मंगलवार, 16 सितंबर 2014

स्टोन माउन्टेन

हमारी ये दुनिया अनेक अजूबों से भरी पड़ी है. अमेरिका (यूनाइटेड स्टेट्स) के जॉर्जिया प्रांत में अटलांटा शहर के बगल में डीकाल्ब काउंटी में एक एक ही पत्थर से बना एक विशाल पहाड़ है, जो स्टोन माउन्टेन के नाम से प्रसिद्ध है. सन 1996 के ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेल इसके नजदीक ही हुए थे.
स्टोन माउन्टेन (सौजन्य विकीमीडिआ ) 
किसी विशिष्ट जगह को सँवार कर दर्शनीय बनाने की कला में अमेरीकी लोग माहिर हैं. ये पहाड़ पांच मील के घेरे में 1668 फीट ऊंचा है. स्टोन माउन्टेन (इसे पहले रॉक माउन्टेन भी कहा जाता था) की बस्ती को स्टोन माउन्टेन सिटी' के नाम से जाना जाता है, जो की अटलांटा-अगस्टा के पुराने मार्ग पर स्थित है. इस बस्ती की वर्तमान आबादी लगभग 6000 बताई जाती है. इसका पुराना इतिहास बताता है कि आदिवासियों का ये गाँव 1864 के युद्ध में पूरी तरह उजड़ गया था. बाद में सन 1915 में इसे पुन: बसाया गया.

हर सप्ताहांत स्टोन माउन्टेन के सामने बनी हुयी लम्बी-चौड़ी दीर्घा पर सैलानियों, दर्शकों, विशेषकर बच्चों की भारी भीड़ रहती है. ग्रेनाईट के इस पहाड़ पर काट कर एक बड़ा सा चौकोर स्क्रीन बनाया गया है जिस पर तीन घुड़सवार योद्धाओं की आकृतियां नायाब कारीगरी से बनाई गयी हैं. शाम होते ही इस स्क्रीन पर डेढ़ घटे का लेजर शो होता है. हजारों की संख्या में लोग हरी दूब पर बैठकर या लेटकर इसका आनंद लिया करते हैं. इससे पहले, दिन में हाइकिंग करके या रोप-वे द्वारा पहाड़ के शीर्ष पर जाकर चारों ओर के मनोहारी दृश्य देखे जाते हैं. शीर्ष पर रेस्टोरेंट व अन्य सुविधाएं मौजूद रहती हैं. वहाँ पर एक ब्रॉडकास्टिंग पॉइंट भी बना हुआ है.

नीचे शहर में क्लब, थ्री-डी थियेटर, गीत-संगीत गाते-बजाते कलाकारों-युक्त रेस्टोरेंट हैं. दुकानों में कलात्मक वस्तुऐं व बच्चों की मनभावन सभी चीजें उपलब्ध रहती हैं. तलहटी में विशाल पार्क है, ताल है, जहां रिवर-बोटिंग होती है. सबसे मजेदार है यहाँ का सत्रहवीं शताब्दी का रेलवे सिस्टम, जिसमें पुराने डिजाइन के भाप के इंजन एवं लकड़ी के डिब्बे हैं. रेलगाड़ी दर्शकों को लेकर पहाड़ के चारों और चक्कर काटकर मुख्य स्टेशन पर लौट आती है. रेल रूट पर घने जंगल व उनके बीच बीच में छोटे स्टेशनों पर नाचते गाते रंग बिरंगी पोशाकों में यात्रियों का स्वागत करते हुए कलाकारों को देखना अद्भुत अनुभव होता है. मुझे अपनी पत्नी सहित, अपने परम आदरणीय समधी जी (अब स्वर्गीय) एल.एम.जोशी जी, बेटी गिरिबाला, दामाद भुवन जी तथा नातिनी हिना के साथ सितम्बर 2006 में इस स्टोन माउन्टेन को देखने का सौभाग्य मिला था. हमारे साथ एक अन्य भारतीय परिवार भी था. ऐसा लगता है मानो कल ही की बात हो.
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बुधवार, 10 सितंबर 2014

सुखई बैद

बच्चों, तुमने फारसी कहानियों में ऊँट के गले में तरबूज फंसने के किस्से जरूर पढ़े होंगे. मैं यहाँ जो कहानी तुमको सुनाने जा रहा हूँ, वह शुद्ध देसी है. ये कोई पौराणिक कथा या गल्प कतई नहीं है, लेकिन अर्वाचीन घटना भी नहीं है. यों मान के चलो कि आज से दो-ढाई हजार साल पहले घटित घटना है.

उस जमाने में कोई मेडीकल कॉलेज या इंस्टीट्यूट तो होते नहीं थे, गुरुकुल में ऋषियों/मुनियों/सन्यासियों या सदगुरुओं से मौखिक ज्ञान मिलता था. यों भी होता था कि किसी पुराने अनुभवी वैद्य जी की शागिर्दी करके सीखते रहो.

सुखई बैद एक ऐसा ही नौसिखिया नीम हकीम था. एक बार जब वह किसी रेगिस्तानी इलाके के गाँव से गुजर रहा था, उसने एक मजेदार दृश्य देखा कि एक पालतू ऊँट एक साबुत तरबूज निगलने की कोशिश कर रहा था, और तरबूज के गले में अटकने से परेशान होकर धरती पर गिर पड़ा. ऊँट चराने वाला उसका मालिक एक किशोर लड़का था, जिसने बिना कोई देर किये ऊँट के गर्दन पर एक मूंगरी (कपड़े धोने में काम आने वाला छोटा बैटनुमा लकड़ी का हथियार) से ठोककर गले में फंसे हुए तरबूज को फोड़ दिया. इस तरह ऊँट श्वास अवरोध के कारण मरने से बच गया और खड़ा होकर चल पड़ा.

सुखई बैद ने फूली हुई गर्दन की ऐसा ठोक-पीट इलाज पहली बार देखा. जब वह अपने गाँव पहुंचा तो उसने खबर फैला दी की वह इस बार गलगंड’ (घेंघा) रोग का जादुई इलाज सीख कर आया है.

दरअसल, गलगंड तो आयोडीन नामक तत्व की कमी से होने वाली एक शारीरिक विकृति है, जिसमें गर्दन स्थित थाईराइड की ग्रंथि फूल कर मोटी हो जाती है. आज भी जिन इलाकों के पेयजल में आयोडीन की प्राकृतिक रूप से कमी पाई जाती है, वहाँ के निवासियों में ये रोग बहुतायत में पाया जाता है. इसलिए सरकार द्वारा निर्देश हैं की आयोडीन की कमी पूरी करने के लिए आयोडाइज़्ड नमक ही बेचा-खाया जाए.

सुखई बैद के पास गलगंड का जादुई इलाज कराने के लिए पहला मरीज भारीभरकम गोपू पहलवान आया. गाँव के बच्चे, बूढ़े और जवान सब बड़ी उत्सुकता से सुखई का जादुई करिश्मा देखने के लिए इकट्ठा हो गए. सुखई बैद ने बड़े इत्मीतान से गोपू पहलवान को जमीन पर लिटाया और उसके गर्दन के नीचे तकिया रख कर ऊपर से मूंगरी दे मारी। नतीजन गोपू तड़पता हुआ वहीं ढेर हो गया. देखने वाले समझ गए की सुखई ने मूर्खतापूर्ण तरीके से गोपू को मार डाला है. तुरंत पंचायत बुलाई गयी, और पंचों ने फरमान जारी किया कि इस अपराध की पहली सजा सुखई को गोपू की लाश को अपनी पीठ पर लाद कर पांच मील दूर शमशान घाट तक अकेले पहुंचाना पड़ेगा और दूसरी बड़ी सजा ये होगी की सुखई को बारहपत्थर बाहर(गाँव बदर) होना पडेगा.

पंचायत का हुक्म था, सुखई को बड़े कष्ट के साथ गोपू की ढाई मन की लाश को उतनी दूर तक ढोना पडा, और फिर गाँव छोड़ कर दूर किसी अनजाने गाँव में अजनबी की तरह रहना पड़ा.

कुछ वर्षों के बाद सुखई के उस नए गाँव में पुराने गाँव से एक लड़की ब्याह कर आई जिसने सुखई बैद को पहचान लिया और गाँव में बात फैला दी कि सुखई बैद गलगंड का जादुई इलाज जानता है.  जब गाँव के जिम्मेदार लोगों ने सुखई से से संपर्क किया तो उसका पहला प्रश्न था, यहाँ शमशान घाट कितनी दूर है? 

सुखई का प्रश्न सुन कर गाँव वाले शंकित हो गए और उसकी पूरी पड़ताल करके वहाँ की पंचायत ने उसकी नीम हकीमी बंद करवा दी. शायद तभी से "नीम हकीम खतरा-ए-जान" का मुहावरा भी चल पड़ा. अंग्रेजी में इसे कहते हैं "A little knowledge is a dangerous thing".
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रविवार, 7 सितंबर 2014

मेरी फ़िक्र मत करना

पचासी साल की उम्र में जब मास्टर जगदीश उपाध्याय जी ने अपना नश्वर शरीर छोड़ा तो गाँव के सभी लोगों को डर था कि उनकी जीवनसंगिनी रुपसा देवी भी कहीं भावावेश में ऐसा ना कर बैठे कि गाँव-बिरादरी को दोहरा सूतक झेलना पड़े. इसमें बहुत सच्चाई है कि इस जोड़े को आपस में अगाध प्रेम रहा. इसे यों भी व्यक्त किया जा सकता है कि वे एक जान दो शरीर थे. इनका साठ वर्षों का वैवाहिक जीवन दो हंसों के जोड़े की तरह रहा. हालत यहाँ तक रही है कि गाँव के लोग इनके प्रेम-बंधन की कसमें खा लेते हैं.

पिछले महीने ही एक अनपेक्षित घटना इसी गाँव में घटी कि मदनलाल शर्मा के देहावसान पर उनकी अर्धांगिनी सुमित्रा रानी ने लाश उठाने से पहले ही चुपचाप सल्फास की छ: गोलियां निगल ली थी और शर्मा जी को अकेले विदा नहीं होने दिया. इस बारे में बहुत सी चर्चाएँ हुई. कोई कहता है की उनके बेटों में माता-पिता के प्रति प्रतिबद्धता नहीं थी और बहुएँ कर्कश तथा दुःखदायिनी हैं; कोई कहता है कि सुमित्रा रानी पति की जुदाई बर्दाश्त नहीं कर पाई थी. इस घटना के मद्देनज़र अब जब जगदीश उपाध्याय मरणासन्न हैं तो सबकी तीखी नजरें वृद्धा रुपसा देवी पर थी. 

ग्रामप्रधान ने तुरंत कुछ जिम्मेदार लड़कों को उसकी ख़ास निगरानी पर लगा दिया ताकि वह जहर खाकर या कोसी नदी में कूदकर अपने प्रियतम के साथ ही जाने का उपक्रम न कर सके.

जगदीशचंद्र उपाध्याय पेशे से अध्यापक थे और सत्ताईस साल पहले सेवा से रिटायर हो गए थे. रुपसा देवी उम्र में उनसे केवल दो साल छोटी थी. उनके पास भगवान का दिया हुआ बहुत कुछ था, लेकिन ऊपर वाले ने उनके नाम कोई औलाद नहीं लिखी थी. जगदीशचन्द्र जी कहा करते थे जिन बच्चों को उन्होंने पढ़ाया है, वे सब उनकी संतान ही तो हैं. हाँ, प्रौढ़ होने तक पति-पत्नी दोनों ही औलाद के लिए मंदिरों में मन्नतें जरूर मांगते रहे थे पर दैविच्छा पर किसका वश है? वे ये भी सोचते विचारते हैं की जिनके आठ आठ संतानें हैं, वे कहाँ सुखी रहते हैं? उलटे बच्चों के कार्यकलापों व व्यवहार से दुखी रहते हैं.

हमारे ग्रामीण समाज में वृद्धाश्रम जैसी संस्था की कोई कल्पना नहीं है, पर पुतघर (धर्मपुत्र) रखने की कई मिसालें हैं. मास्टर जगदीश उपाध्याय जी ने अपने एक भतीजे नवीनचंद्र को विधिवत गोद तो नहीं लिया, पर बचपन से ही अपनाया हुआ है. इसलिए उसी को अपने बुढ़ापे का सहारा समझ कर स्नेह-प्यार न्यौछावर करते रहे हैं. नवीन भी अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझता है. मदनलाल शर्मा के घर में हुई दुखांत घटना से बहुत भयभीत है. वह ताऊ जी की मृत्यु की कल्पना से सिहर उठता है कि कहीं ताई जी को हृदायाघात ना हो जाये या वह कोई घातक कदम ना उठा ले. इसलिए उसने घर का कोना कोना छान मारा है कि कहीं कोई विषैली चीज ना पड़ी हो. वह केवल ताई जी का एक ताला पड़ा हुआ संदूक नहीं खोल सका है जिसमें संदेहास्पद सामान हो सकता था.

जब से जगदीशचंद्र जी के बोल बंद हो गए थे, रुपसा देवी ने भी बोलना बंद कर दिया था. निगरानी में लगे सभी लड़के अंतिम क्षणों में चैतन्य होकर घर-बाहर घूम रहे थे. मास्टर जी ने अपने प्राण नेत्र द्वारों से त्यागे तो शरीर को नहला धुला कर मुंह में तुलसीपत्र, गंगाजल व स्वर्ण पत्रिका डाली गयी. बैतरनी पार करने के लिए बछिया की पूंछ पकड़ाई गयी, शरीर पर चन्दन का लेप किया गया, बांस और सूखी घास का बिछोना बनाकर सफ़ेद चादर से चारों कोने बांधे गए, तब मास्टर साहब को अंतिम यात्रा के लिए इस पर लिटाया गया. दर्शनार्थियों ने अंतिम दर्शन किये। रुपसा देवी को महिलाओं ने सहारा देकर सात उलटे फेरे लगवाये, और फिर वह प्रणाम की मुद्रा में पैरों के पास बैठ गयी. ऊपर से कफ़न का लाल कपड़ा डाला जाने लगा. पुष्प और गुलाल डालने की तैयारी हुई तो रुपसा देवी एकाएक उठकर घर में गयी अपना बक्सा खोला अंजुरी भर कर चांदी के सिक्के निकाले और अर्थी के पास बाहर आ गयी. अर्थी उठाने के साथ जब राम नाम सत्य है की आवाज हुयी तो रुपसा देवी सिक्के अर्थी पर उछालते हुए जोर से बोल पड़ी, जाओ जगदीश्वरो! खुशी, खुशी जाओ. मेरी फ़िक्र मत करना.

उपस्थित जन समूह ग़मगीन होते हुए भी  मुस्कुरा उठा.
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सोमवार, 1 सितंबर 2014

हमारा पड़ोसी शहर - रुद्रपुर

सन 1994 में नैनीताल जिले को दो जिलों में बांटा गया; मैदानी भाग को महान क्रांतिकारी सरदार उधमसिंह, जिसने इंग्लैण्ड जाकर जलियांवाले काण्ड के हत्यारे जनरल ओ. डायर को मार कर बदला लिया था, के नाम पर उधमसिंह नगर रखा गया और इसका मुख्यालय बना रुद्रपुर शहर.

आज का रुद्रपुर शहर एक तेजी से उभरता हुआ मेगा सीटी है.  यह आजादी से पहले एक उपेक्षित स्थल था. घनघोर जंगलों के बीच दलदली जमीन पर कल्याणी तथा बेगुल नदियों के बीच तराई का वह भू-भाग था जहा इंसानों को रहने-बसने में डर लगता था. इलाका गर्मियों में बेहद गर्म रहने के साथ साथ खूखार जंगली जानवरों का बसेरा था. इसके अलावा बारहों महीने मच्छरों का आवास भी था. मलेरिया तब जानलेवा हो जाया करता था क्योंकि इसका ईलाज नहीं था.

कहा जाता है कि किसी बात पर प्रसन्न होकर मुग़ल बादशाह अकबर ने चौरासी माल की जागीर राजा रुद्रचंद्र को दी थी, उसने ही रुद्रपुर की स्थापना की थी.जागीर का क्षेत्र चौरासी कोस होने के कारण इसे चौरासी माल या लगान नौ लाख होने के कारण नौलखिया माल भी कहा जाता था. ये जागीर पूरब में शारदा नदी से लेकर पश्चिम में पीली नदी तक फ़ैली थी जिसमें वर्तमान नानकमत्ता, सितारगंज, किच्छा, रुद्रपुर, गदरपुर, काशीपुर, बाजपुर व जसपुर समाहित है.

सन 1590 के आसपास राजा रुद्रचन्द्र ने सात एकड़ ऊंचे स्थान पर एक दुर्ग का निर्माण करवाया. इतिहासकार ई. टी. एडकिंसन ने हिमालयन डिस्ट्रिक्ट गजटेयर में  तथा श्री बद्रीदत्त पांडे ने इसका उल्लेख कुमायूं का इतिहास में किया है. 

सन 1802 में लार्ड बेलेजली और अवध के नवाब के मध्य हुए संधि के कारण गोरखपुर, रूहेलखंड (नैनीताल के तराई क्षेत्र सहित) ईस्ट इंडिया कम्पनी के नियंत्रण में चला गया. अब से सौ वर्ष पहले तक ये क्षेत्र चोरों, लुटेरों, डकैतों और अपराधियों का अभयारण्य रहा. ब्रिटिश सरकार ने आम लोगों को यहाँ बसने के लिय बहुत से लालच भी दिए; सिंचाई के लिए बाँध व नहरें बनवाई. यहाँ की वनसंपदा का दोहन किया गया, शिकारियों के लिए शिकारगाह बने और जमीन को साफ़ करके खेतीयोग्य बनाने का काम चलाया गया.

आज जहाँ रुद्रपुर का मुख्य बाजार है, वहाँ शहर बसने से पहले बुक्सा जनजाति के लोगों के कच्चे झोपड़े हुआ करते थे. सन 1948 के आते आते उनकी बस्ती उजड़ गयी. सन 1949-50 में नई बसावट का ब्ल्यू प्रिंट तैयार हुआ. कोलोनाइजेशन के बाद रिहायसी क्वार्टर्स बने. सन 52-53 तक जेनेरेटरों से बिजली आपूर्ति होती थी. बाद में जब लोहिया हेड खटीमा में पनबिजलीघर बना तो वहां से बिजली लाई गयी. सन 1951-52 में काशीपुर बाईपास पर एक पातालफोड़ कुंवा खोदा गया जो पीने के पानी का मुख्य स्रोत था. सन 1952 में ही तराई का व प्रदेश का प्रथम कृषि हाईस्कूल यहाँ खोला गया था. कोलोनाईजेशन अस्पताल तथा शंकर राइसमिल भी तभी बनाए गए. सन 1994 के आसपास रुद्रपुर को बसाने का काम टाऊन एरिया ऑथोरिटी के सुपुर्द किया गया.

1960 में पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना हुयी, नोटिफाइड कमेटी का गठन हुआ, सड़कें बनी सरकारी गोदाम व कार्यालय लाये गए, बैंक आये, 1974 में डिग्री कालेज खोला गया, 1982 में चलता फिरता श्याम टाकीज आया, 1864 में किच्छा रोड पर श्रीराम हौंडा कारखाना स्थापित हुआ. इस प्रकार सब ऐतिहासिक धटनाक्रम चलता रहा. शुरुआत में विस्थापितों, भूतपूर्व सैनिकों, स्वतन्त्रता सेनानियों तथा कृषि स्नातकों को रुद्रपुर के आसपास बसाया गया. आज रुद्रपुर में पंजाबी, कुमाऊँनी, नेपाली, मुसलमान, जैन, ईसाई तथा बंगाली लोगों का बाहुल्य है.

रुद्रपुर का औद्योगिक नगरी के रूप में विकास 1976-77 में प्रारम्भ हुआ. सिडकुल में 500 से ज्यादा इकाईयां हैं. कुछ कारखानेदार नई इकाइयों को मिलने वाली छूट का लाभ ल्रेकर यहाँ से अन्यत्र पलायन भी कर गए हैं. पर टाटा मोटर्स, डाबर आदि अनेक बड़े कारखाने अपना कारोबार कर रहे हैं, जिनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लाखों लोगों को रोजगार मिल रहा है. ये भूमि जो कि मुख्यरूप से बढ़िया चावल के लिए प्रसिद्ध थी, अब औद्योगिक उत्पादों के अलावा कृषि वैज्ञानिक व इंजीनियरिग के श्रेष्ठ टेक्नोलोजिस्टों का उदगम स्थल भी बन गयी है.

पिछले 10-15 वर्षों में रुद्रपुर का चेहरा बिलकुल बदल गया है. नया मैट्रोपॉलिटन कल्चर विकसित हो रहा है. सभी सुविधाओं से लैश शानदार आवासीय कालोनियां, चौड़ी सुन्दर सड़कें, ऊंची ऊंची वास्तु के नए नमूने व पांच सितारा होटल सैलानियों को विस्मित करते होंगे.

इस शहर को आबादी के हिसाब से गत वर्ष नगर निगम का दर्जा प्राप्त हो गया है. रेल मार्ग, सड़क मार्ग तथा हवाई अड्डा सब कुछ यहाँ है, लेकिन तिपहिया साइकिल रिक्शों व ऑटो रिक्शों से सड़कें-गलियाँ सब तरफ घिरे रहते हैं. इसलिए इसको स्मार्ट सिटी बनाने में अभी काफी समय लगेगा.
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