिणाम उपलब्द्ध होते है, इसलिए अब केवल अनुमानों के आधार पर चिकित्सा करना/कराना बुद्धिमतापूर्ण नहीं है.
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