मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

मेरा वैलेंटाइन


मेरी प्रारम्भिक रचनाएं व्यथित उपनाम से लिखी गयी तथा छपी भी. सन १९६७ में मैंने स्वयं एक कविता संग्रह जाले नाम से छोटी सी पुस्तिका के रूप में छपवाई थी. अपनी रचनाओं को छपा हुआ देखना या प्रकाशित हुआ देखना बड़ा आनंददायक होता है. इस अनुभूति को वही प्राप्त कर सकता है जो रचनाकार होते हैं. 

व्यथित का शाब्दिक अर्थ होता है, दु:खी. हिन्दी के छायावादी कवि पंडित सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा है, "वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान..." अवश्य ही पन्त जी के जीवन में कोई ऐसी प्रेरणा आई होगी जिसे उन्होंने वियोग के रूप में लिया होगा, क्योंकि उनका सम्पूर्ण लेखन, प्रकृति को समर्पित करते हुए किसी अदृश्य आत्मा को इंगित करती है.

मैं यहाँ उस महान कवि-साहित्यकार से अपनी कोई तुलना करने की हिमाकत नहीं करना चाहता हूँ, लेकिन एक भोगा यथार्थ, अप्रतिम प्रेरणा बन गयी थी, जिस कारण मैं व्यथित बन गया था और उसी को अवलंबन मान कर मैंने लिखना शुरू किया.

आत्मकथा लिखना बड़ा सरल भी होता है और बहुत कठिन भी. सरल इसलिए होता है कि पूरी सिनेमा की रील सी घटनाएँ हम स्वयं भोग चुके होते हैं, जिसकी गहरी संवेदनाओं को व्यक्त करने का पूरा मसाला अपने आप जुड़ता चला जाता है, कठिन इसलिए होता है कि अगर सत्य उदघाटित नहीं होता है तो वह कथा आत्मकथा हो ही नहीं सकती है. आत्मकथा सत्य भी हो, शिव अर्थात कल्याणकारी हो, और सुन्दर यानि समाज द्वारा ग्राह्य भी हो. इसलिए यह कठिन तो है ही. उम्र के एक पड़ाव पर जब हम आते हैं तो अपनी कमजोरियों, गलतियों तथा दु:खद अध्यायों को उजागर करने में संकोच नहीं करते हैं, इसलिए मैं अपने व्यथित उपनाम की व्याख्या करना चाहता हूँ. इस उपनाम को मैं कई वर्ष पूर्व त्याग चुका हूँ.

मेरी उम्र तब १९-२० वर्ष थी. मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के मौरिस नगर कैम्पस में अपने बुआ के लड़के श्री प्रेमवल्लभ भट्ट जी के परिवार के साथ रहता था. बड़े भाई प्रेमवल्लभ जी उपकुलपति के कार्यालय में काम करते थे. उन्हीं के प्रयास व अनुकम्पा से मुझे विश्वविद्यालय के पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट में प्रवेश मिला जो आगे जाकर मेरा स्थाई रोजगार भी बना. भाई साहब के परिवार में उनकी श्रीमती यानि मेरी पूज्य भाभी कलावती देवी, उनका पुत्र भारत, और अनुज श्री शम्भूदत्त भट्ट भी रहते थे. मुझे बहुत अपनापन व स्नेह इस परिवार में मिला. भाभी जी की एक भतीजी स्वनामधन्य श्यामा उन दिनों कौसानी में गाँधी जी की अंग्रेज शिष्या सरला बहन द्वारा संचालित लक्ष्मी आश्रम में पढ़ती थी. शायद दसवीं या ग्यारहवीं की छात्रा रही होगी. ये आश्रम सरला बहन की मृत्यु के तीस वर्ष बाद भी आज वहां विद्यमान है, शायद और बड़े संभावनाओं के साथ. जहाँ तक मैं समझता हूँ वहाँ आंचलिक लडकियों को सर्वोदयी विषयों में पढ़ा कर महिला जागरण का अनूठा कार्य किया जाता रहा होगा, मुझे इस बारे में विशेष जानकारी नहीं थी.

मेरी हैण्डराइटिंग अच्छी थी इसलिए भाभी अपने पत्र मुझ से लिखवाया करती थी एक पत्र कभी कभी उनकी भतीजी श्यामा के नाम भी होता था. पत्रों को अक्सर मैं ही डाक में भी डालता था. यह क्रम लगभग एक साल तक चला क्योंकि बाद में मैं स्थानांतरित हो गया तो ये क्रम टूटना ही था. मेरा अपना सीधा पत्राचार श्यामा से नहीं हुआ लेकिन मैं उसे मन ही मन चाहने लगा था. इसके पीछे कारण यह भी था कि भाभी जी द्वारा दो-चार बार मेरा व श्यामा का रिश्ता करवाने की बात कही गयी. उनके पीहर वाले मनान में रहते थे. मुझे पता नहीं इस बारे में उन्होंने उस पक्ष से कोई बात की अथवा नहीं, पर मैंने अपने पिताश्री को लिख डाला कि वहाँ जाकर रिश्ते की बात करें.

मेरे पिताश्री ने मेरी इच्छा का आदर करते हुए श्यामा के दादा जी से उनके गाँव जाकर कन्यार्थी के रूप में मुलाक़ात की. श्यामा के पिता तब इस दुनिया में नहीं थे इसलिए परिवार के मुखिया उसके दादा जी स्व. गोसाईदत्त पाण्डेय थे. मुझे बाद में अपने पिता के पत्र से मालूम हुआ कि वे इस रिश्ते के इच्छुक नहीं थे क्योंकि उनका मानना था कि इतनी कम उम्र में सरला बहन भी शादी की इजाजत नहीं देंगी. लड़की पढ़ रही थी तो उन्होंने अपनी बेरुखी व्यक्त कर दी. यह भी था कि ये परिवार सरला बहन के साथ राष्ट्रीय जागरण कार्यक्रम से जुड़े होने के कारण काफी आगे की सोच रखते होंगे. यद्यपि मेरे पिता एक अनुभवी अध्यापक थे और प्रगतिशील विचारों वाले थे, पर रिश्ता नकारे जाने पर वे परेशान रहे. पुत्रमोह भी उनको बहुत था अत: उन्होंने अन्यत्र कन्या ढूँढना शुरू कर दिया.

मैं बहुत व्यथित हो गया था, पर मेरे पास कोई विकल्प भी नहीं था. मैंने एकांत में बैठ कर एक पत्र सरला बहन को लिख भेजा जिसमें मैंने क्या-क्या उदगार व्यक्त किये थे, अब मुझे बिलकुल याद नहीं हैं. मेंरे पत्र का सरला बहन ने तुरन्त उत्तर दिया जिसमें अनेक उपदेश थे और मुझे समझाया था कि केवल शादी को जीवन का मिशन नहीं बनाना चाहिए. उन्होंने यह भी लिखा था कि अपने पिता को उनसे मिलने की सलाह दूं. यह पत्र मेरे लिए एक ऐतिहासिक पत्र था, जिसका महत्व तब मुझे मालूम नहीं था. काफी दिनों तक सहेज कर रखने के बाद मैंने उसे नष्ट कर दिया. मेरे पिताश्री ने मुझे ताकीद कर दी कि मैं इस रिश्ते के बारे में सोचना बिलकुल बंद कर दूं. मैं उनका अनुशासित बेटा भी था. बचपन से ही बहुत निकट से उनके साथ हर भाव से जुड़ा रहा था. उनके आदेशों के बाहर जाने की हिम्मत भी नहीं कर सकता था. शादी की बात को अपनी ओर से गति देते हुए उन्होंने अल्मोड़ा जाकर प्रो. लक्ष्मीदत्त चंदोला की बहिन् कुंती देवी (मेरी अर्धांगिनी) से आनन-फानन रिश्ता तय कर दिया. ३० जनवरी १९६१ को, जिस तारीख में गाँधी जी शहीद हुए थे, मैं भी शहीद होकर तब अनिच्छापूर्वक चौपाया हो गया.

जब १९६७ में मेरा कविता संग्रह छपा तो पिताश्री ने पूछा, ये व्यथित उपनाम लिखने का क्या तुक है? किस बात की व्यथा है?" मैं मुस्कुरा कर रह गया पर उनको मैंने खुलासा नहीं किया कि इसमें उनकी जल्दबाजी का बड़ा योगदान था.

गत वर्ष यानि सन २०११ को ३० जनवरी के दिन सुखी एवं सफल वैवाहिक जीवन के ५० वर्ष (स्वर्ण जयन्ती) पूरे होने पर हमारे बच्चों ने समारोहपूर्वक शुभकामनाएं दीं.

आज सन २०१२ में मैं अपनी एक निकट रिश्तेदार सौभाग्यवती अमिता (जो संयोग से श्यामा जी की चचेरी बहिन है) से जान पाया हूँ कि बाद ने उनका विवाह एक गुजराती परिवार में हुआ. श्रीमती अमिता बताती हैं कि श्यामा जी का भरा पूरा परिवार है, सुखी हैं.

इस पूरे प्रकरण के दो मजेदार पहलू ये भी हैं कि मैं कभी भी श्यामा जी से नहीं मिला, ना ही उनकी कोई फोटो देखी. उनको सपने में भी ख़याल नहीं होगा कि किसी ने उनको इस तरह चाहा था. दूसरा मेरे रचना सँसार की अन्य नायिकाओं को ये गलतफहमी बनी रही कि मैं उन्हें ही अपना प्रेरणा श्रोत मानकर अपने रहस्यमय श्रंगारिक गीत/कविताएं लिखता रहा हूँ.
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