मद्दी अपराध की दुनिया
का बड़ा खिलाड़ी है. इलाके में लम्बे अर्से से उसका खौफ ज़िंदा है. वह दिन दहाड़े वारदात
करके निकल जाता है. यों उसके खिलाफ दर्जनों शिकायतें हैं, पर थाने या अदालत में उसके
सामने उसके खिलाफ सच्चाई उगलने में आम लोग डरा करते हैं. उसको एक बड़े स्थानीय नेता
का वरदहस्त प्राप्त है. पत्रकार भी उसके खिलाफ लिखने से कतराया करते हैं. राजनैतिक
गलियारों में दबी जबान से चर्चाएं होती है कि वह एक पाला गया खूंखार कुत्ता है. पुलिसवाले
तो उसे ‘बड़े भाई' कह कर सम्मानित कर
अपनी इज्जत बचाते हैं.
इस बार जब सिटी मजिस्ट्रेट
युधिष्टिर सक्सेना अपनी सरकारी गाड़ी में ठण्डी सड़क से अदालत से लौट रहे थे तो उन्होंने
अपनी आँखों से खौफनाक मंजर देखा कि कातिल मद्दी के हाथ में एक रक्त रंजित रामपुरी चाकू
था एक सफेदपोश धायल आदमी लहूलुहान नीचे पड़ा कराह रहा था, आसपास राह चलते लोग भयभीत
होकर भागते नजर आ रहे थे. मजिस्ट्रेट साहब ने ड्राईवर गुमानसिंह को गाड़ी रोकने को कहा, लेकिन गुमानसिंह ने उनकी अनसुनी करते हुए तेजी से गाड़ी आगे बढ़ा दी और बोला, “सर जी, ये मद्दी खतरनाक गुंडा है, यहाँ रुकना ठीक नहीं है.” मजिस्ट्रेट साहब ने अपने मोबाईल से तुरन्त पुलिस
एस.पी. को सूचना देकर फौरी कार्यवाही करने को कहा.
मजिस्ट्रेट साहब को अफसोस
हो रहा था कि वे घायल की कोई मदद नहीं कर पाए. उनको खुद के वीआईपी होने पर भी दु:ख
हो रहा था. उस रात वे सो भी नहीं सके थे.
इस जघन्य ‘अग्रवाल हत्याकांड’ को स्थानीय अखबारों ने तो कोई बड़ा समाचार नहीं बनाया, लेकिन
राष्ट्रीय अखबारों व न्यूज चैनलों ने बड़े जोर शोर से उठाया. चूँकि प्रादेशिक चुनाव
नजदीक थे, नेता जी ने मद्दी से सरेंडर करवाकर अपना दामन पाक बताने की पूरी कोशिश कर
ली.
मद्दी जेल भेज दिया गया
और उसके बचाव में नामी-गिरामी वकील झूठ बोलकर अपना ईमान बेचने लगे. ये केस युधिष्टिर सक्सेना जी
के ही अदालत में आ गया. पुलिस ने बहुत कमजोर साक्ष्य जुटाए थे. अपराधी को पहचानने के
लिए कोई गवाह नहीं मिल रहा था. जिन मासूम लोगों ने शुरू में अपने बयान दर्ज कराये थे, वे एक एक करके हॉस्टाइल होते गए. मजिस्ट्रेट साहब सोच कर बैठे थे कि गुंडे को ‘कैपिटल पनिशमेंट’ देकर समाज को भयमुक्त कर देंगे, पर अदालत तो गवाहों पर
चलती है. केस को बिखरता देखकर सक्सेना जी ने अपने डाईवर गुमानसिंह को बुलाकर कहा कि
“तुमने मेरे साथ ही मद्दी को चाकू
से वार करते हुए देखा था, तुम सत्य बोल कर न्याय में भागीदार बन जाओ.”
सक्सेना जी को तब बड़ा सदमा लगा जब गुमानसिंह ने बेबाकी से कहा, ”सर जी, मुझे इसी शहर में रहना है, अपने बाल-बच्चों से प्यार है. मैं इस आग में कूद कर आत्महत्या नहीं कर सकता हूँ. आप इसका अन्जाम नहीं जानते हैं. अगर आपने इसको फाँसी का आदेश भी कर दिया तो ये अपील करके बच जाएगा. क्षमा चाहता हूँ.”
मानसिक द्वन्द के बीच
रहते हुए मजिस्ट्रेट युधिष्टिर सक्सेना को भारी मन से फैसला लिखना पड़ा कि ‘साक्ष्य के अभाव में संदेह का लाभ देते हुए मद्दी
को बरी किया जाता है.’ और उस रात
भी युधिष्टिर सक्सेना सो नहीं सके. उनको वह रक्तरंजित दृश्य और खूंखार मद्दी का डरावना
चेहरा बार बार याद आ रहा था. उनको अफसोस था कि वे न्याय नहीं कर सके थे.
अगले दिन स्थानीय अखबारों
में बड़े बड़े हेडलाइंस में समाचार छपे कि अग्रवाल मर्डर केस में अदालत ने मद्दी को ‘क्लीन चिट’ दे दी है.
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वाह! क्या बात!
जवाब देंहटाएंतीन संज़ीदा एहसास
जिसमें कि ख़ुदा रहता है
ऐसे में कुछ वर्षों पूर्व निर्धारित कानून के हिसाब से न्याय का तकाजा करना बेहूदगी के सिवाय कुछ नहीं है। न्याय करनेवाले ने जब खुद खूनी को देखा हो और तब भी वो बरी हो जाए तो कानून का इससे अधिक स्याह और हास्यास्पद पहलू और क्या हो सकता है। ऐसे में कानून के प्रावधान लचीले होने चाहिए ताकि पकड़ में आए दोषी को साक्ष्य न होने पर भी कठोर दण्ड दिया जा सके।
जवाब देंहटाएंNice story.
जवाब देंहटाएंपरम्परा और इतिहास के झरोखे से हल्द्वानी पर निबंधात्मक टिपण्णी है ये खूबसूरत पोस्ट।
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