शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

बैठे ठाले - ११

गाँधीवादी ट्रेड युनियन लीडर स्व. जी. रामानुजम ने अपनी एक पुस्तक द हनी बी में एक जगह लिखा है कि जैसे फूल होंगे वैसी ही माला बनेगी. वास्तव में यदि सड़े-गले खराब फूल होंगे तो उनसे अच्छी माला कैसे बन सकती है? ये जुमला रामानुजम जी ने ट्रेड युनियन के सन्दर्भ में मजदूरों व उनके द्वारा चुने हए लीडरों के चरित्र के बारे में उद्धृत किया था, पर यह लोकतंत्र की सभी इकाइयों पर लागू होती हैं. आज राज्यों की विधान सभाओं में और लोकतंत्र के सर्वोच्च मन्दिर की संसद में माननीय कहे जाने वाले सदस्य जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, वह सर्वथा निंदनीय है. और जानते-सुनते भी उन्ही को फिर से चुनावों में जिताने वाले हम जनता नाम के वोटर मूर्ख बनते रहते हैं.

वैसे जनतन्त्र को निराशावादी चिंतकों ने मूर्खों की जमात/सरकार कहा है. कई मायनों में ये बात अपील भी करती है.

दिल्ली में केजरीवाल की सरकार बनने पर हमने तहेदिल से शुभकामनाएँ दी थी क्योंकि उस परिदृश्य में एक नई साफ़ सुथरी, नई सोच वाली व्यवस्था का अभ्युदय नजर आ रहा था, लेकिन अब लग रहा है कि ये तिलिस्म के अलावा कुछ नहीं था.

तेलंगाना के लोग गत ४० वर्षों से अलग राज्य की माँग करते आ रहे थे. वहाँ के लोगों ने केन्द्र को मजबूर कर दिया कि क्षेत्रीय उन्नति व विकास के लिए आन्ध्रप्रदेश को टुकड़ों में बाँट दिया जाये. ये कष्टपूर्ण प्रक्रिया जन आन्दोलन के रूप में चला. दुर्भाग्य से लोकप्रिय नेता YSR के असामयिक मृत्यु के बाद कैंसर की तरह फ़ैल गया और जो फोड़ा अब फूटा है, वह इतना बदबूदार होगा किसी ने नहीं सोचा था. लोकसभा के आम चुनाव नजदीक होने के कारण सभी सम्बंधित राजनैतिल दलों ने इस गरम तवे में अपनी रोटी सेकने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. बहुविध नुकसान हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को अवश्य हुआ है. अभी आगे सम्पत्तियों व नदी जल के बँटवारे में और कटुता उभरने की आशंकाएं बरकरार हैं.

कुल मिलाकर सारा खेल कुर्सियों के लिए हो रहा है. दुर्भाग्य यह है कि इस देश में १०० से ज्यादा क्षेत्रीय दल कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं, और उनके नेतागण जाति, धर्म, क्षेत्र तथा भाषाई आधार पर जनभावना भड़काकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. हर तरह से राष्ट्रीय हितों की अनदेखी हो रही है.

श्रीलंका सरकार ने अपने देश में तमिल उग्रवादियों का संहार कर दिया है. यह सच है कि वहाँ मासूम लोग भी मारे गए होंगे. मानवाधिकारों का बड़ी मात्रा में उल्लंघन भी हुआ होगा. यहाँ अब उनका विवेचन करना कोई मायने नहीं रखता है, लेकिन उस विष के बीज हमारे अपने तमिलनाडु में अभी भी मौजूद हैं, जो कि स्व. राजीव गाँधी के हत्यारों की सजा माफी के मामले में उजागर हुए हैं. इसी सन्दर्भ में कश्मीर और पंजाब के दुर्दांत आतंकवादी हत्यारों के बेशर्म हिमायती भी सबके सामने आ गए हैं.

ऐसा भी नहीं कि हमारी भ्रष्ट व्यवस्थाओं के चलते पिछले वर्षों में विकास के कार्य नहीं हुए, चाहे आप इन्हें नकार लो लेकिन हर क्षेत्र में हम आगे बढ़े हैं, लेकिन यह कहना सही होगा कि हम इससे कही ज्यादा अच्छा कर सकते थे. कभी कभी ऐसा भी लगता है कि हम सब रेगिस्तान में भटके हुए लोगों की तरह नखलिस्तान की तलाश में दौड़े जा रहे हैं, जिसका कोई अंत नहीं है.

अंत में सम्पूर्ण समस्या का समाधान यह है कि राजनैतिक दलों की संख्या सीमित रखने के लिए संवैधानिक उपाय किये जाय और विधान सभाओं व लोकसभा के चुनाव व्यक्ति के नाम पर न होकर पार्टी के आधार पर कराये जाएँ . मतों के अनुपात से प्रतिनिधित्व मिले. इससे चुनावों में होने वाले खर्चों में लगाम लगाने के साथ साथ योग्य व्यक्ति वहाँ पहुचेंगे.
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2 टिप्‍पणियां:

  1. सब अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुये प्रतीत होते हैं, बड़े बड़े काम और विकास करा नहीं सकते, तो उनकी छोटी मन भावनाओं का समर्थनध्वज लिये तने रहते हैं।

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  2. राष्‍ट्रीय अस्मिता केवल एक खोखला शब्‍द मात्र रह गया है।

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